आज के हिंदुस्तान टाईमस अखबार में वीर सिंघवी का आलेख पढ़ा जिसमें उन्होंने वरुण गाँधी को जेल में बंद होने पर भारतीय जनता पार्टी द्वारा पीलीभीत में किये जा रहे दंगा फसाद के बारे में लिखा है.
आलेख पढ़ते समय बहुत सी बातें मन में उठ रही थीं. जैसे कि सिंघवी जी को मैंने हमेशा सोनिया, प्रियंका और राहुल गाँधी के परिवार से जुड़े पत्रकार के रूप में देखा है तो सोच रहा था कि किस तरह वह संजय, मेनका और वरुण गाँधी पर वार कर सकते हैं, बाकी के गाँधी परिवार पर बिना कीचड़ उछालें ? क्या पारिवारिक राजनीति की बराई की जा सकती है पर उसके साथ सोनिया, राहुल आदि का नाम न जोड़ा जाये ?
आलेख बहुत चतुराई से लिखा गया है, कुछ थोड़ा सा दोष श्रीमति इंदिरा गाँधी पर डाला गया है, बाकि सब दोष संजय, मेनका और वरुण गाँधी पर ही डाला गया है. वरुण गाँधी के राजनीतिक घटियापन के साथ साथ ठगी, गुँडागर्दी, और उनके मोटापे को भी जोड़ा गया है, जबकि सोनिया तथा राहुल गाँधी का नाम सफ़ाई से बचा लिया गया है. मेरे विचार में आज के पत्रकार संघवी जी से बहुत कुछ सीख सकते हैं.
वरुण जी का हिंदू धर्म के रक्षक होने के नाटक में मुझे नये धर्मपरिवर्तित का कट्टरपन दिखता है या फ़िर शायद केवल राजनीतिक नाटक. सच में कोई क्या सोचता है इससे वरुण के हिंदुपन का कुछ मतलब नहीं लगता. किससे अधिक वोट मिलें या किससे मेरे विपक्षियों को अधिक नुकसान हो, वही बात कहनी है, ऐसा लगता है. पारसी दादा, ब्राहम्ण दादी, सिख नाना नानी की विरासत मिली है वरुण को, जिसकी धर्मों और सभ्यताओं की मिलावट में ही मेरे विचार में भारतीयता की असली पहचान है. इस विरासत को नकार कर, अगर वह असली हिंदू होने का दावा करके हिंसा के लिए भड़काएँ तो यह शायद भारतीय जनतंत्र के हाल का लक्षण है, जहाँ राजनीति केवल ताकत और सम्पति को पाने का रास्ता है, नैतिकता या सत्य से उसका कुछ लेना देना नहीं. पर इस कीचड़ में वरुण हीं अकेले नहीं, सभी नेता और राजनीतिक दल भागीदार हैं.
लेख में संजय गाँधी की गुँडागर्दी की भी चर्चा है. मुझे एक बार संजय गाँधी से मिलने का मौका मिला था. मेडीकल कोलिज में पढ़ रहे थे. बात 1975 या 1976 की है. दिल्ली के सफ़दरजंग अस्पताल के साथ बना था हमारा कुछ वर्ष पहले खुला नया मेडिकल कोलिज. कुछ झँझट था कि हमें सफ़दरजंग अस्पताल में इंटर्नशिप नहीं करने को मिल रही थी बल्कि किसी अन्य अस्पताल में दूर जाना पड़ता, तो इसका विरोध करने के लिए सब विद्यार्थियों ने मिल कर संजय गाँधी से मिलने का विचार बनाया था. सबको मालूम था कि न वह कोई मिनिस्टर थे न उनका कोई सरकारी ओहदा था, उनकी ताकत केवल प्रधान मंत्री का पुत्र होने में थी. वह हमसे बहुत आत्मीयता से मिले थे, धीरज से हमारी बात सुनी थी. उनके दफ्तर के बाहर बाग में, काफ़ी देर तक वह हमारे साथ बैठे थे. शायद इतनी आत्मीयता और मृदुभाषिता का कारण हमारे दल में कई सुदंर छात्राओं का होना था या फ़िर उन्हें डाक्टरों से सुहानुभूति थी. उनसे मिलने के कुछ दिनो बाद ही सफ़दरजंग में हमारी इंटर्नशिप होने की बात को मान लिया गया था.
यह मालूम है कि मानव में क्षमता है एक तरफ़ सभ्यता का नकाब पहनने की और दूसरी ओर दानवता के कर्मों की. एमरजैंसी में क्या क्या हुआ था इसकी बात भी जानी थी. पर जब भी संजय गाँधी के गुँडेपन या असभ्यता की बात होती है तो उस मुलकात के मितभाषी, शर्मीले से लगने वाले नवयुवक संजय गाँधी का चेहरा सामने आ जाता है.