मधु किश्वर का आऊटलुक में छपा लेख पढ़ कर दिल दहल गया. मानुषी जैसी पत्रिका निकालने वाली मधु जी का नाम जाना पहचाना है. अपने लेख में उन्होंने दिल्ली में कुछ जगह पर सड़कों पर सामान बेचने वालों के जीवन में सुधार लाने के लिए किये एक नये प्रयोग के बारे में लिखा है जिसका विरोध करने वाले कुछ स्थानीय गुँडों ने स्थानीय पुलिस वालों के साथ मिल कर उन पर तथा मानुषी के अन्य कार्यकर्ताओं पर हमले किये हैं. लेख पढ़ कर विश्वास नहीं होता कि हाईकोर्ट, गर्वनर, और यहाँ तक कि प्रधानमंत्री भी उन लोगों की रक्षा करने में असमर्थ हैं और इस प्रयोग के सामने आयीं रुकावटों को नहीं हटा पा रहे.
देश में कानून का नहीं स्थानीय गुँडों का राज चलता है यह तो तस्लीमा नसरीन, जोधा अकबर, मुम्बई में राज ठाकरे काँड जैसे हादसों से पहले ही स्पष्ट था. थोड़े से लोग चाहें तो मनमानी कर सकते हैं, पर सोचता था कि यह सब इसी लिए हो सकता है क्योंकि राजनीति में गुँडागर्दी का सामना करने का साहस नहीं क्योंकि वह वोट की तिकड़म का गुलाम है पर जान कर, चाह कर भी प्रधानमंत्री और गवर्नर कुछ नहीं कर पाते, इससे अधिक निराशा की बात क्या हो सकती है!
भारत दुनिया का सबसे बड़ा गणतंत्र है, आने वाले समय का सुपरपावर है और मुट्ठी भर लोगों के हाथ में कबुतर की तरह फड़फड़ाता है, अन्याय के सामने सिर झुका लेता है?
रविवार, फ़रवरी 24, 2008
शुक्रवार, फ़रवरी 22, 2008
धर्म एवं आस्था
कुछ दिन पहले पुरी में जगन्नाथ मंदिर जाने का मौका मिला था, पर वहाँ का भीतरी कमरा जहाँ भगवान जगन्नाथ की प्रतिमा है वह उस समय बंद था, क्योंकि "यह प्रभु के विश्राम का समय था". पुजारी जी बोले कि अगर मैं समुचित दान राशि दे सकूँ तो विषेश दर्शन हो सकता है. यानि पैसा दीजिये तो प्रभु का विश्राम भंग किया जा सकता है. भुवनेश्वर के प्राचीन और भव्य लिंगराज मंदिर में, पहले दो पुजारियों में आपस में झड़प देखी कि कौन मुझे जजमान बनाये. भीतर पुजारियों ने सौ रुपये के दान की छोटेपन पर ग्यारह सौ रुपये की माँग को ले कर जो भोंपू बजाया तो सब प्रार्थना और श्रद्धा भूल गया.
मंदिर में फोटो खींचना मना है पर विदेशी, अहिंदू पर्यटकों के लिए अलग से छज्जा बनाया गया है जहाँ से तस्वीर खींच सकते हैं, क्योंकि उन्हें मंदिर में घुसना वर्जित है. उस छज्जे पर खड़ा हो कर धर्म और आस्था की बात को सोच रहा था कि क्यों हर धर्म में रूढ़िवाद का ही राज होता है? भगवान की पवित्रता बड़ी है या विदेशी अहिंदू पर्यटकों की अपवित्रता, तो क्यों नहीं अहिंदू पर्यटक मंदिर में घुस कर पवित्र हो जाते? कोई भगवान अपने ही बनाये मानवों से अपवित्र हो सकता है क्या?
वैसे व्यक्तिगत रूप में मेरे लिए धार्मिकता और मंदिर में जा कर पूजा करने में कोई विषेश सम्बंध नहीं क्योंकि मेरे लिए धार्मिकता अधिक आध्यात्मिक एवं अंतर्मुखी है. धर्म और आस्था पर बात करना मुझे कठिन भी लगता है क्योंकि महसूस करता हूँ कि इस बारे में मेरे विचार स्पष्ट नहीं, और कई बार अंतर्विरोधी भी है. यह भी लगता है कि कितना भी लिख लो, कुछ न कुछ बात अधूरी ही रह जायेगी.
ब्रिटिश पत्रकार और लेखक क्रिस्टोफर हिचिन्स ने धर्म और आस्था के बारे में बहुत कुछ लिखा है. इस विषय में उनकी दृष्टि अधिकतर आलोचक ही है और कई बार मुझे सोचने को मजबूर करती है. कुछ समय पहले की उनकी एक पुस्तक, "भगवान बड़ा नहीं" में उन्होंने आस्था के विषय पर लिखा है,
मुस्लिम धर्म और आस्था पर तो कोई भी बहस नहीं हो सकती क्योंकि कहते हैं कि कुरान शरीफ़ तो सीधा भगवान ने पैगम्बर मुहम्मद को लिखवायी थी. यानि आप इस्लाम की किसी बात की न आलोचना कर सकते हैं न ही कुछ बदलाव की माँग कर सकते हैं चाहे बातें कितनी ही पिछड़ी क्यों न हों, चाहे उसमें धर्म के नाम पर मानव अधिकारों का कितना भी हनन क्यों न हो.
जिन दिनों मैं उड़ीसा में था, उन दिनों भी राज्य के कुछ हिस्सों से धर्म के नाम पर होने वाली हिंसा के समाचार आ रहे थे. इस बारे में बात छिड़ी तो एक सज्जन बोले, "अन्य सब धर्मों वाले आ कर हिंदुओं का धर्म बदल रहे हैं तो हिंसा होगी ही. अब तो हिंदूओं को भी बाहर जा कर अपना धर्म फ़ैलाना चाहिये". मैं उस समय तो चुप रहा पर मन में सोच रहा था कि स्वयं को निक्ष्पक्ष रूप से देखना आसान नहीं, वरना वे कैसे भूल गये कि हिंदू धर्म भी भारत से सारे पूर्वी एशिया में फैला था और दुनिया का सबसे बड़ा हिंदु मंदिर, कम्बोदिया में अंगकोरवाट इसी की निशानी है.
दुनिया में होने वाले कितने झगड़ों और युद्धों के पीछे धर्म और आस्था की बातें जुड़ीं हैं इसकी सूची बहुत लम्बी होगी. झगड़े केवल विभिन्न धर्मों के बीच हों यह बात नहीं. एक ही धर्म के अनुयायी, अलग अलग टुकड़ों में बँटें हैं और आपस में अधिक से अधिक अनुयायी बनाने में एक दूसरे से लड़ रहे हैं. संगठित धर्मों में कहाँ धर्मग्रँथों के दिये गये संदेश समाप्त होते हैं और कहाँ ताकत और पैसे का लालच शुरु होता है, यह कहना कठिन हो जाता है.
मेरे एक इतालवी मित्र जो कैथोलिक थे पर अब बुद्ध धर्म के अनुयायी बन गये हैं, कहते हैं कि धर्म का सम्बंध मन से है, जो धर्म मेरे मन को आकर्शित करता है उसे अपनाने की स्वतंत्रता होनी चाहिये. पर मुझे लगता है कि गरीबी में यह बात इतनी सरल नहीं. लेकिन जब भगवान एक ही है तो फ़िर क्या फर्क पड़ता है कि कौन किस धर्म का अनुयायी है या फ़िर कौन धर्म बदलता है?
