"मेघे ढाका तारा", यानि "बादलों से ढका तारा" उन्होंने 1960 में बनाई थी, तीन फ़िल्मों की पहली कड़ी के रूप में. इस ट्राईलोजी की अन्य फ़िल्में थीं 1961 की "कोमल गँधार" और 1965 की "सुबर्नरेखा".
कथासारः फ़िल्म प्रारम्भ होती है एक विशालकाय भव्य वृक्ष से, जिसके नीचे से गुज़र कर एक छोटी सी आकृति धीरे धीरे आगे आती है. यह आकृति है नीता (सुप्रिया चौधरी), कोलिज में एम.ए. पढ़ने वाली युवती जो बच्चों को ट्यूशन पढ़ा कर घर वापस आ रही है. झील के पास घास पर बैठे तान लगाते युवक (अनिल चैटर्जी) को देख कर उसके हँसी आ जाती है. वह युवक है शँकर, नीता का बड़ा भाई जो शास्त्रीय सँगीत सीख रहा है और गायक बनने के सपने देखता है. घर पहुँचते पहुँचते, नीता की चप्पल टूट जाती है, किराने वाले की दुकान के सामने से निकलती है तो दुकानदार उसे याद दिलाता है कि उनके उधार को दो महीने हो रहे हैं और उसे अपने पैसों का इंतज़ार है.
घर पर उसकी छोटी बहन गीता (गीता घटक) उसे एक चिट्ठी देती है. चिट्ठी है नीता को चाहने वाले युवक सनत (निरंजन राय) की. सनत चिट्ठी में कहता है, तुम मेरा बादलों में छिपा तारा हो, पर यह कठिनाईयों के बादल एक दिन अवश्य छँट जायेंगे और तब तुम अपनी रोशनी को ले कर चमक उठोगी.
नीता का परिवार बँगलादेश से शरणार्थी बन कर आया है. वर्डवर्थ और यीटस् की कविताँए पढ़ने वाले नीता के पिता बँगला भ्रद्रलोक के प्रतीक हैं जिसके लिए ज्ञान, कविता, सुंदरता जीवन के प्रमुख मुल्य हैं पर घर की गरीबी उस भ्रद्रता के सपनों को यथार्थ से टकराने के लिए मजबूर करती है.
शँकर को सब लोग भला बुरा कहते हें क्योंकि बड़ा बेटा हो कर भी वह कमा नहीं रहा, बल्कि बहन के बल पर जी रहा है, केवल नीता ही भाई को साँत्वना देती है कि एक दिन उसके सपने अवश्य सच होंगे. सनत भौतिकी में शोध कर रहा है और उसे जब पैसा चाहिये होता है तो वह भी नीता का ही दरवाज़ा खटखटाता है. ऐसे में जब नीता के पिता दुर्घटना में टाँग से बेबस हो जाते हैं तो नीता के पास अन्य कोई रास्ता नहीं बचता सिवाय पढ़ाई छोड़ कर नौकरी करने को.
सनत उससे शादी को कहता है पर नीता कहती है कि उसे इंतज़ार करना होगा, वह अपने छोटे भाई बहन को इस तरह नहीं छोड़ सकती. इस डर से कि नीता विवाह करके उनके घर को न छोड़ जाये, नीता की माँ छोटी बेटी गीता को प्रोत्साहन देती है कि वह बड़ी बहन के प्रेमी को रिझाए और सनत शोध कार्य छोड़ कर नौकरी कर लेता है और गीता से विवाह कर लेता है.
नीता चुपचाप आँसू पी कर रह जाती है, केवल शँकर उसका दुख समझता है. धीरे धीरे नीता का अपना कुछ नहीं रहता, घर के लोगों के लिए वह केवल पैसा कमाने वाली मशीन है. सबसे दुतकारा हुआ शँकर, नीता को पिसता देख कर घर छोड़ कर चला जाता है.
जब नीता को मालूम चलता है कि उसे यक्ष्मा (टीबी) है तो वह किससे कहे कि वह बीमार है, उसे समझ नहीं आता. सबसे छोटे भाई को काम पर दुर्घटना से चोट आई है, उसका इलाज करवाना है, उसके लिए खून का इंतजाम करना है. उधर नौकरी और पत्नी से असँतुष्ट, सनत नीता से सुहानुभूति चाहता है पर नीता पीछे हट जाती है. घर में किसी को उसका रोग की छूत न लगे, इसलिए अपना बिस्तर ले कर बाहर की प्रसव कोठरी में रहने चली जाती है. जब खाँसी में खून आने लगता है तो वह उसे भी छुपा लेती है.
बँबई में शँकर को गायक के रूप में सफलता मिली है, वह प्रसिद्ध हो कर घर लौटता है तो सभी उसे घेर लेते हैं. किसी को मोती का हार चाहिये और किसी को दो तल्ले का मकान. शँकर पूछता है कि खोकी यानि नीता कहाँ है और उसे खोजता कोठरी में पहुँचता है. तकिये के नीचे नीता को कुछ छिपाता देख कर शँकर कहता है कि तुम्हारी अभी भी अपने प्रेम पत्र छुपाने की आदत नहीं गयी और आगे बढ़ कर तकिये के नीचे से कपड़ा खींच लेता है और उस पर खून के धब्बे देख कर स्तब्ध रह जाता है.
