बावली पर पहुँचने का रास्ता हैः बारहखम्बा मार्ग से हेली रोड पर मुड़िये, करीब २५ मीटर के बाद दाहिनी ओर हेली लेन में मुड़ जाईये और फिर लेन में छोटी सी गली बाँयी ओर जाती है, उसमे मुड़ जाईये. हेली रोड से पैदल जाने का पाँच मिनट का रास्ता है.
खैर बावली से निकले तो बाहर धोबियों के धोये हुए, धूप में सूखते, फ़ैले कपड़ों को देख कर उनकी तस्वीर लेनी चाही. हमें देख कर एक युवक ने हमें उसी गली में बने धोबी घाट को देखने का आमंत्रण दिया. इससे पहले कभी कोई धोबी घाट नहीं देखा था और मन में यह ज्ञियासा भी थी कि शहर के बीचों बीच में कैसे धोबी घाट बन सकता है, क्योंकि मेरा विचार था कि धोबी घाट केवल नदी के किनारे ही होते हैं. इसलिए आमंत्रण हमने तुरंत स्वीकार कर लिया.
हेली लेन का धोबी घाट विषेश बड़ा नहीं है. कुछ नहाने के टब और कुछ बने हुए घाट मिला कर वहाँ १७ घाट हैं जहाँ करीब ५० धोबी कपड़े धोते हैं और उग्रसेन की बावली के आसपास जो कुछ खुली जगह है, वहाँ उन्हें वहाँ सुखाते हैं. घाट में हमारी मुलाकात रोहित कनोजिया से हुई. रोहित बीए पास नवयुवक हैं, धोबी परिवार में जन्मे रोहित को कोई अन्य काम नहीं मिला और वह भी धोबी का ही काम करते हैं. रोहित ने वहाँ के धोबियों के संघर्ष के बारे में हमे बताया.
अगस्त २००५ दिल्ली सरकार के जल निगम ने उनके पानी की दर को व्यासायिक करने का फैसला किया था. इस फैसले की वजह से घाट के पानी का बिल ३ या ४ हजार रुपये से बढ़ कर ३५ या ४० हजार रुपये हो गया है. रोहित का कहना है कि धोबियों की सारी कमायी यह पानी का बिल देने में चली जाती है और उनके पास बच्चों को स्कूल भेजने के भी पैसे नहीं हैं. अन्य कुछ धोबियों ने इस बात की पुष्टी की. एक धोबी हाथ में मेजपोश दिखा कर बोला, "इसको धोने और प्रेस करने का होटल वाले मुझे ३० पैसे देते हैं, बताओ कैसे बढ़ायें हम इसकी कीमत ? कौन देगा हमें इतने पैसे कि हम यह बिल भर सकें ?"
रोहित कहता है कि वे लोग दिल्ली की मुख्यमंत्री श्रीमति शीला दीक्षित से भी मिल चुके हैं और अन्य कई अधिकारियों से भी, पर छः महीनों के बाद अभी तक कुछ नहीं हुआ है. इस दौरान, उनके पानी के बिल बढ़े हुए आ रहे हैं और उन्हे पानी कटने के डर से उन्होने पेट काट कर भरा है. एक अन्य धोबी घाट के बारे में रोहित ने बताया कि वहाँ की जमीन मंत्रियों और अधिकारियों के सम्बंधियों को सस्ते दाम में दे दी गयी है.
रोहित ने अपने संघर्ष के लिए सहयोग माँगा है और इसीलिए मैंने इस बात को विस्तार में लिखना चाहा है, हालाँकि चिट्ठे में लिखी मेरी बात से कुछ हो सकेगा, इसमे मुझे बहुत संदेह है.
रोहित से हुई मुलाकात ने मुझे बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया. एक तरफ से मैं समझता हूँ वित्त मंत्रालय की बात कि पानी की सही कीमत ली जानी चाहिये, पानी सस्ता देने से उसका सही उपयोग नहीं होता. पर धोबी जैसे पारम्परिक धँधे को व्यवसायिक मानना मुझे सही नहीं लगता. ड्राई क्लीनर अगर कपड़े साफ करने के लिए दुगना या तिगुना माँगें, और वह ऐसा ही करते हैं, तो कोई कुछ नहीं कहेगा पर घर के नीचे कपड़े धोने या प्रेस करने वाला अधिक माँगे, यह स्वीकार नहीं किया जाता.
ऐसी हालत में धोबी को अन्य धंधों की तरह व्यव्सायिक मानने का अर्थ है कि धीरे धीरे धोबी का काम ही खत्म हो जाये. शायद यही चाहता है आज का आधुनिक भूमंडलीकरण का ज़माना ? पर साथ साथ यह भी लगता है कि आज जब इतनी तकनीकी तरक्की हो गयी है, क्यों मानव जाति को ऐसे कमर तोड़ काम करने पड़ते हैं, क्या उनका जीवन अधिक आसान नहीं किया जा सकता ?
दूसरी बात रोहित जैसे पढ़े लिखे सोचने वाले युवकों की है. हमारी रिजर्वेशन नीति के बावजूद उस जैसे लड़के को हमारा आधुनिक भारत क्या कोई और मौका नहीं दे सकता बजाय धोबी बनने के ? मैं यह नहीं कहता कि धोबी का काम खराब है या निम्न है. पर क्या दिन भर पानी में खड़े हो कर, झुक कर हाथों से दिन भर कपड़े धोना, क्या यही नियती है पढ़े लिखे लड़कों की, जिन्होने सरकारी नगर निगम के विद्यालय से साधारण शिक्षा पायी हो और जिनकी जान पहचान न हो ?
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इतनी कोशिशों के बाद भी नौटंकी की ऐसी कोई किताब नहीं मिली जिसमे नौंटंकी का पूरा नाटक, गाने वगैरा हों. किसी ने कहा है ऐसी किताबें फुटपाथ पर सस्ती किताबें बेचने वालों के पास मिलती है जिन्हें बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाँवों से आये लोग पढ़ते हैं. पर उन्हें ढ़ूँढ़ने का समय ही नहीं मिला. चाहे नौटंकी की किताब न भी मिली हो, उसे खोजने में बहुत आनंद आया और अच्छी अच्छी जगह देखने को मिलीं.
कल फिर दिल्ली से वापस इटली लौट आये. दिल्ली में बीते तीन सप्ताह सपना सा लगते हैं!
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दिल्ली में बड़ी दीदी ने भी हिंदी में अपना चिट्ठा लिखने की इच्छा व्यक्त की. ब्लोगर डोट कोम पर उनके लिए नया ब्लाग भी खोल दिया और क्योंकि उनके क्मप्यूटर पर विनडोस ९५ है, उसके अनुसार रघु फौंट तथा तख्ती का प्रोग्राम भी लगा दिया. पर वह जब तख्ती पर लिखती हैं, उनके आधे वाले अक्षर ठीक नहीं आते. युनीकोड की हिंदी पढ़ने में भी उनकी यही समस्या है कि आधे अक्षर ठीक नहीं दिखते. इसका क्या कारण हो सकता है ? इसके बारे में जानने वाले शायद इसका कोई उपाय बता सकेंगे ?