सोमवार, सितंबर 05, 2005

कुकुरमुत्ता बाग

सुबह और शाम जब गावों में गायें धूलि उड़ाती हुई, घंटियां बजाती हुई चलती हैं, शहरों में धूँआ उगलती, होर्न बजाती बस और स्कूटर पर काम से लोग लौटते हैं, हमारा कुकुरमुत्ता बाग जाने का समय हो जाता है. जिन जिन के यहाँ कुत्ते हैं वह अपने लाडलों और लाडलियों को ले कर सैर के लिए निकल पड़ते हैं. हमारे परिवार में यही नियम है कि अगर मैं घर पर हूँ तो यह मेरी जिम्मेदारी है कि मैं समय पर अपने कुत्ते को उसकी मल मूत्र (क्षमा कीजिये पर इन शब्दो के लिए पर इस बारे में बात करने का कोई अन्य तरीका भी नहीं है) आदि की जरुरतों के लिए बाहर सैर पर ले जाऊँ.

शहरों में जहाँ एक बिल्डिंग में रह कर भी, अपने पड़ोसियों को नहीं पहचानने का नियम है, कुत्ते आप की जान पहचान बढ़ाने का काम करते हैं. अन्य कुत्ता स्वामियों से पहचान तो अपने आप ही हो जाती है क्योंकि कुत्तों ने अभी "पड़ोसियों को न पहचानने" वाले नियम के बारे में नहीं सुना, और शायद सुनना ही नहीं चाहते. उनके इलावा, अन्य लोग जो अकेलेपन को महसूस करते हैं, जैसे घर के बड़े बूढ़े, उनसे भी जान पहचान कुत्तों के बहाने आसानी से हो जाती है. हालाँकि कभी कभी यह जान पहचान कुछ अजीब सी होती है, जैसे हमारे बाग में, हम सभी कुत्तों के नाम तो जानते हैं, उनके मालिकों से हमेशा हँस कर दुआ सलाम होता है पर हमें किसी का भी नाम नहीं मालूम. यानि हम लोगों को "एशिया के मालिक", "टक्की की मालकिन", "साशा की वह मोटी मालकिन", के नामों से याद रखते हैं.

इसमे गलती उनकी नहीं कि अपना नाम नहीं बताना चाहते, हमारे कुत्ते की है जो घर में गुमसुम सा भोला भाला रहता है पर बाहर निकलते ही बाकी कुत्तों को देखते ही या तो "भौंकना चैम्पियन" बन जाता है या शक्त्ति कपूर की तरह अपनी सभी सखियों के ऊपर चढ़ने की कोशिश करता है, इसलिए किसी से ठीक से बात करने का मौका नहीं मिलता.

पर जिसने भी यह सोचा कि जहाँ कुत्ते मूतते हैं वहाँ कुकुरमुत्ते निकल आते हैं, यह ठीक नहीं है. हमने अपने वैज्ञानिक जाँच से इसकी गहराई में जाँच पड़ताल की है. अगर यह सच होता तो हमारा बाग अब तक कुकुरमुत्तों का जंगल बन गया होता, पर हमारे बाग में कभी एक भी कुकुरमुत्ता नहीं दिखाई दिया.

आज हमारे कुकुरमुत्ता बाग से दो तस्वीरें:


रविवार, सितंबर 04, 2005

बचपन से जवानी का रास्ता

शाम को बेटे को लेने फोर्ली जाना था. वह लंदन से रायन एयर की उड़ान से वापस आ रहा था. फोर्ली का हवाई अड्डा हमारे शहर से ७० किलोमीटर दूर है और सस्ती उड़ाने वहीं आती हैं. रास्ते में, उड़ान आने में अभी समय था, इसलिए सोचा कि इमोला रुक कर चलेंगे. इमोला छोटा सा शहर है, करीब ३० किलोमीटर दूर, जहाँ हम करीब दस साल तक रहे थे. सात साल पहले बोलोनिया में घर लेने के बाद वहाँ वापस कभी नहीं गया था.

