सोमवार, अगस्त 21, 2006

सही या गलत

मैं लंदन में अपनी पुरानी मित्र पाम के यहाँ बैठा था और बात हो रही थी यूरोपीय जन स्वास्थ्य अभियान की एक मीटिंग के आयोजन की. बात आयी कि विषय पर विशिष्ट भाषण देने के लिए किस जानी माने व्यक्ति को बुलाया जाये. कुछ नाम लेने के बाद मैंने कहा कि सुप्रसिद्ध अमरीकी लेखक व जाने पहचाने सहयोगी को बुलाया जाये (जानबूझ कर उनका नाम यहाँ लेना ठीक नहीं समझता) तो पाम ने न कहते हुए सिर हिला दिया. क्यों, वह बहुत अच्छा बोलता है और उसके आने से हमारी सभा में लोग भी बहुत आयेंगे. "तुमने उसके पीडोफिलिया (किशोरावस्था से छोटे बच्चों के साथ यौन सम्बंध करना) की बात नहीं सुनी?" पाम ने पूछा. छीः, मुझे विश्वास नहीं हुआ कि कोई इतने अच्छे व्यक्ति के बारे में ऐसा भी सोच सकता है! सिर्फ बातें नहीं हैं, सच है, पाम ने बताया, "मैंने स्वयं उससे इस विषय में बात की है, सब सच है. वह स्वीकारता है पर वह कहता कि वह कुछ गलत नहीं कर रहा. वह किसी बच्चे से कभी जबरदस्ती नहीं करता. बच्चों में भी यौनता होती है और उन सभी बच्चों से उसे बहुत प्रेम है, कहता है."

बहुत धक्का लगा यह सुन कर.

अँग्रेजी में वैज्ञानिक साहित्य के सुप्रसिद्ध लेखक आर्थर सी क्लार्क जिन्होंने "2001 ए स्पेस ओडिसी" जैसी फिल्मों की कहानी लिखी, जो कि श्रीलंका में बहुत सालों से रहते हैं, उनके बारे में एक बार ऐसी ही बात सुनी थी और कहा गया था कि उन्होंने अपने बचाव में ऐसा ही कुछ कहा था कि वह तो उन गरीब बच्चों की मदद कर रहे हैं और उन्होंने कभी किसी बच्चे से जबरदस्ती नहीं की. बाद में श्री क्लार्क पर से यह इलज़ाम हटा लिया गया था और उन्हें ब्रिटिश सरकार से नाईट (Knight) का खिताब भी मिला था.

यह सोचना कि बच्चों के साथ जबरदस्ती नहीं होती, प्रेम का सम्बंध होता है, मेरे विचार में सच्चाई से भागना है. छोटा बच्चा जिसका व्यक्तित्व नहीं बना, अपने साथ रहने वाले व्यस्क व्यक्ति पर शारीरिक जरुरतों के साथ साथ भावात्मक जरुरतों पर भी निर्भर होता है और बच्चों से यौन सम्बंध उसी भावात्मक निर्भरता का गलत उपयोग करते हैं. यह तो हर हालत में बाल बलात्कार ही होगा, एक घृणित अपराध.
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मैं और मेरे इतालवी साथी रोबर्तो दक्षिण अमरीकी देश गुयाना में एक स्टीमर में नदी पार कर रहे थे. रोबर्तो और मेरी बहस करने की पुरानी आदत है, उसे मुझे भड़काना अच्छी तरह से आता है. जहाँ मुझे हर बात के विभिन्न पहलू देखना अच्छा लगता है, रोबर्तो की नजर में दुनिया की हर बात के दो ही पहलू होते हैं, एक सही और दूसरा गलत. उस दिन भी हम दोनो बहस में उलझे थे. तभी एक छोटा सा बच्चा हारमोनिका बजाता हुआ सामने आ खड़ा हुआ. बच्चे के संगीत के समाप्त होने पर मैंने उसे कुछ पैसे दिये और पास बुला कर उससे उसका नाम पूछा और पूछा कि वह स्कूल जाता है या नहीं? कुछ देर तक बाते करते रहे तो मैंने बच्चे से पूछा कि क्या मैं उसकी तस्वीर ले सकता हूँ? बच्चे के हाँ कहने पर उसकी तस्वीर ले रहा था कि रोबर्तो ने इतालवी में कहा, "ध्यान रखो, अधिक छूओ नहीं बच्चे को, दूर दूर से बात करो, अगर इस बच्चे का बाप यहाँ आसपास होगा तो समझेगा कि तुम भी पीडोफाईल (किशोरावस्था से छोटे बच्चों से यौन सम्बंध रखने वाला व्यक्ति) हो!"

हमारी भारतीय संस्कृति में बच्चों को लाड़ना पुचकारना सामान्य बात समझी जाती है और जाने अनजाने किसी को भी हम अंकल जी और आंटी जी बना लेते हैं, इस तरह की बात मेरे मन में आ ही नहीं सकती थी कि कोई मेरे कोतूहल को इस दृष्टि से भी देख सकता था. मैंने सुना है गोवा में कुछ पर्यटक इसी लिए पकड़े गये थे कि छोटे बच्चों को पैसे दे कर उनसे यौन सम्बंध बनाते थे. बैंकाक की बच्चियाँ या कलकत्ता के सोना गाची की बच्चियाँ जिन्हें छोटी सी ही उम्र में शरीर बेचने के काम में लगा दिया जाता है, उसके बारे में भी सुना है इसलिए मानता हूँ कि दुनिया में ऐसे लोग भी होते हैं जिनसे माँ पिता को सावधान रहना चाहिए.

