1966-67 की बात है, तब हम लोग दिल्ली के करोलबाग में रहने आये थे. मेरे कामों में सुबह और शाम को दूध लाने का काम की जिम्मेदारी भी थी. यह "श्वेत क्राँती" वाले दिनों से पहले की बात है जब दिल्ली में दिल्ली मिल्क सप्लाई के डिपो होते थे और काँच की बोतलों में दूध मिलता था. नीले रंग के ढक्कन वाला संपूर्ण दूध, सफेद और नीली धारियों के ढक्कन वाला हाल्फ टोन्ड यानि जिसमें आधा मक्खन निकाल दिया गया हो, और हल्के नीले रंग के ढक्कन वाली बिना मक्खन वाला दूध. गिनी चुनी दूध की बोतलों के क्रेट आते और बूथ खुलते ही आपा धापी मच जाती, थोड़ी देर में ही दूध समाप्त हो जाता और देर से आने वाले, बिना दूध के घर वापस जाते.
दूध पक्का मिले इसके लिए डिपो खुलने के कुछ घँटे पहले ही उसके सामने लाईन लगनी शुरु हो जाती. यानि सुबह चार बजे के आसपास और दोपहर को तीन बजे के आसपास. सुबह सुबह उठ कर डिपो के सामने पहले अपना पत्थर या खाली बोतल रखने जाते फ़िर, डिपो खुलने से आधा घँटा पहले वहाँ जा कर इंतज़ार करते. उसी इंतज़ार में अपने हमउम्र बच्चों के साथ खेलने का मौका मिलता. पहले जहाँ रहते थे, वहाँ सभी बच्चे हमारे जैसे ही थे, निम्न मध्यम वर्ग के, पर करोलबाग में बात अलग थी. यहाँ लोग कोठियों में रहने वाले थे, हर घर में एक दो नौकर तो होते ही थे और दूध लाने का काम अधिकतर छोटी उम्र के नौकर ही करते.
उनके साथ रोज खेल कर ही जाना बचपन में काम करने वाले बच्चों के जीवन को. किशन, राजू, टिम्पू मेरे दूध के डिपो के खेल के साथी थे. किसकी मालकिन कैसी है यह सुनने को मिलता.
एक दिन खेल रहे थे कि किशन ने मुझसे पूछा, "तुम किस घर में काम करते हो?" तो सन्न सा रह गया. मैं नौकर नहीं हूँ, सोचता था कि यह बात तो मेरे मुख पर लिखी है, मेरे कपड़ों में है, मेरे बोलने चालने में है. "मैं नौकर नहीं हूँ!" मैंने कुछ गुस्सा हो कर कहा और किशन से दोस्ती उसी दिन टूट गयी. मुझे लगा कि उसने वह प्रश्न पूछ कर मेरा अपमान किया हो. पर मन में एक शक सा बैठ गया और हीन भावना बन गयी कि शायद बाहर से मैं भी गरीब नौकर सा दिखता हूँ.
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बात 1978-79 की होगी. मैं तब डा. राम मनोहर लोहिया अस्पताल में पढ़ रहा था. एक दिन काम से शाम को अस्पताल से लौट रहा था तो एक बच्चे को उठाये एक भिखारन समाने आ कर खड़ी गयी, भीख माँगते हुए बोली, "साहब जी, बहुत भूख लगी है."
पहली बार थी किसी ने साहब जी कहा था. अचानक मन में दूध के डिपो पर हुई किशन की बात याद आ गयी और मन में संतोष हुआ कि शायद अब बाहर से उतना गरीब नहीं लगता.
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1982 की बात होगी, मैं इटली में रहता था और भारत आया था. रफी मार्ग से पैदल जा रहा था कि किसी ने पीछे से पुकारा, "सर, डालर चैंज, डालर चेंज! वेरी गुड रेट सर."
मन में आश्चर्य हुआ कि उसने कैसे जाना कि मैं विदेश से आया था? क्या मेरी शक्ल बदल गयीं थी या चलने का तरीका बदल गया था? सैंडल पहने हुए थे, और कँधे पर झोला टँगा था, अपने आप में तो मुझे कोई फर्क नहीं लग रहा था, पर कुछ था जो बदल गया था?
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1996 की बात है, मैं और मेरी पत्नी हम बम्बई में चर्चगेट के पास जा रहे थे. भारत में छुट्टियों में गये थे. पेन बेचने वाला पीछे लग गया. "अँकल जी ले लो प्लीज, मेरी कोई बिक्री नहीं हुई." घूम कर देखा तो कोई बच्चा नहीं था, अच्छा खासा नवजवान. क्या मैं इतने बड़े का अंकल लगता हूँ?
मन में अजीब सा लगा. तब तक भाई साहब सुनने को तो मिलता था पर पहली बार कोई व्यस्क मुझे अंकल जी कह कर बुला रहा था.
जब वापस होटल पहुँचे तो शीशे में अपना चेहरा देखा. हाँ इतने सफेद बाल तो होने लगे थे कि अंकल बुलाया जाऊँ!
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कल मिलान में मारियो नेग्री इंस्टीट्यूट में स्नाकोत्तर छात्रों को पढ़ाने गया था. कक्षा समाप्त होने पर वापस मिलान रेलवे स्टेशन जा रहा था जहाँ से बोलोनिया की रेल पकड़नी थी. बस में चढ़ा तो बस भरी हुई थी. जहाँ खड़ा हुआ, वहाँ बैठा लड़का खड़ा हो गया और मुझसे बोला कि यहाँ बैठ जाईये.
यह भी पहली बार ही हुआ है कि कोई बैठा हुआ मुझे अपनी जगह दे कर बैठने के लिए कहे! अब सारे बाल सफेद होने लगे हैं शायद इसीलिए उसने सोचा हो कि बूढ़े को जगह दे दो? या फ़िर पढ़ा कर बहुत थका हुआ लग रहा था?
बुधवार, मार्च 07, 2007
शुक्रवार, मार्च 02, 2007
मेरी प्रिय महिला चित्रकार (2) - अमृता शेरगिल (1)
भारत की शायद सबसे प्रसिद्ध महिला चित्रकार अमृता शेरगिल, भारत से बाहर कला विशेषज्ञों में उतनी पसिद्ध नहीं हैं, पर भारतीय कला क्षेत्र में उनका प्रभाव बहुत महत्वपूर्ण रहा है. भारतीय विषयों, विशेषकर सामान्य स्त्रियों और गरीबों के जीवन पर बने उनके चित्र में पाराम्परिक पश्चिमी कला शैली को भारतीय परिवेश में ढालने का काम जब उन्होंने बीसवीं सदी के तीसरे दशक में प्रारम्भ किया तो वह भारतीय कला क्षेत्र के लिए नवीनता थी. भारतीय कला क्षेत्र में अपना नाम बनाने और प्रसिद्धि पाने वाली वह पहली महिला थीं.
अमृता का जन्म 30 जनवरी 1913 में हँगरी की राजधानी बुदापस्ट में हुआ. उनके पिता सरदार उमराव सिंह अमृतसर के पास मजीठा से थे और पंजाब के राजसी घराने से सम्बंध रखते थे. उनकी रुचि साहित्य, आध्यात्मिकता, कला आदि क्षेत्रों में थीं. 1911 में उनकी मुलाकात हँगरी की मेरी अन्तोनेत्त से हुई जो महाराजा रंजीत सिंह के पोती राजकुमारी बम्बा के साथ भारत आईं थीं. उमराव सिंह ने अन्तोनेत्त से विवाह किया और विवाह के बाद पत्नी के साथ हँगरी चले गये जहाँ उनकी दो बेटियाँ हुई, अमृता और इंदिरा. वे दिन प्रथम विश्व महायुद्ध के थे और उन वर्षों में भारत यात्रा करना कठिन था. युद्ध की वजह से ही हँगरी में परिवार की आर्थिक हालत बहुत अच्छी नहीं थी.
