पिछले दिनों उत्तरी इटली के शहर टूरिन में कुछ भारतीय लेखकों के साथ समय गुज़ारा. उन्हीं दिनों की कुछ बातें मेरी यादों की डायरी से.
***
रेस्टोरेंट में घुसा तो कोने में एक मेज़ पर जगह दिखी, जहाँ दो पत्रकार बैठे थे, एक थे इतालवी टेलीविज़न के जाने माने से चेहरे वाले सज्जन जिनका नाम मुझे नहीं मालूम था और दूसरीं थीं रोम की एक समाचार एजेंसी में काम करने वाली सीमा जिनसे सुबह परिचय हुआ था. उनके पास की दो कुर्सियाँ खालीं थीं, मैंने पूछा कि क्या मैं वहाँ बैठ सकता हूँ तो दोनो मुस्करा दिये. मेरे पीछे पीछे इंग्लैंड में रहने वाले लेखक निरपाल सिंह धौलीवाल भी आखिरी बची कुर्सी पर आ गये.
निरपाल ने प्रसिद्ध ब्रिटिश पत्रकार और सोशलाईट लिज़ जोनस से विवाह किया था और हाल में ही उनका तलाक हुआ था. सुना था कि लंदन के टेबलोयड उनके बारे में हर दिन नयी नयी कहानियाँ छाप रहे हैं कि कैसे उन्होंने लिज़ के साथ बुरा व्यव्हार किया, कैसे उसे धोखा दिया, आदि. उस पर उनकी नयी किताब जिसे इतालवी में "तुरिज़्मों" (पर्यटन) के नाम से छापा गया है, अपने नायक के सेक्स के लम्बे और सुक्ष्म दृष्टि से दिये विवरणों की वजह से भी बहुत चर्चित है. इस तरह की बातों के लिए प्रसिद्ध होने वाले किसी व्यक्ति को करीब से देखने और जानने का यह मुझे पहला मौका मिला था. पर साथ ही मन में इस तरह की बातें सोचने और उनसे अन्य कुछ जानने की जिज्ञासा के घटियापन पर मुझे अपनेआप पर शर्म भी आ रही थी. इसी कसमकश में और मन में उनके बारे में शर्मिंदा महसूस करने से, मैं उनसे बात करने से कतराता रहा था.
मेज़ पर साथ बैठे तो सबने अपना अपना परिचय दिया. जो जाने पहचाने से लग रहे थे, उसका रहस्य समझ में आया. ईराकी मूल के पत्रकार एरफ़ान जी इतालवी टेलिविज़न पर अक्सर आते रहते हैं, उनकी पत्नी इतालवी हैं. सीमा सिंगापुर में भारतीय मूल के गुजराती माता पिता की संतान हैं, और उनके पति भी इतालवी हैं. निरपाल सिंह भी भारतीय मूल के हैं, उनके पंजाबी माता पिता इंग्लैंड में आये जब वे छोटे से थे. साथ में मैं था, सबकी तरह देशों, संस्कृतियों और धर्मों के हिस्सों में बँटा.
अपने भारतीय मूल की साँस्कृतिक धरोहर को निरपाल और सीमा बचपन की जबरदस्ती सिखायी जाने वाली "वतन की भाषा" से जोड़ रहे थे. सीमा बोली कि जब वह छोटी थीं तो उनके माता पिता उन्हें जबरदस्ती हिंदी पढ़ने भेजा करते थे, जिससे उन्हें हिंदी से घृणा सी हो गयी थी. निरपाल बोले उन्हें भी बचपन में शनिवार को सुबह पंजाबी सीखने भेजा जाता था जो उन्हें भी पसंद नहीं था. दोनो के मन में अपने माता पिता के लिए उन जबरदस्ती की सीखी भाषा के लिए अभी तक गुस्सा है. उस पढ़ाई के बाद भी न तो सीमा को हिंदी बोलनी आती है न ही निरपाल को पंजाबी.
मुझसे पूछने लगे कि मैंने अपने बेटे को क्या हिंदी पढ़ाने की कोशिश की? मैंने बताया कि जहाँ रहता हूँ वहाँ थोड़े से भारतीय हैं और वहाँ हिंदी पढ़ना संभव नहीं फ़िर बताया कि बेटा बचपन में अपना आधा भारतीय होना स्वीकार नहीं करता था, कहता था कि वह आधा भारतीय नहीं पूरा इतालवी होना चाहता है. फ़िर उसके भारतीय लड़की से प्यार के बारे में बताया, जिससे उसने विवाह किया है और अब हिंदी सीखने की कुछ कोशिश कर रहा है और अब वह मुझसे कहता है कि जब वह छोटा था तो उसे जबरदस्ती हिंदी सिखानी चाहिये थी. तो क्या अब तुम्हें दुख नहीं होता कि तुमने हिंदी या पंजाबी नहीं सीखी, मैंने सीमा और निरपाल से पूछा तो दोनों ने उत्तर नहीं दिया.
सीमा ने बताया कि कैसे उसे अपनी भारतीय मूल से झुँझलाहट होती है जब लोग उनका नाम और चेहरा देख कर सोचते हें कि वे भारतीय हैं और उनसे हिंदी में बात करने लगते हैं. "मैं भारतीय नहीं हूँ, सिगापुर की हूँ, यह कैसे समझायें लोगों को?" बोली. मन में आया कि यह पहचान, मैं यहाँ का हूँ या वहाँ का, कितनी आसानी से बनती बदलती रहती हैं. उनके माता पिता का दिल भारत में बसता था, वे स्वयं को सिंगापुर की कहती हैं और उनके इटली में पैदा होने वाले बच्चे हो सकते हैं कि कल स्वयं को केवल इतालवी ही देखना चाहें.
कुछ साल पहले तक सीमा सिंगापुर टेलीविजन के लिए काम करतीं थीं और उसी सिलसिले में पाकिस्तान गयीं तो पाकिस्तान वालों ने उन्हें अफगानिस्तान सीमा के पास वाले इलाके में जाने से मना कर दिया. जब उन्होंने इसका कारण पूछा तो वे लोग बोले कि तुम भारतीय हो, तुम्हें वहाँ नहीं जाने दे सकते तो सीमा को बहुत गुस्सा आया, बोलीं कि देखो मेरा पासपोर्ट में क्या भारत की लगती हूँ, मैं सिंगापुर में पैदा हुई, पासपोर्ट भी सिंगापुर का है, तो उस अफसर ने कहा कि "लेकिन तुम्हारा बाप तो हिंदुस्तानी है!" यही तो पहचान का दिक्कत है, भीतर से हम कैसा भी सोचें, भाषा कोई भी बोंलें पर अन्य लोगो कि लिए हमारे चेहरे का रंगरुप, हमारे माता पिता के नाम भी उतने ही आवश्यक हिस्सा होते हैं इस पहचान का.
एरफ़न ने ईराक के बारे में बताया कि बगदाद में पत्रकार लोग जेब में दो तीन आईडेंटिटी कार्ड रखते हैं, एक शिया नाम वाला, दूसरा सुन्नी नाम वाला, एक ईसाई नाम वाला, जहाँ जिस नाम से कम खतरा हो, वही प्रयोग करो.
सुबह बँगलौर में रहने वाली, केरल के परिवार में पैदा हुई, तमिलनाडू में बड़ी हुई, बढ़िया हिंदी बोलने वाली और अँग्रेजी में उपन्यास लिखने वाली अनीता नायर से मुलाकात हुई थी, तब भी यही सोच रहा कि पहचान के बदलते रूपों के लिए भारत से विदेश जाने की आवश्यकता नहीं, अपने देश में रह कर भी वैसी ही अनगिनत जीवन कथाएँ मिल जाती हैं.
