बुधवार, मार्च 22, 2006
कोयले की दलाली
पढ़ कर बहुत अचरज हुआ क्योंकि उसमें देश के नियम और कानून को तोड़ मरोड़ कर अपने फायदे के लिए इटली की प्रधानमंत्री श्री बरलुस्कोनी द्वारा किये बहुत से कामों के कच्चे चिट्ठे विस्तार से बतलाये गये हैं. लेख में इन सब कामों को करने के लिए किस पत्रकार, किस उद्योगपति, किस व्यक्ति ने कैसे प्रधानमंत्री का साथ दिया ताकि वह कानून का खेल बना सकें, उनके भी नाम खुले आम लिखें हैं.
अचरज इसलिए हुआ कि अगर इन बातों के सबूत नहीं हों श्री स्टिल के पास तो उन पर करोड़ों की मानहानि का दावा किया जा सकता है. और अगर यह सब बातें सच हों तो बहुत से लोगों को जेल में होना चाहिये था.
उदाहरण के तौर पर उसमें एक जाने माने टेलीविज़न पत्रकार का नाम है और उनकी एक उद्योगपति से टेलीफोन पर की हुई बात का पूरा विवरण है जिसमें वह बताते हैं कि कैसे वह अपने टेलीविज़न के समाचारों द्वारा एक अच्छे मजिस्ट्रेट के बारे में झूठ फैला रहे हैं क्योंकि उसने बरलुस्कोनी के एक मित्र की जाँच का आदेश दिया था.
राजनीति गंदा खेल है जिसमें आदर्श नहीं पैसे और ताकत के लालच की बात होती है, या फ़िर कोयले की दलाली जैसी है, आप जितनी भी कोशिश कीजिये हाथ काले ही जायेंगे, मैं यह सोचता हूँ और शायद बहुत से लोग यही सोचते हैं. पर यह सोच कर की यह कोयले के दलाल हमारे जीवन के महत्वपूर्ण निर्णय लेते हैं, क्षोभ भी होता है.
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भारतीय पत्रकारों द्वारा "स्ट्रिंग आप्रेशन" में भी कुछ ऐसी ही बात होती है जिसमें छुप कर घूस लेते हुए या फ़िर गैरकानूनी काम करते हुए लोगों के वीडियो खींच कर टेलीविज़न में दिखा दिये जाते हैं.
खुले आम जनता में किसी को इस तरह नंगा करने का विचार मुझे अच्छा नहीं लगता, जंगलीपन लगता है. मेरे विचार से ऐसे सबूत कानून को सौंपने चाहिये ताकि कानून ऐसे लोगों को सजा दे सके. पर मैं लोगों की अधीरता समझ सकझ सकता हूँ क्योंकि कानून इतना वक्त लगा देता है कि बात का मतलब ही नहीं रहता या फ़िर कानून को घुमा कर उल्लू बनाना शायद अधिक आसान है जबकि टेलीविज़न में दिखा कर "तुरंत न्याय" हो जाता है.
पर एक बार टेलीविज़न में दिखाने के बाद, कुछ दिनों के हल्ले के बाद क्या होता है ? क्या कुछ सचमुच बदलता है ?
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कुछ समय पहले पढ़ा था कि राजनीति के पेशेवर लोगों के भ्रष्टाचार को देख कर आई आई टी के कुछ इंजीनियरों ने अपनी एक पार्टी बनाने का फैसला किया था. यह सुन कर अच्छा लगा क्योंकि राजनीति केवल भ्रष्टाचारियों का अखाड़ा न हो, इसके लिए आम नागरिकों को भी राजनीतिक जीवन में घुसने से पीछे नहीं हटना चाहिये.
एक राजनीतिक दल या कुछ पढ़े लिखे लोगों के आने से व्यवस्था नहीं बदलती, वे भी भ्रष्टाचार से प्रभावित हो जाते हैं. उससे लड़ने के लिए सारी जनता का बहुमत और साथ चाहिये.
सोमवार, मार्च 20, 2006
देबाशीष का लेख (२)
प्रस्तुत हैं इस लेख के कुछ अंशः
India Online 2005 reported that there are about 1.2 million Indibloggers. Debashish Chakrabarty, the founder of Indibloggers.org says he would “take that number with a pinch of salt. A thousand odd new blogs may be registered daily and perhaps a similar number are relinquished or languish for want of getting updated. I would put Indian blogs somewhere between thirty to fifty thousand in number.” I ndibloggers.org awards bloggers in different categories.
