गुरुवार, जुलाई 26, 2007

बाहर से बुढ़ऊ, भीतर से हृतिक रोशन

मन में चाहे आप अपने आप को जैसा भी सोचें, लोग तो आप की उम्र ही देखते हैं. और फ़िर सच भी है कि बाल सफ़ेद होने के साथ साथ शरीर याद दिलाने लगता है कि इस संसार की चीज़ो से बहुत अधिक मोह बनाना ठीक नहीं. कभी बैठने लगो तो अचानक कमर में दर्द होने लगता है, कभी बैठ कर उठो तो हाथ कोई सहारा खोजते हैं, नीचे ज़मीन पर बैठना पड़े तो कामेडी फ़िल्म का दृश्य लगता है. कभी टाँगे इधर रखो, कभी उधर, कहीं चैन नहीं आता और पीठ किसी दीवार के सहारे के सपने देखती है.

कुछ तो सफ़ेद बालों ही का विचार करके गम्भीर दिखने की कोशिश करनी पड़ती है वरना लोग कहे कि यह बूढ़ा तो बहुत मस्त है. कुछ काम का तकाजा भी है, जो तभी प्रारम्भ हो गया था जब डाक्टरी की पढ़ाई चल रही थी. मेडिकल कोलिज में आपस में जितना भी दँगा फसाद कर लीजिये, बाहर वालों के सामने तो शराफत और गम्भीरता ही दिखानी पढ़ती है. जैसे जैसे साल बीतते जाते हैं, यह गम्भीरता का चश्मा और मोटा बनता जाता है.

बचपन से मुझे गाने का बहुत शौक था. वैसे तो परिवार में मुझसे अच्छा गाने वाले कई लोग थे और शायद इसीलिए घर परिवार में शादी या पार्टी के मौके पर मुझे गाने के निमत्रण नहीं मिलते थे पर स्कूल और कालेज में अवश्य मित्र और अध्यापक कुछ गानों की फरमाइश करते रहते थे. कुछ गानों के लिए मित्र कहते कि "वाह यह तुम्हारा गाया हुआ तो किशोर कुमार या मुहम्मद रफी के मूल गाने से भी बढ़िया है" तो दिल खुशी से फ़ूल जाता.

नाचने का भी बहुत शौक था. दिल्ली में जानकी देवी कन्या कालेज के परिसर में एक मँच है. उस मँच पर शाम को जब कालेज की छात्राएँ घर चली जातीं तो मैं अपने आधुनिक नृत्यों के अभ्यास करता. जबकि गाने के लिए कोई मान भी लेता था कि हाँ मैं गा सकता हूँ, दुर्भाग्यवश मेरे आधुनिक नृत्यों को विषेश सराहना नहीं मिली और इस लिए मेरी यह कला ठीक से विकसित नहीं हो पायी.

पर बूढ़े और गम्भीर डाक्टरों को गाने या नाचने की अनुमति नहीं. वैसे भी यहाँ इटली में कौन सुनेगा मेरा हिंदी का गाना? नाचने के मौके कुछ मिलते हैं पर वह आधुनिक नृत्य के नहीं बल्कि इतालवी बालरूम नृत्य के, जैसे वाल्त्सर, रुम्बा, तारानतोला इत्यादि और उन सब में नियम से नृत्य करना होता है. एक पैर आगे, दूसरा पैर एक तरफ़, अब दायें घूमो, ... और यह अपने बस की बात नहीं. कभी साथ नाच रही पत्नी के पाँव को अपने पाँव से कुचलता हूँ कभी बाजू में नाच रहे अन्य युगलों से टकराता हूँ, लगता है कोई हाथी हूँ. तो जहाँ तक हो सके इस तरह के नाचों से कतराता हूँ.

इतने सालों से न गाने से, गले में जँग सा लग गया है. कभी घर में कोई न हो और खिड़कियाँ दरवाजे बंद करके कुछ गाने की कोशिश करूँ तो अपनी बेसुरी आवाज़ से आहत हो जाता हूँ. जाने कहाँ खो गयी वह मेरी सुरीली आवाज़!

खैर अंत में अपने गाने और नाचने के शौक को पूरा करने का एक बढ़िया तरीका खोजा है. काम पर साइकल से जाओ, कान में एमपी३ प्लेयर के इयरफोन लगाओ और सारे रास्ते धुनों को मन ही मन गुनगुनाओ. बाहर से अपने हाव भाव पर नियंत्रण रखो, चेहरा गम्भीर ही रहता है पर भीतर ही भीतर शरीर थिरकता रहता है. कभी कभी लोग जब मुड़ कर आश्चर्य से मेरी ओर देखते हैं तो समझ आता है कि शायद गम्भीरता का मुखौटा उतर गया हो. या तो गाने की धुन में सचमुच ऊँचे स्वर में गाने लगा हूँ या फ़िर साइकल चलाते चलाते, हाथ हैँडल पर तबले की तरह बजने लगे हैं या हवा में घूम कर तान ले रहे हैं.