वैचारिक दृष्टि से मैं इस बात से सहमत हूँ कि धर्म व्यक्तिगत बात है लेकिन मुझे लगता है कि धर्म के साथ रीति रिवाज़, लोक कथाँए, पहनना ओढ़ना, खाना पीना, त्योहार, भाषा, बहुत सी अन्य बातें भी जुड़ी हैं. मुझे लगता है कि धर्म बदलने के साथ साथ बाकी सब रीति रिवाज, लोककथाँए, पहनना ओढ़ना, भाषा, सबमें भी बदलाव आ जाता है और मानव जाति की विविधता कम हो जाती है. दक्षिण अमरीका में रहने वाली जनजातियों ने यूरोपीय देशों के साम्राज्यवाद के तले अपने धर्म और संस्कृति को खोया और मानव जाति की विविधता को कमजो़र किया कुछ वैसे ही जैसे मेकडोन्ल्ड जैसे रेस्टोरेंट का प्रभाव देशों के खाने के तरीके पर पड़ रहा है या फ़िर हालीवुड की फ़िल्मों के प्रभाव यूरोपीय भाषा संस्कृति पर पड़ रहा है या मुम्बई की फ़िल्मों का प्रभाव भारत की विभिन्न बोलियों, उनके लोकसंगीत पर पड़ रहा है. मैं मानता हूँ कि मानव जाति की विविधता में उसकी सुंदरता है.
मंदिर में फोटो खींचना मना है पर विदेशी, अहिंदू पर्यटकों के लिए अलग से छज्जा बनाया गया है जहाँ से तस्वीर खींच सकते हैं, क्योंकि उन्हें मंदिर में घुसना वर्जित है. उस छज्जे पर खड़ा हो कर धर्म और आस्था की बात को सोच रहा था कि क्यों हर धर्म में रूढ़िवाद का ही राज होता है? भगवान की पवित्रता बड़ी है या विदेशी अहिंदू पर्यटकों की अपवित्रता, तो क्यों नहीं अहिंदू पर्यटक मंदिर में घुस कर पवित्र हो जाते? कोई भगवान अपने ही बनाये मानवों से अपवित्र हो सकता है क्या?
वैसे व्यक्तिगत रूप में मेरे लिए धार्मिकता और मंदिर में जा कर पूजा करने में कोई विषेश सम्बंध नहीं क्योंकि मेरे लिए धार्मिकता अधिक आध्यात्मिक एवं अंतर्मुखी है. धर्म और आस्था पर बात करना मुझे कठिन भी लगता है क्योंकि महसूस करता हूँ कि इस बारे में मेरे विचार स्पष्ट नहीं, और कई बार अंतर्विरोधी भी है. यह भी लगता है कि कितना भी लिख लो, कुछ न कुछ बात अधूरी ही रह जायेगी.
ब्रिटिश पत्रकार और लेखक क्रिस्टोफर हिचिन्स ने धर्म और आस्था के बारे में बहुत कुछ लिखा है. इस विषय में उनकी दृष्टि अधिकतर आलोचक ही है और कई बार मुझे सोचने को मजबूर करती है. कुछ समय पहले की उनकी एक पुस्तक, "भगवान बड़ा नहीं" में उन्होंने आस्था के विषय पर लिखा है,
"धार्मिक आस्था को मिटाया नहीं जा सकता क्योंकि मानव जाति अभी अपने विकास मार्ग पर है, पूरी विकसित नहीं हुई. यह आस्था कभी नहीं मिटेगी, या यह कहें कि तब तक नहीं मिटेगी जब तक हम मृत्यु, अँधेरे, अज्ञान और अन्य भयों पर विजय नहीं पा लेंगे. (...) पर मुझमें और मेरे धार्मिक मित्रों में एक अंतर है. जो मित्र गम्भीरता, सच्चाई और ईमानदारी में विश्वास रखते हैं वह इस अंतर को मान लेंगे. मैं उनके बार मित्ज़वाह समारोहों में जाने को तैयार हूँ, मैं उनके विशालकाय गोथिक गिरजाघरों की प्रशंसा करने को तैयार हूँ, मैं यह मानने को तैयार हूँ कि कुरान को भगवान ने लिखवाया और कहा कि यह सिर्फ अरबी भाषा में हो और इसका मसीहा एक अनपढ़ व्यक्ति हो. मैं यह सब मानने को तैयार हूँ पर बदले में मैं कहता हूँ कि वे लोग मुझे छोड़ दें, मैं जैसा रहना चाहूँ जैसा करना चाहूँ, पर धार्मिक लोग यह नहीं कर सकते."हर धर्म के धार्मिक इन्सानों को यह सोचना कि उनके पास सत्य का असली उत्तर है और केवल उनका सत्य ही असली सत्य है और उन्हें यह सत्य दुनिया में सब लोगों को समझाना है, कितनी लड़ाईयों का कारण बन चुका है. कुछ सप्ताह पहले फ्राँस के समाचार पत्र "ले मोंड २" की पत्रकार सिल्वी लासेर्र ने ताजिकिस्तान में पेंटेकोस्टल ईसाई धर्म के मिशनरियों के द्वारा धर्म परिवर्तन कराने के बारे में विस्तृत रिपोर्ट छापी है. उनके अनुसार, पिछले पंद्रह सालों में ताजिकिस्तान में इस धर्म के अनुयायिओं की संख्या करीब पच्चीस हजार से बढ़ कर दो सौ पैंतीस हजार हो गयी है. धर्म परिवर्तन को व्यक्तिगत मामला मान सकते हैं पर दिक्कत यह है कि ताजिकिस्तान मुसलमान देश हैं और यहाँ धर्म परिवर्तन को नहीं माना जाता बल्कि धर्म बदलने वाले को मौत की सजा भी हो सकती है. यानि तनाव बढ़ने तथा बड़े स्तर पर झगड़े हो सकने की संभावना बढ़ गयीं हैं.
मुस्लिम धर्म और आस्था पर तो कोई भी बहस नहीं हो सकती क्योंकि कहते हैं कि कुरान शरीफ़ तो सीधा भगवान ने पैगम्बर मुहम्मद को लिखवायी थी. यानि आप इस्लाम की किसी बात की न आलोचना कर सकते हैं न ही कुछ बदलाव की माँग कर सकते हैं चाहे बातें कितनी ही पिछड़ी क्यों न हों, चाहे उसमें धर्म के नाम पर मानव अधिकारों का कितना भी हनन क्यों न हो.
जिन दिनों मैं उड़ीसा में था, उन दिनों भी राज्य के कुछ हिस्सों से धर्म के नाम पर होने वाली हिंसा के समाचार आ रहे थे. इस बारे में बात छिड़ी तो एक सज्जन बोले, "अन्य सब धर्मों वाले आ कर हिंदुओं का धर्म बदल रहे हैं तो हिंसा होगी ही. अब तो हिंदूओं को भी बाहर जा कर अपना धर्म फ़ैलाना चाहिये". मैं उस समय तो चुप रहा पर मन में सोच रहा था कि स्वयं को निक्ष्पक्ष रूप से देखना आसान नहीं, वरना वे कैसे भूल गये कि हिंदू धर्म भी भारत से सारे पूर्वी एशिया में फैला था और दुनिया का सबसे बड़ा हिंदु मंदिर, कम्बोदिया में अंगकोरवाट इसी की निशानी है.
