रविवार, अक्तूबर 19, 2008

किताबें पढ़ने वाली औरतें

आशा पूर्णा देवी के उपन्यास सुवर्णलता की नायका सुवर्ण अच्छी औरत नहीं. सब गलत मलत काम करती है. जब सबके सामने नहीं कर सकती तो छुप कर करती है. समाज में रहना नहीं जानती, उसके नियम नहीं समझती, जब कुछ नहीं मानना चाहती तो उसे चुप रहना नहीं आता. बार बार मार खा कर फ़िर अपनी इच्छा बताने नहीं घबराती. खुला आसमान, बारामदा, खिड़की, सीढ़ियाँ, समुद्र, किताबें, घर से बाहर दुनिया में क्या हो रहा है इसके बारे में जानना सोचना, सब उसकी इच्छाएँ हैं जिनको नहीं स्वीकारा जा सकता, क्योंकि यह सब बातें अच्छे घर की औरतों को शोभा नहीं देती. (सुवर्णलता, आशापूर्णा देवी, अनुवादक हंसकुमार तिवारी, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, 2001)

"यह नाटक, उपन्यास पढ़ना बंद कराना ज़रुरी है. उसी से सारा अनर्थ घर में आता है."
इसलिए प्रबोध ने स्त्री को काली माई की, अपनी कसम दी है. रात की निश्चिंत्ता में समझाया था कि उपन्यास पढ़ने में क्या क्या बुराईयाँ हैं.
किन्तु बेहया सुवर्ण उस भयंकर घड़ी में भी एक अदभुत बात बोल बैठी थी. कहा था, "ठीक है, तो तुम भी एक कसम खाओ."
"मैं? मैं किस लिए कसम खाऊँ? मैं क्या चोरी में पकड़ा गया हूँ?"
"नहीं तुम क्यों पकड़े जाओगे, चोरी में तो स्त्रियाँ ही पकड़ी गयी हैं? क्यों, बता सकते हो क्यों?"
"क्यों? यह क्या बात हुई?" इसके अलावा प्रबोध को उत्तर नहीं जुटा.
सुवर्ण नें झट प्रबोध का हाथ सोये हुए भानू के सिर से छुआ कर कहा, "तो तुम भी कसम खाओ कि अब ताश नहीं खेलोगे?"
"ताश नहीं खेलूँगा? मतलब?"
"मतलब कुछ नहीं, मेरा नशा है किताब पढ़ना, तुम्हारा नशा है ताश खेलना. यदि मुझे छोड़ना पड़े, तो तुम भी देखो, नशा छोड़ना क्या होता है? बोलो, अब कभी ताश नहीं खेलोगे?"
प्रबोध के सामने आसन्न रात.
और बहुतेरी लांछनाओं से जर्जर स्त्री के बारे में काँपते कलेजे का आतंक.
कौन कह सकता है, फ़िर कौन सा घिनौना कर बैठे.
फ़िर भी साहस बटोर कर बोल उठा, "खूब, मूढ़ी-मिसरी का एक ही भाव!"
सुवर्णलता तीखे स्वर में बोल उठी थी, "कौन मूढ़ी है कौन मिसरी, इसका हिसाब किसने किया था, उसकी दर ही किस विधाता ने तय की थी, यह बता सकते हो?"
गजब है, इतनी लानत मलामत से भी औरत दबती नहीं. उलटे कहती है, "बल्कि यह सोचो कि शर्म आनी चाहिये तुम लोगों को."
लाचार प्रबोध ने कह दिया था, "ठीक है बाबा, ठीक है. खाता हूँ कसम."
"अब कभी नहीं खेलोगे न?"
"नहीं खेलूँगा. हो गया? खैर मेरा तो हुआ, अब तुम्हारी प्रतिज्ञा?"
"कह तो दिया, तुम अगर ताश न खेलो तो मैं भी किताब नहीं पढ़ूँगी"

एक पश्चिमी चित्रकला की किताब देखी जिसका विषय था, "किताबें पढ़ने वाली लड़कियाँ" तो सुवर्णलता की याद आ गयी. इस किताब में विभिन्न पश्चिमी चित्रकारों के इस विषय पर बनी तस्वीरें थीं और उनके संदर्भ का विश्लेषण था.

पश्चिमी समाज में भी पहले यही सोचा जाता था कि पढ़ना लिखना औरतों को बिगाड़ देता है और यह तस्वीरें इस बात को समझने में सहायता करती हैं कि क्यों पृतसत्तीय समाज को इससे क्या खतरा था और क्यों पृतसत्तीय समाज आज भी स्त्री को घर में रखने, बाहर न निकलने, परदा करने, कहानी उपन्यास न पढ़ने की बात करते हैं. किताबों की होली जलाने वाले अफगानी तलिबान इसका हिंसक और कट्टर रूप दिखते हैं. पाराम्परिक भारतीय समाज में भी यह धारणा थी कि पढ़ी लिखी लड़की, घर से बाहर निकल जाती है, उसका चरित्र ठीक नहीं रहता, वह पराये मर्दों से बात और सम्बंध रखने लगती है, वह घर की रीति मर्यादा को भूल जाती है. आज इस तरह की सोच में छोटे बड़े शहरों में कुछ बदलाव आया है पर फ़िर भी इसे आर्थिक मजबूरी के रूप में अधिक देखा जाता है, वाँछनीय विकास के रूप में कम.

किताब पढ़ने वाली स्त्रियों के विषय पर कुछ प्रसिद्ध चित्रकारों की कृतियाँ प्रस्तुत हैं -

पहली कृति है जगप्रसिद्ध इतालवी चित्रकार और शिल्पकार माईकल एँजेलो की जो रोम में वेटीकेन में सिस्टीन चेपल में बनी है. माईकल एँजेलो की कृति मोनालिजा को सब पहचानते हैं, सिस्टीन चेपल के बारे में सोचिये तो भगवान की ओर बढ़ती मानव उँगली के दृश्य को अधिकतर लोग जानते हैं पर इसी कृति का एक अन्य भाग है जिसमें बनी है सिबिल्ला की कहानी. भविष्य देखने वाली सिबिल्ला को भगवान से एक हजार वर्ष तक जीने का वरदान मिला था पर यह वरदान माँगते समय वह चिरयौवन की बात कहना भूल गयी इसलिए उसकी कहानी वृद्धावस्था के दुखों की कहानी है. इस चित्र में सिबिल्ला को बूढ़ी लेकिन हट्टा कट्टा दिखाया गया है जबकि उसकी भविष्य देखने वाली किताब के पन्नों पर कुछ नहीं लिखा.


यह चित्र 1510 में बनाया गया था जब किताबें आसानी से नहीं मिलती थीं और चित्रों में अधिकतर बाईबल की किताब ही दिखती थी.

दूसरी कृति है हालैंड के चित्रकार जेकब ओख्टरवेल्ट की जो उन्होंने 1670 में बनायी थी. उस समय हालैंड दुनिया के सबसे साक्षर देशों में से था, स्त्री और पुरुष दोनो ने ही पढ़ना लिखना सीखा था. किताबे पढ़ने के अतिरिक्त चिट्ठी लिखने का चलन हो रहा है. इस चित्र में उस समय के संचार के तीन माध्यमों को दिखाया गया - बात चीत, पुस्तक और पत्र. नवयुवक युवती को अपने प्रेम का निवेदन कर रहा है और नवयुवती किताब पढ़ने का नाटक कर रही है. यही प्रेम संदेश मेज पर रखे पत्र में भी है.


आप का क्या विचार है कि क्या वह नवयुवती इस प्रेम निवेदन को स्वीकार करेगी? यही चित्रकार की दक्षता है कि वह चेहरे के भावों को इतनी बारीकी से पकड़ता है कि बिना कुछ कहे ही हम बात समझ जाते हैं.

तीसरी कृति भी हालैंड से ही है, चित्रकार पीटर जानसेन एलिंगा की जो कि 1670 के आसपास की है. इस कृति की नायिका घर में काम करने वाली नौकरानी है. शायद वह मालकिन के कमरे में सफाई करने आयी थी. मालकिन के जूते एक तरफ़ बिखरे पड़े हैं. फ़ल की प्लेट को जल्दबाजी में कुर्सी पर रखा गया है. खिड़की से आती रोशनी के पास कुर्सी खींच कर पाठिका प्रेमकथा पढ़ने में मग्न है.


इस कृति से समझ में आने लगता है कि क्यों पृतसत्तीय समाज को स्त्रियों का किताबें पढ़ना ठीक नहीं लगा था. किताबों की दुनिया स्त्रियों को बाहर निकलने का रास्ता दिखाती थीं, उन्हें अपना कल्पना का संसार बनाने का मौका मिल जाता था जो समाज के बँधनों से मुक्त था, उनमें अपना सोचने समझने की बात आने लगती थी.

इसी मुक्त व्यक्तिगत संसार की सृष्टि वाली बात को चौथी और अंतिम चित्र दिखाता है. कृति है हालैंड के जगप्रसिद्ध चित्रकार विन्सेंट वान गोग की जो 1888 में बनायी गयी. इसमें किताब पढ़ने वाली स्त्री की दृष्टि किताब पर नहीं, बल्कि सोच में डूबी है, शायद उसने कुछ ऐसा पढ़ा जिसने उसे सोचने को मजबूर किया?


भारत में लड़कियों, स्त्रियों की दशा तो दुनिया में सबके सामने है. एक तरफ़ नेता, अभिनेता, लेखक, वैज्ञानिक, अधिकारों के लिए लड़ने वाली आधुनिक युग की चुनौतियों को स्वीकारती. दूसरी ओर अनपढ़, कमजोर, जो जन्म से पहले ही मार दी जाती है, जिसे बोझ समझा जाता है, जिसका विवाह करना ही सबसे बड़ा धर्म है, जो दहेज के लिए जला दी जाती है. स्त्री साक्षरता को बढ़ाना इसके लिए बहुत आवश्यक है. मेरे विचार में आज विकास के रास्ते पर चले भारत की यही सबसे बड़ी आवश्यकता है. आर्थिक विकास के बावजूद पिछले वर्षों में भारत के सम्पन्न राज्यों में पैदा होने वाले बच्चों में लड़कियों का अनुपात बढ़ने के बजाय और घटा है. इन आकणों को देखा जाये तो अनुमान लगा सकते हैं कि हर वर्ष भारत में करीब दस से पंद्रह लाख बच्चियों को गर्भपात के जरिये से जन्म लेने से पहले मार दिया जाता है.

दुनिया के देशों में अगर देखा जाये कि सरकारें स्वास्थ्य और शिक्षा के लिए देश की आय का कितना प्रतिशत लगाती है तो भारत सबसे पीछे दिखता है, बहुत सारे अफ्रीकी देशों से भी पीछे. जब तक यह नहीं बदलेगा, भारत सच में विकसित देश नहीं बन पायेगा.

मंगलवार, अक्तूबर 07, 2008

नाम, रंग, जाति, धर्म में छुपी पहचान

जिल रोस्सेलीनी की मृत्यु 3 अक्टूबर को सुबह साढ़े चार बजे रोम की अमरीकी अस्पताल में हुई. जिल का जन्म 23 अक्टूबर 1956 को बंबई में हुआ था और उनका नाम रखा गया था अर्जुन. उनके पिता थे कलकत्ता के जाने माने फिल्म निर्माता हरिसाधन दासगुप्ता और माँ थी बिमल राय की परिवार की सोनाली. हरिसाधन और सोनाली का पहले एक बेटा भी था, राजा जो 1952 में पैदा हुआ था.

दिसंबर 1956 में इटली के जगप्रसिद्ध फिल्मकार रोबर्तो रोस्सेलीनी (Roberto Rossellini) भारत में फ़िल्म बनाने आये, सोनाली उनके साथ काम कर रही थीं. नौ मास के बाद रोबेर्तो और सोनाली करीब एक वर्ष के अर्जुन यानि जिल को ले कर रोम आ गये, तब भारत में उनके प्रेम को ले कर तुफ़ान चल रहा था, अखबारों में तरह तरह की बातें लिखी जा रही थीं. कुछ महीने बाद पेरिस में रोबेर्तो तथा सोनाली की बेटी राफेल्ला पैदा हुई. उस समय रोबेर्तो रोस्सेलीनी भी विवाहित थे, होलीवुड की प्रसिद्ध अभिनेत्री इंग्रिड बर्गमैन (Ingrid Bergman) के साथ.

रोबेर्तो एवं सोनाली की कहानी के बारे में मैंने कुछ महीने पहले जाना जब मैंने दिलीप पदगाँवकर की एक पुस्तक की समीक्षा पढ़ी. सोनाली को अपना बड़ा बेटे राजा को भारत में छोड़ना पड़ा, उनका छोटा बेटा जिल, अपने पिता के होते हुए भी रोबेर्तो द्वारा गोद लिया गया. इन सब बातों को सोच कर मन में बहुत जिज्ञासा हुई तो इंटरनेट पर खोज की और इस बारे में एक लेख लिखा. उस लेख के द्वारा ही इस कहानी से जुड़े बहुत से लोगों से मेरा सम्पर्क और परिचय हुआ. इसी के दौरान मैंने जिल रोस्सेलीनी के बारे में जाना.

श्याम रंग वाले जिल रोम में बड़े हुए और उनके घर में काम करने वाले माली की पत्नी का एक साक्षात्कार पढ़ने को मिला जिसमे बताया था कि छोटे से जिल को अपने काले रंग का भेद महसूस होता था. जब इतालवी समाचार पत्रों में जिल की मृत्यु का समाचार पढ़ा तो धक्का सा लगा. लेख लिखते समय जब उस परिवार के बारे में जानकारी जमा कर रहा था तो व्यक्तिगत रूप से न जानते हुए भी अपने आप ही कुछ आत्मीयता सी बन गयी थी.



हर जगह जिल की मृत्यु की बात के साथ समाचार वही बात कहते थे कि जिल रोबेर्ती के गोद लिये भारतीय मूल के पुत्र थे और कई वर्षों से बीमार चल रहे थे. कुछ समाचार पत्रों में यह भी लिखा था कि गत जून में जिल ने कैथोलिक धर्म स्वीकारा और फ्राँचेस्को का नाम लिया. इन समाचारों में सोनाली जी का नाम रोबेर्तो की संगनी की तरह से दिया गया है, कहीं उन्हें पत्नी नहीं कहा गया है और न ही यह लिखा कि बेटे की मृत्यु पर वह कहाँ थीं, हालाँकि वह भी रोम में ही रहती हैं.

जिल के बारे में सोच रहा था तो लगा कि अगर उनका रंग भिन्न न होता तो आज किसी को याद नहीं होता कि वह गोद लिये गये थे. उनके मरने के समाचार के साथ यह कहना कि वह गोद लिये हुए थे मुझे क्रूरता सी लगी. सन 2006 में वेनिस फ़िल्म फेस्टिवल के दौरान अपनी बीमारी पर बनायी एक फ़िल्म "किल बिल्ल 2" (Kill Bill 2) प्रस्तुत करते समय, एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था "मैं फैरारी कार रेस पर फ़िल्म बनाना चाहता हूँ. तेज़ कारों का शौक तो मेरे रक्त में है. मेरे पिता की मौसी बेरोनेस मरिया अंतोनियेत्ता 1920 में कार रेस में भाग लेती थी और मेरे पिता ने भी मिल्ले मिलिया नाम की कार रेस में भाग लिया था". जिस पिता रोबेर्तो की बात वह कर रहे थे उनसे जिल का खून का सम्बंध नहीं था पर इस वाक्य से उनके मन में होने वाले द्वंद और अपने परिवार का पूरा हिस्सा होने की अभिलाषा छलकती है.

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लंदन पहुँचा तो इमिग्रेशन की जाँच कराने के लिए कौन से लाईन चुनी जाये इसका निर्णय करते हुए मेरी आँखें अपने आप ही भारतीय उपमहाद्वीप वाला चेहरा खोज रहीं थीं. मालूम था कि पासपोर्ट जाँचने वाला अगर कोई गोरा या काला अधिकारी होगा तो हमारे पासपोर्ट को अधिक ध्यान से देखा जायेगा, क्यों आये हैं, क्या करना है, कितने दिन रुकना है, इस सबकी पूरी जाँच होगी, जबकि कोई भारतीय महाद्वीप वाला मिल जाये तो उतने प्रश्न नहीं पूछे जायेंगे. भारतीय उपमहाद्वीप मूल के लोग पासपोर्ट देख कर अपने आप समझ जाते हैं कि सामने वाले का क्या धर्म है, वह हिंदू है, मुलमान है, सिख है, ईसाई है या पारसी. अधिकतर गोरे या काले लोग यह नहीं समझ पाते कि हमारे नामों से कैसे हमारे धर्म, जाति को समझा जाये.