Chakrabarty is convinced of the medium’s growing strength. “Close to 300 blogs were nominated at the Indibloggies 2005. Of these, 100 blogs made it to the final voting stage. Nine hundred votes were cast to decide the winners across 18 categories ranging from Indiblog of the Year (stand up Amit Varma, IndiaUncut wins!) to best blog in various Indian languages.” Once again, the veracity of the awarding process was placed above question. “While it is difficult to say how definitive these awards are, (blogdom is accustomed to cliques) this year however, we went in for paid hosting to dispel any doubts. The advanced Poll Script used email verification methodology. Internet polls don’t get more credible than this.” Chakrabarty is certain that the stakes are getting higher. “It has been the first and most popular blog award event. We distributed awards close to Rs 70,000 and the fact that companies, authors and bloggers went out of their way to sponsor prizes bears great testimony to the process.” But awards are not the pay-off. Chakrabarty’s site augments the community building. “For two or three months, Indian blogs gain world-wide attention and the list of nominees always introduces one to some very good blogs they haven’t read before. The theme that runs through is one of ‘showcasing’. Indibloggies is not any kind of literary award event. We don’t simply award the best, but also the popular ones.” The blogging community internationally is fascinating, but for a newbie, a daunting body to browse through. At home, the community is growing, but is still fresh, nascent and deliciously naïve in bits. Lines are being drawn, but they haven’t been chalked in yet. ….
It’s quite simple really, this blog ging business. Soon it Debashish Chakrabarty will be lucrative as well. Vernacular blogs are beginning to blossom and they will be the real boom once the Internet grows past the reach of the middleclass.
Marketing researchers have dubbed it social software, and phrases like viral marketing have begun to be bandied about along with talk of using blogs and vlogs (video) to test the pulse of opinion, or create some themselves. It is a researcher’s dream. Take a blogger like Chakrabarty, “The interactivity through comment and instant reach to audience weaves small communities around each blog that helps bloggers stabilise and blog more seriously. When I started, I wanted to be a consistent blogger, now I enjoy the work that surrounds it. I have been involved in shaping Wikipedia, started cliques, awards, localised blog-ware, provided localised templates. That is as interesting as blogging itself.” And telling. Listen. You can just hear the taptaptapping of thought, sometimes random and abstruse, sometimes radical and anarchic, being uploaded into cyberspace, the latest frontier for the pioneers of sociological evolution. The medium is the message. And the message is money in the bank.
GOOGLE THE KEYWORDS FOR LINKS TO THE BLOGS... Recommends: ? Desipundit ? Chugs and Eric’s linkblogs ? Dina Mehta ? Amit Varma ? Blogherald.com ? Micropersuasion ? Hindi Blogs: ? Anup Shukla’s Fursatiya ? Dr Sunil’s JoNaKehSake Sonia Faleiro Recommends: ?? Amitavakumar.com ?? Ashok Banker at epicin dia.com ?? Samit Basu ...
देबाषीश का लेख
उस लेख को स्केन करके आपको दिखाने में मैं असमर्थ हूँ पर शायद कोई उसे The Asian Age के वेबपृष्ठ से ढ़ुँढ़ सकता है ? मैंने कोशिश की पर सफलता नहीं मिली.
रविवार, मार्च 19, 2006
लंदन में आत्मिक दर्शन
मुझे ऐसी पुस्तक के साथ देखेंगे या घर में रखी योग और आध्यात्मिक विषयों की किताबें देखेंगे तो जरुर सोचेंगे कि अवश्य मुझे इन विषयों में गहरी दिलचस्पी होगी. बात गलत नहीं है, दिलचस्पी तो है पर इस बारे में सच में क्या सोचता हूँ यह कहना मेरे स्वयँ के लिए भी कठिन है. मेरे अंदर के विचार कुछ अंतर्विरोध से जुड़े लगते हैं.
इस पुस्तक में, कृष्णमूर्ती जी "अंदरुनी खालीपन" के आनंद की बात करते हैं, कहते हैं "ज्ञान में ही अज्ञान है", यानि पहले से ग्रहित ज्ञान और अनुभव हमारे हर नये अनुभव को प्रभावित करते हैं, उन्हें नयी, अनछुई दृष्टि से नहीं देखने देते. इस लिए मानव को संग्रहित ज्ञान को भूल कर अंदरुनी खालीपन की चेष्टा करनी चाहिये, जिसमें जो आनंद है वह किसी संसारिक सुख में नहीं हो सकता.
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लंदन में गोष्ठी में मेरी मुलाकात हुई दिल्ली से आये सुबोध गुप्ता से. सुबोध ने बताया कि आजकल वह लंदन में रहते हैं, वह उस सँस्था में काम करने के अलावा योग सिखाने का काम भी करते हैं और भारत में उन्होंने इस विषय में कुछ हद तक ख्याति भी पायी थी, उनके कार्यक्रम कुछ टेलीविज़न पर भी आते थे.
