शनिवार, जुलाई 30, 2005

सतही सामानतायें और नफरत की जड़ें

हम लोग वेनिस में घूम रहे थे. मुख्य रास्ते को छोड़ कर घरों के बीच हम लोग उस वेनिस में पहुँच गये जहाँ थोड़े ही पर्यटक पहुँचते हैं. चलते चलते आ पहुँचे वेनिस के पुराने गेटो यानि उस भाग में जहाँ ज्यू रहते थे. खुले चकोर स्क्वायर में एक नल लगा हुआ था. सामने एक घर की बालकनी फ़ूलों के बोझ से दबी जा रही थी. तब तक सूरज आसमान में जोर शोर से चमक रहा था और हम लोग गरमी से पस्त हो रहे थे. नल देख कर तुरंत फुर्ती से बढ़े, हाथ मुँह पानी से भिगोने और ठंडा पानी पीने. तभी एक कमरे की खिड़की पर एक युवक प्रकट हुआ जो हमारी तरफ देख रहा था. दो पुलीस वाले भी आ गये जो हमें देख रहे थे. तुरंत कारण समझ में आ गया, रिजु कुरता जो पहने था. ज्यू कोलोनी में अनजानी पोशाक में लड़के को देख कर उन सब का चिंतित होना स्वाभाविक ही था. जाने कोई कट्टरपंथी हो जो कोई बम वगैरा फौड़ने की सोच रहा हो ! उसके बाद हम लोग वहाँ अधिक नहीं रुके.

कुर्ते को देख कर अक्सर ऐसा ही होता है. पिछले हफ्ते एक्वाडोर में जलूस के समय मैंने एक लम्बा नीले रंग का कुर्ता पहना था, गले में ढोलक थी और मैं बिना सुर और ताल की परवाह किये मस्त हो कर उसे बजा रहा था, जब दो व्यक्तियों को अपनी तरफ घूर कर बातें करते देखा. फ़िर उनमें से एक मेरे पास आया और पूछने लगा कि क्या मैं पाकिस्तानी हूँ, मेरे सिर हिलाने पर बोला कि तब तो मैं अवश्य अफगानी हूँ. चाहे उस समय तो मैंने मुस्कुरा कर कह दिया कि नहीं मैं भारतीय हूँ पर मन में कुछ खटक सी रह गयी. उनका यह सोचना कि मैं पाकिस्तानी या अफगानी हूँ मुझे अच्छा नहीं लगा.

शेनोय रिडिफ डाट काम पर अपने लेख में लिखते हैं कि आजकल लंदन में पाकिस्तानी होना बुरा है. स्वयं को लोगों के शक से बचाने के लिए उन्हें लोगों को कहना पड़ा कि वह भारतीय हैं और हिंदू हैं. किस को कहते फ़िरेंगे हम कि हम यह या वह नहीं हैं ? गले में तख्ती लगा लेंगे ? या क्या हम लोग अब अपने आप को अन्य लोगों से भिन्न साबित करने के लिए धोती पहनें या कोई और नयी पोशाक बनायेंगे अपनी ? जब अमरीकी गुंडे बिन लादन के धर्म का समझ कर एक सिख पैट्रोल पम्प के मालिक को मार सकते हैं, क्या उन्हें हमारे भिन्न देशों, सभ्याताओं और धर्मों का पता भी है ?

मेरी मौसी का परिवार पश्चिम बंगाल में पछले पचास सालों से रहता है. जब भारत की प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गाँधी का खून हुआ तो दिल्ली में तो सिख परिवारों पर हमले हुए ही, उनके एक बेटे पर भी हमला हुआ. बाँध कर ज़िंदा जलाने लगे थे उसे, जिसकी दहशत उसके मन में सालों तक बनी रही. वह चिल्लाता रहा कि वह सिख नहीं है पर किसी को उसकी बात सुनने में दिलचस्पी नहीं थी.