भारत में उन्हें शिमला के एक कोनवेंट स्कूल में डाला गया, जहाँ भी वह खुश नहीं थीं और जहाँ से कुछ समय के बाद उन्हें निकाल दिया गया. 1927 में अमृता के हँगरी से माँ की तरफ के एक रिश्तेदार भारत आये, श्री एर्विन बक्टे जो चित्रकार थे और जिन्होने अमृता को जीते जागते आसपास के लोगों के चित्र बनाने की सलाह दी. इस तरह घर के नौकर चाकर, पड़ोसियों आदि से अमृता ने पहली बार भारतीय विषयों पर चित्र बनाना शुरु किया. 1929 में जब अमृता 16 वर्ष की थीं तो उनकी माँ ने उन्हें पेरिस में कला शिक्षा दिलाने की सोची. अमृता ने जल्दी ही फ्राँसिसी भाषा सीख ली और उनका व्यक्तित्व बदल गया, वह पार्टयों में जाने लगे, कलाकारों, लेखकों के साथ समय बिताने लगीं. पेरिस के कला विद्यालय से शिक्षा के साथ साथ यह उनका अपना जीवन अपनी तरह से जीने का समय था जिसे उन्होंने फ़िर दोबारा नहीं छोड़ा. पेरिस में एक पंजाबी रईस से उनका विवाह भी तय हुआ पर अमृता ने वह विवाह तोड़ दिया.
1934 में कला शिक्षा पूरी होने के बाद अमृता भारत लौट आई. तब तक उनके जीवन के बारे में बातें फैलने लगीं थीं कि वह स्वछंद किस्म की हैं, स्वतंत्र यौन सम्बंधों में विश्वास रखती हैं, विवाह नहीं करना चाहतीं, आदि और उनके पिता चाहते थे कि वे भारत न आयें बल्कि यूरोप में ही रहें, पर अमृता ने ठान लिया कि भारत ही उनका देश था और वापस आ कर उन्होंने भारतीय विषयों पर ही चित्र बनाने शुरु किये. कहा जाता है कि वह कई बार माँ बनने वाली थीं पर उन्होने बच्चा गिरा दिया. पहले कुछ दिन मजीठा की हवेली में रह कर, वह शिमला आ गयीं. इन वर्षों में वह भारत में बहुत जगह घूमीं.
1938 में वह हँगरी गयीं जहाँ उन्होंने अपने एक रिश्तेदार डा. विक्टर एगान से विवाह किया.हँगरी में उन्होंने करीब एक साल बिताया जिसके दौरान उन्होंने फ़िर से यूरोपीय विषयों पर चित्र बनाये. 1939 में जब द्वितीय महायुद्ध शुरु हो रहा था वह पति के साथ भारत लौटीं. शिमला में कुछ समय बिता कर उन्होने कुछ समय उत्तरप्रदेश के गौरखपुर जिले में बिताया और फ़िर वह लाहौर में रहने लगीं जहाँ 5 दिसंबर 1941 में 28 वर्ष की आयु में अमृता का देहांत हुआ. अमृता के जीवन के बारे में उनकी छोटी बहन इंदिरा के पुत्र विवेन संदरम ने लिखा है.
प्रसिद्ध भारतीय लेखक खुशवंत सिंह लाहोर के दिनों की अमृता को जानते थे और अपने एक लेख में अमृता के स्वछंद जीवन और स्वतंत्र यौन सम्बंध बनाने के बारे में उस समय की चर्चाओं के बारे में लिखा है और जिसमें वह अमृता के मुँहफट स्वभाव के बारे में बताते हैं. उनका कहना है कि अमृता की मृत्यु के बारे में चर्चा थी कि वह उस समय गर्भवति थीं, बच्चा नहीं चाहतीं थी और उनके पति ने घर में ही गर्भपात का आपरेश्न किया जिसमें बहुत खून बहने से वह मरीं.
अगले भाग में अमृता शेरगिल की कला के बारे में.
अमृता शेरगिल आत्मप्रतिकृति
अमृता का जन्म 30 जनवरी 1913 में हँगरी की राजधानी बुदापस्ट में हुआ. उनके पिता सरदार उमराव सिंह अमृतसर के पास मजीठा से थे और पंजाब के राजसी घराने से सम्बंध रखते थे. उनकी रुचि साहित्य, आध्यात्मिकता, कला आदि क्षेत्रों में थीं. 1911 में उनकी मुलाकात हँगरी की मेरी अन्तोनेत्त से हुई जो महाराजा रंजीत सिंह के पोती राजकुमारी बम्बा के साथ भारत आईं थीं. उमराव सिंह ने अन्तोनेत्त से विवाह किया और विवाह के बाद पत्नी के साथ हँगरी चले गये जहाँ उनकी दो बेटियाँ हुई, अमृता और इंदिरा. वे दिन प्रथम विश्व महायुद्ध के थे और उन वर्षों में भारत यात्रा करना कठिन था. युद्ध की वजह से ही हँगरी में परिवार की आर्थिक हालत बहुत अच्छी नहीं थी.
सरदार उमराव सिंह
मेरी अन्तोनेत्त
अमृता और इंदिरा
1921 में जब अमृता 7 वर्ष की थीं, वह पहली बार भारत आयीं.
अमृता के पिता अगर गम्भीर व्यक्तित्व के थे तो माँ लोगों से मिलने जुलने वाली, पार्टियों में जाने वाली, और पति पत्नी में अक्सर न बनती, माँ को अक्सर उदासी के दौरे पड़ते, आत्महत्या करने की धमकी देतीं, जिन सबका अमृता पर बहुत असर पड़ा.
1923 में अन्तोनेत्त की मुलाकात एक इतालवी मूर्तिकार से हुई जिनसे शायद उनके सम्बंध थे. उमराव सिंह से कहा गया कि वे अमृता को चित्रकला सिखाते हें. जब वे इटली वापस गये तो उनके पीछे पीछे अन्तोनेत्त भी बेटी अमृता को ले कर इटली आयीं, यह कह कर कि उनकी चित्रकार बेटी को कला की सही शिक्षा चाहिये. जनवरी 1924 में 11 वर्ष की अमृता ने फ्लोरेंस का सांता अनुंज़ियाता विद्यालय में दाखिला लिया. कुछ समय के बाद जब मूर्तकार और अन्तोनेत्त के सम्बंध बिगड़े तो माँ बेटी वापस भारत लौट आयीं. स्वतंत्र घूमने और अपनी मर्जी से सब काम करने वाली अमृता को इटली के नन द्वारा चलाये विद्यालय का रोक रुकाव और नियमों में बंधा जीवन बिल्कुल अच्छा नहीं लगा. उस समय तक अमृता बहुत चित्र बनाने लगीं थीं पर उनके चित्रों के विषय अधिकतर पाराम्परिक यूरोपीय शैली के होते थे.
अमृता के पिता अगर गम्भीर व्यक्तित्व के थे तो माँ लोगों से मिलने जुलने वाली, पार्टियों में जाने वाली, और पति पत्नी में अक्सर न बनती, माँ को अक्सर उदासी के दौरे पड़ते, आत्महत्या करने की धमकी देतीं, जिन सबका अमृता पर बहुत असर पड़ा.
