सोमवार, मार्च 20, 2006

देबाषीश का लेख

१२ मार्च के जिस लेख की बात की थी वह जनसत्ता में नहीं अंग्रेजी के अखबार The Asian Age (sunday supplement) में निकला था. क्योंकि हिंदी के चिट्ठों की बात थी, और मुझे मालूम था कि छोटी बहन का यहाँ "जनसत्ता" आता है, मैंने स्वयं ही तुक लगा लिया था कि लेख जनसत्ता में निकला होगा.

उस लेख को स्केन करके आपको दिखाने में मैं असमर्थ हूँ पर शायद कोई उसे The Asian Age के वेबपृष्ठ से ढ़ुँढ़ सकता है ? मैंने कोशिश की पर सफलता नहीं मिली.

रविवार, मार्च 19, 2006

लंदन में आत्मिक दर्शन

"विकलाँगता और विकास" विषय से जुड़ी सँस्था की गोष्ठी थी जिसके लिए लंदन गया था. रास्ते में पढ़ने के लिए जे. कृष्णमूर्ती की पुस्तक जिसमें उनके सीखने और ज्ञान के विषय पर लेख और प्रवचन इत्यादि हैं (J. Krishnamurti, On Learning and knowledge, Penguin books, India), ले कर गया था.

मुझे ऐसी पुस्तक के साथ देखेंगे या घर में रखी योग और आध्यात्मिक विषयों की किताबें देखेंगे तो जरुर सोचेंगे कि अवश्य मुझे इन विषयों में गहरी दिलचस्पी होगी. बात गलत नहीं है, दिलचस्पी तो है पर इस बारे में सच में क्या सोचता हूँ यह कहना मेरे स्वयँ के लिए भी कठिन है. मेरे अंदर के विचार कुछ अंतर्विरोध से जुड़े लगते हैं.

इस पुस्तक में, कृष्णमूर्ती जी "अंदरुनी खालीपन" के आनंद की बात करते हैं, कहते हैं "ज्ञान में ही अज्ञान है", यानि पहले से ग्रहित ज्ञान और अनुभव हमारे हर नये अनुभव को प्रभावित करते हैं, उन्हें नयी, अनछुई दृष्टि से नहीं देखने देते. इस लिए मानव को संग्रहित ज्ञान को भूल कर अंदरुनी खालीपन की चेष्टा करनी चाहिये, जिसमें जो आनंद है वह किसी संसारिक सुख में नहीं हो सकता.
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लंदन में गोष्ठी में मेरी मुलाकात हुई दिल्ली से आये सुबोध गुप्ता से. सुबोध ने बताया कि आजकल वह लंदन में रहते हैं, वह उस सँस्था में काम करने के अलावा योग सिखाने का काम भी करते हैं और भारत में उन्होंने इस विषय में कुछ हद तक ख्याति भी पायी थी, उनके कार्यक्रम कुछ टेलीविज़न पर भी आते थे.

बात "ध्यान" पर हो रही थी और सुबोध मुझे विभिन्न ध्यान के तरीकों के बारे में बता रहे थे. शायद मेरी हिचकिचाहट देखी तो कहने लगे, "ध्यान करने में क्या मिलता है उसे शब्दों में बताना कठिन है, क्योंकि मानव मस्तिष्क उसे समझ नहीं पाता. सोचो कि आसमान कहाँ से शुरु होता है या समय कब शुरु हुआ तो दिमाग इन प्रश्नों का उत्तर नहीं सोच पाता, वही बात है क्योंकि मानव मस्तिष्क उसे समझ नहीं पाता. ध्यान को तो सिर्फ अनुभव किया जा सकता है. अगर मन के सभी प्रश्नों को भूल कर केवल अनुभव कर सको, यही एक रास्ता है."

सुबोध का बोलने का तरीका बहुत मीठा और दिलचस्प है, और उसका यह समझाना कि मानव मस्तिष्क क्यों हर बात को नहीं समझ सकता, बहुत अच्छा लगा.
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पर फ़िर भी मुझे यह नहीं लगता कि मानव जीवन अंदरुनी खालीपन या योग और ध्यान के आनंद की खोज के लिए बना है. मैं तो गुरु नानक के कर्मयोग के मार्ग में अधिक विश्वास रखता हूँ. मैं सोचता हूँ कि भगवान ने यह मानव जीवन क्यों बनाया, जो आत्मा भगवान का अँश थी उसे अपने से दूर क्यों भेजा और क्यों उस आत्मा में से इस जीवन के पहले और बाद में जो भी होता है उसकी याद मिटा दी, केवल इम्तहान सा लेने के लिए कि हम भगवान को याद करते हैं या नहीं, हम मुक्ति का मार्ग ढ़ूँढ़ते हैं या नहीं ?

