बुधवार, जून 22, 2005

श्यौराज सिहं बेचैन


बिबियोने के पास घुड़सवारी सेंटर मे घोड़े

छुट्टियाँ इतनी जल्दी बीत रहीं हैं कि पता ही नहीं चला. परसों घर वापस जाने का दिन होगा. इन दिनों मे युनीकोड की इस रघु लिपि मे लिखने का खूब अभ्यास हो रहा है. हिन्दी लिखने की रफ्तार भी तेज हौ गयी है बस १ ही कठिनाइ है कि जो शब्द इतामवी कीबोर्ड की वजह से नहीं लिख पाता हूँ, उन्हें लिखने का तरीका समझ नहीं आया. शूशा लिपि मे अल्ट का बटन दबा कर कुछ नम्बर दबाओ तो अधिकतर शब्द लिखे जाते हैं पर रघु मे यह मुमकिन नहीं लगता.
आज दिन मे जून के हँस मे श्यौराज सिहं बेचैन की आत्मकथा "राहें बदलीं कि जीवन बदलता गया" पढ़ना शुरु किया तो उसे अधूरा छोड़ने का मन ही नहीं किया. नादिया को कहा था कि आज शाम को हम लोग लाइट हाऊस की तरफ लम्बी सैर करने जायेंगे. दोपहर में कुछ देर आराम करने के बाद वो तैयार हो गयी पर मेरा वह आत्मकथा अधूरा छोड़ने का जरा भी मन नहीं था. जब १ घँटे के बाद पुरा पढ़ कर के हँस को बन्द किया तभी चैन आया. रास्ते में घूमते समय भी मन मे बार बार उस आत्मकथा की ही बातें याद आ रहीं थीं.
आज की कविता है इसी आत्मकथा सेः
मेरे बचपन के नाजुक से नन्हे कदम,
जिस तरफ मुड़ गये रास्ता बन गया.
धूप में,
छांव में, शहर में, गांव में,
भूख ले कर चली और मैं चलता गया,
दुख का येहसास
बेचैन करता गया,
मुक्ति का भाव मानस में बढ़ता गया.
पूरा संसार पुस्तक सा
खुलता गया,
जितना पढ़ पाया मैं उतना पढ़ता गया.
इतनी काली अंधेरी विरासत
मिली,
मेरे भीतर का दीपक था जलता गया.
क्या चला मैं जो लाखौं वहीं रुक
गये,
राहें बदलीं के जीवन बदल सा गया.

1 टिप्पणी:

  1. कविता सचमुच बहुत भावपूर्ण है । " राह बदली कि जीवन बदलता गया " ये सूत्र-वाक्य मन को छू गया ।

    अनुनाद

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"जो न कह सके" पर आने के लिए एवं आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

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