सब जानते हैं कि आज अगर आप मुसलमान समझे जायेंगे तो आप की हर बात को अच्छी तरह से देखा जाँचा जायेगा. दिक्कत यह है कि अधिकतर यूरोपीय और अमरीकी मूल के लोगों को हमारे नामों से यह पहचानना नहीं आता, उनके लिए चेहरे और रंग में एक जैसा दिखने वाले भारतीय उपमहाद्वीप से आये हम सब लोग एक जैसे हैं. 2001 में जब न्यू योर्क में ट्विन टोवर्स में हवाई जहाजों के बम फ़टने के बाद कितने वृद्ध सिखों पर हमले हुए थे, जो आज तक नहीं रुके, उन्हें वृद्ध सिखों में बिन लादन का चेहरा दिखता है.

कभी यह नहीं सोचा था कि एक दिन पुलिस, इमिग्रेशन या किसी अन्य सुरक्षा जाँच में मैं यह कहना चाहूँगा कि मैं हिंदु हूँ. पापा क्या सोचेंगे, क्या यही सिखाया था, सोच कर मन में लज्जा आती है और अपनी कायरता पर, अपने आप को बचाने की इस कोशिश में माँ पापा ही याद आते हैं. क्या जाति है हमारी, माँ से पूछा था तो बोलीं थी कि कोई जाति नहीं हमारी. पर फ़िर भी, कुछ तो होगी, मैंने ज़िद की थी तो बोलीं थी कि कह दो कि हम सबसे नीच जाति के हैं, हम तो हिंदू हैं ही नहीं.

हिंदू, मुसलमान, जैन, सिख, ईसाई सब धर्मों के मित्र थे, पड़ोसी थे, पर घर में धर्म के नाम पर कभी कुछ नहीं होता था. न कोई मंदिर जाता या कभी किसी तरह का पूजा पाठ होता. दादी सारा दिन कागजों पर असंख्य बार राम राम लिखती रहती, अड़ोसी पड़ोसी, रिश्तेदारों में ही रीत रिवाज़, प्रार्थना सीखने का मौका मिला, पर बचपन से धर्म के लिए शंका की भावना बैठ गयी कि पूजा पाठ, धर्म केवल दिखावा है, असली धर्म तो मानवता है.

आज उस अतीत के बारे में सोचूँ तो लगता है कि वह अतीत उस समाज का परिणाम है जहाँ हिंदू बहुमत में हैं. चाहे आप माने या माने, अगर आप हिंदू समझे जाते हैं तो भारत में अधिकतर समाज आप से भिन्न तरीके से पेश आता है. आप लाख कहिये या सोचिये कि आप के लिए धर्म का कोई महत्व नहीं, अपने नाम से आप अपने हिंदू समझे जाने का लाभ उठाते हैं. जैन, या बुद्ध या सिख हों तो शायद दिक्कत कम होती है, क्योंकि आप को कुछ हद तक हिंदु ही माना जाता है. लेकिन आप का नाम मुसलिम हो या ईसाई, समाज आप से अलग तरह से पेश आता है. यह समझ तभी आयी जब ईसाई बहुमत के देश में रहने का मौका मिला. आप एक दिन मुसलमान नाम के साथ रह कर देखिये, आप को समझ आ जायेगा.

इटली कैथोलिक धर्म के बहुमत का देश है. धर्म जीवन के हर भाग में गहरा बसता है, जब तक यह बात आप के धर्म की होती है आप को शायद यह दिखे नहीं कि किस तरह जीवन की हर बात में धर्म बसा है, आप यह सोच सकते हैं कि आप को धर्म की परवाह नहीं पर ध्यान से देखिये तो आप उसके आम जीवन पर पड़े प्रभाव को झठला नहीं सकते. यहाँ हर विद्यालय में, कक्षा में, हर अदालत जैसी जगहों पर भी क्रोस लगा दिखता है, संसद में कोई भी बात उठे तो पोप क्या कहते हैं, कैथोलिक धर्म क्या कहता है, यह बात भी अवश्य उठती है. यह सब बातें केवल यहाँ के भारतीय जनता पार्टी जैसे धर्म से जुड़े राजनीतिक दलों द्वारा की जायें यह बात भी नहीं, रेडिकल पार्टी या कुछ राजनीतिक दलों को छोड़ कर, अन्य सभी राजनीतिक दल इन धार्मिक बातों को बहुत गम्भीरता से लेते हैं.

मेरा परिवार बहुधर्मी है, पत्नी कैथोलिक, पुत्रवधु सिख, बेटा हिंदू और कैथोलिक दोनो धर्मों के बीच पला बड़ा हुआ. इस धार्मिक बहुलता को गर्व से जीने का संदेश अपने बचपन की माँ पापा से मिली शिक्षा से मिला. पर मन में स्वयं को धार्मिक न मानते हुए भी आज जब लगता है कि यहाँ ईसाई धर्म के अलावा बाकी सब धर्मों को नीचा देखा जाता है तो अपनी धर्म भिन्नता की आवाज उठाना भी स्वाभाविक लगता है. बात मानव अधिकार की बन जाती है, सब धर्मों को गर्व से रहने का अधिकार होना चाहिये. दूसरी तरफ यही भिन्नता जब बढ़ते आतंकवाद के शीशे में पुलिस या सुरक्षा अधिकारियों के सामने आती है तो दूसरी तरह से चिंता का विषय बन जाती है.

पिछले वर्ष एक ईराकी पत्रकार से बात हो रही थी तो वह बता रहे थे कि बगदाद में टैक्सी चलाने वाले विभिन्न नामों वाले आईडेंटिटी कार्ड रखते हैं, कुछ शिया मुसलमान नाम के, कुछ सुन्नी मुसलमान नाम के, कुछ ईसाई नाम के. जाने कब कोई आतंकवादी रोक ले और जान लेने की धमकी दे, तो ठीक नाम वाला आईडेंटिटी कार्ड ही जान बचा सकता है. तब सोच रहा था कि जैसे यूरोपीय लोग हमारे नामों से यह नहीं पहचान पाते कि हम हिंदू हैं या मुसलमान या सिख, वैसे ही मुझे भी शिया और सुन्नी मुसलमान नामों के अंतर नहीं मालूम. सच कहूँ तो यह भी नहीं मालूम कि शिया, सुन्नी, अहमदिया, बोहरा जैसे मुस्लिम धर्म गुटों में क्या अंतर होता है!

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आप धर्म से कितना भागना चाहें, धर्म आप का पीछा नहीं छोड़ता जैसी बात दिल्ली में रहने वाली पत्रकार के. के. शाहीना के लेख में भी पढ़ी थी जो अँग्रेजी दैनिक हिंदुस्तान टाईमस में कुछ दिन पहले छपा था. कुछ सप्ताह पहले दिल्ली में बम विस्फोट करने वाले आतंकवादियों ने शाहीना जी के एक लेख से कुछ हिस्से ले कर उनका प्रयोग अपने बमों को जायज दिखाने के लिए अपनी ईमेल में उपयोग किया. शाहीना जी ने लिखा है:

"मुसलमान नाम का भारीपन दिल्ली में जीवन कठिन कर सकता है. .. एक अधिकारी से मिले, उन्होंने बहुत विनम्रता से बात की, पूछा, कि क्या तुम मुसलमान हो? मैं कहना चाहती थी कि नहीं, छत पर चढ़ कर चिल्लाना चाहती थी कि मैं नास्तिक हूँ, बचपन से मुझे धर्म से दूर रखा गया है. पर मैं यह नहीं कह सकती थी. मैंने कुछ उत्तर नहीं दिया. इस तरह का उत्तर क्या पोलिटिक्ली कोरेक्ट होगा इस बारे में मैंने सारा जीवन सोचा है. अपने धर्म से पीठ फ़ेर कर क्या मैं इस धर्म को मानने वाले लाखों निर्दोष लोगों से पीठ फ़ेर रही हूँ जो धर्म का पालन करते हैं और अपने धर्म के नाम पर होने वाले इन बातों का बुरा प्रभाव भी झेलते हैं? मेरे जीवनसाथी, जो कि जन्म से हिंदू हैं, उन्हे भी इसी तरह की बात कहने के लिए अधिकारी के सामने ज़ोर डाला गया ताकि यह साबित किया जा सके हम लोग सेक्युलर हैं, इस शहर में जहाँ हम लोग बस नाम ही हैं. यह पहली बार थी जब हमारे जीवन में धर्म इस तरह घुस रहा था. जब हमारा बेटा अनपु पैदा हुआ था तो फोर्म भरते समय उसमें धर्म वाला भाग खाली छोड़ने में हम लोग एक पल भी नहीं झिझके थे."
जब शबाना आज़मी जी कहती हैं कि मुंबई में मुसलमान होने पर घर खरीदने में कठिनाई होती है, मुझे समझ में आता है. यह कहना कि वह बात को बढ़ा रही हैं, या झूठ कह रही हैं, इस बात को नकारना है. रंग भेद, जाति भेद, धर्म भेद हमारे रोज़ के जीवन में इतना घुला मिले हैं कि इसे तभी समझा जाता है जब आप अल्पसंख्यक हो. अगर आप हिंदू हैं और दलित नहीं उससे ऊँची जाति के हैं तो सोच सकते हैं कि भारत में यह भेद शायद इतना स्पष्ट और खुलेआम नहीं जितना पाकिस्तान, बँगलादेश या अरबी देशों में होता हो, पर दूसरे पक्ष से दृष्टि से देखिये तो यह भेद समझ आता है.

यह सच है कि धार्मिक रूढ़िवाद के साथ मुसलमान देशों में इसका कट्टर स्वरूप देखने को मिलता है जहाँ राजकीय धर्म इस्लाम माना जाता है और बाकि सब धर्मों के साथ भेदभाव को कानूनी स्वीकृति मिलती है. लेकिन इटली, इंग्लैंड, अमरीका जैसे विकसित देशों में भी इसके उदाहरण खोजने में कठिनाई नहीं होती. पिछले सप्ताह लंदन गया था तो वहाँ एक पत्रिका में पाकिस्तान से आये श्री जेम्स डीन का साक्षात्कार पढ़ रहा था जो कि आज एक सफल उद्योगपति हैं. इस साक्षात्कार में वह बताते हैं कि उनका असली नाम तो नज़ीम खान था पर वह जानते थे कि मुसलमान नाम होने से उन्हें इंग्लैंड में यह सफलता कभी न मिल पाती.

आज का जीवन इतनी तेजी से बदल रहा है कि शायद उसे समझना कठिन है. आतंकवाद, असहिष्णुता, उग्रवाद, धार्मिक कट्टरता, रूढ़िवाद के चक्करों में सभ्यता और मानवता के मानव मूल्य हार रहे हैं. शंका, संदेह, अविश्वास हमारे दिलों को कठोर और अमानवीय बना रहा है. देशों विदेशों में यात्राओं से शायद मुझे इस बढ़ती अमानवता को देखने का अधिक मौका मिलता है.

मुझे लगता है कि इस स्थिति में इस बारे में ईमानदारी से बात करना, एक दूसरे के दृष्टिकोण को समझने की कोशिश करना और करते रहना, बहुत आवश्यक है. बात न करना, उसे नकारना, सोचना कि यह तो हमारे लिए महत्वपूर्ण नहीं, इस सबसे नासूर भीतर ही भीतर बढ़ता जाता है. मीडिया में केवल उग्रवादियों और रूढ़िवादियों को जगह मिलती है, उनकी कही हर बात को इतनी बार दोहराया जाता है कि लगता है उस धर्म के सभी लोग कट्टरपंथी हैं. आवश्यक है कि इस बात पर सोचनेवाले पढ़े लिखे, शबाना जी जैसे उदारवादी लोगों की सोच को जगह दी जगह, उस पर खुल कर बहस की जाये.

गुरुवार, सितंबर 11, 2008

कल्पना के पँख

प्रियंकर पालीवाल जी ने "समकालीन सृजन" भेजा तो थोड़ी हैरानी हुई. इतनी सामाग्री से भरी और इतने सारे जाने माने लेखकों के आलेखों से भरी पत्रिका होगी, यह नहीं सोचा था और उनके बीच में अपना लापरवाही से लिखा ग्रीस यात्रा वाला लेख देखा तो स्वयं पर थोड़ा सा गुस्सा भी आया. प्रियंकर जी ने जब लिखा था कि वह यात्राओं के विषय पर एक पत्रिका का विषेश अंक निकाल रहे हैं और मुझसे एक आलेख मांगा था तो जाने किस व्यस्तता के चक्कर में उन्हें झटपट ग्रीस यात्रा की डायरी वाला आलेख भेज दिया, उसे एक बार ठीक से पढ़ा भी नहीं कि वह ढंग से लिखा गया है या नहीं.

समकालीन सृजन कोलकाता से निकलती है और "यात्राओं का जिक्र" नाम के इस विषेश अंक के विषेश सम्पादक हैं प्रियंकर पालीवाल. हिंदी लेखन में यात्रा‍ लेखन विधा का अधिक विकास नहीं हुआ है हालाँकि कभी कभार पत्रिकाओं पर यात्राओं पर लेख मिल जाते हैं. इस अंक की विषेशता है कि इसमें देश विदेश की बहुत सी यात्राएँ एक साथ मिल जाती हैं.



यात्राओं के बारे में पढ़ना मुझे अच्छा लगता है. हर किसी को यात्रा के बारे में लिखना नहीं आता. यहाँ गये, वहां गये, यह देखा, वह खाया जैसी बातें तो हर कोई लिख सकता है पर इसमें उतना रास नहीं आता. फ़िर भी अगर साथ में अच्छी तस्वीरें हों तो भी कुछ बात बन जाती है. लेकिन सचमुच के बढ़िया यात्रा लेखक अपनी दृष्टि से जगह दिखाते हैं, उन बातों की ओर ध्यान खींचते हैं जो आप अक्सर नहीं देखते या सोचते, उनमें भावनाएँ होती हैं, इतिहास होता है, यादें होती है, जीते जागते लोग होते हैं. इस दृष्टि से "समकालीन सृजन" का यह अंक सफल है. तभी मैंने खुद पर संयम करके धीरे धीरे एक महीना लगाया पूरा अंक पढ़ने में, हर रोज रात को सोने से पहले बस एक दो आलेख पढ़ता.

जैसे जाबिर हुसेन की "नदी की पोशाक है रेत" में गीली रेत में घुली छुपी नदी में माँ का छुपा चेहरा है, "मेरे लिए फल्गु की रेतीली गोद मेरी मां के दूधिया आंचल की तरह है. जैसे फल्गु अपने दुख दर्द किसी को नहीं बताती, रेत के उन कणों को भी नहीं, जो खुद उसके वजूद का हिस्सा हैं, वैसे ही मेरी मां ने भी अपने दुख दर्द किसी को नहीं बताए. सारी ज़िन्दगी वो भी अपने दुखों पर मोटी चादर डाले रही. हम भी, जो रेत के कणों की तरह उसके वजूद का हिस्सा थे, कहाँ उसके दुख दर्द को जान पाये."

अमृतलाल बेगड़ "सौंदर्य की नदी नर्मदा" में पेड़ों से बातें करते हैं, और निमाड़ी और गुजराती भाषाओं में जुड़े शब्दों की बात करते हुए लिखते हैं, "नदी जहां समुद्र से मिलती है, वहां एकाएक समाप्त नहीं हो जाती. उसका प्रवाह समुद्र में दूर तक जाता है. भाषा भी प्रादेशिक सीमा पर एकदम से नहीं रुक जाती. उसका प्रवाह भी सीमा के पार काफी दूर तक धंसता चला जाता है."

