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शनिवार, मार्च 26, 2011

ताकत और विरोध

कुछ दिन पहले मैंने निवेदिता मेनन और आदित्य निगम की किताब, "ताकत और विरोध" (Nivedita Menon and Aditya Nigam, "Power and Contestation: India Since 1989", Halifax and Winnipeg: Fernwood Publishing; London and New York: Zed Books 2007) पढ़ी जो मुझे बहुत दिलचस्प लगी. निवेदिता जी दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र विभाग में रीडर हैं और फेमिनिस्ट विमर्ष में भी सक्रिय रही हैं, जबकि आदित्य जी दिल्ली के विकासशील समाजों के अध्ययन केन्द्र (Centre for studies of developing societies - CSDS) के संयुक्त निर्देशक हैं. यह किताब "आधुनिक विश्व इतिहास" शृँखला के अन्तर्गत छापी गयी है जिसका उद्देश्य है 1989 के शीत युग के अन्त के पश्चात बदलती हुई दुनिया के इतिहास को समझने की कोशिश करना.

Power and contestation by Nivedita Menon and Aditya Nigam
मेनन और निगम भारत के आधुनिक इतिहास के विमर्ष में उत्तर राष्ट्रीयवाद, नव वामपंथ और फेमिनिस्ट दृष्टिकोणों का उपयोग करते हैं.

निवेदता मेनन ने पहले भी अन्य जगह "फेमिनिस्म के संस्थाकरण" के बारे में अपने विचार रखे हैं. उनका कहना है कि पित्रकेन्द्रित समाज में चाहे स्त्रियों से जुड़ी कोई भी बात हो, बलात्कार या हिँसा या दहेज की, लैंगिक समता के लिए लड़ने वाले गुट अब केवल कानून बदलने की बात करने तक ही सीमित रह जाते हैं कुछ यह सोच कर कि कानून बदलने से अपने आप ही समाज बदल जायेगा. वह कहती हैं कि फैमिनिस्म और लैंगिक समता की बात सोचने वालों लोगों को फैमिनिस्ट विचार विमर्श के व्यक्तिगत सशक्तिकरण के पक्ष पर ज़ोर देना चाहिये.

"ताकत और विरोध" में मेनन और निगम बात करते हैं भारत के आर्थिक दृष्टि से विकसित, विकासशील और विकास की आकाँक्षा रखने वाले समाज की जिसने पिछले दो दशकों में उदारीकरण नीतियों से फायदा उठाया है, और जिसके बल पर राष्ट्र तथा आर्थिक ताकत में गुटबंदी बनी है. इस गुटबंदी का दो तरह के लोग विरोध कर रहे हैं. एक विरोधी वे हैं जो इस गटबंधन से बाहर हैं और इस गटबंधन का हिस्सा बनना चाहते हैं, उससे कमाना और लाभ पाना चाहते हैं, वह अपने बाहर होने से नाराज़ हैं. दूसरी ओर के विरोधी वे हैं जो इन नीतियों से सहमत नहीं और नीतियों में बदलाव चाहते हैं. यह आर्थिक विकास समाज के आधुनिकता निर्ञाण से जुड़ा है.

उनके विषलेशण में 1989 के पहले के भारत, विषेशकर साठ और सत्तर के दशक के भारत की बुनियाद थी "नेहरु सामंजस्य", जिसके वह तीन मुख्य स्तम्भ समझते हैं - (1) आत्मनिर्भर आर्थिक व्यवस्था जो देश के उद्योगीकरण से जुड़ी थी, (2) धर्म से पृथक राजनीतिक व्यवस्था और (3) किसी भी बड़ी ताकत से अलग स्वतंत्र विदेश नीतियाँ जो विषेशकर अमरीकी साम्राज्यवाद के विरुद्ध थीं. इस नेहरु सामंजस्य को इंदिरा गाधी के शासन काल में कमज़ोर किया गया. जबकि नब्बे के दशक में यह नेहरू सामंजस्य पूरी तरह से लुप्त हो गया तथा आधुनिकता और गणतंत्र में लड़ाई शुरु हुई.

