अगर लोकगीतों की बात करें तो अक्सर लोग सोचते हैं कि हम मनोरंजन तथा संस्कृति की बात कर रहे हैं। लेकिन भारतीय समाज में लोकगीतों का ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण स्थान रहा है। जब तक भारत के अधिकांश लोग अनपढ़ थे, तब तक लोकगीतों के माध्यम से ही धर्म और इतिहास की बातें जनसाधारण तक पहुँचती थीं। पिछले कुछ दशकों में, नई तकनीकी व नये संचार माध्यमों के साथ-साथ साक्षरता भी बढ़ी है, इसलिए लोकगीतों के महत्व में बदलाव आया है।
इस आलेख में उत्तरी भारत की लुप्त होती हुई लोक-गीत परम्परा की कुछ चर्चा है, विषेशकर १८५७ के अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध हुए विद्रोह-युद्ध से जुड़े हुए लोकगीतों की बातें हैं।
यह आलेख राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित प्रसिद्ध फिल्मकार अरुण चढ़्ढ़ा की सन् १९९७ की फिल्म "१८५७ के लोकगीत" पर आधारित है। अरुण ने इस फिल्म को भारत की स्वतंत्रता की पच्चासवीं वर्षगांठ के संदर्भ में बनाया था। इस फिल्म की अधिकतर शूटिन्ग राजस्थान, उत्तरप्रदेश तथा मध्यप्रदेश के बुंदेलखंडी क्षेत्रों तथा बिहार में की गई थी और इसे दूरदर्शन पर दिखाया गया था।
इस फिल्म को बनाने में बुंदेलखंडी लोक संस्कृति के प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त (१९३१-२००३) और राजस्थानी लोगसंगीत के विशेषज्ञ पद्मश्री कोमल कोठारी (१९२९-२००४) ने विषेश योगदान दिया था - नीचे के इस पहले वीडियो में कोमल कोठारी जी फिल्म के महत्व के बारे में बताते हैं:
यह लोकगीत खड़ी बोली, राजस्थानी, बुंदेलखंडी, मगही, भोजपुरी, उर्दू तथा अन्य स्थानीय भाषाओं में गाये जाते थे। इस तरह की कुछ कविताएँ और १८५७ के लोकगीतों से सम्बंधित अन्य जानकारी, आप को डॉ. सुरेन्द्र सिंह पोखरण की वैबसाईट "क्रांति १८५७", सुनील कुमार यादव का आलेख, समालोचन पर मैनेजर पाण्डेय का आलेख, डॉ. महिपाल सिंह राठौड़ का आलेख, आदि में भी मिल सकती है।
मेरा यह आलेख उपरोक्त आलेखों से थोड़ा सा भिन्न है क्योंकि इसमें आप अरुण चढ़्ढ़ा की फिल्म से ऐसे ही कुछ गीतों के अंशों को सुन भी सकते हैं और पुराने लोकगीतों की भाषा का अनुभव कर सकते हैं। (इसके अतिरिक्त अरुण की एक अन्य फ़िल्म है जिसमें उन्होंने संस्कृत, प्राकृत, हिंदी और अन्य उत्तर भारतीय भाषाओं की बात की थी, आप उसके बारे में भी पढ़ सकते हैं )
फिल्मकार अरुण चढ़्ढ़ा से बातचीत
नवम्बर २०२२ में मैंने यह फिल्म देखी और अरुण से इसके बारे में जानकारी पूछी थी (नीचे तस्वीर में २०१२ में भारत के उपराष्ट्रपति से फिल्मकार श्री अरुण चढ़्ढ़ा को राष्ट्र पुरस्कार)।अरुण चढ़्ढ़ा: "उत्तरी भारत में लोकगीत गाने की विभिन्न परम्पराएँ हैं, जिनमें १८५७ के समय पर गाये जाने वाले कुछ गीत आज से कुछ दशक पहले तक सुनने को मिल जाते थे। लेकिन तब भी गाँवों में रेडियो-टीवी-सिनेमा के आने से धीरे-धीरे लोकगायकी के मौके कम होने लगे थे और इनके गायक दूसरे काम खोजने लगे थे। मुझे लगा कि उनकी विभिन्न गायन शैलियों की जानकारी को सिनेमा के माध्यम से बचा कर रखना महत्वपूर्ण है।