शँकर नीता को शिलाँग में एक सेनोटोरियम में इलाज के लिए दाखिल करवा देता है. कुछ समय बीत जाता है. शँकर बहन से मिलने आता है. बहन बाहर बैठी पहाड़ों को देख रही है, उसके हाथ में वही पुरानी सनत की चिट्ठी है. भाई को देख कर नीता चिट्ठी फाड़ देती है, "मुझे बादलों के पीछे छुपा तारा नहीं बनना, मैं जीना चाहती हूँ" कह कर भाई से लिपट जाती है.
टिप्पणीः आजकल की अधिकतर फ़िल्में अक्सर मैं एक बार में नहीं देख पाता हूँ, मन ऊब जाता है पर "मेघे ढाका तारा" देखते हुए समय कैसे बीता मालूम ही नहीं चला. 46 साल पहले बनी फ़िल्म पुरानी हो कर भी, कहानी सुनाने के ढँग से पुरानी नहीं लगती. यह बात नहीं कि फ़िल्म में कमज़ोरियाँ नहीं, पर पूरी फ़िल्म एक कविता सी लगती है.
पहले बात करें मुझे लगने वाली कमियों की. फ़िल्म की पटकथा कई कई जगह बनावटी लगती है. सोचने पर लगता है कि फ़िल्म के तीन प्रमुख स्त्री पात्र, सच्ची और त्यागमयी ममता वाली नीता, अपना स्वार्थ, अपनी खुशी देखने वाली, साज सिँगार की शौकीन गीता और कर्कश माँ, स्त्री के तीन विभिन्न रूप दिखाने का बहाना हों, सचमुच के व्यक्ति नहीं. नीता के पिता का भाग निभाने वाला कलाकार करीब से लिए दृष्यों में कम उम्र का लगता है और नीता और शँकर जैसे बच्चों का पिता नहीं लगता. उसका चरित्र भी कुछ नाटकीय सा है.
नीता का इस तरह सब कुछ चुपचाप सहना, उतना बीमार होने पर किसी को कुछ न कहना और बढ़ते रोग के बावजूद काम करती रहती है, अविश्वासनीय सा लगता है. फ़िल्म के अंत में नीता की चीख भी कुछ बनावटी सी लगती है, हालाँकि उसका प्रतीकात्मक महत्व समझ में आता है.
पर यह कमियाँ फ़िल्म की सुंदरता को कम नहीं करतीं. नीता के भाग में सुप्रिया चौधरी बहुत अच्छी हैं. मुझे शँकर के भाग में अनिल चैटर्जी भी बहुत अच्छे लगे. (नीचे तस्वीर में अनिल चैटर्जी एवं सुप्रिया चौधरी) वास्तव में सभी कलाकार, चँदा माँगने वाले युवक से ले कर, सड़क पर चलती नीता जैसी युवती तक और किराने की दुकान के दुकानदार तक, सभी कलाकार असली लगते हैं, कलाकार नहीं.
फ़िल्म की फोटोग्राफी, दृष्यों की अँधेरे और रोशनी के प्रभाव, बहुत सुंदर हैं. अगर आप शास्त्रीय संगीत को पसंद करते हैं तो फ़िल्म के मंत्रमुग्ध करने वाले संगीत को भूल नहीं पायेंगे. जिस तरह बिना कहे ही शँकर नीता के जीवन में होने वाले भूचाल को समझता है वह बहुत अच्छी तरह से दिखाया गया है.
भावात्मक दृष्टी से फ़िल्म बहुत नियँत्रित है और बजाय डायलागबाजी या रोने धोने के, बिल्कुल सीधे साधे ढँग से अपनी बात कहती है और यही फ़िल्म की शक्ति है. मेरा सबसे प्रिय दृष्य वह है जब सकत और गीता की शादी होने वाली है और अँधेरे कमरे में शादी में गाने के लिए नीता अपने भाई से रबीँद्र सँगीत का कोई गीत सिखाने के लिए कहती है.
नीता का अंत में कहना कि वह प्राश्यचित कर रही है, जब गलत हो रहा था उस पर कुछ न कहने और सब कुछ चुपचाप सहने के पाप का प्राश्यचित, आत्मीय रिश्तों में छुपे स्वार्थ पर सोचने को मजबूर करता है. पर साथ ही समाज में नारी और पुरुष के विभिन्न रुपौं का प्रश्न भी उठाता है. अगर नीता बेटा होती तो कहानी क्या होती? कि उस पर परिवार को चलाने की जिम्मेदारी है पर इसका यह अर्थ नहीं कि वह विवाह नहीं कर सकता, तो सकत जैसे समझदार प्रेमी के होते नीता वह क्यों नहीं कर पाती?
शायद शोषण यह नहीं कि नीता नारी है, शोषण यह है कि नीता घर की कमाने वाली हो कर भी परिवार में सम्मान और निर्णय लेने वाला पुत्र का स्थान नहीं पाती बल्कि अपने लिए केवल बाहर की अँधेरी कोठरी पाती है?
फ़िल्म के अंत में शँकर का सड़क पर नीता जैसी एक अन्य लड़की को टूटी चप्पल पहन कर जाते देखता है जो फ़िल्म के कथानक की नीता को उस जैसी शरणार्थी और गरीब परिवारों में रहने वाली सभी युवतियों के शोषण की कहानी बना देती है.
मुझे मालूम है कि कुछ दिनों के बाद यह फ़िल्म अवश्य दुबारा देखूँगा, और जितनी बार देखूँगा कोई और नई बात दिखाई देगी जो पहली बार नहीं दिखी थी.