अभी कुछ समय पहले उन्होने इस फिल्म को श्रीलँका में फिल्माया और प्रदर्शित किया है. जब फिल्म देखने का मौका मिला तो वाराणसी में हुए उस हल्ले का सोच कर ही, मन में उत्सुक्ता थी कि भला क्या कहानी होगी जिससे भारतीय संस्कृति के रक्षक इतना बिगड़ रहे थे ?
फिल्म का कथा सारः भारत 1938, स्वतंत्रता संग्राम में पूरा भारत जाग उठा है. छोटी बच्ची छुईया, विवाह के थोड़े से दिनों के बाद विधवा हो जाती है और उसके पिता उसका सिर मुँडवा कर, एक विधवा आश्रम में छोड़ जाते हैं. आश्रम में शासन चलता है बूढ़ी मधुमति का. छुईया पहले तो सोचती है कि उसकी माँ उसे लेने आयेगी पर फ़िर धीरे धीरे आश्रम के कठोर जीवन में घुलमिल जाती है. पूजा करना, नदी में स्नान करना, एक समय सादा खाना खाना, व्रत रखना, विवाहित औरतों पर अपने छाया न पड़ने देना, शुभ अवसरों पर दूर रहना, आदि नियम हैं आश्रम के. यही विधवा धर्म है, मन को, आशाओं को, उमँगों को मार कर जियो क्योकि पत्नी पति की अर्धाँगिनी है और पति के मरने के बाद वह भी आधी मृत ही है, ऐसा सबक मिलता है छुईया को. और जब वह भोलेपन से प्रश्न पूछती है, "विधवा पुरुषों का आश्रम कहाँ है ?" तो उसे डाँट भी मिलती है.
आश्रम में छुईया को सहारा मिलता है मितभाषणी, गँभीर शकुंतला से और ऊपर के कमरे में, बाकी विधवाओं से अलग रहने वाली लम्बे बालों वाली सुंदर कल्याणी से. केवल भीख से काम नहीं चलता आश्रम का, हिजड़े गुलाबो की मदद से और मधुमति की आज्ञा से रोज़ रात के अँधेरे में कल्याणी बिकती है, भले घरों के पुरुषों के साथ सोने के लिए.
नारायण, जो बाहर से पढ़ लिख कर शहर वापस आया है, गाँधी जी के विचारों से बहुत प्रभावित है. वह कल्याणी को देख कर उससे प्रेम करने लगता है और विवाह करना चाहता है. कल्याणी के विधवा होना उसे नहीं रोकता क्योंकि वह राममोहन राय द्वारा चलाये गये विधवा पुनर्विवाह की बात मानता है. पर कल्याणी का अतीत उसके भविष्य के सामने रुकावट बन जाता है और यही नियती नन्ही छुईया के जीवन को भी डसने वाली है. धर्मभीरु शकुंतला में विद्रोह की आग लग जाती है, तब वह गाँधी जी का प्रवचन सुनती है और उससे प्रभावित हो कर छुईया के भविष्य को वह गाँधी जी को सपुर्द कर देती है.
टिप्पणीः फिल्म देखने में बहुत सुंदर बनी है और पिछली सदी के प्रारम्भ का विधवाओं का जीवन बहुत अच्छे तरीके से दिखाया गया है. अभिनय की दृष्टी से छुईया के रुप में सरला और शकुंतला के रुप में सीमा विश्वास बहुत बढ़ियाँ हैं. विधवा आश्रम की सभी विधवाएँ सचमुच की बूढ़ी विधवाएँ लगती हैं, अभिनेत्रयाँ नहीं. कल्याणी के रुप में लिज़ा राय सुंदर तो बहुत हैं, अभिनय भी ठीक ही है पर वह अभिनेत्री लगती हैं, पात्र के व्यक्तित्व से आत्मसार नहीं कर पातीं. नारायण के रुप में जोह्न अब्राहम भी अच्छे हैं.
मेरे विचार में फिल्म में ऐसी कोई बात नहीं थी कि उसके खिलाफ़ इतना हल्ला किया गया. फिल्म अवश्य हिंदु धर्म द्वारा विधवाओं के प्रति विचारों की आलोचना करती है पर ऐसी आलोचना तो अन्य बहुत सी फिल्मों ने भी की है.
हर धर्म में सही और गलत बातें होती हैं. बहुत सी बाते जो पहले जमाने में मान ली जाती थीं, आज के युग में जब हम मानव अधिकारों, सभी मानवों को आत्मसम्मान से जीने के अधिकारों की बात करते हैं, तो वे पुरानी बातें गलत लग सकती हैं. अच्छा धर्म वही है जो बदलते समय के साथ अपनी गलती मान ले और अपने धर्म में सुधार ला सके, उसे बदल सके. मेरे विचार में इससे धर्म नीचे नहीं जाता, बल्कि उसकी इज्जत बढ़ती है.
जो लोग धर्म का नाम ले कर, या अपने धर्म का बहाना बना कर, यह चाहते हैं कि कोई उनके धर्म से जुड़ी गलत बात की चर्चा न करे तो शायद उनमें अपने धर्म के लिए आत्मविश्वास की कमी है ?