कृष्णनाथ "नागार्जुनकोंडा की पहचान" में केवल नागार्जुनकोंडा पर्वत यात्रा की बात नहीं करते बल्कि बुद्ध दार्शनिक नागर्जुन की इतिहासिक छवि से ले कर, महायान बुद्ध धर्म के दूर विदेशों तक फैलने की कथा सुनाते हैं, "यह कथा अपने मूल देश में, नागार्जुन की घाटी में खो गयी है. कृष्णा के जल में डूब गयी है. यहां अब उसका कोई साहित्य नहीं है. पहले जरूर रहा होगा. अब लुप्त हो गया है. लेकिन हिमालय पार उत्तर, मध्य, पूर्व एशिया में नागार्जुन की कथा जीवित रही है. तिब्बत में है, चीन में है, जापान में है, कोरिया में है, मंगोलिया में है."

ओम थानवी "इतिहास में दबे पांव" में पाकिस्तान में मुअनजो-दड़ो की खोयी सभ्यता की जड़ों को अपने राजस्थान के जीवन में जीवित पाते हैं, "मुअनजो-दड़ो के घरों में टहलते हुए मुझे कुलधरा की याद आई. यह जैसलमेर के मुहाने पर पीले पत्थर के घरों वाला एक खूबसूरत गांव है. उस खूबसूरती में हर तरफ एक गमी तारी है. गांव में घर हैं पर लोग नहीं हैं... अतीत और वर्तमान का मुझमें यह अजीब द्वंद है. बाढ़ से बचने के लिए मुअनजो-दड़ो में टीलों पर बसी बस्तियाँ देख कर मुझे जैसलमेर, जोधपुर और बीकानेर से ले कर पोकरण-फलोदी तक के वे घर भी याद हो आये जो जमीन से आठ दस फुट उठाकर बनाये जाते थे."

"बंगाले में गंगाजल" में अष्टभुजा शुक्ल यात्रा में अनायास मिले एक बंधु के घर में आत्थिय और आत्मीयता पाते हैं और मन में छुपे विधर्मी कुंठाओं का सामना करते हैं, "स्वीकृति में ही संस्कृति निहित होती है. अस्वीकार की संस्कृति ही कट्टरता की जननी है. स्वीकार करता हूँ रसूल भाई कि हावड़ा में उजबकों की तरह आठ घंटे काटना चार युगों से कम तकलीफ़देह नहीं होगा, स्वीकार करता हूँ कि आपके घर बैंडल में दो चार घंटे आराम करने का हार्दिक निमंत्रण बहुत ही आत्मीय और सहज है, स्वीकार करता हूँ कि एक मुसलमान द्वारा एक अपरिचित हिंदू को अपने घर विश्राम करने का आमंत्रण देने की कोई कुंठा आप के मन में कतई नहीं ... भाई साहब भीतर अपनी पत्नी को बता रहे हैं कि परदेसी दादा निरामिष हाय. बंगाल और शाकाहार. वह भी एक मुस्लिम परिवार में एक खास महमान के लिए? आठवां आश्चर्य. कैसा बौड़म अतिथी है?"

पत्रिका का सबसे अधिक सुंदर आलेख लगा "वर्धाः अनुभवों के आईने में". वर्धा के बारे में गाँधी जी बारे में पढ़ते समय कुछ पढ़ा था, पर अधिक नहीं मालूम था. पी. एन. सिंह का आलेख आज के वर्धा और इतिहास के वर्धा के विवरण बहुत खूबी से देता है जिनमें बापू के समय का वर्धा शब्दों में जीवित हो जाता है. इस आलेख में गाँधी जी का कुष्ठ रोगियों की सेवा करने के बारे में पढ़ा जो मुझे बहुत अच्छा लगा. अक्सर लोग कुष्ठ रोग की बात उठाते हैं पर घृणा, पाप, गन्दगी या दर्द की बात करने के लिए. जैसे कि इसी पत्रिका में कृष्णनाथ जी के नागार्जुनकोंडा वाले लेख में पचास साल पहले के एक जेल कारावास के बारे में लिखा है, "फ़िर, बनारस से रायबरेली जेल तबादला हो गया जहाँ प्रदेश भर के कोढ़ी कैदी जमा किये जाते हैं. मुझे ही शरीर मन की इस यातना के लिए क्यों चुना गया, मैं आज तक नहीं जानता."

मेरे कार्य का क्षेत्र भी कुष्ठ रोग और विकलांगता है. बीच में कुष्ठ रोग के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कुष्ठ से जुड़ी एसोसियेशन का अध्यक्ष भी रहा. शुरु में लोगों को इसके बारे में कहते हुए हिचकता था क्योंकि लोग यह बात सुन कर ही पीछे हट जाते थे. कई देशों में देखा कि कुष्ठ रोगी होने से छूआछात और भेदभाव किया जाता है, उनके साथ काम करने वाले स्वास्थ्य कर्मचारी भी इस भेदभाव से नहीं बचते. गाँधी जी ने कैसे कुष्ठ रोगियों की सेवा की यह पढ़ कर बहुत अच्छा लगा.

एक अन्य आलेख पढ़ते हुए अपने एक पुराने मित्र से मुलाकात हुई. रीता रानी पालीवाल के आलेख "सूरज के देश में", उनकी मुलाकात तोक्यो में हिंदी पढ़ाने वाले प्रोफेसर तनाका से होती है. अचानक मन में आया दिल्ली विश्वविद्यालय में १९६८ में हिंदी पढ़ने आया जापानी छात्र तोशियो तनाका. मेरी बुआ डा सावित्री सिंहा दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी की प्रोफेसर थीं और तनाका जी उनके छात्र. दीदी की शादी में उनसे बहुत बातें की थीं, जो आज भी मुझे याद हैं. मन में आया कि क्या मालूम इस लेख के तनाका जी और मेरे बचपन की यादों की तनाका जी एक ही हों?

कल रात को पत्रिका पढ़ना पूरा किया तो थोड़ा सा दुख हो रहा था कि इतनी जल्दी समाप्त हो गयी, जैसी अच्छी किताब को समाप्त करने पर होता है. संभाल कर रखना होगा, क्योंकि कई आलेख हैं जिन्हें दोबारा पढ़ना चाहता हूँ. प्रियंकर पालीवाल जी को धन्यवाद कि उन्होंने मुझे इस अनुभव का हिस्सा बनने का मौका दिया.

सोमवार, सितंबर 08, 2008

हीरामन का क्या ?

जब भी गाँव के जीवन की बात होती है तो मन में "तीसरी कसम" का हीरामन या "मदर इँडिया" के राधू और शामू आते हैं. गाँव से सीधा रिश्ता कभी रहा नहीं, शहरों में रहे और शहरों में बड़े हुए, तो गाँव फ़िल्मों और किताबों में ही मिलते थे.

दिल्ली के पास नजफगढ़ के रास्ते पर आज जहाँ द्वारका मोड़ नाम का मेट्रो स्टेशन है, वहाँ नाना के खेत होते थे, पर गाँव की सोचूँ तो नाना के पास बीते दिन मन में नहीं आते, शायद इस लिए कि वह जगह दिल्ली के बहुत करीब थी और गाँव में रह कर भी लगता था कि शहर में ही हैं. शायद यह बात भी हो कि फ़िल्मों में दिखने वाले गाँव सुंदर दिखते थे पर सचमुच के नाना के खेतों में कड़ी धूप, खुदाई करने और गोबर जमा करने की मेहनत, उपलों की गंध वाला दूध, कूँए का खारा पानी सब मिल कर सचमुच के गाँव के जीवन को फ़िल्मों में दिखने वाले गाँवों के मुकाबले में अधिक कठिन बना देते थे.

जून के "हँस" में वरिष्ठ लेखक संजीव का लेख पढ़ रहा था, "कहाँ गये प्रेमचंद के हीरा मोती", जिसमें उन्होंने बढ़ते मशीनीकरण से गाँवों के बदलते जीवनों और गाँवों से लुप्त होते बैलों तथा मवेशियों के बारे के बारे में लिखा हैः


"कालचक्र घूमता रहा. पन्ने पटलते रहे ... मगर पन्ने इतनी तेजी से पलट जाएंगे कि जुताई, बोवाई, कटाई, मड़ाई और खलिहान की पूरी अवधारणा ही बदल जायेगी, कौन जानता था! जैसे जैसे ट्रैक्टर, थ्रैशर और कृषि की दीगर मशीनें आती गईं, वैसे वैसे फसल के उत्सव से कुछ लोग पीछे छूटते गए. ... लेकिन कहां गए वे लोग जो इन मशीनों के आते ही बाहर धकेल दिये गये? ... क्या विडंबना है कि आज प्रेमचंद का होरी गैर सरकारी नहीं, सरकारी ऋण से मर रहा है, गोबर मुंबई-दिल्ली में "भैया " या "बिहारी" की गाली खा रहा है, उसकी पत्नि सोसाइटियों में चौका बासन कर रही है. मैं सीवान के बीचोबीच खड़ा हूं, दूर दूर तक डंठलों की आम जल रही है. लगता है दूर कहीं धनिया विलाप कर रही है और हीरा मोती के "बां बां" के कातर स्वर उभर रहे हैं."

जिस जीवन को हमेशा देखा, जिया हो वह बदलने लगे तो दुख तो होगा ही. फ़िर गाँव का जीवन तो शायद पिछले चार पाँच हज़ार सालों से नहीं बदला था, जब से लोहे का आविष्कार हुआ था तब से. जितनी तेज़ी से यह बदलाव गाँवों, कस्बों, छोटे बड़े शहरों में आ रहे हैं, शायद इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ. यह बात नहीं कि यह बदलाव केवल भारत में आया है, यह तो सारे विश्व में है पर भारत के कच्ची सड़कों वाले, बैलगाड़ी वाले गाँवों में आ रहे और आने वाले बदलाव का सोच कर लगता है कि हाँ, शायद अब समय आयेगा जब जीवन सचमुच बदलेगा.

अपने जाने पहचाने खेतों में बैल की जगह पर ट्रैक्टर देख कर बीते समय का सोच कर दुख होना स्वाभाविक तो है पर शायद गाँवों के लिए जीवित रहने का यही उपाय है? संजीव अपने लेख में बात करते हैं प्रेमचंद की "दो बैलों की कथा" की, चंद्रगुप्त विद्यांलकार की "गोरा" की, बिजेंद्र अनिल की "माल मवेशी" की, स्वयं प्रकाश की "नैनसी का धूड़ा" की", और गाँवों के बारे में लिखने वाले लेखकों के लुप्त होने की, और इसमें संस्कृति और संस्कारों के टूटने को देखते हैं. पर संस्कृति और संस्कारों का यह बदलाव गाँवों के मशीनीकरण से नहीं बल्कि जीवन की तकनीकी तरक्की से आया है. टीवी और मोबाइल फोन ने शहरों के जीवन की एक छवि गाँवों को दिखाई है जिसमें केवल शहरों का उपभोगत्तावाद है, संस्कृति और संस्कार तो बस बिकने वाले टीवी सीरियल हैं जिनमें हर दस मिनट में विज्ञापन दिखाये जाते हैं.

इन भागते शहरों में गाँवों और कस्बों से आँखों में सपने लिए आने वालों के लिए "भैया" और "बिहारी" की गालियाँ हैं, शायद उनके भोले गँवारपन और अँग्रेजी न जानने के बारे में उपहास भी है. वर्तिका नंदा ने अपनी एक कविता "टीवी एंकर और वो भी तुम" में लिखा हैः

तुम नहीं बन सकती एंकर
तुम कहीं और ही तलाशो नौकरी
किसी कस्बे में या फ़िर
पंजाब के उसी गाँव में
जहां तुम पैदा हुई थी
पर बड़े शहरों में बसने वाले गाँवों और कस्बों से आये लोग जानते हैं उनका भविष्य उनके बच्चे होंगे, जो शहरों में पल बढ़ कर शहरों वाली भाषा बोलेंगे, जिनकी कोई हँसी नहीं उड़ायेगा. वह हिम्मत नहीं हारते, जान लड़ाते हैं अपने जीवन बेहतर करने के लिए. गाँवों, बैलों और पाराम्परिक जीवनों के लुप्त होने में अगर मानव का जीवन अधिक आसान हो जाता है तो यही भला है, अगर उसे तपती धूप में खून पसीना नहीं बहाना पड़ता तो यही भविष्य अच्छा है. और अगर उस भविष्य में जातपात, ऊपर नीचे, छोटे बड़े की दूरियाँ कम हो सकेंगी तो वह भविष्य जितनी जल्दी आ सकता है, आये. हीरामन नहीं तो न सही, कथाकार कुछ और सोच लेंगे मन द्रवित और आँखें नम करने के लिए. हज़ारों वर्षों से, पीढ़ियाँ दर पीढ़ियों से पिसने वाले इंसान को अगर कमर सीधा करके सिर उठा कर चलने का मौका मिलेगा तो मुझे उस भविष्य से कोई शिकायत नहीं.

शनिवार, सितंबर 06, 2008

वह दोनो

बस स्टाप पर बस आ कर खड़ी हुई तो तुरंत लोग भागम भाग में चढ़े, लेकिन बस ड्राईवर साहब को जल्दी नहीं थी, बस से उत्तर कर बाहर खड़े वह धूँआ उड़ा रहे थे. तब उन दोनो पर नज़र पड़ी. दोनो की उम्र होगी करीब चौदह या पंद्रह साल की. उनके चेहरों में अभी भी बचपन था.

लड़की के बाल ज़रा से लम्बे थे, कानो को कुछ कुछ ढक रहे थे. दोनो ने ऊपर छोटी छोटी बनियान जैसी कमीज़ पहनी थी. और नीचे छोटी निकेर पहनी थी, नाभि से इतनी नीचे कि भीतर के जाँघिये का ऊपरी हिस्सा बाहर दिखे, जैसा कि आजकल का फैशन है. यानि अगर दोल्चे गब्बाना या केल्विन क्लाईन के जाँघिये पहनो तो उन्हें दुनिया को दिखाओ. लड़के की निकेर थोड़ी खुली ढीली सी थी, लड़की की तंग थी.

जहाँ तक अन्य साज सँवार का प्रश्न है, लड़का ही लड़की से आगे था. उसके गले में अण्डे जैसे बड़े बड़े सफेद मोतियों की माला थी, कानों में चमकते हुए बुंदे और कलाई पर किसी चमकती धातु का ब्रेस्लेट. उसके सामने लड़की साधी साधी लग रही थी, उसके गले में न तो माला थी, न कानों में बालियाँ, बस दाँहिनी कलाई पर तीन चार रंगबिरंगी मोतियों वाली ब्रेस्लेट थी. दोनो के चेहरे साफ़ थे, कोई मेकअप नहीं था.

दीवार से सटे दोनो एक दूसरे के मुख, जिव्हा, दाँतों की भीतर से सूक्ष्म जाँच कर रहे थे, या शायद एक दूसरे के टोंसिलों की सफाई. एक दूसरे के गले में बाँहें और चिपके हुए शरीर मानों वहीं सड़क पर ही एक दूसरे में समा जायेंगे.

उन्हें देखा तो अचानक मन में बहुत ईर्ष्या हुई. हमारे ज़माने में इस तरह का क्यों नहीं होता था?

एक तो लड़के यह रंग नहीं पहनते, ऐसा नहीं करते, वैसा नहीं करते, लड़कियाँ यह नहीं करती, वैसा नहीं पहनती के झँझटों से मुक्ती, स्त्री और पुरुष अपनी मन मरजी से पहने जिसमें स्त्री और पुरुष की बाहरी भिन्नता कुछ घुल मिल सी जाये. एक बार दाढ़ी निकल आयेगी तो थोड़ी दिक्कत आ सकती है पर किशोरो को वह दिक्कत भी नहीं.

दूसरे किशोरावस्था में घुसते ही शरीर में जब होरमोन का तूफ़ान छाता है तो दिमाग यौन सम्बंधों के विषय पर ही अटका रहता है. फ़िर अठारह बीस वर्ष की आयु तक शरीर का यौन विकास अपने चरम पर पहुँच जाता है और उसके बाद धीरे धीरे कम होने लगता है. यह दोनो किशोर किशोरी, उसी होरमोन के तूफ़ान में आनंद से बेपरवाह बह रहे थे.

