शुक्रवार, जुलाई 17, 2009

रिश्ते

करीब तीस साल पहले की बात है, तब मैं उत्तरी इटली के एक अस्पताल में ट्रेनिंग ले रहा था. अस्पताल में साथ काम करने वाली अन्ना मुझे बहुत अच्छी लगती थी. जल्दी ही उससे दोस्ती हो गयी, अक्सर शाम को उसके घर जाता. अन्ना की दस साल की बेटी थी जूलिया और उसका पहले पति, यानि जूलिया के पिता से तलाक हो चुका था. अन्ना तब एक युवक से साथ बिना विवाह के रहती थी. अन्ना के साथी से मेरी कभी कोई विषेश बात नहीं हुई और आज उसका नाम भी याद नहीं. शाम को उसके घर के बाग में बैठ कर, कई बार अन्ना से मेरी लम्बी बातचीत और बहस होती.

जैसे कि एक बार बात शादी की हुई तो उसने पूछा कि भारत में कैसे युवक युवतियाँ परिवार के पसंद किये हुए जीवनसाथी से विवाह को मान जाते हैं? उसे यह बात समझ में नहीं आती, उसे लगता कि यह तो युवक और युवती दोनों के साथ अन्याय है. जब आप किसी संस्कृति में पले बड़े हुए हों तो कई बातें आप को स्वाभाविक लग सकती हैं, लेकिन जब कोई उनके बारे में प्रश्न पूछता है तो आप उस स्वाभाविक लगने वाली बातों के छुपे पहलुओं के बारे में सोचने को विवश हो जाते हैं.

इस तरह अन्ना से हुई बहसों ने मुझे मन ही मन में स्वाभाविक लगने वाली कई बातों पर सोचने का मौका दिया. अन्ना से सिर ढकने, शरीर ढकने के बारे में एक बार बात हुई तो वह बोली कि इटली में और यूरोप में सभी लड़कियाँ और स्त्रियाँ बदन दिखाती हैं तो क्या इसका अर्थ है कि यहाँ के लड़कों और पुरुषों में अधिक सभ्यता है, कि वह लड़कियों को नहीं छेड़ते? उसका तर्क था कि बात यह नहीं कि यूरोपीय पुरुष, एशिया या अरब देशों के पुरुषों से अधिक सभ्य हैं बल्कि फर्क है कि यहाँ का समाज इस तरह के व्यवहार को पुरुषों के पिछड़ेपन की तरह से देखता है, उसे सामाजिक स्वीकृति नहीं है और कानून ऐसे मामलों में सख्ती से आता है. कुछ दिन पहले एक पत्रिका में बुर्का पहनने के बारे में तर्क दिया जा रहा था कि इससे औरतें अधिक सुरक्षित महसूस करती हैं तो अन्ना की कही वही बात मन में आ गयी.

मध्यमवर्ग में पला बड़ा हुआ, मुझे अन्ना की उन्मुक्ता बहुत आकर्षित करती. उसका गर्मियों में छोटे छोटे कपड़े पहनना, खुल कर हँसना, देर रात तक बाहर साथ घूमना, उसका बिना विवाह के अपने साथी के साथ रहना, उसका सेक्स के बारे में बेझिझक बात करना.

मेरी ट्रेनिंग समाप्त हुई, शहर बदला और अन्ना से सम्पर्क छूट गया. करीब एक साल बाद, टेलीफोन पर बात हुई तो उसने बताया कि उसने अपने साथी से, जिसके साथ कई सालों से रह रही थी, विवाह करने का फैसला किया था. फ़िर बहुत समय तक कोई सम्पर्क नहीं हुआ और करीब दो साल बाद, एक अन्य पुराना मित्र मिला जिसने बताया कि विवाह के एक साल बाद ही, अन्ना और उनके दूसरे पति ने तलाक ले लिया था. वह दोनों तो अनजान नहीं थे, शादी से पहले छह या सात साल साथ रहे थे. इतने साल साथ रह कर भी क्या वह एक दोनो को ठीक से नहीं पहचान पाये थे, मेरे मन में इस तरह के बहुत प्रश्न उठे. जूलिया का सोच कर बुरा भी लगा.