पर यह सोच कर कि कोई हमें इस संदेह से न देखे, इसलिए हम अपनी प्राकृतिक जाने अनजाने बच्चों को प्यार करने की भावना को दबा दें, मुझे ठीक नहीं लगता. दूसरी तरफ़ किसी के मुख पर नहीं लिखा होता कि उसके मन में क्या होता है, तो फ़िर क्या करें? क्या सही है और क्या गलत?

शनिवार, अगस्त 19, 2006

स्ट्रिंग आप्रेशन और स्त्री भ्रूण हत्या

भारत से एक मित्र ने समाचार दिया है कि सहारा टीवी पर एक स्ट्रिंग आप्रेशन दिखाया गया है जिसमे राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात और उत्तर प्रदेश के डाक्टरों को भ्रूण की लिंग जाँच करते हुए तथा स्त्रीलिंग के भ्रूणों का गर्भपात करते हुए दिखाया गया है. करीब सौ डाक्टरों के बारे में दिखाया जा चुका है. कई जगह पर गर्भपात कानूनी सीमा के बाहर, यानि कि २० सप्ताह से बड़े भ्रूणों के गर्भपात भी किये जा रहे हैं. राजस्थान सरकार ने कुछ डाक्टरों को सस्पैंड किया है पर उनके विरुद्ध कोई कानूनी कार्यवाही नहीं प्रारम्भ की गयी है. राजस्थानी डाक्टरों के सहयोग में भारतीय मेडिकल काऊँसिल ने पत्रकार तथा टीवी चैनल के विरुद्ध बाते कहीं हैं और स्ट्रिंग आप्रेशनों पर रोक लगाने की माँग की है. मेरे मित्र का कहना है कि इन डाक्टरों को सजा देने के लिए अंतरजाल के द्वारा राजस्थान सरकार को पेटीशन भेजने के लिए सबको सहयोग देना चाहिए.

संदेश पढ़ कर मन बहुत से बातें उठीं, जिनमें कुछ विरोधाभास भी है. जाने क्यों, मुझे स्ट्रिंग आप्रेशनों का सुन कर अच्छा नहीं लगता. कुछ गलत होते हुए की छुप कर तस्वीरें तथा वीडियो लेना और उसे टीवी पर दिखाना मुझे मुकदमा सा लगता है जिसमें अपराधी के पास अपने बचाव के लिए कोई रास्ता नहीं होता है और जन समान्य के सामने, वह तुरंत दोषी साबित हो जाता है. यह बात मुझे ठीक नहीं लगती क्योंकि मेरे विचार में सभी के मानव अधिकार हैं, अपराधियों के भी जब तक वे अपराधी साबित न हो जायें और सभी को कानून में अपनी रक्षा करना का हक होना चाहिए. मैं मानता हूँ कि एक बार कानून का रास्ता छोड़ कर हम स्वयं लोगों को दोष देने और सजा सुनाने का अधिकार ले लेते हैं तो सही या गलत कहना सब हमारे हाथ में होता है और सभ्य समाज में यह अधिकार केवल कानून को होना चाहिए. वीडियो में क्या दिखाया जाये, किस बात को काट कर छुपा लिया जाये, यह सब दिखाने वाले पर निर्भर करता है.

दूसरी ओर यह भी मानना पड़ेगा कि कानून कुछ भी फैसला करने में इतनी देर लगाता है और ताकतवर संघों के हिस्से बने लोगों के विरुद्ध कानून भी कुछ नहीं कर पाता, जबकि टीवी पर दिखाने से तुरंत कुछ न कुछ न्याय तो हो जाता है. तीसरी बात यह है आज जब नये तकनीकी उपकरण हैं तो पत्रकार उनका सहारा क्यों न लें. इसी विषय पर अखबार में या किसी पत्रिका में अगर पत्रकार लिखते हैं और वह ठीक लगता है तो टीवी के पत्रकारों द्वारा वीडियो का इस्तमाल क्यों गलत माना जाये? यानि इस विषय पर मेरे विचारों में कुछ विरोधाभास है और मुझे अन्य लोगों की राय जानना अच्छा लगेगा.

रही बात स्त्री भ्रूण हत्या की, यह दुर्भाग्य है भारत का कि ऐसे घृणित अपराध को समाजिक समर्थन सा मिल गया है वरना इतने कानून होने के बाद भी यह समस्या यूँ न बढ़ती जाती. करीब पंद्रह वर्ष पहले अमर्त्या सेन ने जनसँख्या सम्बंधी आँकणे देख कर भारत की 10 करोड़ "गुमशुदा औरतों" का प्रश्न उठाया था. उनका कहना था कि हर देश में पुरुषों और स्त्रियों की संख्या करीब बराबर या स्त्रियों की संख्या कुछ अधिक ही होती है और इस हिसाब से भारत में करीब दस करोड़ स्त्रियाँ कम हैं. तब यह सोचा गया था कि स्त्रियों के साथ भेदभाव की वजह से है, क्योंकि उन्हें खाना कम दिया जाता है, उनकी पढ़ाई कम होती है, बीमार पड़ने पर उनका इलाज कम होता है. आज स्थिति और भी बिगड़ गयी है क्योंकि नयी तकनीकों से पैदा होने से पहले ही जाना जा सकता है कि पैदा होना बच्चा लड़का होगा या लड़की, और लड़की होने पर भ्रूण का गर्भपात कर दिया जाता है.