***
रात को ओपेरा देखने का निमंत्रण था. हालाँकि सुबह से सारा दिन साक्षात्कार, भाषण, मिलना जुलने से थकान बहुत हो रही थी, पर मुझे मालूम था कि इस तरह की ओपेरा की टिकट बहुत मँहगी होती है और इतनी मँहगी टिकट ले कर अपने पैसों से जाने का सवाल नहीं उठेगा, इसलिए इस मौके को खोना नहीं चाहता था. ओपेरा शुरु होने का समय था रात को आठ बजे और समाप्त होने का करीब ग्यारह बजे, यानि कि वापस होटल में आते आते, आधी रात हो जाती और अगले दिन सुबह सुबह फ़िर से भाषणों, साक्षात्कारों का सिलसिला शुरु होने वाला था.
उदयप्रकाश और भगवानदास जी ने मुझसे पूछा तो मैंने यह सब बताया और यह भी कहा कि ओपेरा इतालवी में गाया जाने वाला शास्त्रीय संगीत जैसा है, अगर शब्द समझ नहीं आयेंगे तो शायद तीन घँटे बैठना आसान न हो. एक एक कर के अधिकतर लोगों ने ओपेरा जाने से मना कर दिया. इस कार्यक्रम की सचिव लड़की, कार्लोता को आश्चर्य हुआ बोली नये ओपेरा की पहली रात का निमंत्रण है, इसके लिए कितने लोग वहाँ लाईन लगा के खड़े होंगे और सौ या दो सौ यूरो की टिकट खरीदेंगे और आप सब लोग मना कर रहे हैं?
खैर जब चलने का समय आया तो बस में पाँच लोग थे. मैं, शशि थरूर, लावण्या शंकरन, निरपाल और उदयप्रकाश. उदयप्रकाश जी और निरपाल दोनों कुछ डावाँडोल से थे कि जायें या न जायें. जब बस चली तो कार्लोता को याद आया कि भारतीय दूतावास जो मुख्य सचिव आयीं हैं उन्हें तो लिया ही नहीं तो बस वापस होटल लौट आयी. उदयप्रकाश जी बोले कि यह तो भगवान की तरफ़ से संकेत है कि उन्हें जा कर बिस्तर पर आराम करना चाहिये. इस तरह वे तथा निरपाल होटल पर उतर गये.
अंत में ओपेरा हम तीन लोगों ने देखा, शशि, लावण्या और मैं. ओपेरा का नाम था रीगोलेत्तो (Rigoletto) जो कहानी है एक रंगीले दिल राजा की जो कमसिन लड़कियों के शरीरों से खेलता है. ओपेरा शुरु हुआ तो सारा हाल स्तब्ध सा रह गया. मंच पर करीब करीब २० नग्न युवक युवितयों का दृष्य था, यौन क्रीणा की रंगरेलियाँ करते हुए. सोचा कि हमारे बाकी साथियों को मालूम होता कि इस तरह के दृश्य होंगे तो सबकी नींद और थकान तुरंत दूर हो जाती. खैर दस मिनट के इस दृष्य के बाद इस तरह की कोई बात नहीं थी बल्कि सारे ओपेरा में कोई भव्य सेट या नृत्य आदि नहीं थे, क्योंकि कहानी थी उस रंगीले राजा से प्यार करने वाली साधारण युवती की और उसके पिता की, जो सब कुछ जान कर भी और राजा के लिए अपनी जान दे देती है.
मुझे ओपेरा बहुत अच्छा लगा. पहले कई बार ओपेरा सुने हैं पर अच्छा नहीं लगते, लगता है कि बेमतलब चीख पुकार हो रही है. पर जब देखा तो उस चीख पुकार में शब्द, भावनाएँ, संगीत सब कुछ बन गया. कुछ कुछ भारतीय बमबईया सिनेमा वाली बात है, रंगो से, भव्यता से, गानों से और संगीत से मानवीय भावनाओं को बढ़ाचढ़ा कर प्रस्तुत करते हैं. रात को बारह बजे वापस होटल आये तो मन में संतोष था कि अच्छा किया जो देखने चला गया.
शुक्रवार, जनवरी 25, 2008
रविवार, जनवरी 20, 2008
लेखकों से बदहज़मी
तीन दिन कैसे बीते, मालूम नहीं चला. टूरिन पहुँचते ही पहले उदयप्रकाश जी और मोरवाल जी से भेंट हुई.
उसी पहली शाम, मोरवाल जी से साक्षात्कार रिकार्ड किया. हिंदी में बात करने से बात करने का ढँग बदल जाता है और बिना "आप" या "जी" के बात करना अच्छा नहीं लगता. वहाँ मिले अँग्रेजी लेखकों से मिलते ही "यार" और "तू, तुम" कर बात होने लगी थी पर उदय जी या मोरवाल जी उस तरह बात करने की सोच कर अटपटा सा लगता. और जितनी बार मोरवाल जी को "भगवान जी" कहता वह कहते कि इस तरह न बुलाईये, अच्छा नहीं लगता! अब तक उनकी कोई किताब नहीं पढ़ी थी, अब उनसे दो किताबें पायीं हैं तो पढ़ने की उत्सुक्ता है.
उदय जी उतनी अधिक बात नहीं हुई. जब भी हुई तो लगता कि जैसे मैंने उन्हे चिढ़ाने या तंग करने की ठान ली हो, वे कुछ भी कहते उसका उल्टा ही बोलता. कुछ बार लगा कि शायद उन्हें बुरा लगा है तो स्वयं पर कुछ संयम किया पर जाने क्यों उन्हे उकसाने में मुझे आनंद आ रहा था.
कन्नड़ लेखिका गायत्री और उनके पति, कृष्णा मूर्ती से मिले तो पल में ही आत्मीयता हो गयी. दम्पत्ती, सीधे साधे भोले से थे, दोनो ही भौतिकी के स्नातक हैं और गायत्री जी ने उपन्यास आदि के अतिरिक्त बच्चों का साहित्य और विज्ञान को सरलता से समझाने के लिये भी लिखा है. इटली में रहने वाली उनकी कज़िन जया से मिलना भी सार्थक हुआ. जया जी ने स्वयं भी दो किताबें लिखीं हैं, एक हिंदू धर्म पर, और दूसरी शाकाहारी होने पर, पर साथ ही उन्होंने गायत्री मूर्ती के कन्नड़ उपन्यास "हुम्बला" का इतालवी भाषा में अनुवाद किया है.
इग्लैंड में पले बड़े हुए निरपाल सिंह धालीवाल को देखा तो थोड़ा सा अजीब सा लगा. सर्दी में भी सादा पैंट और टीशर्ट में घूमना. उनका रूखी सी बात करने का तरीका देख कर लगा कि शायद इस व्यक्ति से बात करना आसान नहीं होगा. फ़िर एक दिन खाने के समय साथ बैठे. हमारे साथ इराकी मूल के एक पत्रकार रशीद और सिंगापूर की भारतीय मूल की इटली में रहने वाली सीमा जी भी थे. एक बार बात शुरु हुई अपनी पहचान के बारे में, धर्म की सीमाओं के बारे में, विभिन्न देशों, धर्मों और संस्कृतियों के मिश्रण से बने परिवारों के बारे में, तो इतनी दिलचस्प बनी कि जब वहाँ से उठना पड़ा तो मन में दुख हुआ.
तरुण तेजपाल, एम जे अकबर, दोनो के भाषण बहुत अच्छे लगे, तरुण जी से कुछ बात करने का भी मौका मिला. अँग्रेजी में लिखने वाले अन्य भारतीय लेखकों जैसे अनीता नायर, सुधीर कक्कड़, अल्ताफ टायरवाला, लावण्या शँकरन, सभी को जानने पहचानने का कुछ मौका मिला. उनके साथ साक्षात्कार भी रिकार्ड किये. साथ ही अपने कुछ प्रिय अन्य देशों से आये लेखकों को भी मिलने का मौका मिला जैसे कि ताहार बेन जालून, लुईस सेपुलवेदा, रोज़ेत्ता लोय, पीटर श्नाईडर, ब्जोर्न लारस्सन, आदि.