बात "ध्यान" पर हो रही थी और सुबोध मुझे विभिन्न ध्यान के तरीकों के बारे में बता रहे थे. शायद मेरी हिचकिचाहट देखी तो कहने लगे, "ध्यान करने में क्या मिलता है उसे शब्दों में बताना कठिन है, क्योंकि मानव मस्तिष्क उसे समझ नहीं पाता. सोचो कि आसमान कहाँ से शुरु होता है या समय कब शुरु हुआ तो दिमाग इन प्रश्नों का उत्तर नहीं सोच पाता, वही बात है क्योंकि मानव मस्तिष्क उसे समझ नहीं पाता. ध्यान को तो सिर्फ अनुभव किया जा सकता है. अगर मन के सभी प्रश्नों को भूल कर केवल अनुभव कर सको, यही एक रास्ता है."
सुबोध का बोलने का तरीका बहुत मीठा और दिलचस्प है, और उसका यह समझाना कि मानव मस्तिष्क क्यों हर बात को नहीं समझ सकता, बहुत अच्छा लगा.
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पर फ़िर भी मुझे यह नहीं लगता कि मानव जीवन अंदरुनी खालीपन या योग और ध्यान के आनंद की खोज के लिए बना है. मैं तो गुरु नानक के कर्मयोग के मार्ग में अधिक विश्वास रखता हूँ. मैं सोचता हूँ कि भगवान ने यह मानव जीवन क्यों बनाया, जो आत्मा भगवान का अँश थी उसे अपने से दूर क्यों भेजा और क्यों उस आत्मा में से इस जीवन के पहले और बाद में जो भी होता है उसकी याद मिटा दी, केवल इम्तहान सा लेने के लिए कि हम भगवान को याद करते हैं या नहीं, हम मुक्ति का मार्ग ढ़ूँढ़ते हैं या नहीं ?
मेरा विचार है कि मानव जीवन इस लिए नहीं मिलता. मैं मानता हूँ कि जो भगवान हमें मस्तिष्क देता है, इंद्रियाँ देता है, परिवार देता है, वह यह चाहता है कि हम यह जीवन अनुभव कर सकें, उससे भागने की चेष्ठा न करें.
पर साथ ही साथ, यह भी सोचता हूँ कि यह ज़रुरी नहीं कि हर कोई मेरी तरह ही सोचे. शायद, हममें से हर एक के लिए एक अलग रास्ता बना है, किसी के लिए ध्यान और वेराग्य का रास्ता, किसी के लिए कर्मयोग का रास्ता.
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आज की तस्वीरें लंदन की थेम्स नदी (London - Thames) की.
सोमवार, मार्च 13, 2006
विक्रम और बेताल
पर भारतीय विक्रम सँवत नेपाल में आज भी खुली हवा में सिर ऊँचा कर के जी रहा है. इसके हिसाब से यह सन है 2062 और यह महीना है फागुन. फागुन के अंतिम दिन, बुधवार को होली है.
चैत, वेशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, सावन, भादों जैसे विक्रम सँवत के महीनों के नाम हमारे लोक गीतों और पुरानी फिल्मों के गानों में कभी कभी सुनाई दे जाते हैं, पर किसी को उनका अर्थ शायद ही समझ आता हो.
प्रचलित इसाई कैलेण्डर से 62 साल अधिक पुराना विक्रम सँवत किसने बनाया और क्यों, मुझे ठीक से मालूम नहीं. विक्रमादित्य बड़े सम्राट थे भारत के, उज्जेन में रहते थे यही मालूम है और बचपन में चंदा मामा में पढ़ी विक्रम और बेताल की कहानियाँ कुछ याद हैं और कौन थे विक्रमादित्य, क्या किया उन्होंने कि उन्हें भारतीय जनता ने इतना सम्मान दिया, यह नहीं मालूम. उनके मुकाबले में उनसे 400 साल पहले के बुद्ध और अशोक के बारे में अधिक जानकारी मिल जाती है.
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बहुत दिनों से नया फोटो ब्लोग बनाने की इच्छा थी, जिसमें लिखना कम पड़े बस फोटो चिपका देने से ही काम हो जाये. आखिरकार, कल यह इच्छा भी पूरी हो गयी. मेरे नये फोटो ब्लोग का नाम है छायाचित्रकार, जो अधिकतर अँग्रेजी में होगा पर कुछ कुछ हिंदी में भी.
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कल शायद हिंदी के दैनिक जनसत्ता में देवाषीश का चिट्ठा जगत के बारे में एक लेख छपा है. मुझे मालूम तब चला जब दिल्ली से छोटी बहन का टेलीफोन आया, बोली, "तुम्हारे हिंदी के ब्लोग का क्या नाम है ?" मैंने जब बताया तो वह खुशी से बोली, "वाह, तुम्हारे ब्लोग के बारे में तो अखबार में निकला है! किसी देवाषीश का लेख है और हिंदी में अच्छा लिखने वालो में से तुम्हारा नाम भी है."
