जिन सभ्यताओं में शाकाहारी खाने का कंसेप्ट ही नहीं है, वहाँ जरा यह बता कर देखिये कि साहब हम मीट नही खाते, वे कहेंगे, अच्छा तो चिकन ले लेजिये या मछली खा लीजिये. जब आप मीट, चिकन, हेम, पोर्क, मछली, अंडे इत्यादि की पूरी सफाई दे कर समझाते हैं कि आप कुछ नहीं खाते, तो वे आपको ऐसे देखते हें मानो आप हिमालय के येती हैं या फिर अस्पताल में बंद करने लायक पागल, और दया भरी आवाज में कहते हैं, अच्छा तो यह लीजिये, हमने इसमे से सारा माँस निकाल दिया है, कोई छोटा मोटा टुकड़ा रह गया हो तो आप खाते समय निकाल दीजियेगा.
अरे फिर भी आप इसे खाने से हिचकचा रहे हैं ? समझाईये आप उन्हें, कि माँस के साथ बने, मिले खाने को नहीं खा सकते या माँस न खाने का मतलब है कि आप माँस का सूप भी नहीं पीते!
पर बात मेरी कसम की हो रही थी. मानता हूँ कि यह कसम गाँधी जी के आँख मूंदे हुए बंदर जैसी है, पर जीने के लिए कोई न कोई बहाना तो निकालना ही पड़ता है. दिक्कत तब होती है जब पकवान ऐसे पकाया जाता है कि आप को जंतु को पहचानने में गलती नहीं हो सकती. कुछ पूछने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती. एक ऐसा अनुभव कोंगो में हुआ. वहाँ की राजधानी किनशासा में एक खाने में कानखजूरे बने थे. उन्हें शायद भाप में पकाया गया था, क्योंकि साफ दिख रहा था कि वे कानखजूरे ही थे. एक प्लेट में लाल या भूरे रंग के, दूसरी प्लेट में काले से. जिनके यहाँ खाना था वे बोले, बहुत प्रोटीन है इनमें. उनके बहुत जोर देने पर, बस एक ही खा पाया. मेरी चीन में केवल तीन मधुमक्खियों के खाने पर कुछ बेदर्द सी चुटकियाँ लीं गयीं तो जाहिर है कि सिर्फ एक कानखजूरा खाने पर कुछ और कहा जायेगा. कह लीजिये जनाब, जो मधुमक्खी या कानखजूरे खा सकते हैं वह आप की बात भी सुन लेंगे.
आज लंदन जाना है इसलिए दो दिन के लिए चिट्ठे की छुट्टी. आज की तस्वीरें कोंगो से.

