केनेडा की पत्रिका वालरस में फेरनांद मेसोनिये का साक्षात्कार निकला है जिन्हें अलजीरिया का अंतिम जल्लाद कहा जाता है और जिन्होंने करीब 200 लोगों को मौत की सजा दी थी. वह मृत्युदँड प्राप्त कैदियों को अपने पिता के साथ गिल्योटीन से मारने का काम करते थे. गिल्योटीन में एक भारी चाकू ऊँचाई से कैदी की गर्दन पर गिराया जाता है ताकि एक ही झटके में सिर धड़ से अलग हो जाये.
इस साक्षात्कार में फेरनंद कहते हैं, "खून निकलता है? अरे बहुत खून निकलता है, यह कोई बिजली का करंट देनी वाली कुर्सी नहीं है! पाँच से सात लिटर तक खून निकलता है जब गर्दन कटती है. खून के फुव्वहारे छूटते हैं, दो तीन मीटर दूर तक धार जाकर गिरती है. मानव खून की गंध विषेश होती है, जैसे घोड़े के खून की होती है. घोड़े काटने वाले कसाई के शरीर से जो गंध आती है वह अन्य कसाईयों से नहीं आती. मानव खून को भी तुरंत धोना पड़ता है, नहीं तो बदबू आने लगे. हम गिल्योटीन को भी धोते हैं पर उसपर साबुन नहीं लगाते."
जबकि उनके पिता का काम था ऊपर टँगे चाकू को छोड़ना, फेरनांद का काम था कैदी का सिर को कानों से खींच कर रखना, ताकि वह सिर पीछे न खींच सके. हालाँकि कैदियों के गर्दन पर लकड़ी का पट्टा रखा जाता है जिससे वह सिर पीछे न खींच सकें, फ़िर भी कैदी कितना ही ज़ोर लगा कर अंतिम क्षण में सिर को पीछे खींचने की कोशिश करते हैं. फेरनंद कहते हैं, "अगर ठीक जगह पर चाकू न गिरे तो सिर धड़ से अलग नहीं होता और उसे फ़िर हाथ से चाकू ले कर काटना पड़ता है."
सच कहिये, यह सब पढ़ते हुए आप का मन काँप जाता है या नहीं? मेरा अवश्य काँपा, झुरझुरी सी आई, जी कच्चा हुआ. शायद बीते समय में इन्सान को मार काट और खूण को करीब से देखना मिलता था पर यहाँ तो सुपरमार्किट में कटी मुर्गियाँ और माँस भी प्लास्टिक की पारदर्शी थैलियों में यूँ रखे होते हैं जिसमें एक बूँद खून नहीं दिखता मानो ऐसे ही पैदा होते हुए हों. एक बूँद खून देखने को मिल जाये तो सबकी तबियत खराब होने लगती है. खून दिखता है तो फिल्म में या वीडियोगेम पर, जहाँ वह सच्चा नहीं लगता.
गुरुवार, सितंबर 28, 2006
मंगलवार, सितंबर 26, 2006
सबके सामने
वृद्ध प्रोफेसर साहब मेरे गुरु रह चुके थे. बहुत साल हो गये उनको रिटाटर हुए पर कोई भी बड़ी सभा हो तो उनके बिना अधूरी सी लगे. बात हो रही थी सभा के कार्यक्रम की.
मैंने कहा, "अगर कोई व्यक्ति अपनी आत्मकथा कहे, बताये कि उसे कुष्ठ रोग होने से क्या क्या सहना पड़ा, किस भेद भाव से लड़ना पड़ता है इस बिमारी से प्रभावित लोगों को, तो उसका असर अधिक पड़ेगा. और अगर वह व्यक्ति जाना पहचाना और प्रसिद्ध भी है तो और भी अच्छा!"
असल में मैं चाहता था कि प्रोफेसर साहब अपनी कहानी सुनायें, क्योंकि मुझे मालूम था कि प्रोफेसर साहब को स्वयं भी यह रोग हो चुका था. पर वह कुछ नहीं बोले, चुपचाप बैठे रहे, और बात दूसरी दिशा में निकल गयी.
कुछ समय के बाद मैंने फ़िर से कोशिश की और वही बात दोबारा उठायी. बोला, "मुझे कुछ डर नहीं है, मैं ही सबके सामने कह सकता हूँ कि मुझे कुष्ठ रोग हुआ था पर मेरे पास इसके साथ सुनाने वाली कोई आत्मकथा नहीं है."
शायद प्रोफेसर साहब कुछ समझ गये, थोड़ी देर तक चुप रहे फ़िर धीरे से बोले, "बात केवल अपने आप के लिए डर की नहीं है, यह सोचना पड़ता है कि परिवार पर, बच्चों पर, इसका क्या असर पड़ता है. उनका क्या कसूर है जिसके लिए उन्हें बात सुननी पड़े या तकलीफ़ हो."
मुझे थोड़ी शर्म आयी. अपनी बात कर सकता हूँ पर किसी दूसरे की क्या मजबूरी हो सकती है, उसको न समझ कर उससे अपेक्षा करना गलत है.
आऊटलुक में प्रसिद्ध लेखक विक्रम सेठ का लम्बा साक्षात्कार पढ़ा तो इस बात की याद आ गयी. बहुत सी बातें हैं जिन्हें परम्परागत समाज में कहना और बताना कठिन है. कुष्ठ, यक्ष्मा (टीबी), एडस्, मिर्गी, मानसिक रोग, जैसी बहुत सी बीमारियाँ हैं जिनके होने पर आप को केवल बीमारी से नहीं बल्कि सामाजिक भेदभाव से भी लड़ना पड़ता है और अधिकतर लोग इन बातों को छुपा कर रखने की कोशिश करते हैं. वैसा ही भेदभाव और तिरस्कार बलात्कार की शिकार लड़कियों को, बिन ब्याही माओं को, समलैंगिक लोगों को मिलता है. ऐसे में विक्रम सेठ जैसे जाने माने लेखक का खुल कर स्वीकार करना कि वह द्वीलैंगिक हैं, स्त्रियों और पुरुषों, दोनो से उनके सम्बंध रहे हैं हिम्मत की बात है. सेठ ने यह साक्षात्कार भारतीय कानून की धारा 377 को हटाने के अभियान के सिलसिले में दिया है.
1875 में बना धारा 377 का कानून जो समलैंगिक सम्बंधों को गैरकानूनी कह कर उन्हें दण्डनीय अपराध करार देता है, पिछड़ी मानसिकता का प्रतीक है जब यह माना जाता था कि समलैंगिक सम्बंध विकृति हैं जिसका इलाज किया जाना चाहिये. आज की दुनिया में यह कानून मानव अधिकारों का उल्लघँन माना जायेगा.
बहुत साल पहले अभिनेत्री नीना गुप्ता ने अपने बिन ब्याही माँ होने की बात को खुले आम स्वीकार किया था. केवल किसी एक के कहने से, सब के सामने खुल कर आने से समाज नहीं बदलता, पर शायद उससे बहुत से लोग जो उस स्थिति में छुप कर रह रहे हैं, उन्हें थोड़ा सहारा मिल जाता है कि वह अकेले नहीं.
मैंने कहा, "अगर कोई व्यक्ति अपनी आत्मकथा कहे, बताये कि उसे कुष्ठ रोग होने से क्या क्या सहना पड़ा, किस भेद भाव से लड़ना पड़ता है इस बिमारी से प्रभावित लोगों को, तो उसका असर अधिक पड़ेगा. और अगर वह व्यक्ति जाना पहचाना और प्रसिद्ध भी है तो और भी अच्छा!"
असल में मैं चाहता था कि प्रोफेसर साहब अपनी कहानी सुनायें, क्योंकि मुझे मालूम था कि प्रोफेसर साहब को स्वयं भी यह रोग हो चुका था. पर वह कुछ नहीं बोले, चुपचाप बैठे रहे, और बात दूसरी दिशा में निकल गयी.
कुछ समय के बाद मैंने फ़िर से कोशिश की और वही बात दोबारा उठायी. बोला, "मुझे कुछ डर नहीं है, मैं ही सबके सामने कह सकता हूँ कि मुझे कुष्ठ रोग हुआ था पर मेरे पास इसके साथ सुनाने वाली कोई आत्मकथा नहीं है."
शायद प्रोफेसर साहब कुछ समझ गये, थोड़ी देर तक चुप रहे फ़िर धीरे से बोले, "बात केवल अपने आप के लिए डर की नहीं है, यह सोचना पड़ता है कि परिवार पर, बच्चों पर, इसका क्या असर पड़ता है. उनका क्या कसूर है जिसके लिए उन्हें बात सुननी पड़े या तकलीफ़ हो."
मुझे थोड़ी शर्म आयी. अपनी बात कर सकता हूँ पर किसी दूसरे की क्या मजबूरी हो सकती है, उसको न समझ कर उससे अपेक्षा करना गलत है.
आऊटलुक में प्रसिद्ध लेखक विक्रम सेठ का लम्बा साक्षात्कार पढ़ा तो इस बात की याद आ गयी. बहुत सी बातें हैं जिन्हें परम्परागत समाज में कहना और बताना कठिन है. कुष्ठ, यक्ष्मा (टीबी), एडस्, मिर्गी, मानसिक रोग, जैसी बहुत सी बीमारियाँ हैं जिनके होने पर आप को केवल बीमारी से नहीं बल्कि सामाजिक भेदभाव से भी लड़ना पड़ता है और अधिकतर लोग इन बातों को छुपा कर रखने की कोशिश करते हैं. वैसा ही भेदभाव और तिरस्कार बलात्कार की शिकार लड़कियों को, बिन ब्याही माओं को, समलैंगिक लोगों को मिलता है. ऐसे में विक्रम सेठ जैसे जाने माने लेखक का खुल कर स्वीकार करना कि वह द्वीलैंगिक हैं, स्त्रियों और पुरुषों, दोनो से उनके सम्बंध रहे हैं हिम्मत की बात है. सेठ ने यह साक्षात्कार भारतीय कानून की धारा 377 को हटाने के अभियान के सिलसिले में दिया है.
1875 में बना धारा 377 का कानून जो समलैंगिक सम्बंधों को गैरकानूनी कह कर उन्हें दण्डनीय अपराध करार देता है, पिछड़ी मानसिकता का प्रतीक है जब यह माना जाता था कि समलैंगिक सम्बंध विकृति हैं जिसका इलाज किया जाना चाहिये. आज की दुनिया में यह कानून मानव अधिकारों का उल्लघँन माना जायेगा.