वे आधुनिकता को कुछ विषेश मूल्यों के रूप में देखते हैं जैसे कि मानव अधिकार, धर्म निरपेक्षता, इत्यादि, जबकि गणतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण मूल्य मानते हैं राजनीतिक ताकत के द्वारा अपनी आकाँक्षाओं की परिपूर्ती करना. उनका मानना है कि गणतंत्र और आधुनिकता की यह लड़ाई मँडल रिपोर्ट से खुल कर सामने आयी. इसकी वजह से अन्य पिछड़े गुटों को 27 प्रतिशत का रिर्जवेशन कोटा मिला, जिसकी वजह से उनकी ताकत बढ़ी और मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव जैसे नेता उभरे. इसकी वजह से साथ ही दलितों का भी शोषण बढ़ा और दलितों ने बीजेपी जैसे गुटों के साथ मिल कर उनके विरोध में संयुक्त पक्ष बनाया.

मंडल कमिशन की रिपोर्ट लागू होने से पहले, अन्य पिछड़े गुट भारत का 60 प्रतिशत जनसंख्या बनाते थे लेकिन उन्हें सरकारी और शिक्षण कार्यक्षेत्रों में केवल 4 प्रतिशत काम मिलता था, वह भी अधिकतर निचले दर्ज़े के काम मिलते थे. उँची जात वाले लोग भारत की जनसंख्या का 20 प्रतिशत हैं और दलित भी 20 प्रतिशत हैं, इसीलिए गणतंत्र में अपना हिस्सा पाने के लिए सवर्ण और दलित मिल कर भी लड़ रहे हैं. विभिन्न पक्षों की यह लड़ाई भारत को आधुनिकता से दूर खींचने वाली लड़ाई है.

दूसरी ओर, उनका कहना है कि पंचायती राज की संस्थाओं में औरतों के लिए सीटें रिर्ज़व करने से उँची जात वालों को अधिक फायदा हुआ है जिसकी वजह से अन्य पिछड़े दल और दलित इसके विरुद्ध हैं.

मेरे विचार में सामाजिक जीवन की सच्चाईयाँ शाश्वत नहीं, देखने वाले के दृष्टिकोण पर भी निर्भर करती हैं. समाज स्थिर भी नहीं रहता, समय के साथ बदलता रहता है. इसलिए यह तो नहीं कहूँगा कि निगम और मेनन की यह किताब कुछ बिल्कुल सच और नयी बात कहती है, लेकिन फ़िर भी इस किताब को बहुत दिलचस्पी से पढ़ा, और लेखकों के विशलेषण ने बहुत कुछ सोचने को दिया.

वैसे पिछले वर्ष के बिहार चुनावों के बारे में सोचा जाये तो मेरी दृष्टि में नितिश कुमार ने शायद "अन्य पिछड़े गुटों" के भीतर बसने वाले अन्य गुटों जैसे कि औरतों की आकाँक्षाओं पर ज़ोर दे कर, इस विमर्श में नयी जटिलता जोड़ दी है. आधुनिकता अगर आर्थिक विकास और वैश्वीकरण से प्रभावित हो रही है और दूसरी ओर, गणतंत्र में ताकत पाना आधुनिकता के मूल्यों को चुनौती दे रहा है, तो अंत में इसका गणतंत्र पर क्या प्रभाव पड़ेगा?

***

शुक्रवार, मई 28, 2010

कविता के शब्द

कुछ दिन पहले लाल्टू की कविताओं की नयी किताब मिली. कविताएँ मुझे धीरे धीरे पढ़ना अच्छा लगता है, जैसे शाम को सैर से पहले दो एक कविता पढ़ कर जाओ तो सैर के दौरान उन पर सोचने का समय मिल जाता है और इस तरह से यह भी समझ में आता है कि कविता में दम था या नहीं. अगर थोड़ी देर में ही कविता भूल जाये तो लगता है कि कुछ विषेश दम नहीं था. कभी किसी कविता से कुछ और याद आ जाता है.

लाल्टू की किताब का शीर्षक है "लोग ही चुनेंगे रंग", और शीर्षक वाली कविता बहुत सुंदर हैः

चुप्पी के खिलाफ़
किसी विषेश रंग का झंडा नहीं चाहिए

खड़े या बैठे भीड़ में जब कोई हाथ लहराता है
लाल या सफ़ेद
आँखें ढूँढ़ती हैं रंगो के अर्थ

लगातार खुलना चाहते बन्द दरवाज़े
कि थरथराने लगे चुप्पी
फ़िर रंगों की धक्कलपेल में
अचानक ही खुले दरवाज़े वापस बंद होने लगते हैं

कुछ ऐसी ही बात स्पेनी गीतकार और गायक मिगेल बोज़े (Miguel Bosé) ने अपने एक गीत में कही थी जिसमें वह ऐसे रंग के सपने की बात करते थे जो किसी झँडे में न हो. राष्ट्रीयता के नाम पर होने वाले भूतपूर्व युगोस्लोविया में होने वाले युद्ध के बारे में लिखा यह गीत मेरे पसंदीदा गीतों में से है.

