कोई अगर अपनी जान बचाने के लिए आप से आप का थोड़ा सा ताज़ा किया हुआ पाखाना माँगे तो क्या आप देंगे? आप सोच रहे होंगे कि शायद यह कोई मज़ाक है. लेकिन यह कोई मज़ाक नहीं है, बल्कि वैज्ञानिक खोज का विषय है, जिसकी कहानी न्यु साईन्टिस्ट पत्रिका में श्री अनिल अनन्तस्वामी ने लिखी है.
"पाखाना" शब्द ही कुछ ऐसा है जिसका सामाजिक प्रभाव छोटी उम्र से ही बहुत तेज़ होता है जिसकी वजह से शब्द से भी कुछ घिन सी आने लगती है. कमालहसन की एक पुरानी फ़िल्म थी "पुष्पक" जिसमें कोई डायलाग नहीं थे, उसमें मलदान के कुछ दृश्य थे. अगर आप ने यह फ़िल्म देखी है तो मेरे विचार में इन दृश्यों को भूलना कठिन है. फ़िल्म में हीरो ने एक पुरुष को घर में बन्द किया है, और उसके पाखने को छुपाने के लिए हर रोज़ एक डिब्बे में बँद करके, उस पर रंगीन कागज़ चढ़ा कर, बसस्टाप के पास रख आता है, जहाँ उसे ले कर जो भी खोलता है वह पाखाना देख कर उल्टी कर देता है. तब रंगीन डिब्बों में बम आदि छोड़ने का काम नहीं शुरु हुआ था, इसलिए यह दृश्य विश्वस्नीय था, आज तो डिब्बा खोलने से पहले ही पुलिस बम विस्फोट टीम के साथ हाज़िर हो जायेगी.
खैर बात मज़ाक या फ़िल्म की नहीं, सचमुच की बीमारी की है.
हमारी आँतों में रहने वाले सूक्ष्म किटाणु विटामिन बनाते हैं, खाना हज़म करने में सहायता करते हैं और शरीर को स्वस्थ रखते हैं. अगर आप को कुछ दिन एँटीबायटिक खाने पड़े तो कई बार दस्त लग जाते हैं, क्योंकि एँटीबायटिक से अक्सर हमारे शरीर के यह किटाणु मर जाते हैं. अधिकतर तो यह दस्त की तकलीफ़ थोड़े से दिन ही रहती है, और धीरे धीरे, आँतों के किटाणुओं का विकास होने के साथ, अपने आप ठीक हो जाती है. लेकिन कभी कभी, अगर एँटीबायटिक से इलाज लम्बा करना पड़े या फ़िर व्यक्ति के शरीर में पहले से अन्य बीमारियों की कमज़ोरी हो, तो एँटीबायटिक की वजह से हुए दस्त जानलेवा भी हो सकते हैं. ऐसे में अक्सर आँतों में नये किटाणु बढ़ने लगते हैं जिनपर ऐटीबायटिक का असर कम पड़ता है और जिन्हें शरीर से हटाना बहुत कठिन होता है. ऐसे एक किटाणु का नाम है क्लोस्ट्रिडियम दिफ़िसिल (Claostridium difficile), जो अगर आँतों में बस जाये तो बहुत से लोगों की जान को खतरा हो जाता है.
अभी तक क्लास्ट्रिडियम दिफ़िसल जैसे किटाणुओं का इलाज़ नये और बहुत शक्तिशाली एँटीबायटिक से है किया जाता है जो मँहगे तो होते हैं पर फ़िर भी अक्सर मरीज़ को बचा नहीं पाते.
इस बीमारी का नया इलाज निकाला केनेडा के कालगरी शहर के अस्पताल में काम करने वाले कुछ चिकित्सकों ने. वह मरीज़ के परिवार वाले किसी व्यक्ति से, जिसे दस्त वगैरा न लगे हों, थोड़ा सा सामान्य पाखाना देने के लिए कहते हैं, जिसे नलकी द्वारा मरीज़ की आँतों के उस हिस्से में छोड़ा जाता है जहाँ यह नये कीटाणु अधिक होते हैं. उन्होंने पाया कि पाखाने में पाये जाने वाले सामान्य किटाणु इन नये किटाणुओं से लड़ने में एँटीबायटिक दवाईयों के मुकाबले में अधिक सफ़ल होते हैं, और कुछ दिनों में ही उनका सफ़ाया कर देते हैं. एक शौध ने दिखाया कि इस तरह परिवार के पाखाने से मिले सामान्य किटाणु मरीज़ के शरीर में 24 सप्ताह तक रह सकते हैं.