धन्यवाद देवाषीश. मैंने तो कितनी बार बताया सब को मैं हिंदी में लिख रहा हूँ पर उसका उतना असर नहीं हुआ जितना तुम्हारे लेख का हुआ. शायद हम अंतरजाल पर घूमने वालों को अखबार का महत्व न ठीक समझ में आता हो पर बहुत से लोगों के लिए जब कोई बात अखबार में निकलती है तभी उसका महत्व बनता है!
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आज जो तस्वीरें पिछले वर्ष के बोलोनिया के ग्रीष्म ऋतु फैस्टीवल से.
शनिवार, मार्च 11, 2006
नेपाली, हिंदी और भूमंडलीकरण
भारत जाता हूँ तो शहर में सब लोग हिंदी और अंग्रेज़ी की खिचड़ी बोलते हैं, मैं स्वयं भी हर वाक्य में कुछ न कुछ अंग्रेज़ी शब्द मिलाये नहीं बोल पाता. यह भी लगता है कि हमारी भाषा हिंदी कम और हिंदुस्तानी अधिक है, बहुत से शब्द जो संस्कृत से आते हैं वह केवल दूरदर्शन के समाचार बुलेटिन में सुनाई देते हैं, जबकि सामान्य बातचीत की नेपाली में संस्कृत का असर अधिक दिखता है.
मेरे कहने का यह अर्थ नहीं कि हमें हिंदी को बदलना चाहिये या उसमें अधिक संस्कृत से आये शब्दों का प्रयोग करना चाहिये, मैं तो केवल भाषा की विविधता की सुंदरता की बात कर रहा हूँ. यह दुनिया सुंदर है क्योकि विविध है, अलग भाषाएँ, अलग संस्कृतियाँ, अलग वेष भूषा, अलग धर्म, अलग रीति रिवाज़ों से बनी है.
ऐसे में भूमंडलीकरण दुनिया को एक जैसा बना रहा है, और हमारी विभिन्नताएँ धीरे धीरे गुम हो रही हैं.
पर जैसे हिंदी अंग्रेज़ी से प्रभावित हो रही है और भारत में अंग्रेज़ी का बोलबाला पढ़ रहा है, वैसे ही नेपाल में खतरा है नेपाली के हिंदीकरण का. दूर छोटी जगहों पर भी, शाम को जहाँ टेलीविज़न होते हैं वहाँ लोग स्टार, ज़ी और सोनी के हिंदी के सास बहू वाले सीरियल देखते हैं. देख कर यही डर लगा कि क्या किसी दिन हमारी हिंदी और अंग्रेज़ी की खिचड़ी नेपाली पर हावी तो नहीं हो जायेगी ?
शुक्रवार, मार्च 10, 2006
काम है साधू
मेरे एक नेपाली मित्र ने सलाह दी कि पशुपतिनाथ के दर्शन के बाद, पशुपति की संगिनी ज्यूएश्वरी (शायद नाम मुझे ठीक याद नहीं) का मंदिर देखना न भूलूँ, जो पशुपतिनाथ के सामने ही बागमति नदी की दूसरी ओर है. कहते हैं कि जब शिव जी मृत पत्नी के शरीर को ले कर भटक रहे थे तो उस जगह पर उसके शरीर का एक हिस्सा गिरा था.
पशुपतिनाथ में अभी भी भीड़ बहुत थी. मंदिर के भीतर तो फोटो खींचना मना है पर बाहर से जब फोटो खींच रहा तो वहाँ बैठे एक साधू जी बोले, "तस्वीर खींच कर उसे अखबार में छपा कर पैसे ले लोगे और हम यहाँ खाली हाथ बैठे रहेंगे." तो मन में आया कि शायद आज साधू बनने का अर्थ जग त्याग नहीं, दान पर जीवन गुज़ारना नहीं, एक तरह का काम ही है जिसकी सही "तनखाह" मिलनी चाहिये ?
थोड़ी दूर आया तो एक अन्य साधू जी ने मेरे माथे पर तिलक लगाया और कहने लगे कि कम से कम सौ रुपये लेंगे. तो फ़िर वही "साधू का काम" की बात मन में आयी.
पशुपतिनाथ के मंदिर के हज़ारों बंदर और बाहर नदी के किनारे पंक्ति मे बने अनेक छोटे शिवलिंग वाले मंदिर मुझे बहुत अच्छे लगे.
पशुपतिनाथ के दर्शन के बाद हम लोग ज्यूएश्वरी गये. जीवन में पहली बार स्त्री शक्ति का मंदिर देखा जिसमें शिवलिंग नहीं योनी पूजा होती है और एक पुजारिन उसकी देखभाल करती है. मंदिर में अधिकाँश मूर्तियाँ भी देवियों की ही हैं.