कुछ दिन पहले सुप्रसिद्ध ईज़राइली कवि येहुदा अमिछाई (Yehuda Amichai), जिन्हें ईज़राइल के सर्वश्रेष्ठ आधुनिक कवियों में गिना जाता है, की एक कविता भी पढ़ीः

तुम्हारे मुझे छोड़ने के बाद
गंध को परखने वाले कुत्ते से मैंने सुंघवाया
अपनी छाती, अपने पेट को, भर ले
नाक में गंध, और तुम्हे खोजने जाये
आशा है कि तुम्हें खोज ले, और उखाड़ ले
तुम्हारे प्रेमी की गोलियाँ और काट ले
उसका लिंग, या कम से कम
अपने दाँतों में तुम्हारी एक जुराब ले आये

पढ़ कर पहला विचार आया कि यह कविता है कि विशाल भारद्वाज की किसी फ़िल्म का डायलाग? ऐसी बातें सोच तो सकते हैं लेकिन कविता में कहना क्या साहित्य है? आप का क्या विचार है?

फ़िर कल एक अन्य अच्छी कविता पढ़ी, यह कविता बच्चों के लिए है और एक विज्ञान सम्बंधित चिट्ठे पर लिखी है, कविता का विषय है एक गायिका की छोटी उँगली. हिंदी में लिखने से उसमें वह बात नहीं आ रही जो कविता में है, इसे मूल अंग्रेज़ी में ही पढ़िये.

बुधवार, मई 20, 2009

आखिरी बार

अमरीकी लेखिका और कवि जोयस केरोल ओटस् (Joyce Carol Oates) की एक कविता की कुछ पंक्तियाँ पढ़ी और उनके बारे में देर तक सोचता रहाः

आखिरी बार किसी व्यक्ति को देखो, पर तुम्हें मालूम न हो कि वह आखिरी बार है.
बस यही सब कुछ मालूम है अब, अगर उस समय यह जानते तो ....
पर उस समय नहीं जानते थे, और अब तो बहुत देर हो गयी.

मंगलवार, अप्रैल 07, 2009

जो सिर दर्द नहीं देते

इराकी मूल की कवियत्री, दुनया मिखाईल की एक कविता पढ़ी, बहुत अच्छी लगी (मेरा अनुवाद):

उन सब को धन्यवाद जिनसे प्यार नहीं करती
क्योंकि मुझे सिर दर्द नहीं देते
उन्हें मुझे लम्बे पत्र नहीं लिखने पड़ते
वह मेरे सपनों में आ कर नहीं सताते
न उनकी प्रतीक्षा में चिता करती हूँ
न उनके भविष्य अखबारों में पढ़ती हूँ
न उनके टेलीफ़ोन के नम्बर मिलाती हूँ
न उनके बारे में सोचती हूँ
उन्हें बहुत धन्यवाद
वे मेरे जीवन को उथल पथल नहीं करते

***
सोच रहा था कि फ़िल्म फेस्टिवल में देखी फ़िल्मों के बारे में लिखूँ पर भूचाल से हुए विनाश नें सब बातों को भुला दिया. हालाँकि किसी जान पहचान वाले को कुछ नहीं हुआ पर ध्वस्त हुए शहर में कई बार जाना हुआ था. सुना कि पिछली बार जिस होटल में ठहरा था, वह ढह गया. लोगों की दर्द भरी कहानियाँ सुन कर मन भीग गया.

शुक्रवार को एक रिचर्च प्रोजेक्ट की मीटिंग के लिए बँगलौर जाना है. दिन यूँ ही बीत जाते हैं, धर्मवीर भारती जी कविता याद आती है, "दिन यूँ ही बीत गया, अँजुरी में भरा हुआ जल जैसे रीत गया."


हमारी भाषा कैसे बनी

कुछ दिन पहले मैंने जाने-माने डॉक्यूमैंट्री फ़िल्म निर्देशक अरुण चढ़्ढ़ा की १८५७ के लोक-गीतों पर बनी फ़िल्म के बारे में लिखा था। आज उन्हीं की ए...

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