दुनिया में होने वाले कितने झगड़ों और युद्धों के पीछे धर्म और आस्था की बातें जुड़ीं हैं इसकी सूची बहुत लम्बी होगी. झगड़े केवल विभिन्न धर्मों के बीच हों यह बात नहीं. एक ही धर्म के अनुयायी, अलग अलग टुकड़ों में बँटें हैं और आपस में अधिक से अधिक अनुयायी बनाने में एक दूसरे से लड़ रहे हैं. संगठित धर्मों में कहाँ धर्मग्रँथों के दिये गये संदेश समाप्त होते हैं और कहाँ ताकत और पैसे का लालच शुरु होता है, यह कहना कठिन हो जाता है.
मेरे एक इतालवी मित्र जो कैथोलिक थे पर अब बुद्ध धर्म के अनुयायी बन गये हैं, कहते हैं कि धर्म का सम्बंध मन से है, जो धर्म मेरे मन को आकर्शित करता है उसे अपनाने की स्वतंत्रता होनी चाहिये. पर मुझे लगता है कि गरीबी में यह बात इतनी सरल नहीं. लेकिन जब भगवान एक ही है तो फ़िर क्या फर्क पड़ता है कि कौन किस धर्म का अनुयायी है या फ़िर कौन धर्म बदलता है?
वैचारिक दृष्टि से मैं इस बात से सहमत हूँ कि धर्म व्यक्तिगत बात है लेकिन मुझे लगता है कि धर्म के साथ रीति रिवाज़, लोक कथाँए, पहनना ओढ़ना, खाना पीना, त्योहार, भाषा, बहुत सी अन्य बातें भी जुड़ी हैं. मुझे लगता है कि धर्म बदलने के साथ साथ बाकी सब रीति रिवाज, लोककथाँए, पहनना ओढ़ना, भाषा, सबमें भी बदलाव आ जाता है और मानव जाति की विविधता कम हो जाती है. दक्षिण अमरीका में रहने वाली जनजातियों ने यूरोपीय देशों के साम्राज्यवाद के तले अपने धर्म और संस्कृति को खोया और मानव जाति की विविधता को कमजो़र किया कुछ वैसे ही जैसे मेकडोन्ल्ड जैसे रेस्टोरेंट का प्रभाव देशों के खाने के तरीके पर पड़ रहा है या फ़िर हालीवुड की फ़िल्मों के प्रभाव यूरोपीय भाषा संस्कृति पर पड़ रहा है या मुम्बई की फ़िल्मों का प्रभाव भारत की विभिन्न बोलियों, उनके लोकसंगीत पर पड़ रहा है. मैं मानता हूँ कि मानव जाति की विविधता में उसकी सुंदरता है.
गुरुवार, फ़रवरी 21, 2008
खोयी यादें (भारत यात्रा डायरी, अंतिम)
इस बार दिल्ली में मेट्रो से द्वारका मोड़ तक की यात्रा की.
कितनी यादें जुड़ीं थी उस रास्ते से. पहली बार कब गया था उस तरफ़, यह याद नहीं. वह यात्रा मौसियों के साथ होती थी. "ज़मीन पर जाना है", सोच कर ही दिनों पहले तैयारी शुरु हो जाती थी. पाकिस्तान में छूटी ज़मीन जयदाद के बदले में नाना को मुवाअजे में वे खेत मिले थे जिन्हें हम "ज़मीन" के नाम से जानते थे. नाना ने उन्हें दीवनपुर का नाम दिया था. फिल्मिस्तान के पास शीदीपुरा से तिलक नगर आने में ही दो बसे बदलनीं पड़ती थीं. फ़िर तिलकनगर से 14 नम्बर की नजफ़गढ़ जाने वाली बस से ककरौला मोड़ उतरते थे.
नानी की रसोई में गोबर के उपले जलते थे. उपले बनाने के लिए सिर पर तसली ले कर गोबर उठाने जाना मुझे बहुत अच्छा लगता था. गरम, मुलायम गोबर जीता जागता जंतु सा लगता था. नानी की बनायी हर चिज़ में उसी की गंध होती थी, उबले दूध में भी. रसोई के पीछे छोटा कूँआ था जहाँ बरतन धोते और पीने का पानी लेते. कुछ दूर, पेड़ों के झुँड के बीच में एक और बड़ा कूँआ था जहाँ छोटा सा टैंक भी था. मोटर चलाने से पानी की मोटी धारा जब टैंक में आती तो गरम दोपहर में उसके नीचे नहाने में बहुत मज़ा आता. कूँए के पास मोटे और मीठे बेरों के पेड़ थे. पड़ोस वाले सुरजीत के खेत में टैंक और भी बड़ा और गहरा था जहाँ पर तैर भी सकते थे. रात को चारपाईयों पर लेट कर तारे देखते और अँताक्षरी खेलते.
करीब का गाँव था नवादा जहाँ तक जाने में 15 या 20 मिनट का रास्ता था. नवादा में अम्मा बापू का घर था. नवादे के प्राथमिक विद्यालय में माँ ने पढ़ाना शुरु किया था और तब वह एक निस्संतान दम्पति के साथ रहती थी जिन्हें वह अम्मा बापू बुलाती थी. वही अम्मा बापू हमारे दूसरे नाना नानी थे. बापू डीटीएस की बस चलाता था (जो बाद में डीटीसी बन गयी). अम्मा के घर में मोर थे और वहाँ जाने का सबसे बड़ा लालच, मक्खन वाली रोटी खाना और मोर के पँख लेना होता था. वहाँ गाँव में डँडे मारने वाले और कीचड़ से पोतने वाली हरयाणवी होली का सारा साल इंतज़ार रहता.
जब द्वारका मोड़ पर उतरा तो कुछ समझ में नहीं आया कि कहाँ हूँ. नाना की उस जमीन का एक टुकड़ा बचा है जहाँ मँझले मामा ने स्कूल बनाया है. मकानों के जँगल में यह सोचना कि नानी का घर कहाँ था असम्भव था. मामा मुझे स्कूल की छत पर ले गये. "वो सीढ़ियाँ हैं जहाँ मेट्रो स्टेशन की, उसकी पार्किंग की जगह वहाँ बीजी की रसोई थी, वहीं सीढ़ियों के साथ छोटा कूँआ था. जहाँ वह खेत थे, वहाँ पार्किंग बनी है. वह गुलाबी तीन मंजिला घर दिख रहा है न, वहाँ घर के कमरे थे. वह घरों के बीच में पेड़ दिख रहा है? बस पहले के पेड़ों में से एक वही पेड़ बचा है. उसी के साथ बड़ा कूँआ था जहाँ बेरों के पेड़ थे और पानी का टैंक था", मामा ने समझाया.
दूर नाले के साथ खड़े पेड़ लगता है कि नहीं बदले. उस तरफ़ नाना मुर्गाबियों और बतखों का शिकार करने जाते थे. पर नाले के साथ साथ नाँगलोई तक घर बन गये हैं. उस तरफ़ खेतों में एक पुराना खँडहर होता था. हम कहते कि वहाँ रात को चुड़ैलें जमा होती थीं पर दिन में डर नहीं लगता. गर्मियों की दोपहर को जब लू चलती तो उसी खँडहर में ही बैठ कर खेत से ले कर ठण्डे तरबूज या खरबूजे खाते थे. घरों के बीच वह खँडहर कहाँ खो गया था यह तो मामा को भी याद नहीं था.