मेरा विचार है कि मानव जीवन इस लिए नहीं मिलता. मैं मानता हूँ कि जो भगवान हमें मस्तिष्क देता है, इंद्रियाँ देता है, परिवार देता है, वह यह चाहता है कि हम यह जीवन अनुभव कर सकें, उससे भागने की चेष्ठा न करें.


पर साथ ही साथ, यह भी सोचता हूँ कि यह ज़रुरी नहीं कि हर कोई मेरी तरह ही सोचे. शायद, हममें से हर एक के लिए एक अलग रास्ता बना है, किसी के लिए ध्यान और वेराग्य का रास्ता, किसी के लिए कर्मयोग का रास्ता.
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आज की तस्वीरें लंदन की थेम्स नदी (London - Thames) की.


सोमवार, मार्च 13, 2006

विक्रम और बेताल

कोई आप से पूछे कि विक्रम सँवत के अनुसार यह कौन सा सन है या कौन सा महीना है, तो क्या आप बता पायेंगे ? शायद भारत में आज विक्रम सँवत की जानकारी या तो पँडितों को होगी या गाँव में रहने वाले लोगों को, अतरजाल पर घूमने वालों को इसके बारे में मालूम होगा, मुझे नहीं लगता.

पर भारतीय विक्रम सँवत नेपाल में आज भी खुली हवा में सिर ऊँचा कर के जी रहा है. इसके हिसाब से यह सन है 2062 और यह महीना है फागुन. फागुन के अंतिम दिन, बुधवार को होली है.

चैत, वेशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, सावन, भादों जैसे विक्रम सँवत के महीनों के नाम हमारे लोक गीतों और पुरानी फिल्मों के गानों में कभी कभी सुनाई दे जाते हैं, पर किसी को उनका अर्थ शायद ही समझ आता हो.

प्रचलित इसाई कैलेण्डर से 62 साल अधिक पुराना विक्रम सँवत किसने बनाया और क्यों, मुझे ठीक से मालूम नहीं. विक्रमादित्य बड़े सम्राट थे भारत के, उज्जेन में रहते थे यही मालूम है और बचपन में चंदा मामा में पढ़ी विक्रम और बेताल की कहानियाँ कुछ याद हैं और कौन थे विक्रमादित्य, क्या किया उन्होंने कि उन्हें भारतीय जनता ने इतना सम्मान दिया, यह नहीं मालूम. उनके मुकाबले में उनसे 400 साल पहले के बुद्ध और अशोक के बारे में अधिक जानकारी मिल जाती है.
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बहुत दिनों से नया फोटो ब्लोग बनाने की इच्छा थी, जिसमें लिखना कम पड़े बस फोटो चिपका देने से ही काम हो जाये. आखिरकार, कल यह इच्छा भी पूरी हो गयी. मेरे नये फोटो ब्लोग का नाम है छायाचित्रकार, जो अधिकतर अँग्रेजी में होगा पर कुछ कुछ हिंदी में भी.
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कल शायद हिंदी के दैनिक जनसत्ता में देवाषीश का चिट्ठा जगत के बारे में एक लेख छपा है. मुझे मालूम तब चला जब दिल्ली से छोटी बहन का टेलीफोन आया, बोली, "तुम्हारे हिंदी के ब्लोग का क्या नाम है ?" मैंने जब बताया तो वह खुशी से बोली, "वाह, तुम्हारे ब्लोग के बारे में तो अखबार में निकला है! किसी देवाषीश का लेख है और हिंदी में अच्छा लिखने वालो में से तुम्हारा नाम भी है."

धन्यवाद देवाषीश. मैंने तो कितनी बार बताया सब को मैं हिंदी में लिख रहा हूँ पर उसका उतना असर नहीं हुआ जितना तुम्हारे लेख का हुआ. शायद हम अंतरजाल पर घूमने वालों को अखबार का महत्व न ठीक समझ में आता हो पर बहुत से लोगों के लिए जब कोई बात अखबार में निकलती है तभी उसका महत्व बनता है!
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आज जो तस्वीरें पिछले वर्ष के बोलोनिया के ग्रीष्म ऋतु फैस्टीवल से.

शनिवार, मार्च 11, 2006

नेपाली, हिंदी और भूमंडलीकरण

नेपाल में अंग्रेज़ी का प्रचलन, भारत के मुकाबले बहुत कम है. शहर में, गाँवों में बोली जानी वाली नेपाली भाषा, मुझे बहुत अच्छी लगी.

भारत जाता हूँ तो शहर में सब लोग हिंदी और अंग्रेज़ी की खिचड़ी बोलते हैं, मैं स्वयं भी हर वाक्य में कुछ न कुछ अंग्रेज़ी शब्द मिलाये नहीं बोल पाता. यह भी लगता है कि हमारी भाषा हिंदी कम और हिंदुस्तानी अधिक है, बहुत से शब्द जो संस्कृत से आते हैं वह केवल दूरदर्शन के समाचार बुलेटिन में सुनाई देते हैं, जबकि सामान्य बातचीत की नेपाली में संस्कृत का असर अधिक दिखता है.

