मुम्बई के बम विस्भोट में मेरी भाँजी भी माहिम की रेलगाड़ी में थी. केवल मानसिक धक्का लगा उसे, चोट नहीं आई. पिछले साल जुलाई में जब लंदन में बम विस्फोट हुआ था तब भी एक गाड़ी में मेरा भतीजा इसी तरह बचा था. जिस तरह इतना कुछ तहस नहस हुआ, इतनी जाने गयीं, मन विचलित हो गया, कुछ लिखा नहीं गया.
सागर जी का चिट्ठा पढ़ा तो ऐसी बहुत सी बातें याद आ गयीं. बहुत छोटा था तो सुना था कि भारत विभाजन के समय माँ ने दिल्ली में एक मुसलमान लड़की की जान बचाई थी जिस पर उन्हें प्रधानमंत्री जवाहरलाल नहरु ने सर्टिफिकेट दिया था.
माँ और पापा दोनो पहले गाँधी जी के, फ़िर समाजवादी नेता डा. राम मनोहर लोहिया के साथ जुड़े थे, एक बार बचपन में ही डा. लोहिया के निवास पर पेशावर से आये खान अब्दुल गफ्फार ख़ान को देखा था और उनसे बहुत प्रभावित हुआ था. माँ ने मौलाना आजाद की स्टेनो के रुप में काम किया था. उन सब के बारे में यह सोचना कि वह हिंदू हैं या मुसलमान हैं, इसका कभी प्रश्न ही नहीं उठा.
कुछ बड़े हुए तो साथ वाले घर में मुसलमान परिवार था, पटौदी की रियासत के मैनेजर साजिद भाई, उनकी पत्नी आइरिन और उनके बच्चे, बबला यानि अहमद और निधा. उन्हीं दिनो पापा के एक मित्र अख्तर भाई पटना से जब भी दिल्ली आते तो उनसे खूब गप्प लगती. साजिद भाई के यहाँ आल इंडिया रेडियो में उर्दू के समाचार पढ़ने वाले जावेद भाई आते, उनसे भी बहुत पटती. उदयपुर में काम से गया तो पापा की ही एक पुरानी साथी के घर पर रुका. तब यह नहीं सोचना पड़ा था कि वह मुसलमान परिवार है.
आज भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बहुत से मुस्लिम मित्र हैं. कहने का अर्थ यह है कि सामान्य, प्रगतीवादी मुसलमान समाज से अनजान नहीं हूँ मैं, पर अगर यह कहूँ कि मुस्लिम कट्टरवाद से डर नहीं लगता, तो झूठ होगा. शायद यह कहना ठीक होगा कि हर कट्टरवाद से डर लगता है और पिछले सालों में मुस्लिम कट्टरवाद सबसे अधिक समाचारों मे आया है, इसलिए उससे कुछ अधिक डर लगता है.
बचपन में ही नानी से विभाजन के समय की पाकिस्तान का घर छोड़ने और उस समय के खून खराबे की बातें भी सुनीं थीं और उनके अंदर बसे मुसलमानों के विरुद्ध जमे रोष को भी महसूस किया था, पर तब इस तरह का डर नहीं लगता था. यह डर पिछले दस पंद्रह सालों में ही आया है.
सामने कभी किसी कट्टरवादी से बातचीत नहीं हुई, तो यह डर कहाँ से आया? शायद समाचारों, पत्रिकाओं में जो छपता है और टेलीविजन पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रम यह डर बनाते और बढ़वाते हैं? सामान्य मुस्लिम जैसे बचपन के लोग जिन्हें मैं जानता था या आज के मु्स्लिम मित्र, वे याद क्यों नहीं आते जब मुसलमानों और कट्टरवादियों की बात होती है?
मेरे विचार में इसका एक कारण यह भी है कि आजकल कुछ भी बात हो, कोई भी विषय हो जिसका सम्बंध मुसलमान समाज से है, हर बार रुढ़िवादी मुल्ला टाईप के लोगों के ही आवाज़ ऊँची सुनाई देती है, सामान्य लोग जो अपने भविष्य, काम, पढ़ाई कि बात करते हों, जो आधुनिक हों, पढ़े लिखे हों, उनकी आवाज़ कहीं सुनने को नहीं मिलती.