हमने एक बार खोज करनी शुरु की तो बहुत सी जानकारी मिली। जैसे कि बिहार में जगदीशपुर नाम की जगह पर राजा कुँवर सिंह थे, उनकी अंग्रेज़ों से लड़ाई के बारे में बहुत से गीत सुनने को मिले थे। हम लोग उनके गाँव में उनके परिवार के घर पर गये, वहाँ उनके पड़पोते ने अपने पूर्वज कुँवर सिंह की गाथा से जुड़े बहुत से गीतों को एक किताब में जमा किया था।
जैसा कि लोकगीतों में अक्सर होता है, यह कहना कठिन है कि इन लोकगीतों को कब लिखा गया और इन्हें किसने लिखा। अंग्रेज़ों को यह समझ नहीं आये कि इन गीतों में स्वतंत्रता तथा क्रांति की बाते हैं, उसके लिए भी तरीके खोजे गये, जैसे कि इन्हें फाग शैली में होली के समय गाना या बीच में "हर हर बम" जैसी पंक्ति जोड़ देना ताकि सुनने वाले को लगे कि यह शिव जी का भजन है।
मेरी फिल्म में पाराम्परिक लोकगायकों तथा उनके पाराम्परिक वाद्यों को देखा जा सकता है, जोकि धीरे-धीरे लुप्त हो रहे हैं, क्योंकि अब वाद्य बनाने वाले और बजाने वाले, दोनों के पास आजकल टीवी और सिनेमा आदि की वजह से काम कम है। दिल्ली हाट और सूरजकुंड मेला जैसी जगहों से उन्हें कुछ काम मिल जाता है लेकिन जब उनके लोक संगीत का आज के जीवित लोक-जीवन से सम्पर्क टूट जाता है, तब उनके पुराने गीतों के शब्द भी खोने लगते हैं, क्योंकि यह गीत मौखिक याद किये जाते हैं, किसी कॉपी-किताब में नहीं लिखे जाते।"
फिल्म में राजस्थान के लोकगीत
फिल्म का पहला भाग राजस्थान के लोकगीतों पर केन्द्रित है। इस भाग में राजस्थान के प्रसिद्ध लोकसंगीत विशेषज्ञ पद्मभूषण-सम्मानित, श्री कोमल कोठारी (१९२९-२००४) ने सूत्रधार के रूप में इन लोकगीतों का परिचय दिया था। शास्त्रीय संगीत की तरह लोकगीतों की गायकी के भी विशिष्ठ शैलियाँ होती हैं और हर शैली के लिए सही लोक-गायक खोजना कठिन था, इस काम में श्री कमल कोठारी का योगदान बहुत महत्वपूर्ण था।
१८५७ में अंग्रेज़ों से विद्रोह करने वालों में राजस्थान के पाली जिले के आउवा गाँव के शासक ठाकुर कुशाल सिंह भी थे। उन्होंने सितम्बर १८५७ में दो बार अंग्रेज़ी फौज को हराया। जनवरी १८५८ में जब अंग्रेज़ों ने तीसरा हमला किया तब अपनी पराजय होती देख कर कुशाल सिंह अपने राज्य को अपने छोटे भाई को दे कर आउवा से चले गये। आउवा गाँव भिलवाड़ा और जोधपुर के बीच में पड़ता है। फिल्म में दिखाये गये आउवा के गीत की कुछ शूटिन्ग आउवा गाँव में ठाकुर कुशाल सिंह की हवेली में की गई थी।
इस आउवा विद्रोह से जुड़े कई गीत अरुण की फिल्म के पहले भाग में मिलते हैं। इसी क्षेत्र में १८०८ में अंग्रेज़ों के विरुद्ध एक ठाकुर का एक अन्य विद्रोह हो चुका था, कुछ गीतों में उस पहले विद्रोह का ज़िक्र भी है।