मेरे कहने का यह अर्थ नहीं कि हमें हिंदी को बदलना चाहिये या उसमें अधिक संस्कृत से आये शब्दों का प्रयोग करना चाहिये, मैं तो केवल भाषा की विविधता की सुंदरता की बात कर रहा हूँ. यह दुनिया सुंदर है क्योकि विविध है, अलग भाषाएँ, अलग संस्कृतियाँ, अलग वेष भूषा, अलग धर्म, अलग रीति रिवाज़ों से बनी है.

ऐसे में भूमंडलीकरण दुनिया को एक जैसा बना रहा है, और हमारी विभिन्नताएँ धीरे धीरे गुम हो रही हैं.

पर जैसे हिंदी अंग्रेज़ी से प्रभावित हो रही है और भारत में अंग्रेज़ी का बोलबाला पढ़ रहा है, वैसे ही नेपाल में खतरा है नेपाली के हिंदीकरण का. दूर छोटी जगहों पर भी, शाम को जहाँ टेलीविज़न होते हैं वहाँ लोग स्टार, ज़ी और सोनी के हिंदी के सास बहू वाले सीरियल देखते हैं. देख कर यही डर लगा कि क्या किसी दिन हमारी हिंदी और अंग्रेज़ी की खिचड़ी नेपाली पर हावी तो नहीं हो जायेगी ?

शुक्रवार, मार्च 10, 2006

काम है साधू

काठमाँडू का पशुपतिनाथ का मंदिर हिंदू धर्मवासियों के लिए विषेश महत्व रखता है. जिन दिनों में काठमाँडू में था, उन दिनों में शिवरात्री भी थी इसलिए दूर दूर से भक्त मंदिर में दर्शन के लिए पहुँचे थे. सुना कि शिवरात्री की रात को मंदिर में पाँच लाख से अधिक लोग थे और कई लोग घँटों वहाँ फँसे रहे, बाहर नहीं निकल पाये. मैं उस दिन तो काठमाँडू से बाहर औखलढ़ुँगा में था पर दो दिन बाद मंदिर जाने की सोची.

मेरे एक नेपाली मित्र ने सलाह दी कि पशुपतिनाथ के दर्शन के बाद, पशुपति की संगिनी ज्यूएश्वरी (शायद नाम मुझे ठीक याद नहीं) का मंदिर देखना न भूलूँ, जो पशुपतिनाथ के सामने ही बागमति नदी की दूसरी ओर है. कहते हैं कि जब शिव जी मृत पत्नी के शरीर को ले कर भटक रहे थे तो उस जगह पर उसके शरीर का एक हिस्सा गिरा था.

पशुपतिनाथ में अभी भी भीड़ बहुत थी. मंदिर के भीतर तो फोटो खींचना मना है पर बाहर से जब फोटो खींच रहा तो वहाँ बैठे एक साधू जी बोले, "तस्वीर खींच कर उसे अखबार में छपा कर पैसे ले लोगे और हम यहाँ खाली हाथ बैठे रहेंगे." तो मन में आया कि शायद आज साधू बनने का अर्थ जग त्याग नहीं, दान पर जीवन गुज़ारना नहीं, एक तरह का काम ही है जिसकी सही "तनखाह" मिलनी चाहिये ?

थोड़ी दूर आया तो एक अन्य साधू जी ने मेरे माथे पर तिलक लगाया और कहने लगे कि कम से कम सौ रुपये लेंगे. तो फ़िर वही "साधू का काम" की बात मन में आयी.

पशुपतिनाथ के मंदिर के हज़ारों बंदर और बाहर नदी के किनारे पंक्ति मे बने अनेक छोटे शिवलिंग वाले मंदिर मुझे बहुत अच्छे लगे.



पशुपतिनाथ के दर्शन के बाद हम लोग ज्यूएश्वरी गये. जीवन में पहली बार स्त्री शक्ति का मंदिर देखा जिसमें शिवलिंग नहीं योनी पूजा होती है और एक पुजारिन उसकी देखभाल करती है. मंदिर में अधिकाँश मूर्तियाँ भी देवियों की ही हैं.

मंदिर से निकले तो शाम हो रही थी. तब नदी के किनारे एक अनोखा दृष्य देखा. भगवे वस्त्र पहने एक साधू महाराज उठे और अपनी चद्दर, कंबल लपेट कर, भगवे वस्त्र उतार कोट पैंट पहन रहे थे. सच है कि उन दिनों काठमाँडू में शाम को सर्दी हो जाती थी तो उनके कोट पैंट पहनने को दोष नहीं देता पर फ़िर दोबारा वही बात मन में आईः साधू बनना भी काम है, अब काम का समय समाप्त हुआ तो कपड़े बदलो और घर चलो.

इस तस्वीर में वह साधू जी पेड़ के सामने दिखेंगे. मैंने जानबूझ कर दूर की तस्वीर रखी हैं क्योंकि मेरे विचार में उनकी भी अपनी प्राईवेसी है.