मामा के स्कूल के मंदिर में नाना नानी की तस्वीर लगी है. बाकी की सब यादें उस गाँव के साथ ही खो गयीं हैं जिनकी कोई तस्वीर नहीं है मेरे पास.
कितनी यादें जुड़ीं थी उस रास्ते से. पहली बार कब गया था उस तरफ़, यह याद नहीं. वह यात्रा मौसियों के साथ होती थी. "ज़मीन पर जाना है", सोच कर ही दिनों पहले तैयारी शुरु हो जाती थी. पाकिस्तान में छूटी ज़मीन जयदाद के बदले में नाना को मुवाअजे में वे खेत मिले थे जिन्हें हम "ज़मीन" के नाम से जानते थे. नाना ने उन्हें दीवनपुर का नाम दिया था. फिल्मिस्तान के पास शीदीपुरा से तिलक नगर आने में ही दो बसे बदलनीं पड़ती थीं. फ़िर तिलकनगर से 14 नम्बर की नजफ़गढ़ जाने वाली बस से ककरौला मोड़ उतरते थे.
नानी की रसोई में गोबर के उपले जलते थे. उपले बनाने के लिए सिर पर तसली ले कर गोबर उठाने जाना मुझे बहुत अच्छा लगता था. गरम, मुलायम गोबर जीता जागता जंतु सा लगता था. नानी की बनायी हर चिज़ में उसी की गंध होती थी, उबले दूध में भी. रसोई के पीछे छोटा कूँआ था जहाँ बरतन धोते और पीने का पानी लेते. कुछ दूर, पेड़ों के झुँड के बीच में एक और बड़ा कूँआ था जहाँ छोटा सा टैंक भी था. मोटर चलाने से पानी की मोटी धारा जब टैंक में आती तो गरम दोपहर में उसके नीचे नहाने में बहुत मज़ा आता. कूँए के पास मोटे और मीठे बेरों के पेड़ थे. पड़ोस वाले सुरजीत के खेत में टैंक और भी बड़ा और गहरा था जहाँ पर तैर भी सकते थे. रात को चारपाईयों पर लेट कर तारे देखते और अँताक्षरी खेलते.
करीब का गाँव था नवादा जहाँ तक जाने में 15 या 20 मिनट का रास्ता था. नवादा में अम्मा बापू का घर था. नवादे के प्राथमिक विद्यालय में माँ ने पढ़ाना शुरु किया था और तब वह एक निस्संतान दम्पति के साथ रहती थी जिन्हें वह अम्मा बापू बुलाती थी. वही अम्मा बापू हमारे दूसरे नाना नानी थे. बापू डीटीएस की बस चलाता था (जो बाद में डीटीसी बन गयी). अम्मा के घर में मोर थे और वहाँ जाने का सबसे बड़ा लालच, मक्खन वाली रोटी खाना और मोर के पँख लेना होता था. वहाँ गाँव में डँडे मारने वाले और कीचड़ से पोतने वाली हरयाणवी होली का सारा साल इंतज़ार रहता.
जब द्वारका मोड़ पर उतरा तो कुछ समझ में नहीं आया कि कहाँ हूँ. नाना की उस जमीन का एक टुकड़ा बचा है जहाँ मँझले मामा ने स्कूल बनाया है. मकानों के जँगल में यह सोचना कि नानी का घर कहाँ था असम्भव था. मामा मुझे स्कूल की छत पर ले गये. "वो सीढ़ियाँ हैं जहाँ मेट्रो स्टेशन की, उसकी पार्किंग की जगह वहाँ बीजी की रसोई थी, वहीं सीढ़ियों के साथ छोटा कूँआ था. जहाँ वह खेत थे, वहाँ पार्किंग बनी है. वह गुलाबी तीन मंजिला घर दिख रहा है न, वहाँ घर के कमरे थे. वह घरों के बीच में पेड़ दिख रहा है? बस पहले के पेड़ों में से एक वही पेड़ बचा है. उसी के साथ बड़ा कूँआ था जहाँ बेरों के पेड़ थे और पानी का टैंक था", मामा ने समझाया.
दूर नाले के साथ खड़े पेड़ लगता है कि नहीं बदले. उस तरफ़ नाना मुर्गाबियों और बतखों का शिकार करने जाते थे. पर नाले के साथ साथ नाँगलोई तक घर बन गये हैं. उस तरफ़ खेतों में एक पुराना खँडहर होता था. हम कहते कि वहाँ रात को चुड़ैलें जमा होती थीं पर दिन में डर नहीं लगता. गर्मियों की दोपहर को जब लू चलती तो उसी खँडहर में ही बैठ कर खेत से ले कर ठण्डे तरबूज या खरबूजे खाते थे. घरों के बीच वह खँडहर कहाँ खो गया था यह तो मामा को भी याद नहीं था.
मामा के स्कूल के मंदिर में नाना नानी की तस्वीर लगी है. बाकी की सब यादें उस गाँव के साथ ही खो गयीं हैं जिनकी कोई तस्वीर नहीं है मेरे पास.
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बुधवार, फ़रवरी 20, 2008
भगवान की खोज (भारत यात्रा डायरी 3)
खुजराहो और कोणार्क की काम शास्त्र के सिद्धातों को सहज रुप में, बिना किसी पर्दों और शर्म के, प्रस्तुत करने वाली मूर्तियों के बारे में बहुत सुना था पर पहले देखने का मौका कभी नहीं मिला. इधर उधर कुछ तस्वीरें देखीं थीं इसलिए उन्हें देखने की उत्सुक्ता भी थी मन में.
कोणार्क की मूर्तियों में कामशास्त्र के सभी आसन दिखने को मिलते हैं. मूर्तियों के आकार से अपेक्षाकृत बहुत बड़े बने हुए पुरुष अंग स्पष्ट ही अपना ध्येय सामने रख देते हैं, जीवन को खुल कर आनंद से जीने का ध्येय. कामक्रीणा में रत मूर्तियाँ अलग से किसी कोने में नहीं बनी, बल्कि भगवान, देवी देवताओं की अन्य मूर्तियों के बीच ही मिली जुली हैं. उनमें आत्माओं या मन के मिलन की बात नहीं, उनका ध्येय तो शारीरिक आनंद है जो कि भारतीय दर्शन के मूलभूत विचार कि जग माया है और इंद्रियाँ मानव को मायाजाल में फँसातीं हैं से विपरीत लगता है. शायद इन मूर्तियों की प्रेरणा धर्म के तांत्रिक मार्ग से आती है क्योंकि सुना है कि तांत्रिक मार्ग में ही यौन सम्पर्कों को भी ईश्वर तक पहुँचने का माध्यम माना जाता है.
मंदिर के आसपास घूमते गावों के, शहरों के स्त्री पुरुषों के दल थे, विद्यालय के बच्चों के दल भी थे. उनमें से अधिकतर को रुक कर किसी यौनक्रीणारत मूर्तियों की ओर ठीक से देखते हुए नहीं पाया, सब लोग नीचा सिर करे ही निकले जा रहे थे. मुझे लगा कि कोई कोई पुरुष ही रुक कर कुछ थोड़ा सा देख लेता था. उस सुबह मुझे अपनी तरह मूर्तियों को ध्यान से देख कर, यौन प्रक्रियाओं का अध्ययन करने वाला और कोई नहीं दिखा.
