
इन्हीं बातों के अनुभव से सोच रहा था कि क्या धीरे धीरे हमारी हिंदी के कुछ स्वर जो अन्य भाषाओं में नहीं होते, लुप्त हो जायेंगे?
वैसे तो एशिया में अन्य कई देश हैं, जैसे इंदोनेशिया, फिलिपीन, वियतनाम, जहाँ पर उनकी भाषा रोमन लिपि में लिखी जाती है, पर इससे उनकी भाषा ने अपने विषेश स्वर नहीं खोये. इसका एक कारण यह है कि इन देशों में आम जनता में अँग्रेज़ी बोलने वाले बहुत कम हैं, और वर्षों पहले जब इन्होंने रोमन लिपि को अपनाने का निश्चय किया तो उस समय रोमन लिपि की वर्णमाला की कमियों को पूरा करने के लिए एक्सेंट वाले वर्णों को लेटिन वर्णमाला से ले कर जोड़ लिया जिनका प्रयोग अन्य यूरोपीय भाषाओं में होता है जैसे कि à á â ã ä å. इस तरह उन्हें अपनी भाषा के विषेश स्वरों को लिखने के अन्य वर्ण मिल गये.
उदाहरण के लिए D Ð Ď d जैसे वर्णों से आप वियतनामी भाषा में द, ड, ड़, ध जैसे विभिन्न स्वरों को अलग अलग वर्ण दे सकते हैं, इसलिए जब वह रोमन लिपि में लिखते हैं तो भी अपनी भाषाओं के विषेश स्वरों के उच्चारण को संभाल कर रखते हैं. पर हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं के साथ ऐसा क्या कर सकते हैं जिससे उनकी बोली और विषेश स्वरों का रोमनीकरण न हो?
भाषा एक जैसी नहीं रहती, समय के साथ बदलती रहती है. वेदों, पुराणों, बाइबल, कुरान और अन्य प्राचीन ग्रंथों को भाषाविज्ञानी जाँच कर बता सकते हें कि कौन सा हिस्सा पहले लिखा गया, कौन सा बाद में जोड़ा गया.
भाषा समय के साथ क्यों बदलती है? इसकी एक वजह तो नये आविष्कार है, जिनके लिए नये शब्दों की ज़रूरत पड़ती है. जैसे कम्प्यूटर, ईमेल, इंटरनेट जो पहले नहीं थे, और इनसे जुड़ी बहुत से बातों के शब्द नये बने हैं. समय के साथ कुछ वस्तुओं का उपयोग कम या बंद हो जाता है, जैसे लालटेन, बैलगाड़ी आदि और इनके शब्द धीरे धीरे समय के साथ खो जाते हैं. जब छोटा था तो गुसलखाने में झाँवा होता था पाँव साफ़ करने के लिए लेकिन जब पिछली बार दिल्ली गया और छोटी बहन से पूछा कि क्या उसके घर में झाँवा मिलेगा तो वह हँसने लगी, बोली कितने सालों के बाद यह शब्द सुना है.
विद्वानों का कहना है कि भाषा के विकास का सम्बंध उसकी लिखायी से भी हैं.
बोलने वाली भाषा और लिखने वाली भाषा के बीच में क्या सम्बंध होता है इस विषय पर वाल्टर जे ओंग (Walter J. Ong) ने बहुत शौध किया है और लिखा है. उनकी 1982 की किताब ओराल्टी एँड लिट्रेसी (Orality and Literacy) जो इसी विषय पर है, मुझे बहुत अच्छी लगी. उनका कहना है कि मानव बोली का विकास तीस से पचास हज़ार साल पहले हुआ जबकि लिखाई का आविष्कार केवल छः हज़ार साल पहले हुआ. इस तरह से मानव भाषाएँ बोली के साथ विकसित हुईं. दुनिया की हज़ारों भाषाओं में से केवल 106 में लिखित साहित्य की रचना हुई. आज भी कई सौ ऐसी बोली जाने वाली भाषाएँ हैं जिनकी कोई लिपि नहीं है.
ओंग कहते हैं कि लिखने से मानव के सोचने का तरीका बदल जाता है. शब्दों के जो आज अर्थ हैं, पहले कुछ और अर्थ थे. बोले जाने वाली भाषा में जब नये अर्थ बनते थे, तो पुराने अर्थ धीरे धीरे गुम हो जाते थे. लेकिन जब से लिखाई का आविष्कार हुआ, शब्दों के पुराने अर्थ गुम नहीं होते, उन्हें खोजा जा सकता है. इसीलिए उनका कहना है कि पुरानी किताबों को पढ़ें तो उनका अर्थ समझने के लिए आज की भाषा का प्रयोग करना उचित नहीं. मैंने भी एक बार पढ़ा था कि ऋगवेद में वर्णित अश्वमेध, घोड़ों के वध की बात नहीं कर रहे हैं क्योंकि उस समय अश्व का अर्थ कुछ और भी था.