1923 में अन्तोनेत्त की मुलाकात एक इतालवी मूर्तिकार से हुई जिनसे शायद उनके सम्बंध थे. उमराव सिंह से कहा गया कि वे अमृता को चित्रकला सिखाते हें. जब वे इटली वापस गये तो उनके पीछे पीछे अन्तोनेत्त भी बेटी अमृता को ले कर इटली आयीं, यह कह कर कि उनकी चित्रकार बेटी को कला की सही शिक्षा चाहिये. जनवरी 1924 में 11 वर्ष की अमृता ने फ्लोरेंस का सांता अनुंज़ियाता विद्यालय में दाखिला लिया. कुछ समय के बाद जब मूर्तकार और अन्तोनेत्त के सम्बंध बिगड़े तो माँ बेटी वापस भारत लौट आयीं. स्वतंत्र घूमने और अपनी मर्जी से सब काम करने वाली अमृता को इटली के नन द्वारा चलाये विद्यालय का रोक रुकाव और नियमों में बंधा जीवन बिल्कुल अच्छा नहीं लगा. उस समय तक अमृता बहुत चित्र बनाने लगीं थीं पर उनके चित्रों के विषय अधिकतर पाराम्परिक यूरोपीय शैली के होते थे.
सांता अनुंज़ियाता विद्यालय
भारत में उन्हें शिमला के एक कोनवेंट स्कूल में डाला गया, जहाँ भी वह खुश नहीं थीं और जहाँ से कुछ समय के बाद उन्हें निकाल दिया गया. 1927 में अमृता के हँगरी से माँ की तरफ के एक रिश्तेदार भारत आये, श्री एर्विन बक्टे जो चित्रकार थे और जिन्होने अमृता को जीते जागते आसपास के लोगों के चित्र बनाने की सलाह दी. इस तरह घर के नौकर चाकर, पड़ोसियों आदि से अमृता ने पहली बार भारतीय विषयों पर चित्र बनाना शुरु किया. 1929 में जब अमृता 16 वर्ष की थीं तो उनकी माँ ने उन्हें पेरिस में कला शिक्षा दिलाने की सोची. अमृता ने जल्दी ही फ्राँसिसी भाषा सीख ली और उनका व्यक्तित्व बदल गया, वह पार्टयों में जाने लगे, कलाकारों, लेखकों के साथ समय बिताने लगीं. पेरिस के कला विद्यालय से शिक्षा के साथ साथ यह उनका अपना जीवन अपनी तरह से जीने का समय था जिसे उन्होंने फ़िर दोबारा नहीं छोड़ा. पेरिस में एक पंजाबी रईस से उनका विवाह भी तय हुआ पर अमृता ने वह विवाह तोड़ दिया.
1934 में कला शिक्षा पूरी होने के बाद अमृता भारत लौट आई. तब तक उनके जीवन के बारे में बातें फैलने लगीं थीं कि वह स्वछंद किस्म की हैं, स्वतंत्र यौन सम्बंधों में विश्वास रखती हैं, विवाह नहीं करना चाहतीं, आदि और उनके पिता चाहते थे कि वे भारत न आयें बल्कि यूरोप में ही रहें, पर अमृता ने ठान लिया कि भारत ही उनका देश था और वापस आ कर उन्होंने भारतीय विषयों पर ही चित्र बनाने शुरु किये. कहा जाता है कि वह कई बार माँ बनने वाली थीं पर उन्होने बच्चा गिरा दिया. पहले कुछ दिन मजीठा की हवेली में रह कर, वह शिमला आ गयीं. इन वर्षों में वह भारत में बहुत जगह घूमीं.
1938 में वह हँगरी गयीं जहाँ उन्होंने अपने एक रिश्तेदार डा. विक्टर एगान से विवाह किया.हँगरी में उन्होंने करीब एक साल बिताया जिसके दौरान उन्होंने फ़िर से यूरोपीय विषयों पर चित्र बनाये. 1939 में जब द्वितीय महायुद्ध शुरु हो रहा था वह पति के साथ भारत लौटीं. शिमला में कुछ समय बिता कर उन्होने कुछ समय उत्तरप्रदेश के गौरखपुर जिले में बिताया और फ़िर वह लाहौर में रहने लगीं जहाँ 5 दिसंबर 1941 में 28 वर्ष की आयु में अमृता का देहांत हुआ. अमृता के जीवन के बारे में उनकी छोटी बहन इंदिरा के पुत्र विवेन संदरम ने लिखा है.
प्रसिद्ध भारतीय लेखक खुशवंत सिंह लाहोर के दिनों की अमृता को जानते थे और अपने एक लेख में अमृता के स्वछंद जीवन और स्वतंत्र यौन सम्बंध बनाने के बारे में उस समय की चर्चाओं के बारे में लिखा है और जिसमें वह अमृता के मुँहफट स्वभाव के बारे में बताते हैं. उनका कहना है कि अमृता की मृत्यु के बारे में चर्चा थी कि वह उस समय गर्भवति थीं, बच्चा नहीं चाहतीं थी और उनके पति ने घर में ही गर्भपात का आपरेश्न किया जिसमें बहुत खून बहने से वह मरीं.
अगले भाग में अमृता शेरगिल की कला के बारे में.
अमृता शेरगिल आत्मप्रतिकृति
बुधवार, फ़रवरी 28, 2007
मेरी प्रिय महिला चित्रकार (1) - फ्रीदा काहलो
चित्रकला के क्षेत्र में महिलाओं के नाम बहुत कम आते हैं. अगर आप जगतप्रसिद्ध महिला चित्रकारों के नाम खोजें तो फ्रीदा काहलो के अतिरिक्त कोई भी नाम नहीं मिलता, और फ्रीदा का नाम भी सबको नहीं मालूम होता. चौदहवीं पँद्रहवीं शताब्दियों में जब युरोप में कला के पुनर्जन्म का युग था, किसी भी महिला चित्रकार का नाम विशेष रुप से नहीं सुनने को मिलता और अधिकतर पश्चिमी कला समीक्षकों की सर्वश्रेष्ठ कलाकारों की सूची में भी कोई महिला चित्रकार नहीं होतीं.
मेरी प्रिय महिला चित्रकारों में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक ही नाम है, फ्रीदा काहलो का.
फ्रीदा का जन्म 1907 में मेक्सिको में हुआ. उनके पिता हँगरी के प्रवासी थे. इस दृष्टि से फ्रीदा मेरी एक अन्य प्रिय महिला चित्रकार, अमृता शेरगिल, से मिलती है क्योंकि अमृता की माँ हँगरी की थीं.
छोटी सी फ्रीदा को पोलियो हुआ और दाँयीं टाँग पर उसका असर पड़ा, कुछ ठीक होने पर फ्रीदा ने बहुत से खेलों में भाग लेना शुरु किया ताकि दाँयीं टाँग मजबूत हो जाये पर यह टाँग कुछ छोटी ही रही जिसकी वजह से वह ऊँची एड़ी वाली जूता पहनती थीं और उनकी चाल में एक विशिष्टता थी.
18 साल की फ्रीदा को एक बस दुर्घटना में बहुत चोट लगी और कई हड्डियाँ भी टूट गयीं. इनकी वजह से उनका जीवन दर्द और चलने फिरने की तकलीफ़ में गुजरा. दियेगो रिवेरा से विवाह करके उनका वयस्क जीवन अमरीका कि डेट्रोयट शहर में गुज़रा.
फ्रीदा की कोई संतान नहीं हुई, कई गर्भपात हुए. संतान न होने के दुख को उन्होंने बहुत सी चित्रों में उतारा जैसे कि "उड़ता पँलग" नाम के चित्र में जिसे "हैनरी फोर्ड अस्पताल" के नाम से भी जाना जाता है, जिसमें खून में लथपथ पँलग पर लेटी फ्रीदा के शरीर से बहुत से तार निकल रहे हें जिनमें से एक तार एक भ्रूण से जुड़ा है.