काम और प्रेम को जीवन का अभिन्न अंग मानना अगर प्राचीन भारत में आसान था, आज वह बिल्कुल आसान नहीं. अन्य बातों में प्राचीन भारत के गौरव को याद करने वाले और उस गौरव के लिए मरने मारने को तैयार रहने वाले, आज काम और प्रेम की किसी भी जन अभिव्यक्ति को भारतीय संस्कृति का अपमान समझते हैं और अँग्रेजी विक्टोरियन मनोवृति जो शरीर को ढ़का देखना माँगती है और खुले आम दो व्यक्तियों के बीच में प्रेम के सभी अभिव्यक्तियों को गलत मानती है, उसी को ही असली भारतीय वृति मानते लगते हैं.
इस भारत यात्रा में कई प्राचीन स्मारक देखने का मौका मिला. हर जगह प्रेमी युगल एकांत की तलाश में तड़पते दिखे, और बहुत जगहों पर पुलिस वालों को उन्हें तंग करते देखा. वेलनटाईन डे की तोड़फोड़ के भी समाचार देखे. मेरा सुझाव है कि आगे से वेलनटाईन दिवस छोड़ कर खुजराहो दिवस या कोणार्क दिवस मनाया जाये, उस पर को तो शायद किसी भी भारतीय संस्कृति को मानने वाले को आपत्ती नहीं हो सकती. पर फ़िर मुझे अपने इस सुझाव से ही डर लगता है. अफ्गानिस्तान में तलिबानों ने बुमयान की प्राचीन बुद्ध प्रतिमाओं को ध्वंस कर दिया, अगर कोणार्क दिवस से रुष्ट हो कर किसी संस्कृति के रखवाले ने कोणार्क को ध्वंस करने की ठान ली तो?
कोणार्क के मंदिर को केवल कामक्रीणारत मूर्तियों के दृष्टिकोण से देखना गलती होगी. उसका वास्तुशिल्प अदभुत है. सूर्य के बारह चक्र और सूर्य देवता की मुर्तियाँ मुझे विषेश रूप से अच्छी लगीं.
प्रस्तुत हैं मंदिर की कुछ तस्वीरें.
कोणार्क की मूर्तियों में कामशास्त्र के सभी आसन दिखने को मिलते हैं. मूर्तियों के आकार से अपेक्षाकृत बहुत बड़े बने हुए पुरुष अंग स्पष्ट ही अपना ध्येय सामने रख देते हैं, जीवन को खुल कर आनंद से जीने का ध्येय. कामक्रीणा में रत मूर्तियाँ अलग से किसी कोने में नहीं बनी, बल्कि भगवान, देवी देवताओं की अन्य मूर्तियों के बीच ही मिली जुली हैं. उनमें आत्माओं या मन के मिलन की बात नहीं, उनका ध्येय तो शारीरिक आनंद है जो कि भारतीय दर्शन के मूलभूत विचार कि जग माया है और इंद्रियाँ मानव को मायाजाल में फँसातीं हैं से विपरीत लगता है. शायद इन मूर्तियों की प्रेरणा धर्म के तांत्रिक मार्ग से आती है क्योंकि सुना है कि तांत्रिक मार्ग में ही यौन सम्पर्कों को भी ईश्वर तक पहुँचने का माध्यम माना जाता है.
मंदिर के आसपास घूमते गावों के, शहरों के स्त्री पुरुषों के दल थे, विद्यालय के बच्चों के दल भी थे. उनमें से अधिकतर को रुक कर किसी यौनक्रीणारत मूर्तियों की ओर ठीक से देखते हुए नहीं पाया, सब लोग नीचा सिर करे ही निकले जा रहे थे. मुझे लगा कि कोई कोई पुरुष ही रुक कर कुछ थोड़ा सा देख लेता था. उस सुबह मुझे अपनी तरह मूर्तियों को ध्यान से देख कर, यौन प्रक्रियाओं का अध्ययन करने वाला और कोई नहीं दिखा.
काम और प्रेम को जीवन का अभिन्न अंग मानना अगर प्राचीन भारत में आसान था, आज वह बिल्कुल आसान नहीं. अन्य बातों में प्राचीन भारत के गौरव को याद करने वाले और उस गौरव के लिए मरने मारने को तैयार रहने वाले, आज काम और प्रेम की किसी भी जन अभिव्यक्ति को भारतीय संस्कृति का अपमान समझते हैं और अँग्रेजी विक्टोरियन मनोवृति जो शरीर को ढ़का देखना माँगती है और खुले आम दो व्यक्तियों के बीच में प्रेम के सभी अभिव्यक्तियों को गलत मानती है, उसी को ही असली भारतीय वृति मानते लगते हैं.
इस भारत यात्रा में कई प्राचीन स्मारक देखने का मौका मिला. हर जगह प्रेमी युगल एकांत की तलाश में तड़पते दिखे, और बहुत जगहों पर पुलिस वालों को उन्हें तंग करते देखा. वेलनटाईन डे की तोड़फोड़ के भी समाचार देखे. मेरा सुझाव है कि आगे से वेलनटाईन दिवस छोड़ कर खुजराहो दिवस या कोणार्क दिवस मनाया जाये, उस पर को तो शायद किसी भी भारतीय संस्कृति को मानने वाले को आपत्ती नहीं हो सकती. पर फ़िर मुझे अपने इस सुझाव से ही डर लगता है. अफ्गानिस्तान में तलिबानों ने बुमयान की प्राचीन बुद्ध प्रतिमाओं को ध्वंस कर दिया, अगर कोणार्क दिवस से रुष्ट हो कर किसी संस्कृति के रखवाले ने कोणार्क को ध्वंस करने की ठान ली तो?
कोणार्क के मंदिर को केवल कामक्रीणारत मूर्तियों के दृष्टिकोण से देखना गलती होगी. उसका वास्तुशिल्प अदभुत है. सूर्य के बारह चक्र और सूर्य देवता की मुर्तियाँ मुझे विषेश रूप से अच्छी लगीं.
प्रस्तुत हैं मंदिर की कुछ तस्वीरें.
Tags: Konark, temple, erotic art
रविवार, फ़रवरी 17, 2008
माघ पूजा (भारत यात्रा डायरी 2)
भुवनेश्वर से सुबह पाँच बजने से पहले ही निकल पड़े थे और छहः बजने से पहले कोणार्क पहुँच गये थे. आकाश बादलों से ढ़का था पर अँधेरे की कालिमा धीरे धीरे मध्यम पड़ रही थी. साथ में डा. मणि और डा. पति थे. बोले कि चलो पहले चाय पीते हैं. चाय के ढ़ाबे समुद्र तट की ओर थे, वहाँ पहुँचे तो समुद्र तट पर बैठी भीड़ को देखा. तट के साथ साथ राख जैसे समुद्र को ताकते बैठी थी उनकी कतार जैसे पानी पर तैरती धुँध में कुछ खोज रही हो.
कौन हैं वे लोग? मैंने डा. पति से पूछा तो उन्होंने बताया कि माघ के महीने में उगते सूर्य की पूजा करने वहाँ के आसपास के लोग हर सुबह वहाँ आते हैं और सूरज के निकलने की प्रतीक्षा कर रहे थे. सर्द सुबह में ठिठुरते हुए लोग रेत पर उकड़ु बैठे थे.