सब बँधनों से मुक्ति और इस मुक्त संसार में पैदा बड़ा हुआ इंसान क्या नयी बेहतर दुनिया बनायेगा? बचपन में ही शुरु हो जाता है कि लड़कों को क्या पहनना चाहिये. अरे कैसे लड़कियों जैसे कपड़े पहने हैं, क्या कभी किसी लड़के को गुलाबी रंग की कमीज़ पहने देखा है, बदलो इसे तुरंत वरना लोग क्या कहेंगे? लड़के खाने में खट्टा नहीं खाते, चोट लग जाये तो वह लड़कियों की तरह नहीं रोते, उन्हें गुड़िया नहीं कारें और फुटबाल अच्छी लगती हैं. लड़कियों के आसपास लगी यह कर सकते हैं, यह नहीं वाली दीवारें शायद और भी ऊँची होती हैं. पर उन दोनों को देख कर लग रहा था कि यह सब बँधन पुराने हो गये, टूट गये हैं और नहीं टूटे तो आने वाली दुनिया इन्हें तोड़ देगी.

यौन सम्बंधों की दीवारें भी हमारे समय में कितनी ऊँची होती थीं. जहाँ तक मुझे याद है उस लड़के की उम्र में मुझे यौन सम्बँधों की पूरी समझ भी नहीं आयी थी, जबकि वह दोनो इस विषय में पीएचडी कर चुके लगते थे. ब्रह्मचर्य, कौमार्य, इज़्जत बचाना, शरीर को बचा कर रखना, इन सब बातों की उन्हें परवाह नहीं लगती.

इस मुक्ति में ही उनका विनाश छुपा है, यौन स्वच्छंदता और शरीर के सुख सब माया हैं, समय के साथ यह भी गुज़र जायेंगे और जीवन के संघर्ष और कठिन हो जायेंगे, मैं खुद को समझाता हूँ. पर क्या सचमुच ऐसा जीवन जीने का मौका मिलता तो क्या मैं न कह पाता? आप को ऐसा जीवन जीने का मौका मिलता तो क्या आप उसे न कह पाते?

बुधवार, सितंबर 03, 2008

इंसान की कीमत

पिछले सप्ताह जब कँधमाल में दंगे हुए जिनमें कुछ हिंदु दलों ने ईसाई गिरजाघरों, घरों और लोगों पर हमले किये तो इटली में समाचार पत्रों और टीवी चैनलों पर इस विषय पर काफ़ी चर्चा हुई, जो आज तक पूरी नहीं रुकी है. उड़ीसा से हिँसा की घटनाओं के समाचार रुके नहीं हैं और इटली की सरकार ने यह मामला योरोपियन यूनियन की संसद में भी उठाया तथा भारतीय राजदूत को बुला कर भी इस बारे में कहा गया.

कुछ दिनों के बाद भारत में बिहार में बाढ़ आयी, कई लाख व्यक्ति बेघर हुए, कई सौ की जाने गयीं, पर इटली के समाचार पत्रों और टीवी चैनलों पर इस समाचार को न के बराबर दिखाया गया, इस पर किसी तरह की बहस नहीं हुई.

इटली के गूगल से उड़ीसा में हो रहे दँगो पर खोज कीजिये तो 25 हज़ार से अधिक इतालवी भाषा के पन्ने दिखते हैं, जबकि बिहार की बाढ़ पर खोज करिये तो पाँच सौ पन्ने मिलते हैं.

हालाँकि बिहार में भी मरने वालों में सभी धर्मों के लोग होंगे, बाढ़ों और तथाकथित प्राकृतिक दुर्घटनाओं में गरीब लोग ही कीमत चुकाते हैं चाहे उनका कोई भी धर्म हो, पर अगर सब धर्मों के लोग मर रहें हों तो शायद बढ़िया समाचार नहीं बनता. जब धर्मों में लड़ाई हो तब अच्छा समाचार बनता है!

मंगलवार, अगस्त 19, 2008

अँग्रेज भगवान

सलमान खान की नयी फ़िल्म "गोड तुस्सी ग्रेट हो" की तस्वीरें देख रहा था तो समझ में आया कि यह फ़िल्म अँग्रेजी में बनी अमरीकी फ़िल्म "ब्रूस आलमाईटी" का हिंदी रूप है और इसमें अमिताभ बच्चन जी भगवान का रूप निभा रहे हैं जो कि कुछ दिनों के लिए भगवान की सभी ताकतें एक नवयुवक यानि सलमान खान को दे देते हैं.

विदेशी फ़िल्मों से प्रभावित हो कर उन पर हिंदी फिल्म बनाना, उसकी फ्रेम टू फ्रेम नकल करना और फ़िर साक्षात्कार देना कि नहीं हमने तो केवल प्रेरणा ली है, बहुत से फ़िल्म निर्माताओं की पुरानी आदत है. पर इतनी लापरवाही कि फ़िल्म लो पर उसे भारतीय वातावरण में ढालने की रत्ती भर कोशिश भी न करो, इसका क्या अर्थ हो सकता है?

कोट पैंट पहनने वाले आफिस के मैनेजर जैसे लगने वाले भगवान भारत में किस धर्म में होते हैं भला? मैंने फ़िल्म नहीं देखी, इसलिए यह नहीं कह सकता कि सारी फ़िल्म में भगवान का यही रूप है या फ़िर जब भगवान जी धरती पर आते हैं और अपना सही रूप छुपाने के लिए कोट पैंट जैसे कपड़े पहनते हैं, जिसे वैचारिक तौर पर समझा जा सकता है क्योंकि शायद आज अगर राम या कृष्ण धरती पर आयें तो अपने पुराने रूप में नहीं आ सकते.

कुछ इसी तरह की बात लगी थी कुछ समय पहले जब यश चोपड़ा की फ़िल्म "थोड़ा प्यार थोड़ा मैजिक" देखी थी, जो कहानी थी स्वर्ग से धरती पर आयी पर एक परी की. इस फ़िल्म में यह परी भारतीय स्वर्ग में नहीं अमरीकी स्वर्ग में रहती है, गाऊन पहनती है, साइकल पर घूमती है, न उसके परियों जैसे पँख हैं, न भारतीय परिकल्पना की परियों जैसे बातें. वह पश्चिमी सभ्यता में बड़ी हुई आधुनिक युवती है जो धरती पर आती है तो भी लंदन में उतरी मेरी पोपिनस ही लगती है.

फ़िल्मों में इस तरह के चरित्र बनाये जायें इसका अर्थ है कि इसे बनाने वाले उसी दुनिया में रहते हैं, और इन फ़िल्मों को देखने वाले भी उसी दुनिया में रहते हैं जहाँ सब कुछ यूरोप या अमरीका से उधार लिया गया हो जहाँ अपना कुछ भी न हो, चेहरा और नाक नक्श छोड़ कर.

रंग भेद में तो अपना हिंदी जगत पहले से ही माहिर है, थोड़ा सा भी साँवला रंग वाले हीरो हिरोइन, उनके माता पिता, दोस्त सखियाँ, खोज कर ही शायद कोई इक्का दुक्का मिलती हैं. फ़िल्मों में देखो तो भारत के रहने वाले सब गोरे चिट्टे लोग हैं. असली भारत का कालापन इन फ़िल्मों की लुक न बिगाड़े इसलिए आम जनता वाले दृश्य विदेशों में शूट कर लेते हैं.

बस एक ही दिक्कत है इन बेचारे फ़िल्मकारों की, अपनी फ़िल्में भारत में काले, पिछड़े लोगों को ही दिखानी पड़ती हैं.

सोमवार, अगस्त 04, 2008

अंतर्राष्ट्रीय मीडिया का भविष्य

हम लोग साथ वाले पड़ोसी, साजिद भाई के आँगन में खेल रहे थे, अचानक सड़क पर लोगों को कहते सुना था कि सँजय गाँधी की मृत्यु हो गयी है. भाग कर रेडियो सुनने गये थे पर आल इँडिया रेडियो पर इसकी कोई खबर नहीं थी, तब तुरंत सुझाव उठा था कि बीबीसी लगा कर उसे सुनने की कोशिश करनी चाहिये.

विपत्ती के समय पर आल इँडिया रेडियो का भरोसा नहीं कर सकते बल्कि बीबीसी का भरोसा अधिक है यह बात तो स्वयं राजीव गाँधी ने भी स्वीकारी थी जब उन्होंने एक साक्षात्कार में बताया था कि अपनी माँ इंदिरा गाँधी की मृत्यु का समाचार जब उन्हें मिला तो वह किसी यात्रा पर थे और तुरंत उन्होंने बीबीसी लगा कर यह जानना चाहा था कि इस समाचार में सच था या नहीं. यह बातें १९८० के आसपास की हैं और तब भारत में प्राईवेट टेलिविज़न नहीं थे, न ही प्राईवेट एफएम रेडियो थे.

मीडिया की बात हो तो भारत में सरकारी सोच विचार अब भी पुराने ढर्रे की लगते हैं, कुछ भी बात हो सुरक्षा और आतंकवाद की दुहाई दे कर, हर क्षेत्र में बात को दबाने और निषेध लगाने की कोशिश की जाती है, हालाँकि प्राईवेट समाचार चैनलों से आज स्थिति बिल्कुल बदल चुकी है.

लेकिन अगर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मीडिया का सोचा जाये तो क्या आप आज भी बीबीसी को विश्वासनीय मानेंगे?

व्यक्तिगत स्तर पर मेरे लिए ईराक युद्ध ने स्थिति को इतना बदल दिया है कि आज मेरे लिए बीबीसी या सीएनएन जैसी चैनलों पर विश्वास कम हो गया है. ईराक युद्ध में दोनो ही चैनलों ने इस तरह से अमरीकी और अँग्रेजी शासनों की सरकारी नीति का पालन किया जिसमें निष्पक्षता का नामोनिशान नहीं था. शायद इस स्वमानित सैंसरशिप में सीएनएन सबसे आगे था, उसने निष्पक्षता का नाटक करने की भी कोशिश नहीं की थी, बीबीसी उससे थोड़ा पीछे था. जिस तरह से अमरीकी मिलेटरी ने अल ज़जीरा के पत्रकारों पर हमला कर के उन्हें मारा था, जिस तरह पश्चिमी देशों के पत्रकार फौज में मिल कर एमबेडिड पत्रकारिता कर रहे थे, उस सब से इन चैनलों की विश्वास्नीयता जितनी नीचे गिरी थी, वैसा पहले कभी नहीं हआ था.

आज उस बात को पाँच साल बीत गये, इन पाँच सालों में बीबीसी ने और कुछ हद तक सीएनएन ने निष्पक्षता की साख को फ़िर से बनाने की कोशिश की है, पर अगर कोई भी बात हो जिसमें यह चैनलें अंग्ररेजी या अमरीकी बात को उठाती हैं तो उनकी बात पर पूरा विश्वास नहीं होता. जैसे कि आज भी अफगानिस्तान के बारे में कोई समाचार इन दो चैनलों से सुनो तो भी पूरा विश्वास नहीं होता कि इन्होंने सारी बात बतायी होगी या नहीं.

पर जहाँ दस साल पहले, यही दो अंतर्राष्ट्रीय समाचार चैनलें थीं, आज मीडिया की स्थिति बदल चुकी है. सबसे अधिक महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय समाचार चैनल आज इंटरनेट बन गया है, कुछ भी बात हो ब्लोगर, यूट्यूब के शौकीन, वहाँ सबसे पहले पहुँच कर आँखों देखा हाल सुनाते हैं. टेलिविज़न का सोचा जाये तो अल ज़ज़ीरा की अँग्रेजी चैनल, फ्राँस इंटरनेशनल चेनल, रूस इंटरनेशनल चैनल, यूरोन्यज़ जैसी चैनलों से आप हर समाचार के विभिन्न पहलुओं पर अलग दृष्टिकोणों को देख सुन सकते हैं. विकासशील देशों में से, आज चीन के सीसीटीवी ने यूरोप में अपनी पहुँच बढ़ायी है जिसे बिना किसी कीमत के हर जगह देखा जा सकता है. समाचारों में अफ्रीकी और दक्षिण अमरीकी दृष्टिकोणों की कमी महसूस होती है, पर यह तो समय की बात है, अवश्य ही आने वाले समय में यह कमी भी पूरी हो जायेगी.

भारत इस दौड़ में थोड़ा पीछे है. भारत की सरकार का किसी बात के बारे में क्या सोच है, क्या दृष्टिकोण है, यह दुनिया को बताना शायद भारत के लिए इतना महत्वपूर्ण नहीं. दूरदर्शन को यूरोप में कैसे देखें, वह आसान नहीं. इस दृष्टि से दूरदर्शन टीवी, चीनी सीसीटीवी से मीलों पीछे है. इंटरनेट के मीडिया से कैसे देश के दृष्टिकोण को बाहर अन्य देशों तक कैसे पहुँचाया जाये, यह भी दूरदर्शन नहीं बल्कि प्राईवेट मीडिया ही कर रहा है. हैरानी होती है कि दुनिया इंटरनेट से टीवी देखने लगी और भारत का आल इँडिया रेडियो तक इटरनेट पर लाईव नहीं सुन सकते.

भारतीय मीडिया की स्थिति चाहे कुछ भी हो, अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में आज दुनिया बदल रही है. जब दुनिया में बीबीसी या सीएनएन का एकछत्र राज होता था, वह जमाना गया. आज यह जानते हैं कि मीडिया में निष्पक्षता कठिन है, इसलिए किसी विषेश बात को समझना हो तो विभिन्न दृष्टिकोणों को देखिये और समझिये.

सोमवार, जुलाई 28, 2008

संस्कृति पर विदेशी प्रभाव

जब भी भारतीय संस्कृति की बात होती है तो संस्कृति को कैसे उसके मूल रूप में बना कर और बचा कर रखा जाये, इसकी बात भी अवश्य होती है. इस बहस के आधार में एक सोच छुपी होती है कि मूल भारतीय संस्कृति वेदों और आर्यों की संस्कृति है, जो पाँच हज़ार वर्षों से भी पुरानी धरोहर है जिसे हमें सहेज कर रखना है. इसी मूल विचार को मान कर अक्सर भारतीय संस्कृति की रक्षा की बात करने वाले रुष्ठ हो जाते हैं जब कोई आर्यों के विदेश में मध्य एशिया से भारत में आने की बात करता है, क्योंकि उन्हें लगता है कि आर्यों का विदेश से आना मान लेने से यह हमारी संस्कृति भी विदेशी बन जाती है, उसकी भारतीयता में खोट सा आ जाता है.

मैं सोचता हूँ कि इस सारी बहस के मूल में दो गलतियाँ हैं.

पहली गलती: द्विवाद या बहुवाद ?

पश्चिमी विचार पद्धति के "द्विवाद" के तर्क को सोचने का एकमात्र तरीका मान कर हम लोग अपने "बहुवाद में एकता" के तर्क से सोचने के तरीके भुला देते हैं. पश्चिमी सोच द्विवाद (dichotomy) के तर्क पर बनी है, यानि एक वस्तु एक समय में एक ही हो सकती है, दो या अधिक नहीं. यह सोच का वैज्ञानिक तरीका है, सारा आधुनिक विज्ञान और तकनीकी इस सोच पर ही बना है. जीव जंतुओं और प्राणियों को विभिन्न श्रेणियों में बाँटने से ले कर, भौतिकी में अणु को बनाने वाले कणों की खोज तक सब इसी वैज्ञानिक द्विवाद के तर्क पर ही टिका है. यही तर्क पश्चिमी विचार पद्धति जो विज्ञान पर लगाती है, उसी तरह गैरभौतिक जगत यानि समाज, धर्म, संस्कृति पर भी लागू करती है, जैसे एकइश्वरवाद या बहुदेवपूजा के आधार पर धर्मों को विभिन्न गुटों में बाँटना, स्त्रियों पुरुषों को विषमलैंगिक, समलैंगिक जैसे हिस्सों में बाँटना, संस्कृतियों को देशी विदेशी गुटों में बाँटना, इत्यादि.

मैं द्विवाद (dichotomous thinking) के महत्व को कम या छोटा नहीं दिखाना चाहता, यह सचमुच मानव विकास के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है. पर एक अन्य तरीका भी है सोचने का जिसमें एक वस्तु एक साथ विभिन्न वस्तूओं का रूप ले सकती है, जो द्विवाद के तर्क से देखो तो समझ नहीं आते पर "बहुवाद में एकता" के तर्क से देखों तो समझ आ जाते हैं. इस तर्क में बहुत से भगवान, देवी देवता मान कर भी हम समझते हैं कि उन सबके पीछे ईश्वर एक ही है. मेरे विचार में विज्ञान के नये विकास इसी बहुवाद में एकता की सोच से ही आयेंगे, जैसे कि क्वाँटम भौतिकी (Quantum physics) या काओस थ्योरी (chaos theory) जैसी धारणाएँ. इस सोच में आपस में विराधाभास होने वाली बातों में समन्जस्व और एकता बनायी जाती है.