लगता है कि जैसे जरुरत से ज़्यादा लेखकों के विचार, उनकी बातें दिमाग में घुसने से कुछ तूफ़ान सा आ गया हो. कुछ दिन आराम करने को मिले तो इन विचारों को तरतीब से सँवारने और शायद, समझने का समय मिले.
इन्ही तीन दिनों की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं. इनमें उदयप्रकाश जी, भगवान जी, गायत्री जी, सुधीर कक्कड़ जी और मेरी वाली गोष्ठी की तस्वीरें नहीं हैं क्योंकि मंच पर होने से मैं नहीं खींच सकता था.
उसी पहली शाम, मोरवाल जी से साक्षात्कार रिकार्ड किया. हिंदी में बात करने से बात करने का ढँग बदल जाता है और बिना "आप" या "जी" के बात करना अच्छा नहीं लगता. वहाँ मिले अँग्रेजी लेखकों से मिलते ही "यार" और "तू, तुम" कर बात होने लगी थी पर उदय जी या मोरवाल जी उस तरह बात करने की सोच कर अटपटा सा लगता. और जितनी बार मोरवाल जी को "भगवान जी" कहता वह कहते कि इस तरह न बुलाईये, अच्छा नहीं लगता! अब तक उनकी कोई किताब नहीं पढ़ी थी, अब उनसे दो किताबें पायीं हैं तो पढ़ने की उत्सुक्ता है.
उदय जी उतनी अधिक बात नहीं हुई. जब भी हुई तो लगता कि जैसे मैंने उन्हे चिढ़ाने या तंग करने की ठान ली हो, वे कुछ भी कहते उसका उल्टा ही बोलता. कुछ बार लगा कि शायद उन्हें बुरा लगा है तो स्वयं पर कुछ संयम किया पर जाने क्यों उन्हे उकसाने में मुझे आनंद आ रहा था.
कन्नड़ लेखिका गायत्री और उनके पति, कृष्णा मूर्ती से मिले तो पल में ही आत्मीयता हो गयी. दम्पत्ती, सीधे साधे भोले से थे, दोनो ही भौतिकी के स्नातक हैं और गायत्री जी ने उपन्यास आदि के अतिरिक्त बच्चों का साहित्य और विज्ञान को सरलता से समझाने के लिये भी लिखा है. इटली में रहने वाली उनकी कज़िन जया से मिलना भी सार्थक हुआ. जया जी ने स्वयं भी दो किताबें लिखीं हैं, एक हिंदू धर्म पर, और दूसरी शाकाहारी होने पर, पर साथ ही उन्होंने गायत्री मूर्ती के कन्नड़ उपन्यास "हुम्बला" का इतालवी भाषा में अनुवाद किया है.
इग्लैंड में पले बड़े हुए निरपाल सिंह धालीवाल को देखा तो थोड़ा सा अजीब सा लगा. सर्दी में भी सादा पैंट और टीशर्ट में घूमना. उनका रूखी सी बात करने का तरीका देख कर लगा कि शायद इस व्यक्ति से बात करना आसान नहीं होगा. फ़िर एक दिन खाने के समय साथ बैठे. हमारे साथ इराकी मूल के एक पत्रकार रशीद और सिंगापूर की भारतीय मूल की इटली में रहने वाली सीमा जी भी थे. एक बार बात शुरु हुई अपनी पहचान के बारे में, धर्म की सीमाओं के बारे में, विभिन्न देशों, धर्मों और संस्कृतियों के मिश्रण से बने परिवारों के बारे में, तो इतनी दिलचस्प बनी कि जब वहाँ से उठना पड़ा तो मन में दुख हुआ.
तरुण तेजपाल, एम जे अकबर, दोनो के भाषण बहुत अच्छे लगे, तरुण जी से कुछ बात करने का भी मौका मिला. अँग्रेजी में लिखने वाले अन्य भारतीय लेखकों जैसे अनीता नायर, सुधीर कक्कड़, अल्ताफ टायरवाला, लावण्या शँकरन, सभी को जानने पहचानने का कुछ मौका मिला. उनके साथ साक्षात्कार भी रिकार्ड किये. साथ ही अपने कुछ प्रिय अन्य देशों से आये लेखकों को भी मिलने का मौका मिला जैसे कि ताहार बेन जालून, लुईस सेपुलवेदा, रोज़ेत्ता लोय, पीटर श्नाईडर, ब्जोर्न लारस्सन, आदि.
लगता है कि जैसे जरुरत से ज़्यादा लेखकों के विचार, उनकी बातें दिमाग में घुसने से कुछ तूफ़ान सा आ गया हो. कुछ दिन आराम करने को मिले तो इन विचारों को तरतीब से सँवारने और शायद, समझने का समय मिले.
इन्ही तीन दिनों की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं. इनमें उदयप्रकाश जी, भगवान जी, गायत्री जी, सुधीर कक्कड़ जी और मेरी वाली गोष्ठी की तस्वीरें नहीं हैं क्योंकि मंच पर होने से मैं नहीं खींच सकता था.
गुरुवार, जनवरी 17, 2008
भारतीय लेखकों की सभा
नये साल को शुरु हुए पंद्रह दिन से भी अधिक हो गये और इस बीच में एक भी चिट्ठा नहीं लिखा. कितनी बार सोचा कि इस बात पर लिखूँगा, उस बात पर लिखूँगा, पर हर बार बात मन में ही रह गयी. यह दिन भागम भाग में ही निकल गये. कुछ तो उम्र बढ़ने के साथ साथ लगता है कि समय कुछ अधिक तेजी से निकलने लगता है, पर इस बार जितनी तेजी से दिन निकले वह कुछ जरुरत से ज्यादा ही हो गया.
खैर बीते दिनों की बात छोड़ कर बात आने वाले दिनों की, की जाये. कल यहाँ इटली के उत्तर में टूरिन शहर में दो दिन की भारतीय लेखकों और लेखन पर एक सभा का आयोजन किया जा रहा है जिसमें मुझे भी निमँत्रित किया गया है. हिंदी के दो लेखकों को बुलाया गया है उदयप्रकाश जी और भगवानदास मरवाल जी. कन्नड़ की लेखिका गायत्री मूर्ती को ही बुलाया गया है.
बाकी के सभी भारतीय लेखक अँग्रेजी में लिखने वाले हैं जैसे कि शशि थरूर, लावण्या शंकर, निरपाल सिँह धालीवाल, अल्ताफ टायरवाला, एम.जे.अकबर, अनीता नायर, तरुण तेजपाल, विकास स्वरूप और सुधीर कक्कड़.
इनमें से कई लेखकों को तो मैं बिल्कुल भी नहीं जानता था, उनका लिखा कुछ नहीं पढ़ा था. इसलिए शुरु शुरु में कुछ अजीब सा लगा कि हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में लोग सारा जीवन लिखते रहते हैं और उन्हें कोई नहीं पूछता और अँग्रेजी में एक किताब लिखने से प्रसिद्धि मिल सकती है.
पिछले दिनों दो नये लेखकों, लावण्या शंकर और अल्ताफ टायरवाला के उपन्यास पढ़े, दोनों ही मुझे बहुत अच्छे लगे. अब दो दिनों तक जाने माने लेखकों के साथ रहने का मौका मिलेगा, उन्हें जानने पहचानने की कुछ उत्सुक्ता भी है मन में और उनकी बात को सुनने का इंतज़ार भी है. तैयारी कर रहा हूँ कि कुछ साक्षात्कार किये जाये, सभा में देने वाले उनके भाषण रिकार्ड किये जायें, आदि.
फ़िर कुछ ही दिनों में, २७ जनवरी को भारत भी जाना है. जाने इस सभा के बारे में कुछ लिखने का कितना समय मिलेगा. अगर अभी नहीं तो फरवरी में भारत से वापस आने पर इस बारे में बात होगी.