संतान के न होने की पीड़ा को कला में व्यक्त करने की बात से मुझे उनमें भारतीय अभिनेत्री मीना कुमारी की याद आती है. 1960 के दशक में विभिन्न फ़िल्मों में जैसे "चंदन का पलना" मीना कुमारी ने इसी पीड़ा को दिखाया और कई बार असली जीवन और परदे के जीवन का भेद पता नहीं चलता था.
फ्रीदा ने अधिकतर चित्र छोटे आकार के बनाये और उनकी बहुत सी तस्वीरों में स्वयं ही चित्र का प्रमुख पात्र होती थीं. लाल रँग का उनके चित्रों नें विशेष स्थान दिखता है. 1954 में 47 वर्ष के आयु में उनका देहाँत हुआ. प्रस्तुत हैं फ्रीदा के कुछ चित्र.
फ्रीदा के विचारों में दियेगो
मेरी प्रिय महिला चित्रकारों में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक ही नाम है, फ्रीदा काहलो का.
फ्रीदा का जन्म 1907 में मेक्सिको में हुआ. उनके पिता हँगरी के प्रवासी थे. इस दृष्टि से फ्रीदा मेरी एक अन्य प्रिय महिला चित्रकार, अमृता शेरगिल, से मिलती है क्योंकि अमृता की माँ हँगरी की थीं.
छोटी सी फ्रीदा को पोलियो हुआ और दाँयीं टाँग पर उसका असर पड़ा, कुछ ठीक होने पर फ्रीदा ने बहुत से खेलों में भाग लेना शुरु किया ताकि दाँयीं टाँग मजबूत हो जाये पर यह टाँग कुछ छोटी ही रही जिसकी वजह से वह ऊँची एड़ी वाली जूता पहनती थीं और उनकी चाल में एक विशिष्टता थी.
18 साल की फ्रीदा को एक बस दुर्घटना में बहुत चोट लगी और कई हड्डियाँ भी टूट गयीं. इनकी वजह से उनका जीवन दर्द और चलने फिरने की तकलीफ़ में गुजरा. दियेगो रिवेरा से विवाह करके उनका वयस्क जीवन अमरीका कि डेट्रोयट शहर में गुज़रा.
फ्रीदा की कोई संतान नहीं हुई, कई गर्भपात हुए. संतान न होने के दुख को उन्होंने बहुत सी चित्रों में उतारा जैसे कि "उड़ता पँलग" नाम के चित्र में जिसे "हैनरी फोर्ड अस्पताल" के नाम से भी जाना जाता है, जिसमें खून में लथपथ पँलग पर लेटी फ्रीदा के शरीर से बहुत से तार निकल रहे हें जिनमें से एक तार एक भ्रूण से जुड़ा है.
संतान के न होने की पीड़ा को कला में व्यक्त करने की बात से मुझे उनमें भारतीय अभिनेत्री मीना कुमारी की याद आती है. 1960 के दशक में विभिन्न फ़िल्मों में जैसे "चंदन का पलना" मीना कुमारी ने इसी पीड़ा को दिखाया और कई बार असली जीवन और परदे के जीवन का भेद पता नहीं चलता था.
फ्रीदा ने अधिकतर चित्र छोटे आकार के बनाये और उनकी बहुत सी तस्वीरों में स्वयं ही चित्र का प्रमुख पात्र होती थीं. लाल रँग का उनके चित्रों नें विशेष स्थान दिखता है. 1954 में 47 वर्ष के आयु में उनका देहाँत हुआ. प्रस्तुत हैं फ्रीदा के कुछ चित्र.
आत्मप्रतिकृति और बंदर
कटे बालों वाली आत्मप्रतिकृति
आत्मप्रतिकृति और गले का हार
फ्रीदा के विचारों में दियेगो
मंगलवार, फ़रवरी 27, 2007
जो हुआ वो क्यों हुआ?
आजकल मैं स्टीवन लेविट (Steven D. Levitt) और स्टीफन डुबनर (Stephen J. Dubner) की किताब फ्रीकोनोमिक्स (Freakonomics) पढ़ रहा हूँ. स्टीवन लेविट अर्थशास्त्री हैं और डुबनर पत्रकार.
लेविट को उन बातों पर सवाल पूछना अच्छा लगता है जो हमारे लिए साधारण होती हैं और जिनके लिए हमारे मन में कोई संशय या सवाल नहीं उठते. अपने उत्तरों से लेविट कुछ अर्थशास्त्र के सिद्धांत और कुछ आम समझ का प्रयोग करके यह दिखाते हैं कि साधारण सोच में सही लगने वाली बहुत सी बातें गलत भी हो सकती हैं.
1990-94 के आसपास, अमरीका में अपराध दर बढ़ती जा रही थी और सभी चितिंत थे कि यह कम नहीं होगी, बढ़ती ही जायेगी. पर ऐसा हुआ नहीं और अपराध दर कम होने लगी. विशेषज्ञों का कहना था कि यह अपराध को रोकने की नयी नीतियों की वजह से हुआ. लेविट कहते हें कि नहीं, यह इसलिए हुआ क्योंकि 1973 में अमरीकी कानून ने गर्भपात की अनुमति दी जिससे गरीब घरों की छोती उम्र वाली माँओं को गर्भपात करने में आसानी हुई और इन घरों से अपराध की दुनिया में आने वाले नौजवानों की संख्या में कमी हुई.
एक अन्य उदाहरण में लेविट दिखाते हें कि विद्यालयों की पढ़ायी के स्तर में सुधार लाने के लिए बनाये गये कानून से शिक्षकों को गलत काम करने की प्रेरणा मिली जिससे उन्होनें इन्तहानों में बच्चों को झूठे नम्बर देना शुरु कर दिया. लेविट यह भी दिखाते हें कि कैसे घर बेचने का काम करने वाली व्यवसायिक कम्पनियाँ आप के घर को कम कीमत में बेचती हें जबकि आप को बाज़ार में उसके कुछ अधिक दाम मिल सकते थे.
कितना सच है लेविट की बातों में यह तो नहीं कह सकता, पर यह किताब बहुत दिलचस्प है. लेविट और डुबनर ने अपना एक चिट्ठा भी बनाया है जिसमें वह दोनो अपने पाठकों से बातें भी करते हैं और नयी जानकारी भी देते हैं.
*****
कल के चिट्ठे की सभी टिप्पणियों के लिए दिल से धन्यवाद.
अविनाश, तुम ठीक कहते हो, तुमसे मुलाकात चिट्ठों की दुनिया से बाहर हुई थी, पर कल सुबह काम पर देर हो रही थी और जल्दी में मेंने कुछ भी लिख दिया. :-)
नीलिमा, तुम्हारी पूरी बात समझ में नहीं आई, और शायद न समझने में ही भलाई है, हाँ हिंदी के बारे में विस्तार से बात करने के लिए मुझे बहुत खुशी होगी.
लेविट को उन बातों पर सवाल पूछना अच्छा लगता है जो हमारे लिए साधारण होती हैं और जिनके लिए हमारे मन में कोई संशय या सवाल नहीं उठते. अपने उत्तरों से लेविट कुछ अर्थशास्त्र के सिद्धांत और कुछ आम समझ का प्रयोग करके यह दिखाते हैं कि साधारण सोच में सही लगने वाली बहुत सी बातें गलत भी हो सकती हैं.