मन में एक और शक भी आया था कि शायद वह साधू नहीं कोई शोधकर्ता हों जो साधू का भेस बना कर साधू जीवन पर शोध कर रहे हों ?

गुरुवार, मार्च 09, 2006

नेपाल: पर्वतों के बीच हाँफते

२२ फरवरी को काठमाँडू पहुँचा तो मन में कुछ डर सा था. जिस महिला संगठन के साथ काम के लिए गया था, उन्होंने पहले ही सूचना दे दी थी कि आजकल किसी को काठमाँडू हवाई अड्डे पर लेने आना आसान नहीं और कहा था कि मुझे बाहर आ कर अपने होटल की गाड़ी को खोज कर अपने सब काम स्वयं ही करने होंगे.

खैर नेपाल की अंदरुनी स्थिति का एक फायदा तो हुआ, विदेशी पर्यटकों की संख्या बहुत कम हो गयी है, इसलिए हवाई अड्डे पर पासपोर्ट की जाँच कराने में देर नहीं लगी. बाहर निकला तो सब तरफ पुलिस या मिल्टरी दिखाई दी. होटल काँतीपथ पर था जहाँ से दरबार चौक दूर नहीं इसलिए होटल पहुँच कर तुरंत बाहर घूमने निकल पड़ा. लोगों की भीड़ देख कर मन की चिता दूर हुई. लगा कि चाहे विदेशी पर्यटक कम थे पर देश की राजनीतिक परेशानियों ने काठमाँडू के साधारण जीवन पर बहुत अधिक असर नहीं डाला था.



माओवादियों से झगड़ा तो बहुत सालों से चल रहा था, नेपाल के राजा फरवरी २००५ द्वारा पार्लियामेंट को भंग करके, संविधान बदलने और सभी राजनीतिक दलों के नेताओं को जेल में डालने से स्थिति बहुत बिगड़ गयी है. पिछले दिनों में राजनीतिक दलों ने माओवादियों से मिल कर एग्रीमेंट बनाया था पर अमरीकी सरकार इसके विरुद्ध है क्योंकि उनका कहना है कि माओवादी सशस्त्र क्राँती की बात करते हैं और रोज कहीं न कहीं बम फोड़ते हैं, उनसे समझोता नहीं किया जा सकता.

पिछले दिनों माओवादियों के नेता प्रचन्नदा बीबीसी पर एक साक्षात्कार भी दिया जिसमें उन्होने हिंसा का मार्ग छोड़ने की बात भी की पर यह भी सच है कि देश के विभिन्न भागों में माओवादियों को वह हिंसा के कामों से नहीं रोक पाते हैं.

१३ मार्च से माओवादियों ने एक सप्ताह के लिए काठमाँडू बंद की चेतावानी दी है और अगर राजा ने देश की राजनीतिक स्थिति को नहीं सुधारा तो ४ अप्रेल को बड़ा आक्रमण करने की धमकी दी है.

जब मुझे किसी ने कहा कि मेरी सूरत माओवादी नेता प्रचन्न दा से मिलती है तो मुझे बहुत चिता हुई. मेरा विचार देश के विभिन्न भागों में जा कर गाँवों में महिलाओं की स्थिति को देखना और समझना था, वहाँ कोई मिल्ट्री वाला मुझे माओवादी नेता समझ कर पकड़ लेगा या मार देगा तो क्या होगा ?

इस चित्र में दरबार चौक पर एक सिपाही.


२३ फरवरी को मैं अपनी यात्रा पर निकल पड़ा. पहले काठमाँडू के उत्तर पूर्व में ओखलढ़ुंगा जिले में गये जहाँ पाँच दिनो तक विभिन्न गाँवों में घूमे. फिर काठमाँडू से ३५ किमी दूर छाईमल्ले के गाँवों में घूमा. तराई में रुपनदेही और कपिलवस्तु जिलों में जाने का कार्यक्रम सुरक्षा स्थिति की वजह से नहीं हो पाया, पर वहाँ मैं पहले कई बार जा चुका था.

पहाड़ों पर चलने की आदत नहीं थी, इसलिए हाँफ हाँफ कर बुरा हाल हो गया. दिन भर एक गाँव से दूसरे गाँव घूमना, पिछड़ी जनजातियों जैसे शेरपा, मगर, राई इत्यादि के परिवारों और महिला समूहों से बात करना, सादा दाल भात खाना और रात को जहाँ जगह मिले वहाँ सो जाना, प्रतिदिन यही होता था. खुशी की बात यह हुई कि कुछ किलो वज़न कम हो गया.

जहाँ मैं कदम कदम पर दमें के मरीज़ की तरह हाँफ रहा होता था वहीं इन पहाड़ों में रहने वाले भारी सामान उठाये घँटों चलते थे. सच यहाँ का जीवन बहुत कठिन है.