बहुत साल पहले अभिनेत्री नीना गुप्ता ने अपने बिन ब्याही माँ होने की बात को खुले आम स्वीकार किया था. केवल किसी एक के कहने से, सब के सामने खुल कर आने से समाज नहीं बदलता, पर शायद उससे बहुत से लोग जो उस स्थिति में छुप कर रह रहे हैं, उन्हें थोड़ा सहारा मिल जाता है कि वह अकेले नहीं.
रविवार, सितंबर 24, 2006
क्या बोलता तुम?
कुछ दिन पहले आमिर खान का नया कोका कोला का विज्ञापन देखा तो कुछ अजीब सा लगा. आमिर खान मुझे अच्छे लगते हैं और उनकी कई फिल्में मुझे बहुत पसंद हैं. उनके पहले भी बहुत से विज्ञापन देखे थे जिनमें वे विभिन्न भेष रुप बदल कर "कोक यानि ठँडा" कहते थे, जो मुझे अच्छे लगे थे, तो फ़िर इस बार क्या हुआ जो ठीक नहीं लगा?
कुछ सोचा पर ठीक से समझ नहीं पाया कि क्यों मुझे अच्छा नहीं लगा, और पिछले कुछ दिनों में जब भी वह विज्ञापन देखने का मौका मिला, बार बार लगता कि इस तरह का विज्ञापन दे कर आमिर खान ने कुछ ठीक नहीं किया.
मैं मानता हूँ कि कोका कोला एक व्यवसायिक कम्पनी है और उसका धर्म है अपना सामान बेचना. दूसरी ओर आमिर खान भी व्यवसायिक अभिनेता हैं और उनका काम है अपनी कला, अपना चेहरा बेचना. अगर किसी जगह पर दोनो के व्यवसायिक सम्बंध बनते हैं तो इसमें अच्छा या बुरा सोचने की बात नहीं, अगर आप को पसंद आये तो ठीक, नापसंद आये तो भी किसी को क्या फ़र्क पड़ता है!
पर कभी कभी अभिनेता भी अपने व्यवसायिक जीवन से बाहर अपने निजी जीवन में अपनी पसंद नापसंद और सही या गलत के विचार रख सकता है. आमिर खान ने कुछ महीने पहले नर्मदा बाँध के बारे जब बोला था तो वह अभिनेता नहीं उनके निजी विचारों की बात थी.
कहने का अर्थ है, अभिनेता पैसे ले कर, भेस बदल कर, किसी के लिखे डायलाग बोल दे तो वह उसका काम है पर अगर वह अभिनेता के पीछे छिपे व्यक्ति की तरफ से जनता के सामने आ कर कुछ कहता तो यह दूसरी बात है. शायद यही बात है जो मुझे अच्छी नहीं लगी, आमिर खान के नये विज्ञापन में, कि इस विज्ञापन में वह उत्तर प्रदेश का भैया या जापानी पर्यटक या खेतों में काम करने वाला पंजाबी युवक बन कर नहीं, स्वयं आमिर खान की तरफ से बात करते हैं.
हो सकता है कि आमिर ने विज्ञापन से पहले कोका कोला के बोतल चढ़ाने के सारे काम को स्वयं ठीक से जाँचा परखा हो, उन्हें पूरा भरोसा हो कि उसको बनाने के पानी में कोई प्रदूषण नहीं है, और उसके पीने में प्रदूषण के पदार्थों की वजह से कोई खतरा नहीं है पर मेरा विचार है कि इसके लिए वह अभिनेता बन कर कोई अन्य रुप धारण करके कहते, अपनी तरफ से नहीं.
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के पास बहुत तरीके होते हैं सच को छुपाने के, उसे घुमा फ़िरा कर दिखाने के, अपनी अपार ताकत के बस पर वह कुछ भी कर सकते हैं.
केरल में आदिवासी महिलाओं के कोका कोला के विरुद्ध आँदोलन के बारे में कुछ पढ़ा था. उनका कहना है कि वहाँ 260 कूँए सूख गये हैं, जो पानी है वह प्रदूषित हो गया है, जब कि कोका कोला वाले गहरे कूँए खोद कर पानी को निकाल सकते हैं. एक लिटर कोका कोला को बनाने के लिए 9 लिटर पानी चाहिए और कोका कोला वहाँ की प्राकृतिक सम्पदा को नष्ट कर रहे हैं. और भी ऐसी अनेक बातें पढ़ीं हैं. क्या वह सब बातें केवल बहूरा्ष्ट्रीय कम्पनियों के विरुद्ध राष्ट्रवादियों की फ़ैलाई अफवाहें हैं?
दुनिया के विभिन्न देशों में बहुराष्ट्रीय कम्पिनयों के इतिहास को पढ़ कर लगता है कि उनकी अपार ताकत से लड़ना आसान नहीं हैं और अपने जन सम्पर्क विभागों द्वारा, ऊँचे अधिकारियों को घूस दे कर और विज्ञापनों से वह किसी को भी झूठा साबित कर सकते हैं. ऐसे में आमिर खान का कोका कोला को अपने काम का नहीं, बल्कि अपने नाम का सहयोग देना मुझे कुछ ठीक नहीं लगा.
सोमवार, सितंबर 18, 2006
शीशे में चेहरा
एक इतालवी पत्रिका में छपा सुश्री इरशाद मनजी का नया लेख सोचने पर मजबूर करता है. इरशाद जैसे विचारकों की बात लोग आसानी से उड़ा सकते हैं. "वह तो लेस्बियन (समलैंगिक) है, कुछ भी उल्टा पल्टा कहती रहती है, विदेशियों की एजेंट है, केवल नाम की मुसलमान है", जैसी बातें कहीं जाती हैं उसके बारे में. जान से मारने की कई धमकियाँ मिल चुकी हैं उसे और केनेडा में उनके घर की खिड़कियाँ गोली से न टूटने वाली (बुलैटप्रूफ) बनी हैं.
इस नये लेख में मुस्लिम आतंकवाद के बारे में लिखा है उन्होंने. लिखती हैं:
इरशाद जैसे लोगों की बातें सुन पाना और समझ पाना आसान नहीं होगा क्योंकि वह ऐसी बात कहती है जो कड़वी भी है और कठिन भी. कुछ महीने पहले जब डेनमार्क में छपे कार्टून का झमेला उठा था तब भी इरशाद ने कुछ ऐसा ही कहा था. कोई पर्दा नहीं करती इरशाद और खुले आम मानती हैं कि वह समलैंगिक हैं. बीबीसी जैसे प्रमुख टेलिविजन चैनलों पर अपने विचारों के बारे में बोल चुकी हैं. कहतीं हैं कि सभ्यता और परम्परा के नाम पर वह अपने मानव अधिकारों को बलि नहीं चढ़ायेंगी. उनके अंतरजाल पृष्ठ पर लिखा है कि मुस्लिम समाज के बहुत से लोग छिप कर उनके विचारों से सहमती करते हैं पर सामने आने से डरते हैं.
इस नये लेख में मुस्लिम आतंकवाद के बारे में लिखा है उन्होंने. लिखती हैं:
इँग्लैंड की मुस्लिम संस्थाओं ने प्रधान मंत्री टोनी ब्लेयर को चिट्ठी लिखी है कि इराक तथा लेबनान में होने वाली बातों से आतंकवादियों को बढ़ावा मिल रहा है. आतंकवादियों को केवल बहाना चाहिये. पहले कहते थे कि आर्थिक भेदभाव होता है मुसलमानों के साथ जिसकी वजह से मुसलमान नवजवान आतंकवाद की ओर बढ़ते हैं और अब इसमें वे विदेश नीति के कारण खोज रहे हैं... अगर उन्हें मुसलमानों के मारे जाने का इतना ही गुस्सा है तो दुनिया के इतने देशों में जो मुसलमान शासन दूसरे मुसलमानों को मार रहे हैं उनके विरुद्ध क्यों नहीं आतंकवाद करते? सूडान में इस्लामी शासन के नीचे अरबी मुसलमान लड़ाकू काली चमड़ी वाले मुसलमानों को लूट रहे हैं, भूखा मार रहे हैं, उनकी औरतों का ब्लात्कार कर रहे हैं, उन पर बम बरसा रहे हैं तो क्यों नहीं बाकी के मुसलमान इसके विरुद्ध बोल रहे हैं? जो पाकिस्तान में सुन्नी मुसलमान, शिया मुसलमानों को मारते हैं तो क्यों नहीं बोलते? मुसलमान दुनिया में कितनी जगह गृहयुद्ध हो रहे हैं उसकी बात क्यों नहीं करते? यह कहना कि आतंकवाद अमरीका के इराक पर हमले की वजह से है या इज़राईल के पालिस्तीनी हमले से, सच को न देखना है. जब देखा कि आतंकवादी पढ़े लिखे, खाते पीते घरों से आ रहे हैं तो आर्थिक भेदभाव और पिछड़ेपन के बात छोड़ कर अमरीका और इज़राईल के बात करने लगे हैं. क्यों नहीं हमारे धार्मिक नेता आतंकवादियों के विरुद्ध फतवे देते?
कुछ भी हो, सब कहते हैं कि हमारा इस्लाम तो शाँती का धर्म है, वह युद्ध और मारना नहीं कहता. फ़िर कहने और करने में जो फर्क है उसे क्यों झुठला रहे हैं हम? जब तक हम यह मानेगें नहीं कि हमारे इस्लाम में ऐसा कुछ है जिससे हमारे नवजवान हिंसा की राह पर जा रहे हें, कैसे उपाय खोजेंगे इसका?
इरशाद जैसे लोगों की बातें सुन पाना और समझ पाना आसान नहीं होगा क्योंकि वह ऐसी बात कहती है जो कड़वी भी है और कठिन भी. कुछ महीने पहले जब डेनमार्क में छपे कार्टून का झमेला उठा था तब भी इरशाद ने कुछ ऐसा ही कहा था. कोई पर्दा नहीं करती इरशाद और खुले आम मानती हैं कि वह समलैंगिक हैं. बीबीसी जैसे प्रमुख टेलिविजन चैनलों पर अपने विचारों के बारे में बोल चुकी हैं. कहतीं हैं कि सभ्यता और परम्परा के नाम पर वह अपने मानव अधिकारों को बलि नहीं चढ़ायेंगी. उनके अंतरजाल पृष्ठ पर लिखा है कि मुस्लिम समाज के बहुत से लोग छिप कर उनके विचारों से सहमती करते हैं पर सामने आने से डरते हैं.
शनिवार, सितंबर 16, 2006
दिल्ली का दिल
बचपन में घर में दूसरे शहरों से मेहमान आते तो कहते, "बाप से बाप, यहाँ दिल्ली में रहना क्या आसान है!"