अभी कुछ समय पहले अमरीकी पारिवारिक मनोविज्ञान की पत्रिका (Journal of Family Psychology) में एक शौध के बारे में पढ़ा जिसमें यह निष्कर्श निकला है कि पहले बिना शादी के साथ रहने वाले युगल जब विवाह करते हें तो उनमें असंतोष तथा तलाक अधिक होते हैं, तो अन्ना की शादी की बात याद आ गयी. शौध करने वालों का कहना है कि कई बार साथ रहने वाले युगल विवाह के बारे में ठीक से नहीं सोचते, बस चूँकि साथ रह रहे हैं तो चलो शादी भी करलो यहीं सोच कर विवाह करते हैं पर मन में इस बात को स्पष्ट नहीं करते कि विवाह किस लिये, क्या बदलेगा, और इस तरह जल्दी शादी से असंतुष्ट हो जाते हैं. बिना विवाह के साथ रहने वाले क्या विवाह करके बदल जाते हैं?

शायद बात मन में विवाह के प्रति बने विचारों की, निष्ठा की भी है?

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समाचार पत्र में पढ़ा कि जर्मनी में बर्लिन के एक वेश्याघर ने बदलते पर्यावरण की रक्षा के लिये नया कदम उठाया है. अगर आप वेश्याघर में कार के बजाय साईकल या जन यातायात जैसे कि बस से जायें तो वेश्याघर आप को 5 प्रतिशत की छूट देगा. इस वेश्याघर के मालिक का कहना है कि इस बात से उन्हें मुफ्त की प्रसिद्धी मिलेगी ही, पर्यावरण की रक्षा भी होगी. वेश्याघर के रेट पहले से पक्के हैं, 45 मिनट के सत्तर यूरो (करीब 4,200 रुपये).

यानि पत्नी से उकताए पुरुष अब यह कह सकते हैं कि वह तो वेश्याघर समाजसेवा की भावना से पर्यावरण को बचाने के लिए गये थे. अब आवश्यकता है कि पुरुष वेश्याओं वाले वेश्याघर भी कुछ इसी तरह का काम करे ताकि पत्नियाँ भी पर्यावरण को बचाने में समाजसेवा कर सकें और पतियों को सहयोग दे सकें!

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पति पत्नी की बातें, एक दूसरे को न समझ पाने की उल्झनें, और झगड़े. इस विषय पर चीनी कवि वांग जिंगझी (Wang Jingzhi) की एक प्रेम कविता मुझे बहुत संदर लगती है, जो 1995 में छपी थी जब वह 93 साल के थे. कविता छपने के एक वर्ष बाद उनका देहांत हो गया. 1922 में वांग अपनी प्रेम कविताओं के लिए प्रसिद्ध हो गये थे क्योंकि वह उन्मुक्त प्यार की बात करते थे और चीनी पारम्परिक मान्यताओं को ललकारते थे. 1925 में क्म्यूनिस्ट पार्टी का सदस्य बनने के बाद उन्होंने कविता लिखना छोड़ दिया था और दोबारा कविता लेखन वृद्ध हो कर किया. उनकी एक कविता की यह पक्तियाँ देखियेः

"कल रात मैंने तुम्हारी चिट्ठी का सपना देखा
जिसे मैं समझ नहीं पा रहा था, बस एक ही शब्द, "प्रेम" समझ में आ रहा था,
आशा करता हूँ कि आगे से मेरे सपने में अधिक स्पष्ट करके लिखोगी."