महिला समूहों की सभाओं में गरीब औरतें दूर दूर से आतीं, अपनी परेशानियाँ सुनाने और अपने काम के बारे में बताने. पुरुष निर्देशित समाज में गरीब महिलाओं की समस्याएँ नहीं बदलती - शराब, मारपीट, दूसरा विवाह, खाना पानी का जुगाड़, बच्चों की शिक्षा. इस चित्र में ओखलढ़ुंगा जिले के दाँडागाँव में एक महिला सभा.

नेपाल की इस यात्रा को भुलाना आसान नहीं. चित्रमय प्राकृतिक सुंदरता, पहाड़ों में रहने वाले लोगों का सादा कठिन जीवन और साथ ही सभी कठिनाओं से लड़ कर अपना जीवन सुधारने की लड़ाई, उनकी सरल मुस्कान और अतिथि के लिए स्वागत, कैसे भुला पाऊँगा ? पर लोगों की इन सुखद यादों के साथ देश की स्थिति पर चिंता भी होती है. गरीबी और पिछड़ेपन से निकलने के लिए नेपाल को लड़ाई नहीं विकास की आवश्यकता है.

काठमाँडू की बागमति नदी, नदी कम नाला अधिक लगती है. काठमाँडू से बाहर निकलिये तो पहाड़ों के बीच बहती यही बागमति अपनी सुंदरता से सचमुच की नदी बन जाती है. पर पास जा कर देखा तो पहाड़ों में भी बहते बागमति के पानी पर भी रसायनिक झाग दिखता है. नेपाल स्वर्ग सा देश है पर लगा कि स्वर्ग में जहर फैल रहा है और इस जहर को नेपालवासी जितनी जल्दी रोक पायेंगे उतना ही अच्छा होगा.

रविवार, फ़रवरी 19, 2006

खो गये हैं कहाँ ?

कल दिन सुंदर था, धूप निकली थी, मैं साइकल ले कर शहर के प्रमुख चौबारे "पियात्सा माजोरे" जा पहुँचा. पियात्सा का अंग्रेज़ी में अनुवाद होगा, "स्कावायर" यानि समभुज चकोराकार, पर मैंने आज तक कोई समभुज चकोराकार रुप का चौबारा नहीं देखा इस लिए मेरे विचार से इसका सही अंग्रेज़ी अनुवाद रेक्टेंगल होना चाहिये था.

चौबारों का इतालवी सामाजिक जीवन में बहुत महत्व है. यहाँ लोग मित्रों को मिलते हैं, अपने नये कपड़े पहन कर सैर करते हैं औरों को दिखाने के लिए, खेल तमाशा देखते हैं, बैठ कर चाय काफी पीते हैं. इस लिए पियात्सा माजोरे में हमेशा भीड़ सी लगी रहती है जो मुझे बहुत अच्छी लगती है. कल सब तरफ प्रोदी को समर्थको की भीड़ थी, जो प्रधानमंत्री पद के अपने उम्मीदवार के लिए वोट माँग रहे थे.

९ अप्रैल को राष्ट्रीय चुनाव होने वाले हैं इटली में और प्रधानमंत्री पद के दो प्रमुख नेता हैं सिलवियो बरलुस्कोनी और रोमानो प्रोदी. बरलुस्कोनी जी जो इस समय प्रधानमंत्री हैं, कानून की झँझटों में फँसे हैं पर उनका जनता पर बहुत प्रभाव रहा है. करोड़पति हैं, कई अखबारों, पत्रिकाओं, टेलीविजन चेनलों के मालिक भी, पर कहते हैं कि उनका अधिक ध्यान सरकार में रह कर भी, अपनी कानूनी समस्याएँ सुलझाना है और अपनी अमीरी बढ़ाना है.

प्रोदी जी प्रोफेसर हैं, गंभीर किस्म है, यूरोपियन कमीशन के प्रधानमंत्री रह चुके हैं. मेरी व्यक्तिगत राय है कि बरलुस्कोनी जी अपने लालू जी की तरह चालू हैं पर उनके भाषण मजेदार होते हैं. प्रोदी जी जरुर अधिक अच्छे प्रधानमंत्री बनेंगे पर उनके भाषण जरा बोरिंग से होते है, सनते सुनते नींद आ जाती है.

प्रोदी और बरलुस्कोनी के चुनाव में अपने वोट माँगने का तरीका भी भिन्न ही है. प्रोदी जी लोग सामने बात करना पसंद करते हैं, वह स्वयं एक बड़ी पीली गाड़ी में शहर शहर घूम रहे हैं. दूसरी तरफ, बरलुस्कोनी जी के रंगबिरंगे बोर्ड हर तरफ लगे हैं, और वह सरकारी पद का इस्तेमाल कर रहे हैं कि सरकारी खर्चे पर सभी देशवासियों को अपनी सरकार के अच्छे कामों के बारे में बता सकें.