पिछले वर्ष की भारतीय स्वास्थ्य मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार हर 1000 पुरुषों के मुकाबले में स्त्रियों की संख्या विभिन्न प्रदेशों में कुछ इस प्रकार की है - आँध्र प्रदेश 978, बिहार 919, दिल्ली 821, गुजरात 920, गोवा 961, हरियाणा 861, केरल 1058, पंजाब 876, त्रिपुरा 948, आदि. यानि यह समस्या अधिकतर उत्तरी और विषेशकर उत्तर पश्चिमी भारत में अधिक है. दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, गुजरात जैसे समृद्ध प्रदेशों में.

मेरी एक गायनेकोलोजिस्ट मित्र जो दिल्ली के पास गाजियाबाद में अक्सर ऐसे गर्भपात के आप्रेशन करती है, उससे एक बार इसी विषय पर बात कर रहा था. वह बोली, "जब कोई औरत तुम्हारे सामने आ कर रोये, पैर पकड़ कर मदद माँगे, जिसके सास ससुर और पति उसे तंग करते हों, लड़की हुई तो उसे छोड़ कर दूसरी शादी करने की धमकी देते हों, तो न न करते करते भी दिल पसीज जाता है. आजकल अल्ट्रासाऊँड करना तो टेकनिशयन जानते हैं, उसके लिए डाक्टर की जरुरत नहीं. एक बार स्त्री को मालूम हो जाये कि पेट में लड़की पल रही है तो वह अपना सोचे या होने वाले बच्चे का? लड़की की कोई कीमत नहीं हमारे समाज में, सिर्फ बोझ है, यह सिर्फ उनके लिए नहीं जो गरीब हैं बल्कि उनमें अधिक है जिनके पास सब कुछ है."

सब डाक्टर केवल दया के लिए गर्भपात करते हैं यह मैं नहीं मानता. पैसे कमाने का लालच इसकी सबसे बड़ी वजह है. कानून बन कर भी कोई इसके विरुद्ध कुछ नहीं कर पा रहा तो समाज को कौन बदलेगा? जब तक समाज नहीं बदलेगा हर रोज़ हजारों बच्चों के खून की यह धारा कैसे रुकेगी? कौन बदलेगा हमारे धर्मग्रंथों को जो बेटे को सब कुछ मानते हैं और "पुत्रवती हो" का आशीर्वाद देते हैं?

गुरुवार, अगस्त 17, 2006

मेरे प्रिय कछुए

कछुआ भी कभी किसी का प्रिय पशु हो सकता है, मुझे विश्वास नहीं होता. मेरा सबसे प्रिय पशु तो कुत्ता है. बचपन से मुझे कुत्ते ही अच्छी लगते थे. नाना के यहाँ लूसी, मौसी के यहाँ राजा, जब भी किसी कुत्ते को देखता तो मन में सोचता कि काश मेरा भी कोई कुत्ता होता! एनिड ब्लाईटन की फेमस फाईव श्रृँखला की कोई किताब पढ़ने को मिलती तो जोर्ज और उसका कुत्ता टिम्मी मेरे सबसे प्रिय पात्र थे. किताब पढ़ता तो सपने देखता कि एक दिन मेरा भी कुत्ता होगा.

लेकिन माँ को कुत्ते बिल्कुल पसंद नहीं थे. "गंदा करते हैं, कौन साफ़ करेगा? नहीं, हमारे पास कुत्ते रखने की जगह नहीं", माँ कहती.

कभी सोचता, अगर पास में बिल्ली हो तो कैसा रहे? घर के आसपास कभी कोई बिल्ली के बच्चे मिल जाते तो कुछ दिन तक उनके पीछे दौड़ता. पर किसी बिल्ली से दिल का तार कभी ठीक से नहीं मिल पाया. कभी किसी बिल्ली के नाखूनों की खरौंचे खा कर मन दुखी हो जाता, कभी लगता कि बिल्ली को किसी की परवाह ही नहीं होती, वह अपनी ही दुनिया में रहती है, कभी मन किया तो करीब आ गयी, कभी मन न किया तो आप की ओर देखे भी नहीं.

कभी मन में सोचता कि पास में अगर बोलने वाला तोता हो तो कैसा रहे? यह इच्छा भी एनिड ब्लाईटन की ही पुस्तकों की वजह से ही मन मे आई थी. एडवेंचर श्रृँखला का तोता किकी भी मुझे टिम्मी कुत्ते जैसा ही पसंद था. उन सपनों के बहुत सालों के बाद दक्षिण अमरीका में एक यात्रा में एक बार रंग बिरंगे बड़े तोते देखे तो सोचा कि वैसा ही तोता होना चाहिए पर उन तोतों को अमेज़न के जँगल से बाहर ले जाना मना है इसलिए मन मसोस कर रह गया.

पर मन में कभी किसी कछुए के लिए ऐसा कुछ मससूस नहीं किया. मेरा स्कूल दिल्ली में बिरला मंदिर के साथ जुड़ा हुआ था और हर रोज़ दोपहर को खाने की छुट्टी का समय बिरला मंदिर के बागों में ही खेलते हुए गुज़रता था. वहाँ पानी में कछुए भी घूमते थे. हाई स्कूल के दिनों में एक दिन वहाँ एक मरा हुआ कछुआ मिला. मेरे साथी उसे देख कर नाक सिकोड़ रहे थे पर मैं उसे कागज़ में लपेट कर घर ले आया और माँ से छुप कर रसोई के चाकू से उसे काट कर उसके भीतर देखने की कोशिश करनी चाही. तब स्कूल में जीव विज्ञान की कक्षा में मेंढ़क जैसे जंतु काट चुके थे. पर रसोई का चाकू इस काम के लिए तेज़ नहीं था और कुछ नहीं काट पाया. अंत में तंग आ कर कछुए जी का बिना पोस्ट मार्टम किये ही दाह संस्कार कर दिया गया.