यह बात नहीं कि अन्य धर्मों में कट्टरवादी नहीं, हिंदू, सिख और इसाई कट्टरवादी भी हैं,पर शायद अन्य धर्मों में बहुत से लोग विभिन्न विचार रखने वाले भी हैं, जिनकी आवाज़ दबती नहीं है. तो भारत के पंद्रह करोड़ से अधिक मुसलमानों में विकासवादी, साहिष्णुक लोगों की आवाज़ ही क्यों दब जाती है? शायद उन्हे डर है कि उनके बोलने से उन्हें खतरा होगा या फ़िर मीडिया वाले बिक्री बढ़ाने के लिए पुराने रुढ़ीवादी विचारों वालों को ही मुस्लिम समाज के सही प्रतिनिधि मानते हैं और केवल उनकी ही बात सुनते और छापते हैं? राजनीतिक नेताओं की "वोट के लिए कुछ भी करो, कुछ भी मान लो, बाँट दो लोगों को धर्म की, जाति की, भाषा की सीमाओं में" की नीति ने भी इसमें अपना योगदान दिया है.
कुछ महीने पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक मीटिंग में मिस्र गया था. बात का विषय था विकलाँगता. देख कर बहुत हैरत हुई कि अधिकतर बोलने वालों ने कुरान का या खुदा का नाम ले कर बोलना प्रारम्भ किया. एक दो लोगों ने तो पहली स्लाईड में एक मस्जिद दिखाई. पिछले पाँच सालों में मैं इस तरह की मीटिंग में विश्व के विभिन्न कोनों में जा चुका हूँ पर यह पहली बार हुआ और सभा के विषय में धर्म के इस तरह घुसने से मन में थोड़ा डर सा लगा. सोचा कि दिल्ली के क्षेत्रीय विश्व स्वास्थ्य संगठन की किसी मीटिंग में इस तरह की बात होती तो हल्ला हो जाता.
कुछ महीने पहले दिल्ली में अपनी बड़ी दीदी से बात कर रहा था, बोलीं, "मुसलमान तो सभी कट्टर होते हैं, चाहे जितने भी पढ़े लिखे हों, बाकी सब धर्मों को नीचा ही मानते हैं." दीदी की बात सुन कर दंग रह गया. थोड़ी बहस की कोशिश की पर वह सुनने के लिए तैयार नहीं थीं. मेरी दीदी संकीर्ण विचारों वाली तो नहीं थीं, न ही हिंदू कट्टरपंथीं. उनकी बात सुन कर भी डर लगा. मैं नहीं मान सकता कि भारत के सभी पंद्रह करोड़ मुसलमान कट्टर हैं या पुराने रुढ़िवादी विचारों के हैं, पर अगर मेरी दीदी जैसे लोग इस तरह की बात सोच सकते हैं या सोचने लगे हैं, तो सचमुच चिंता की बात है.
बात केवल हिंदुओं या अन्य धर्मों की गलतफ़हमी दूर करने की नहीं बल्कि स्वयं पूरे मुस्लिम समाज के भविष्य की है. प्रगितिवादी, उदारवान, भविष्यमुखी मुसलमान विचारक ही यह काम कर सकते हैं कि उनकी आवाज़ ऊँचीं हो कर उनके समाज के विभिन्न विचारों को सबके सामने रख सके.
पिछले साल लंदन गया था तो बोलोनिया की भारतीय एसोसिशन वालों ने वहाँ से अलग अलग रंगों के गुलाल खरीद कर लाने की जिम्मेदारी सौंपी थी. गुलाल खोजते हुए साउथहाल पहुँच गया. कई दुकानों में गया पर नहीं मिला. एक दुकान में घुसा तो कुछ पूछने से पहले देखा कि एक वृद्ध सफ़ेद दाढ़ी वाले मुसलमान पुरुष थे. उन्हे देख कर बाहर निकल रहा था तो उन्होंने पीछे से आवाज़ दे कर पूछा, "क्या चाहिए?". हिचकिचा कर कहा कि गुलाल खोज रहा था. वह मुस्कुराए और मुझे बाहर ले आये, उँगली उठा कर इशारा कर के कहा, "वहाँ कोने वाली दुकान दिख रही है न, लिटिल इँडिया, वहाँ सब भगवान की मूर्तियाँ, गुलाल वगैरा मिल जायेगा." उन्हे धन्यवाद दे कर निकला तो मन में थोड़ा पश्चाताप हुआ. यह सोच कर ही कि वह मुसलमान हैं मैं उनसे गुलाल की बात करने को घबरा रहा था, यह भूल गया था कि बचपन में साजिद भाई के बच्चों ने भी मेरे साथ होली खेली थी.
इस तरह की सोच से जो किसी को जाने बिना, उसके धर्म के आधार पर ही उसके बारे में विचार बना लेती है, उससे भी डर लगता है.