1990-94 के आसपास, अमरीका में अपराध दर बढ़ती जा रही थी और सभी चितिंत थे कि यह कम नहीं होगी, बढ़ती ही जायेगी. पर ऐसा हुआ नहीं और अपराध दर कम होने लगी. विशेषज्ञों का कहना था कि यह अपराध को रोकने की नयी नीतियों की वजह से हुआ. लेविट कहते हें कि नहीं, यह इसलिए हुआ क्योंकि 1973 में अमरीकी कानून ने गर्भपात की अनुमति दी जिससे गरीब घरों की छोती उम्र वाली माँओं को गर्भपात करने में आसानी हुई और इन घरों से अपराध की दुनिया में आने वाले नौजवानों की संख्या में कमी हुई.
एक अन्य उदाहरण में लेविट दिखाते हें कि विद्यालयों की पढ़ायी के स्तर में सुधार लाने के लिए बनाये गये कानून से शिक्षकों को गलत काम करने की प्रेरणा मिली जिससे उन्होनें इन्तहानों में बच्चों को झूठे नम्बर देना शुरु कर दिया. लेविट यह भी दिखाते हें कि कैसे घर बेचने का काम करने वाली व्यवसायिक कम्पनियाँ आप के घर को कम कीमत में बेचती हें जबकि आप को बाज़ार में उसके कुछ अधिक दाम मिल सकते थे.
कितना सच है लेविट की बातों में यह तो नहीं कह सकता, पर यह किताब बहुत दिलचस्प है. लेविट और डुबनर ने अपना एक चिट्ठा भी बनाया है जिसमें वह दोनो अपने पाठकों से बातें भी करते हैं और नयी जानकारी भी देते हैं.
*****
कल के चिट्ठे की सभी टिप्पणियों के लिए दिल से धन्यवाद.
अविनाश, तुम ठीक कहते हो, तुमसे मुलाकात चिट्ठों की दुनिया से बाहर हुई थी, पर कल सुबह काम पर देर हो रही थी और जल्दी में मेंने कुछ भी लिख दिया. :-)
नीलिमा, तुम्हारी पूरी बात समझ में नहीं आई, और शायद न समझने में ही भलाई है, हाँ हिंदी के बारे में विस्तार से बात करने के लिए मुझे बहुत खुशी होगी.
सोमवार, फ़रवरी 26, 2007
सवाल जवाब
पिछले दिनों में काम में इतना व्यस्त था कि बहुत दिनों के बाद चिट्ठों को पढ़ने का समय अब मिल रहा है, देखा कि इस प्रश्नमाला के झपेटे में दो तरफ़ से आया हूँ, नीलिमा की तरफ़ से और बेजी की तरफ से. फायदे की बात यह है कि आप दोनो के प्रश्न भिन्न हैं इसलिए मुझे यह छूट है कि जो सवाल अधिक अच्छे लगें, उनका ही जवाब दूँ!
पहले तीन प्रश्न नीलिमा के हैं
आपकी चिट्ठाकारी का भविष्य क्या है ( आप अपने मुंह मियां मिट्ठू बन लें कोई एतराज नहीं)?
मेरी चिट्ठाकारी का भविष्य शायद कुछ विषेश नहीं है, जब तक लिखने के लिए मन में कोई बात रहेगी, लिखता रहूँगा, पर मेरे विचार में जैसा है वैसा ही चलता रहेगा. मेरे लिए चिट्ठाकारी मन में आयी बातों को व्यक्त करने का माध्यम है, जिन्हें आम जीवन में व्यक्त नहीं कर पाता, और साथ ही विदेश में रह कर हिंदी से जुड़े रहने का माध्यम है.
पर एक दिन इतना प्रसिद्ध चिट्ठाकार बन जाऊँ कि लाखों लोग मेरा लिखा पढ़े, जैसे कोई सपने मन में नहीं हैं, बल्कि ऐसा सोच कर ही डर लगता है.
आपके पसंदीदा टिप्पणीकार?
जब कहीं से कुछ टिप्पणी न मिल रही हो तब अक्सर केवल संजय ही है जो कुछ ढाढ़स देता है. मुझे एक टिप्पणी प्रियदर्शन की बहुत अच्छी लगी थी.
चूँकि मैं अधिकतर चिट्ठा लिखने का काम सुबह जल्दी उठ कर करता हूँ और फ़िर अगली सुबह तक दोबारा क्मप्यूटर पर बैठने का मौका नहीं मिलता, अक्सर टिप्पणियाँ एक दिन बाद में ही पढ़ता हूँ. कई बार सुबह कुछ देर हो जाती है तो कुछ लिखने की चिंता अधिक होती है, तो किसी ने क्या टिप्पणी दी, यह देखने का समय भी नहीं मिलता. शायद इसलिए जब किसी चिट्ठे पर देखता हूँ कि टिप्पणी के बाद तुरंत लेखक का उत्तर हो या टिप्पणियों से सवाल जवाब का सिलसिला बन गया हो तो थोड़ी ईर्श्या सी होती है. पर क्या करें, चिट्ठा लिखने के अलावा और भी काम हैं जीवन में!
किसी एक चिट्ठाकार से उसकी कौन सी अंतरंग बात जानना चाहेंगे ?
मुझे वह लोग जिनमें अपने जीवन की दिशा बदलने का साहस हो, वे लोग बहुत दिलचस्प लगते हैं और उनसे बातें करके उनके बारे में जानने की उत्सुक्ता रहती है. जैसे कि मसिजीवि जी जिन्होंने इंजिनियरिंग छोड़ कर साहित्य में आने का साहस किया.
मुझे लगता है कि हम सबके भीतर बहुत से मैं छुपे होते हैं पर जीवन एक धार पर चलने लगता है तो हम स्वयं को सीमाओं में बाँध लेते हैं. जिसमें मुझे उन सीमाओं से निकलने की कोशिश दिखे, वे मुझे अच्छे लगते हैं.
अन्य चिट्ठाकार जिन्हें जानना चाहूँगा वह हैं राकेश खँडेलवाल और बेजी, क्योंकि उनकी कविताँए मुझे बहुत अच्छी लगती हैं.
बेजी के प्रश्नः
आपकी सबसे प्रिय पिक्चर कौन सी है? क्यों?
मुझे बिमल राय, ऋषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार, बासु चैटर्जी, गुरुदत्त जैसे निर्देशकों की फ़िल्में अच्छी लगतीं है. बंदिनी, सुजाता, अपने पराये, खामोशी, साहिब बीबी और गुलाम, सत्यकाम, आनंद, गाईड, अचानक, मेरे अपने, आदि मेरी प्रिय फ़िल्मों में से हैं. इनमें से किसी एक को चुनना मेरे लिए मुश्किल है.
कई आधुनिक फ़िल्म निर्देशक भी मुझे अच्छे लगते हैं जैसे विशाल भारद्वाज, अपर्णा सेन, आशुतोष गवारिकर, इत्यादि.
यह नहीं कि केवल गंभीर फ़िल्में ही अच्छी लगती हों, धूम जैसी समय निकालने वालीं हल्की फुल्की फ़िल्में भी अच्छी लगती हैं. कभी इस तरह की नासिर हुसैन और मनमोहन देसाई की फ़िल्में भी बहुत अच्छी लगती थीं. आज फ़िल्मों के लिये पहले जैसा दीवानापन नहीं लगता, पर इसमें फ़िल्मों का दोष नहीं, उम्र बदल गयी है तो इस तरह का होना स्वाभाविक है.
फ़िल्मों की पसंद समय के साथ साथ बदलती रहती है. एक समय था कि ज़रीना वहाब पर दिल फिदा था तो उनकी पहली फ़िल्म चित्तचोर जाने कितनी बार देखी थी. लेकिन किशोर मन बहुत वफादार नहीं था, कभी रेखा पर आता तो कभी शबाना आज़मी पर, और साथ ही साथ फिल्मों की पसंद बदलती रहती.