खैर बीते दिनों की बात छोड़ कर बात आने वाले दिनों की, की जाये. कल यहाँ इटली के उत्तर में टूरिन शहर में दो दिन की भारतीय लेखकों और लेखन पर एक सभा का आयोजन किया जा रहा है जिसमें मुझे भी निमँत्रित किया गया है. हिंदी के दो लेखकों को बुलाया गया है उदयप्रकाश जी और भगवानदास मरवाल जी. कन्नड़ की लेखिका गायत्री मूर्ती को ही बुलाया गया है.
बाकी के सभी भारतीय लेखक अँग्रेजी में लिखने वाले हैं जैसे कि शशि थरूर, लावण्या शंकर, निरपाल सिँह धालीवाल, अल्ताफ टायरवाला, एम.जे.अकबर, अनीता नायर, तरुण तेजपाल, विकास स्वरूप और सुधीर कक्कड़.
इनमें से कई लेखकों को तो मैं बिल्कुल भी नहीं जानता था, उनका लिखा कुछ नहीं पढ़ा था. इसलिए शुरु शुरु में कुछ अजीब सा लगा कि हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में लोग सारा जीवन लिखते रहते हैं और उन्हें कोई नहीं पूछता और अँग्रेजी में एक किताब लिखने से प्रसिद्धि मिल सकती है.
पिछले दिनों दो नये लेखकों, लावण्या शंकर और अल्ताफ टायरवाला के उपन्यास पढ़े, दोनों ही मुझे बहुत अच्छे लगे. अब दो दिनों तक जाने माने लेखकों के साथ रहने का मौका मिलेगा, उन्हें जानने पहचानने की कुछ उत्सुक्ता भी है मन में और उनकी बात को सुनने का इंतज़ार भी है. तैयारी कर रहा हूँ कि कुछ साक्षात्कार किये जाये, सभा में देने वाले उनके भाषण रिकार्ड किये जायें, आदि.
फ़िर कुछ ही दिनों में, २७ जनवरी को भारत भी जाना है. जाने इस सभा के बारे में कुछ लिखने का कितना समय मिलेगा. अगर अभी नहीं तो फरवरी में भारत से वापस आने पर इस बारे में बात होगी.
शनिवार, दिसंबर 29, 2007
कट्टरपँथी और जनतंत्र
इन दिनों मेरी छुट्टियाँ चल रहीं हैं. छुट्टियों के पहले कुछ दिन ससुराल में बीते. अब वापस घर आये तो इंटरनेट पर मटरगश्ती करने का समय मिला है जो सारा साल काम की वजह से कम ही मिलता है. इसलिए देश विदेश में कौन क्या कह रहा है, क्या लिख रहा है उसे पढ़ने का मौका मिल रहा है. आज जो पढ़ा उस के बारे में लिखना चाहता हूँ. शायद यह बातें अलग अलग हैं और उन्हें इस तरह साथ जोड़ना कितना ठीक है, कितना गलत यह निर्णय आप पर छोड़ता हूँ.
मिस्री मूल के लेखक और पत्रकार श्री मगदी अल्लाम (Magdi Allam) इटली के लोकप्रिय अखबार "कोरियेरे देला सेरा" (Correire Della Sera) के वरिष्ठ सम्पादक दल का हिस्सा हैं. पिछले कुछ समय से वह इस्लामी जिहाद और आतंकवाद के विरुद्ध लिख रहे हैं जिसकी वजह से उन्हें जान से मारने की धमकियाँ मिलीं हैं और उन्हें इतालवी सरकार ने राजकीय सुरक्षा दी है. पाकिस्तानी नेता बेनज़ीर भुट्टो के खून के बारे में 29 दिसंबर की अखबार में "इस्लाम और जनतंत्र" के नाम से बहुत कठोर सम्पादकीय लिखा है. उनका कहना है किः
उनके लेख पढ़ कर कुछ डर सा लगा, मानो वे चेतावनी दे रहे हों कि हिंदू हिँसा बढ़ने वाली है, बढ़ रही है. उससे भी अधिक डर लगा इस बात से कि शायद वह इस हिंसा को ही उचित मान रहे हैं.
शायद आज यह समझना आवश्यक है कि उग्रवाद, रूढ़िवाद, कट्टरपन, आदि जैसी बातें किसी एक धर्म की धरौहर नहीं, हर धर्म को अपनी चपेट में ले सकती हैं, हर धर्म को निर्भीक विचारक चाहियें जो किसी भी रुप में हिंसा को उचित न स्वीकारें, जो हमेशा उसका विरोध कर सकें. जो यह माने कि कोई भी धर्म मानव से हट कर या ऊँचा नहीं, और हर धर्म में मानव को उस पर खुल कर बहस करने, उसकी आलोचना करने का अधिकार हो.
मिस्री मूल के लेखक और पत्रकार श्री मगदी अल्लाम (Magdi Allam) इटली के लोकप्रिय अखबार "कोरियेरे देला सेरा" (Correire Della Sera) के वरिष्ठ सम्पादक दल का हिस्सा हैं. पिछले कुछ समय से वह इस्लामी जिहाद और आतंकवाद के विरुद्ध लिख रहे हैं जिसकी वजह से उन्हें जान से मारने की धमकियाँ मिलीं हैं और उन्हें इतालवी सरकार ने राजकीय सुरक्षा दी है. पाकिस्तानी नेता बेनज़ीर भुट्टो के खून के बारे में 29 दिसंबर की अखबार में "इस्लाम और जनतंत्र" के नाम से बहुत कठोर सम्पादकीय लिखा है. उनका कहना है किः
"इस्लाम और जनतंत्र में आपसी विरोधाभास है और यह दोनो बातें एक साथ नहीं हो सकतीं कि इस्लाम बहुमत के देश में जनतंत्र स्थापित हो. जो भी देश अपने आप को "इस्लामी जनतंत्र" का नाम देते हैं जैसे पाकिस्तान, ईरान, अफगानिस्तान आदि, वहाँ जनतंत्र है ही नहीं. इस्लामी कान्फेरेंस संस्था के 56 देशों में से कोई भी देश जनतंत्र के नियमों का पूरी तरह से पालन नहीं करता, वहाँ जनतंत्र नाम के लिए है और वहाँ विभिन्न मानव अधिकारों की अवहेलना की जाती है... आधुनिक इतिहास यही दिखाता है कि इस्लामी बहुल्य के देश के जनतंत्र तभी सही होता जब शासन में धार्मिक वर्ग को अन्य जननीतियों से अलग रखा जाये. अगर यह भेद नहीं रखा जाता तो रूढ़िवादी और कट्टरपंथी लोग आम जीवन की हर बात में अपनी दखलदाँज़ी की जबरदस्ती करते हैं. चूँकि इस्लाम में कोई एक व्यक्ति या पद नहीं जिसे सबसे ऊपर माना जाये, हर धार्मिक नेता अपनेआप को धर्म का सच्चा रखवाला कहता है और चाहता है कि उसकी बात मानी जाये. इसी वजह से, इतिहास बताता है कि अन्य धर्मों से झगड़ा करने से पहले, इस्लाम अपने भीतर ही झगड़ों में उलझा रहा है..."कल, 28 दिसंबर के एक अन्य इतालबी अखबार "लिबेरात्स्योने" (Liberazione) में, इतालवी पत्रकार फ्राँचेस्का मार्रेत्ता का लिया हुआ पाकिस्तानी मूल के ईण्लैंड में रहने वाले प्रसिद्ध लेखक हनीफ़ कुरैशी से एक साक्षात्कार भी छपा है. उसे भी आज ही पढ़ा. उन्होंने ने भी कुछ इसी तरह की बात कही हैः
"पाकिस्तान को मुसलमानों के लिए जनतंत्र की तरह सोच कर बनाया गया था, पर मुसलमान जनतंत्र में नहीं रह सकते, क्योंकि वे धर्म को बाकी सब बातों के सामने रखते हैं. मेरा अपना व्यक्तिगत विचार है कि पाकिस्तान को अलग देश नहीं बनाना चाहिये था, उसे भारत का हिस्सा ही रहना चाहिये था."फ़िर पढ़ा भारतीय अँग्रेजी की अखबार इँडियन एक्सप्रेस (Indian Express) में श्री अरुण शोरी का नया लेख, "हिंदुत्व तथा उग्रवादी इस्लामः जहाँ यह दोनो मिलते हैं" (Hindutva and radical Islam: Where the twain do meet). इस लेख में शोरी जी का कहना है कि "हिंदुत्व उग्रपंथी इस्लाम से कम कट्टरपंथी नहीं है" वाली बात में अतिश्योक्ति है पर साथ ही कुछ सच्चाई भी है और हर धर्म के ग्रंथों में हिंसा को सही मानने वाली बात मिल सकती है. वह गाँधी जी के हिंदू विश्वास और बाल गंगाधर तिलक के हिंदू विश्वास की विभिन्नता की बात करते हैं और कहते हैं कि भगवद् गीता से हमें हिंसा का हिंसा से उत्तर देने की शिक्षा मिलती है.