वैज्ञानिकों के अनुसार हमारा पाखाना किटाणुओं के चिड़ियाघर की तरह है, जिसमें 25 हज़ार तरह के विभिन्न किटाणु करोड़ों की संख्या में मिल सकते हैं. इनमें से बहुत से किटाणु सिमबायटिक होते हैं, यानी परस्पर फायदा करने वाले, अगर मानव शरीर से कुछ लेते हैं तो साथ ही मानव शरीर का फायदा भी करते हैं, विटामिन बना के, खाने को पचा के या हानिकारक किटाणुओं से लड़ कर. अपनी आँतों में रहने वाली इस किटाणु सम्पदा की रक्षा करने के लिए आवश्यक है हम लोगों को बिना ज़रूरत एँटीबायटिक दवाईयाँ नहीं खानी चाहिये, क्योंकि उनसे शरीर का फ़ायदा करने वाले किटाणु नष्ट हो जाते हैं.
एँटीबायटिक यानि वह दवाईयाँ जो बीमारी फ़ैलाने वाले सूक्ष्म किटाणुओं को मारती हैं, बहुत काम की चीज़ हैं. इनकी वजह से ही आज हम टीबी, कुष्ठ रोग, न्यूमोनिया, एन्सेफलाइटिस, जैसी बीमारियों को काबू में ला सकते हैं और इनकी वजह से लाखों जानें बचती हैं. आम उपयोग में आने वाली एँटीबायटिक हैं पैनिसिलिन, एम्पीसिलिन, जैंटामाइसिन, बेक्ट्रिम, रिफैम्पिसिन, आदि.
लेकिन एँटीबायटिक का असर वायरस यानि सूक्ष्म किटाणुओं से भी अतिसूक्ष्म जीवन कण जो कि आम फ्लू से ले कर एडस जैसी बीमारियाँ करते हैं, पर नहीं पड़ता. वायरस पर काबू पाने के लिए अलग दवाईयों की आवश्यकता होती है. एँटीबायटिक के अधिक गलत उपयोग इसी लिए होते हैं कि लोग फ्लू जैसी बीमारियों के लिए भी एँटिबायटिक ले लेते हैं. फ्लू जैसी बीमारी फ़ैलाने वाले वायरस, बिना एँटीबायटिक के शरीर कुछ दिनों में अपने आप साफ़ कर देता है.
दूसरी आम गलती है कि एक बार एँटीबायटिक का प्रयोग शुरु किया जाये तो कम से कम तीन या पाँच दिन दिन अवश्य लेना चाहिये लेकिन लोग "तबियत अब ठीक हो गयी है" सोच पर, इन्हें पूरा समय नहीं लेते, जिससे बीमारी वाले किटाणु पूरी तरह नहीं मरते और कभी कभी ऐसे किटाणुओं को जन्म देते हैं जिनपर किसी दवाई का असर नहीं होता.
पाखाने से इलाज का सुन कर दवा कम्पनियों ने तुरंत आपत्ति उठायी है कि यह इलाज गैरवैज्ञानिक सबूतों की बिनाह पर किया जा रहा है. इस तरह के इलाज होंगे तो दवा की बिक्री भी कम होगी, इसलिए भी कुछ दवा कम्पिनयाँ चिंता करती हैं. इसलिए इस चिकित्सा विधि पर कई जगह वैज्ञानिक शौध भी किये जा रहे हैं, जैसे कि होलैंड में और प्रारम्भिक परिणाम भी अच्छे लग रहे हैं.
यानि वह दिन भी आ सकता है जब अस्पताल में आप का प्रियजन दाखिल हो, तो जैसे रक्तदान के लिए कहते हैं, कभी कभी, डाक्टर आप से थोड़ा सा मलदान कीजिये के लिए भी कह सकते हैं. अक्सर रक्तदान का सुन कर रिश्तेदार भाग उठते हैं, लेकिन मलदान में यह दिक्कत नहीं आनी चाहिये.