मंदिर से निकले तो शाम हो रही थी. तब नदी के किनारे एक अनोखा दृष्य देखा. भगवे वस्त्र पहने एक साधू महाराज उठे और अपनी चद्दर, कंबल लपेट कर, भगवे वस्त्र उतार कोट पैंट पहन रहे थे. सच है कि उन दिनों काठमाँडू में शाम को सर्दी हो जाती थी तो उनके कोट पैंट पहनने को दोष नहीं देता पर फ़िर दोबारा वही बात मन में आईः साधू बनना भी काम है, अब काम का समय समाप्त हुआ तो कपड़े बदलो और घर चलो.
इस तस्वीर में वह साधू जी पेड़ के सामने दिखेंगे. मैंने जानबूझ कर दूर की तस्वीर रखी हैं क्योंकि मेरे विचार में उनकी भी अपनी प्राईवेसी है.
मन में एक और शक भी आया था कि शायद वह साधू नहीं कोई शोधकर्ता हों जो साधू का भेस बना कर साधू जीवन पर शोध कर रहे हों ?
गुरुवार, मार्च 09, 2006
नेपाल: पर्वतों के बीच हाँफते
खैर नेपाल की अंदरुनी स्थिति का एक फायदा तो हुआ, विदेशी पर्यटकों की संख्या बहुत कम हो गयी है, इसलिए हवाई अड्डे पर पासपोर्ट की जाँच कराने में देर नहीं लगी. बाहर निकला तो सब तरफ पुलिस या मिल्टरी दिखाई दी. होटल काँतीपथ पर था जहाँ से दरबार चौक दूर नहीं इसलिए होटल पहुँच कर तुरंत बाहर घूमने निकल पड़ा. लोगों की भीड़ देख कर मन की चिता दूर हुई. लगा कि चाहे विदेशी पर्यटक कम थे पर देश की राजनीतिक परेशानियों ने काठमाँडू के साधारण जीवन पर बहुत अधिक असर नहीं डाला था.
माओवादियों से झगड़ा तो बहुत सालों से चल रहा था, नेपाल के राजा फरवरी २००५ द्वारा पार्लियामेंट को भंग करके, संविधान बदलने और सभी राजनीतिक दलों के नेताओं को जेल में डालने से स्थिति बहुत बिगड़ गयी है. पिछले दिनों में राजनीतिक दलों ने माओवादियों से मिल कर एग्रीमेंट बनाया था पर अमरीकी सरकार इसके विरुद्ध है क्योंकि उनका कहना है कि माओवादी सशस्त्र क्राँती की बात करते हैं और रोज कहीं न कहीं बम फोड़ते हैं, उनसे समझोता नहीं किया जा सकता.
पिछले दिनों माओवादियों के नेता प्रचन्नदा बीबीसी पर एक साक्षात्कार भी दिया जिसमें उन्होने हिंसा का मार्ग छोड़ने की बात भी की पर यह भी सच है कि देश के विभिन्न भागों में माओवादियों को वह हिंसा के कामों से नहीं रोक पाते हैं.
१३ मार्च से माओवादियों ने एक सप्ताह के लिए काठमाँडू बंद की चेतावानी दी है और अगर राजा ने देश की राजनीतिक स्थिति को नहीं सुधारा तो ४ अप्रेल को बड़ा आक्रमण करने की धमकी दी है.
जब मुझे किसी ने कहा कि मेरी सूरत माओवादी नेता प्रचन्न दा से मिलती है तो मुझे बहुत चिता हुई. मेरा विचार देश के विभिन्न भागों में जा कर गाँवों में महिलाओं की स्थिति को देखना और समझना था, वहाँ कोई मिल्ट्री वाला मुझे माओवादी नेता समझ कर पकड़ लेगा या मार देगा तो क्या होगा ?
इस चित्र में दरबार चौक पर एक सिपाही.
२३ फरवरी को मैं अपनी यात्रा पर निकल पड़ा. पहले काठमाँडू के उत्तर पूर्व में ओखलढ़ुंगा जिले में गये जहाँ पाँच दिनो तक विभिन्न गाँवों में घूमे. फिर काठमाँडू से ३५ किमी दूर छाईमल्ले के गाँवों में घूमा. तराई में रुपनदेही और कपिलवस्तु जिलों में जाने का कार्यक्रम सुरक्षा स्थिति की वजह से नहीं हो पाया, पर वहाँ मैं पहले कई बार जा चुका था.
पहाड़ों पर चलने की आदत नहीं थी, इसलिए हाँफ हाँफ कर बुरा हाल हो गया. दिन भर एक गाँव से दूसरे गाँव घूमना, पिछड़ी जनजातियों जैसे शेरपा, मगर, राई इत्यादि के परिवारों और महिला समूहों से बात करना, सादा दाल भात खाना और रात को जहाँ जगह मिले वहाँ सो जाना, प्रतिदिन यही होता था. खुशी की बात यह हुई कि कुछ किलो वज़न कम हो गया.