लखनऊ अधिक सभ्य है, हैदराबाद में लोग कितनी इज़्ज़त से बात करते हैं, बम्बई में यातायात किस तरह नियमों का पालन करते हुए चलता है जैसी बहुत सी बातें सुनने को मिलतीं, यह बतलाने के लिए कि उनके मुकाबले दिल्ली वाले सभ्यताविहीन थे, उनके बात करने में लड़ाकापन था, उनके यातायात में कोई नियम न पालन करने का ही नियम था.
"दिल्ली के लोग या तो पंजाब से आये शरणार्थी हैं जिनका सब कुछ पाकिस्तान में रह गया और सब कुछ खोने के बाद जिन्होंने जीने के लिए लड़ लड़ कर अपने जीने की जगह बनाई है, उनसे सभ्यता की आकाँक्षा रखना बेकार है. दूसरे दिल्ली के रहने वाले देश भर से आये बाबू लोग हैं जो सरकारी दफ्तरों में काम करते हैं, उन्हें दिल्ली अपना शहर ही नहीं लगता, उनके घर तो अन्य प्रदेशों में हैं जहाँ से वे आये हैं, उन्हें इसलिए दिल्ली की कुछ परवाह नहीं है."
तब कहते कि दिल्ली में सभ्यता तब आयेगी जब यहाँ पैदा होने वाली या यहाँ पलने वाली पीढ़ी बड़ी होगी. दिल्ली से उनका अपनापन होगा, दिल होगा उनका इस शहर में, दिल्ली उनका शहर होगा. वे लोग लायेंगे दिल्ली में सभ्यता.
उन बातों को गुज़रे चालीस साल हो गये हैं. कैसी है आज दिल्ली की सभ्यता? अगर कारों की गिनती से, फ्लाईओवरों और विदेशी सामान बेचने वाले मालस् से सभ्यता गिनी जाये तो दिल्ली बहुत सभ्य हो गयी है. व्यक्तिगत आमदनी के मापदँड पर भी दिल्ली ने बहुत तरक्की की है. पर दिल्ली का दिल, उसमें अपने शहर में रहने वालों का प्यार जागा है, इंसानियत जागी है?
दिल्ली के बारे में संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट निकली है जिसके अनुसार दिल्ली बच्चों के लिए दुनिया का सबसे खतरनाक शहर है और औरतों के लिए भी असुरक्षित शहरों के लिस्ट में बहुत ऊपर के स्थान पर है. एक तरफ़ अच्छी बात है कि दिल्ली में पाँच साल से कम वर्ष वाले बच्चों की मृत्यु दर का अनुपात बाकी देश के मुकाबले में बहुत कम है दूसरी तरफ़ बुरी बात कि छोटे बच्चों से काम करवाने में दिल्ली भारत में सबसे उच्च स्थान पर है. देश की राजधानी में पल कर बड़े होने वाले अक्सर यह काम करने वाले बच्चे कोई शिक्षा नहीं पाते. रिपोर्ट के अनुसार, उनमे से एक लाख अस्सी हज़ार बच्चे दिल्ली की सड़कों पर रहते हैं.
ढाबे में बरतन धोते, सड़क किनारे नटी दिखाते, जूते पालिश करने के डब्बे उठाये घूमते, प्लास्टिक तथा कागज़ जमा करते, या फ़िर बाज़ार में आप के पीछे पीछे चल कर भीख माँगते, हर तरफ़ यह बच्चे दिखते हैं. हर बार प्रश्न "भीख दूँ या न दूँ" यहीं तक आ कर रुक जाता है, एक अकेला और क्या कर सकता है? कुछ लोग है जो बाग में बच्चों को जमा कर उन्हें खेल के साथ पढ़ाते भी हैं, पर इन सब बच्चों तक पहुँचने के लिए उनके जैसे कई हज़ार अन्य चाहिये. मुझे बुरा तब लगता है जब किसी को भीख माँगते बच्चे को क्रोध से दुदकारते हुए या गाली देते हुए सुनता हूँ. कुछ भी न देना हो तो न दो, दुदकारते क्यों हो?
जिस घर में बच्चे कोनवेंट में या पब्लिक स्कूल में पढ़ने जाते हैं, उसी घर में सफाई करने वाला, खाना बनाने वाला बच्चा बिना पढ़ लिख कर बड़ा होता है, जो बाकी बच्चों के साथ खेलता नहीं, उनकी तरह खाता नहीं. कब सोता है, कब छुट्टी मिलती है उसे यह मालिक की दया पर निर्भर है, उसके अधिकार कुछ नहीं. कहते हैं कि उसे काम दे कर उस पर अहसान किया गया है, गाँव में जहाँ गरीबी में पैदा हुआ था वहाँ उसे शायद दो वक्त की रोटी न मिल पाती, न ही कोई शिक्षा, न शहर के करिश्मे देखने का मौका, न टीवी पर फ़िल्में आदि. पर उसे काम के साथ थोड़ा सा बचपन जीने का मौका नहीं मिलता और न ही घरेलू नौकर के जीवन से बाहर निकलने के लिए कोई सहारा.
दिल्ली का ही दिल निष्ठुर है शायद ऐसा नहीं है, सारे भारत में यही हाल है पर दिल्ली जैसे महानगरों में और भी अधिक है. हम सब के बीच में भूतों से घूमते यह बच्चे और बड़े, जिन्हें उनकी गरीबी ने पारदर्शी बना दिया है, उन्हें देख कर भी नहीं देख पाते.
लखनऊ अधिक सभ्य है, हैदराबाद में लोग कितनी इज़्ज़त से बात करते हैं, बम्बई में यातायात किस तरह नियमों का पालन करते हुए चलता है जैसी बहुत सी बातें सुनने को मिलतीं, यह बतलाने के लिए कि उनके मुकाबले दिल्ली वाले सभ्यताविहीन थे, उनके बात करने में लड़ाकापन था, उनके यातायात में कोई नियम न पालन करने का ही नियम था.
"दिल्ली के लोग या तो पंजाब से आये शरणार्थी हैं जिनका सब कुछ पाकिस्तान में रह गया और सब कुछ खोने के बाद जिन्होंने जीने के लिए लड़ लड़ कर अपने जीने की जगह बनाई है, उनसे सभ्यता की आकाँक्षा रखना बेकार है. दूसरे दिल्ली के रहने वाले देश भर से आये बाबू लोग हैं जो सरकारी दफ्तरों में काम करते हैं, उन्हें दिल्ली अपना शहर ही नहीं लगता, उनके घर तो अन्य प्रदेशों में हैं जहाँ से वे आये हैं, उन्हें इसलिए दिल्ली की कुछ परवाह नहीं है."
तब कहते कि दिल्ली में सभ्यता तब आयेगी जब यहाँ पैदा होने वाली या यहाँ पलने वाली पीढ़ी बड़ी होगी. दिल्ली से उनका अपनापन होगा, दिल होगा उनका इस शहर में, दिल्ली उनका शहर होगा. वे लोग लायेंगे दिल्ली में सभ्यता.
उन बातों को गुज़रे चालीस साल हो गये हैं. कैसी है आज दिल्ली की सभ्यता? अगर कारों की गिनती से, फ्लाईओवरों और विदेशी सामान बेचने वाले मालस् से सभ्यता गिनी जाये तो दिल्ली बहुत सभ्य हो गयी है. व्यक्तिगत आमदनी के मापदँड पर भी दिल्ली ने बहुत तरक्की की है. पर दिल्ली का दिल, उसमें अपने शहर में रहने वालों का प्यार जागा है, इंसानियत जागी है?
दिल्ली के बारे में संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट निकली है जिसके अनुसार दिल्ली बच्चों के लिए दुनिया का सबसे खतरनाक शहर है और औरतों के लिए भी असुरक्षित शहरों के लिस्ट में बहुत ऊपर के स्थान पर है. एक तरफ़ अच्छी बात है कि दिल्ली में पाँच साल से कम वर्ष वाले बच्चों की मृत्यु दर का अनुपात बाकी देश के मुकाबले में बहुत कम है दूसरी तरफ़ बुरी बात कि छोटे बच्चों से काम करवाने में दिल्ली भारत में सबसे उच्च स्थान पर है. देश की राजधानी में पल कर बड़े होने वाले अक्सर यह काम करने वाले बच्चे कोई शिक्षा नहीं पाते. रिपोर्ट के अनुसार, उनमे से एक लाख अस्सी हज़ार बच्चे दिल्ली की सड़कों पर रहते हैं.
ढाबे में बरतन धोते, सड़क किनारे नटी दिखाते, जूते पालिश करने के डब्बे उठाये घूमते, प्लास्टिक तथा कागज़ जमा करते, या फ़िर बाज़ार में आप के पीछे पीछे चल कर भीख माँगते, हर तरफ़ यह बच्चे दिखते हैं. हर बार प्रश्न "भीख दूँ या न दूँ" यहीं तक आ कर रुक जाता है, एक अकेला और क्या कर सकता है? कुछ लोग है जो बाग में बच्चों को जमा कर उन्हें खेल के साथ पढ़ाते भी हैं, पर इन सब बच्चों तक पहुँचने के लिए उनके जैसे कई हज़ार अन्य चाहिये. मुझे बुरा तब लगता है जब किसी को भीख माँगते बच्चे को क्रोध से दुदकारते हुए या गाली देते हुए सुनता हूँ. कुछ भी न देना हो तो न दो, दुदकारते क्यों हो?
जिस घर में बच्चे कोनवेंट में या पब्लिक स्कूल में पढ़ने जाते हैं, उसी घर में सफाई करने वाला, खाना बनाने वाला बच्चा बिना पढ़ लिख कर बड़ा होता है, जो बाकी बच्चों के साथ खेलता नहीं, उनकी तरह खाता नहीं. कब सोता है, कब छुट्टी मिलती है उसे यह मालिक की दया पर निर्भर है, उसके अधिकार कुछ नहीं. कहते हैं कि उसे काम दे कर उस पर अहसान किया गया है, गाँव में जहाँ गरीबी में पैदा हुआ था वहाँ उसे शायद दो वक्त की रोटी न मिल पाती, न ही कोई शिक्षा, न शहर के करिश्मे देखने का मौका, न टीवी पर फ़िल्में आदि. पर उसे काम के साथ थोड़ा सा बचपन जीने का मौका नहीं मिलता और न ही घरेलू नौकर के जीवन से बाहर निकलने के लिए कोई सहारा.
