आजकल मैं "बंगला की श्रेष्ठ कहानियाँ" पढ़ रहा हूँ और कल रात को प्रेमेन्द्र मित्र की एक कहानी "महानगर" पढ़ रहा था. कहानी का मुख्य पात्र है रतन, एक बच्चा जो पिता के साथ नाव में कलकत्ता आया है और पिता की नजर बचा कर अपनी बहन चपला को ढ़ूँढ़ने निकल पड़ता है. बहन शादी के बाद पति के घर गयी, जहाँ से कोई उसे उठा कर ले गया था और जब वापस मिली तो उसे पति और पिता के घरों में जगह नहीं मिली. रतन को सिर्फ उस जगह का नाम मालूम है जहाँ उसकी दीदी रहती है इसलिए ढ़ूँढ़ना आसान नहीं है पर आखिर वह उसे खोज ही लेता है. रतन बहुत छोटा है नहीं समझ पाता कि उसकी दीदी क्या करती है पर इतना समझ जाता है कि उसे घर वापस नहीं आने दिया जायेगा. अंत में रतन, पिता के पास वापस जाने से पहले दीदी को कहता है कि जब वह बड़ा हो जायेगा तो दीदी को अपने साथ ले जायेगा.
इस कहानी के पहले दो पृष्ठ, यानि कहानी का करीब २० प्रतिशत भाग, महानगरों की विषमतओं के बारे में दार्शनिक विवेचना है, कैसे बड़ा शहर कटु और मधुर दोनों रसों का समन्वय है पर क्यों गरीबों के हिस्से में कटु अनुभव ही अधिक मिलते हैं. इसी से सोच रहा था कि शायद आजकल के लेखक कथानक में अपने विचार ले कर इस तरह से स्पष्ट सामने नहीं आते, बल्कि अपनी बातें कहानी के पात्रों के मुख से कहलवाते हैं. इसी तरह, एक अन्य बंगला लेखक, बिमल मित्र, अक्सर इसी तरह अपनी कहानियां और उपन्यास एक लम्बी दार्शनिक विवेचना से प्रारम्भ करते हैं.
कुछ भी हो, लेखक का कहानी में स्वयं को छुपाना आसान नहीं. कभी वह खुद कहानी का पात्र बन कर "मैं, मुझे, मेरी" कहानी सुनाते हैं. कभी वह पात्रों के आसपास के वातावरण के बारे में समझाते दिखते हैं. कभी कभी वह चालाकी से अपने पात्रों के साथ इतना घुल मिल जाते हैं कि लगे कि वह कहानी अपने दृष्टिकोण से नहीं, एक "ओबजेक्टीव" दृष्टिकोण से बता रहे हैं, यानि मैं सिर्फ वही बता रहा हूँ जो हुआ था, पर हर सच्चाई देखने वाले की नजर के साथ बदल जाती है और लेखक स्वयं को नहीं छुपा पाता. फिर भी मुझे प्रेमेंद्र मित्र या बिमल मित्र का तरीका अधिक इमानदार लगता है, कि प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर दीजिये कि लेखक का दृष्टिकोण क्या है, वह किस पात्र की तरफ है.
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स्वामी जी ने बताया कि हमारा चिट्ठा खोलने के साथ उनके क्मप्यूटर पर किसी केसीनों के तीन पोपअप खुल जाते हैं. सुन कर बहुत चिंता हो रही है, क्या चिट्ठे पर किसी हिंदी विरोधी "हैकर" की बुरी नजर तो नहीं पड़ी. क्या किसी अन्य पाठक को भी यह अनुभव हुआ है? मेरे क्मप्यूटर पर तो ऐसा नहीं होता और मैंने अपने मित्र के यहाँ से भी कोशिश करके देखा, वहाँ भी ऐसा नहीं हुआ. आप में ही से कोई अनुभवी साथी राय दीजिये कि क्या करना चाहिये, धन्यवाद.
***
आज की तस्वीरें का विषय है जल पक्षी.
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सुनील दीपक जी,
जवाब देंहटाएंकरीब १६ साल पहले, सम्भवतः वर्ष १९८९ में, मैंने दिल्ली दूरदर्शन पर "दीदी" नाम की टेलीफिल्म देखी थी। कहानी बिल्कुल यही थी। फिल्म में कथानक का प्रस्तुतीकरण इतना सशक्त था, कि आप के ब्लाग पर उस कथानक को पुनः पढ़ कर, मुझे वह टेलीफिल्म की याद पुनः झकझोर गयी। दीदी की भूमिका में, दीप्ति नवल ( जहाँ तक मुझे याद है) ने बड़ा प्रभावशाली अभिनय किया था। यह फिल्म और साथ ही साथ यह कथा बहुत झकझोरती है, यदि आप गम्भीरता से सोचें। आज आपके ब्लाग पर इस कृति और इसके लेखक की जानकारी पा कर मैं आप को धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सका।
धन्यवाद इस बात का भी, कि, आप की अनुभव सम्पन्नता से, हमारे ज्ञान का भी स्तर बढ़ता रहता है।
इस कहानी/पुस्तक के नाम और प्रकाशक के बारे में बता सकते हैं ?
-राजेश
(सुमात्रा)
I don't see no popup. Using firefox on FC4.
जवाब देंहटाएंSunil ji,
जवाब देंहटाएंOn my office pc, It opened 3 pop-ups again on IE, no popup open on firefox!
I will test this on other PCs and will let you know.
I am trying to find out what exactly is going on! is there a malware on my office pc which is causing this? (But why for user site only?) Or something on your end!