लेकिन आज हमारा घर कछुओं से भरा है. इस कथा का प्रारम्भ हुआ करीब पंद्रह सोलह साल पहले जब कोंगो से मेरा एक मित्र वहाँ से मेरे लिए हरे रंग के मेलाकीट पत्थर के बने दो कछुए ले कर आया. फ़िर पाकिस्तान से आने वाली एक मित्र मेरे लिए पेशावर से एक गुलाबी संगमरमर का कछुआ ले कर आई. बस वहाँ से शुरु हो गया हमारा कछुए जमा करने का शौक. ब्राज़ील, एक्वाडोर, केनिया, दक्षिण अफ्रीका, भारत के विभिन्न राज्यों से, अलग अलग देशों से कछुए हैं हमारे घर में. धातू की जाली के, पत्थर के, लकड़ी के, मिट्टी के, सब तरह के, सब रंगो के कछुए हैं. जब भी किसी नये देश में जाने का मौका मिलता है तो मैं कछुए खोजना नहीं भूलता.

पर शायद अब यह कछुए जमा करने का शौक शायद छौड़ना पड़े. "क्या, एक और कछुआ?", हमारी श्रीमति जी हर बार मेरे कछुओं को देख कर कहती है. पिछले दिनों में दो कछुए सफ़ाई करते हुए "गलती" से गिर कर टूट चुके हैं. मुझे लगता है कि और कछुए घर में आयेंगे तो यह गलतियाँ बढ़ सकती हैं. बहुत सोच कर भविष्य में मुखौटे जमा करने का फैसला किया है. दीवार के ऊपर लटके होंगे तो गलती से गिरेंगे भी नहीं.

आज की तस्वीरों में मेरे सकंलन से कुछ कछुए




शुक्रवार, अगस्त 11, 2006

उपदेश देना और कर के दिखाना

मेडस्केप पर आजकल एक नई बहस शुरु हुई है मोटे डाक्टरों के बारे में. बहस का विषय है "क्या मोटे डाक्टर अपना काम करने के लिए उपयुक्त हैं?"

मोटा होना स्वास्थ्य के लिए हानीकारक माना गया है क्योंकि इससे बहुत सी बीमारियों जैसे हृदय रोग, रक्तचाप का बढ़ना, डायबाटीज़, इत्यादि के होने की सम्भावना बढ़ जाती है. प्रश्न यह है कि डाक्टर का काम क्या केवल दूसरों का इलाज करना और सलाह देना है या उन्हें स्वयं प्रेरणादायद उदाहरण बन कर रहना चाहिए? अगर कोई मोटा डाक्टर किसी दूसरे व्यक्ति को सैर करने, कसरत करने, खाना कम खाने और पतला होने की सलाह दे, तो उसका असर होगा या नहीं?

जब कोई बात खुद पर लागू होती है तो उसे पढ़ने की रुचि भी बढ़ जाती है. क्योंकि पिछले दस सालों में मेरा वजन भी करीब दस किलो से अधिक बढ़ा है तो इस बहस का प्रश्न पढ़ कर दिल पर तीर की तरह लगा. और तुरंत पढ़ने लगा. मेडस्केप डाक्टरों के लिए शिक्षा और नयी जानकारी पाने का वेबपृष्ठ है, जो मुफ्त है बस केवल रजिस्ट्रेशन करना पड़ता है.

बहस के प्रश्न के उत्तर देने वाले दो पक्षों में बँट गये हैं. एक ओर है रोबर्ट सेंटोर जैसे लोग जो कहते है कि डाक्टर कोई फिल्मी सितारा या फुटबाल का खिलाड़ी नहीं, उनका कर्तव्य है कि जनता को अच्छा उदाहरण दें और दूसरों के लिए प्रेरणात्मक जीवन जीयें. वह सिगरेट पीने वाले डाक्टरों की भी बात करते हैं और कहते हैं कि आज ऐसे डाक्टर धीरे धीरे कम हो रहे हैं और अगर मोटापे पर भी वैसा ही प्रचार किया जाये तो भविष्य में मोटे डाक्टर भी कम हो जायेंगे. वह कहते हैं कि मोटे डाक्टर की दूसरों को पतले होने की सलाह मरीज़ों द्वारा गम्भीरता से नहीं ली जायेगी.

बहस के दूसरे पक्ष में हैं पेन्नी मारकेत्ती जैसे लोग जो मानते हैं कि दुनिया में वैसे ही मोटे लोगों के विरुद्ध सोचना, उन्हें सुस्त, गंदा और बेवकूफ समझना जैसे विचार फ़ैले हुऐ हैं, और इस तरह की बात उठाने वाले डाक्टर कट्टरपंथी हैं जो मानव की कमजोरियों को नहीं समझ पाते और अपनी बात सही होने की सोच में इतने लीन होते हैं कि दूसरों से सुहानूभूति से बात नहीं कर पाते, इसलिए उनकी सलाह का कम असर पड़ता है. दूसरी ओर मोटे डाक्टरों में मरीज़ों की स्थिति के बारे में अधिक समझ और सुहानुभूति होती है और उनका सम्बंध अपने मरीज़ों से अधिक अच्छा होता है.