दिल्ली का ही दिल निष्ठुर है शायद ऐसा नहीं है, सारे भारत में यही हाल है पर दिल्ली जैसे महानगरों में और भी अधिक है. हम सब के बीच में भूतों से घूमते यह बच्चे और बड़े, जिन्हें उनकी गरीबी ने पारदर्शी बना दिया है, उन्हें देख कर भी नहीं देख पाते.
गुरुवार, सितंबर 14, 2006
रायमोन पनिक्कर का प्रेम संदेश
आज के युद्ध, बम और आतंकवाद के वातावरण में मेरे विचार में भारत के विचारक और दर्शनशास्त्री दुनिया को विभिन्न धर्मों के आपसी सम्मान और समन्वय से साथ रहने का संदेश दे सकते हैं. बहुत दुनिया देखी है पर भारत जैसा विभिन्न धर्मों के साथ रहने का तरीका किसी अन्य जगह मिलना कठिन है.
बचपन से ही देखा था कि अपना धर्म कुछ भी हो, अन्य धर्मों के पूजनीय स्थलों पर हाथ जोड़ने और प्रार्थना करने में कभी झिझक नहीं होती थी. गुरुद्वारा जाना हो या मस्जिद या बड़े दिन के अवसर पर गिरजाघर, कभी यह नहीं सोचा कि यह हमारा धर्म नहीं है तो कम पूजनीय है. ईद की सेंवियाँ हों या गुरुपर्व की कच्ची लस्सी या फ़िर क्रिसमस का प्लम केक, खाने में भी बिल्कुल नहीं रुके. इसका यह अर्थ नहीं था कि अपने धर्म में विश्वास कम हो जाता था पर दूसरे धर्मों का आदर करना भारत में अधिकतर लोगों के लिए स्वभाविक सी बात है जिसके लिए न सोचना पड़ता है, न किसी को समझाना पड़ता है कि क्यों सिख न होते हुए भी गुरुद्वारे में हाथ जोड़े या ईसाई न होते हुए गिरजाघर में हाथ जोड़े.
अन्य देशों में जहाँ एक ही धर्म के बहुत्व हो, इसको समझना आसान नहीं है. यहाँ जब अन्य धर्मों के सम्मान की बात होती है तो वह तार्किक दृष्टि की बात लगती है उसमें वह भारतीय आत्मीयता की समझ कि सब रास्ते एक ही ओर जाते हैं और सभी रास्ते पूजनीय हैं वाली बात नहीं दिखती.
इटली में जब केथोलिक तथा विभिन्न धर्मों के बीच में वार्तालाप या संचार की बात होती है तो कभी कभी लगता है कि अन्य धर्मों को कुछ श्रेणियों में बाँट दिया गया हो. बात अधिकतर एक ईश्वरवादी धर्मों यानि ज्यू और इस्लाम तक ही रुक जाती है शायद क्योकि ईसाई धर्म की जड़ें इन दोनो धर्मों से करीब से जुड़ी हैं. लगता है कि पूर्वी विश्व में जन्मे धर्म, हिदु, बुद्ध, जैन इत्यादि को इनसे नीचा देखा जा रहा हो, उनकी बात न की जाती है और उनसे क्या सीखा जा सकता है उस पर विमर्श नहीं होता.
इसीलिए जब सुना कि शाम को एक गिरजाघर में भारत से आये फादर रायमोन पनिक्कर बोलने वाले हैं तो उन्हे सुनने बहुत शौक से गया. वृद्ध पनिक्कर सादा कुर्ता और लुँगी पहने, कँधे पर झोला उठाये, गाँधीवादी हैं. बहुत सी भाषाएँ बोलते समझते हैं और हालाँकि भारत में उनका नाम कभी नहीं सुना, यहाँ इटली और स्पेन में उनका लिखी किताबें बहुत पढ़ी जाती हैं.
उनके भाषण का विषय था "श्रद्धा, धर्म और सभ्यता" और बहुत बढ़िया बोले. ईसाई धर्म की बात करते हुए उन्होने बाईबल के साथ साथ वेदों, गुरु ग्रँथसाहब, महात्मा बुद्ध और महावीर तथा महात्मा गाँधी के संदेशों की भी बात की. हाल लोगों से खचाखच्च भरा था और बार बार तालियों की गड़गड़ाहट गूँज जाती.
मुझे लगा कि यही योगदान है जो भारतीय विचारकों ने, चाहे वह विवेकानंद हो या कृष्णामूर्ती, अलग अलग स्वरों में दिया था और जिसे पनिक्कर जैसे महात्मा आज दे रहे हैं. भारत के कैथोलिक ईसाई समाज में इस तरह की बात करने वाले पनिक्कर अकेले नहीं है. रुढ़िवादी गिरजाघर इसे ईसाईयत से दूर जाना समझते हैं और पनिक्कर को भी पादरी से हटाने की बात की गयी थी पर उनको सुनने वालों की भीड़ को देख कर स्पष्ट था कि इस भारतीय सोच को समझने वाले लोग दुनिया में हैं.
आज की तस्वीरों में रायमोन पनिक्कर जी.
बचपन से ही देखा था कि अपना धर्म कुछ भी हो, अन्य धर्मों के पूजनीय स्थलों पर हाथ जोड़ने और प्रार्थना करने में कभी झिझक नहीं होती थी. गुरुद्वारा जाना हो या मस्जिद या बड़े दिन के अवसर पर गिरजाघर, कभी यह नहीं सोचा कि यह हमारा धर्म नहीं है तो कम पूजनीय है. ईद की सेंवियाँ हों या गुरुपर्व की कच्ची लस्सी या फ़िर क्रिसमस का प्लम केक, खाने में भी बिल्कुल नहीं रुके. इसका यह अर्थ नहीं था कि अपने धर्म में विश्वास कम हो जाता था पर दूसरे धर्मों का आदर करना भारत में अधिकतर लोगों के लिए स्वभाविक सी बात है जिसके लिए न सोचना पड़ता है, न किसी को समझाना पड़ता है कि क्यों सिख न होते हुए भी गुरुद्वारे में हाथ जोड़े या ईसाई न होते हुए गिरजाघर में हाथ जोड़े.
अन्य देशों में जहाँ एक ही धर्म के बहुत्व हो, इसको समझना आसान नहीं है. यहाँ जब अन्य धर्मों के सम्मान की बात होती है तो वह तार्किक दृष्टि की बात लगती है उसमें वह भारतीय आत्मीयता की समझ कि सब रास्ते एक ही ओर जाते हैं और सभी रास्ते पूजनीय हैं वाली बात नहीं दिखती.
इटली में जब केथोलिक तथा विभिन्न धर्मों के बीच में वार्तालाप या संचार की बात होती है तो कभी कभी लगता है कि अन्य धर्मों को कुछ श्रेणियों में बाँट दिया गया हो. बात अधिकतर एक ईश्वरवादी धर्मों यानि ज्यू और इस्लाम तक ही रुक जाती है शायद क्योकि ईसाई धर्म की जड़ें इन दोनो धर्मों से करीब से जुड़ी हैं. लगता है कि पूर्वी विश्व में जन्मे धर्म, हिदु, बुद्ध, जैन इत्यादि को इनसे नीचा देखा जा रहा हो, उनकी बात न की जाती है और उनसे क्या सीखा जा सकता है उस पर विमर्श नहीं होता.
इसीलिए जब सुना कि शाम को एक गिरजाघर में भारत से आये फादर रायमोन पनिक्कर बोलने वाले हैं तो उन्हे सुनने बहुत शौक से गया. वृद्ध पनिक्कर सादा कुर्ता और लुँगी पहने, कँधे पर झोला उठाये, गाँधीवादी हैं. बहुत सी भाषाएँ बोलते समझते हैं और हालाँकि भारत में उनका नाम कभी नहीं सुना, यहाँ इटली और स्पेन में उनका लिखी किताबें बहुत पढ़ी जाती हैं.
उनके भाषण का विषय था "श्रद्धा, धर्म और सभ्यता" और बहुत बढ़िया बोले. ईसाई धर्म की बात करते हुए उन्होने बाईबल के साथ साथ वेदों, गुरु ग्रँथसाहब, महात्मा बुद्ध और महावीर तथा महात्मा गाँधी के संदेशों की भी बात की. हाल लोगों से खचाखच्च भरा था और बार बार तालियों की गड़गड़ाहट गूँज जाती.
मुझे लगा कि यही योगदान है जो भारतीय विचारकों ने, चाहे वह विवेकानंद हो या कृष्णामूर्ती, अलग अलग स्वरों में दिया था और जिसे पनिक्कर जैसे महात्मा आज दे रहे हैं. भारत के कैथोलिक ईसाई समाज में इस तरह की बात करने वाले पनिक्कर अकेले नहीं है. रुढ़िवादी गिरजाघर इसे ईसाईयत से दूर जाना समझते हैं और पनिक्कर को भी पादरी से हटाने की बात की गयी थी पर उनको सुनने वालों की भीड़ को देख कर स्पष्ट था कि इस भारतीय सोच को समझने वाले लोग दुनिया में हैं.
आज की तस्वीरों में रायमोन पनिक्कर जी.
शनिवार, सितंबर 09, 2006
बेतरतीब डॉयरी के पन्ने
लगता था कि हिंदी का प्रेम अपनी पीढ़ी तक आ कर ही रुक जायेगा. पापा, बुआ के परिवार में हिंदी जीवन यापन का माध्यम भी थी और सृजनात्मकत्ता का प्रेम भी. यही सिलसिला हमारी पीढ़ी में बहुत लोगों ने जारी रखा था. पर पिछले कुछ महीनों में हमारे बाद की नयी पीढ़ी ने हिंदी ने लिखना प्रारम्भ किया है इससे बहुत खुशी होती है और गर्व भी. पहले भाँजे मुकुल ने निरंतर के लिए फ़िल्मों तथा एडस् पर लिखना स्वीकार किया और अब भतीजी पियुली ने अपने चिट्ठे में कविता लिखी है "आशा के पथ पे"-
*****
कुरबान अली ने बीबीसी के नये हिंदी पृष्ठ के बारे में बताया जो हिंदी पत्रिका के रुप में आया है. इस नये रुप के पहले अतिथि सम्पादक है अभिनेता देव आनंद और पत्रिका की सम्पादक हैं सलमा ज़ैदी. बीबीसी जैसी प्रशिष्ठावान संस्था हिंदी लेखन को प्रोत्साहन दे तो खुशी होना स्वाभाविक ही है. पत्रिका का पहला अंक पठनीय है.
