"विकलाँगता और विकास" विषय से जुड़ी सँस्था की गोष्ठी थी जिसके लिए लंदन गया था. रास्ते में पढ़ने के लिए जे. कृष्णमूर्ती की पुस्तक जिसमें उनके सीखने और ज्ञान के विषय पर लेख और प्रवचन इत्यादि हैं (J. Krishnamurti, On Learning and knowledge, Penguin books, India), ले कर गया था.
मुझे ऐसी पुस्तक के साथ देखेंगे या घर में रखी योग और आध्यात्मिक विषयों की किताबें देखेंगे तो जरुर सोचेंगे कि अवश्य मुझे इन विषयों में गहरी दिलचस्पी होगी. बात गलत नहीं है, दिलचस्पी तो है पर इस बारे में सच में क्या सोचता हूँ यह कहना मेरे स्वयँ के लिए भी कठिन है. मेरे अंदर के विचार कुछ अंतर्विरोध से जुड़े लगते हैं.
इस पुस्तक में, कृष्णमूर्ती जी "अंदरुनी खालीपन" के आनंद की बात करते हैं, कहते हैं "ज्ञान में ही अज्ञान है", यानि पहले से ग्रहित ज्ञान और अनुभव हमारे हर नये अनुभव को प्रभावित करते हैं, उन्हें नयी, अनछुई दृष्टि से नहीं देखने देते. इस लिए मानव को संग्रहित ज्ञान को भूल कर अंदरुनी खालीपन की चेष्टा करनी चाहिये, जिसमें जो आनंद है वह किसी संसारिक सुख में नहीं हो सकता.
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लंदन में गोष्ठी में मेरी मुलाकात हुई दिल्ली से आये सुबोध गुप्ता से. सुबोध ने बताया कि आजकल वह लंदन में रहते हैं, वह उस सँस्था में काम करने के अलावा योग सिखाने का काम भी करते हैं और भारत में उन्होंने इस विषय में कुछ हद तक ख्याति भी पायी थी, उनके कार्यक्रम कुछ टेलीविज़न पर भी आते थे.
बात "ध्यान" पर हो रही थी और सुबोध मुझे विभिन्न ध्यान के तरीकों के बारे में बता रहे थे. शायद मेरी हिचकिचाहट देखी तो कहने लगे, "ध्यान करने में क्या मिलता है उसे शब्दों में बताना कठिन है, क्योंकि मानव मस्तिष्क उसे समझ नहीं पाता. सोचो कि आसमान कहाँ से शुरु होता है या समय कब शुरु हुआ तो दिमाग इन प्रश्नों का उत्तर नहीं सोच पाता, वही बात है क्योंकि मानव मस्तिष्क उसे समझ नहीं पाता. ध्यान को तो सिर्फ अनुभव किया जा सकता है. अगर मन के सभी प्रश्नों को भूल कर केवल अनुभव कर सको, यही एक रास्ता है."
सुबोध का बोलने का तरीका बहुत मीठा और दिलचस्प है, और उसका यह समझाना कि मानव मस्तिष्क क्यों हर बात को नहीं समझ सकता, बहुत अच्छा लगा.
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पर फ़िर भी मुझे यह नहीं लगता कि मानव जीवन अंदरुनी खालीपन या योग और ध्यान के आनंद की खोज के लिए बना है. मैं तो गुरु नानक के कर्मयोग के मार्ग में अधिक विश्वास रखता हूँ. मैं सोचता हूँ कि भगवान ने यह मानव जीवन क्यों बनाया, जो आत्मा भगवान का अँश थी उसे अपने से दूर क्यों भेजा और क्यों उस आत्मा में से इस जीवन के पहले और बाद में जो भी होता है उसकी याद मिटा दी, केवल इम्तहान सा लेने के लिए कि हम भगवान को याद करते हैं या नहीं, हम मुक्ति का मार्ग ढ़ूँढ़ते हैं या नहीं ?
मेरा विचार है कि मानव जीवन इस लिए नहीं मिलता. मैं मानता हूँ कि जो भगवान हमें मस्तिष्क देता है, इंद्रियाँ देता है, परिवार देता है, वह यह चाहता है कि हम यह जीवन अनुभव कर सकें, उससे भागने की चेष्ठा न करें.
पर साथ ही साथ, यह भी सोचता हूँ कि यह ज़रुरी नहीं कि हर कोई मेरी तरह ही सोचे. शायद, हममें से हर एक के लिए एक अलग रास्ता बना है, किसी के लिए ध्यान और वेराग्य का रास्ता, किसी के लिए कर्मयोग का रास्ता.
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आज की तस्वीरें लंदन की थेम्स नदी (London - Thames) की.
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सुनील जी,
जवाब देंहटाएंबड़ी गूढ़ दुनिया में पहुँच गए। इन बातों पर घंटों मनन हो सकता है। सबसे पहले तो यही कि भगवान का होना मानें या न मानें। मानते हैं तो आप के लिखे गए सभी प्रश्न मन में आते हैं। यदि नहीं मानते तो फिर आदमी का इस जग में आना एक evolutionary बात हो जाती है। फिर मैं कौन और मेरा उद्देश्य क्या है मेरी मर्जी से ही बन जाते हैं जो कि कुछ हद तक जिस समाज में मैं रहता हूँ के नियमों से बंध जाते हैं।
बाकी फिर कभी।