बीच में कुछ और लोग भी हैं जो डाक्टरों के अधिक काम के बोझ तले मरने की बात करते हैं, कहते हैं कि वैसे ही बेचारों के पास साँस लेने की फुरसत नहीं. उनके घरवाले पहले ही नाराज रहते हैं कि उनके पास घर और परिवार के लिए कुछ समय नहीं होता. अगर अब उन्हें मरीज़ों को प्रेरणा देने के लिए पतले होने के लिए अगर हर रोज कसरत करने के लिए एक घँटे का समय और निकालना पड़े, तो यह समय वे कहाँ से निकालें?

मुझे भी लगता है कि ठीक से रहो, ऐसे करो, वैसे न करो, जब जरुरत से ज्यादा होने लगे तो जीवन की खुशी कुछ कम हो जाती है. काफी न पियो, वाईन न पियो, ऊँची ऐड़ी के जूते न पहने, तंग कपड़े न पहने, मिठाई न खाओ ... उपदेश सुनने लगो तो कभी खत्म ही नहीं होते. और ऐसे लम्बे जीवन का क्या फ़ायदा जिसमें कुछ भी ऐसा न हो जिससे आनंद मिले?

और यह भी है कि आधुनिक जीवन में मोटा होना जैसे घोर पाप बन गया है. सुंदरता का जमाना है. अगर आप जवान, सुंदर, पतले नहीं तो आप की कीमत कुछ कम है. कुछ समय पहले हाँगकाँग में एक कपड़े की दुकान में घुसा तो वहाँ काम करने वाली पतली सी नवयुवती मेरी ओर भागी भागी आई, "नहीं, आप के लिए यहाँ कुछ नहीं मिलेगा". उसके चेहरे का भाव देख कर, "यह मोटू बूढ़ा यहाँ कैसे घुस आया", मन को धक्का सा लगा और बिना कुछ कहे दुकान से बाहर निकल आया, यह नहीं कहा कि मैं अपने लिए नहीं, बेटे के लिए कुछ लेना चाहता था.

पर यह भी है कि वजन अधिक होने से सुस्ती सी रहती है, कपड़े ठीक से नहीं फिट होते है, और आजकल कुछ पतले होने के चक्कर में खूब वर्जिश हो रही है. वजन कम हुआ या नहीं, यह देखने की अभी हिम्मत नहीं आई. डरता हूँ कि अगर मशीन पर चढ़ूँ और सूई अपने स्थान से घटने की बजाय बढ़ गयी होगी तो कितना धक्का लगेगा. पर यह मेरी कोशिश किसी को प्रेरणा देने के लिए नहीं है, यह सिर्फ मेरे अपने लिए है.

और आप क्या कहते हैं? मोटे डाक्टरों की सलाह को क्या आप मानेंगे? और अगर मोटे और पतले डाक्टरों में से चुनना हो तो किसे चुनेंगे?

बुधवार, अगस्त 09, 2006

अंतरजाल पर वीडियो

हमारी हाऊसिंग कोलोनी में कई साल से बहस चल रही है कि छत पर तश्तरी वाला एंटेना लगाया जाये या नहीं. फैसला तो यही हुआ था कि हर घर अपनी तश्तरी अलग से न लगाये क्योंकि देखने में अच्छी नहीं लगती, बल्कि छत पर एक बड़ी तश्तरी सभी घरों के लिए लगे, पर चूँकि उसकी बहस ही पिछले दो सालों से खत्म नहीं हो रही, कुछ इक्का दुक्का लोगों ने अपनी बालकनी पर छोटी तश्तरियाँ लगवा ली हैं और कहते हैं कि जब बड़ी तश्तरी लगेगी, वे अपनी छोटी तश्तरियाँ उतरवा देंगे.

यहाँ केबल से टीवी चैनल दिखाने का प्रचलन नहीं है क्योंकि अधिकतर लोग केवल इतालवी भाषा बोलते हैं और घर के टेलीविज़न पर साधारण एंटेना से दस पंद्रह चैनल इतालवी में आती हैं जो अधिकतर लोगों के लिए बहुत हैं. तश्तरी का एंटेना सिर्फ वह लोग चाहते हैं जो फुटबाल के मैच देखना चाहते हैं क्योकि अच्छे वाले मैच साधारण टीवी चैनल पर नहीं प्रसारित होते, या फ़िर प्रवासी जो अन्य भाषाओं में प्रोग्राम देखना चाहते हैं.

क्योंकि इटली में भारतीय बहुत कम हैं इसलिए यहाँ भारतीय चैनल देखना उतना आसान नहीं. अगर आप के पास अपनी तश्तरी वाला एंटेना है तो सोनी या ज़ी में से एक चुन कर उसके लिए डिकोडर खरीद कर उनके कार्ड खरीद सकते हैं, और एक साल के कार्ड की कीमत है 200 यूरो. सुना है कि अगर आप के पास 1.80 मीटर वाला तश्तरी का एंटेना हो तो मध्य‍पूर्व में प्रसारित होने वाली सभी भारतीय चैनलों को एक कार्ड से देख सकते हैं जिसकी वार्षिक कीमत है 500 यूरो.