यानि, प्रेयसी, सच में तो तुमसे यह अपेक्षा नहीं कर सकता कि हम एक दूसरे से बात करें, और शायद आमने सामने एक दूसरे की बात को सुनना कठिन भी है, जाने कितनी बीती बातें बीच में टाँग अड़ाने आ जाती हैं. तो कम से कम सपने में कुछ समझने की आशा की जा सकती है!


11 टिप्‍पणियां:

  1. दीपक जी, बहुत दिनों बाद बहुत शानदार आलेख पढ़ा है। घटनाओं और चरित्रों के वर्णन ने ही सब कुछ स्पष्ट कर दिया।

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  2. अब क्या टिप्पणी लिखूं? लिखूँ तो पोस्ट सी लम्बी हो जाएगी. सुन्दर पोस्ट है.


    विवाह के साथ समर्पण व जिम्मेदारी, वफादारी जैसी अपेक्षाएं जुड़ी हुई है. इसलिए साथ रह रहे विवाह के बाद निभा नहीं पाते.

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  3. इसे कहते है असल ब्लोगिंग...आपने इतना कुछ कह दिया है इतने सरल तरीके से .....की ओर पढने की इच्छा हो रही है..वैसे भी विवाह को जैसी मान्यता ओर जिम्मेवारी से भारत ओर दूसरे एशियायीय देशो में स्वीकार किया जाता है .दूसरे देशो में ऐसा नहीं....लिविंग का इडा दरअसल जिम्मेवारियों से भागना ही है ...दूर की बात जाने दीजिये हमने सूरत शहर में आज से दस साल पहले लड़कियों की जो आज़ादी देखी थी वो उत्तर प्रदेश में नहीं थी....उस वक़्त वहां भी छेड़ छाड़ ओर यौन अपराध कम थे ....कमोबेश स्थान भी कभी कभी मानसिकता तय करते है...

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  4. रिश्ते मुठ्ठी मे रेत की तरह होते है; मुठ्ठी जितना कस कर पकड़ेंगे रेत उतना हाथो से फिसलते जायेंगी; मुठ्ठी जितनी ढिली रहेगी रेत उतनी सहजता से मुठ्ठी मे रहेगी।
    रिश्तो समाज मे जितना खुलापन होगा उतनी सहजता होती है। विवाह शायद एक बंधन सा हो जाता है!

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  5. पहले ब्लागिंग से ज्यादा साबका नहीं था। इधर बीच कुछ आंतरिक दबावों के कारण कुछ ज्यादा ही लिख दिया। आप संभवतः मोहल्लालाइवडाटकाम पर चल रही बहसों से परीचित होंगे। उन्हीं बहसों के संदर्भ में किसी ने हिन्दी के भविष्य के बारे में कुछ असुविधाजनक बातें कह दीं। उन्होंने हिन्दी प्रेम को तमाम ऊल-जलूल चीजों से जोड़ा। उत्तेजना में मैंने कहा कि भाड़ जाए दुनिया। मैं आर्थिक नहीं अस्तित्ववादी कारणों से हिन्दी से प्रेम करता हूं। मैंने कहा कि देश में लोग तो आप के बताए कारणों से हिन्दी से प्रेम करते हैं लेकिन विदेश में ?
    मेरा अनुमान जो भी हों.....मैं चाहता हूँ कि गर आप को असुविधा न हो तो आप एक पोस्ट इस विषय पर लिखें कि आप हिन्दी में क्यों लिखते हैं....आप के लिखे पोस्ट पढ़ने के बाद मुझे यकीन है कि आप इस प्रश्न को डील कर सकते हैं......अतः समय हो तो इस पर ध्यान दें