इमोला "ग्रान प्री फोरमूला-एक" की कार रेस के लिए मशहूर है. अप्रेल में जब कार रेस के दिन आते हैं तो देश विदेश से लाखों पर्यटक यहाँ आते हैं और एक सप्ताह के लिए वहां की जनसंख्या ३० हजार से ३० लाख हो जाती है. जब वहाँ रहते थे तो उस एक सप्ताह में बड़ी कोफ्त होती थी. इतनी भीड़ की कुछ भी काम न हो पाये. सड़कों के फुटपाथों पर लोग कार पार्क कर देते, बागों में टेंट लगा देते, और कार रेस ट्रेक से कारों की घुर घुर इतनी तेज़ होती जैसे हवाई जहाज़ की आवाज होती है.

इतने दिनों बाद वहाँ लौटना अच्छा भी लगा और अजीब भी. वही पुरानी सड़कें जहाँ से रोज गुजरता था, जानी पहचानी भी लग रहीं थीं और नयी भी. किले के पास घूम रहे थे जब अचानक पत्नी ने एक लड़के को आवाज लगायी, "रिक्की!" मैं तो पहले पहचान नहीं पाया. लम्बा, पतला सा लड़का. बिखरे गंदे बाल, पतला शरीर, बुझा चेहरा, गंदे कपड़े. धीरे धीरे पास आया तो याद आया. बेटे का स्कूल का दोस्त था, अकसर घर आता था. कई बार बेटे के साथ साथ उसे भी मैंने होम वर्क करवाया और पढ़ाया था. उसके पिता की फैक्टरी है और बहुत पैसे वाले लोग हैं. कभी कभी मिलते थे पर विषेश दोस्ती नहीं थी. इमोला से आने के बाद, जानता था कि मेरे बेटे से कभी बात होती है पर मैंने उससे या उसके परिवार से दोबारा बात नहीं की थी.

उसे देख कर हैरान हो गया. इतना कैसे बदल गया था. वह खास बोला नहीं, बस सिर हिलाता रहा. चार पाँच मिनट बात की, मेरी पत्नी ने ही बात की, घर की, परिवार के समाचार पूछे. सारे समय वह या तो नीचे देखता रहा या फिर उसकी आँखें इधर उधर अजीब ढ़ंग से घूम रहीं थीं जैसे कैद हुआ हिरन भागने का रास्ता ढ़ूंढ़ रहा हो. छोटा सा सुंदर सा हँसमुख लड़का जो मेरी याद में था वह इस गम्भीर, बीमार से नवजवान से बिल्कुल मेल नहीं खाता था. बाद में पत्नी ने कहा कि शायद नशा करता है.

सब कुछ तो था उनके पास. पढ़े लिखे शालीन माता पिता, पैसा, सभी सुख, बचपन से जवानी के रास्ते में क्या हुआ ? ऐसा कैसे हो गया?

आज की तस्वीरे इमोला सेः इमोला का किला और पुरानी कपड़े धोने की जगह, जहाँ स्त्रियाँ कपड़े धोने आती थीं और आज भी बूढ़ी औरतें कपड़े धोने के बहाने आ जाती हैं.


शनिवार, सितंबर 03, 2005

राग अनुराग

"यह क्या टें टें लगायी है, कुछ अच्छा संगीत नहीं है क्या ?", शास्त्रीय संगीत सुन कर अधिकतर लोग कुछ ऐसा ही कहते हैं. मैं भी बचपन में ऐसा ही सोचता था. फिर जब १५-१६ साल का था तब पहली बार कुमार गंधर्व के भजन सुने तो उनका प्रशंसक हो गया. "उड़ जायेगा, हँस अकेला, जग दर्शन का मेला" जैसे उनके भजन मुझे आज भी उतना ही आनंद देते हैं जितना ३५ साल पहले देते थे. धीरे धीरे उनके अन्य संगीत को जानने की इच्छा हुई. कुछ शास्त्रीय रचनाएँ सुनी उनकी पर उन्हें ठीक से नहीं समझ पाया. फिर कुछ अन्य शास्त्रीय गायकों को देखने और सुनने का मौका मिला, जैसे पंडित भीमसेन जोशी, पंडित जसराज. उनकी सरल रचनाएँ, गीत या भजन आदि तो अच्छे लगते पर पूरे शास्त्रीय राग सुन कर कोई विषेश आनंद नहीं आता था.