कुछ देर चौबारे में खुले में हो रही एक सर्कस देखी. अनौखी साईकल चलाने वाले कलाकार ने मुझे फोटो खींचते देखा तो पोज़ बना कर खड़ा हो गया.

सर्दी थी पर धूप की वजह से कम लग रही थी. ऊपर आसमान इतना नीला और उसमें तैरते सफ़ेद बादलों को देख कर लगा कि पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव पर सागर में तैरते हिमखँड शायद ऐसे ही लगते हों ?


यूँ ही घूमते घूमते, जाने मन में क्या आया वहाँ एक पुराने गिरजाघर में घुस गया. बाहर से तो यह गिरजाघर बहुत बार देखा था पर अंदर कभी नहीं गया था. इसका नाम है, "सांता मारिया देला वीता" यानि "संत जीवनदायनी मारिया" और यह बोलोनया के एक पुराने अस्पताल (सन 1100 से 1750 तक काम किया इस अस्पताल ने) का हिस्सा था. ऐसे ही चारों तरफ देख रहा था कि वहाँ सफाई कर रही एक युवती ने इशारा कर के कहा कि मूर्तियाँ सीड़ियों के पीछे हैं. कौन सी मूर्तियाँ सोचा पर फ़िर जहाँ इशारा किया था उस तरफ बढ़ा. वहाँ अँधेरे में ऐसा दृष्य देखा कि एक क्षण के लिए साँस नहीं ले पाया. झाँकी सी बनी थी, बीच में रखा जीसस का शरीर, आसपास रोने वाले. रोने वालों में दो मूर्तियाँ इतने सुंदर तरीके से प्रियजन से बिछड़ने का दुख दर्शा रहीं थी. लकड़ी की बनी यह मूर्तियाँ सन 1463 में मूर्तकार निकोला देल आर्का ने बनायीं थीं. बहुत अचरज हुआ कि इतनी सुंदर जगह शहर के बीचोंबीच हो कर भी इस तरह से कैसे छुपी है, दिल्ली की उग्रसेन की बावली की याद आ गयी.




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दिन में केवल 24 घँटे ही क्यों होते हैं और जब दिन भर करने के काम इन 24 घँटों में न समायें तो क्या करना चाहिये ? नौकरी, परिवार और बिस्तर इन 24 घँटों को अपने अपने हिस्सों में बाँट लेते हैं और बस सुबह सुबह के 1-2 घँटे बचते हैं जिन्हे मैं अपनी मन मरजी करने वाले कह सकता हूँ. पिछले वर्ष मन में ठानी थी कि यह समय हिंदी चिट्ठे के लिए है हर सुबह चिट्ठा लिखने बैठ जाता था.

पर इस वर्ष सब कुछ बदल गया है. भारत यात्रा से वापस लौटे तो सबसे पहला काम था कि बेटे के विवाह की विभिन्न विडियो फिल्मों को इकट्ठा करके उन्हें मिला कर एक छोटी सी फिल्म बनायी जाये. करीब एक महीना तो इसी में निकल गया. फ़िर मन में एक उपन्यास लिखनी तमन्ना थी, तो वह शुरु किया. उसके साथ साथ आजकल एक इतालवी डाक्यूमैंट्री निर्देशिका को भारत में बनाई गयी फिल्म के कुछ हिस्से अनुवाद करने में सहायता कर रहा हूँ.

यानि कि खोने के लिए आसपास बहुत सारे रास्ते हैं, पर शायद कुछ अकेले से हैं. कभी कभी दिल करता है अकेलेपन से निकलने का, तो चिट्ठे को खोजते खोजते वापस आना ही पड़ता है.

शनिवार, फ़रवरी 18, 2006

लुक्का छुप्पी

पिछले महीने दिल्ली से वापस आते समय, साथ में "रंग दे बसंती" फिल्म के संगीत का कैसेट ले कर आये थे. इधर कुछ दिनों से कार में वही कैसेट चल रहा है. शुरु शुरु में तो गाने और संगीत कुछ विषेश नहीं लगे थे, पर कुछ बार सुन कर बहुत अच्छे लगने लगे हैं.

भगत सिंह, राजगुरु आदि का गीत "सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाजुए कातिल में है", बचपन से जाने कितनी बार सुना और गाया होगा पर उनके शब्दों के बारे में कभी गहराई से सोचा नहीं था. मालूम नहीं कि यह "रंग दे बसंती" में इस गीत को कहने की तरीके की वजह से है या फ़िर गाड़ी में अकेले बैठे, बिना किसी अन्य शोर इत्यादि के सुनने की वजह से, पर इस बार इस गीत के शब्द सुन कर रौंगटे खड़े हो गये.