*****
बहुत दिनों के बाद बँगला फिल्म देखने का मौका मिला. फिल्म थी ऋतुपूर्ण घोष की "अंतरमहल". बचपन में घर के पास दुर्गा पूजा पर उत्तम कुमार और सुचित्रा सेन की रोने रुलाने वाली भावुक फिल्में मुझे बहुत पसंद थीं. कुछ बड़ा हो कर कभी फिल्म फेस्टिवल में और दूरदर्शन पर मृणाल सेन और सत्याजित राय के सिनेमा को जानने का मौका मिला था. हिंदी सिनेमा में भी बँगला साहित्य की सँवेदना लाने वाले निर्देशकों, बिमल राय, ऋषीकेष मूखर्जी, बासू चैटर्जी भी बहुत प्रिय थे.
ऋतुपूर्ण का सिनेमा जगत उसी समाज को देखता है पर उसकी दृष्टि ऊपर से केवल अच्छा अच्छा दिखने वाली, आसानी से रुलाने वाली भावनाओं जिन्हे भूलना आसान है, पर नहीं रुकती, वह अंदर घुस कर बाहर से सुंदर दिखने वाले उस समाज की परतें खोल कर अंदर सड़ते सच को अँधेरे से रोशनी में लाता है.
"अंतरमहल" को केवल "समय बिताने" को देख कर भुला पाना सँभव नहीं है. बार बार फिल्म में, गरीब घर से आई छोटी उम्र की सुंदर नयी बहु यशोमती (सोहा अली खान) को पुत्र की आशा में तड़पते, हाँफते हुए प्रोढ़ उम्र के राजा भुवनेश्वर चौधरी (जैकी श्रौफ़) के नीचे उनके बिस्तर में पिसता दिखाया जाता है, तब भी जब मँत्र पढ़ते, लार टपकाते पँडित जी बिस्तर के साथ बैठ कर उसके युवा शरीर को देख कर मजे ले रहे होते हैं. बड़ी बहु महामाया (रूपा गाँगुली) छोटी बहु को सलाह देती हैं कि रात को प्रोढ़ पति के सोने के बाद रात को उसे नीचे सो रहे युवा शिल्पकार (अभिशेख बच्चन) के बिस्तर में जाना चाहिए क्योंकि वह जानती है कि बच्चा न कर पाने का कमी पत्नियों में नहीं, स्वयं राजा साहब में हैं.
सोहा अली खान को देख कर लगता है मानो समय की सुई पीछे मुड़ गयी हो और उनकी माँ, "देवी" की शर्मीला टैगोर वापस लौट आईं हों. पर फिल्म समाप्त होने पर उस सड़न की गँध मन में रह जाती है.
निराशा का लिहाफ
आरामदायक है
अपने अन्धेरे आगोश मे
भर लेता है
असलियत की कडी धूप से
बचने का आसरा है
राह मे वही थम जाने का
बहाना है
आशा का सूरज
चुना है मैने
तपता तो है
मगर
राह नई दिखाता है
गर्म बाहो से सहला
हौसला दिलाता है
सूरज से अब तो
सारी उम्र का करार है
मन्ज़िल मिले ना मिले
सफर से मुझे प्यार है
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कुरबान अली ने बीबीसी के नये हिंदी पृष्ठ के बारे में बताया जो हिंदी पत्रिका के रुप में आया है. इस नये रुप के पहले अतिथि सम्पादक है अभिनेता देव आनंद और पत्रिका की सम्पादक हैं सलमा ज़ैदी. बीबीसी जैसी प्रशिष्ठावान संस्था हिंदी लेखन को प्रोत्साहन दे तो खुशी होना स्वाभाविक ही है. पत्रिका का पहला अंक पठनीय है.
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बहुत दिनों के बाद बँगला फिल्म देखने का मौका मिला. फिल्म थी ऋतुपूर्ण घोष की "अंतरमहल". बचपन में घर के पास दुर्गा पूजा पर उत्तम कुमार और सुचित्रा सेन की रोने रुलाने वाली भावुक फिल्में मुझे बहुत पसंद थीं. कुछ बड़ा हो कर कभी फिल्म फेस्टिवल में और दूरदर्शन पर मृणाल सेन और सत्याजित राय के सिनेमा को जानने का मौका मिला था. हिंदी सिनेमा में भी बँगला साहित्य की सँवेदना लाने वाले निर्देशकों, बिमल राय, ऋषीकेष मूखर्जी, बासू चैटर्जी भी बहुत प्रिय थे.
ऋतुपूर्ण का सिनेमा जगत उसी समाज को देखता है पर उसकी दृष्टि ऊपर से केवल अच्छा अच्छा दिखने वाली, आसानी से रुलाने वाली भावनाओं जिन्हे भूलना आसान है, पर नहीं रुकती, वह अंदर घुस कर बाहर से सुंदर दिखने वाले उस समाज की परतें खोल कर अंदर सड़ते सच को अँधेरे से रोशनी में लाता है.
"अंतरमहल" को केवल "समय बिताने" को देख कर भुला पाना सँभव नहीं है. बार बार फिल्म में, गरीब घर से आई छोटी उम्र की सुंदर नयी बहु यशोमती (सोहा अली खान) को पुत्र की आशा में तड़पते, हाँफते हुए प्रोढ़ उम्र के राजा भुवनेश्वर चौधरी (जैकी श्रौफ़) के नीचे उनके बिस्तर में पिसता दिखाया जाता है, तब भी जब मँत्र पढ़ते, लार टपकाते पँडित जी बिस्तर के साथ बैठ कर उसके युवा शरीर को देख कर मजे ले रहे होते हैं. बड़ी बहु महामाया (रूपा गाँगुली) छोटी बहु को सलाह देती हैं कि रात को प्रोढ़ पति के सोने के बाद रात को उसे नीचे सो रहे युवा शिल्पकार (अभिशेख बच्चन) के बिस्तर में जाना चाहिए क्योंकि वह जानती है कि बच्चा न कर पाने का कमी पत्नियों में नहीं, स्वयं राजा साहब में हैं.
सोहा अली खान को देख कर लगता है मानो समय की सुई पीछे मुड़ गयी हो और उनकी माँ, "देवी" की शर्मीला टैगोर वापस लौट आईं हों. पर फिल्म समाप्त होने पर उस सड़न की गँध मन में रह जाती है.
बुधवार, सितंबर 06, 2006
दुर्गा माँ की वापसी
बिनिल का टेलीफ़ोन आया, बोला कि एक बहुत आवश्यक काम के लिए उसे मेरी सहायता की आवश्यकता है, कब मिल सकते हैं? बिनिल यहाँ की "सनातन साँस्कृतिक परिषद" का सभापति है. इस परिषद के सदस्य हैं भारत और बँगलादेश से आये बोलोनिया में रहनेवाले करीब ४० बँगाली हिंदु परिवार. दिक्कत यह है कि परिषद में किसी को भी ठीक से बँगला के अलावा कोई अन्य भाषा नहीं बोलनी आती. जबसे बिनिल को मालूम हुआ कि मुझे कुछ कुछ बँगला की समझ है तो तब से मुझे उनकी परिषद में माननीय सलाहकार की पदवी मिल गयी है जिसका अर्थ है कि जब भी बिनिल को किसी काम के लिए इतालवी या अँग्रेज़ी में कुछ तैयार करना होता है या फ़िर क्मप्यूटर पर कुछ करना होता है तो वह मुझे ही टेलीफ़ोन करते हैं.
शाम को बिनिल हमारे घर आया तो मालूम हुआ कि आवश्यक काम है आनेवाली दुर्गा पूजा के लिए विभिन्न भाषाओं में कुछ पोस्टर आदि बनाना.
बिनिल बात करते समय कुछ शब्द हिंदी के बोलता है और बाकि सर्राटेदार बँगला में. मैं बार बार कहता हूँ, "बिनिल बाबू, बेशी बाँगला आमारके बोलते पाड़बे ना, ओल्पो ओल्पो जानिश", यानि कि अगर आप इस तरह तेजी से बोलेंगे तो कुछ नहीं समझ सकता, धीरे धीरे बोलिये. हाँ कह कर सिर हिलाता है पर थोड़ी देर में फ़िर यह भूल जाता है.
पूजा प्रारम्भ होगी २८ सितम्बर को अधिवास से और उस दिन तो बस अधिवास पूजा ही होगी जब दुर्गा माँ की मूर्ती ला कर स्थापित की जायेगी. पूजा का महूर्त उनके पँडित ने बताया है शाम छहः बज कर तीस मिनट से ले कर रात आठ बज कर उन्नतीस मिनट.
"पर प्रोग्राम में लिखेंगे कि पूजा रात आठ बज कर उन्नतीस मिनट तक होगी तो कुछ अजीब सा नहीं लगेगा? मैंने पूछा. बिनिल मेरी तरफ़ बहुत दया से देखता है जब मैं ऐसे बेवकूफ़ी वाले प्रश्न पूछता हूँ. जब पँडित जी ने महूर्त का समय बताया है तो इसमे अज़ीब क्या? उसके कहने का तात्पर्य है कि हिंदू धर्म के प्रति मेरी श्रद्धा में कुछ कमी है.
"अच्छा साईं बाबा के बारे में आप का क्या विचार है?", इस बार प्रश्न पूछने की बारी बिनिल की थी. साई बाबा! मुझे पहले तो समझ नहीं आया क्या कहूँ. बहुत साल पहले दिल्ली में मेरी सीमा मौसी को साई बाबा की भक्ति का भूत चढ़ा था. उनके घर में एक बहुत बड़ी तस्वीर लगी थी जहाँ घर में आनेवाले सभी को जा कर दर्शन कराये जाते थे. "बाबा जी की विभूति", तस्वीर के सामने उन्होंने मुझे इशारा किया था. "विभूति माने क्या?, मैंने पूछा.
"बाबा का चमत्कार. उनकी तस्वीर से यह विभूति अपने आप ही आ जाती है!" कहते हुए उन्होंने हाथ जोड़ दिये थे. शायद मौसा की सिगरेट की राख होगी जो हवा से उड़ कर वहाँ गिर गयी, मैंने मन ही मन कहा था और सोचा था कि भारत में उनके इतने गरीब भक्त हैं उनका जीवन सुधारते तो चमत्कार होता. खैर अपने परिवार की यह सब पुरानी बातें बिनिल को क्या सुनाता, बोला, "साई बाबा का क्या? वह तो बहुत चमत्कार करते है, सुना है."