उनके लेख पढ़ कर कुछ डर सा लगा, मानो वे चेतावनी दे रहे हों कि हिंदू हिँसा बढ़ने वाली है, बढ़ रही है. उससे भी अधिक डर लगा इस बात से कि शायद वह इस हिंसा को ही उचित मान रहे हैं.
शायद आज यह समझना आवश्यक है कि उग्रवाद, रूढ़िवाद, कट्टरपन, आदि जैसी बातें किसी एक धर्म की धरौहर नहीं, हर धर्म को अपनी चपेट में ले सकती हैं, हर धर्म को निर्भीक विचारक चाहियें जो किसी भी रुप में हिंसा को उचित न स्वीकारें, जो हमेशा उसका विरोध कर सकें. जो यह माने कि कोई भी धर्म मानव से हट कर या ऊँचा नहीं, और हर धर्म में मानव को उस पर खुल कर बहस करने, उसकी आलोचना करने का अधिकार हो.
सोमवार, दिसंबर 24, 2007
बच्चे को दूध पिलाता पुरुष
अँग्रेजी जूआ खेलने वाली कम्पनी पोवरबिंगो के नये इश्तेहार ने कुछ खलबली सी मचा दी है. लंदन की अँडरग्राउड मैट्रो ने और आयरलैंड में डबलिन की बसों ने इस विज्ञापन को लगाने पर रोक लगा दी है कि क्योंकि उनका कहना है कि इस तरह के इश्तेहारों से जन सामान्य की भावनाओं को ठेस पहुँचती है.
विज्ञापन में है गोद में छोटे बच्चे को लिया हुआ एक पुरुष जिसने अपनी कमीज़ ऊपर उठा रखी है जिससे लगता है कि बच्चा उसके स्तन से दूध पीने वाला है. विज्ञापन पर लिखा है "सारी औरतें कहाँ चली गयीं?"
जब से यह बैन हुआ तब से इस विज्ञापन पर बहस चल रही है. बहुत से लोग कहते हैं कि ऐसी कोई बुरी बात नहीं है इस विज्ञापन में पर उन्हें पुरुष मोडल कोई अधिक सुंदर लड़का चुनना चाहिये था. शायद बुरा लगने वाली बात है कि विज्ञापन के अनुसार आज की नारियाँ बच्चों का ध्यान कम रखती हैं और जूआ खेलने में लगी हैं? या कि पुरुष को बच्चों का धयान रखना पड़े यह बुरी बात है? या फ़िर पुरुष के स्तन का हिस्सा दिखाना बुरी बात है?
मेरे विचार में आज नारी और पुरुष के सामाजिक रोल बदल रहे हैं और विज्ञापन इस बदलाव का लाभ उठा कर अपना संदेश देने में सफल भी होते हैं और साथ ही, समाज को मजबूर करते हैं कि वह इन बदलते रूपों पर सोचे और नये जीवन मूल्यों को बनाये.
विज्ञापन चाहे जो भी कहे, अधिकतर घरों में सच्चाई यही है कि पुरुष घर और बच्चों की जिम्मेदारी में कम ही भाग लेते हैं. चाहे वह किसी खेल में हिस्सा लेने जाने की बात हो, चाहे मित्रों के साथ शाम बाहर बिताने की, अधिकतर पुरुष ही जाते हैं. अगर बच्चों को देखने वाला कोई हो तो पुरुष के साथ नारी भी जाती है पर पुरुष घर में रहे और अकेली नारी बाहर सहेलियों के साथ घूमने जाये, यह कम ही होता है. समाज में नारी पर अच्छी माँ बनने का बहुत दबाव होता है, नौकरी की वजह से भी घर से या बच्चों से दूर रहना पड़े तो भी, अच्छी माँ न होने का अपराध बोध उसे सताता है. अच्छी माँ वही होती है जो अपने सपने भूल कर, अपनी चाहों को दबा कर, बच्चों के लिए त्याग करे और घर में रहे, यही सबक सिखया जाता है आज भी लड़कियों को. अगर कोई विज्ञापन इस बात पर ध्यान आकर्षित करे तो मेरे विचार में यह अच्छी बात है.
मैं यह नहीं कहता कि औरतों को पुरुषों की तरह होना चाहिये, पर मेरा विचार है कि आज के बदलते जीवन में पुरुष और नारी के बीच में घर की जिम्मेदारियाँ जिस तरह बँटीं हैं वे बदल रही हैं, उन्हें बदलना चाहिये.
दूसरी बात इस विज्ञापन में प्रयोग की गयी तस्वीर के बारे में है. मेरे विचार में तस्वीर में बुराई नहीं बल्कि इससे समाज के अन्य पहलुँओं पर भी विमर्श किया जा सकता है. मान लीजिये कि विज्ञापन पर लिखा होता, "अगर पुरुष भी बच्चों को दूध पिला पाते तो क्या आज इस दुनिया में युद्ध कम होते?", तो आप को कैसा लगता?
विज्ञापन में है गोद में छोटे बच्चे को लिया हुआ एक पुरुष जिसने अपनी कमीज़ ऊपर उठा रखी है जिससे लगता है कि बच्चा उसके स्तन से दूध पीने वाला है. विज्ञापन पर लिखा है "सारी औरतें कहाँ चली गयीं?"
जब से यह बैन हुआ तब से इस विज्ञापन पर बहस चल रही है. बहुत से लोग कहते हैं कि ऐसी कोई बुरी बात नहीं है इस विज्ञापन में पर उन्हें पुरुष मोडल कोई अधिक सुंदर लड़का चुनना चाहिये था. शायद बुरा लगने वाली बात है कि विज्ञापन के अनुसार आज की नारियाँ बच्चों का ध्यान कम रखती हैं और जूआ खेलने में लगी हैं? या कि पुरुष को बच्चों का धयान रखना पड़े यह बुरी बात है? या फ़िर पुरुष के स्तन का हिस्सा दिखाना बुरी बात है?
मेरे विचार में आज नारी और पुरुष के सामाजिक रोल बदल रहे हैं और विज्ञापन इस बदलाव का लाभ उठा कर अपना संदेश देने में सफल भी होते हैं और साथ ही, समाज को मजबूर करते हैं कि वह इन बदलते रूपों पर सोचे और नये जीवन मूल्यों को बनाये.
विज्ञापन चाहे जो भी कहे, अधिकतर घरों में सच्चाई यही है कि पुरुष घर और बच्चों की जिम्मेदारी में कम ही भाग लेते हैं. चाहे वह किसी खेल में हिस्सा लेने जाने की बात हो, चाहे मित्रों के साथ शाम बाहर बिताने की, अधिकतर पुरुष ही जाते हैं. अगर बच्चों को देखने वाला कोई हो तो पुरुष के साथ नारी भी जाती है पर पुरुष घर में रहे और अकेली नारी बाहर सहेलियों के साथ घूमने जाये, यह कम ही होता है. समाज में नारी पर अच्छी माँ बनने का बहुत दबाव होता है, नौकरी की वजह से भी घर से या बच्चों से दूर रहना पड़े तो भी, अच्छी माँ न होने का अपराध बोध उसे सताता है. अच्छी माँ वही होती है जो अपने सपने भूल कर, अपनी चाहों को दबा कर, बच्चों के लिए त्याग करे और घर में रहे, यही सबक सिखया जाता है आज भी लड़कियों को. अगर कोई विज्ञापन इस बात पर ध्यान आकर्षित करे तो मेरे विचार में यह अच्छी बात है.