जो फिल्म सबसे अधिक बार सिनेमाघर में देखी वह है रमेश सिप्पी के शोले. एक समय था जब मीना कुमारी की रोने धोने वाली फ़िल्में भी मुझे अच्छी लगती थीं जैसे कि दिल एक मंदिर, पर आज उतनी अच्छी नहीं लगती.
इस उत्तर से यह समझना कठिन नहीं कि मुझे हिंदी फिल्मों में कितनी दिलचस्पी है!
क्या हिन्दी चिट्ठेकारी ने आपके व्यक्तिव में कुछ परिवर्तन या निखार किया?
हिंदी चिट्ठाकारी से मुझे हिंदी भाषा के करीब लौट आने का मौका मिला. जब लिखना शुरु किया था तो इतना सोचना पड़ता, शब्द याद ही नहीं आते थे और अक्सर शब्दकोश की सहायता लेनी पड़ती थी.
चिट्ठाकारी ने बहुत से लोगों से मिलने का मौका दिया विषेशकर प्रारम्भिक दिनों में. लाल्टू, प्रत्यक्षा, अनूप, रवि, रमण, ई स्वामी, जितेंद्र, देबाशीष, पंकज, संजय, अविनाश जैसे लोगों को बिना चिट्ठाकारी के कैसे जान पाता? बिना देबाशीष की सहायता के मैं हिंदी चिट्ठाजगत में आ ही नहीं पाता. इनमें से किसी से भी मिलने का मौका नहीं मिला है. अब तक मिला हूँ केवल अफलातून जी से, जिन्हें चिट्ठा जगत में आने से पहले से जानता हूँ और राम से, जो मुझे मिलने बोलोनिया आये थे. पर मेरा बस चले तो सब से मिलना पसंद करूँगा.
कुछ माह पहले दिल्ली में पसिद्ध लेखक और पत्रकार ओम थानवी के यहाँ था और उन्होंने सबसे मेरा परिचय लेखक के नाम से दिया, तो अजीब भी लगा और सुखद भी. मेरा चिट्ठा लिखने से पहले मेरी अपनी पहचान में "लेखक" शब्द नहीं था. लेखक बन गया हूँ यह तो नहीं कहता पर अपनी पहचान के दायरे कुछ बढ़ गये हें यह अवश्य कह सकता हूँ.
यह तो थे मेरे उत्तर. अब यह प्रश्नों का सिलसिला किस तरफ जाये? मैं चाहूँगा कि देबाशीष, रवि, रमण, ई स्वामी, अफलातून और पकंज भी इन प्रश्नों के उत्तर दें, पर अगर आप यह उत्तर पहले ही दे चुके हें तो मुझे कुछ दिन तक छुट्टियों का इंतजार करना पड़ेगा ताकि आप उन्हें पढ़ सकूँ. :-)
पहले तीन प्रश्न नीलिमा के हैं
आपकी चिट्ठाकारी का भविष्य क्या है ( आप अपने मुंह मियां मिट्ठू बन लें कोई एतराज नहीं)?
मेरी चिट्ठाकारी का भविष्य शायद कुछ विषेश नहीं है, जब तक लिखने के लिए मन में कोई बात रहेगी, लिखता रहूँगा, पर मेरे विचार में जैसा है वैसा ही चलता रहेगा. मेरे लिए चिट्ठाकारी मन में आयी बातों को व्यक्त करने का माध्यम है, जिन्हें आम जीवन में व्यक्त नहीं कर पाता, और साथ ही विदेश में रह कर हिंदी से जुड़े रहने का माध्यम है.
पर एक दिन इतना प्रसिद्ध चिट्ठाकार बन जाऊँ कि लाखों लोग मेरा लिखा पढ़े, जैसे कोई सपने मन में नहीं हैं, बल्कि ऐसा सोच कर ही डर लगता है.
आपके पसंदीदा टिप्पणीकार?
जब कहीं से कुछ टिप्पणी न मिल रही हो तब अक्सर केवल संजय ही है जो कुछ ढाढ़स देता है. मुझे एक टिप्पणी प्रियदर्शन की बहुत अच्छी लगी थी.
चूँकि मैं अधिकतर चिट्ठा लिखने का काम सुबह जल्दी उठ कर करता हूँ और फ़िर अगली सुबह तक दोबारा क्मप्यूटर पर बैठने का मौका नहीं मिलता, अक्सर टिप्पणियाँ एक दिन बाद में ही पढ़ता हूँ. कई बार सुबह कुछ देर हो जाती है तो कुछ लिखने की चिंता अधिक होती है, तो किसी ने क्या टिप्पणी दी, यह देखने का समय भी नहीं मिलता. शायद इसलिए जब किसी चिट्ठे पर देखता हूँ कि टिप्पणी के बाद तुरंत लेखक का उत्तर हो या टिप्पणियों से सवाल जवाब का सिलसिला बन गया हो तो थोड़ी ईर्श्या सी होती है. पर क्या करें, चिट्ठा लिखने के अलावा और भी काम हैं जीवन में!
किसी एक चिट्ठाकार से उसकी कौन सी अंतरंग बात जानना चाहेंगे ?
मुझे वह लोग जिनमें अपने जीवन की दिशा बदलने का साहस हो, वे लोग बहुत दिलचस्प लगते हैं और उनसे बातें करके उनके बारे में जानने की उत्सुक्ता रहती है. जैसे कि मसिजीवि जी जिन्होंने इंजिनियरिंग छोड़ कर साहित्य में आने का साहस किया.
मुझे लगता है कि हम सबके भीतर बहुत से मैं छुपे होते हैं पर जीवन एक धार पर चलने लगता है तो हम स्वयं को सीमाओं में बाँध लेते हैं. जिसमें मुझे उन सीमाओं से निकलने की कोशिश दिखे, वे मुझे अच्छे लगते हैं.
अन्य चिट्ठाकार जिन्हें जानना चाहूँगा वह हैं राकेश खँडेलवाल और बेजी, क्योंकि उनकी कविताँए मुझे बहुत अच्छी लगती हैं.
बेजी के प्रश्नः
आपकी सबसे प्रिय पिक्चर कौन सी है? क्यों?
मुझे बिमल राय, ऋषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार, बासु चैटर्जी, गुरुदत्त जैसे निर्देशकों की फ़िल्में अच्छी लगतीं है. बंदिनी, सुजाता, अपने पराये, खामोशी, साहिब बीबी और गुलाम, सत्यकाम, आनंद, गाईड, अचानक, मेरे अपने, आदि मेरी प्रिय फ़िल्मों में से हैं. इनमें से किसी एक को चुनना मेरे लिए मुश्किल है.
कई आधुनिक फ़िल्म निर्देशक भी मुझे अच्छे लगते हैं जैसे विशाल भारद्वाज, अपर्णा सेन, आशुतोष गवारिकर, इत्यादि.
यह नहीं कि केवल गंभीर फ़िल्में ही अच्छी लगती हों, धूम जैसी समय निकालने वालीं हल्की फुल्की फ़िल्में भी अच्छी लगती हैं. कभी इस तरह की नासिर हुसैन और मनमोहन देसाई की फ़िल्में भी बहुत अच्छी लगती थीं. आज फ़िल्मों के लिये पहले जैसा दीवानापन नहीं लगता, पर इसमें फ़िल्मों का दोष नहीं, उम्र बदल गयी है तो इस तरह का होना स्वाभाविक है.