साई बाबा की एसोशियेशन वाले दुर्गा पूजा में "भोजन" करना चाहते हैं. पिछले साल भी किया था पर यह बात परिषद के सभी सदस्यों को अच्छी नहीं लगी थी, जिनका विचार था कि साईबाबा मुसलमान हैं. बँगलादेश से आये हिंदू इस पूजा में मुसलमानों से जुड़ा कुछ भी नहीं चाहते. कुछ देर लगी मुझे समझने में कि बात भोजन की नहीं भजन की थी. पर मुझे क्या मालूम था साई बाबा के बारे में जो इसका उत्तर देता? वह केवल हिंदुओं द्वारा पूजे जाते हैं या फ़िर उनके भक्तों में मुसलमान भी हैं, यह मुझे नहीं मालूम. सोचा कि चुपचाप सिर हिलाने में ही भलाई है. नहीं साईंबाबा मुसलमान नहीं हैं, अंत में बिनिल ने निर्णय लिया.
पाँच दिन का प्रोग्राम लिखने में दो घँटे निकल गये. बस बिनिल बाबू अब आप जाईये, मैंने कहा. पत्नी मुझे तीखी नजर से देख रही थी. ड्राईंगरुम में बैठे थे हम, इसलिए आज उसने टीवी नहीं देखा था. मैंने खाना भी नहीं खाया था और अभी कुत्ते को सैर कराना बाकी था. बेमन से उठे बिनिल बाबू जैसे कि मुझे छोड़ते समय बहुत दुख हो रहा हो, फ़िर जाते जाते, दरवाजे पर रुक गये, "आप इस प्रोग्राम को बँगला में भी लिख सकते हैं क्या क्मप्यूटर पर?"
शाम को बिनिल हमारे घर आया तो मालूम हुआ कि आवश्यक काम है आनेवाली दुर्गा पूजा के लिए विभिन्न भाषाओं में कुछ पोस्टर आदि बनाना.
बिनिल बात करते समय कुछ शब्द हिंदी के बोलता है और बाकि सर्राटेदार बँगला में. मैं बार बार कहता हूँ, "बिनिल बाबू, बेशी बाँगला आमारके बोलते पाड़बे ना, ओल्पो ओल्पो जानिश", यानि कि अगर आप इस तरह तेजी से बोलेंगे तो कुछ नहीं समझ सकता, धीरे धीरे बोलिये. हाँ कह कर सिर हिलाता है पर थोड़ी देर में फ़िर यह भूल जाता है.
पूजा प्रारम्भ होगी २८ सितम्बर को अधिवास से और उस दिन तो बस अधिवास पूजा ही होगी जब दुर्गा माँ की मूर्ती ला कर स्थापित की जायेगी. पूजा का महूर्त उनके पँडित ने बताया है शाम छहः बज कर तीस मिनट से ले कर रात आठ बज कर उन्नतीस मिनट.
"पर प्रोग्राम में लिखेंगे कि पूजा रात आठ बज कर उन्नतीस मिनट तक होगी तो कुछ अजीब सा नहीं लगेगा? मैंने पूछा. बिनिल मेरी तरफ़ बहुत दया से देखता है जब मैं ऐसे बेवकूफ़ी वाले प्रश्न पूछता हूँ. जब पँडित जी ने महूर्त का समय बताया है तो इसमे अज़ीब क्या? उसके कहने का तात्पर्य है कि हिंदू धर्म के प्रति मेरी श्रद्धा में कुछ कमी है.
"अच्छा साईं बाबा के बारे में आप का क्या विचार है?", इस बार प्रश्न पूछने की बारी बिनिल की थी. साई बाबा! मुझे पहले तो समझ नहीं आया क्या कहूँ. बहुत साल पहले दिल्ली में मेरी सीमा मौसी को साई बाबा की भक्ति का भूत चढ़ा था. उनके घर में एक बहुत बड़ी तस्वीर लगी थी जहाँ घर में आनेवाले सभी को जा कर दर्शन कराये जाते थे. "बाबा जी की विभूति", तस्वीर के सामने उन्होंने मुझे इशारा किया था. "विभूति माने क्या?, मैंने पूछा.
"बाबा का चमत्कार. उनकी तस्वीर से यह विभूति अपने आप ही आ जाती है!" कहते हुए उन्होंने हाथ जोड़ दिये थे. शायद मौसा की सिगरेट की राख होगी जो हवा से उड़ कर वहाँ गिर गयी, मैंने मन ही मन कहा था और सोचा था कि भारत में उनके इतने गरीब भक्त हैं उनका जीवन सुधारते तो चमत्कार होता. खैर अपने परिवार की यह सब पुरानी बातें बिनिल को क्या सुनाता, बोला, "साई बाबा का क्या? वह तो बहुत चमत्कार करते है, सुना है."
साई बाबा की एसोशियेशन वाले दुर्गा पूजा में "भोजन" करना चाहते हैं. पिछले साल भी किया था पर यह बात परिषद के सभी सदस्यों को अच्छी नहीं लगी थी, जिनका विचार था कि साईबाबा मुसलमान हैं. बँगलादेश से आये हिंदू इस पूजा में मुसलमानों से जुड़ा कुछ भी नहीं चाहते. कुछ देर लगी मुझे समझने में कि बात भोजन की नहीं भजन की थी. पर मुझे क्या मालूम था साई बाबा के बारे में जो इसका उत्तर देता? वह केवल हिंदुओं द्वारा पूजे जाते हैं या फ़िर उनके भक्तों में मुसलमान भी हैं, यह मुझे नहीं मालूम. सोचा कि चुपचाप सिर हिलाने में ही भलाई है. नहीं साईंबाबा मुसलमान नहीं हैं, अंत में बिनिल ने निर्णय लिया.
पाँच दिन का प्रोग्राम लिखने में दो घँटे निकल गये. बस बिनिल बाबू अब आप जाईये, मैंने कहा. पत्नी मुझे तीखी नजर से देख रही थी. ड्राईंगरुम में बैठे थे हम, इसलिए आज उसने टीवी नहीं देखा था. मैंने खाना भी नहीं खाया था और अभी कुत्ते को सैर कराना बाकी था. बेमन से उठे बिनिल बाबू जैसे कि मुझे छोड़ते समय बहुत दुख हो रहा हो, फ़िर जाते जाते, दरवाजे पर रुक गये, "आप इस प्रोग्राम को बँगला में भी लिख सकते हैं क्या क्मप्यूटर पर?"
शुक्रवार, सितंबर 01, 2006
सांस्कृतिक भिन्नता
मैं अपनी मित्र के साथ बाग में बने केफ़े में बैठा था. बहुत समय के बाद मुलाकात हुई थी. वह यहाँ से करीब सौ किलोमीटर दूर रिमिनी शहर में रहती है. बोली, "तुम्हें 16 सितम्बर को रिमिनी आ सकते हो क्या, हम लोग एक सभा कर रहे हैं, तुम भी होगे तो अच्छा लगेगा."
सोचना नहीं पड़ा, बोला, "16 को तो शायद नहीं आ पाऊँगा, उस दिन भारत से मेरे दादा भाभी यहाँ आ रहे हैं, दादा की पेरिस में मीटिंग है और वहाँ से वे दोनो तीन चार दिनों के लिए यहाँ आएँगे."
"पर तुम्हारा तो कोई भाई नहीं है!" उसने कहा तो मैंने बुआ के परिवार के बारे में बताया और कुछ भारतीय परिवारों के बारे में कि बुआ या मामा के बच्चे अपने सगे भाई बहनों से कम नहीं होते.
"एक शाम की ही तो बात है, उन्हें कुछ घँटों के लिए घर के बाकी लोगों के साथ रहने देना, तुम्हारे बिना सभा अच्छी नहीं होगी", उसने ज़िद की.
मुझे हँसी आ गयी, "वाह, इतने सालों के बाद भाभी के साथ रहने का मौका मिलेगा, उसमे से एक पल भी नहीं खोना चाहूँगा." मैंने उसे उन दिनों के बारे में बताया जब दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ता था, तब दादा और भाभी का प्रेम चल रहा था, विवाह नहीं हुआ था, मुझे लगता था कि भाभी से सुंदर लड़की दुनिया में हो ही नहीं सकती. शादी के बाद कहता था कि भाभी जैसी लड़की मिलनी चाहिए!
"लगता है कि भाभी से कुछ विषेश ही प्यार है, उनकी बात करते हो तो तुम्हारी आँखों में चमक आ जाती है", मित्र बोली और मैंने सिर हिलाया. "क्या केवल मन ही मन प्यार करते थे या बात कुछ आगे भी बढ़ी कभी?" वह प्रश्न पूछते समय मुस्करायी.
स्तब्ध रह गया मैं. छीः, यह कैसा बेहूदा प्रश्न हुआ? अचानक गुस्सा आ गया, कुछ बोला नहीं पाया. शायद उसने मेरे चेहरे से भाँप लिया था कि उसका प्रश्न कुछ ठीक नहीं था, बोली, "क्या हुआ? नाजुक सवाल था शायद, इस बारे में बात नहीं करना चाहते?"
मैंने स्वयं को समझाया कि गुस्सा करना बेकार था, यह हमारी सोच की सांस्कृतिक भिन्नता थी. उसे भारतीय परिवार में देवर भाभी के रिश्ते की क्या समझ हो सकती थी? उसे क्या मालूम था रामायण के बारे में और सीता और लक्षमण के आदर्श के बारे में? उसे इसके बारे में कुछ तो बताया पर अंदर से लगा कि ठीक से समझाना कठिन होगा.
गुस्सा ठँडा हुआ तो शाम को घूमते समय, मन में छुपे सामाजिक और नैतिक निषेधों के बारे में सोचने लगा, जो बचपन से ही रामायण और अन्य कथाओं से, या फ़िर आम व्यावहार से हमारे विचारों में इस तरह घुलमिल जाते हैं. उन्हे छेड़ना सोते शेर को जगाना है. उसका इशारा मात्र ही हिला कर रख देता है.
संयुक्त परिवार में जहाँ विभिन्न भाई साथ रहते हैं, उस समाज में जहाँ किशोरावस्था के बाद युवक और युवतियों को मिलने का, साथ रहने का मौका मिलना कम हो जाता है या नहीं रहता, उस स्थिति में देवर भाभी के रिश्ते को निषेधों में इस तरह बाँधना कि रिश्ते की सीमाओं को पार करना का विचार भी पाप लगे, परिवार की शाँती और समाज की स्थिरता के लिए आवश्यक होगा, पर जब स्थिति बदल जाती है तो क्या पुराने निषेध भी बदल जाते हैं? जैसे आज जब संयुक्त परिवार टूट रहे हैं या कम हो रहे हें तो क्या भारतीय समाज में भी देवर भाभी के नाते बदल जायेंगे?