मैं यह नहीं कहता कि औरतों को पुरुषों की तरह होना चाहिये, पर मेरा विचार है कि आज के बदलते जीवन में पुरुष और नारी के बीच में घर की जिम्मेदारियाँ जिस तरह बँटीं हैं वे बदल रही हैं, उन्हें बदलना चाहिये.
दूसरी बात इस विज्ञापन में प्रयोग की गयी तस्वीर के बारे में है. मेरे विचार में तस्वीर में बुराई नहीं बल्कि इससे समाज के अन्य पहलुँओं पर भी विमर्श किया जा सकता है. मान लीजिये कि विज्ञापन पर लिखा होता, "अगर पुरुष भी बच्चों को दूध पिला पाते तो क्या आज इस दुनिया में युद्ध कम होते?", तो आप को कैसा लगता?
पेरिस के झाड़ूमार
फ्राँसिसी पत्रकार फ्रेड्रिक पोटे (Frédéric Potet) ने ले मोंड 2 (Le Monde 2) में पेरिस के सफाई कर्मचारियों के जीवन के बारे में एक लेख लिखा है. इसे लिखने के लिए वे दो सप्ताह तक सफाई कर्मचारियों की पौशाक पहन कर उनके साथ साथ रहे, उनके साथ काम किया ताकि उनके जीवन को ठीक से समझ सकें.
अपने अनुभव के बारे में वह बताते हैं कि जब पहले दिन वह सफाई कर्मचारियों के दफ्तर में पहुँचे तो लोगों ने उनसे पूछा, "क्या तुम्हें अखबार से निकाल दिया है? या फ़िर कोई सजा मिली है?" जब फ्रेड्रिक ने बताया कि वह लेख लिखने के लिए उनके हर रोज के जीवन का अनुभव करना चाहते हैं तो एक सफाई कर्मचारी बोला, "शायद तुमने कुछ पाप किये होंगे तभी तुम्हें यहाँ आना पड़ा".
फ्राँस में भारत की तरह से जाति के झँझट नहीं, पर लेख को पढ़ कर लगता है कि समय, जगह आदि बहुत कुछ बदल कर भी जीवन की बहुत सी बातें नहीं बदलतीं, चाहे वह भारत हो या योरोप.
फ्राँस में कूड़ा सड़के के किनारे रखे बड़े बड़े ढक्कन वाले बंद कूड़ेदानों में फैंका जाता है. कूड़ा उठाने सप्ताह में दो या तीन बार, नगरपालिका की गाड़ी आती है. कूड़ेदान उठाना, उसे ट्रक में पीछे डालना, कूड़े को दबा कर छोटा करना, सब काम मशीन से होते हैं. सफाई कर्मचारियों होने से क्या काम करना होता है? एक आदमी गाड़ी के भीतर बैठ कर मशीन को चलाता है, एक या दो व्यक्ति बाहर उतर कर मशीन को डिब्बे से जोड़ते हैं या देखते हैं कि सब ठीक से हो रहा हो, अगर सड़क पर कुछ गिरा हो उसे उठा लो. कभी कभी लोग घर के सामान, जैसे सोफा, फ्रिज, टेलिविजन आदि को कूड़ेदान के पास बाहर रख देते हैं, तो इस तरह के सामान को उठाना भी उनका काम है. बड़ी सड़कों पर गिरे पत्तों, गंदगी आदि की सफाई का काम भी मशीन से होता है पर कई जगहों पर मशीन वाली गाड़ी नहीं जा सकती और लोगों को झाड़ू ले कर पुराने तरीके से ही सफाई करनी पड़ती है.
फ्रेड्रिक सफाई कर्मचारियों के साथ बिताये इन दिनों के अनुभवों से बहुत सी बातों को समझाते हैं जिनके बारे में हम अक्सर नहीं सोचते. जैसे कि इन सफाई की मशीनों वाली गाड़ियों के शोर के बीच में रहने का असर. कई बार घर के बाहर जब सफाई की गाड़ी कुछ समय के लिए कूड़ा उठाने के लिए रुकती है तो शोर से झुँझुलाहट सी होती है, मन में आता है कि इतनी सुबह सुबह इस तरह का शोर करके हमारी नींद खराब कर देते हैं, पर यह कभी नहीं सोचा था कि इस तरह के शोर में घिर कर काम करना कितना कष्टदायक होगा और हर रोज़ कई घँटों तक शोर के बीच में रह कर उन्हें किस तरह लगता है?
सफाई कर्मचारी अपनी बातों में बार बार कूड़े, पाखाने और गन्दगी के बीच में रहने और काम करने के असर के बारे में बताते हैं, उनके घर वालों को और बच्चों को इस काम कर बारे में बताने से शर्म आती है, उनके शरीर से कपड़ों से बू आती है, जब वे सफाई कर्मचारियों की वर्दी पहने होते हैं तो लोग उनकी तरफ देखते नहीं, मन में हीन भावना आ जाती है, इत्यादि. फ्रेड्रिक से बात करते हुए एक व्यक्ति कहता है कि इस काम की सबसे बुरी बात है कि चाहे जितनी भी मेहनत करलो, गन्दगी कम नहीं होती, आप ने सारी सफाई की हो तो भी, दो मिनट बाद ही कोई और उसे गन्दा कर देगा.
अगर मशीनों के साथ काम करके यह हाल है तो भारत में जहाँ सब कुछ अपने हाथों से, बिना दस्ताने पहन कर करना पड़ता है, वहाँ लोगों के मन पर क्या असर होता होगा इसको सोचा जा सकता है.
फ्रेड्रिक के अनुसार 2007 में जब पेरिस की नगरपालिका ने 300 नये सफाई कर्मचारियों की भर्ती के लिए विज्ञापन दिया तो 4000 लोगों ने अर्जी भेजी. सरकारी नौकरी, अच्छी मासिक पगार, सुबह काम करना प्रारम्भ करो और दोपहर तक खाली हो जाओ, आदि से यह काम करना चाहनेवालों की कमी नहीं.
पेरिस के सफाई कर्मचारियों में कुछ भारतीय भी हैं. फ्रेड्रिक उनके बारे में अधिक नहीं बताते पर अगर भारत में जाति भेद का सोचें या फ़िर भारतीय समाज में छोटे बड़े काम करने वालों के बीच के भेदभाव के बारे में सोचें तो लगता है जाने क्या बताया होगा उन्होंने अपने घर वालों को कि क्या काम करते हैं वे? पेरिस में सफाई करने की सरकारी नौकरी मिले, 1200 यूरो की मासिक पगार मिले तो क्या आप क्या यह काम करना पसंद करेंगे?
अपने अनुभव के बारे में वह बताते हैं कि जब पहले दिन वह सफाई कर्मचारियों के दफ्तर में पहुँचे तो लोगों ने उनसे पूछा, "क्या तुम्हें अखबार से निकाल दिया है? या फ़िर कोई सजा मिली है?" जब फ्रेड्रिक ने बताया कि वह लेख लिखने के लिए उनके हर रोज के जीवन का अनुभव करना चाहते हैं तो एक सफाई कर्मचारी बोला, "शायद तुमने कुछ पाप किये होंगे तभी तुम्हें यहाँ आना पड़ा".
फ्राँस में भारत की तरह से जाति के झँझट नहीं, पर लेख को पढ़ कर लगता है कि समय, जगह आदि बहुत कुछ बदल कर भी जीवन की बहुत सी बातें नहीं बदलतीं, चाहे वह भारत हो या योरोप.
