चीन की राजधानी बेजिंग में एक कुष्ठ रोग का अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन था जहाँ मैं विषेश अतिथि के लिए निमंत्रित था और भाषण देना था. सोच रहा था कि नयी क्या बात कहूँ. वैसे तो भाषण पहले से लिख कर भिजवाया था पर मैं उससे संतुष्ट नहीं था. खैर भाषण का समय आया और लिखा हुआ भाषण देने के अंत में कुछ नया जोड़ कहने का विचार अचानक ही आया. बोला, "कुष्ठ रोग से हुई विकलांगता वाले लोग आसमान के तारों की तरह हैं, हैं पर दिन की रोशनी में किसी को दिखते नहीं और हमें इंतज़ार है उस रात के अँधेरे का जब हम भी दिखाई देंगे और कोई हमारे बारे में भी सोचेगा."
भाषण समाप्त हुआ तो बहुत तालियाँ बजीं. उन दिनों मैं एक बहुत बड़ी अंतर्राष्ट्रीय संस्था का अध्यक्ष था और जैसा ऐसे पद पर होने से होता है, बहुत लोग भँवरों की तरह आस पास मँडरा रहे थे. उनमें से अनेक लोगों ने भाषण की तारीफ की, पर उस तरह की तारीफ को एक कान से सुन कर दूसरे से निकल करना ही बेहतर होता है. मैं वह वाक्य कैसा लगा, यह सुनना चाहता था. कुछ समय बाद ब्राजील के एक मित्र ने कहा कि हाँ उसे भाषण के अंत में कही वह बात बहुत पसंद आयी तो बहुत अच्छा लगा. सम्मेलन के कुछ दिन बाद इंदोनेशिया की एक जान पहचान की डाक्टर ने मुझे ईमेल भेजा कि मैं उसे वह अंत में कहा गया वाक्य ठीक से लिख कर भेजूँ क्योंकि वह उसे भी बहुत अच्छा लगा था. यानि कि डायलाग में दम था.
यह तो मैं ही जानता था कि वह वाक्य कहाँ से आया था. मेरा नहीं था, चुराया हुआ था. वह वाक्य था हिंदी की फ़िल्म "ज़िंदगी ज़िदंगी" से जिसमें वहीदा रहमान ने सुनील दत्त से कहा था, "हम वो तारे हें जो दिन की रोशनी में दिखाई नहीं देते पर हम हैं, हम हैं!"
यह अभिप्राय है मेरा एक डायलाग को धाँसू डायलाग कहने का, वह वाक्य जिसका गहरा अर्थ हो और जो सोचने पर मजबूर करे. वैसे तो बहुत से फ़िल्मों के डायलाग होते हैं जो जनता को बहुत भाते हैं जैसे "दीवार" में शशि कपूर का कहना, "मेरे पास माँ है", या शोले में संजीव कुमार, अमजद खान और धरमेंद्र के कई डायलाग, जैसे "अब तेरा क्या होगा कालिया?", पर मुझे वह सही मायनो में धाँसू डायलाग नहीं लगते क्योंकि फ़िल्म के संदर्भ से बाहर उनका कोई विषेश अर्थ नहीं बनता.
क्या आप बता सकते हैं अपना कोई ऐसा प्रिय डायलाग जिसे भूल नहीं पाये या जिसका आप के लिए कोई विषेश अर्थ हो?
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मैं तो सर खुजाने पर मजबुर हो गया हूँ, क्या फिल्मी डायलोग भी इतनी उच्च कक्षा का हो सकता हैं? या फिर ऐसे डायलोग ध्यान बाहर ही होते रहे.
जवाब देंहटाएंअब ध्यान देना पड़ेगा ताकी आपको भेज सकु.
Zindagi aur maut uparwaley ke haath mein hai jahaanpanaah. Isey na hum badal saktey hain na aap. - Anand..
जवाब देंहटाएंहम जहाँ खडे है, लाईन वही से शुरू होती है ;)
कुछ संवादों ने तो मेरी कई मान्यताओं को बदल दिया;
जवाब देंहटाएंअभिमान: विश्वास में ही सब कुछ है, बहस में नहीं, मानो तो भग्वान नहीं तो पत्थर।
सत्यकाम: सत्य बोलने का अभिमान नहीं, साहस होना चाहिये।
शिंडलर्स लिस्ट: शक्ति/सत्ता का यह अर्थ नहीं कि हम क्या दण्ड दे सकते हैं, शक्ति/सत्ता का अर्थ है कि हम कितनी सहायता कर सकते हैं।
शोले: सबसे बड़ा बोझ होता है एक बाप के कंधे पर जवान बेटे की लाश का।
यह पता नही किस फ़िल्म का संवाद है लेकिन सोचने पर मजबूर करता है "हम एक लमहे में सारी ज़िंदगी जी लेते हैं।" पक्का गुलज़ार साहब का लिखा हुआ होगा।
सूची बहुत लम्बी है, फिर कभी…।
बाऊजी ने कहा गाँव छोड़ दो, सबने कहा पारो को छोड़ दो, पारो ने कहा शराब छोड दो, आज तुम कह रहे हो हवेली को छोड़ दो। एक दिन आएगा, जब कोई कहेगा दुनिया छोड़ दो। -देवदास
जवाब देंहटाएंऔर शोले का, जय का मौसी से संवाद
मौसी आप तो गलत समझ रही है, मेरा यार वीरू ऐसा वैसा थोड़े ही है.......
"kaanton ko murjhaane ka khauf nahi hota"! [Mughal-e-Azam, Anarkali ne Saleem se kaha]
जवाब देंहटाएंकाला पत्थर में राखी पूछती है 'कहां के हो?' तो अमिताभ बोलते हैं 'कुछ लोग कहीं के नहीं होते'
जवाब देंहटाएंगोविंदा की किसी फ़िल्म में था ये डायलाग। हालाँकि कॉमेडी करते वक्त का डायलाग है, मगर ध्यान देंगे तो काफ़ी बड़ी बात लगती है (कम से कम मुझे तो) -
जवाब देंहटाएं"...अरे! लाश है, लाश को एन्जॉय करो.."