आप का क्या विचार है, इस इलाज के बारे में?
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"पाखाना" शब्द ही कुछ ऐसा है जिसका सामाजिक प्रभाव छोटी उम्र से ही बहुत तेज़ होता है जिसकी वजह से शब्द से भी कुछ घिन सी आने लगती है. कमालहसन की एक पुरानी फ़िल्म थी "पुष्पक" जिसमें कोई डायलाग नहीं थे, उसमें मलदान के कुछ दृश्य थे. अगर आप ने यह फ़िल्म देखी है तो मेरे विचार में इन दृश्यों को भूलना कठिन है. फ़िल्म में हीरो ने एक पुरुष को घर में बन्द किया है, और उसके पाखने को छुपाने के लिए हर रोज़ एक डिब्बे में बँद करके, उस पर रंगीन कागज़ चढ़ा कर, बसस्टाप के पास रख आता है, जहाँ उसे ले कर जो भी खोलता है वह पाखाना देख कर उल्टी कर देता है. तब रंगीन डिब्बों में बम आदि छोड़ने का काम नहीं शुरु हुआ था, इसलिए यह दृश्य विश्वस्नीय था, आज तो डिब्बा खोलने से पहले ही पुलिस बम विस्फोट टीम के साथ हाज़िर हो जायेगी.
खैर बात मज़ाक या फ़िल्म की नहीं, सचमुच की बीमारी की है.
हमारी आँतों में रहने वाले सूक्ष्म किटाणु विटामिन बनाते हैं, खाना हज़म करने में सहायता करते हैं और शरीर को स्वस्थ रखते हैं. अगर आप को कुछ दिन एँटीबायटिक खाने पड़े तो कई बार दस्त लग जाते हैं, क्योंकि एँटीबायटिक से अक्सर हमारे शरीर के यह किटाणु मर जाते हैं. अधिकतर तो यह दस्त की तकलीफ़ थोड़े से दिन ही रहती है, और धीरे धीरे, आँतों के किटाणुओं का विकास होने के साथ, अपने आप ठीक हो जाती है. लेकिन कभी कभी, अगर एँटीबायटिक से इलाज लम्बा करना पड़े या फ़िर व्यक्ति के शरीर में पहले से अन्य बीमारियों की कमज़ोरी हो, तो एँटीबायटिक की वजह से हुए दस्त जानलेवा भी हो सकते हैं. ऐसे में अक्सर आँतों में नये किटाणु बढ़ने लगते हैं जिनपर ऐटीबायटिक का असर कम पड़ता है और जिन्हें शरीर से हटाना बहुत कठिन होता है. ऐसे एक किटाणु का नाम है क्लोस्ट्रिडियम दिफ़िसिल (Claostridium difficile), जो अगर आँतों में बस जाये तो बहुत से लोगों की जान को खतरा हो जाता है.
अभी तक क्लास्ट्रिडियम दिफ़िसल जैसे किटाणुओं का इलाज़ नये और बहुत शक्तिशाली एँटीबायटिक से है किया जाता है जो मँहगे तो होते हैं पर फ़िर भी अक्सर मरीज़ को बचा नहीं पाते.
इस बीमारी का नया इलाज निकाला केनेडा के कालगरी शहर के अस्पताल में काम करने वाले कुछ चिकित्सकों ने. वह मरीज़ के परिवार वाले किसी व्यक्ति से, जिसे दस्त वगैरा न लगे हों, थोड़ा सा सामान्य पाखाना देने के लिए कहते हैं, जिसे नलकी द्वारा मरीज़ की आँतों के उस हिस्से में छोड़ा जाता है जहाँ यह नये कीटाणु अधिक होते हैं. उन्होंने पाया कि पाखाने में पाये जाने वाले सामान्य किटाणु इन नये किटाणुओं से लड़ने में एँटीबायटिक दवाईयों के मुकाबले में अधिक सफ़ल होते हैं, और कुछ दिनों में ही उनका सफ़ाया कर देते हैं. एक शौध ने दिखाया कि इस तरह परिवार के पाखाने से मिले सामान्य किटाणु मरीज़ के शरीर में 24 सप्ताह तक रह सकते हैं.