अपने यहाँ तश्तरी न होने की वजह से जो भी भारतीय टेलीविज़न हो वह फिलहाल तो केवल अंतरजाल से ही देखा जा सकता है. आजकल हमारा तीव्रगति वाला अंतरजाल का कनेक्शन 20 मेगाबाईट का है जिससे अंतरजाल पर आनेवाले टीवी बहुत अच्छे आते हैं, लगता है डीवीडी देख रहे हों. दिक्कत केवल यह थी कि अंतरजाल पर वीडियो प्रसारित करने में भारत कुछ पीछे है. दूरदर्शन का अंतरजाल पृष्ठ केवल समाचार देखने की सुविधा देता है, पर उसकी बैंडवेव इतनी संकरी है कि अधिकतर समय उससे जुड़ नहीं पाते, किस्मत से जुड़ भी जाईये तो छोटी सी ४५ केबीएस का प्रसारण है जिसकी छोटी सी तस्वीर, कभी आती है कभी नहीं.

सरकारी टेलीविज़न का तो बुरा हाल है पर कुछ दिनों से आबीएन-सीएनएन के समाचार प्रसारित होने लगे हैं जिन्हें देखना अपेक्षाकृत आसान है और प्रसारण भी बहुत बेहतर है. यह सच है कि अंतरजाल पर प्रसारित होने वाली चीन और ब्राज़ील की सत्तर अस्सी चेनल के सामने यह कुछ कम है पर कम से कम शुरुआत तो है.

वीडियो को तो छोड़िये, भारत आउडियो में भी बहुत पीछे है. इटली, ब्रिटेन जैसे देशों में आज करीब करीब हर रेडियो अंतरजाल पर भी आता है, चीन और ब्राज़ील जैसे देश भी इस बात में आज यूरोप या अमरीका से पीछे नहीं. पर भारतीय रेडियो सुनने हों तो केवल लंदन, दुबाई या अमरीका से प्रसारित होने वाले भारतीय रेडियो सुन सकते हैं. भारत का राष्ट्रीय रेडियो पिछले चार पाँच सालों से लाईव प्रसारण नहीं कर रहा, बटन दबाईये तो संदेश मिलता है कि अभी यह सुविधा उपलब्ध नहीं है.

ऐसे में मुम्बई का हिंदी सिनेमा जगत कुछ आशा दे रहा है. स्मेशहिट्स, वाहइंडिया, सिफ़ी मेक्स, बीडब्बलयू सिनेमा, इरोस इंटरनेशनल जैसे अंतरजाल पृष्ठ आप को मुफ्त में या फ़िर, केवल दो या तीन डालर में वीडियोक्लिप या पूरी फ़िल्म देखने की सुविधा देते हैं. शायद एक दिन ऐसा भी आयेगा जब भारत में मिलनेवाले सारे चैनल अंतरजाल से कोई कहीं भी ले पायेगा, तब न तश्तरी लगवाने की चिंता करनी होगी, न डिकोडर और कार्ड बनवाने की.

मंगलवार, अगस्त 08, 2006

एडस के चेहरे

अमरीका में जाह्न होपकिनस में एक कोर्स करने गया था, सन 1989 में. वह पहला मौका था कि एडस के रोगियों को करीब से देखने का मौका मिला था. तब तक पश्चिमी संसार में एडस के बारे में बहुत शोर हो रहा था. तब इस रोग का संक्रमण अधिकतर समलैंगिक यौन सम्बंधों के साथ जुड़ा था. उस समय यह तो समझता था कि समलैंगिक सम्बंध क्या होते हैं पर "समलैंगिक सभ्यता" क्या होती है यह पहली बार करीब से देखने का मौका मिला.

कोर्स के दौरान कुछ समलैंगिक युगलों से मिल कर बात करने का मौका मिला जिनमें से एक को एडस का रोग था. इन मुलाकातों ने मन में बने समलैंगिक रिश्तों के बारे में बैठे विश्वासों को हिला दिया था. सोचता था कि समलैंगिक सम्बंध रखने वाले युवक किसी के साथ प्रेम नहीं, बल्कि जितने अधिक शारीरिक सम्बंध हो सकते हैं सिर्फ वही खोजते हैं.

उस समय इस रोग के फ़ैलने के बारे में जानकारी बहुत अधिक नहीं थी, और बाहर से छुपाने की कोशिश करने के बावजूद, मन में किसी रोगी के करीब जाने या छूने में बहुत डर लगता था. रोगियों के प्रति कैसे अमानवीय व्यवहार हो रहे हैं, इसकी बात उठती तो मन में अपने डर के प्रति क्षोभ उठता पर फ़िर भी डर पर पूरा काबू नहीं कर पाता. ऐसे में जो रोगी नहीं थे उनका अपने रोगी साथियों के प्रति प्रेम देख कर विश्वास नहीं होता था कि उन्हें इस तरह रोगी के साथ रहने में डर नहीं लगता?

तब से विभिन्न देशों में एडस के रोगियों को करीब से देखने का मौका मिला है. आज एडस के बारे में सोचूँ तो मन में समलैंगिक शब्द नहीं आता, बल्कि अफ्रीका के गाँव आते हैं जहाँ नवजवान पीढ़ी की फसल को इस रोग ने काट दिया है और पूरे गाँव में केवल बूढ़े और बच्चे दिखते हैं जिनमें खेतों में काम करने की शक्ति नहीं है. कितने ही मित्र जो अफ्रीका में डाक्टर और नर्स थे, पिछले सालों इस रोग की वजह से खो चुके हैं. कुछ को आज यह बीमारी है और सबको एआरवी दवाईयाँ नहीं मिल पाती.