अगर शक और डर का वातावरण बनेगा तो इसमे हम सबका नुक्सान है. कट्टरपंथी और इस्लाम की जोड़ी बना कर उन्हें एक सोचना ठीक नहीं है, यह मालूम है मुझे. आधा बचपन मैंने अपने पड़ोसी साजिद भाई के परिवार के साथ बिताया है. जब दिल्ली में दंगे हुए थे तो माँ ने उन्हें कहा था कि आप लोग चिंता न करें, आप लोग हमारे यहाँ आ जाईये, कोई कुछ नहीं कर सकता. पर कल शाम को घर के पास बाग में जब कुत्ते को घुमा रहा था, पाँच लोगो को कोने वाले मकान से निकलते देखा. उनमें से एक को जानता हूँ, रहमान, बँगलादेश से है. सफेद तहमद, सफेद कुर्ता, सिर पर सफेद टोपी. सभी की एक जैसी पोशाक. शायद जुम्में की नमाज के बाद निकल रहे थे. उन्हें इस तरह इक्ट्ठे देख कर मन में कुछ भय सा हुआ. जल्दी से आगे निकल गया, इससे पहले कि रहमान मेरी तरफ देख कर मुस्कुराता या सलाम करने के लिए हाथ उठाता.

(कल के ब्लाग में अर्चना वर्मा की जिस कविता "सौख" का एक अंश दिया था, उसे आप पूरा पढ सकते हैं कल्पनापर.)

वेनिस के ज्यू गेटो में पुलिसवाला

एक्वाडोर में कुर्ता यानि पाकिस्तानी या अफगानी ?

4 टिप्‍पणियां:

  1. दीपक जी, विचारणीय आलेख!
    नफ़रत की जड़ अंतर में नहीं है बल्कि उस अंतर से जुड़ी हुई हिंसा की भावना में है। जब लोग यह देखते हैं कि कोई धर्म, क्षेत्र या विचारधारा विशेष लगातार हिंसात्मक/ध्वंसात्मक कार्यवाहियों में लगी हुई है और उस समूह विशेष में मानवता की बात करने वाला कोई भी नहीं है तब लम्बे समय बाद उनकी छवि खराब होना लाज़मी है। ये स्वाभाविक है और इसे रोकने के लिये उस समूह को सभ्य समाज में सहिष्णुता के साथ रहना और वैविध्य का आदर करना सीखना ही पड़ेगा।

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    1. विषेश समाज या समूह के प्रति इस तरह की भावनाएँ अखबारों या टीवी पर दिखने वाले समाचारों से बनती हैं जिनका हम सब पर गहरा असर पड़ता है. फ़िर चाहे वैचारिक स्तर पर यह समझ हो भी कि सारे समाज या समूह के बारे में इस तरह सोचना गलत है, हम शायद अपने विचारों पर काबू नहीं कर पाते!

      यह समझ में आ सकता है, लेकिन है तो गलत क्योंकि यह सोच समस्या को नहीं समझने देती, केवल सतही स्तर पर दोषी खोजती है.

      हिन्दुओं के बारे में भी पश्चिम में बहुत भ्राँतियाँ हैं, जैसे कि सभी जातिवादी होते हैं, दलितों से अमानवीय व्यवहार करते हैं, इस बात में भी कुछ सत्य तो है, लेकिन हम सब के बारे में लोग यह सोचें क्या यह सही होगा? जो लोग इस तरह सोचते हैं उन्हें कितना भी बताईये, समझाईये, वे नहीं मानते.

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    2. यह भावनाएँ मात्र अखबारों या टीवी पर दिखने वाले समाचारों से ही नहीं बनती बहुत से यथार्थ भी सलग्न होते है।
      असामाजिकता को प्रशय, प्रत्येक बात पर असंतुष्टि का प्रसार, अराजकता प्रेरणा, आक्रोश को महिमामण्डित करना, प्रतोशोध को प्रबल बनानें के विचार फैकना, दमन से शान्ति स्थापना के उपाय प्रसारित करना, हिंसा को कुतर्कों से व्यवहारिक सिद्ध करने का प्रयास करना यह सभी कारण होते है उनकी खराब छवि की स्थापना के। और इस बात में भरपुर सच्चाई होती है मात्र निर्थक प्रसार ही नहीं।

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    3. किस यथार्थ को समाचार पत्र या मीडिया दिखाते हैं, छवियाँ वही बनाते हैं. कोई धर्म किस छवि से जुड़ता है उसमें यथार्थ तो होता है पर एक तरफा

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"जो न कह सके" पर आने के लिए एवं आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

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