वैज्ञानिकों के अनुसार हमारा पाखाना किटाणुओं के चिड़ियाघर की तरह है, जिसमें 25 हज़ार तरह के विभिन्न किटाणु करोड़ों की संख्या में मिल सकते हैं. इनमें से बहुत से किटाणु सिमबायटिक होते हैं, यानी परस्पर फायदा करने वाले, अगर मानव शरीर से कुछ लेते हैं तो साथ ही मानव शरीर का फायदा भी करते हैं, विटामिन बना के, खाने को पचा के या हानिकारक किटाणुओं से लड़ कर. अपनी आँतों में रहने वाली इस किटाणु सम्पदा की रक्षा करने के लिए आवश्यक है हम लोगों को बिना ज़रूरत एँटीबायटिक दवाईयाँ नहीं खानी चाहिये, क्योंकि उनसे शरीर का फ़ायदा करने वाले किटाणु नष्ट हो जाते हैं.
एँटीबायटिक यानि वह दवाईयाँ जो बीमारी फ़ैलाने वाले सूक्ष्म किटाणुओं को मारती हैं, बहुत काम की चीज़ हैं. इनकी वजह से ही आज हम टीबी, कुष्ठ रोग, न्यूमोनिया, एन्सेफलाइटिस, जैसी बीमारियों को काबू में ला सकते हैं और इनकी वजह से लाखों जानें बचती हैं. आम उपयोग में आने वाली एँटीबायटिक हैं पैनिसिलिन, एम्पीसिलिन, जैंटामाइसिन, बेक्ट्रिम, रिफैम्पिसिन, आदि.
लेकिन एँटीबायटिक का असर वायरस यानि सूक्ष्म किटाणुओं से भी अतिसूक्ष्म जीवन कण जो कि आम फ्लू से ले कर एडस जैसी बीमारियाँ करते हैं, पर नहीं पड़ता. वायरस पर काबू पाने के लिए अलग दवाईयों की आवश्यकता होती है. एँटीबायटिक के अधिक गलत उपयोग इसी लिए होते हैं कि लोग फ्लू जैसी बीमारियों के लिए भी एँटिबायटिक ले लेते हैं. फ्लू जैसी बीमारी फ़ैलाने वाले वायरस, बिना एँटीबायटिक के शरीर कुछ दिनों में अपने आप साफ़ कर देता है.
दूसरी आम गलती है कि एक बार एँटीबायटिक का प्रयोग शुरु किया जाये तो कम से कम तीन या पाँच दिन दिन अवश्य लेना चाहिये लेकिन लोग "तबियत अब ठीक हो गयी है" सोच पर, इन्हें पूरा समय नहीं लेते, जिससे बीमारी वाले किटाणु पूरी तरह नहीं मरते और कभी कभी ऐसे किटाणुओं को जन्म देते हैं जिनपर किसी दवाई का असर नहीं होता.
पाखाने से इलाज का सुन कर दवा कम्पनियों ने तुरंत आपत्ति उठायी है कि यह इलाज गैरवैज्ञानिक सबूतों की बिनाह पर किया जा रहा है. इस तरह के इलाज होंगे तो दवा की बिक्री भी कम होगी, इसलिए भी कुछ दवा कम्पिनयाँ चिंता करती हैं. इसलिए इस चिकित्सा विधि पर कई जगह वैज्ञानिक शौध भी किये जा रहे हैं, जैसे कि होलैंड में और प्रारम्भिक परिणाम भी अच्छे लग रहे हैं.
यानि वह दिन भी आ सकता है जब अस्पताल में आप का प्रियजन दाखिल हो, तो जैसे रक्तदान के लिए कहते हैं, कभी कभी, डाक्टर आप से थोड़ा सा मलदान कीजिये के लिए भी कह सकते हैं. अक्सर रक्तदान का सुन कर रिश्तेदार भाग उठते हैं, लेकिन मलदान में यह दिक्कत नहीं आनी चाहिये.
आप का क्या विचार है, इस इलाज के बारे में?
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