मैं इस बात से सहमत हूँ कि धर्मेंद्र के अभिनय को वह मान नहीं मिला जो उसे मिलना चाहिये था. अपनी प्रारम्भ की बहुत सी फिल्मों में उन्होंने गम्भीर, मृदुल, शर्मीला, आदर्शवादी नवयुवक का भाग बहुत खूबी से निभाया. सत्यकाम, बंदिनी, ममता, बहारें फ़िर भी आयेंगी, अनपढ़, नया ज़माना, अनुपमा, जैसी कितनी ही फ़िल्मों में उनकी जगह पर किसी दूसरे अभिनेता को सोचना कठिन है. पर गम्भीर फिल्मों के साथ साथ, शुरु से ही उन्हें व्यवसायिक सफलता भी मिली और फ़ूल और पत्थर, आये दिन बहार के, काजल, आँखें, नीला आकाश जैसी फिल्मों में उन्होंने बम्बईया हीरो के भाग भी बखूब निभाये.
उनकी अच्छी फ़िल्मों की जब बात होती है तो मुझे लगता है कि "बहारें फ़िर भी आयेंगी" को भुला दिया जाता है. यह फ़िल्म पहले गुरुदत्त के साथ बन रही थी और गुरुदत्त की अकस्मात मृत्यु के बाद इसे धर्मेद्र के साथ बनाया गया. इसमें धर्मेंद्र जी एक बार फ़िर गम्भीर और आदर्शवादी पत्रकार के रूप में थे जिनसे अखबार की मालिक और सम्पादिका माला सिंहा भी प्यार करती है और उसकी छोटी बहन, तनूजा भी. 1966 में बनी इस फ़िल्म को बचपन में देखा था पर उस समय मुझे बहुत अच्छी लगी थी. पर इसके बारे में कभी विषेश कुछ नहीं सुना या पढ़ा.
शायद कुछ धर्मेंद्र जैसी ही नियती उनके समय की प्रसिद्ध अभिनेत्री माला सिंहा की थी. प्यासा, अनपढ़, बहारें फ़िर भी आयेंगी आदि बहुत सी फ़िल्मों में अच्छा अभिनय भी किया पर उनका परिचय भी व्यवसायिक सफल फिल्मों के रूप में अधिक देखा जाता है और उन्हें अच्छी अभिनेत्री के रुप में नहीं याद किया जाता. उस समय की अच्छी अभिनेत्रियों की बात होती है तो नूतन, वहीदा रहमान, मीना कुमारी आदि तक आ कर रुक जाती है.
पर आऊटलुक के आलेख में मुकुल यह भी लिखते हैं कि धर्मेद्र के मुकाबले कुछ अन्य अभिनेता जैसे संजीव कुमार को अच्छा अभिनेता माना गया जो कि देखने में अच्छे नहीं थे, कोई विषेश अच्छे अभिनेता नहीं थे, अतिनाटकीय थे, इत्यादि. मैं यह नहीं मानता कि अगर धर्मेंद्र को अपने अभिनय के लिए अनुरूप नाम नहीं मिला तो इसका कारण अन्य अभिनेता थे. दूसरों को छोटा दिखा कर किसी को बड़ा दिखाना मुझे गलत बात लगती है. प्रार्मभ की फ़िल्मों में संजीव कुमार देखने में बहुत अच्छे लगते थे, बहुत सी फ़िल्मों में उन्होंने अपने स्वाभाविक अनाटकीय अभिनय से अपनी कला दिखाई थी. 1968 की फ़िल्म "शिकार" में धर्मेंद्र हीरो थे और उनके साथ इस फ़िल्म में संजीव कुमार भी थे, दोनों का ही अभिनय अच्छा था हालाँकि यह एक आम व्यवसायिक फ़िल्म थी.
धर्मेंद्र का हृषीकेश मुखर्जी द्वारा निर्देशित फ़िल्म "सत्यकाम" का एक दृष्य मुझे बहुत अच्छा लगा था और जब भी अच्छे अभिनेताओं के बारे में सोचता हूँ, इस दृष्य को उनमें गिनता हूँ. यह दृष्य फ़िल्म के अंत के करीब था जब धर्मेंद्र अस्पताल में दाखील हैं, उन्हें कैसर है पर वह यह बात अपनी पत्नि शर्मीला टैगोर से छुपाये हुए हैं, फ़िर उनके रुमाल पर खाँसी गयी खून की बूँदो को उनकी पत्नी देख लेती है तो उनकी आँखों में मजबूरी, बात छुपाने की लज्जा और अपनी मृत्यु का दुख सबकुछ बहुत सुंदर बना था. कुछ यही दृष्य, गुलज़ार ने कई साल बाद परिचय में रखा था जब पिता संजीव कुमार के रुमाल के खून को बेटी जया भादुड़ी देख लेती है, उस दृष्य में संजीव कुमार का अभिनय भी बहुत बढ़िया था पर मुझे धर्मेंद्र वाला दृष्य ही अधिक प्रिय है. (सत्यकाम की तस्वीर आऊटलुक से)
अच्छा अभिनेता कौन कैसा होता है यह कहना कठिन है, पर अगर कोई मुझसे पूछे की आज के सबसे अच्छे अभिनेता कौन हैं तो में तीन नाम लूँगा, पंकज कपूर, के के मेनन और इरफान खान. तीनो अभिनेताओं में क्षमता है कि जब पर्दे पर हों तो आप उन पर से नज़र न हटा पायें.