कुछ समय बाद मौका मिला प्रभा अत्रे जी का गाया राग कलावती में "तन मन धन तोपे वारुँ" सुनने का. पहली बार समझ में आया कि शास्त्रीय संगीत कितना अच्छा हो सकता है. आज भी उनका यह गायन सुन कर रौगंटे खड़े जाते हैं. एक बार उनके इस गायन को कमरा बंद करके, बिना शोर के या फिर इयरफोन के साथ सुनिये, कुछ कुछ समझ आ जायेगा कि शास्त्रीय संगीत में क्या आनंद हो सकता है.

मुझे गायको से गायिकाएँ अधिक पसंद हैं, जैसे किशोरी आमोनकर, श्रुती सादोलिकर, वीणा सहस्रबुद्धे, मालिनी राजुरकर, इत्यादि. अभी तक केवल उत्तर भारत के हिंदुस्तानी संगीत की बात की है, दक्षिण भारत के कर्नाटक संगीत की नहीं. शुरु शुरु में कुछ बार सुनने की कोशिश की, पर कुछ खास मजा नहीं आया. वही बात मन में आती, "क्या एक जैसी टें टें चलती रहती है". फिर एक बार एकांत में बिना शोर के, ध्यान से सुनने की कोशिश की, तब आनंद आया.

मेरे विचार में अगर आप समझना चाहते हैं कि लोगों को शास्त्रीय संगीत में क्या मिलता है, तो इसे अकेले में पूरे ध्यान से सुनिये. शुरु शुरु में अगर आप कुछ और काम करते हुए इसे साथ साथ सुनेगें तो इसमे छुपी हुई ध्यान, साधना और भक्त्ति को नहीं समझ पायेंगे. मुझे आज भी रागों के नाम या उन्हें पहचानना नहीं आता, पर उसके बिना भी शास्त्रीय संगीत को सुन कर आनंद लिया जा सकता है.

आज दो तस्वीरें उत्तरी इटली की एल्पस पहाड़ों में "त्रेसका और कोंका" वादी सेः

शुक्रवार, सितंबर 02, 2005

भाई की खोज

"२६ सितंबर, १९४४. चौदह साल का था मैं, वहाँ, उस कोने पर खड़ा था. हर पेड़ के नीचे पर एक लाश झूल रही थी", उनकी आवाज में कोई भावना नहीं झलकती. वह यह कहानी जाने कितनी बार पहले भी सुना चुके होंगे. यहाँ आने वाले पर्यटकों को. हम लोग उत्तरी इटली में एक छोटे से शहर "बसानो देल ग्रापा" में थे. शहर के प्रमुख पियात्सा (चौबारे) से घड़ी के काँटे जैसी कई सड़कें शुरु होती हैं और इस चांदाकार सड़क पर समाप्त होती हैं. लगता है जैसे किसी सिनेमा हाल की बालकनी पर खड़े हों. एक तरफ गोल घूमती सड़क और शहर की प्राचीन दीवारें और दूसरी ओर नीचे एक हरी भरी घाटी और फिर ऊँचे पहाड़. करीब ही बहती है ब्रेंता नदी जिस पर बना प्राचीन पुल द्वितीय महायुद्ध में पूरा नष्ट हो गया था पर जिसे दोबारा से अपने पुराने रुप में बनाया गया है.

जहाँ सड़क खत्म होती है और वादी शुरु होती है, वँही कतार में लगे हैं वे ३१ पेड़ जिनकी बात हमारे गाइड कर रहे हैं. हर पेड़ एक छतरी की तरह तराशा लगता है. हर पेड़ पर लगा है उस पर फाँसी चढ़ने वाले का नाम, किसी किसी की फोटो भी है. इतनी सुंदर जगह पर मौत की बात कुछ अजीब सी लगती है. "आप जानते थे, उनमें से किसी को ?", मैंने पूछा.

"जानता था ? हमारे यँही के तो लड़के थे सब. सबको जानता था", हमारे गाइड की आवाज भर्रा आयी, "बच्चे थे वे भी मेरे जैसे, सोचते थे कि जर्मन सिपाहियों और फासिस्टों से अपना देश आजाद करवाना है. जर्मन तब हारने लगे थे, फासिस्टों को डर लगने लगा था."

कुछ देर चुप रह कर वे फिर बोले, "हमारे घर के पास रहती थी एक औरत. उसने सुना कि फाँसी लगने वालों में शायद उसका भाई जिरोलामों भी है, साइकल पर आयी थी और हर पेड़ के नीचे लटकी लाश के चेहरे देख रही थी. था एक जिरोलामो फाँसी चढ़ने वालों में से, पर वह उसका भाई नहीं था. बहुत सी बातें भूल गया हूँ पर यह बात नहीं भुला पाया, उसका हर पेड़ पर लटकी लाश में अपना भाई ढ़ूंढ़ना."

