इन दिनों में सुपर मार्किट में जाईये तो इतने अकेले पुरुष दिखते हैं चारों तरफ जितने अन्य कभी नहीं दिखते. हर कोई बनी बनायी चीज़ों के डब्बे ढूँढ रहा होता है जिसे बनाने में अधिक कष्ट न करना पड़े.
आजकल हमारे भी विरह के दिन हैं. पत्नी अपनी बहन के साथ समुद्र तट पर छुट्टियाँ मना रही हैं. पुत्र जिनकी छुट्टियाँ तो हैं पर वह घर पर हमारे साथ हैं कहते हैं काम करना है पर मेरा ख्याल है कि काम से ज्यादा अंतरजाल और मित्रों का मोह है जो उन्हें यहाँ रोके हुए है. काम पर जाओ, खरीददारी करो, कभी कुछ सफाई करो, रोज खाना बनाओ और बर्तन साफ करो. सुपुत्र महाशय से अधिक काम की आशा रखना बेकार है, जितना कर दें वही बहुत है. अब समझ में आता है कि घर में रहने वाली स्त्रियों का जीवन कितना कठिन होता है !
आषीश ने मेरे ब्रिटिश शासन के चिट्ठे के बारे में लिखा हैः
मुझे पुराने हमलावरों से, खासतौर से मुगलों से उतनी चिढ़ नहीं है क्योंकि वे आखिरकार भारत की मिट्टी में मिल गये लेकिन अंग्रेज़ तो हमेशा अपने आप को श्रेष्ठ समझते रहे और उन्होंने हमारी हर भारतीय चीज़ या पहचान को पूरी तरह मिटाने की कोशिश की, और हर तरह की गन्दी से गन्दी चाल का सहारा लेकर और देश को आर्थिक रूप से नंगा किया वो अलग।
मुझे याद है कि जब पहली बार मुझे इंगलैंड जाना था तो कुछ ऐसे ही विचार थे मेरे मन में भी. शुरु शुरु में लंदन जा कर वहाँ रहने वाले श्वेत लोगों को देख कर चिढ सी आती थी. शायद हमारी पीढी जो स्वतंत्रा के आसपास या उसके बाद के दस सालों में पैदा हुई उसमें ऐसा सोचने वाले बहुत लोग थे पर मुझे लगता है कि आजकल की पीढी के लिए भारत की पराधीनता केवल किताबों मे पढने की चीज़ है, उसका आम जीवन से कुछ सबंध नहीं है. इन पिछले १८ सालों में मुझे हर वर्ष कम से कम चार या पाँच बार लंदन जाना पड़ता है, वहाँ बहुत मित्र हैं मेरे, जिनमें कई लोग हैं जिनके मामा या चाचा या दादा भारत में ब्रिटिश शासन का हिस्सा बन कर रहे थे. पर उनमें से कई मित्र मुझे बहुत प्रिय हैं, आज मैं उन्हें विदेशी उपनिवेशवादी या भारत का शोषण करने वालों की संतान के रुप में नहीं सोच पाता, बस केवल मित्र हैं क्योंकि हम आपस में गप्प लगा सकते हैं, एक दूसरे को गाली दे सकते हैं, कभी कभी झगड़ा भी कर सकते हैं.
कल सुबह मुझे एक्वाडोर यानि दक्षिण अमेरिका जाना है और जुलाई के अंत में ही वापस आऊँगा. इस लिये इस ब्लोग की १५ दिन की छुट्टी.
चूँकी आज बात चली है विरह की तो आज की तस्वीरें भी उसी रंग में हैं, दो पारिवारिक तस्वीरें दिल्ली के दिनों की याद में.


सुनील जी, काफ़ी अच्छा वर्णन है विरह का। आप सही कहते हैं कि पराधीनता केवल किताबों की चीज़ है अब लेकिन अंग्रेज़ों के साथ जब काम करना पड़ता है तो पता चलता है मानसिकता का। अब मित्र तो मित्र ही हैं, चाहे वो किसी भी ज़माने के हों। मुझे शिकायत इतनी है कि अंग्रेज़ दुनिया भर से उनके भूत के लिये माफ़ी मांगने को बोलते हैं, उदाहरणार्थ जर्मनी को यहूदियों के संहार के लिये, लेकिन उन्होंने खुद कभी किसी से भी माफ़ी नहीं मांगी उनके भारत और अन्य जगहों पर किये गये कुकृत्यों के लिये, असल में उनको नाज़ है उन कामों पर।
जवाब देंहटाएंi love the world antarjaal, mama! then i was wondering if you meant internet or were using it more philosophically for something!
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