फ्राँस में कूड़ा सड़के के किनारे रखे बड़े बड़े ढक्कन वाले बंद कूड़ेदानों में फैंका जाता है. कूड़ा उठाने सप्ताह में दो या तीन बार, नगरपालिका की गाड़ी आती है. कूड़ेदान उठाना, उसे ट्रक में पीछे डालना, कूड़े को दबा कर छोटा करना, सब काम मशीन से होते हैं. सफाई कर्मचारियों होने से क्या काम करना होता है? एक आदमी गाड़ी के भीतर बैठ कर मशीन को चलाता है, एक या दो व्यक्ति बाहर उतर कर मशीन को डिब्बे से जोड़ते हैं या देखते हैं कि सब ठीक से हो रहा हो, अगर सड़क पर कुछ गिरा हो उसे उठा लो. कभी कभी लोग घर के सामान, जैसे सोफा, फ्रिज, टेलिविजन आदि को कूड़ेदान के पास बाहर रख देते हैं, तो इस तरह के सामान को उठाना भी उनका काम है. बड़ी सड़कों पर गिरे पत्तों, गंदगी आदि की सफाई का काम भी मशीन से होता है पर कई जगहों पर मशीन वाली गाड़ी नहीं जा सकती और लोगों को झाड़ू ले कर पुराने तरीके से ही सफाई करनी पड़ती है.
फ्रेड्रिक सफाई कर्मचारियों के साथ बिताये इन दिनों के अनुभवों से बहुत सी बातों को समझाते हैं जिनके बारे में हम अक्सर नहीं सोचते. जैसे कि इन सफाई की मशीनों वाली गाड़ियों के शोर के बीच में रहने का असर. कई बार घर के बाहर जब सफाई की गाड़ी कुछ समय के लिए कूड़ा उठाने के लिए रुकती है तो शोर से झुँझुलाहट सी होती है, मन में आता है कि इतनी सुबह सुबह इस तरह का शोर करके हमारी नींद खराब कर देते हैं, पर यह कभी नहीं सोचा था कि इस तरह के शोर में घिर कर काम करना कितना कष्टदायक होगा और हर रोज़ कई घँटों तक शोर के बीच में रह कर उन्हें किस तरह लगता है?
सफाई कर्मचारी अपनी बातों में बार बार कूड़े, पाखाने और गन्दगी के बीच में रहने और काम करने के असर के बारे में बताते हैं, उनके घर वालों को और बच्चों को इस काम कर बारे में बताने से शर्म आती है, उनके शरीर से कपड़ों से बू आती है, जब वे सफाई कर्मचारियों की वर्दी पहने होते हैं तो लोग उनकी तरफ देखते नहीं, मन में हीन भावना आ जाती है, इत्यादि. फ्रेड्रिक से बात करते हुए एक व्यक्ति कहता है कि इस काम की सबसे बुरी बात है कि चाहे जितनी भी मेहनत करलो, गन्दगी कम नहीं होती, आप ने सारी सफाई की हो तो भी, दो मिनट बाद ही कोई और उसे गन्दा कर देगा.
अगर मशीनों के साथ काम करके यह हाल है तो भारत में जहाँ सब कुछ अपने हाथों से, बिना दस्ताने पहन कर करना पड़ता है, वहाँ लोगों के मन पर क्या असर होता होगा इसको सोचा जा सकता है.
फ्रेड्रिक के अनुसार 2007 में जब पेरिस की नगरपालिका ने 300 नये सफाई कर्मचारियों की भर्ती के लिए विज्ञापन दिया तो 4000 लोगों ने अर्जी भेजी. सरकारी नौकरी, अच्छी मासिक पगार, सुबह काम करना प्रारम्भ करो और दोपहर तक खाली हो जाओ, आदि से यह काम करना चाहनेवालों की कमी नहीं.
पेरिस के सफाई कर्मचारियों में कुछ भारतीय भी हैं. फ्रेड्रिक उनके बारे में अधिक नहीं बताते पर अगर भारत में जाति भेद का सोचें या फ़िर भारतीय समाज में छोटे बड़े काम करने वालों के बीच के भेदभाव के बारे में सोचें तो लगता है जाने क्या बताया होगा उन्होंने अपने घर वालों को कि क्या काम करते हैं वे? पेरिस में सफाई करने की सरकारी नौकरी मिले, 1200 यूरो की मासिक पगार मिले तो क्या आप क्या यह काम करना पसंद करेंगे?
सोमवार, दिसंबर 17, 2007
आज की भारतीय नारी
भारत के बड़े शहरों में घूमिये तो हर क्षेत्र में नारी आगे बढ़ते दिखती है, चाहे वह विश्वविद्यालय की छात्राएँ हों या डाक्टर वकील जैसे पैशे में जुटी नारियाँ या फ़िर हर तरह के काम में लगी नौकरी करने वाली. जब विश्व लिंग भेद रिपोर्ट (World Gender Gap Report) देखी तो सोचा कि भारत का स्थान नारी विकास के क्षेत्र में अच्छा ही होना चाहिये.
रिपोर्ट ने कुल 128 देशों में नारी और पुरुष की स्थिति को जाँचा है और इसके हिसाब से स्वीडन विश्व में पहले नम्बर पर है और भारत 114वें स्थान पर. दक्षिण एशिया के अन्य देशों की स्थिति है नेपाल 125वें स्थान पर, पाकिस्तान 126वें स्थान पर, बँगलादेश 100वें स्थान पर और श्री लंका 15वें स्थान पर.
पहले तो यह हैरानी हुई की भारत इतना पीछे कैसे हुआ, पाकिस्तान और नेपाल के पास? दूसरी हैरानी हुई बँगलादेश का स्थान हमारे देश से आगे है. पर सबसे अधिक हैरानी की बात लगी कि श्री लंका इतना आगे है जबकि अमरीका 31वें स्थान पर है और इटली 84वें स्थान पर.
यह रिपोर्ट चार क्षेत्रों में समाज में नारी का स्थान परखती है - आर्थिक उन्नति और आय, शिक्षा, स्वास्थ्य तथा राजनीतिक सशक्तिकरण. अब देखें भारत के कुछ आँकणे:
जहाँ तक आर्थिक उन्नति और आय का सवाल है कमजोरी के कारण हैं समान कार्य के लिए भारत में नारियों को पगार कम मिलती है, उन्हें काम करने के मौके कम मिलते हैं, ऊँचे पद पर उनकी तरक्की कम होती है (ऊँचे पद पर स्त्रियाँ 3 प्रतिशत, पुरुष 97 प्रतिशत) और तकनीकी क्षेत्रों में वे अपेक्षाकृत स्थान नहीं पातीं. इस दृष्टि से भारत का स्थान विश्व के 128 देशों में 114वाँ हैं.
शिक्षा क्षेत्र में लड़कों के मुकाबले कम लड़कियाँ लिखना पढ़ना जानती हैं (लड़कियाँ 48 प्रतिशत, लड़के 73 प्रतिशत), प्राईमरी स्कूल में उनका अनुपात कम है, ऊच्च शिक्षा में भी उनका अनुपात युवकों के मुकाबले में कम है (ऊच्च शिक्षा में लड़कियाँ 9 प्रतिशत, लड़के 14 प्रतिशत). इस दृष्टि से भारत का स्थान 128 देशों में से 122वें स्थान पर है.
स्वास्थ्य के क्षेत्र में जन्म के समय लड़कियों और लड़कों के अनुपात में अंतर होने की विषमता भारत में बहुत अधिक है, और स्वास्थ जीवन आकाँक्षा में उनका जीवन कुछ छोटा होता है, इसलिए इस दृष्टि से देखने पर भारत का स्थान 128 देशों में से 117वें स्थान पर है.
राजनीतिक संशक्तिकरण के क्षेत्र में भारतीय संसद में स्त्री साँसद पुरुषों के सामने बहुत कम हैं (स्त्रियाँ 8 प्रतिशत, पुरुष 92 प्रतिशत) और स्त्री मिनिस्टर भी कम हैं ( स्त्री मिनिस्टर 3 प्रतिशत, पुरुष 97 प्रतिशत).