बायीं तरफ़ एक छोटा सा मंदिर दिख रहा था, पूजा करने वालों की एक लम्बी कतार उस ओर जा रही थी. समुद्र तट पर एक ऊँट वाला और एक घोड़े वाला पर्टकों के आने के इंतज़ार में थे.
पास ही गाँव की वृद्ध और प्रौढ़ औरतों का एक झुँड छोटा सा घेरा बना कर रेत पर बैठा था. घेरे के बीच में रेत में ही छोटा सा खड्डा बना कर उसके भीतर एक दिया जलाया था. धीमे स्वर में वह अपनी प्रार्थनाएँ बुदबुदा रहीं थीं. कभी हाथ में थाली उठातीं, कभी दिये जलाती, कभी कंदमूल का अर्पण करतीं. मंदिर से आते हुए एक पंडित जी उनके पास प्रसाद देने के लिए एक क्षण रुके.
छोटे बच्चे सागर के किनारे भाग रहे थे, कोई कोई साहसवान ही ठँड की परवाह न कर समुद्र में नहा रहा था. ऊँचीं उठती लहरों पर नावें रास्ता खोजने के लिए संघर्ष में जुटीं थीं.
तट पर बैठे लोगों की आँखों में इंतज़ार था, एकटक देख रहे थे बादलों के पीछे से सूर्य देवता को देखने की आशा में.
लगा कि सदियों से यही दृष्य इसी तरह जाने कितनी बार दोहराया गया होगा, वही शाश्वत सागर तट, वही नमन की सीधी सादी श्रद्धा लिये सामान्य गरीब नर नारी, वही सूर्य.
अचानक पास बैठा झुँड खड़ा हो गया, चेहरों पर मुस्कान बिखर गयी थी, बूढ़ी उँगलियाँ बादलों के पीछे से झाँकते सूरज की छोटी सी फ़ीकी सी फाँक की ओर इशारा कर रहीं थीं. उनके हाथ पूजा के लिए जुड़ गये. थोड़ी सी ईर्श्या हुई उनके इस सादे विश्वास को देख कर.
उसी सुबह की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं.
Tags: Sun God, Prayers, Konark
कौन हैं वे लोग? मैंने डा. पति से पूछा तो उन्होंने बताया कि माघ के महीने में उगते सूर्य की पूजा करने वहाँ के आसपास के लोग हर सुबह वहाँ आते हैं और सूरज के निकलने की प्रतीक्षा कर रहे थे. सर्द सुबह में ठिठुरते हुए लोग रेत पर उकड़ु बैठे थे.
बायीं तरफ़ एक छोटा सा मंदिर दिख रहा था, पूजा करने वालों की एक लम्बी कतार उस ओर जा रही थी. समुद्र तट पर एक ऊँट वाला और एक घोड़े वाला पर्टकों के आने के इंतज़ार में थे.
पास ही गाँव की वृद्ध और प्रौढ़ औरतों का एक झुँड छोटा सा घेरा बना कर रेत पर बैठा था. घेरे के बीच में रेत में ही छोटा सा खड्डा बना कर उसके भीतर एक दिया जलाया था. धीमे स्वर में वह अपनी प्रार्थनाएँ बुदबुदा रहीं थीं. कभी हाथ में थाली उठातीं, कभी दिये जलाती, कभी कंदमूल का अर्पण करतीं. मंदिर से आते हुए एक पंडित जी उनके पास प्रसाद देने के लिए एक क्षण रुके.
छोटे बच्चे सागर के किनारे भाग रहे थे, कोई कोई साहसवान ही ठँड की परवाह न कर समुद्र में नहा रहा था. ऊँचीं उठती लहरों पर नावें रास्ता खोजने के लिए संघर्ष में जुटीं थीं.
तट पर बैठे लोगों की आँखों में इंतज़ार था, एकटक देख रहे थे बादलों के पीछे से सूर्य देवता को देखने की आशा में.
लगा कि सदियों से यही दृष्य इसी तरह जाने कितनी बार दोहराया गया होगा, वही शाश्वत सागर तट, वही नमन की सीधी सादी श्रद्धा लिये सामान्य गरीब नर नारी, वही सूर्य.
अचानक पास बैठा झुँड खड़ा हो गया, चेहरों पर मुस्कान बिखर गयी थी, बूढ़ी उँगलियाँ बादलों के पीछे से झाँकते सूरज की छोटी सी फ़ीकी सी फाँक की ओर इशारा कर रहीं थीं. उनके हाथ पूजा के लिए जुड़ गये. थोड़ी सी ईर्श्या हुई उनके इस सादे विश्वास को देख कर.
उसी सुबह की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं.
Tags: Sun God, Prayers, Konark
शनिवार, फ़रवरी 16, 2008
चारमीनार की छाया में
कल रात को तीन सप्ताह की भारत यात्रा के बाद वापस बोलोनिया लौट आया. प्रस्तुत हैं इस यात्रा की डायरी के कुछ पन्ने.
***
हैदराबाद की हाईटेक सिटी में ठहरे थे. हाईटेक सिटी यानि वही जाना पहचाना भारतीय मेले जैसा जीवन जिसमें धूल मिट्टी, पान तम्बाकू, गाय भौंपू, साग सब्जी फिल्मी गाने, गप्पबाजी गालियाँ, सब वही हैं जो पुराने शहर में हैं पर इस तेज बहती जीवन धारा के बीच बीच में साईबर टावर जैसे द्वीप बने हैं जहाँ गेट पर पहरेदार खड़े हैं, साफ़ सुथरी चौड़ीं सड़कें, हरियाली, वातानाकूलित भवन, वाईफाई, स्टील और शीशे. लाल्टू कहते हैं कि एक अन्य अंतर है नये हाईटेक शहर में और पुराने शहर में जो बहुत महत्वपूर्ण है, यानि हर वस्तु पाँच गुना महँगी मिलती है.
कुष्ठ रोग पर विश्व कोनफ्रैंस नये अंतर्राष्ट्रीय केंद्र में हो रही है जहाँ पहुँचना आसान नहीं. कोनफ्रैंस में सारा दिन इधर उधर भागते, सुनते, बहस करते निकल जाता है. बीच बीच में कोई बोलने वाला बोर करता है तो थोड़ी देर सोने का मौका भी मिलता है. सारा दिन नींद आती है पर रात में बिस्तर में लेटते ही गुम हो जाती है, सुबह सुबह जब आँख लगती है तो उठने का समय हो जाता है.
रात भर समाचार चैनलों के ब्रेकिंग न्यूज़ सुन देख कर लगता है कि मानों एलिस एन द वंडरलैंड की ऊल्टी दुनियाँ में पहुँच गया हूँ. एक रात को सैफ और करीना के गुप्त विवाह पर तो दूसरी रात को राज ठाकरे के मचाये उपद्रव पर, समाचार पढ़ने वाले बार बार एक ही बात को चिल्ला चिल्ला कर इतनी बार कहते हैं मानो कोई वेद मंत्र हो जिसका बार बार भजन करने से ही ज्ञान मिलेगा. कभी लगता है कि वे समाचार नहीं पढ़ रहे लाईव कमेंट्री सुना रहे हों जिसमें घटनास्थल पर खड़े संवाददाता बार बार कहते हैं, "पिछले पाँच मिनट में कुछ नया नहीं हुआ पर जैसा कि मैंने कुछ देर पहले कहा कि हो सकता है कि इससे बात और बहुत बिगड़ जाये या शायद फ़िर न बिगड़े, पर ..."