फिल्म में आउवा के बारे में एक फाग-गीत है जिसे लंगा घुम्मकड़ जाति के लोकगायकों ने लंगा शैली में गाया है (फाग केवल पुरुष गाते हैं लेकिन घुम्मकड़ जातियों में इन्हें औरतें भी गाती हैं।) यह गीत फरवरी-मार्च यानि फल्गुन के महीने में गाते हैं। नीचे के वीडियो में इस फिल्म से लंगा गायकी का छोटा सा नमूना प्रस्तुत है।
राजस्थान की पड़-गायकी में दो गायक बारी-बारी से प्रश्नोत्तर के अंदाज़ में गाते हैं और इनके पराम्परिक वाद्य को रावणहत्था कहते हैं (यानि उनके अनुसार यह वाद्य रावण के कटे हुए हाथ से बना है और रामायण काल से चला आ रहा है)। आजकल इस तरह के पाराम्परिक वाद्यों को बनाने तथा बजाने वाले दोनों कठिनाई से मिलते है। नीचे के वीडियो में पड़-गायकी का छोटा सा नमूना जिसे घुम्मकड़ जाति के गायक गा रहे हैं, इस गीत में किसी अंग्रेज़ छावनी पर हमले की बात है। इस वीडियो में आप रावणहत्था वाद्य को भी सुन सकते हैं।
१८५७ से जुड़े कुछ लोकगीत राजस्थान की पाराम्परिक डिन्गल तथा पिन्गल शैली में थे, जिन्हें बाँकेदास जी और सूर्य बनवाले जैसे चारण कवियों ने लिखा था और इस फिल्म में डॉ. शक्तिदान कविया ने गाया था। डिन्गल भाषा व गायन शैली पश्चिमी राजस्थान में प्रचलित थी जबकि पिन्गल शैली पूर्वी राजस्थान में थी। नीचे वीडियो में शक्तिदान कविया की डिन्गल गायकी का छोटा सा नमूना है।
ऐसी ही एक अन्य शैली भरतपुर क्षेत्र में भी प्रचलित थी जिसमें चारण कवियों द्वारा लिखे फगुवा गीत होली के मौके पर गाये जाते थे। इन सभी गीतों और गाथाओं में कविताएँ और दोहों का प्रयोग होता है।
बुंदेलखंड और बिहार के लोकगीत
अरुण की फिल्म का दूसरा भाग अधिकतर बुंदेलखंड तथा बिहार में केन्द्रित है। इन गीतों में एक प्रमुख नाम था कुँवर सिंह का। इस फिल्म का कुँवर सिंह से जुड़ा एक हिस्सा बिहार में उनके गाँव जगदीशपुर में उनके घर में भी शूट किया गया था, जहाँ आज उनके वंशज रहते हैं।
बुंदेलखंड वाला हिस्सा झाँसी, टीकमगढ़, छत्तरपुर, बाँदा आदि क्षेत्रों में था लेकिन कानपुर तक जाता था। टीकमगढ़ में इस फिल्म में प्रसिद्ध ध्रुपद गायिका पद्मश्री असगरी बाई (१९१८-२००६), जो अपने समय में ओरछा की राजगायिका रह चुकी थीं, ने भी हिस्सा लिया था। फिल्म में वह लेद शैली में गाती हैं, लेद शैली की खासियत थी कि इसे शास्त्रीय तथा लोकगीत दोनों तरीकों से गा सकते हैं, जिसे वह जानती थीं। नीचे वाले वीडियो में इस फिल्म से सुश्री असगरी बाई की गायकी का छोटा सा नमूना।
इन लोकगीतों में १९४२ के बुंदेला विद्रोह से ले कर झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की कहानियाँ थीं।
मराठा राज्य के बाद जब बुंदेलखंड पर अंग्रेज़ों का राज हुआ तो उन्होंने राजस्व कर को बढ़ा दिया। १९३६ के बुढ़वा मंगल मेले में विद्रोह की बात शुरु हुई जिसमें जैतपुर के राजा परिछत (पारिछित या परीक्षित) द्वारा सागर की अंग्रेज़ छावनी पर हमला करने का निर्णय लिया गया था, जिसे बुंदेला विद्रोह के नाम से जाना जाता है। इन लोकगीतों में उसी छावनी पर हमले की बात की गई है।