और जब आसपास कोई न हो, जैसे शाम को बाग के किसी सुनसान कोने में, या फ़िर गैराज का दरवाजा बंद करके, या घर की सीढ़ियों पर, तो जल्दी से थोड़े से नाच के कुछ ठुमके और झटके भी लगा लेता हूँ.

9 टिप्‍पणियां:

  1. संजय बेंगाणी26 जुलाई 2007 को 7:51 am बजे

    हमारे पास आपके लिए एक प्रस्ताव है. गाना गाईये, रेकोर्ड करीये और हमारे लिए नेट पर रख दें. इसे पॉडकास्ट कहते है, आप जानते ही है. इससे आप भी खुश और हम भी खुश. वैसे भी आपकी शैली को "खुशी" आज भी याद करती है.

    अरे, आपको गम्भीर रहने का स्वांग करना पड़ता है, मुझे लगा भारत में ही लोग मुहँ फुलाये रहते है, यहाँ खिलखिलाना शायद लोग जानते ही नहीं या असभ्यता मानता है.

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  2. अब आपको ठुमके लगाते तो हम यहां देख नही सकते न, लेकिन आपका गाना ज़रुर सु्न सकते हैं तो फ़िर हमें कब सुनवा रहें हैं आप अपनी आवाज़ में गाना।

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  3. आप गाना जरूर गाइए। हम सुनेगें।संजय जी के कहे अनुसार करं।

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  4. तो कब सुनवा रहे हैं गाना. जल्दी बताइए!

    और एक बात कहना चाहुंगा. इंसान दिमाग से बुड्ढा होता है, तो मुझे लगता है कि आप हमेशा जवान ही रहोगे, लालाजी की तरह. :)

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  5. "यह बूढ़ा तो बहुत मस्त है"...क्या बात कही है..
    वैसे मैं सोंच ही रहा था कि आजकल आप इतना कम क्यों लिख रहे हैं....नाचने गाने से फुरसत मिलेगी तब ना :)
    ठुमके लगाते समय ध्यान रखियेगा....कमर का :)

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  6. कुछ काम का तकाजा भी है, जो तभी प्रारम्भ हो गया था जब डाक्टरी की पढ़ाई चल रही थी. मेडिकल कोलिज में आपस में जितना भी दँगा फसाद कर लीजिये, बाहर वालों के सामने तो शराफत और गम्भीरता ही दिखानी पढ़ती है

    ये खूब कहा और एक मास्‍टर से ज्‍यादा इसे कौन समझेगा- बाजार में चलते हुए लगता है कि सारे विद्यार्थी दुलिया भर में फैले मोरल पुलिस अफसर हैं जो हम पर नजर रखते हैं :) । अरे भैया नई सड़क के कुलचे वाले से अपने पसंदीदा कुलचे तक खाने से कतराते हैं कि सारे विद्यार्थी तो इसी इलाके के हैं-

    अज्ञेर हॉं JDM के उस मुच से एकाध कविता या वाद विवाद में बोले हैं - खूब याद है। आजकल जज बनने जाते हैं- अच्‍छा मंच है, अच्‍छी लड़किया होती थी़।

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  7. सुनील जी

    आपने अपना नाम लगा लगा कर हमारी कहानी लिखी है क्या?

    -लगता है कोई हाथी हूँ. तो जहाँ तक हो सके इस तरह के नाचों से कतराता हूँ.??

    -खिड़कियाँ दरवाजे बंद करके कुछ गाने की कोशिश करूँ तो अपनी बेसुरी आवाज़ से आहत हो जाता हूँ.??

    -गैराज का दरवाजा बंद करके, या घर की सीढ़ियों पर, तो जल्दी से थोड़े से नाच के कुछ ठुमके और झटके भी लगा लेता हूँ.??

    --पूरी की पूरी कहानी ही छाप दी आपने तो हमारी...चलिये, जैसी आपकी इच्छा. अब क्या कहें??

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  8. अपने मन की जवानी देखिये। तन तो एक बहाना है।

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  9. June ki dopahar thi.Hum sab Meerut main chhutiyan mana rahe thay ki achanak notice kiya ki tum gayab ho gaye ho.Poora ghar chhan mara par tumhara koi pata nahin tha!!!Aur mile'kahan?Chhat par,bhari dhoop main gaate aur naachte huay.."Hota tu peepal main hoti amarlata teri...".Tumhein shayad yaad na ho.Ye 1959 ki baat hai.Tum sirf 5 saal ke thay.
    Aur tumhara ''pattharon ka shehar''ka gaana toh kabhi bhool hi nahin sakta!

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"जो न कह सके" पर आने के लिए एवं आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

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