सन 2001 में हुई जनगणना के अनुसार भारत में 3.4 करोड़ विधवाऐँ हैं. मैं जानता हूँ कि आज बहुत सी विधवाऐँ, अपनी मर्जी से अपना जीवन जीती हैं. मेरी दादी ने विधवा हो कर भी पढ़ाई की, पढ़ाने का काम किया और अपने बच्चों को पढ़ाया. मेरी माँ ने भी विधवा हो कर ही हम सब बच्चों को पढ़ाया. पर अगर 3.4 करोड़ में 10 प्रतिशत विधवा औरतें भी पुराने धर्म सम्बंधी विचारों की वजह से घुट घुट कर जीवन बिताने के लिए मजबूर हैं तो हमारे हिंदू धर्म के गुरुओं को इसके खिलाफ अपनी आवाज़ उठानी चाहिए.
जिस दिन शँकराचार्य जी जैसे धर्मगुरु, विधवाओं के साथ हो रहे या दलितों के साथ धर्म के नाम पर हो रहे अमानवीय व्यावहारों के प्रति बोल पायेंगे, उसी से हमारा धर्म मज़बूत होगा.
कुरीतियों को छोड़ कर यदि सुनीतियों को अपनायें तो मज़ा न आ जाय
जवाब देंहटाएं"अगर 3.4 करोड़ में 10 प्रतिशत विधवा औरतें भी पुराने धर्म सम्बंधी विचारों की वजह से घुट घुट कर जीवन बिताने के लिए मजबूर हैं तो हमारे हिंदू धर्म के गुरुओं को इसके खिलाफ अपनी आवाज़ उठानी चाहिए." - सच्चाई यह है कि 3.4 करोड़ में 10 प्रतिशत विधवा औरतें भी पुराने धर्म सम्बंधी विचारों की वजह से घुट घुट कर जीवन न बिता रही हों तो मुझे आश्चर्य होगा। हम आस्तिकों को अधिकार तो नहीं है कि हम धर्म के मामले में कोई राय दें, देना भी नहीं चाहते, पर यह भी सच्चाई है कि हाल के समय में विभिन्न धर्मों के गुरुओं और नेताओं ने मिलकर जिस तरह का आतंक फैलाया है, उससे यह तो स्पष्ट है कि आवाज मुख्य धारा के धर्मगुरुओं की तो नहीं उठेगी। हाँ, स्वामी अग्निवेश जैसे समाज सुधारक नेताओं ने हमेशा ही ऐसे मुद्दों पर सही रुख अपनाया है और उन्हीं के नेतृत्व से ही उम्मीदें रहेंगीं।
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह ऍक और शानदार लेख. ईस्से बेहतर फिल्म समीक्षा मैंने नही देखी.
जवाब देंहटाएंजहाँ तक विषय सामग्री का सवाल है, तो हमारे समाज में महिलाओं का शोषण लंबे समय से चला आ रहा है. मेरा मानना है की इकोनोमि ग्रोथ से ही हमारे समाज में परिवर्तन आऍगा. जब महिलाऍ आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो्गी तभी ईन समस्याओं का हल होगा.
गड़बड़ कर ही गया।
जवाब देंहटाएंऊपर अपनी टिप्पणी में 'नास्तिकों' की जगह 'आस्तिकों' लिख गया। सुनील जी, संशोधन कर दें तो आभार रहेगा।
वाह सुनील जी, बहुत अच्छी समीक्षा की है। अब तो फ़िल्म देखने का मन है, हो सका तो अवश्य देखूँगा। :)
जवाब देंहटाएंसुनील जी आपने सही समीक्षा की है, सच बात तो यह है कि आज कल के हालात मे धर्म सिर्फ ऍक मजाक का विषय बन चुका है।
जवाब देंहटाएंआपने अच्छे विस्तार से लिखा है, संयोग से इसी शनिवार ये फिल्म देखी, फिल्म अच्छी है और आप सही कर रहे हैं कि इसका विरोध किसलिये ऐसा तो फिल्म में कुछ था नही।
जवाब देंहटाएंफिर भी एक बात समझ नही आयी, जहाँ सारी विधवाओं ले बाल मुढ़े (उतरे) थे वहीं लिज़ा राय के बाल क्यों नही ऊतारे गये और इस बात के लिये उस वक्त के समाज और बाकी विधवाओं और लोगों के विरोध का क्या हुआ।
हर एक पुराने समाज में कुरीतिया होती है, मेरा मानना है कि बजाय इतिहास के गढ़े मुर्दे उखाड़ने से अच्छा हे कि आज की विसंगतियों और कुरीतियों पर ज्यादा ध्यान दिया जाय।
It's amazing how well you write!!Superlative!!You owe it to yourself to improve your visibility!!And tons of people will
जवाब देंहटाएंappreciate your lekhni,if they get to read your thoughts!!
धर्म के बारे में अभिव्यक्त आपके विचारों से मैं पूरी तरह सहमत हूँ ।
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