बासानो देल ग्रापा के शहीद मार्ग के पेड़ और ब्रेंता नदी पर पुल



गुरुवार, सितंबर 01, 2005

यादों के रंग

मुझे काम से उत्तरी इटली जाना था, पत्नी से साथ चलने को कहा, काम के बहाने सैर हो जायेगी. वह बोली कि अगर दो दिन की छुट्टी मिल जाये तो हम लोग स्कियो भी जा सकते हैं. स्कियो, यानि हमारी ससुराल. बहुत दिन हो गये थे ससुराल गये भी तो हमने भी तुरंत हाँ कर दी. वहाँ हमारी बड़ी साली साहिबा इन दिनों घर में अकेली हैं तो प्लेन यह बना कि काम समाप्त होने पर स्कियो से उनको ले कर, आसपास के छोटे छोटे शहरों में दो दिन घूमा जाये.

छोटा सा शहर है स्कियो, उत्तरी इटली में एल्पस के पहाड़ों से घिरा हुआ. इन दिनों में वहाँ मौसम भी अच्छा है, दिन में सुहावना और रात को थोड़ी सी सर्दी. पहाड़ों के अलावा, वहाँ बहुत सी झीलें भी हैं. दो दिन कैसे बीत गये पता ही नहीं चला. बहुत से छोटे शहर देखे जहाँ पहले कभी नहीं गया था या पंद्रह बीस साल पहले गया था.

सारे रास्ते में मेरी पत्नी अपनी बड़ी बहन से बातें करती रहीं. "वो याद है जब हम लोग उस पगडंदी पर साइकल ले कर घूमने गये थे ... वहाँ से केमिस्ट की दुकान से दवाई लेने गये थे ... वहाँ आइसक्रीम कितनी अच्छी थी ... वहाँ की जो मालकिन थी, जिसे बाद में केंसर हो गया था..." उन्ही शहरों में उन्होंने शादी से पहले बहुत बार छुट्टियाँ बितायीं थीं और उनसे जुड़ी हज़ार यादें थीं. हर जगह पहुँच कर सारी कहानी सुननी पड़ती, किसका कहाँ पर क्या हुआ था. शुरु शुरू में तो ध्यान से सुना पर फिर थोड़ी देर में थक गया. मन में सोच रहा था कि ऊपर से जाने हम कितने भिन्न हों, पर अंदर से सारी दुनिया में सभी लोग एक सी होते हैं. भाई-बहन जब बहुत दिनों बाद मिलते हैं और पुरानी जगहों को देखते हैं तो हर जगह एक जैसी ही बातें करते हैं. पुराने मित्रों की, पुराने गानों की, किसकी शादी हुई, कौन मरा, कौन चला गया.

आज की तस्वीरें इसी यात्रा से.

पिछले चिट्ठे के बारे में जिसमे पुराने आने-टकों की बात की थी, स्वामी जी और अतुल ने टिप्पड़ियों में मेरी गलतियों को सुधारा है और अन्य जानकारी भी दी है, दोनो को धन्यवाद.

विचेंज़ा का घंटाघर

लावारोने की झील

सोमवार, अगस्त 29, 2005

एक रुपइया बारह आना

कल कार में "चलती का नाम गाड़ी" फिल्म का यह गीत सुन कर मन में उन दिनों की याद आयी जब पैसों के नाम पाई, धेला, टका और आने होते थे. आज भी कितने पुराने तरीके हैं बोलने के जिनमें वो दिन अभी भी जिंदा हैं. "मैं तुम्हारी पाई पाई चुका दूंगा" या फिर "दो टके का आदमी" और "बात तो सोलह आने सच है", जैसे वाक्य शायद अब लोग कम ही समझते होंगे ?

क्या कभी कभी कोई पूछता भी है कि इस तरह के शब्द कहां से आये ? पाई, धेला और टका में से कौन सा बड़ा है और कौन सा छोटा, मुझे नहीं याद. मेरे ख्याल से १९६० के आसपास भारतीय प्रणाली बदल कर रुपये और पैसे वाली बन गयी थी. मुझे कथ्थई रंग का सिक्का जिसके बीच में छेद था और एक आने के चकोर सिक्के की थोड़ी सी याद है.