ओंग कहते हैं कि बोलने वाली भाषा में रची कविताओ़, कथाओं, काव्यों में एक ही बात को कई बार दोहराया जाता है, विभिन्न तरीके से कहा जाता है, मुहावरों का प्रयोग किया जाता है, क्योंकि इससे सुनने वालों को समझने में और याद रखने में आसानी होती है. इसी तरह से बोलने वाली भाषा के बारे में ही प्राचीन ग्रीस में भाषण देने की कला के नियम बनाये गये थे. बोलने वाले को इतना कुछ याद रखना होता है, जिससे उसकी सोच और तर्क का विकास भी सीमित रहता है. गीत, कविता में बार बार कुछ पंक्तियों को दोहराना, शब्दों की ताल, धुन खोजना, यह बोलने वाली भाषा के लिए ज़रूरी है. बोलने वाली भाषा में अमूर्त विचारों और तर्कों का गहन विशलेषण करना कठिन है, बात गहरी या जटिल भी हों तो उन्हे सरलता से ही कहना होता है, वरना लोग समझ नहीं पाते.
जबकि लिखने से मानव सोच को याद रखने की आवश्यकता नहीं, जरुरत पढ़ने पर दोबारा पढ़ा जा सकता है. इससे दिमाग को स्मृति पर ज़ोर नहीं देना पड़ता और वह अन्य दिशाओं मे विकसित हो सकता है. इसलिए विचार और तर्क अधिक जटिल तरीके से विकसित किये जा सकते हैं, कविताओं, कहानियों को भी दोहराव नहीं चाहिये, जिस दिशा में चाहे, विकसित हो सकती हैं और लेखक के लिखने का तरीका बदल जाता है. ओंग के अनुसार, इसी वजह से लिखने पढ़ने वाला मानव दिमाग विज्ञान और तकनीकी तरक्की कर पाया.
मेरे विचार में प्राचीन भारत में संस्कृत लिखी जाने वाली भाषा थी, हालाँकि अधिकाँश जनता संस्कृत लिखना, पढ़ना, बोलना नहीं जानती थी. दूसरी ओर हिंदी भाषा का विकास बोलने वाली भाषा की तरह हुआ. पिछले कुछ सौ सालों को छोड़ दिया जाये तो भारत के अधिकाँश लोगों के लिए हिंदी केवल बोलने वाली बोली थी, लिखने वाली नहीं. जब भारत स्वतंत्र हुआ तब भी पढ़ने लिखने वाले लोग भारत की जनसंख्या का छोटा सा हिस्सा थे. जब उसे लिखने लगे तो उससे उसके स्वरों तथा शब्दों में कुछ बदलाव आये. भाषा के लिखने से आने वाले अधिकतर बदलाव पिछले कुछ दशकों में ही आये हैं, जब भारत की अधिकाँश जनसंख्या शिक्षित होने लगी है, और लोग किताब पत्रिका पढ़ने लगे हैं. लेकिन क्या इस वजह से भारत के अधिकाँश लोगों के सोचने का तरीका अभी भी बोलने वाली भाषा पर टिका है, लिखी भाषा पर नहीं? और समय के साथ जैसे जैसे साक्षरता बढ़ेगी, भारतीय मानस के सोचने का तरीका इस बात से बदल जायेगा?
पिछले कुछ समय में, टीवी और टेलीफ़ोन के विकास से, बोलने और सुनने की संस्कृति बढ़ रही है, पढ़ने की कम हो रही है. दूसरी ओर, अवधी, मैथिली, भोजपुरी, जैसी भाषाएँ जो भूली जा रहीं थीं, लेकिन इंटरनेट की वजह से आज उन्हें भी नया जीवन मिल सकता है.
इन सब बदलावों के क्या अर्थ हैं, क्या प्रभाव पड़ेगा हमारी भाषा पर, उसके विकास पर? क्या रोमन लिपि में लिखी हिंदी कमज़ोर हो कर मर जायेगी, या रूप बदल लेगी? आप का क्या विचार है?