*****
बहुत साल पहले डेविड लीन की फ़िल्म रायन की बेटी (Ryan's Daughter) देखी थी. आयरलैंड के समुद्री तट पर बसे एक गाँव के पब मालिक रायन की बेटी रोज़ी (Sarah Miles) की कहानी थी. जीवन से भरी, चंचल रोज़ी का विवाह होता है गाँव के शाँत प्रौढ़ स्कूल मास्टर (Roberto Mitchum) से. रोज़ी की दोस्ती हो जाती है गाँव में आये एक अँग्रेजी सिपाही (Christopher Jones) से. बाद में जब आयरिश क्राँतीकारियों की बँदूकें पकड़ी जाती हैं तो सबका शक रोज़ी पर ही पड़ता है, गद्दार हो कर दुश्मन के पुरुष को प्यार करने के अपराध की सजा मिलती है उसे जब गाँव के लोग उसका सिर मूढ़ कर, मुँह काला कर देते हैं.
द्वितीय महायुद्ध के दौरान इतालवी और फ्राँसिसी महिलाओं के जर्मन सिपाहियों से प्यार और सम्बंधों को भी युद्ध के बाद ऐसी ही सजा दी गयीं थीं.
कल रात को समाचारों में जब चेचेन्या की मल्लिका को पुलिस द्वारा नँगा करके, सिर मूढ़ा कर, माथे पर हरा निशान बना कर मार खाने का वीडियो देखा तो रायन की बेटी की याद आ गयी. मल्लिका का कसूर है कि उस पर चेचेन्या की मुसलमान हो कर रुसी दुश्मनों के इसाई सिपाही से प्यार करने का शक है. यह वीडियो न्यू योर्क टाईमस के वेबपृष्ठ पर देखा जा सकता है.
सच है कि इतिहास नहीं बदलता, बार बार हम अपना सभ्य होना भूल कर पुरानी बर्बरता में गिर जाते हैं. कमज़ोर पर ही इस बर्बरता की भड़ास निकाल जाती है, सबसे अधिक औरतों पर. नेपाल में जब घर में होने वाली हिंसा की बात हो रही थी तो गाँव की औरते कहती थीं कि पतियों को गर्भवती स्त्री के पेट पर लात मारने में विषेश आनंद आता है. गर्भवती मल्लिका को लात मारने वाले पुलिस वालों को भी इसी आनंद की खोज है. कितने भिन्न हैं हम आपस में और कितने मिलते हैं एक दूसरे से!
सोचना नहीं पड़ा, बोला, "16 को तो शायद नहीं आ पाऊँगा, उस दिन भारत से मेरे दादा भाभी यहाँ आ रहे हैं, दादा की पेरिस में मीटिंग है और वहाँ से वे दोनो तीन चार दिनों के लिए यहाँ आएँगे."
"पर तुम्हारा तो कोई भाई नहीं है!" उसने कहा तो मैंने बुआ के परिवार के बारे में बताया और कुछ भारतीय परिवारों के बारे में कि बुआ या मामा के बच्चे अपने सगे भाई बहनों से कम नहीं होते.
"एक शाम की ही तो बात है, उन्हें कुछ घँटों के लिए घर के बाकी लोगों के साथ रहने देना, तुम्हारे बिना सभा अच्छी नहीं होगी", उसने ज़िद की.
मुझे हँसी आ गयी, "वाह, इतने सालों के बाद भाभी के साथ रहने का मौका मिलेगा, उसमे से एक पल भी नहीं खोना चाहूँगा." मैंने उसे उन दिनों के बारे में बताया जब दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ता था, तब दादा और भाभी का प्रेम चल रहा था, विवाह नहीं हुआ था, मुझे लगता था कि भाभी से सुंदर लड़की दुनिया में हो ही नहीं सकती. शादी के बाद कहता था कि भाभी जैसी लड़की मिलनी चाहिए!
"लगता है कि भाभी से कुछ विषेश ही प्यार है, उनकी बात करते हो तो तुम्हारी आँखों में चमक आ जाती है", मित्र बोली और मैंने सिर हिलाया. "क्या केवल मन ही मन प्यार करते थे या बात कुछ आगे भी बढ़ी कभी?" वह प्रश्न पूछते समय मुस्करायी.
स्तब्ध रह गया मैं. छीः, यह कैसा बेहूदा प्रश्न हुआ? अचानक गुस्सा आ गया, कुछ बोला नहीं पाया. शायद उसने मेरे चेहरे से भाँप लिया था कि उसका प्रश्न कुछ ठीक नहीं था, बोली, "क्या हुआ? नाजुक सवाल था शायद, इस बारे में बात नहीं करना चाहते?"
मैंने स्वयं को समझाया कि गुस्सा करना बेकार था, यह हमारी सोच की सांस्कृतिक भिन्नता थी. उसे भारतीय परिवार में देवर भाभी के रिश्ते की क्या समझ हो सकती थी? उसे क्या मालूम था रामायण के बारे में और सीता और लक्षमण के आदर्श के बारे में? उसे इसके बारे में कुछ तो बताया पर अंदर से लगा कि ठीक से समझाना कठिन होगा.
गुस्सा ठँडा हुआ तो शाम को घूमते समय, मन में छुपे सामाजिक और नैतिक निषेधों के बारे में सोचने लगा, जो बचपन से ही रामायण और अन्य कथाओं से, या फ़िर आम व्यावहार से हमारे विचारों में इस तरह घुलमिल जाते हैं. उन्हे छेड़ना सोते शेर को जगाना है. उसका इशारा मात्र ही हिला कर रख देता है.
संयुक्त परिवार में जहाँ विभिन्न भाई साथ रहते हैं, उस समाज में जहाँ किशोरावस्था के बाद युवक और युवतियों को मिलने का, साथ रहने का मौका मिलना कम हो जाता है या नहीं रहता, उस स्थिति में देवर भाभी के रिश्ते को निषेधों में इस तरह बाँधना कि रिश्ते की सीमाओं को पार करना का विचार भी पाप लगे, परिवार की शाँती और समाज की स्थिरता के लिए आवश्यक होगा, पर जब स्थिति बदल जाती है तो क्या पुराने निषेध भी बदल जाते हैं? जैसे आज जब संयुक्त परिवार टूट रहे हैं या कम हो रहे हें तो क्या भारतीय समाज में भी देवर भाभी के नाते बदल जायेंगे?
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बहुत साल पहले डेविड लीन की फ़िल्म रायन की बेटी (Ryan's Daughter) देखी थी. आयरलैंड के समुद्री तट पर बसे एक गाँव के पब मालिक रायन की बेटी रोज़ी (Sarah Miles) की कहानी थी. जीवन से भरी, चंचल रोज़ी का विवाह होता है गाँव के शाँत प्रौढ़ स्कूल मास्टर (Roberto Mitchum) से. रोज़ी की दोस्ती हो जाती है गाँव में आये एक अँग्रेजी सिपाही (Christopher Jones) से. बाद में जब आयरिश क्राँतीकारियों की बँदूकें पकड़ी जाती हैं तो सबका शक रोज़ी पर ही पड़ता है, गद्दार हो कर दुश्मन के पुरुष को प्यार करने के अपराध की सजा मिलती है उसे जब गाँव के लोग उसका सिर मूढ़ कर, मुँह काला कर देते हैं.
द्वितीय महायुद्ध के दौरान इतालवी और फ्राँसिसी महिलाओं के जर्मन सिपाहियों से प्यार और सम्बंधों को भी युद्ध के बाद ऐसी ही सजा दी गयीं थीं.
कल रात को समाचारों में जब चेचेन्या की मल्लिका को पुलिस द्वारा नँगा करके, सिर मूढ़ा कर, माथे पर हरा निशान बना कर मार खाने का वीडियो देखा तो रायन की बेटी की याद आ गयी. मल्लिका का कसूर है कि उस पर चेचेन्या की मुसलमान हो कर रुसी दुश्मनों के इसाई सिपाही से प्यार करने का शक है. यह वीडियो न्यू योर्क टाईमस के वेबपृष्ठ पर देखा जा सकता है.
सच है कि इतिहास नहीं बदलता, बार बार हम अपना सभ्य होना भूल कर पुरानी बर्बरता में गिर जाते हैं. कमज़ोर पर ही इस बर्बरता की भड़ास निकाल जाती है, सबसे अधिक औरतों पर. नेपाल में जब घर में होने वाली हिंसा की बात हो रही थी तो गाँव की औरते कहती थीं कि पतियों को गर्भवती स्त्री के पेट पर लात मारने में विषेश आनंद आता है. गर्भवती मल्लिका को लात मारने वाले पुलिस वालों को भी इसी आनंद की खोज है. कितने भिन्न हैं हम आपस में और कितने मिलते हैं एक दूसरे से!
गुरुवार, अगस्त 31, 2006
बदलती रुचियाँ
एक समय था जब रविवार के आनंद का महत्वपूर्ण भाग होता था बिस्तर में लेटे लेटे गर्म चाय की चुस्कियाँ लेते हुए, अखबार पढ़ना. पढ़ने का इतना शौक था कि अखबार भी पहले से आखिरी पन्ने तक पढ़ी जाती थी. आदत के मारे सुबह आँख जल्दी ही खुल जाती थी, पर रविवार को अखबार देरी से आता था. जैसे ही अखबार वाला बाहर से अखबार को फ़ैंकता तो उसके गिरने की आवाज़ सुनते ही अखबार उठाने के लिए बाहर भागता, फ़िर उसके पन्ने घर में सब लोगों में बँट जाते ताकि किसी को भी उसे पढ़ने के लिए अधिक इंतज़ार न करना पड़े.
बचपन में तो घर में अखबार हिंदी का ही आता था, "नवभारत टाईमस". पर किशोरावस्था में आते आते, उसके साथ अँग्रेज़ी का "इँडियन एक्सप्रैस" भी जुड़ गया था. बुआ जो करीब ही रहतीं थीं, के यहाँ आता था अँग्रेज़ी का "हिंदुस्तान टाईमस", पर उसके तीन चार पन्नों के शादियों, घरों और नौकरियों के विज्ञापनों को देख कर मुझे खीज आती थी. सोचता था यह भी कैसा अखबार है, अखबार कम विज्ञापन की दुकान है.