पंकज कपूर के निभाये मकबूल फ़िल्म के रोल के बारे में सोच कर आज भी झुरझरी आ जाती है. अभी कुछ दिन पहले उनकी एक अन्य फ़िल्म देखी थी "हल्ला बोल". वैसे तो फ़िल्म बहुत अच्छी नहीं लगी पर पंकज कपूर बहुत अच्छे लगे. उनका गुरुद्वारे में बैठे रहने वाला दृष्य देखिये, गुरु ग्रंथ साहब का पाठ हो रहा है, वह कुछ नहीं कहते पर उनकी आँखें और उनका साँस लेना बहुत कुछ कह देता है.
के के मेनन में भी यही क्षमता है. कुछ दिन पहले शोर्य फ़िल्म के बारे में अभिनेता राहुल बोस का एक साक्षात्कार पढ़ रहा था जिसमें वह कह रहे थे कि के के वाला भाग अधिक प्रशँसा पाता है क्योंकि वह नाटकीय है जबकि उनका स्वाभाविक रूप से अभिनय करना लोग नहीं समझ पाते. राहुल बोस बुरे नहीं पर मुझे लगता है कि के के का अभिनय अधिक सशक्त था इसलिए नहीं कि वह भाग नाटकीय था. हनीमून ट्रेवलस जैसी हल्की फुल्की फ़िल्म में भी के. के. लाजवाब थे.
इरफ़ान खान के बारे में तो सभी मानते ही हैं. अँग्रेजी में बनी मीरा नायर की "नेमसेक" (The Namesake) में वह मुझे बहुत अच्छे लगे थे.
और अगर अभिनेत्रियों की बात की जाये और आप से तीन नाम पुछे जायें तो आप किसका नाम लेंगे? मेरे तीन नाम होंगे सीमा विस्वास, सुरेखा सीकरी और शबाना आज़मी. तीनों अभिनेत्रियाँ जब परदे पर आती हें तो मैं उनके सिवा किसी को ठीक से नहीं देख पाता.
सीमा बिस्वास और सुरेखा सीकरी के बारे में मुझे शिकायत है कि उनके भाग फ़िल्मों में बहुत छोटे होते हैं और उन्हें अपनी प्रतिभा के लायक फ़िल्में नहीं मिलती. सीमा बिस्वास की अंतिम फ़िल्म जिसमें उन्हें ढंग के रोल में देखा वह दीपा मेहता की अंग्रेजी फ़िल्म "वाटर" (Water) थी.
सुरेखा सिकरी को तो और भी कम काम मिला है पर "जो बोले सो निहाल" जैसी बेकार फ़िल्म मैंने केवल उनके लिए ही देखी थी. शबाना आज़मी इन सब अभिनेत्रियों में सबसे अच्छी किस्मतवाली हें जिन्हें अपनी प्रतिभा दिखाने का कई बार बढ़िया मौका मिला. उनकी मेरी सबसे प्रिय फ़िल्में हैं स्वामी, अपने पराये और मोरनिंग रागा (Morning Raga).
सबकी अपनी अपनी किस्मत, मार्केटिंग और व्यवस्था. अच्छा विश्लेषण किया है.
जवाब देंहटाएंACtor ki bat ho to hum NASEER & PARESH ko kaise bhool sakte hain?
जवाब देंहटाएंkhari baat ,mai bhi dharmendr ka bahut bada fan hun...darsal media ki marji hai ..kab kise duh le...vahi bhagvaan..
जवाब देंहटाएंदीपक जी:
जवाब देंहटाएंअच्छा विश्लेषण किया है आप ने आज के अभिनेता और अभिनेत्रियों का । अभिनेत्रियों में मुझे तब्बू और नन्दिता सेन भी अच्छी लगती हैं ।
आप को पढना अच्छा लगता है ।
Deepak Ji,
जवाब देंहटाएंmaine aaj se hi apke blog ko padha hai, aapne badi khubsurti se apne pasandida abhineta/abhinetri ko describe kiya hai
abhinetriyo me mujhe jaya Bachhan bhi achchi lagti hai
ashu gupta