एक आना यानि ६ पैसे, चवन्नी यानि चार आने, अठन्नी यानि आठ आने और सोलह आने का रुपया जिसमें ९६ पैसे होते थे. शायद अब ये शब्द केवल पुराने फिल्मी गानो में ही रह गये हैं, जैसे एक रुपइया बारह आना, आमदन्नी अठन्नी खर्चा रुपइया. हां मन में एक शक सा है. लगता है कि पाई, धेला, टका पंजाब के या उत्तर भारत के शब्द हैं. इन्हें दक्षिण भारत में क्या कहते थे ?


आज की तस्वीरे एक बार फिर फैरारा शहर से, जिनका विषय है मूर्तियां.


रविवार, अगस्त 28, 2005

छोटी सी पुड़िया

कल रात को टीवी पर समाचार में बताया कि स्विटज़रलैंड में एक नये शोध कार्य ने साबित कर दिया है कि होम्योपैथी सिर्फ धोखा है. इस शोध कार्य के अनुसार, लोगों को अगर होम्योपैथी की गोलियों के बदले सिर्फ चीनी की गोलियां दी जायें तो भी उतना ही असर होता है, यानि कि होम्योपैथी में दवाई का असर नहीं केवल मन के विश्वास का असर है.

इस समाचार से एक पुरानी बात याद आ गयी. करीब बीस बरस पहले एक बार मेरे कंधे में दर्द हुआ. तब डाक्टरी की पढ़ाई पूरी कर चुका था, तो अपने लिए दवाई खुद ही चुनी. चार पांच दिन तक ऐंटी इन्फलेमेटरी दवा की गोलियां खा कर पेट में दर्द होने लगा था पर कंधा का दर्द कम नहीं हुआ. फूफा तब रिटायर हो गये थे और होम्योपैथी की दवा देते थे, मुझसे सवाल पूछने लगे. पूछताछ कर के उन्होंने मुझे तीन पुड़िया बना दी. पहली पुड़िया मैंने वहीं खायी और उस दिन घर वापस आते आते, दर्द बिल्कुल गुम हो गया. मैंने बाकी की दोनो पुड़ियां सम्भाल कर पर्स में रख लीं. वे पुड़ियां मेरे साथ इटली आयीं. करीब सात आठ साल पहले, एक बार फिर कंधे में दर्द हुआ, तो उनमें से एक पुड़िया मैंने खा ली और दर्द तुरंत ठीक हो गया. आखिरी पुड़िया मैंने खो दी.

सोचता हूं कि हमारा सारा जीवन ही एक विश्वास प्रणाली के धरातल पर बनता है. आज की आधुनिक चिकित्सा विश्वास प्रणाली शरीर के विभिन्न हिस्सों की बनावट और काम के विश्वास के धरातल पर टिकी है. सभी इलाज और शोध कार्य भी इसी विश्वास के ऊपर टिके हैं.

पर मैं सोचता हूँ कि इस दुनिया में सभी चीज़ें, धरती, पानी आग, हवा, मानव, पशु, पंछी, पत्थर, पेड़, सब कुछ अंत में देखा जाये तो एक जैसे अणुओं का बना है, जिसके अंदर अल्फा, बीटा, गामा इत्यादि कण हैं. यही अणु दवा में भी हैं, शरीर में भी, हवा में भी, जीवित में भी, मरे हुए में भी. हम शरीर के भीतर जा कर माइक्रोस्कोप से देख कर, यंत्रों से माप कर, सोचते हैं हमने सब समझ लिया पर डीएनए में भी, जीनस में भी यही अणु हैं. जीवन ही एक रहस्य है जो अणुओं के बीच साँस भर देता है.

क्या मालूम कल एक और नयी विश्वास प्रणाली आ जाये और नयी दवाईयाँ बन जायें. तब तक मैं अपनी ब्लड प्रैशर की दवा तो लेता रहूँगा और जरुरत पड़े तो होम्योपैथी भी ले सकता हूँ, कोई भी शोध कार्य कुछ भी कहे, यही मेरे विश्वास हैं.

कुछ और तस्वीरें फैरारा के बस्कर फैस्टीवल की.

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