वे दिन थे जब अरुण शौरी और चित्रा सुब्रामणियम "इँडियन एक्सप्रैस" में प्रति दिन राजीव गाँधी के विरुद्ध बोफोरस के घपले की नयी पोल खोलते थे. अखबार पढ़ना तब रोमाँचक उपन्यास पढ़ने से कम नहीं था. उन दिनों में अरुण शौरी का कुछ भी छपता तो उसे पढ़ने की बहुत उत्सुक्ता रहती थी. तब उनके लिखने का ढ़ँग भी अलग था. आजकल जैसे बाल की खाल निकाल कर उसे हज़ार टुकड़ों में बाँट कर, यहाँ वहाँ से रेफेरेंस दे कर वह कुछ उबा सा देते हैं, तब वैसा नहीं लिखते थे. वही दिन थे जब "इंडियन एक्सप्रैस" के प्रति मन में इतना विश्वास बन गया था कि जब तक भारत में रहे वही अखबार घर में आया.
"इँडियन एक्सप्रैस" के प्रति श्रद्धा का एक अन्य कारण भी था. पापा की अक्समात मृत्यु के बाद श्री जयप्रकाश नारायण के कहने पर अखबार के मालिक गोयनका जी ने छात्रविती दे कर मेरी और मेरी छोटी बहन की मेडिकल कालिज की पढ़ाई पूरी कराई, वरना कम से कम मुझे तो पढ़ाई छोड़ कर काम खोजना पड़ता.
यहाँ आ कर अपने चहेते अखबारों और पत्रिकाओं से धीरे धीरे नाता टूट गया. जब सारिका, धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान के प्रकाशन रुक गये तो भारत से पत्रिकाएँ मँगवाना बस "हँस" तक ही सीमित रह गया.
केवल पिछले कुछ वर्षों में अंतर्जाल की सुविधा के साथ भारतीय लेखन से नाता दोबारा जुड़ा है पर यह नाता पिछले नातों से भिन्न है. समय सीमित होता है इसलिए उपयोग सिर्फ़ उस जगह होता है जहाँ अधिक आनंद और संतोष मिले. आज कल अधिकतर समय, ८० प्रतिशत तक समय तो चिट्ठों के साथ गुजरता है, हिंदी और अँग्रेजी के भारतीय मूल के छिट्ठाकारों के जगत में.
अखबारों में कभी "हिंदुस्तान टाईमस" के पृष्ठों को देख लेता हूँ पर भारत के राजनीतिक समाचारों में रुचि कम हो जाने से वहाँ भी कम ही पढ़ता हूँ. अंतर्जाल के संस्करणों में बाकी के अखबार उतने अच्छे नहीं लगते. इसलिए मन में अभी भी कृतज्ञता की भावना के होते हुए भी, अंतर्जाल पर "इंडियन एक्सप्रैस" पढ़ना नहीं अच्छा लगता.
हिंदी फिल्म जगत में दिलचस्पी अवश्य बनी हुई है पर जिन पत्रिकाओं को भारत में पढ़ना अच्छा लगता था जैसे फिल्मफैयर इत्यादि, अंतर्जाल पर उनको पढ़ने में उतना आनंद नहीं आता बल्कि इंडिया एफएम या रिडिफ कोम जैसे अंतर्जाल पृष्ठ अधिक अच्छे लगते हैं क्योंकि वहाँ हर दिन नये समाचार मिलते हैं. जबकि फिल्मफैयर जैसी पत्रिकाओं के अंतर्जाल पृष्ठ छपे कागजं से सीधे अंतर्जाल पर उतार दिये गये लगते हैं.
अँग्रेजी की पत्रिकाएँ आऊटलुक और द वीक जिन्हें भारत में पढ़ना अच्छा लगता था, कोशिश करता हूँ कि उन्हें पढ़ने के लिए समय नियमित रुप से निकाला जाये, पर समय चिट्ठों मे निकलने की वजह से कभी कभी उन्हे पढ़े भी हफ्ते हो जाते हैं.
प्रवासी भारतीयों ने भारतीय फिल्मों पर अपना प्रभाव छोड़ा है, प्रवास में बाज़ार का मूल्य बढ़ने से, फिल्में अब प्रवासियों की रुचि को देख कर भी बनायी जाती हैं, पर क्या प्रवासियों का प्रभाव अखबारों और पत्रिकाओं पर भी पड़ेगा? आज की बढ़ती नयी तकनीकों का क्या प्रभाव पड़ेगा भारतीय मीडिया पर?
आप लोगों के इसके अनुभव कैसे हैं मालूम नहीं पर अगर सभी लोग मेरी तरह के होने लगे तो भविष्य में हमारी रुचियों के इन बदलावों का भारतीय पत्रकारिता पर क्या असर होगा? आज भारत में अधिकतर लोगों के लिए अंतर्जाल केवल एक शब्द है जिसका उन्हें व्यक्तिगत अनुभव न हो, न ही शायद अधिकतर भारतीयों के जीवन इतनी तेज़ी से भाग रहे हैं कि उन्हें मेरी तरह रुक कर सोचने की फुरसत ही न हो, इसलिए हो सकता है कि निकट भविष्य में इसका असर शायद कुछ न हो?
बचपन में तो घर में अखबार हिंदी का ही आता था, "नवभारत टाईमस". पर किशोरावस्था में आते आते, उसके साथ अँग्रेज़ी का "इँडियन एक्सप्रैस" भी जुड़ गया था. बुआ जो करीब ही रहतीं थीं, के यहाँ आता था अँग्रेज़ी का "हिंदुस्तान टाईमस", पर उसके तीन चार पन्नों के शादियों, घरों और नौकरियों के विज्ञापनों को देख कर मुझे खीज आती थी. सोचता था यह भी कैसा अखबार है, अखबार कम विज्ञापन की दुकान है.
वे दिन थे जब अरुण शौरी और चित्रा सुब्रामणियम "इँडियन एक्सप्रैस" में प्रति दिन राजीव गाँधी के विरुद्ध बोफोरस के घपले की नयी पोल खोलते थे. अखबार पढ़ना तब रोमाँचक उपन्यास पढ़ने से कम नहीं था. उन दिनों में अरुण शौरी का कुछ भी छपता तो उसे पढ़ने की बहुत उत्सुक्ता रहती थी. तब उनके लिखने का ढ़ँग भी अलग था. आजकल जैसे बाल की खाल निकाल कर उसे हज़ार टुकड़ों में बाँट कर, यहाँ वहाँ से रेफेरेंस दे कर वह कुछ उबा सा देते हैं, तब वैसा नहीं लिखते थे. वही दिन थे जब "इंडियन एक्सप्रैस" के प्रति मन में इतना विश्वास बन गया था कि जब तक भारत में रहे वही अखबार घर में आया.
"इँडियन एक्सप्रैस" के प्रति श्रद्धा का एक अन्य कारण भी था. पापा की अक्समात मृत्यु के बाद श्री जयप्रकाश नारायण के कहने पर अखबार के मालिक गोयनका जी ने छात्रविती दे कर मेरी और मेरी छोटी बहन की मेडिकल कालिज की पढ़ाई पूरी कराई, वरना कम से कम मुझे तो पढ़ाई छोड़ कर काम खोजना पड़ता.
यहाँ आ कर अपने चहेते अखबारों और पत्रिकाओं से धीरे धीरे नाता टूट गया. जब सारिका, धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान के प्रकाशन रुक गये तो भारत से पत्रिकाएँ मँगवाना बस "हँस" तक ही सीमित रह गया.
केवल पिछले कुछ वर्षों में अंतर्जाल की सुविधा के साथ भारतीय लेखन से नाता दोबारा जुड़ा है पर यह नाता पिछले नातों से भिन्न है. समय सीमित होता है इसलिए उपयोग सिर्फ़ उस जगह होता है जहाँ अधिक आनंद और संतोष मिले. आज कल अधिकतर समय, ८० प्रतिशत तक समय तो चिट्ठों के साथ गुजरता है, हिंदी और अँग्रेजी के भारतीय मूल के छिट्ठाकारों के जगत में.
अखबारों में कभी "हिंदुस्तान टाईमस" के पृष्ठों को देख लेता हूँ पर भारत के राजनीतिक समाचारों में रुचि कम हो जाने से वहाँ भी कम ही पढ़ता हूँ. अंतर्जाल के संस्करणों में बाकी के अखबार उतने अच्छे नहीं लगते. इसलिए मन में अभी भी कृतज्ञता की भावना के होते हुए भी, अंतर्जाल पर "इंडियन एक्सप्रैस" पढ़ना नहीं अच्छा लगता.
हिंदी फिल्म जगत में दिलचस्पी अवश्य बनी हुई है पर जिन पत्रिकाओं को भारत में पढ़ना अच्छा लगता था जैसे फिल्मफैयर इत्यादि, अंतर्जाल पर उनको पढ़ने में उतना आनंद नहीं आता बल्कि इंडिया एफएम या रिडिफ कोम जैसे अंतर्जाल पृष्ठ अधिक अच्छे लगते हैं क्योंकि वहाँ हर दिन नये समाचार मिलते हैं. जबकि फिल्मफैयर जैसी पत्रिकाओं के अंतर्जाल पृष्ठ छपे कागजं से सीधे अंतर्जाल पर उतार दिये गये लगते हैं.
अँग्रेजी की पत्रिकाएँ आऊटलुक और द वीक जिन्हें भारत में पढ़ना अच्छा लगता था, कोशिश करता हूँ कि उन्हें पढ़ने के लिए समय नियमित रुप से निकाला जाये, पर समय चिट्ठों मे निकलने की वजह से कभी कभी उन्हे पढ़े भी हफ्ते हो जाते हैं.
प्रवासी भारतीयों ने भारतीय फिल्मों पर अपना प्रभाव छोड़ा है, प्रवास में बाज़ार का मूल्य बढ़ने से, फिल्में अब प्रवासियों की रुचि को देख कर भी बनायी जाती हैं, पर क्या प्रवासियों का प्रभाव अखबारों और पत्रिकाओं पर भी पड़ेगा? आज की बढ़ती नयी तकनीकों का क्या प्रभाव पड़ेगा भारतीय मीडिया पर?
आप लोगों के इसके अनुभव कैसे हैं मालूम नहीं पर अगर सभी लोग मेरी तरह के होने लगे तो भविष्य में हमारी रुचियों के इन बदलावों का भारतीय पत्रकारिता पर क्या असर होगा? आज भारत में अधिकतर लोगों के लिए अंतर्जाल केवल एक शब्द है जिसका उन्हें व्यक्तिगत अनुभव न हो, न ही शायद अधिकतर भारतीयों के जीवन इतनी तेज़ी से भाग रहे हैं कि उन्हें मेरी तरह रुक कर सोचने की फुरसत ही न हो, इसलिए हो सकता है कि निकट भविष्य में इसका असर शायद कुछ न हो?
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