कुछ दिन पहले मैंने इस विषय पर अमरीकी लेखिका रेबेक्का सोलिंट (Rebecca Solint) का एक लेख पढ़ा था जिसमें उन्होंने बर्मा में बुद्ध भिक्षुकों द्वारा बर्मा के मिलेटरी शासन के विरुद्ध किये जाने वाले संघर्ष के बारे में लिखा था. उनका कहना है कि यूरोपीय सोच "कर्म जीवन" और "आध्यात्मिक जीवन" को दो अलग श्रेणियों में बाँट कर देखती है और इसी बँटवारे की सोच की वजह से नहीं समझ पाती कि ध्यान और पूजा करने वाले बुद्ध भिक्षुक क्यों शासन के विरुद्ध सड़कों पर उतर आये?

ऐसा नहीं कि भारतीय सोच में केवल बहुवाद है और द्विवाद बिल्कुल नहीं, या कि अँग्रेजों से पहले भारत में धर्मों के लिए लड़ाईयाँ नहीं होती थीं. पर मेरे विचार में भारतीय या फ़िर पूर्वी सोच में बहुवाद सोचने के तरीके का महत्वपूर्ण स्थान था जिससे विभिन्न गुटों को साथ रहने पनपने का मौका मिलता था, जिसे हम बहुत कुछ भूल रहे हैं. धार्मिक कट्टरवाद की जड़ें भी द्विवाद सोच में गहरी दबी हैं और भारतीय बहुवाद की सोच इस लड़ाई से बाहर निकलने की राह दिखा सकती है.

दूसरी गलतीः शास्वत, बदलावहीन संस्कृति

दूसरी गलती है यह सोचना कि संस्कृति कोई स्थायी वस्तु है, जैसी थी वैसी ही रहेगी, बदलेगी नहीं. संस्कृति तो समय के साथ साथ बदलती रहती है, उसमें नयी सोच जुड़ती रही है और रहती है. आज के भारत में स्त्री शरीर को ढकने का, घूँघट या परदा करने की सोच प्राचीन भारत की संस्कृति की सोच नहीं थी यह भारत में अँग्रेजी और मुसलमान प्रभाव से पहले की चित्रकला, वास्तुकला, ग्रंथ स्पष्ट दिखाते हैं. यह सोच पिछले पाँच सौ सालों में भारतीय संस्कृति का हिस्सा बनी है.

भारतीय इतिहास, सभ्यता, संस्कृति, समाज शास्त्र, पुरातत्व जैसे सभी क्षेत्रों में हमारी अधिकतर जानकारी विदेशी विद्वानों के शौधों पर टिकी है. विदेशी होने से ही वह सब गलत नहीं हो जाते बल्कि उनका इस बारे में योगदान अमूल्य है, इसलिए भी कि अक्सर नये और बढ़िया के चक्कर में हम लोग अपने पुराने ज्ञान को संभाल को नहीं रख पाते.

पर साथ ही, अपने अतीत को भारतीय, पू्र्वी और गैरपश्चिमी सोच से जाँचने, परखने का भी हमारा कर्तव्य है, क्योंकि यह कोई अन्य नहीं कर सकता. आर्य मध्य एशिया से आये थे या नहीं आये थे, आर्य संस्कृति और द्रविड़ संस्कृति में क्या सम्बंध थे, और इन सब से विभिन्न अन्य अनेक विषयों और बातों पर बहस और शौध, राष्ट्रवाद और धर्मवाद के कैदखानों में बंद हो कर नहीं, स्वतंत्र निर्भीक हो कर की जानी चाहिये.

note: यह पोस्ट मेरे एक लेख का हिस्सा है, अगर पूरा लेख पढ़ना चाहें तो उसे कल्पना पर पढ़ सकते हैं.

गुरुवार, जुलाई 10, 2008

किताब के बाहर

पाकिस्तानी फ़िल्म निर्देशक शोहेब मंसूर की फ़िल्म "खुदा के लिए" देखी और अच्छी लगी.

फ़िल्म कहानी है तीन प्रमुख पात्रों की - मंसूर (शान), सरमद (फ्वद खान) और मरियम (इमान अली) की. मंसूर और सरमद दो भाई संगीत प्रेमी है जो लाहौर में रहते हैं. उनकी चचेरी बहन मरियम लंदन में रहती है.



सरमद एक मौलाना के सम्बंध में आते हैं और उनकी बातों से प्रभावित हो कर सोचने लगते हैं कि संगीत इस्लाम के विरुद्ध है तो संगीत छोड़ देते हैं, दाड़ी बढ़ा लेते हैं, पैंट कमीज छोड़ कर पाकिस्तानी वस्त्र पहनने लगते हैं, माँ से कहते हैं कि तुम परदा करो, आदि.

मरियम लंदन में एक ईसाई युवक से विवाह करना चाहती है पर उनके पिता के अनुसार मुसलमान युवती धर्म से बाहर विवाह नहीं कर सकती, तो वह उसे धोखे से पाकिस्तान लाते हैं और वहाँ जबरदस्ती उसका विवाह चचरे भाई सरमद से करा देते हैं, जो पत्नी को ले कर अफगानिस्तान के एक गाँव में रहते हैं ताकि मरियम भाग न सके.

मंसूर को अपने छोटे भाई सरमद का इस तरह रूढ़िवादी बन जाना समझ नहीं आता, वह उसके विचार बदलने की कोशिश करता है पर कुछ नहीं बदल पाता. उसे अमरीका में संगीत सीखने की छात्रवृति मिलती है, जहाँ उसकी मुलाकात अमरीकी संगीतकार जेनी से होती है जिनसे वह विवाह कर लेता है. फ़िर ग्यारह सितंबर 2001 को अमरीका में हुए बम विस्फोट से स्थिति बदल जाती है और मंसूर को आतंकवादी समझ कर कैद कर लिया जाता है और यातना दी जाती है.



अंत में मरियम अफगानिस्तान से निकलने में सफल होती है, सरमद समझ जाते हैं कि मौलाना द्वारा इस्लाम की बातें ठीक नहीं और अमरीकी कैद से छूटे, टूटे और हारे मंसूर वापस पाकिस्तान आ जाते हैं.

फ़िल्म एक तरफ़ दिखाती है कि रूढ़िवादी लोग किस तरह मुसलमान नवयुवकों को प्रभावित कर सकते हैं, दूसरी और आधुनिक सोच वाले मुसलमानों की कठिनाई भी दिखाती है कि पश्चिमी देशों में केवल मुसलमान होने की वजह से वे आतंकवादी के रूप में देखे जाते हैं. फ़िल्म का संगीत बढ़िया है, सब पात्रों का अभिनय भी अच्छा है.

पर साथ ही इस फ़िल्म की एक बात कुछ अजीब लगी कि उसकी हर बहस इसी बात पर थी कि कोई बात इस्लाम में कुरान शरीफ के अनुसार ठीक मानी जाती है या नहीं.

अंत में फ़िल्म दिखाती है कि कुरान शरीफ़ के अनुसार औरत का जबरदस्ती विवाह गलत बात है, इस्लाम संगीत के विरुद्ध नहीं, इत्यादि. कहीं यह बात नहीं होती कि मानवता के हिसाब से कोई बात ठीक है या नहीं? तो लगा कि अगर कुरान शरीफ़ में कोई इस तरह की बात हो जो मानवता कि दृष्टि से ठीक न हो तो क्या उसे सही माना जायेगा? जैसे कि मुसलमान युवती द्वारा धर्म से बाहर विवाह करने की बात है. फ़िल्म में यह कहा जाता है कि मिरयम मुसलमान थी ही नहीं, वह तो ईसाई समाज में ईसाई माँ के साथ, ईसाई ही बड़ी हुईं थीं, पर इस बात का उत्तर नहीं दिया जाता कि इस्लाम में क्या सिर्फ पुरुष को अधिकार है कि वह धर्म के बाहर विवाह करे?

मैं सोचता हूँ कि आज मानव अधिकार की दृष्टि से बात देखना आवश्यक है और अगर कोई धर्म मानव अधिकार की दृष्टि से किसी विषय में ठीक बात नहीं कहते तो उसमें धर्म सुधार की बात होनी चाहिये. हर धर्म में कट्टरपंथी और रुढ़िवादी हो सकते हैं जो धर्मग्रंथ में लिखे को पत्थर की लकीर माने पर हर धर्म में सुधारवादी भी होते हैं. लेकिन लगता है कि आज के वातावरण में आधुनिक दृष्टि वाले मुसलमानों के लिए अपनी बात कहना पहले के मुकाबले कठिन हो गया है.

ऐसे ही आधुनिक और निर्भीक मस्लिम विचारवादी है मिस्र के लोकप्रिय लेखक अला अल अस्वानी (Ala Al Aswany) अस्वानी जी मिस्र की राजधानी कैरो में दाँतों के डाक्टर हैं और लेखकी उनका शौक है. उनकी किताब "याकूबी भवन" को अरबी साहित्य की सबसे अधिक बिकने वाली किताब माना जाता है. वह दू टूक बात करने के लिए प्रसिद्ध हैं. कुछ दिन पहले अमरीकी अखबार न्यू योर्क टाईमस मेगज़ीन में पंकज मिश्रा द्वारा लिया उनका एक साक्षात्कार पढ़ा था.

अस्वानी कहते हैं कि मिस्र तथा अन्य प्राचीन सभ्याताओं जैसे बगदाद और दमास्कस में जन्मा इस्लाम सहनशीलता और विभिन्न विचारों को मानने वाला धर्म था, जबकि साऊदी अरब के रेगिस्तान में जन्मा इस्लाम इससे भिन्न था, उसमें कला के लिए भी समय नहीं था. दिक्कत यह है कि आज वही रेगिस्तानी कट्टर इस्लाम को ही असली इस्लाम माना जा रहा है. अस्वानी ने सलमान रश्दी के विरुद्ध दिये फतवे का भी खुला विरोध किया था. वह कहते है कि रश्दी ने कुछ भी लिखा हो, इस्लाम किसी को मारने का अधिकार नहीं देता. मेरे विचार में आज इस्लाम को और दुनिया को, अस्वानी जेसे लोगों की बहुत आवश्यकता है.

सोमवार, जुलाई 07, 2008

मेरी गलती

कुछ दिन पहले की मेरी एक पोस्ट पर राज भाटिया जी ने टिप्पणी दीः
"मुझे तरस आता हे आप की सोच पर,बस ज्यादा कुछ नही लिखुगां"

उसके थोड़ी देर बार बाद किसी ने बनाम हो कर राज भाटिया के बारे में यह टिप्पणी दीः
"राज भाटिया जी आप अपने बूढे माता-पिता को रोहतक मे छोडकर विदेश मे मजे कर रहे है। पिताजी के देहाण्त मे भारत आते है तो भारत और इसकी समस्याए आपको नागवार गुजरती है। अकेली माँ को छोडकर फिर विदेश चले जाते हो। ऐसे उच्च संस्कार वाले तथाकथित भारतीय को तो निश्चित ही दीपक जी के लिखे पर तरस आना चाहिये। जिस देश तुन्हे पोसा और जिस माँ ने तुम्हे जन्म दिया उसी की निन्दा अपने ब्लाग पर करते हो, तब तरस नही आता लिखे पर---"

वैचारिक रूप से राज जी की टिप्पणी में कुछ दम नहीं था, किसी की बात का विरोध करना हो तो यह भी लिखा जा सकता है कि मैं आप की बात से सहमत नहीं या फ़िर असहमती की दलीलें भी दीं जा सकती हैं. पर फ़िर भी उनकी टिप्पणी से बहुत साल पहले के दोस्तों से होने वाली बहसें याद आ गयीं, जब आपस में अक्सर इस तरह की बात किया करते थे कि "मुझे तुम्हारी सोच पर तरस आता है, इत्यादि". अक्सर इस तरह की बात कहने पर बहस गरम हो जाती थी.

साथ ही मैं मानता हूँ कि हर किसी को अपनी बात कहने का पूरा हक है, शर्त केवल इतनी है कि व्यक्तिगत बातें न की जायें और मार पीट या हिंसा की बात न हो.

पर बेनाम टिप्पणी मुझे बुरी लगी. जिसने भी लिखा था उसे राज जी की टिप्पणी अच्छी नहीं लगी होगी और उसने इस तरह मेरी रक्षा करने की सोची. यह भी लगा कि मेरी बूढ़ी माँ भी तो दिल्ली में मेरी बहन के पास रहती है और इस तरह का आरोप मुझ पर उतना ही लगाया जा सकता है. यह भी बुरा लगा कि बहस किसी के व्यक्तिगत जीवन के बारे में थी और इस तरह के बहस करने के तरीके से मैं बिल्कुल सहमत नहीं.

पर यह सोच कर भी मैंने लापरवाही की. इस बात पर कुछ नहीं कहा या लिखा. आज राज जी की दूसरी टिप्पणी देखी तो मुझे अपनी गलती का अहसास हुआः
"दीपक जी मुझे ऎसी टिपण्णी नही देनी चाहिये थी , यह आप का बलाग हे आप चाहे जो लिखे, मे आप से माफ़ी चाहता हु, बस पता नही क्यो मुझे कुछ अच्छा नही लगा ओर यह वेब्कुफ़ी कर बेठा,आशा करता हु आप जरुर मेरी गलती को नजर अंदाज करेगे,धन्यवाद"

अब समझ में आया कि मुझे उस बेनाम टिप्पणी से अपनी असहमती तुरंत लिखनी चाहिये थी, और यह क्षमा राज जी को नहीं, मुझे माँगनी चाहिये थी, क्योंकि मेरे चिट्ठे पर उन पर यह व्यक्तिगत हमला हुआ था.

भविष्य में दोबारा ऐसा न हो इसके लिए सोचा है कि टिप्पणियों का moderation जारी करने से गलत टिप्पिणियों को रोका जा सकता है और आगे से ऐसा ही होगा.

रविवार, जुलाई 06, 2008

सीमाहीन आसमान का देश

कुछ दिन पहले की मेरी मँगोलिया यात्रा की डायरी के कुछ अंश प्रस्तुत हैं.

पहाड़ों के बीच में घाटी में बसा सगसाई शहर बहुत सुंदर है. दो नदियाँ बहती हैं टगरन और सगसाई. टगरन में बाढ़ सी आ रही थी और पानी का बहाव बहुत तेज था. एक जगह जीप नदी पार करने के लिए पानी में उतरी तो लगा कि बह ही न जाये. वहाँ रहने वाले अधिकतर लोग कजाक जाति के हैं यानि मुसलमान जबकि मँगोलिया में अधिकतर लोग बुद्ध धर्म के हें और बायान उल्गीई अकेला राज्य है जहाँ अधिक मुसलमान हैं, उनकी भाषा भी भिन्न है. हरि नाम है यहाँ विकलांग कार्यक्रम के अधिकारी का, नाम हिंदु लग सकता है पर धर्म है मुसलमान. बहुत हँसमुख है. कहने लगा कि यहाँ के मुसलमान बातचीत कपड़ों, आदतों में अन्य मँगोलिया वासियों जैसे ही हैं. लड़कियाँ और औरतें पर्दा नहीं करती, पैंट स्कर्ट आदि ही पहनती हैं. लोग वोदका भी बहुत पीते हैं, हाँ सुअर का माँस नहीं खाते. पर वह बता रहा था कि यहाँ के युवकों को साऊदी अरब, तुर्की और पाकिस्तान जैसे देशों से छात्रवृति का लालच दे कर बुला लेते हैं और यह युवक वापस आ कर पुराने ढंग से, इस्लाम का पालन करते हुए रहने की बात करते हें पर इसका अब तक कुछ विषेश असर नहीं पड़ा है.