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  6. आप ने विवाह के बारे में जो इशारे किए हैं वो बहुत ही अस्पष्ट हैं। जिसका लोग मनचाहा पाठ कर सकते हैं। मुझे यह नहीं समझ नहीं आया कि एक साथ रह रहे थे और विवाह में क्या फर्क है। मुझे इस अपारदर्शी कहानी से यही शिक्षा मिली कि कई बार विवाह सहज संबधों को खा जाता है। विवाह,पति,पत्नि के रूढ़ छवियों को ढोने में स़्त्री-पुरूष का साहचर्य लड़खड़ा जाता है। मैं स्थाई संबधों का पैरोकार हूं। आमतौर पर लंपट लोगों को पशुओं का उदाहरण देकर पशु बनने का लाइसेंस लेने की कोशिश करते देखता हूं। ऐसे लोग विवाह के बड़े विरोधी होते हैं। मैं उनसे नाइत्तेफाकी रखता हूं। लेकिन आपने जो उदाहरण दिया उसमे मुझे विवाह संस्था का ज्यादा दोष दिखता है बनिस्बत की उस जोड़े का। सात साल प्यार से रह रहे थे तो फिर विवाह के दो साल बाद ही.....और गर इस तलाक का विवाह होने या न होने से कोई संबंध नहीं है तो फिर आपकी पोस्ट के मानी ही खत्म होते दिखते हैं। एक दूसरी बात यह है कि गर इन लोगों ने विवाह से पहले ही अलग होने का सोचा होता तो निश्चय ही उनका तलाक नहीं होता। बस वो अलग हो जाते !!
    फिर आप की क्या राय होती....दो स़्त्री पुरूष क्यों अलग हो गए ?

    शेष आप के जवाब के बाद.....

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  7. आप कौन हैं ? यह प्रश्न करना पता नहीं आपको अच्छा लगेगा या बुरा -मगर परदेस में इतनी दूर और इतने लम्बे समय से रह रहे किसी भारतीय के मन में इतना गहरा प्यार अपनी भाषा के प्रति देखकर बहुत अच्छा लगा. यकीन मानिए मन में सबसे पहला प्रश्न यही उठा कि आप कौन हैं? आप जो भी हैं आपको प्रणाम.
    अजय मलिक

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  8. मैं कौन हूँ, मैं तो मैं ही हूँ, इसमें बुरा लगने की क्या बात हो सकती है? :-)

    पर आप की बात थोड़ा सा दुख हुआ. इस बात का दुख कि आप को अचरज हो कि बाहर रह कर भी मैं अपनी भाषा क्यों नहीं भूला, और इसके लिए आप मुझे नमणीय मानें. यह भारत का ही दुर्भाग्य है कि उसके लाखों पुत्र पुत्रियाँ अपनी भाषा को नीचा समझते हैं, उसमें बोलने, लिखने में स्वयं को हीन महसूस करते हैं. इटली वाले, जर्मनी वाले, फ्राँस वाले सारा जीवन बाहर बिता देते हैं पर मुझे नहीं लगता कि कोई उनसे कहता होगा कि अरे आप अपनी भाषा को नहीं भूले!

    विदेश में पले बड़े बच्चों की बात और है पर जिस भाषा में पैदा होने से बड़ा होने तक सोचा, समझा हो, सपने देखे हों, उसे सचमुच कौन भुला सकता है?

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  9. abhi net ke liye naya hoon.blog jaise tecnical shabd se bol-chal ya peper aadi se hi parichit hua hoon.amitabh bacchan ka blog ek saal pehle padha tha kisi dost ke yahan.aaj apka post dekha aur dekhta gaya sath me kuch tippdiyan bhi dekha.
    jo na kah saka heading atyant aakarshak laga.
    rishte,aankhon hi aankhon men bhi padha.wang jinzhi ki panktiyan ko aapke dwara padhna bahut hi achha laga.
    adhura chod raha hoon!choti si beti hai bula rahi hai.wada to nahi koshish karoonga phir se aap tak pahunchu. namaste.

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  10. रूप जी, इतनी मीठी बातों के लिए धन्यवाद और छोटी बेटी के लिए शुभकामनाँए

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"जो न कह सके" पर आने के लिए एवं आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

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