बुधवार, जनवरी 18, 2006

कम कीमत के लोग

कल शाम को जब बिनिल का टेलीफोन आया तो मैं पहले तो समझ ही नहीं पाया कि कौन बोल रहा है. बिनिल बोलोनिया के "हिंदू धर्म सुरक्षा समिति" के अध्यक्ष हैं. इनकी समिति के करीब ४० सदस्य हैं और सभी लोग बंगाली हैं, कुछ कलकत्ता के और कुछ बंगलादेश के हिंदू. हर साल यह समिति बोलोनिया की दुर्गा पूजा का आयोजन करती है.

बिनिल ने एक परेशानी का समाधान खोजने के लिए टेलीफोन किया था. उनकी समिति के एक सदस्य, ५० वर्षीय दलाल शाह, का कुछ दिन पहले अस्पताल में देहांत हो गया. वह बोलोनिया में अकेले ही रहते थे. उनके परिवार में उनकी पत्नी, बेटी और बेटा, कलकत्ता रहते हैं. दिक्कत यह है कि दलाल यहाँ गैर कानूनी तरीके से आये थे और बँगलादेश का पासपोर्ट बनवा कर शरणार्थी बन कर रह रहे थे. उनके पासपोर्ट पर लिखा है कि वह अविवाहित हैं. तो कैसे उनका शरीर वापस भारत उनके परिवार के पास क्रिया कर्म के लिए ले जाया जाये, यह समस्या है.

सुना है कि कलकत्ता से लोगों को यहाँ लाने के लिए और बँगलादेशी पासपोर्ट दे कर उन्हें शरणार्थी बनवाना कोई नयी बात नहीं है और गैर कानूनी ढ़ंग से प्रवासियों को यूरोप लाने का जाना माना तरीका है.

बिनिल ने बताया कि उन्होंने भारतीय और बँगलादेशी दूतावास, दोनो से ही बात की है पर अभी तक कोई हल नहीं निकाल पाये हैं. मैंने उन्हे कहा है कि मैं भारतीय दूतावास से बात करुँगा, देखें क्या हल निकलता है. अगर कुछ हल नहीं निकले तो दलाल शाह का क्रिया कर्म यहीं होगा और उनकी अस्थियाँ ही वापस भारत जायेंगी, जिन्हें किसी पासपोर्ट की जरुरत नहीं.
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अगर आप पढ़े लिखे हैं, वैधानिक तरीके से विदेश आये हैं, तो शायद गैर कानूनी ढ़ंग से आये गरीब, अकसर कम पढ़े लिखे लोगों के जीवन के बारे में जान नहीं पाते, क्योंकि उनसे सम्पर्क कम ही होता है. यह लोग सड़कों पर कारों के शीशे साफ करते हैं, फ़ूल या अखबार बेचते हैं, रेस्टोरेंट की रसोई में काम करते हैं, और छोटे घरों में दस बीस लोग मिल कर रहते हैं.


बिनिल से बात करने के बाद इसी के बारे में सोच रहा हूँ. कितनी कहानियाँ हैं उनके जीवन की, जिन्हें सुनाने के लिए उनके पास शब्द नहीं हैं और हमारे पास उन्हें सुनने की न तो इच्छा है न समय. उनके जीवन सस्ते हैं, वे मरे या जियें, किसी को कुछ फर्क नहीं पड़ता.
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आज की तस्वीरें हैं दिल्ली में कुतुब मीनार के पास फ़ूलों की मंडी से, ऐसे लोगों की जिनके जीवन भी बहुत सस्ते हैं.


6 टिप्‍पणियां:

  1. हिन्दी में किसी और को ब्लोग करते हुए देख के बहुत खुशी हुई। मैं भी हिन्दी में लिखने की कोशिश कर रहा हूँ, लेकिन मेरे पढ़ने वाले ज़्यादातर सिर्फ अंग्रेज़ी ही जानते हैं।
    http://mosilager.blogspot.com

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  2. निर्मल वर्मा की एक कहानी पढी थी, शायद नाम था "दूसरा घर ". बिलकुल यही कहानी थी , जो आपने बयान की .
    तकलीफ होती है कितने लोग ऐसे ही जीवन जी जाते हैं

    प्रत्यक्षा

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  3. सुनील भाई,
    काफ़ी दिनो बाद आपका ब्लॉग देख रहा हूँ,एक एक करके सारी पोस्ट पढ रहा हूँ।इस बार की यात्रा के काफ़ी अच्छे चित्र खींचे है आपने। बधाई।

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  4. आख़िर लोग भारत से बाहर, ख़ास कर पश्चिमी देशों में, बसने के लिए क्यों मरते हैं? कामचोरी, आलस्य, आज़ादी, सामाजिक समरसता आदि इसका उत्तर नहीं हो सकता. तो क्या मात्र पैसे के लिए लोग वतन से दूर जाना चाहते हैं?

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  5. Suniil jii,

    aapne baDaa maarmik prashna uThaayaa hai. mujhe aapkaa blog bahut pasand hai parantu mai.N aapke blog me.N devanagari cut aur paste nahi.N kar paataa ky.Nki "edit" nahii.N avaailable hotaa hai.

    laxminarayan

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  6. पिछ्ले दिनो मै माचेराता से वापस आ रहा था तो एक पंजाबी भारतीय से मुलाकात हुई, वो वापस जा रहा था 2 दिन बाद, क्योंकि उसको पिछ्ले सात महीनो से तनखाह नही दी थी उसने, जिसके साथ वो काम करता है, और वो कुछ करने मे असमर्थ है|

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"जो न कह सके" पर आने के लिए एवं आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

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