जहाँ मैं कदम कदम पर दमें के मरीज़ की तरह हाँफ रहा होता था वहीं इन पहाड़ों में रहने वाले भारी सामान उठाये घँटों चलते थे. सच यहाँ का जीवन बहुत कठिन है.
महिला समूहों की सभाओं में गरीब औरतें दूर दूर से आतीं, अपनी परेशानियाँ सुनाने और अपने काम के बारे में बताने. पुरुष निर्देशित समाज में गरीब महिलाओं की समस्याएँ नहीं बदलती - शराब, मारपीट, दूसरा विवाह, खाना पानी का जुगाड़, बच्चों की शिक्षा. इस चित्र में ओखलढ़ुंगा जिले के दाँडागाँव में एक महिला सभा.
नेपाल की इस यात्रा को भुलाना आसान नहीं. चित्रमय प्राकृतिक सुंदरता, पहाड़ों में रहने वाले लोगों का सादा कठिन जीवन और साथ ही सभी कठिनाओं से लड़ कर अपना जीवन सुधारने की लड़ाई, उनकी सरल मुस्कान और अतिथि के लिए स्वागत, कैसे भुला पाऊँगा ? पर लोगों की इन सुखद यादों के साथ देश की स्थिति पर चिंता भी होती है. गरीबी और पिछड़ेपन से निकलने के लिए नेपाल को लड़ाई नहीं विकास की आवश्यकता है.
काठमाँडू की बागमति नदी, नदी कम नाला अधिक लगती है. काठमाँडू से बाहर निकलिये तो पहाड़ों के बीच बहती यही बागमति अपनी सुंदरता से सचमुच की नदी बन जाती है. पर पास जा कर देखा तो पहाड़ों में भी बहते बागमति के पानी पर भी रसायनिक झाग दिखता है. नेपाल स्वर्ग सा देश है पर लगा कि स्वर्ग में जहर फैल रहा है और इस जहर को नेपालवासी जितनी जल्दी रोक पायेंगे उतना ही अच्छा होगा.
रविवार, फ़रवरी 19, 2006
खो गये हैं कहाँ ?
कल दिन सुंदर था, धूप निकली थी, मैं साइकल ले कर शहर के प्रमुख चौबारे "पियात्सा माजोरे" जा पहुँचा. पियात्सा का अंग्रेज़ी में अनुवाद होगा, "स्कावायर" यानि समभुज चकोराकार, पर मैंने आज तक कोई समभुज चकोराकार रुप का चौबारा नहीं देखा इस लिए मेरे विचार से इसका सही अंग्रेज़ी अनुवाद रेक्टेंगल होना चाहिये था.
चौबारों का इतालवी सामाजिक जीवन में बहुत महत्व है. यहाँ लोग मित्रों को मिलते हैं, अपने नये कपड़े पहन कर सैर करते हैं औरों को दिखाने के लिए, खेल तमाशा देखते हैं, बैठ कर चाय काफी पीते हैं. इस लिए पियात्सा माजोरे में हमेशा भीड़ सी लगी रहती है जो मुझे बहुत अच्छी लगती है. कल सब तरफ प्रोदी को समर्थको की भीड़ थी, जो प्रधानमंत्री पद के अपने उम्मीदवार के लिए वोट माँग रहे थे.
९ अप्रैल को राष्ट्रीय चुनाव होने वाले हैं इटली में और प्रधानमंत्री पद के दो प्रमुख नेता हैं सिलवियो बरलुस्कोनी और रोमानो प्रोदी. बरलुस्कोनी जी जो इस समय प्रधानमंत्री हैं, कानून की झँझटों में फँसे हैं पर उनका जनता पर बहुत प्रभाव रहा है. करोड़पति हैं, कई अखबारों, पत्रिकाओं, टेलीविजन चेनलों के मालिक भी, पर कहते हैं कि उनका अधिक ध्यान सरकार में रह कर भी, अपनी कानूनी समस्याएँ सुलझाना है और अपनी अमीरी बढ़ाना है.
प्रोदी जी प्रोफेसर हैं, गंभीर किस्म है, यूरोपियन कमीशन के प्रधानमंत्री रह चुके हैं. मेरी व्यक्तिगत राय है कि बरलुस्कोनी जी अपने लालू जी की तरह चालू हैं पर उनके भाषण मजेदार होते हैं. प्रोदी जी जरुर अधिक अच्छे प्रधानमंत्री बनेंगे पर उनके भाषण जरा बोरिंग से होते है, सनते सुनते नींद आ जाती है.प्रोदी और बरलुस्कोनी के चुनाव में अपने वोट माँगने का तरीका भी भिन्न ही है. प्रोदी जी लोग सामने बात करना पसंद करते हैं, वह स्वयं एक बड़ी पीली गाड़ी में शहर शहर घूम रहे हैं. दूसरी तरफ, बरलुस्कोनी जी के रंगबिरंगे बोर्ड हर तरफ लगे हैं, और वह सरकारी पद का इस्तेमाल कर रहे हैं कि सरकारी खर्चे पर सभी देशवासियों को अपनी सरकार के अच्छे कामों के बारे में बता सकें.