पर आज इस बीमारी का विश्व प्रतिमान भारत को मिल गया है, जहाँ दुनिया के सबसे अधिक रोगी हैं. निरंतर के माध्यम से मुझे इस स्थिति पर लिखने का मौका मिला है. नया निरंतर कल 7 अगस्त से अंतरजाल पर एक साल के अंतराल के बाद नया रुप ले कर फ़िर से आया है, उसे पढ़ना न भूलियेगा.
*****

आषीश, तुम्हारी टिप्पणी के लिए धन्यवाद. तुमने ठीक ही कहा है कि शब्द तो हैं, बात कहने का साहस चाहिए. पर मैंने सोचा कि जब यौन विषयों पर ऐसी बात लिखूँ जो केवल व्यस्कों के लिए हो, तो उसे चिट्ठे में लिखना ठीक नहीं होगा. इसलिए ब्राज़ील के यौन व्यवहार के सर्वेक्षण के बारे में जो लिखा है, उसे आप कल्पना पर पढ़ सकते हैं, वह "जो न कह सके" में नहीं कहा जायेगा.

सोमवार, अगस्त 07, 2006

हिंदी फिल्मों में मानसिक रोग (2)

अब बात करें 15 पार्क एवेन्यू की.

"15 पार्क एवेन्यू" देखने की बहुत दिनों से इच्छा थी. अपर्णा सेन ने "परोमा" और "36 चौरँगी लेन" जैसी फ़िल्में बनायी हैं इसलिए उनकी फिल्मों से भावपूर्ण कथानक और सुरुचि की आशा स्वस्त ही बन जाती है. फ़िर अगर फ़िल्म में वहीदा रहमान, शबाना आज़मी, कोंकणा सेन शर्मा, शेफाली शाह, सोमित्र चैटर्जी, ध्रृतिमान चैटर्जी, राहुल बोस जैसे सुप्रसिद्ध अभिनेता हों तो न भूल पाने वाली फ़िल्म देखने की आशा और भी बढ़ जाती है.

पर जब आशाएँ इतनी ऊँचीं उठी हों तो उनका पूरा होना भी उतना ही कठिन हो जाता है, और शायद इसीलिए फिल्म देख कर अच्छा तो लगा पर यह नहीं लगा कि "वाह क्या बढ़िया फिल्म थी".




कथा साराँशः 15 पार्क एवेन्यू कहानी है श्रीमति गुप्ता (वहीदा रहमान) की और उनकी दो बेटियों, अँजली (शबाना आज़मी) और मिताली यानि मिट्ठू (कोंकणा सेन) की. मिट्ठू मानसिक रोगी हैं, उन्हें स्कित्जोफ्रेनिया है और वह अपनी कल्पना के घर को खोजना चाहती हैं जो 15 पार्क एवेन्यू पर है जहाँ उनके अनुसार उनके पति और बच्चे उनकी राह देख रहे हैं. अँजली तलाकशुदा हैं और विश्वविद्यालय में पढ़ाती हैं और उनके सम्बंध अपने साथ पढ़ाने वाले एक अन्य शिक्षक (कँवलजीत) से हैं. अँजली के मन में एक तरफ घर में प्रतिदिन का मानसिक रोगी के साथ रहने का तनाव है, दूसरी तरफ अपनी छोटी बहन के लिए प्यार भी है, और किसी की देखभाल में अपना जीवन पूरा न पाने का क्रोध भी है.

इस रोजमर्रा के एक तरह चलते जीवन में नयी घटना घटती है जब एक दिन अँजली के कालेज जाने के बाद घर में एक झाड़फूँक करने वाले बाबा जी को बुलाया जाता है. बाबा जी मिट्ठू में घुसी "चुड़ेल" को भगाने के लिए उसे झाड़ू से खूब मारते हैं और कहते हैं अब वह ठीक हो जायेगी. शाम को जब अँजली घर वापस लौटती है तो मिट्ठू अन्य बातों के साथ उसे बताना चाहती है कि दिन में उसे खूब मारा गया पर अँजली अपने जीवन की बातों और काम में व्यस्त है और मिट्ठू की बातें सुन कर भी नहीं सुनती, उसे लगता है कि हर बार की तरह मिट्ठू बिना सिर पैर की काल्पनिक बाते कर रही है.

उसी दिन रात को मिट्ठू कलाई काट लेती है. अँजली अपराध बोध से घिर जाती है, उसने अपनी बातों में खो कर, अपनी छोटी बहन की सही बात को झूठ माना. कुछ ठीक होने पर मनोचिकित्सक (ध्रृतिमान चैटर्जी) की सलाह पर अँजली माँ और मिट्ठू के साथ कुछ दिन आराम करने भूटान चली जाती है.

भूटान में एक नदी के किनारे घूमती मिट्ठू को जयदीप (राहुल बोस) देख लेता है जो अपनी पत्नी (शेफाली शाह) और बच्चों के साथ वहाँ छुट्टियों में आया है. दस साल पहले जयदीप और मिट्ठू का विवाह होने वाला था, जब बलात्कार के बाद मिट्ठू अपना मानसिक संतुलन खो बैठी थी और जयदीप मँगनी तोड़ कर चला गया था. जयदीप के मन में भी मिट्ठू को ले कर अपराध बोध है और वह उससे मिलने की कोशिश करता है.