इन गीतों में हरबोलों द्वारा गाया राजा परिछित द्वारा छावनी पर हमले के गीत भी हैं जिनमें हर पंक्ति के बाद "हर हर बम" जोड दिया जाता है। बुंदेलखंड में लोकगीत गायकों ने यह "हर हर बम" जोड़ने का तरीका अपनाया था जिसकी वजह से लोग उन्हें "बुंदेली हरबोले" के नाम से जानने लगे थे। सुभद्रा कुमारी चौहान की प्रसिद्ध कविता "बुंदेले हरबोलों के मुख हमने सुनी कहानी थी", इन्हीं लोकगायकों की बात करती थी।
राजा परिछित की कहानी पर अरुण की फिल्म में एक गीत राजस्थानी पड़-गायकी से मिलती-जुलती बुंदेलखंड की सैर-गायकी शैली में भी है जिसमें दो लोग मिल कर गाते हैं। इस लोकगीत के लिए गायकों की खोज बहुत कठिन थी क्योंकि काम न होने से वे गायक अन्य कामों में लग गये थे। आखिरकार, एक गाँव से एक रंगरेज मिले थे, जिनके परिवार में यह गायकी होती थी जिसे वह भूले नहीं थे और वह इसे गाने के लिए तैयार हो गये थे। आज सैर-गायकी के गायक खोजना और भी कठिन होगा।
फिल्म में मूंज, लेघ, आदि शैलियों में भी लोकगीत हैं, शायद स्थानीय लोग इनकी बारीकियों को समझ सकते हैं। जैसे कि एक गीत में मसोबा की आल्हा शैली में रानी लक्ष्मीबाई के बारे में गाया गया है।
अंत में
अरुण की इस फिल्म के दोनों भागों में उत्तर भारत की लोकगीत-शैलियों के इतने सारे नमूने मिलते हैं कि उनकी विविधता पर अचरज होता है, लेकिन सोचूँ तो लगता है कि यह फिल्म भारत के कुछ छोटे से हिस्सों की परम्पराओं को ही दिखाती हैं, बाकी भारत में जाने कितनी अन्य शैलियाँ थीं, जो लुप्त हो गईं या लुप्त हो रहीं होंगी। शायद सहपीडिया जैसी कोई संस्थाएँ हमारी इस सांस्कृतिक धरोहर को भविष्य के लिए संभाल कर रख रही हों, लेकिन वह संभाल भी संग्रहालय जैसी होगी, वे जीते-जागते लोक-जीवन और लोक-संस्कृति का हिस्सा नहीं होगीं।
नीचे के आखिरी वीडियो में कुँवर सिंह के बारे में एक भोजपुरी गीत का छोटा सा अंश है, जो मुझे बहुत अच्छा लगता है।
आज इंटरनेट पर नर्मदा प्रसाद गुप्त, कोमल कोठारी, शक्तिदान कविया, असगरी बाई जैसे लोगों की कोई रिकोर्डिन्ग नहीं उपलब्ध, कम से कम उस दृष्टि से अरुण की फिल्म में उनका कुछ परिचय मिलता है। मेरे विचार में ऐसी फिल्मों में भारत की सांस्कृतिक धरोहर का इतिहास है इसलिए दूरदर्शन को ऐसी फिल्मों को इंटरनेट पर उपलब्ध करना चाहिये।
इसके अतिरिक्त अरुण की एक अन्य फ़िल्म है जिसमें संस्कृत, पालि, पाकृत, हिंदी, और उत्तर भारतीय भाषओ-बोलियों के जन्म की बात की गई है, आप उसके बारे में भी इसी ब्लॉग में एक अन्य आलेख में पढ़ सकते हैं - जिस तरह हम बोलते हैं (इसमें भी फ़िल्म के कुछ वीडियो-क्लिप देख भी सकते हैं)।
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