कुछ देर चौबारे में खुले में हो रही एक सर्कस देखी. अनौखी साईकल चलाने वाले कलाकार ने मुझे फोटो खींचते देखा तो पोज़ बना कर खड़ा हो गया.
सर्दी थी पर धूप की वजह से कम लग रही थी. ऊपर आसमान इतना नीला और उसमें तैरते सफ़ेद बादलों को देख कर लगा कि पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव पर सागर में तैरते हिमखँड शायद ऐसे ही लगते हों ?
यूँ ही घूमते घूमते, जाने मन में क्या आया वहाँ एक पुराने गिरजाघर में घुस गया. बाहर से तो यह गिरजाघर बहुत बार देखा था पर अंदर कभी नहीं गया था. इसका नाम है, "सांता मारिया देला वीता" यानि "संत जीवनदायनी मारिया" और यह बोलोनया के एक पुराने अस्पताल (सन 1100 से 1750 तक काम किया इस अस्पताल ने) का हिस्सा था. ऐसे ही चारों तरफ देख रहा था कि वहाँ सफाई कर रही एक युवती ने इशारा कर के कहा कि मूर्तियाँ सीड़ियों के पीछे हैं. कौन सी मूर्तियाँ सोचा पर फ़िर जहाँ इशारा किया था उस तरफ बढ़ा. वहाँ अँधेरे में ऐसा दृष्य देखा कि एक क्षण के लिए साँस नहीं ले पाया. झाँकी सी बनी थी, बीच में रखा जीसस का शरीर, आसपास रोने वाले. रोने वालों में दो मूर्तियाँ इतने सुंदर तरीके से प्रियजन से बिछड़ने का दुख दर्शा रहीं थी. लकड़ी की बनी यह मूर्तियाँ सन 1463 में मूर्तकार निकोला देल आर्का ने बनायीं थीं. बहुत अचरज हुआ कि इतनी सुंदर जगह शहर के बीचोंबीच हो कर भी इस तरह से कैसे छुपी है, दिल्ली की उग्रसेन की बावली की याद आ गयी.
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दिन में केवल 24 घँटे ही क्यों होते हैं और जब दिन भर करने के काम इन 24 घँटों में न समायें तो क्या करना चाहिये ? नौकरी, परिवार और बिस्तर इन 24 घँटों को अपने अपने हिस्सों में बाँट लेते हैं और बस सुबह सुबह के 1-2 घँटे बचते हैं जिन्हे मैं अपनी मन मरजी करने वाले कह सकता हूँ. पिछले वर्ष मन में ठानी थी कि यह समय हिंदी चिट्ठे के लिए है हर सुबह चिट्ठा लिखने बैठ जाता था.
पर इस वर्ष सब कुछ बदल गया है. भारत यात्रा से वापस लौटे तो सबसे पहला काम था कि बेटे के विवाह की विभिन्न विडियो फिल्मों को इकट्ठा करके उन्हें मिला कर एक छोटी सी फिल्म बनायी जाये. करीब एक महीना तो इसी में निकल गया. फ़िर मन में एक उपन्यास लिखनी तमन्ना थी, तो वह शुरु किया. उसके साथ साथ आजकल एक इतालवी डाक्यूमैंट्री निर्देशिका को भारत में बनाई गयी फिल्म के कुछ हिस्से अनुवाद करने में सहायता कर रहा हूँ.
यानि कि खोने के लिए आसपास बहुत सारे रास्ते हैं, पर शायद कुछ अकेले से हैं. कभी कभी दिल करता है अकेलेपन से निकलने का, तो चिट्ठे को खोजते खोजते वापस आना ही पड़ता है.
शनिवार, फ़रवरी 18, 2006
लुक्का छुप्पी
भगत सिंह, राजगुरु आदि का गीत "सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाजुए कातिल में है", बचपन से जाने कितनी बार सुना और गाया होगा पर उनके शब्दों के बारे में कभी गहराई से सोचा नहीं था. मालूम नहीं कि यह "रंग दे बसंती" में इस गीत को कहने की तरीके की वजह से है या फ़िर गाड़ी में अकेले बैठे, बिना किसी अन्य शोर इत्यादि के सुनने की वजह से, पर इस बार इस गीत के शब्द सुन कर रौंगटे खड़े हो गये.