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कल रात को ओम्नोगोबी जिले के शहर में पहुँचे. पता चला कि शहर के अकेला होटल में जगह नहीं क्योकि वहाँ राष्ट्रीय चुनाव में खड़े होने वाले क्राँतीकारी दल के उम्मीदवार और उनके साथी ठहरे हैं. चुनाव जून के अंत में होने वाले हैं. आखिर जगह मिली जिला अस्पताल में, जहाँ रात की ड्यूटी करने वाले डाक्टर साहब ने अपना कमरा मुझे दिया और बाकी के साथियों को वार्ड में जगह मिली. यह तो अच्छा हुआ कि अस्पताल में कुछ बिस्तर खाली थे वरना किसी को कार में या बाहर तम्बु लगा कर सोना पड़ता. कल शाम से ही इतनी तेज हवा चल रही है कि बाहर निकलना कठिन है. सारे जानवर, गाय, याक, भेड़ें, आदि झुंड बना कर हवा से लड़ने बैठे हैं, दूर दूर तक सब खुला जो है और छुपने के लिए कोई जगह नहीं.

अस्पताल का कमरा है तो अच्छा पर यहां पानी का नल नहीं और पाखाना अस्पताल के बाहर दूर बना है. बाल्टी में से कड़छी से पानी ले कर मुंह हाथ धोये तो बचपन के दिन याद आ गये. जब से मंगोलिया आया था कब्ज लगी थी पर आज सुबह सुबह पाखाना जाने की जरुरत महसूस हुई. सूरज की रोशनी तो सुबह चार बजे ही शुरु हो जाती है. बाहर वार्ड में निकला तो सब लोग सो रहे थे बस रात की ड्यूटी वाली नर्स जागी हुई थी, चाय पी रही थी. अस्पताल के बाहर निकला तो लगा कि हवा उड़ा कर ले जायेगी. पाखाना घर भी लकड़ी के बने हैं जिनमें बड़े बड़े छेद हैं और उसका दरवाजा भी बंद नहीं हो रहा था, अंदर हर तरफ से तेज हवा घुस रही थी. जब काम करके वापस अस्पताल में आया तो लगा मानो एवरेस्ट की चढ़ाई से लौटा हूँ.





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दोपहर में वापस उलानगोम पहुँचे तो मालूम हुआ कि भारत से दलाईलामा द्वारा भेजा विषेश प्रतिनिधी लामा आ रहे हैं जो प्रार्थना सभा करेंगे. हालाँकि बारिश आ रही थी और सर्दी लग रही थी फ़िर भी सब वहाँ जाना चाहते थे, क्योंकि मँगोलिया में तिब्बती बुद्ध धर्म को माना जाता है और दलाई लामा जी यहाँ के लिए सबसे बड़े धार्मिक गुरु माने जाते हैं. बुद्ध धर्म मँगोलिया में केवल सोलहवीं सदी में आया पर अब यहाँ की अधिकाँश जनता बुद्ध धर्म में विश्वास करती है हालाँकि साथ साथ प्राकृति पूजा में भी विश्वास करती है. बुद्ध प्रार्थना सभा का आयोजन एक स्टेडियम में किया गया था. बारिश में हरी घास पर बुद्ध लामाओं की लाल पौशाकें बहुत सुंदर लग रही थीं. प्रार्थना के बाद हमें भी दलाई लामा जी के द्वारा भेजा प्रसाद मिला, जो मैंने कुछ इटली में घर ले जाने के लिए संभाल कर रख लिया.






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मँगोली पुरुष देख कर मन में कई बार "मार्लबोरो मैन" मन में आता है. सिर पर हैट पहने, घोड़े पर बैठे, होठों से लटकती सिगरेट, लगता है कि किसी अमरीकी वेस्टर्न फिल्म से निकल कर आये हों. पर जब नशे में चूर मिलते हैं तो ज़रा सा डर भी लगता है. जितनी बार भी विकलांग लोगों से मुलाकात होती है हर बार कोई न कोई तो पुरुष अवश्य मिलता है जिसके हाथ या उँगलियाँ कटी हुई हों, जो सर्दी में जम जाने की वजह से होता है. हर बार वह लोग कहानी सुनाते हैं कि घोड़े से गिर गया, या फ़िर एक्सीडेंट हो गया या कि डाकू ने हमला कर दिया, पर मुझे लगता है कि वह लोग झूठ कह रहे हैं, अधिक पीने की वजह से रात को कहीं बाहर गिरे पड़े रहे होंगे जब सर्दी से हाथ जम गये और काटने पड़े होंगे!





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कुछ दिन पहले की मेरी मँगोलिया यात्रा की डायरी को पूरा पढ़ना चाहें तो कल्पना पर पढ़ सकते हैं.

रविवार, जून 29, 2008

लज्जा से गर्व की यात्रा

28 जून 1969 को न्यू योर्क के ग्रीनविच विलेज में स्थित स्टोनवाल इन्न पर पुलिस ने जब छापा मारा तो उसमें कोई नयी बात नहीं थी. सबको मालूम था कि वह क्लब समलैंगिक लोगों का अड्डा था. सबको यह भी मालूम था कि समलैंगिक लोग अपने बारे में लज्जित होते थे और सामने आने से घबराते थे. पर उस दिन जाने क्यों स्टोनवाल इन्न में एकत्रित लोग पुलिस के सामने भागे नहीं बल्कि उन्होंने लड़ा.

तब से वह दिन याद करने के लिए 28 जून को दुनिया के बहुत से देशों में समलैंगिक और अंतरलैंगिक लोग मोर्चे आयोजित करते हैं. अधिकतर पश्चिमी देशों में आज समलैंगिकता और अंतरलैंगिकता को कानूनी स्वीकृति और अधिकार मिले हैं पर फ़िर भी उनसे भेदभाव या बुरे बर्ताव की कहानियाँ अक्सर सुनने को मिलती हैं. इस मोर्चे का ध्येय यही है, अब तक जीते अधिकारों की खुशी मनाना और अपने विरुद्ध होते अन्यायों के प्रति अपनी आवाज उठाना.

इटली में हमारे शहर बोलोनिया ने सबसे समलैंगिक और अंतरलैंगिक लोगों की इस आवाज़ को सबसे पहले सुना और शहर की समलैंगिक एसोसियेशन को 1982 में आफिस खोलने की जगह दी. कल 28 जून था और समलैंगिक और अंतरलैंगिक गर्व परेड का राष्ट्रीय दिवस बोलोनिया में मनाया गया. इसमें भाग लेने के लिए पूरे देश से हजारों लोग यहाँ आये. इसी परेड की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं.
































क्या आप को किसी तस्वीर से धक्का लगा? आशा है कि आप मुझे क्षमा करेंगे.

मैं मानता हूँ कि मानव के प्यार में कोई बुराई नहीं, बुराई है लड़ने झगड़ने, औरों को मारने में, औरों का शोषण करने में. इसीलिए मानव प्रेम के विभिन्न रुपों को दर्शाती इन तस्वीरों में मुझे कुछ गलत नहीं लगता, बल्कि यह सोचता हूँ कि भारतीय चेतना को झँझोड़ने की आवश्यकता है ताकि पुराने और पिछड़े कानूनों को बदला जा सके.

दुनिया के कई देशों में आज भी समलैंगिक या अंतरलैंगिक होने का अर्थ है मृत्यु दँड. भारत में मृत्यु दँड नहीं पर कानूनी अपराध माना जाता है. इसके विरुद्ध बात कीजिये तो कहते हैं कि यह तो सिर्फ कागज़ी कानून है इस पर अमल नहीं किया जाता. अगर यही बात है तो फ़िर उसे बदलने में कठिनाई क्या है? सच बात है कि पुलिस द्वारा इस कानून का सहारा ले कर लोंगो को डराया धमकाया, पीटा जाता है और यही संदेश दिया जाता है कि समलैंगिता या अंतरलैंगिकता अपराध हैं, निन्दनीय हैं, लज्जा से जुड़े हैं, गर्व से नहीं.

शुक्रवार, मई 30, 2008

संगीत कक्ष

कुछ दिन पहले नमिता देवीदयाल की किताब "द म्यूज़िक रूम" यानि "संगीत कक्ष" पढ़ी जो मुझे बहुत अच्छी लगी (The Music Room, Namita Devidayal, Random House India, 2007). इस किताब को किसी श्रेणी में बाँधना आसान नहीं. यह नमिता जी की आत्मकथा भी है और उनकी संगीत शिक्षका धोँधुताई की जीवनकथा भी. बीच में धोँधुताई के गुरु, जयपुर घराने के सुप्रसिद्ध गायक अल्लादिया खान के परिवार की कहानी भी है और साथ ही इसमें हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के जानने समझने की बातें भी हैं. इन सब परिभाषाओं से लग सकता है कि किताब रुखी, पढ़ाकू लोगों के पढ़ने वाले ग्रँथों के किस्म की किताब हो, पर सच में यह किताब किसी उपन्यास से अधिक रोचक है.

भारत में हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के जानने वाले बहुत अधिक नहीं हैं. भीमसेन जोशी, कुमार गँधर्व, विलायत खान और ज़ाकिर हुसैन जैसे लोगों के नाम और काम को जानने वाले अवश्य ही हिंदी फ़िल्मों मे गाने वालों या इंडियन आइडल जैसे कार्यक्रम जीतने वालों से बहुत कम ही होंगे. शास्त्रीय संगीत बलिदान और जीवन भर की उपासना माँगता है और बदले में संगीत साधना का सुख देता है, और आज की भौतिकवादी दुनिया में जहाँ आप के पास कितना कुछ है कि बात सबसे अधिक महत्वपूर्ण है वहाँ इस तरह के त्याग के जीवन की आशा करना कठिन हो गया है. यह भी कठिनाई है कि इस त्यागपूर्ण जीवन के बावजूद बहुत थोड़े से शास्त्रीय संगीत के कलाकार प्रसिद्धि पाते हैं और अधिकतर लोग गुमनाम ही रह जाते हैं.

नमिता जी की किताब की नायिका धोँधुताई भी कुछ ऐसी ही है, जो बम्बई के लालबत्ती वाले इलाके में एक कमरे में बूढ़ी माँ के साथ पेयिंग गेस्ट की तरह रहती है और जीवन यापन के लिए लोगों को शास्त्रीय संगीत सिखाती है. आठ साल की नमिता जब पहली बार अपनी संगीत शिक्षका को मिलती है तो वह नहीं समझती कि छोटे से कमरे में, गरीबी में रहने वाली बूढ़ी होती इस महिला के कँठ में सरस्वती का वास है और यह साधारण महिला अकेली वारिस है जयपुर घराने की गायकी के ज्ञान की. धोँधुताई को अपनी छोटी सी विद्यार्थी नमिता में उस प्रतिभा का एहसास होता है जिसके बल पर वह अपने ज्ञान को बाँट सकने और भविष्य के लिए छोड़ने का सपना देख सकती है.



कितनी ही पाराम्परिक कलाओं के ज्ञान को ले कर जीने वाले आज इसी दुविधा से गुज़रते हैं कि कैसे अपने ज्ञान की धरौहर को भविष्य के लिए छोड़ सकें? तुरंत नौकरी, पक्की कमाई, अच्छा जीवन बिताना जैसी अपेक्षाएँ आज सबको हैं और पारिम्परिक कलाओं को जानने वालों के बच्चे उन कलाओं को नहीं सीखना चाहते, न ही उन्हें उस तरह के नवजवान मिलते हैं जो कला को जीवन सम्पर्ण करके गुरु शिष्य की पुरानी परम्परा को चलाना चाहते हों. नमिता जी की किताब इसी कठिनाई को व्यक्त करती है जब प्रतिभा और गुरु के प्रति स्नेह और आदर होते हुए भी नमिता स्वयं अमरीका जाने का फैसला करती है और धीरे धीरे अपने सीखे शास्त्रीय संगीत के ज्ञान को भूलने लगती है.

कुछ दिन पहले रेल से जेनेवा (Geneva) जाना था. हमारे यहाँ से जेनेवा जाने में करीब सात घँटे लगते हैं. गाड़ी में बैठा तो साथ में दो युवक साथ की सीट पर थे जो आपस में लगातार बात कर रहे थे. नमिता जी कि किताब निकाल कर पढ़ना शुरु किया तो उन युवकों के ज़ोर ज़ोर से बात करने पर कुछ खीज आ रही थी, पढ़ने से ध्यान उचट जाता था. लेकिन थोड़ी देर में किताब में ऐसा खोया कि सब कुछ भूल गया. जेनेवा का रेल स्टेशन आने से पाँच मिनट पहले किताब पूरी पढ़ कर बंद की, रास्ता कैसे बीता कुछ याद नहीं था.

शास्त्रीय संगीत से मेरी पहचान कुछ अपने छोटे फ़ूफा से हुई थी और कुछ घर के पड़ोस में रहने वाली डाक्टर आँटी से. पहले लगता था कि शास्त्रीय संगीत में एकरसता की नीरसता है, लगता था कि बस बिना शब्दों के "आ आ" करते रहते हैं. पहली बार जब प्रभा अत्रे को "तन मन धन तोपे वारुँ" गाते सुना तो मंत्रमुग्ध हो गया और "आ आ" की सुंदरता समझ में आई. फ़िर धीरे धीरे भीमसेन जोशी, पंडित जसराज, कुमार गंधर्व जैसे गायकों के रिकार्ड सुने. तीनों गायकों को जानकीदेवी कालेज में गाते हुए भी सुना. फ़िर दिल्ली में रफी मार्ग पर मावलंकर हाल के बाग में रात रात भर होने वाले तानसेन फेस्टिवल में विलायत खान, बिरजु महाराज, गोपीकृष्ण, सितारा देवी, किशोरी आमोनकर जैसे शास्त्रीय नृत्यकारों और कलाकारों को देखा और सुना.

पर इस सब के बाद भी जानकारी विषेश नहीं थी. विभिन्न राग क्या होते हैं, घराना क्या होता है, तबले की विभिन्न तालों का अर्थ क्या होता है, तानपूरा किस लिए प्रयोग करते हैं, तबले की ताल और गायकी में क्या सम्बंध है, इस सब के बारे में मुझे कुछ मालूम नहीं था. संगीत की कोई शिक्षा नहीं पायी थी, बस ध्यान से शास्त्रीय संगीत सुनना अच्छा लगता था, उसे समझने की कभी कोशिश नहीं की.

कई बार सोचता हूँ कि हमारे भारतीय सोचने के तरीके में एक जटिलता है जबकि पश्चिमी सोचने का तरीका तर्क की बात करके उस जटिलता को कम कर देता है. तर्क से बात समझ में आसान में आ सकती है पर बिना तर्क की जटिल सोच, दूसरी तरह की समझ देती है, जो उतनी ही महत्वपूर्ण है. नमिता जी की किताब पढ़ कर कई बार इस बात पर सोचने लगता. धर्म की बात की जाये तो मुसलमान और हिंदू गायकों और संगीतकारों का शास्त्रीय संगीत, हिंदू मंदिरों और हिंदू भक्तिसंगीत से जुड़ा है जिसको समझने के लिए धर्म के बारे में पश्चिमी सोच के बटवारें न्याय नहीं कर पाते. कोल्हापुर के मंदिर के अंतर्कक्ष में जहाँ सभी हिंदू भी नहीं जा सकते थे वहाँ अल्लादिया खान साहब भगवान की स्तुति में भजन सुना सकते थे, इस बात को धर्म के तर्क से समझाना असम्भव है. मुझे यह भी लगता है कि इस जटिलता की धरौहर को बहुत से आम भारतीय समझते हैं पर धीरे धीरे कट्टरवादिता के दबाव में यह समझ लुप्त हो रही है और इसे समझना और सम्भालना बहुत आवश्यक है.

नमिता जी कि किताब में अच्छी कहानी के साथ साथ, इस संगीत के बारे में कुछ अन्य ज्ञान भी बना है. लगता है कि अगली बार शास्त्रीय संगीत सुनुँगा तो शायद उसका आनंद अधिक ले सकूँगा. मन में धोँधुताई और केसरबाई की आवाज़ सुनने की इच्छा भी बहुत है पर इंटरनेट पर वह खोजने से भी नहीं मिली. एक किताब से इतना सब कुछ पाना दुर्लभ बात है और इसके लिए नमिता देवीदयाल को धन्यवाद.