फ़िल्मों की पसंद समय के साथ साथ बदलती रहती है. एक समय था कि ज़रीना वहाब पर दिल फिदा था तो उनकी पहली फ़िल्म चित्तचोर जाने कितनी बार देखी थी. लेकिन किशोर मन बहुत वफादार नहीं था, कभी रेखा पर आता तो कभी शबाना आज़मी पर, और साथ ही साथ फिल्मों की पसंद बदलती रहती.
जो फिल्म सबसे अधिक बार सिनेमाघर में देखी वह है रमेश सिप्पी के शोले. एक समय था जब मीना कुमारी की रोने धोने वाली फ़िल्में भी मुझे अच्छी लगती थीं जैसे कि दिल एक मंदिर, पर आज उतनी अच्छी नहीं लगती.
इस उत्तर से यह समझना कठिन नहीं कि मुझे हिंदी फिल्मों में कितनी दिलचस्पी है!
क्या हिन्दी चिट्ठेकारी ने आपके व्यक्तिव में कुछ परिवर्तन या निखार किया?
हिंदी चिट्ठाकारी से मुझे हिंदी भाषा के करीब लौट आने का मौका मिला. जब लिखना शुरु किया था तो इतना सोचना पड़ता, शब्द याद ही नहीं आते थे और अक्सर शब्दकोश की सहायता लेनी पड़ती थी.
चिट्ठाकारी ने बहुत से लोगों से मिलने का मौका दिया विषेशकर प्रारम्भिक दिनों में. लाल्टू, प्रत्यक्षा, अनूप, रवि, रमण, ई स्वामी, जितेंद्र, देबाशीष, पंकज, संजय, अविनाश जैसे लोगों को बिना चिट्ठाकारी के कैसे जान पाता? बिना देबाशीष की सहायता के मैं हिंदी चिट्ठाजगत में आ ही नहीं पाता. इनमें से किसी से भी मिलने का मौका नहीं मिला है. अब तक मिला हूँ केवल अफलातून जी से, जिन्हें चिट्ठा जगत में आने से पहले से जानता हूँ और राम से, जो मुझे मिलने बोलोनिया आये थे. पर मेरा बस चले तो सब से मिलना पसंद करूँगा.
कुछ माह पहले दिल्ली में पसिद्ध लेखक और पत्रकार ओम थानवी के यहाँ था और उन्होंने सबसे मेरा परिचय लेखक के नाम से दिया, तो अजीब भी लगा और सुखद भी. मेरा चिट्ठा लिखने से पहले मेरी अपनी पहचान में "लेखक" शब्द नहीं था. लेखक बन गया हूँ यह तो नहीं कहता पर अपनी पहचान के दायरे कुछ बढ़ गये हें यह अवश्य कह सकता हूँ.
यह तो थे मेरे उत्तर. अब यह प्रश्नों का सिलसिला किस तरफ जाये? मैं चाहूँगा कि देबाशीष, रवि, रमण, ई स्वामी, अफलातून और पकंज भी इन प्रश्नों के उत्तर दें, पर अगर आप यह उत्तर पहले ही दे चुके हें तो मुझे कुछ दिन तक छुट्टियों का इंतजार करना पड़ेगा ताकि आप उन्हें पढ़ सकूँ. :-)
शुक्रवार, फ़रवरी 23, 2007
मानव और रोबोट
मैं एक बार पहले भी केनेडा के श्री ग्रेगोर वोलब्रिंग के बारे में लिख चुका हूँ. ग्रेगोर विकलाँग हैं, पहिये वाली कुर्सी से चलते हैं और कलगारी विश्वविद्यालय में जीव-रसायन विज्ञान पढ़ाते हैं. वह अंतरजाल पर "इंवोशन वाच" नाम के पृष्ठ पर नियमित रूप से लिखते भी हैं. उनके शोध का विषय है नयी उभरने वाली तकनीकों के बारे में विमर्श. उनसे पिछले वर्ष जेनेवा में विश्व स्वास्थ्य संस्थान की एक सभा में मुलाकात हुई थी.
ग्रेगोर से बात करो तो लगता है कि आसिमोव जैसे किसी लेखक की विज्ञान-उपन्यास (science fiction) पर बात हो रही हो, वह सब बातें सच नहीं कल्पना लगतीं हैं. पर ग्रेगोर का कहना है कि जिस भविष्य की वह बात करते हैं वह करीब है और इन दिनों में गढ़ा रचा जा रहा है. वह कहते हैं कि उस नये भविष्य का हमारे समाज पर गहरा प्रभाव पड़ेगा और इसलिए आवश्यक है कि हम सब लोग उसमें दिलचस्पी लें, उसके बारे में जाने, उस पर विमर्श करें.
अपने नये लेख में ग्रगोर ने लिखा हैः
****
इंडीब्लागीस 2006 पुरस्कार के लिए समीर जी को बहुत बहुत बधाई. रनरअप पुरस्कारों में मेरे साथी बिहारी बाबू को भी बधाई और आप सब पाठकों को धन्यवाद.
ग्रेगोर से बात करो तो लगता है कि आसिमोव जैसे किसी लेखक की विज्ञान-उपन्यास (science fiction) पर बात हो रही हो, वह सब बातें सच नहीं कल्पना लगतीं हैं. पर ग्रेगोर का कहना है कि जिस भविष्य की वह बात करते हैं वह करीब है और इन दिनों में गढ़ा रचा जा रहा है. वह कहते हैं कि उस नये भविष्य का हमारे समाज पर गहरा प्रभाव पड़ेगा और इसलिए आवश्यक है कि हम सब लोग उसमें दिलचस्पी लें, उसके बारे में जाने, उस पर विमर्श करें.
अपने नये लेख में ग्रगोर ने लिखा हैः
मानव संज्ञा और मस्तिष्क को क्मप्यूटर जैसे किसी अन्य उपकरण पर चढ़ाना संभव हो जायेगा जिससे वह शरीर पर उम्र के प्रभाव से बचे रहेंगे. हालाँकि इस तरह के आविष्कार से अभी हम बहुत दूर हैं पर इसकी बात हो रही है. दिमाग रखने वाली मशीनों की बातें तो हो रहीं हैं. जून में पिछली रोबोव्यवसाय (Robobusiness) सभा में माईक्रोसोफ्ट ने अपने रोबोटक सोफ्तवेयर की पहली झलक दिखाई. यह सोफ्टवेयर (Microsoft's Robotic Studio) शिक्षण के क्षेत्र में काम आयेगी. खाना बनाने वाला रोबोट 2007 में बाजार में आयेगा. रोबोवेटर, दाई रोबोट, बार में पेय पदार्थ डालने वाला रोबोट, गाना गाने वाले और बच्चों को पढ़ाने वाले रोबोट सब 2007 में तैयार होंगे. अगर यह प्लेन सफल होंगे तो 2015 और 2020 के बीच में हर दक्षिण कोरियाई घर में रोबोट होंगे. चौकीदार रोबोट 2010 तक तैयार होने चाहिये.इन सब मशीन और मानव के मिलने से बनी नयी खोजों के साथ साथ ग्रेगोर बहुत से प्रश्न उठाते हें जैसे कि यह नयी सज्ञा वाली मशीने, इनके क्या अधिकार होंगे? मानव होने की क्या परिभाषा होगी जब अलग मशीन में आप की यादाश्त और दिमाग रखे हों? क्या बिना शरीर के केवल मानव संज्ञा को मानव कह सकते हैं? किसी वस्तू के जीवित या अजीवित होने की क्या परिभाषा होगी? एक मशीन से उसकी यादाश्त लेने के लिए या बदलने के लिए हमें किससे आज्ञा लेनी पड़ेगी? और जिन मानव शरीरों को मशीनों के भागों से जोड़ कर बदल दिया जायेगा वह कब तक मानव कहलाँएगे और मानव तथा मशीन की सीमा कैसे निर्धारित की जायेगी? बीमार मानव जो मशीन की सहायता से सोचता है क्या वह मानव कहलायेगा?