पर फिल्म का सबसे अच्छा गीत मुझे लगा "लुक्का छुप्पी, बहुत हुई सामने आजा ना", शायद इस लिए कि उम्र के साथ मेरी नज़र भी धुँधली पड़ने लगी है! गीत के कुछ अंश लोरी जैसे लगते हैं और लता जी की गाई हुई लोरियों का कौन मुकाबला कर सकता है. यह सोच कर कि यह गीत पचहत्तर साल की औरत गा रही है, कुछ अजीब भी लगता है और लता जी की आवाज़ पर आश्चर्य भी होता है. शायद यह सच है कि आज लता जी की आवाज़ में महल फिल्म के "आयेगा आनेवाला" या सुजाता की "नन्ही कली सोने चली" वाली बात नहीं है, पर मेरी नज़र में, अपनी तरह से आज भी लता जी की आवाज़ अनौखी है.

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फिल्मों के गीत हमारे जीवन में कितने अधिक समा जाते हैं, क्या ऐसा केवल उत्तरी भारत में हि्दी फिल्में देखने वालो के साथ ही होता है या फ़िर दक्षिण भारत में भी ऐसा ही होता है ? कुछ भी बात हो जीवन की, चाहे खुशी हो या दुख का लम्हा, या फ़िर रोज़मर्रा का साधारण पल, हर स्थिति के लिए मन में कोई न कोई गीत आ ही जाता है. उसके लिए सोचना नहीं पड़ता.


अगर ये गाने न हों तो लगता है कि जैसे खुशी या दुख अधूरे रह गये हों.

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मंगलवार को दो सप्ताह के लिए नेपाल जाना है. हालाँकि वहाँ की स्थिति के बारे में रोज़ चिंताजनक समाचार मिलते हैं पर फ़िर भी मन में अपने बारे में या यात्रा के बारे में कोई विषेश चिंता नहीं है. वहाँ लोग हड़ताल कर रहे हैं, बंद कर रहे हैं, जेलों में जा रहे हैं और मेरे मन केवल "यह देखूँगा, वहाँ जाऊँगा, उससे मिलूँगा.." जैसी बातें आतीं हैं.


नेपाल से आते समय दिल्ली में कुछ देर रुकने का मौका मिलेगा. इस खुशी में आज की तस्वीरें दिल्ली की सड़कों की.


रविवार, फ़रवरी 05, 2006

प्रेमी से जीवनसाथी (२)

ऐसी जीवनसाथी होनी चाहिए जिसके साथ बैठ कर साहित्य, दर्शन शास्त्र, धर्म जैसे विषयों पर बात कर सकूँ, यह सोचता था.

जिससे प्रेम हुआ और विवाह किया, उसे हल्का फुल्का पढ़ने का शौक तो है पर गँभीर बातों पर बहस करने का बिल्कुल नहीं. पर इसके बदले में उसे तरह तरह के पकवान बनाने, घर का काम करने, कपड़े बनाने आदि जैसे शौक हैं. सुबह सुबह उठ कर काफी और नाश्ता बनाती है, काम पर ले जाने के लिए खाना बनाती है. इतालवी हो कर भी, इन सब मामलों में मुझे वह पुराने ज़माने की भारतीय पत्नी सी लगती है. आराम की आदत पड़ गयी है, और जब गम्भीर बहस का दिल करता है तो बहुत मित्र हैं. और कोई न हो तो चिट्ठा जगत में बहुत से निठल्ले बैठे हैं, उनसे बात हो जाती है. :-)

हमारी धर्मपत्नी अपनी सामाजिक जिम्मेदारी बहुत गम्भीरता से लेती हैं. प्रेम करने से पहले इस बारे में कभी ठीक से नहीं सोचा था. अड़ोस पड़ोस में कहीं किसी को कुछ चाहिए तो हमारी श्रीमति जी को याद कर लेता है. आप की तबियत ठीक नहीं है, बाजार से कुछ लाना है ? आप का कुछ काम है पर आप के पास समय नहीं है ? अपना दुखड़ा रो कर आप किसी को उल्लु बनाने की ताक में हैं ? एक्सीडेंट हो गया, अस्पताल जाना है ? आप की टाँग पर पलस्तर चढ़ा है, खाना नहीं बना सकते ? कुछ भी बात हो हमारी श्रीमति जी पर भरोसा रखिये, वह खुद तो करेंगी ही, अगर जरुरत पड़ी तो हमें भी बीच घसीट लेंगी. इतनी बार लोग कुछ भी बात सुना कर, पैसे ले जाते हैं पर वह हैं कि मानव जाति की अंतर्हीन अच्छाई को मानने से बाज़ नहीं आतीं.

एक बार पड़ोस की एक वृद्धा की तबियत ठीक नहीं थी, तो कई दिन तक उसके लिए खाना बना कर ले जाती रहीं. एक दिन खाना खा कर उन वृद्धा के पेट में दर्द हो गया तो अस्पताल गयीं और बोलीं कि फलाँ औरत ने मुझे जहर दे कर मारने की कोशिश की है. जब बात मेरी श्रीमति तक पहुँची तो आप उनका आश्चर्य और परेशानी को समझ सकते हैं. बोलीं आगे से किसी के लिए खाना नहीं बनाऊँगी. दो महीने बाद फिर उसी वृद्धा की तबियत खराब हुई तो यह फिर से उसके लिए खाना बना रहीं थीं!