सोमवार, मई 19, 2008

अच्छे अभिनेता

कुछ समय पहले आऊटलुक पत्रिका पर मुकुल केसुवन का लेख छपा था जिसमें उन्होंने हिंदी फ़िल्म अभिनेता धर्मेंद्र के बारे में लिखा था कि उन्होंने बिमल राय, हृषीकेश मुखर्जी जैसे निर्देशकों के साथ बहुत सी फ़िल्मों में बहुत अच्छा अभिनय किया था पर उन्हें कभी अच्छा अभिनेता नहीं माना गया न ही उन्हें कोई विषेश पुरस्कार मिले. इस का कारण उनके विचार में था कि धर्मेंद्र देखने में बहुत अच्छे थे जिसकी वजह से उन्हें सितारा माना गया और उनके किये गये अच्छे अभिनय को अनदेखा कर दिया गया.

मैं इस बात से सहमत हूँ कि धर्मेंद्र के अभिनय को वह मान नहीं मिला जो उसे मिलना चाहिये था. अपनी प्रारम्भ की बहुत सी फिल्मों में उन्होंने गम्भीर, मृदुल, शर्मीला, आदर्शवादी नवयुवक का भाग बहुत खूबी से निभाया. सत्यकाम, बंदिनी, ममता, बहारें फ़िर भी आयेंगी, अनपढ़, नया ज़माना, अनुपमा, जैसी कितनी ही फ़िल्मों में उनकी जगह पर किसी दूसरे अभिनेता को सोचना कठिन है. पर गम्भीर फिल्मों के साथ साथ, शुरु से ही उन्हें व्यवसायिक सफलता भी मिली और फ़ूल और पत्थर, आये दिन बहार के, काजल, आँखें, नीला आकाश जैसी फिल्मों में उन्होंने बम्बईया हीरो के भाग भी बखूब निभाये.

उनकी अच्छी फ़िल्मों की जब बात होती है तो मुझे लगता है कि "बहारें फ़िर भी आयेंगी" को भुला दिया जाता है. यह फ़िल्म पहले गुरुदत्त के साथ बन रही थी और गुरुदत्त की अकस्मात मृत्यु के बाद इसे धर्मेद्र के साथ बनाया गया. इसमें धर्मेंद्र जी एक बार फ़िर गम्भीर और आदर्शवादी पत्रकार के रूप में थे जिनसे अखबार की मालिक और सम्पादिका माला सिंहा भी प्यार करती है और उसकी छोटी बहन, तनूजा भी. 1966 में बनी इस फ़िल्म को बचपन में देखा था पर उस समय मुझे बहुत अच्छी लगी थी. पर इसके बारे में कभी विषेश कुछ नहीं सुना या पढ़ा.

शायद कुछ धर्मेंद्र जैसी ही नियती उनके समय की प्रसिद्ध अभिनेत्री माला सिंहा की थी. प्यासा, अनपढ़, बहारें फ़िर भी आयेंगी आदि बहुत सी फ़िल्मों में अच्छा अभिनय भी किया पर उनका परिचय भी व्यवसायिक सफल फिल्मों के रूप में अधिक देखा जाता है और उन्हें अच्छी अभिनेत्री के रुप में नहीं याद किया जाता. उस समय की अच्छी अभिनेत्रियों की बात होती है तो नूतन, वहीदा रहमान, मीना कुमारी आदि तक आ कर रुक जाती है.

पर आऊटलुक के आलेख में मुकुल यह भी लिखते हैं कि धर्मेद्र के मुकाबले कुछ अन्य अभिनेता जैसे संजीव कुमार को अच्छा अभिनेता माना गया जो कि देखने में अच्छे नहीं थे, कोई विषेश अच्छे अभिनेता नहीं थे, अतिनाटकीय थे, इत्यादि. मैं यह नहीं मानता कि अगर धर्मेंद्र को अपने अभिनय के लिए अनुरूप नाम नहीं मिला तो इसका कारण अन्य अभिनेता थे. दूसरों को छोटा दिखा कर किसी को बड़ा दिखाना मुझे गलत बात लगती है. प्रार्मभ की फ़िल्मों में संजीव कुमार देखने में बहुत अच्छे लगते थे, बहुत सी फ़िल्मों में उन्होंने अपने स्वाभाविक अनाटकीय अभिनय से अपनी कला दिखाई थी. 1968 की फ़िल्म "शिकार" में धर्मेंद्र हीरो थे और उनके साथ इस फ़िल्म में संजीव कुमार भी थे, दोनों का ही अभिनय अच्छा था हालाँकि यह एक आम व्यवसायिक फ़िल्म थी.

धर्मेंद्र का हृषीकेश मुखर्जी द्वारा निर्देशित फ़िल्म "सत्यकाम" का एक दृष्य मुझे बहुत अच्छा लगा था और जब भी अच्छे अभिनेताओं के बारे में सोचता हूँ, इस दृष्य को उनमें गिनता हूँ. यह दृष्य फ़िल्म के अंत के करीब था जब धर्मेंद्र अस्पताल में दाखील हैं, उन्हें कैसर है पर वह यह बात अपनी पत्नि शर्मीला टैगोर से छुपाये हुए हैं, फ़िर उनके रुमाल पर खाँसी गयी खून की बूँदो को उनकी पत्नी देख लेती है तो उनकी आँखों में मजबूरी, बात छुपाने की लज्जा और अपनी मृत्यु का दुख सबकुछ बहुत सुंदर बना था. कुछ यही दृष्य, गुलज़ार ने कई साल बाद परिचय में रखा था जब पिता संजीव कुमार के रुमाल के खून को बेटी जया भादुड़ी देख लेती है, उस दृष्य में संजीव कुमार का अभिनय भी बहुत बढ़िया था पर मुझे धर्मेंद्र वाला दृष्य ही अधिक प्रिय है. (सत्यकाम की तस्वीर आऊटलुक से)



अच्छा अभिनेता कौन कैसा होता है यह कहना कठिन है, पर अगर कोई मुझसे पूछे की आज के सबसे अच्छे अभिनेता कौन हैं तो में तीन नाम लूँगा, पंकज कपूर, के के मेनन और इरफान खान. तीनो अभिनेताओं में क्षमता है कि जब पर्दे पर हों तो आप उन पर से नज़र न हटा पायें.

पंकज कपूर के निभाये मकबूल फ़िल्म के रोल के बारे में सोच कर आज भी झुरझरी आ जाती है. अभी कुछ दिन पहले उनकी एक अन्य फ़िल्म देखी थी "हल्ला बोल". वैसे तो फ़िल्म बहुत अच्छी नहीं लगी पर पंकज कपूर बहुत अच्छे लगे. उनका गुरुद्वारे में बैठे रहने वाला दृष्य देखिये, गुरु ग्रंथ साहब का पाठ हो रहा है, वह कुछ नहीं कहते पर उनकी आँखें और उनका साँस लेना बहुत कुछ कह देता है.



के के मेनन में भी यही क्षमता है. कुछ दिन पहले शोर्य फ़िल्म के बारे में अभिनेता राहुल बोस का एक साक्षात्कार पढ़ रहा था जिसमें वह कह रहे थे कि के के वाला भाग अधिक प्रशँसा पाता है क्योंकि वह नाटकीय है जबकि उनका स्वाभाविक रूप से अभिनय करना लोग नहीं समझ पाते. राहुल बोस बुरे नहीं पर मुझे लगता है कि के के का अभिनय अधिक सशक्त था इसलिए नहीं कि वह भाग नाटकीय था. हनीमून ट्रेवलस जैसी हल्की फुल्की फ़िल्म में भी के. के. लाजवाब थे.



इरफ़ान खान के बारे में तो सभी मानते ही हैं. अँग्रेजी में बनी मीरा नायर की "नेमसेक" (The Namesake) में वह मुझे बहुत अच्छे लगे थे.

और अगर अभिनेत्रियों की बात की जाये और आप से तीन नाम पुछे जायें तो आप किसका नाम लेंगे? मेरे तीन नाम होंगे सीमा विस्वास, सुरेखा सीकरी और शबाना आज़मी. तीनों अभिनेत्रियाँ जब परदे पर आती हें तो मैं उनके सिवा किसी को ठीक से नहीं देख पाता.

सीमा बिस्वास और सुरेखा सीकरी के बारे में मुझे शिकायत है कि उनके भाग फ़िल्मों में बहुत छोटे होते हैं और उन्हें अपनी प्रतिभा के लायक फ़िल्में नहीं मिलती. सीमा बिस्वास की अंतिम फ़िल्म जिसमें उन्हें ढंग के रोल में देखा वह दीपा मेहता की अंग्रेजी फ़िल्म "वाटर" (Water) थी.

सुरेखा सिकरी को तो और भी कम काम मिला है पर "जो बोले सो निहाल" जैसी बेकार फ़िल्म मैंने केवल उनके लिए ही देखी थी. शबाना आज़मी इन सब अभिनेत्रियों में सबसे अच्छी किस्मतवाली हें जिन्हें अपनी प्रतिभा दिखाने का कई बार बढ़िया मौका मिला. उनकी मेरी सबसे प्रिय फ़िल्में हैं स्वामी, अपने पराये और मोरनिंग रागा (Morning Raga).


मंगलवार, मई 06, 2008

यादें

2002 में इंटरनेट पर पहली बार अपना एक पृष्ठ बनाया था, उसका नाम था "सृजन". उसे बनाने के लिए शुशा फोंट से कम्पयूटर पर हिंदी लिखना सीखा था. इस पृष्ठ के बनाने के पीछे माँ की चिंता थी. "तुम्हारे पापा ने जो लिखा है उसे सहेजना है, उसे छपवाना है" यह माँ के जीवन का ध्येय बन गया था. मेरे पिता ओमप्रकाश दीपक शायद पत्रकार, लेखक आदि से पहले समाजवादी चिंतक थे. 1975 में जब अचानक उनकी मृत्यु हुई तो वह 46 वर्ष के थे. माँ तब 44 साल की थी. मैं उस समय अपने पिता के लेखन के बारे में कुछ नहीं जानता था, कभी उनका लिखा कुछ नहीं पढ़ा था. डा. लोहिया, किशन पटनायक, रमा मित्रा, अशोक सेकसरिया जैसे समाजवादी लोग या रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जैसे लेखक लोगों को उनके मित्रों या साथियों के रूप में जानता था, पर वह क्या सोचते हैं, क्या लिखते हैं, इसके बारे में कुछ नहीं जानता था, न ही उनसे कुछ बात होती थी. मेरी दुनिया, मेरे मित्र, मेरी दिलचस्पियाँ अलग थीं. 1972 से मेडिकल कालेज जाने के बाद से घर में कम ही रहता था, जब होता भी तो पापा क्या सोचते हैं, क्या लिखते हैं, इसके बारे में मन में कोई जिज्ञासा नहीं होती थी.

जब माँ दिल्ली नगरपालिका के प्राथमिक विद्यालय के प्रधानाध्यापिका के पद से रिटायर हुईं तो उन्होंने पापा के सब कागज पत्री जो सम्भाल कर रखी थीं उन्हें पढ़ने, छाँटने का काम करना शुरु कर दिया था. जब भी भारत जाता तो माँ हर बार वही बात करती. यह कहानियाँ निकाली हैं, यह लेख निकाले हैं, यह करना है, वह करना है. मैं उनकी बात सुनता पर उसके बारे में अधिक नहीं सोचता. बच्चे अपने माँ पिता को केवल माँ पिता के ढांचे में ही देख पाते है, उससे पार जाना शायद उनके लिए कठिन होता है. मेरे लिए तो कम से कम यही बात थी.

11 सितंबर 2001 जिस दिन न्यू योर्क और वाशिंगटन में आतंकवादियों के हमले हो रहे थे, उस सुबह माँ वाशिंगटन पहुँचने वाली थी, पर उनका जहाज़ केनेडा में कहीं भेजा गया, उसके बाद कई दिन तक हम लोग उनकी सूचना पाने के लिए भटकते रहे थे. शायद उसी घटना का असर था या कोई और बात थी, तब से माँ की यादाश्त कम होने लगी. उनका कागज़ो को ले कर बैठना और कुछ न समझ पाने से कागज़ों को आगे पीछे देखना मुझे दुखद लगा. किसी ने कहा कि आप के पास तो पैसे की कमी नहीं, पैसे दे कर इन किताबों, लेखों को छपवा दीजिये क्योंकि इनका बाज़ार नहीं. तभी सोचा कि ऐसे अपने मन की पूरी करने को कुछ छपवाने से क्या लाभ. पापा की किताबों से कुछ कमाई हो इसकी तो हमें आवश्यकता नहीं थी. तब मन में विचार आया कि क्यों न सब सामग्री को इंटरनेट पर रखा जाये जिससे अगर कोई पढ़ना चाहे तो उसे दिक्कत नहीं होगी.

तब पहली बार पापा ने क्या लिखा था यह पढ़ना शुरु किया. कई बार पढ़ कर आश्चर्य होता है कि उस समय मैं भी घर में रहता था, क्यों यह सब बातें मुझे मालूम ही नहीं चलीं? बहुत बार दुख होता है कि पापा को व्यक्ति के रूप में नहीं जाना, बस पिता के रूप में ही देखा. उनके लिखे कुछ लेखों कहानियों को इंटरनेट के लिए युनीकोड में लिखा है. इस बीच "सृजन" बदल कर "कल्पना" हो गया और उसमें पापा के अतिरिक्त बहुत कुछ भर गया.

पिछले साल अफलातून जी ने पापा के बारे सूर्यनारायण जी का 1979 में लिखा एक लेख भेजा तो सोचा था कि उसे कल्पना के लिए तैयार करूँगा, फ़िर कागज़ो के नीचे वह कागज कहीं दब कर रह गये. आज सुबह सफाई करते समय जब उन्हें देखा तो सोचा कि बिना देरी किये तुरंत उसे लिख कर कल्पना पर डालना है. सूर्यनारायण जी कौन हैं, कहाँ रहते हैं, अभी जीवित है, यह सब कुछ नहीं मालूम, उनके और मेरे बीच यहीं सम्बंध है पापा के माध्यम से. इतने छोटे से सम्बंध होने पर भी उनके शब्दों में मुझे मन तक छूने की क्षमता है. तभी यह सब बातें मन में आ रही थीं. उन्होंने लिखा थाः

"एक बार मैंने अपनी रचना गोष्ठी में उन्हें मुख्य वक्ता के रूप में आमंत्रित किया. विषय था "हिंदी साहित्य की वर्तमान प्रवित्ति". उन्होंने अपने अनूठे ढंग से हिदी साहित्य की प्रवित्तियों का उस दिन जो विश्लेषण प्रस्तुत किया, उसे सुन कर मुझे दीपकजी के बारे में पहली बार "संदेह" पैदा हुआ कि यह व्यक्ति मूल रूप में क्या है, राजनीतिक व्यक्ति है या लेखक. मेरा "संदेह" गलत था क्योंकि दीपकजी की राजनीति के बारे में सोच और साहित्य के बारे में सोच की प्रेरणा एक ही थी. संवेदना और करुणा ही उन्हें राजनीति की ओर प्रेरित करती थीं और ये ही साहित्य की ओर भी. गोष्ठी में देवीदत्त पोद्दार ने उनके उपन्यास "कुछ ज़िन्दगियाँ बेमतलब" की भी चरचा की. दीपकजी ने सामान्य आदमी को आधार बना कर हिंदी में बिल्कुल एक नये ढंग की यात्रा वृतांत शैली भी विकसित की. चाहे बंगलादेश के स्वत्रतासंग्राम का वर्णन हो (पैदल और किन किन कठिन परिस्थितियों में उन्होंने बंगलादेश की यात्रा की और मुक्तिवाहिनी के लोगों से सम्पर्क किया, यह तो शायद पूरी तरह दिनेशदास गुप्त ही जानते हैं), चाहे महाराष्ट्र के किसी आकाल क्षेत्र का, चाहे श्रीवस्ती की प्रचीन बस्ती के नजदीक से गुजरने का प्रसंग हो, उनकी दृष्टि हमेशा समान्य आदमी की जिन्दगी को टटलोती रहती थी. इस जिन्दगी को समझने और उसे बदलने की कामना उनके राजनीतिक लेखन, यात्रा वृतांतों और उपन्यास में हर जगह है.