कुछ दिन पहले अखबार में पढ़ा था कि एक सर्वे हुआ जिसमें पूछा गया कि आप अपने भविष्य के बारे में क्या सोचते हैं तो निकला की भारतीय सबसे अधिक आशावान हैं कि भविष्य आज से अच्छा होगा और 2020 तक भारत एक विकसित देश होगा. पर अगर देश की स्थिति आँकणों से देखी जाये तो विकासित होने का रास्ता अधिक लम्बा लगता है. शायद इसका सबसे बड़ा कारण शहरों और गाँवों के बीच की विषमता है. शहरों में जीवन तेजी से सुधर रहा है, उन्नति के मौके बढ़ रहे हैं पर गाँवों में अभी भी बैलगाड़ी ही चलती है, पानी और बिजली जैसी आवश्यकताएँ अधूरी रह जातीं हैं. भारतीय दर्शन नारी को देवी मानता है, देवी के रुप में मंदिर में जगह देता है पर जब तक आम जीवन में नारी के साथ विषमताएँ रहेंगी, मंदिर की देवी केवल कहने की बात हो कर ही रह जाती है.
रिपोर्ट ने कुल 128 देशों में नारी और पुरुष की स्थिति को जाँचा है और इसके हिसाब से स्वीडन विश्व में पहले नम्बर पर है और भारत 114वें स्थान पर. दक्षिण एशिया के अन्य देशों की स्थिति है नेपाल 125वें स्थान पर, पाकिस्तान 126वें स्थान पर, बँगलादेश 100वें स्थान पर और श्री लंका 15वें स्थान पर.
पहले तो यह हैरानी हुई की भारत इतना पीछे कैसे हुआ, पाकिस्तान और नेपाल के पास? दूसरी हैरानी हुई बँगलादेश का स्थान हमारे देश से आगे है. पर सबसे अधिक हैरानी की बात लगी कि श्री लंका इतना आगे है जबकि अमरीका 31वें स्थान पर है और इटली 84वें स्थान पर.
यह रिपोर्ट चार क्षेत्रों में समाज में नारी का स्थान परखती है - आर्थिक उन्नति और आय, शिक्षा, स्वास्थ्य तथा राजनीतिक सशक्तिकरण. अब देखें भारत के कुछ आँकणे:
जहाँ तक आर्थिक उन्नति और आय का सवाल है कमजोरी के कारण हैं समान कार्य के लिए भारत में नारियों को पगार कम मिलती है, उन्हें काम करने के मौके कम मिलते हैं, ऊँचे पद पर उनकी तरक्की कम होती है (ऊँचे पद पर स्त्रियाँ 3 प्रतिशत, पुरुष 97 प्रतिशत) और तकनीकी क्षेत्रों में वे अपेक्षाकृत स्थान नहीं पातीं. इस दृष्टि से भारत का स्थान विश्व के 128 देशों में 114वाँ हैं.
शिक्षा क्षेत्र में लड़कों के मुकाबले कम लड़कियाँ लिखना पढ़ना जानती हैं (लड़कियाँ 48 प्रतिशत, लड़के 73 प्रतिशत), प्राईमरी स्कूल में उनका अनुपात कम है, ऊच्च शिक्षा में भी उनका अनुपात युवकों के मुकाबले में कम है (ऊच्च शिक्षा में लड़कियाँ 9 प्रतिशत, लड़के 14 प्रतिशत). इस दृष्टि से भारत का स्थान 128 देशों में से 122वें स्थान पर है.
स्वास्थ्य के क्षेत्र में जन्म के समय लड़कियों और लड़कों के अनुपात में अंतर होने की विषमता भारत में बहुत अधिक है, और स्वास्थ जीवन आकाँक्षा में उनका जीवन कुछ छोटा होता है, इसलिए इस दृष्टि से देखने पर भारत का स्थान 128 देशों में से 117वें स्थान पर है.
राजनीतिक संशक्तिकरण के क्षेत्र में भारतीय संसद में स्त्री साँसद पुरुषों के सामने बहुत कम हैं (स्त्रियाँ 8 प्रतिशत, पुरुष 92 प्रतिशत) और स्त्री मिनिस्टर भी कम हैं ( स्त्री मिनिस्टर 3 प्रतिशत, पुरुष 97 प्रतिशत).
कुछ दिन पहले अखबार में पढ़ा था कि एक सर्वे हुआ जिसमें पूछा गया कि आप अपने भविष्य के बारे में क्या सोचते हैं तो निकला की भारतीय सबसे अधिक आशावान हैं कि भविष्य आज से अच्छा होगा और 2020 तक भारत एक विकसित देश होगा. पर अगर देश की स्थिति आँकणों से देखी जाये तो विकासित होने का रास्ता अधिक लम्बा लगता है. शायद इसका सबसे बड़ा कारण शहरों और गाँवों के बीच की विषमता है. शहरों में जीवन तेजी से सुधर रहा है, उन्नति के मौके बढ़ रहे हैं पर गाँवों में अभी भी बैलगाड़ी ही चलती है, पानी और बिजली जैसी आवश्यकताएँ अधूरी रह जातीं हैं. भारतीय दर्शन नारी को देवी मानता है, देवी के रुप में मंदिर में जगह देता है पर जब तक आम जीवन में नारी के साथ विषमताएँ रहेंगी, मंदिर की देवी केवल कहने की बात हो कर ही रह जाती है.
सदस्यता लें
संदेश (Atom)
इस वर्ष के लोकप्रिय आलेख
-
हिन्दू जगत के देवी देवता दुनिया की हर बात की खबर रखते हैं, दुनिया में कुछ भी ऐसा नहीं जो उनकी दृष्टि से छुप सके। मुझे तलाश है उस देवी या द...
-
अगर लोकगीतों की बात करें तो अक्सर लोग सोचते हैं कि हम मनोरंजन तथा संस्कृति की बात कर रहे हैं। लेकिन भारतीय समाज में लोकगीतों का ऐतिहासिक दृष...
-
अँग्रेज़ी की पत्रिका आऊटलुक में बँगलादेशी मूल की लेखिका सुश्री तस्लीमा नसरीन का नया लेख निकला है जिसमें तस्लीमा कुरान में दिये गये स्त्री के...
-
पिछले तीन-चार सौ वर्षों को " लिखाई की दुनिया " कहा जा सकता है, क्योंकि इस समय में मानव इतिहास में पहली बार लिखने-पढ़ने की क्षमता ...
-
पत्नी कल कुछ दिनों के लिए बेटे के पास गई थी और मैं घर पर अकेला था, तभी इस लघु-कथा का प्लॉट दिमाग में आया। ***** सुबह नींद खुली तो बाहर अभी ...
-
सुबह साइकल पर जा रहा था. कुछ देर पहले ही बारिश रुकी थी. आसपास के पत्ते, घास सबकी धुली हुई हरयाली अधिक हरी लग रही थी. अचानक मन में गाना आया ...
-
हमारे घर में एक छोटा सा बाग है, मैं उसे रुमाली बाग कहता हूँ, क्योंकि वो छोटे से रुमाल जैसा है। उसमें एक झूला है, बाहर की सड़क की ओर पीठ किये,...
-
हमारे एक पड़ोसी का परिवार बहुत अनोखा है. यह परिवार है माउरा और उसके पति अंतोनियो का. माउरा के दो बच्चे हैं, जूलिया उसके पहले पति के साथ हुई ...
-
२५ मार्च १९७५ को भी होली का दिन था। उस दिन सुबह पापा (ओमप्रकाश दीपक) को ढाका जाना था, लेकिन रात में उन्हें हार्ट अटैक हुआ था। उन दिनों वह एं...
-
गृत्समद आश्रम के प्रमुख ऋषि विद्यार्थियों को पढ़ा रहे थे, जब उन्हें समाचार मिला कि उनसे मिलने उनके बचपन के मित्र विश्वामित्र आश्रम के ऋषि ग...