पहले तो अँजली गुस्सा होती है, उसे डर है कि मिट्ठू की तबियत फ़िर से न बिगड़ जाये पर फ़िर देखती है कि मिट्ठू ने जयदीप को नहीं पहचाना और उससे एक अजनबी की तरह बात करती है. दूसरी तरफ, जयदीप की पत्नी परेशान है, उसे विश्वास है कि जयदीप अपनी पुरानी प्रेमिका के चक्कर में पड़ गया है, तब जयदीप उसे बताता है कि मिट्ठू मानसिक रोगी है और वह सिर्फ अपने पिछले बरताव के अपराध बोध से मुक्त होने की कोशिश कर रहा है.

टिप्पणीः फ़िल्म के सभी अभिनेता बहुत बढ़ियाँ हैं. कोंकणा सेन की तरीफ़ सबसे अधिक करनी चाहिये क्योंकि मानसिक रोग जो चेहरे से झलक कर चेहरे को बदल देता है, इसको वे बहुत प्रभावशाली ढ़ँग से दिखातीं हैं. फ्लैशबेक में दिखाये कुछ भागों को छोड़ कर बाकी सारी फिल्म में कोंकणा का नीचे झुकते होंठ और आँखों में झलकता खोयापन उनके रोग को विश्वासनीय बना देता हैं हाँलाकि उसकी वजह से वे "हीरोइन" नहीं लगतीं. उनका मिर्गी का दौरा पड़ने का दृश्य बिल्कुल विश्वासनीय है.




बाकी सभी अभिनेता भी बढ़ियाँ हैं. छोटे से भाग में मिट्ठू के पिता के भाग में सोमित्र चैटर्जी को देख कर बहुत अच्छा लगा. ध्रृतिमान चैटर्जी जिन्हें देखे पँद्रह बीस साल हो गये थे और जो "गोपी गायन बाघे बायन" के दिनों से मुझे बहुत अच्छे लगते थे, उन्हें देख कर भी बहुत अच्छा लगा.

इन सब अच्छे अभिनेताओं के होते हुए भी, फ़िल्म में क्या कमियाँ थीं जिनकी वजह से मेरे विचार में यह फ़िल्म उतनी प्रभावशाली नहीं बनी?

मेरे विचार में फ़िल्म का कथानक ही इसकी सबसे बड़ी कमज़ोरी है. कथानक में वह नाटकीय घटनाएँ, मिट्ठू का जयदीप से प्यार, उसका बलात्कार, जयदीप का रिश्ता तोड़ कर उसे छोड़ कर चले जाना, यह सब बातें जो फिल्म में उतार चढ़ाव और दिलचस्पी ला सकती थीं, सभी छोटे छोटे फ्लैशबैक में ही सीमित रह जाती हैं. फिल्म का मुख्य केंद्र है दस साल बाद जयदीप का मिट्ठू से मिलना पर इसमें कोई अंतर्निहित नाटकीयता या तनाव नहीं बनता क्योकि मिट्ठू उसे पहचान भी नहीं पाती.

इस सारे हिस्से में तनाव बनाया गया है जयदीप की पत्नी के शक का और समझ नहीं आता कि जयदीप पत्नी को ठीक से सब कुछ क्यों नहीं बताता? इसकी वजह से फिल्म का कथानक कुछ नकली सा हो जाता है.

फ़िल्म अँग्रेज़ी में है. फ़िल्म के सभी मुख्य कलाकार आपस में अँग्रेजी में ही बात करते हैं पर कभी सड़क पर या काम करने वाली से हिंदी और बँगाली में भी बात कर सकते हैं. यह सच है कि आज का पढ़ा लिखा भारतीय उच्च मध्यम वर्ग अँग्रेजी में ही अपनी बात आसानी से कह पाता है और उसके सोच तथा व्यवहार में पश्चिमी उदारवादी विचार उसकी भारतीयता के साथ घुलमिल गये हैं. श्रीमति गुप्ता का पति के छोड़ जाने के बाद दूसरा विवाह करना या अँजलि का अपने मित्र के साथ अमरीका न चलने पर उसका पूछना "क्या तुम बिना विवाह के शारीरक सम्बंधों की नैतिकता की बात तो नहीं सोच रही हो?", जैसी बातें इसी बदलाव को दर्शाती हैं.

मानसिक रोग के साथ जीने में फ़िल्म के पात्रों के जीवन में कोई परिवर्तन नहीं आने वाला, जैसे पहले जीवन चल रहा था, वैसा ही चलता रहेगा, कोई चमत्कार नहीं होने वाला, यही फ़िल्म का अंतिम संदेश है. ऐसे आशाहीन जीवन में अचानक निर्देशक अपर्णा सेन अंत में नया प्रश्न उठा देती हैं, "सोचो कि अगर मिट्ठू की बातों को कल्पना कहने और सोचने वाले अगर गलत हों? अगर सचमुच कोई ऐसा जीवन स्तर हो जहाँ मिट्ठू के कल्पना का जीवन सच हो पर हम उस जीवन स्तर को नहीं देख सकते तो कैसा होगा?" फिल्म का अंत इसी फँतासी वाले प्रश्न से होता है जब मिट्ठू किसी अन्य स्तर पर बने अपने 15 पार्क एवेन्यू वाले अपने घर को खोज लेती हैं जहाँ उनका मिलन अपने पति और पाँच बच्चों से होता है.

कुछ यही अंत था ख्वाजा अहमद अब्बास की 1963 की फिल्म "शहर और सपना" का जिसमें सड़क पर पुरानी पाईप में जीवन बिताने को मजबूर युगल अंत में उसी पाईप में छुपा अपने सपने का घर पाता है. शायद यही एक रास्ता है आशाहीन जीवनों को परदे पर निराशा से बचाने का!

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