भारत में संस्कृत अभिजात्यवर्ग की भाषा रही तो वहीँ प्राकृत सामान्य जनता की बोलचाल की भाषा थी. सम्राट अशोक ने अपने शिलालेखों में अधिकतर प्राकृत का ही प्रयोग किया जिससे उसकी बात जनमानस की समझ में आ सके. हमारे दृष्टिकोण से दोनों ही प्रकार की भाषाओँ का सामानांतर विकास जारी रहेगा. हिंदी लेखन किये रोमन लिपि का प्रयोग एक निश्चित वर्ग और विशेष प्रयोजनों के लिए ही होगा भले ही अटपटा सा लगे. आपके सुन्दर आलेख के लिए आभार.
जवाब देंहटाएंएक अत्यंत ग्यानवर्धक लेख के लिए आपको धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंएक सूचना/टिप्पणी:
जबकी अंग्रेजी और अन्य कई भाषाएं वाक्य का अंत दर्शाने के लिए पूर्णविराम का उपयोग करती है, वहीं हिंदी 'खडा डंडा' इस्तेमाल करती हैं । यह अक्षर रोमन कीबोर्ड में पहले से ही उपस्थित है, जो ज्यों के त्यों उपयोग में लाया जा सकता हैं।
saarthak lekh aabhar
जवाब देंहटाएंमुझे तो लगता है कि भारत में अब अंग्रेजी को देवनागरी में लिखना शुरू कर देना चाहिये। वस्तुत: जब 'लेवेल प्लेयिंग फिल्ड' उपलब्ध कराया जाता है तो वही जीतता है जिसमें दम होता है। कम्प्यूटर, मोबाइल एवं अन्य डिजिटल युक्तियों के आरम्भिक दिन बीत चुके हैं। अब यह लगभग सर्वविदित हो गया है कि ये युक्तियाँ सभी भाषाओं में काम कर सकती है; लगभग हरेक प्रोग्राम का इन्टर्फेस किसी भी भी भाषा में बनाया जा सकता है; लगभग अनपढ़ व्यक्ति भी कम्यूटर पर काम कर सकता है।
जवाब देंहटाएंलिप्यन्तरण के प्रोग्राम आ गये; लगभग सभी भाषाओं से सभी भाषाओं में एक क्लिक पर अनुवाद सम्भव हो गया; लगभग सभी भाषाओं में आनलाइन मुक्त विश्वकोश और शब्दकोश हो गये। इससे सभी स्वभाषाप्रेमियों में आत्मविश्वास जगा है कि ज्ञानविज्ञान अपनी भाषा में भी किया जा सकता है; बस दृढसंकल्प चाहिये।
अब देखना ये है कि इन तमाम भाषा-तकनीकों का भाषाओं और लिपियों पर क्या प्रभाव पड़ता है। इसके पहले भाषा सम्बन्धी इतनी तकनीकें कभी नहीं थीं।
आप सब को टिप्पणियों के लिए धन्यवाद.
जवाब देंहटाएं@सुब्राह्मणियम जी, यही आशा कर सकते हैं कि हिंदी लिखने के लिए देवनागरी का ही उपयोग फ़ले फ़ूले.
@वैभव जी, मेरा कीबोर्ड इतालवी है और मेरी हिंदी टाईप करने में कई रुकावटें हैं, पूर्णविराम वाला सीधा डँडा, ए, ऐ, डाक्टर के ऊपर लगने वाला चंद्राकार चिन्ह, यह सब लिखना नहीं होता है, इनमें से कुछ को हिंदी वेबपृष्ठों से कापी करके रखा है, जब आवश्यकता हो पेस्ट कर दो, (यह ऐ और ए के साथ ही करता हूँ क्योंकि कापी पेस्ट करने में लिखने की गति धीमी हो जाती है).
@अनुनाद जी, आप का सुझाव बहुत बढ़िया लगा, कि अंग्रेज़ी को देवनागरी में लिखना चाहिये! :-)
ज्ञानवर्धक लेख बहुत कुछ बता गया।
जवाब देंहटाएंरोमन लिपि मतलब हिन्दी का जिस लिए नाम सबसे अधिक जाना जाता है, वही समाप्त करने का औजार। नहीं, मंजूर नहीं है। hinditathaakuchhaur.wordpress.com एक बहुत अच्छा चिट्ठा है, यहाँ पर भी रोमन लिपि की बात आई थी एक बार। और आदरणीय सुनील जी, क्या यह संभव नहीं कि आप हिन्दी लिखने के लिए एक साफ्टवेयर बनवा लें या एक सामान्य कुंजीपटल खरीद लें? देवनागरी में अंग्रेजी को लिखकर लगभग सही पढ़ा जा सकता है लेकिन हिन्दी को रोमन में लिखकर नहीं।
जवाब देंहटाएंचंदन, यह बात मैंने उस समय नहीं सोची थी कि सोफ्टवेयर से रोमन भाषा को हिन्दी में बदला जा सकता है. :)
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