पर फिल्म का सबसे अच्छा गीत मुझे लगा "लुक्का छुप्पी, बहुत हुई सामने आजा ना", शायद इस लिए कि उम्र के साथ मेरी नज़र भी धुँधली पड़ने लगी है! गीत के कुछ अंश लोरी जैसे लगते हैं और लता जी की गाई हुई लोरियों का कौन मुकाबला कर सकता है. यह सोच कर कि यह गीत पचहत्तर साल की औरत गा रही है, कुछ अजीब भी लगता है और लता जी की आवाज़ पर आश्चर्य भी होता है. शायद यह सच है कि आज लता जी की आवाज़ में महल फिल्म के "आयेगा आनेवाला" या सुजाता की "नन्ही कली सोने चली" वाली बात नहीं है, पर मेरी नज़र में, अपनी तरह से आज भी लता जी की आवाज़ अनौखी है.
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फिल्मों के गीत हमारे जीवन में कितने अधिक समा जाते हैं, क्या ऐसा केवल उत्तरी भारत में हि्दी फिल्में देखने वालो के साथ ही होता है या फ़िर दक्षिण भारत में भी ऐसा ही होता है ? कुछ भी बात हो जीवन की, चाहे खुशी हो या दुख का लम्हा, या फ़िर रोज़मर्रा का साधारण पल, हर स्थिति के लिए मन में कोई न कोई गीत आ ही जाता है. उसके लिए सोचना नहीं पड़ता.
अगर ये गाने न हों तो लगता है कि जैसे खुशी या दुख अधूरे रह गये हों.
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मंगलवार को दो सप्ताह के लिए नेपाल जाना है. हालाँकि वहाँ की स्थिति के बारे में रोज़ चिंताजनक समाचार मिलते हैं पर फ़िर भी मन में अपने बारे में या यात्रा के बारे में कोई विषेश चिंता नहीं है. वहाँ लोग हड़ताल कर रहे हैं, बंद कर रहे हैं, जेलों में जा रहे हैं और मेरे मन केवल "यह देखूँगा, वहाँ जाऊँगा, उससे मिलूँगा.." जैसी बातें आतीं हैं.
नेपाल से आते समय दिल्ली में कुछ देर रुकने का मौका मिलेगा. इस खुशी में आज की तस्वीरें दिल्ली की सड़कों की.
इस वर्ष के लोकप्रिय आलेख
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हिन्दू जगत के देवी देवता दुनिया की हर बात की खबर रखते हैं, दुनिया में कुछ भी ऐसा नहीं जो उनकी दृष्टि से छुप सके। मुझे तलाश है उस देवी या द...
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अगर लोकगीतों की बात करें तो अक्सर लोग सोचते हैं कि हम मनोरंजन तथा संस्कृति की बात कर रहे हैं। लेकिन भारतीय समाज में लोकगीतों का ऐतिहासिक दृष...
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अँग्रेज़ी की पत्रिका आऊटलुक में बँगलादेशी मूल की लेखिका सुश्री तस्लीमा नसरीन का नया लेख निकला है जिसमें तस्लीमा कुरान में दिये गये स्त्री के...
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पिछले तीन-चार सौ वर्षों को " लिखाई की दुनिया " कहा जा सकता है, क्योंकि इस समय में मानव इतिहास में पहली बार लिखने-पढ़ने की क्षमता ...
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पत्नी कल कुछ दिनों के लिए बेटे के पास गई थी और मैं घर पर अकेला था, तभी इस लघु-कथा का प्लॉट दिमाग में आया। ***** सुबह नींद खुली तो बाहर अभी ...
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सुबह साइकल पर जा रहा था. कुछ देर पहले ही बारिश रुकी थी. आसपास के पत्ते, घास सबकी धुली हुई हरयाली अधिक हरी लग रही थी. अचानक मन में गाना आया &...
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हमारे घर में एक छोटा सा बाग है, मैं उसे रुमाली बाग कहता हूँ, क्योंकि वो छोटे से रुमाल जैसा है। उसमें एक झूला है, बाहर की सड़क की ओर पीठ किये,...
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हमारे एक पड़ोसी का परिवार बहुत अनोखा है. यह परिवार है माउरा और उसके पति अंतोनियो का. माउरा के दो बच्चे हैं, जूलिया उसके पहले पति के साथ हुई ...
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२५ मार्च १९७५ को भी होली का दिन था। उस दिन सुबह पापा (ओमप्रकाश दीपक) को ढाका जाना था, लेकिन रात में उन्हें हार्ट अटैक हुआ था। उन दिनों वह एं...
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गृत्समद आश्रम के प्रमुख ऋषि विद्यार्थियों को पढ़ा रहे थे, जब उन्हें समाचार मिला कि उनसे मिलने उनके बचपन के मित्र विश्वामित्र आश्रम के ऋषि ग...