दो सप्ताह की यात्रा के बाद वापस आया हूँ. पहले राजधानी कीटो, फिर रियोबाम्बा, फिर कुएंका, फिर ग्वायाकिल और अंत में वापस घर.
नये कीटो को टेक्सी से हवाई अड्डे से आते समय देख कर थोड़ा दुख सा हुआ. चारो तरफ ऊँचे सुदंर पहाड़ और बीच में कैंसर के नासूर की तरह हर तरफ सिमेंट के चकोर घर, एक के ऊपर एक, मधुमक्खियों के छत्तों की तरह, कहीं कोई हरियाली नहीं, कोई खाली जगह नहीं. मैं पुराने कीटो में ठहरा था जहाँ इस शहर का अपना पुराना रुप अभी भी कुछ बचा हुआ हैं. यह हिस्सा सुन्दर है. सड़कें तो ऐसी हैं जो पहाड़ों के ऊपर नीचे जाती हैं और उन पर चलने के लिये अच्छी सेहत का होना जरुरी है. कई बार सड़क ऐसे सीधे ऊपर की ओर जाती है कि यहाँ के रहने वाले भी, रुक रुक कर साँस लेने के लिये मजबूर हो जाते हैं.
शहर के बीचों बीच जहाँ पुराना और नया कीटो मिलते हैं, भारत के नाम का छोटा सा स्क्वायर है जहाँ फुव्वहारों के बीच में लगी गाँधी जी की मूर्ती है. सब जगह यहाँ की जन जाती की गरीब इंडियोस् महिलायें सड़क पर कुछ बेच रही होती हैं और हर तरफ, बहुत सारे बच्चे जो हर जगह स्कूल जाने के बजाय काम में लगे हैं, दिखते हैं. जैसी गरीबी भारत में दिखती है वैसी तो नहीं दिखी पर इन इंडियोस परिवारों की हालत बहुत अच्छी नहीं लगी.
रियोबाम्बा के पास है एक्वाडोर की सबसे ऊँची पर्वत चोटी शिमबोराज़ो. कीटो से रियोबाम्बा की यात्रा के दौरान ही मेरा कैमरा चोरी हो गया इसलिये मन कुछ उदास था. कैमरे के साथ घूमने की इतनी आदत हो गयी है कि कोई भी विषेश चीज़ दिखे तो पहला ख्याल आता है उसकी फोटो लेने का और कैमरे के न होने से मुझे लग रहा था जैसे उस विषेश चीज़ का महत्व कम हो गया हो. जैसे शिमबोराज़ो पहाड़ के सूर्यास्त के समय बदलते हुए रंग. शाम को बादल छंट गये थे और पहाड़ पर गिरी बर्फ की चमक साफ दिख रही थी. पर उसकी सुन्दरता का रस लेने के बजाय मन बार बार यही सोच रहा था कि काश कैमरा होता तो इसकी फोटो लेता. शायद इसीलिये भग्वद् गीता संसार की वस्तुओं से मोह न रखने की शिक्षा देती है और उस चोर ने मुझे यही याद दिलाने के लिये मुझ पर यह चोरी करके उपकार किया है.
रियोबाम्बा से कुएंका की यात्रा सचमुच बहुत ही रोचक और सुंदर है. ऊँचे पहाड़, कभी हलके और गहरे हरे के बीच में अनगिनत रंगो वाले, कभी भूरे, कभी जामुनी, कभी काले से. सुनहरी और भूरी घास से ढ़की वादियाँ, जिनमें रेत रेगिस्तान होने का धोखा दे. लम्बे ऊँचे केक्टस के पेड़ों का जंगल. जामुनी रंग के फ़ूलों से भरी हरी भरी घाटियाँ. पुराने ज्वालामुखियों के बुझे हुये मुख जो आज पानी से भरे हुए हैं और गोलाकार झीलों जैसे लगते हैं. इस यात्रा की कुछ तस्वीरें यहाँ प्रस्तुत हैं.
इन्हीं दिनों मैंने अपनी एक नयी कहानी लिखी है, अनलिखे पत्र, जिसे आप कल्पना में पढ़ सकते हैं. चाहें तो आप इस यात्रा की पूरी डायरी भी वहाँ पढ़ सकते हैं.
मंगलवार, जुलाई 26, 2005
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