साथ में राजेंद्र यादव का एक पुराना उपन्यास "शह और मात" ले कर गया था पर उसे पढ़ने में मन नहीं लगता. बिस्तर में करवटें बदल बदल कर कुढ़ते कुढ़ते फ़िर उसी टेलीविज़न को खोलना पड़ता है. जब लाल्टू ने अपनी कहानी और कविता की किताबें दीं तो उन्हें एक ही रात में पढ़ लिया.
हैदराबाद में बचपन में आया था, तब पाँच या छह साल का था. उस समय की थोड़ी थोड़ी यादें हैं कि चारमीनार के करीब ही कहीं रहते थे. खेलते कूदते समय घूमने के लिए एक चूड़ियों के फैक्टरी के पास टूटी चूड़ियों के टुकड़े जमा किया करते थे. एक दोपहर को जब कोनफ्रैंस में मन नहीं लगा तो उस जगह को खोजने के विचार से निकल पड़ा. चारमीनार में एक मंदिर भी है, एक दरगाह और एक छोटी सी मस्जिद भी. दरगाह में 41 साल से रहने वाले बूढ़े अब्दुल सईद से कुछ बात की, उनसे पहले दरगाह की देखभाल उनके मामा किया करते थे. उनके कल्फ लगी हुई उर्दू में बात करने की तरीके से लगता था मानो मुगलेआज़म के डायलाग सुन रहा हूँ.
फ़िर चारमिनार के करीब ही बने युनानी अस्पताल और मक्का मसजिद भी गया. अस्पताल के बाहर भीख माँगने वाली सलमा से बात की जो कोल्हापुर की रहनेवालीं हैं और जिन्हें किस्मत ने हैदराबाद ला कर भीख माँगने को मजबूर कर दिया. उनकी आँखों में अपनी मजबूरी की ग्लानी देख कर मेरा भी मन भर आया.
फ़िर कुछ देर तक चारमीनार के आसपास गलियों में घूमा. बचपन की छुट्टियों में कहाँ ठहरे थे यह समझ में नहीं आया. सब गलियाँ अनजान बेपहचानी सी लग रहीं थीं. कई जगह घरों के हिस्से टूटे हुए थे, सड़क की ओर वाले हिस्से. शायद नगरपालिका ने बिना अनुमति के बनाये हिस्सों को तोड़ा था. भग्न खिड़कियाँ दीवारें देख कर बहुत बुरा लग रहा था. मन उचाट हो गया था तो वापस होटल लौट आया.
चार मिनार से जो आटो लिया था उसे चलाने वाला गुरमीत सिंह सिख था पर हैदराबादी में ही बात करता था. गर्व से बोला कि उसके पुरखे सौ से भी अधिक सालों से हैदराबाद में रह रहे थे. बता रहा था कि कैसे घर वालों ने छोटी सी उम्र में ही शादी करा दी, कैसे उसने बैंक में नौकरी छोड़ कर आटो चलाने की सोची, कैसे वह एक बार दिल्ली में बने गुरुद्वारे देखने गया था. मैंने पूछा कि क्या तुम्हारी पत्नी भी काम करती है, तो बोला हम लोग हैदराबादी हैं और असली हैदराबादी अपनी औरत को काम नहीं करवाते. पंजाब में पुरखों का गाँव कहाँ है पूछा तो बोला कि उसे नहीं मालूम, उसका तो वतन हैदराबाद ही है.
चारमीनार की छाया में बितायी उस दोपहर की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं:
Tag: Hyderabad, Chaar Minaar, Nostalgia
***
हैदराबाद की हाईटेक सिटी में ठहरे थे. हाईटेक सिटी यानि वही जाना पहचाना भारतीय मेले जैसा जीवन जिसमें धूल मिट्टी, पान तम्बाकू, गाय भौंपू, साग सब्जी फिल्मी गाने, गप्पबाजी गालियाँ, सब वही हैं जो पुराने शहर में हैं पर इस तेज बहती जीवन धारा के बीच बीच में साईबर टावर जैसे द्वीप बने हैं जहाँ गेट पर पहरेदार खड़े हैं, साफ़ सुथरी चौड़ीं सड़कें, हरियाली, वातानाकूलित भवन, वाईफाई, स्टील और शीशे. लाल्टू कहते हैं कि एक अन्य अंतर है नये हाईटेक शहर में और पुराने शहर में जो बहुत महत्वपूर्ण है, यानि हर वस्तु पाँच गुना महँगी मिलती है.
कुष्ठ रोग पर विश्व कोनफ्रैंस नये अंतर्राष्ट्रीय केंद्र में हो रही है जहाँ पहुँचना आसान नहीं. कोनफ्रैंस में सारा दिन इधर उधर भागते, सुनते, बहस करते निकल जाता है. बीच बीच में कोई बोलने वाला बोर करता है तो थोड़ी देर सोने का मौका भी मिलता है. सारा दिन नींद आती है पर रात में बिस्तर में लेटते ही गुम हो जाती है, सुबह सुबह जब आँख लगती है तो उठने का समय हो जाता है.
रात भर समाचार चैनलों के ब्रेकिंग न्यूज़ सुन देख कर लगता है कि मानों एलिस एन द वंडरलैंड की ऊल्टी दुनियाँ में पहुँच गया हूँ. एक रात को सैफ और करीना के गुप्त विवाह पर तो दूसरी रात को राज ठाकरे के मचाये उपद्रव पर, समाचार पढ़ने वाले बार बार एक ही बात को चिल्ला चिल्ला कर इतनी बार कहते हैं मानो कोई वेद मंत्र हो जिसका बार बार भजन करने से ही ज्ञान मिलेगा. कभी लगता है कि वे समाचार नहीं पढ़ रहे लाईव कमेंट्री सुना रहे हों जिसमें घटनास्थल पर खड़े संवाददाता बार बार कहते हैं, "पिछले पाँच मिनट में कुछ नया नहीं हुआ पर जैसा कि मैंने कुछ देर पहले कहा कि हो सकता है कि इससे बात और बहुत बिगड़ जाये या शायद फ़िर न बिगड़े, पर ..."
साथ में राजेंद्र यादव का एक पुराना उपन्यास "शह और मात" ले कर गया था पर उसे पढ़ने में मन नहीं लगता. बिस्तर में करवटें बदल बदल कर कुढ़ते कुढ़ते फ़िर उसी टेलीविज़न को खोलना पड़ता है. जब लाल्टू ने अपनी कहानी और कविता की किताबें दीं तो उन्हें एक ही रात में पढ़ लिया.
हैदराबाद में बचपन में आया था, तब पाँच या छह साल का था. उस समय की थोड़ी थोड़ी यादें हैं कि चारमीनार के करीब ही कहीं रहते थे. खेलते कूदते समय घूमने के लिए एक चूड़ियों के फैक्टरी के पास टूटी चूड़ियों के टुकड़े जमा किया करते थे. एक दोपहर को जब कोनफ्रैंस में मन नहीं लगा तो उस जगह को खोजने के विचार से निकल पड़ा. चारमीनार में एक मंदिर भी है, एक दरगाह और एक छोटी सी मस्जिद भी. दरगाह में 41 साल से रहने वाले बूढ़े अब्दुल सईद से कुछ बात की, उनसे पहले दरगाह की देखभाल उनके मामा किया करते थे. उनके कल्फ लगी हुई उर्दू में बात करने की तरीके से लगता था मानो मुगलेआज़म के डायलाग सुन रहा हूँ.