दीपक जी ने दिनमान के "आधुनिक विचार" स्तम्भ और साप्ताहिक हिंदुस्तान में पश्चिमी विचारकों, महत्वपूर्ण पुस्तकों और भारतीय समाज की "अनपची" समस्याओं पर जो लेख लिखे, उनका शायद सामाजिक महत्व से ज्यादा महत्व नहीं माना जाये लेकिन इन लेखों के पीछे उनकी कोशिश हिंदी के पाठक को गहराई से सोचने समझने के लिए प्रेरित करने की थी. उनके यह लेख भी पाठक को झिंझोड़ते थे और वह शायद पाठक को झिंझोड़ना चाहते भी थे."
पूरा लेख कल्पना पर पढ़ सकते हैं. मैं इस समय केवल सूर्यनारायण जी को धन्यवाद कहना चाहूँगा जिन्होंने यह लेख लिखा था, और अफलातून जी को भी धन्यवाद कहना चाहूँगा जिन्होंने यह लेख मुझ तक पहुँचाया. धन्यवाद के लिए कुछ फ़ूल जिनका नाम मुझे मालूम नहीं पर जो मुझे बहुत अच्छे लगते हैं.









रविवार, मई 04, 2008

नरगिसी आँखें, गुलाबी गाल

इस साल इतनी फ़ूलों की तस्वीरें खींचीं जितनी पहले सारे जीवन में नहीं खींचीं थीं. इस साल एक फ़ूल पर ज़ूम करके फोकस करना और पीछे बैकग्राउँड को धुँधला करके फोटो खींचना पहली बार किया और यह तस्वीरें मुझे बहुत अच्छी लगती हैं इसलिए जब भी बाहर कोई फ़ूल देखता हूँ, तुरंत कैमरा बाहर निकल आता है.

फ़ूलों की अधिक तस्वीरें खींचने की वजह से ही शायद बार बार मन में फ़ूलों से जुड़ी बातें आती हैं, जैसे कुछ दिन पहले मैंने "फ़ुल गेंदवा न मारो" शीर्षक का संदेश लिखा था.

आज सुबह भी अपने कुत्ते के साथ सैर को निकला तो सुंदर टाईगर लिली के फ़ूलों को देख कर रुक गया. मेरे कुत्ते ब्राँदो को मेरा बार बार बिना वजह रुकना और तस्वीर खींचना अच्छा नहीं लगता, अधिकतर जब कैमरा क्लिक करने लगता हूँ तो झटका लगा कर हिला देता है, या फ़िर कभी फ़ूल के पीछे से आ कर तस्वीर बिगाड़ देता है. बहुत गुस्सा आये तो अँगद जी बन कर पाँव जमा देता है और आगे चलने का नाम नहीं लेता.



खैर टाईगर लिली की तस्वीर खींच रहा था तो मन में फ़ूलो से दी जाने वाली उपमाओं की बात आयी. गुलाबी गालों की उपमा शायद सबसे अधिक प्रचलित है. हिंदी, अँग्रेजी, इतालवी, फ्राँसिसी, सब भाषों में इस उपमा को सुना है. अनारकली की उपमा के बारे में मुगलेआज़म जैसी फ़िल्मों से मालूम है हालाँकि अनार की कलियाँ मुझे विषेश सुंदर नहीं दिखती.

कीचड़ में उगने वाले कमल की उपमा तो समझ में आती है पर कमल जैसे चरणों की उपमा नहीं समझ पाता, क्या अर्थ हुआ इसका? अँग्रेजी में वाटर लिली का नज़ाकत की उपमा देने के लिए प्रयोग होता है.

नरगिसी आँखों की उपमा भी सुनी है पर नरगिस के फ़ूल तो सफ़ेद रंग के होते हैं, सफ़ेद आँखों की भला यह कैसी उपमा हुई यह समझ नहीं आया? अँग्रेज़ी में वायलेट के जामुनी फ़ूलों जैसी आँखों की उपमा मुझे एलिज़ाबेथ टेलर को देख कर समझ में आयी थी.

एक फ़िल्म याद है जिसमें अभिनेता मारूती टुनटुन को "मेरा गोभी का फ़ूल" कह कर बुलाते थे. सुना है जापान में चैरी के फ़ूलों की उपमा दी जाती है श्वेत गोरे चेहरे को.

और कौन सी फ़ूलों की उपमा दी जाती है, भारत के विभिन्न भागों में?

और फ़ूलों की बात हुई तो प्रस्तुत हैं इस वर्ष की खींची मेरी तस्वीरों में कुछ गुलाब की कलियों की तस्वीरें.


















मंगलवार, अप्रैल 29, 2008

लेखक का संसारः लाल्टू

जनवरी 2008 में हैदराबाद में जाने माने हिंदी लेखक और कवि लाल्टू से मुलाकात हुई. उस बातचीत के कुछ अंश जो मैंने रिकार्ड किये थे, वह प्रस्तुत हैं.

मैं कविता क्यों लिखता हूँ?
बहुत पहले दैनिक भास्कर का एक चंडीगढ़ संस्करण होता था; वहाँ हमारे एक मित्र थे अरुण आदित्य. उन्होंने एक विषेशांक निकाला था कि हम लोग कविता क्यों लिखते हैं. बहुत से लोगों से उन्होंने यह प्रश्न पूछा था. मैंने इस बात पर सोचा तो मुझे लगा कि हम कविताएँ इस लिए लिखते हैं क्योंकि हम जीवन से प्यार करते हैं, हम प्रकृति से प्यार करते हैं, हम आदमी से प्यार करते हैं और प्यार ही हमारे लिए विद्रोह का एक स्वरूप है. मुझे लगता है कि आधुनिकता के जिस संकट में हम लोग फँसे हुए हैं जहाँ जीवन कहीं कई तहों में, कई सतहों में, अनगिनत संकटों में उलझा हुआ है, ऐसे माहौल में प्यार ही ऐसी चीज़ है जो सबसे ज़्यादा संकट में है. किसी तरह, जो दूसरों के प्रति हमारे अंदर जो प्यार की भावना है, उसको अभिव्यक्त कर पायें यह हमारी कविताओं में कोशिश होती है. जब हम किसी राजनीतिक विषय पर भी लिखते हैं, मूलतः हमारे अंदर एक ऐसा शख्स चीख रहा है, जिसे लगातार प्यार की ज़रुरत है, जो दूसरों से प्यार बाँटना चाहता है, और एक बेहतर संसार, एक बेहतर जीवन अपने लिए और दूसरों के लिए बनाना चाहता है. मुझे लगता है कि कविता में हमारी यही कोशिश होती है, चाहे अनचाहे जैसे भी हो. ऐसा नहीं कि हम कुछ जान कर लिखते हैं, हम तो जैसा माहौल है वैसा लिखते हैं. चाहे वह निजी माहौल हो या सामूहिक माहौल, जैसी मन में भावनाएँ होती हैं, जब कुछ लिखने का मन होता है, वही लिखते हैं.



लेखन पर प्रभाव
मैं बचपन से कलकत्ता में पला बड़ा हुआ हूँ, बँगला में बहुत पढ़ा है. पिता जी पंजाबी थे तो पंजाबी भाषा में भी बहुत पढ़ा है. इसके अलावा हमेशा अँग्रेज़ी बोलता और पढ़ता रहा तो विश्व साहित्य का भी बहुत प्रभाव है.

मुझे लगता है कि हिंदी में अन्य लोग जो लिख रहे हैं, मेरे लिखने में उनसे कुछ अलग बात है और मैंने अपनी अलग पहचान बनाने की कोशिश की है. औरों का प्रभाव तो है ही पर वह समय समय पर बदलता रहा है. जैसे जब मैं अमरीका में था तो ब्लेक अमरीकी पोयट्री से बहुत प्रभावित था. आज तक मेरे प्रिय कवियो में निक्की ज्योवानी और दूसरे कुछ ब्लेक पोयटस् हैं. फ़िक्शन लिखने वालों में एलिस वाकर का प्रभाव पड़ा, उनकी महान कृतियों में 'मिस' मैगज़ीन में छपी कहानियों के संग्रह "फाईन लाईनस" में उनकी एक कहानी थी "एडवाँसिंग लूना और आईडा बी. वेल्स"; अगर मैं तमाम कहानियों को याद करूँ तो कहूँगा कि वह कहानी है जिसने मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया है. उन्होंने बाद में इसी कहानी पर एक उपन्यास भी लिखा था जो कहानी का वृहद रूप था. इसी तरह टोनी मोरिसन की रचनाएँ हैं और लैंग्स्टन ह्यूज़ की पोयट्री.

बाद में वापस आ कर मैंने बँगला में रवींद्रनाथ को दोबारा पढ़ा. जब हम बच्चे थे तो हर बात उतनी गहराई से समझ नहीं आती थी. सत्यजीत राय की फ़िल्मों के ज़रिये भी मैंने उपन्यासकार और कहानीकार रवींद्रनाथ को ढूँढ़ा है. उनके "घरे बाईरे" से सत्यजित राय की फ़िल्म देख कर जितना प्रभावित हुआ, कालिज के दिनों में जब यह उपन्यास पढ़ा था तब इतना प्रभावित नहीं हुआ था. कालिज में थे तो गोर्की की "माँ" पढ़ी थी उससे बहुत प्रभावित हुआ था. बाद में दूसरे रूसी उपन्यासकारों में से सोल्ज़ेनित्ज़िन के "अगस्त १९१४" ने बहुत प्रभावित किया था. बाद में ऐसे लोग भी पढ़े जिनका उतना अधिक नाम नहीं लिया जाता जैसे फाज़िल इस्कांदेर जो अबखाज़िया के थे या रसूल हमजातोव "मेरा दागिस्तान" अब सब लोग जानते हैं.

लाल्टू से पूरा साक्षात्कार आप कल्पना पर पढ़ सकते हैं.

रविवार, अप्रैल 27, 2008

नहीं उदास नहीं

"बस ये चुप सी लगी है, नहीं उदास नहीं. सहर भी है रात भी है, दोपहर भी मिली लेकिन, हमने शाम चुनी है. नहीं उदास नहीं." जाने क्यों बार बार यही शब्द मन में बार बार लौट आते हैं. मन में एक तस्वीर उभरती है, छत वाले बंद कमरे में कैद घुघी, इधर से उधर पँख फड़फड़ाती हुई, रोशनदान के शीशे से टकराती, चारपाई के नीचे छुप जाती है. जब थक कर हाथ में आती है तो उसके दिल की धड़कन महसूस होती है. धक धक, धक धक.

नहीं उदासी नहीं, बस चुप्पी सी है. बात नहीं करो कोई. नहीं सुनना कोई गाना. नहीं देखनी कोई फ़िल्म. किताब के अक्षर पढ़े तो जाते हैं पर समझ नहीं आते. बार बार आँखें शब्दों को देखती हैं और सामने कोई और चेहरे आ जाते हैं.

बाग में अकेला बैठा लड़का, हाथ में मोबाईल फ़ोन को टक टकी लगाये देख रहा है. मानो मन ही मन उसे घँटी बजाने के लिए प्रार्थना कर रहा हो. कुत्ते के साथ घूमने निकला जोड़ा भी मोबाईल पर ही लगा है. युवक अपने मोबाईल पर किसी से बात कर रहा है, उसकी साथी अपने मोबाईल पर किसी और के साथ बात कर रही है. रोमेयो नाम है उनके कुत्ते का. रोमेयो याने रोमियो, रोमियो जूलियट वाला. इतालवी भाषा में रोमियो को रोमेयो ही कहते हैं. आप्रेशन हुआ है रोमेयो का, अण्डकोष निकाल दिये गये हैं उसके. इससे झँझट कम होता है. न तो कुत्ता अन्य कुत्तों से कोई झगड़ा करता है, न ही कुत्तियों के पीछे भागता है. यानि इस रोमेयो की कभी कोई जूलियट नहीं होगी.

होर्स चेस्टनट के पेड़ों के नीचे वाले बैंच पर एक वृद्ध बैठा है. हर तरफ़ फ़ूल खिले हैं. जैसे "दिल वाले दुल्हनिया ले जायेंगे" का खेत हो जहाँ शाहरुख खान गिटार बजाता है और घर से भागी भागी, काजोल वहाँ पहुँच जाती है. पर यहाँ सिर्फ फ़ूल हैं, कोई गिटार नहीं, न ही कोई खेतों के बीच प्रेमी से मिलने भाग रहा है. बस मोबाईल पर बात करने वाली चुप्पी है, जो बातों की दरारों में से झाँकती है.

अगर कोई समय वाली मशीन हो जिससे घड़ी की सूईयाँ पीछे कर सकते हों तो अपने अतीत के किस क्षण में जाना चाहूँगा? अचानक ही यह बात मन में आती है. जीवन पल पल के छोटे छोटे निणयों पर बना है, ऐसे करो, वैसे करो. पगडँडियाँ हैं, अचानक दोराहे पर पहुँच जाती हैं, इधर जाओ या उधर. बीस साल पहले उस दिन ऐसा करने की बजाय वैसा कर देता तो आज कहाँ होता, क्या कर रहा होता? और अगर आज वापस जा सकूँ तो क्या वह दूसरा रास्ता लेने की हिम्मत होगी? पर क्या इस राह को चुनने पर कहाँ आया था, क्या यह बात याद रहेगी? और अगर याद नहीं रहेगी तो क्या वही पश्चाताप मन को तंग नहीं करेगा कि ऐसा करने की बजाय वैसा करता?

एक बार जाने कहीं पढ़ा था समानान्तर विश्वों के बारे में. एक यही विश्व नहीं जहाँ मैं रह रहा हूँ. और भी दुनिया हैं जहाँ दूसरे मैं रहते हैं, जिन्होंने पगडण्डी के दोराहे पर दूसरा रास्ता चुना था. सोच कर हँसी आती है कि क्या फायदा इस तरह के समानान्तर विश्वों का, अगर जाने किसी विश्व में एक दूसरा मैं इस समय यही सोच रहा हो, "बस चुप सी लगी है, नहीं उदास नहीं"?

एक बार एक पार्टी में बरनादेत मिली थी. लाल वाईन पी थी, पर खाया कुछ नहीं था, सिर कुछ घूम सा रहा था. वह साथ वाली कुर्सी पर बैठी थी. बोली कि वह पेरिस की रहने वाली थी और कार्ल रोजर के दर्शन विचारों में विश्वास करती थी. बोली, "हमारे मन में हमारा पश्चाताप छुपा है, अपनी गलतियों का. अपने आप को हम क्षमा नहीं कर पाते, यही कारण है हमारे दुखों का." मेरे मन में कोई पश्चाताप नहीं, मैंने हँस कर कहा तो उसने भौंहें उठा कर मेरी ओर देखा. थोड़ी देर में ही भूल गया था कि हम कहाँ बैठे थे, आसपास और कौन बैठा था, बस केवल वह थी और मैं था, और उसे मन खोल कर अतीत सुना रहा था.

अगर समय की मशीन हो तो अतीत के किस पल में वापस जाना चाहूँगा? सुखद पल में वापस जाना चाहूँगा या दुख के पल में? किसको गुस्से में क्या कहा था, किसको अनजाने में दुख पहुँचाया था, किससे ईश्या में बोला था? हो सके तो सब गलत शब्द, गलत बातें वापस ले लूँगा या फ़िर इस बार भी क्षण के ज़्वार में अतीत वैसा ही रहेगा, बदल नहीं पायेगा?

वह रात जिस जब पापा को दिल का दौरा पड़ा था, उस रात को वापस जाना चाहूँगा? जिन दिनों जानकी देवी में मैदान में दीदी के साथ घूमते थे और बातें नहीं चुकती थीं उन दिनों में वापस जाना चाहूँगा? जिस दिन मित्र ने आत्महत्या के विचार के बारे में बताया था उस दिन वापस जाना चाहूँगा?

समय एक गोल चक्कर है, अतीत, भविष्य सब बार बार आते हैं, सभी समानान्तर हैं. किसी समानान्तर विश्व में अभी भी दीदी के साथ मैदान में घूम रहा हूँ. एक दूसरे विश्व में पापा से लिपट जाता हूँ. एक अन्य विश्व में मित्र से कहता हूँ कि आज की रात मैं तुम्हें अकेला नहीं छोड़ूँगा.

"बस ये चुप सी लगी है, नहीं उदास नहीं. सहर भी है रात भी है, दोपहर भी मिली लेकिन, हमने शाम चुनी है. नहीं उदास नहीं." जाने क्यों बार बार यही शब्द मन में बार बार लौट आते हैं.

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