उनका यह परोपकारी गुण, कभी मुझे अच्छा लगता है और कभी खीज आती है जब अड़ोसी पड़ोसी बातें करने घर आ धमकते हैं, पर मुझे यकीन है कि हमारे पड़ोसियों को उनका यह गुण बहुत प्रिय है.

एक अन्य गुण है उनका कि उन्हें कार चलानी अच्छी लगती है. चूँकि मुझे कार चलाना बड़ा बोरियत का काम लगता है इसलिए अगर साथ कहीं भी जाना हो मुझे ड्राईवर तैयार मिलता है. इस गुण का एक बुरा पहलू भी है, यानि कि वह समझती हैं कि कार चलाने में उनसे अधिक होशियार कोई और हो नहीं सकता. इसलिए वह साथ में बैठी हों और कोई और गाड़ी चला रहा हो तो उसे निर्देश देने से बाज नहीं आती. "ब्रेक लगाओ. धीरे करो. इतने धीरे क्यों चला रहे हो....".

पर मुझे जो उनका गुण सबसे अच्छा लगता है वह है उनका नाचना. हिंदी फिल्मों से नृत्य की शिक्षा पायी है और हर पार्टी में जैसे ही नाचना प्राम्भ होता है, वह लग जाती हैं श्रीदेवी वाले झटकों में. इस तरह का आधुनिक नृत्य जिसमें हाथ पाँव इधर उधर फैंके जायें मुझे भी बहुत अच्छा लगता है, कुछ ही देर में लगता हैं जैसे सारा तनाव टैंशन दूर हो गये हों.

यह आठ गुण हैं या अस्सी, यह मुझे नहीं मालूम, पर इतना तो आप समझ ही गये होंगे कि हम अपनी श्रीमति पर अभी भी, शादी के पच्चीस साल बाद भी, वैसे ही लट्टू हैं.

आज की तस्वीरें, पिछले महीने की भारत यात्रा के दौरान, उन्हीं के नाम हैं.



प्रेमी से जीवनसाथी

आदर्श प्रेमी या प्रेमिका ? कुछ बेतुका सा सवाल नहीं हैं यह क्या ? प्रेम क्या पूछ कर आता है किसी से या आने से पहले सर्वे करने का समय देता है ताकि आप सवाल जवाब कर सकें ? जब प्रेम का बुखार थोड़ा कम होता है और कुछ सोचने बूझने की समझ आती है, तब तक गुण अगुण गिनने के लिए बहुत देर हो चुकी होती है.

जब प्रत्यक्षा जी का संदेश पढ़ा "आप को टैग किया है" तो कुछ ठीक से समझ नहीं आया. फिर उनका आदर्श प्रेमी वाला लेख पढ़ा तो सोचा कि शायद अनूगूँज का नया तरीका निकला है. इन दिनों काम में ऐसा फँसा हूँ कि कुछ दिनों तक कुछ चिट्ठे लिखने पढ़ने का मौका ही नहीं मिला और मैं इस बात को भूल गया. आज सुबह सोचा कि कुछ चिट्ठे पढ़े जायें तो पाया कि यह टेगिंग रोग तो फ्लू से भी भयँकर रुप से फैल रहा है. सभी इस बीमारी में अटके हैं हाँलाकि विषय कुछ कुछ अदल बदल हो रहा है, कभी कोई प्रेमी प्रेमिका की बात करता है तो कभी कोई जीवन साथी की.

हीर राँझा और सोहनी महवाल जैसे प्रसिद्ध प्रेमियों का सोच कर तो यही ठीक लगता है कि आदर्श प्रेमी तो वही जो अपनी प्रेमिका को जीवन साथी बनाने से पहले ही खुदा को प्यारा हो जाये, यानि प्रेम को रुमानी धूँए में ही महसूस करे, उसे यथार्थ की कसौटी पर न परखे.

सोचने और सच में बहुत अंतर होता है. विद्यार्थी जीवन में सोचता था कि मुझे लम्बी, पतली, साँवली लड़कियाँ अच्छी लगती हैं, लेकिन प्यार हुआ उससे जिसमें इनमें से कोई भी बात नहीं थी. जब प्यार का बुखार आया तो दिमाग ने पहले के सभी विचारों को भुला दिया.

इसलिए अब लगता है कि अच्छा जीवन साथी मिलने के लिए गुणों की सूची नहीं, अच्छी किस्मत चाहिये. जो गुण मैं सोचता था कि मेरे जीवनसाथी में होने चाहियें, उनमें से बहुत कम हैं मेरी पत्नी में, पर उसमें वे बातें हैं जिनके बारे में प्रेम से पहले सोचा नहीं था. वाँछित गुणों की सूची, उम्र के साथ साथ बदलती रहती है.

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