****
इंडीब्लागीस 2006 पुरस्कार के लिए समीर जी को बहुत बहुत बधाई. रनरअप पुरस्कारों में मेरे साथी बिहारी बाबू को भी बधाई और आप सब पाठकों को धन्यवाद.
गुरुवार, फ़रवरी 22, 2007
मानव अधिकार
अमरीकी गैर सरकारी संस्था "मानव अधिकार वाच" (Human Rights Watch) की 2007 की नयी वार्षिक रिपोर्ट निकली है. इस रिपोर्ट में साल के दौरान विभिन्न देशों में मानव अधिकारों का क्या हुआ, इसकी खबर दी जाती है. कहाँ कौन से अत्याचार हुए रिपोर्ट में यह पढ़ कर झुरझुरी आ जाती है. सूडान के डार्फुर क्षेत्र और इराक में जो हो रहा है उसके बारे में तो फ़िर भी कुछ न कुछ पता चल जाता है पर अन्य बहुत सी जगहों पर क्या हो रहा है, इसकी किसी को खबर नहीं.
तुर्कमेनिस्तान और उत्तरी कोरिया में सख्त तानाशाह गद्दी पर बैठे हैं जहाँ कुछ भी स्वतंत्र कहने सोचने की जगह नहीं है. रूस में गैर सरकारी संस्थाओं पर हमले तो होते रहते हैं, प्रसिद्ध पत्रकार अन्ना पोलिटकोवस्काया जो सरकारी अत्याचारों के बारे में निर्भीक लिखतीं थीं, की हत्या ने सनसनी फ़ैला दी इसलिए भी कि अन्ना छोटी मोटी पत्रकार नहीं थीं, उनका नाम देश विदेश में मशहूर था. लोगों को डराना, धमकाना, उन्हें विभिन्न तरीकों से पीड़ा देना, पुलिस की जबरदस्ती और अत्याचार, कई देशों में निरंकुश बढ़ रहा है.
भारत के बारे में रिपोर्ट कहती है कि "भारत विश्व का सबसे बड़ा जनतंत्र है और यहाँ स्वतंत्र प्रेस और सामाजिक संस्थाएँ हैं, फ़िर भी कुछ बाते हैं जिनमें मानव अधिकारों की सुरक्षा नहीं होती. इनमें से सबसे बड़ी समस्या है पुलिस और विभिन्न सुरक्षा संस्थाओं के बड़े अधिकारियों को कुछ सजा नहीं मिल सकती, चाहे वह कुछ भी अत्याचार कर दें. लोगों को पकड़ कर उन्हें पीड़ा देना और सताना, बिना मुकदमे के लोगों को पकड़ कर रखना, उन्हें जान से मार देना आदि, जम्मु कश्मीर, उत्तर पूर्व और नक्सलाईट क्षेत्रों में आम बातें हैं... बच्चों के तथा अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा न कर पाना भी समस्या है, इन अल्पसंख्यकों में धार्मिक अल्पसंखयक, जनजाति के लोग और दलित भी शामिल हैं."
रिपोर्ट ने अमरीका की कड़ी आलोचना है. रिपोर्ट कहती है कि ग्वानतामा बे के कारागार में बिना मुकदमें के कैदियों को कई सालों से रखना और उन्हें यातना देने वाले अमरीका को मानव अधिकारों का रक्षक होने का गर्व त्यागना होगा, उसके अपने दामन पर दाग लगा है. यातना से भागने वाले लोगों को शरण देने से इन्कार करना भी अमरीका की कमजोरी है, और वह दूसरों पर मानव अधिकारों की रक्षा न करने का आरोप लगाता है.
किस देश ने कितना मानव अधिकारों को कुचला इसका अंदाज़ शायद रिपोर्ट में उस देश को कितनी जगह दी गयी है. रिपोर्ट में भारत को 7 पन्ने मिले हैं तो चीन को 12, नेपाल को 6, पाकिस्तान को 7 और अमरीका को 11.
2006 में जिन देशों ने मानव अधिकारों की दिशा में सराहनीय काम किया है उनमें सबसे ऊँचा नाम नोर्वे का है.
अगर आप पूरी रिपोर्ट पढ़ना चाहें तो वह अंतरजाल पर ह्यूमन राईटस वाच पर पढ़ सकते हैं.
तुर्कमेनिस्तान और उत्तरी कोरिया में सख्त तानाशाह गद्दी पर बैठे हैं जहाँ कुछ भी स्वतंत्र कहने सोचने की जगह नहीं है. रूस में गैर सरकारी संस्थाओं पर हमले तो होते रहते हैं, प्रसिद्ध पत्रकार अन्ना पोलिटकोवस्काया जो सरकारी अत्याचारों के बारे में निर्भीक लिखतीं थीं, की हत्या ने सनसनी फ़ैला दी इसलिए भी कि अन्ना छोटी मोटी पत्रकार नहीं थीं, उनका नाम देश विदेश में मशहूर था. लोगों को डराना, धमकाना, उन्हें विभिन्न तरीकों से पीड़ा देना, पुलिस की जबरदस्ती और अत्याचार, कई देशों में निरंकुश बढ़ रहा है.
भारत के बारे में रिपोर्ट कहती है कि "भारत विश्व का सबसे बड़ा जनतंत्र है और यहाँ स्वतंत्र प्रेस और सामाजिक संस्थाएँ हैं, फ़िर भी कुछ बाते हैं जिनमें मानव अधिकारों की सुरक्षा नहीं होती. इनमें से सबसे बड़ी समस्या है पुलिस और विभिन्न सुरक्षा संस्थाओं के बड़े अधिकारियों को कुछ सजा नहीं मिल सकती, चाहे वह कुछ भी अत्याचार कर दें. लोगों को पकड़ कर उन्हें पीड़ा देना और सताना, बिना मुकदमे के लोगों को पकड़ कर रखना, उन्हें जान से मार देना आदि, जम्मु कश्मीर, उत्तर पूर्व और नक्सलाईट क्षेत्रों में आम बातें हैं... बच्चों के तथा अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा न कर पाना भी समस्या है, इन अल्पसंख्यकों में धार्मिक अल्पसंखयक, जनजाति के लोग और दलित भी शामिल हैं."
रिपोर्ट ने अमरीका की कड़ी आलोचना है. रिपोर्ट कहती है कि ग्वानतामा बे के कारागार में बिना मुकदमें के कैदियों को कई सालों से रखना और उन्हें यातना देने वाले अमरीका को मानव अधिकारों का रक्षक होने का गर्व त्यागना होगा, उसके अपने दामन पर दाग लगा है. यातना से भागने वाले लोगों को शरण देने से इन्कार करना भी अमरीका की कमजोरी है, और वह दूसरों पर मानव अधिकारों की रक्षा न करने का आरोप लगाता है.
किस देश ने कितना मानव अधिकारों को कुचला इसका अंदाज़ शायद रिपोर्ट में उस देश को कितनी जगह दी गयी है. रिपोर्ट में भारत को 7 पन्ने मिले हैं तो चीन को 12, नेपाल को 6, पाकिस्तान को 7 और अमरीका को 11.
2006 में जिन देशों ने मानव अधिकारों की दिशा में सराहनीय काम किया है उनमें सबसे ऊँचा नाम नोर्वे का है.
अगर आप पूरी रिपोर्ट पढ़ना चाहें तो वह अंतरजाल पर ह्यूमन राईटस वाच पर पढ़ सकते हैं.
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