फ़िर चारमिनार के करीब ही बने युनानी अस्पताल और मक्का मसजिद भी गया. अस्पताल के बाहर भीख माँगने वाली सलमा से बात की जो कोल्हापुर की रहनेवालीं हैं और जिन्हें किस्मत ने हैदराबाद ला कर भीख माँगने को मजबूर कर दिया. उनकी आँखों में अपनी मजबूरी की ग्लानी देख कर मेरा भी मन भर आया.
फ़िर कुछ देर तक चारमीनार के आसपास गलियों में घूमा. बचपन की छुट्टियों में कहाँ ठहरे थे यह समझ में नहीं आया. सब गलियाँ अनजान बेपहचानी सी लग रहीं थीं. कई जगह घरों के हिस्से टूटे हुए थे, सड़क की ओर वाले हिस्से. शायद नगरपालिका ने बिना अनुमति के बनाये हिस्सों को तोड़ा था. भग्न खिड़कियाँ दीवारें देख कर बहुत बुरा लग रहा था. मन उचाट हो गया था तो वापस होटल लौट आया.
चार मिनार से जो आटो लिया था उसे चलाने वाला गुरमीत सिंह सिख था पर हैदराबादी में ही बात करता था. गर्व से बोला कि उसके पुरखे सौ से भी अधिक सालों से हैदराबाद में रह रहे थे. बता रहा था कि कैसे घर वालों ने छोटी सी उम्र में ही शादी करा दी, कैसे उसने बैंक में नौकरी छोड़ कर आटो चलाने की सोची, कैसे वह एक बार दिल्ली में बने गुरुद्वारे देखने गया था. मैंने पूछा कि क्या तुम्हारी पत्नी भी काम करती है, तो बोला हम लोग हैदराबादी हैं और असली हैदराबादी अपनी औरत को काम नहीं करवाते. पंजाब में पुरखों का गाँव कहाँ है पूछा तो बोला कि उसे नहीं मालूम, उसका तो वतन हैदराबाद ही है.
चारमीनार की छाया में बितायी उस दोपहर की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं:
Tag: Hyderabad, Chaar Minaar, Nostalgia
रविवार, जनवरी 27, 2008
असली भारतीय
कौन सी पहचान है असली भारतीय की, कौन सी बोली है उसकी, यह सवाल बार बार उठते रहते हैं. इन सवालों के पीछे जो भाव छुपा होता है वह होता है कि असली भारत तो गाँवों में बसता है, असली भारतीय संस्कृति तो वह है जो विदेशी प्रभाव से बची हुई है, यानि कि गाँवों में रहने वाले उसी असली भारत की, या फ़िर पहले किसी ज़माने में होती थी हमारी असली संस्कृति, आजकल तो विदेशी फैशनों और विदेशी टीवी चैनलों ने सब बँटाधार कर दिया. शायद यह सवाल इस लिए भी उठते हैं क्योंकि अधिकाँश लोगों की स्मृतियों में वही दिन हैं जब भारत अपने आप में अधिक सिमटा हुआ था, कोई थोड़े बहुत लोग कभी सिनेमा हाल में अँग्रेजी फ़िल्म देख लेते थे पर कुछ विदेशी पर्यटकों को छोड़ कर विदेश हमारे आम जीवन का हिस्सा नहीं था. भूमण्डलीकरण और बढ़ते उपभोक्तावाद ने आज विदेशी प्रभाव को हमारे सामान्य जीवन में महसूस करना बहुत अधिक आसान कर दिया है.
अगर बात भारतीय साहित्य की हो तो यही सवाल बन जाता है कि "कौन सा साहित्य असली भारतीय साहित्य है?"
टूरिन में बोलते समय यह प्रश्न अँग्रेजी में लिखने वाले ख्यातिप्राप्त कई भारतीय लेखकों ने उठाया. शशि थरुर ने इस बारे में बहुत कुछ कहा. यानि अँग्रेजी में लिखने वाले भारतीय लेखकों को भी इस प्रश्न से परेशानी होती है कि कुछ लोग उनके लिखे को "असली " भारतीय साहित्य न होने की आलोचना करते हैं जो उन्हें चुभती है.
कई बार भारत में इस बारे में बात हुई तो मुझे लगा कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में लिखने वालों में पिछले दो दशकों में अँग्रेजी में लिखने वाले भारतीय लेखकों के प्रति गुस्सा, ईर्ष्या, कड़वाहट सी बन गयी है. आज लेखक होना शायद पहले से कुछ आसान हो गया हो पर केवल लेखन के बस पर जीना आसान नहीं. बड़े, मान्यवर लेखक हो कर भी लोगों को जीने के लिए कुछ न कुछ अन्य काम खोजना पड़ता है. आज भारतीय भाषाओं में टीवी तथा मीडिया की वजह से यह हो सकता है कि लेखक को इनके द्वारा लेखन से जुड़ा हुआ काम ही मिल जाये पर बिना कुछ अन्य काम के केवल उपन्यासों के बल पर घर गृहस्थी चलाना आसान नहीं.
लेकिन अँग्रेजी में लिखने वालों पर यह नियम लागू नहीं होता. टूरिन में एक दिन सुबह अल्ताफ टायरवाला से बात कर रहा था तो यही बात मन में आयी थी. २२ साल के अल्ताफ़ ने नौकरी छोड़ कर बैंक से कर्ज लिया और अपना पहला उपन्यास लिखा, आज वह उपन्यास पच्चीसों भाषाओं में अनुवादित और प्रकाशित हो चुका है और वह अपना दूसरा उपन्यास लिखने की सोच रहे हैं. टूरिन में आने से पहले, वह एक बार पेरिस में भी एक साहित्यिक गोष्ठी में भाग ले चुके हैं. इस तरह की सफलता का हिंदी में लिखने वाले साहित्य कला अकादेमी का पुरस्कार पा कर भी नहीं पाते.
मेरे विचार में इस बहस में हम दो विभिन्न बातों को मिला रहे हैं.
एक बात है किस तरह हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में लिखे जाने वाले साहित्य को उनका सही स्थान मिले? कैसे हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में लिखने जाने वाले साहित्यकारों और अँग्रेजी में लिखने वाले साहित्यकारों के बीच की विषमता को कम किया जाये? इस विषय में बचपन में पढ़ी एक कहानी की बात पर विश्वास करता हूँ जो स्वामी विवेकानंद के बचपन के बारे में थी. जब शिक्षक ने ब्लैकबोर्ड पर बनी एक रेखा को छोटा करने के लिए कहा तो विवेकानंद नें उसके ऊपर एक बड़ी रेखा बना दी जिसकी तुलना में नीचे की रेखा अपने आप छोटी हो गयी. यानि मेरे विचार में भारतीय भाषाओं में लिखे जाने वाले साहित्य को ऊपर उठाने के काम का यह अर्थ नहीं कि अँग्रेजी में लिखे जाने वाले साहित्य को नीचे गिराया जाये, बल्कि इसके दूसरे रास्ते खोजने चाहिये.
दूसरी बात है कि क्या अग्रेजी में लिखा जाने वाला साहित्य भी भारतीय साहित्य है? मैं यह मानता हूँ कि हर लेखक की जड़ें कुछ हद तक अपने आसपास के यथार्थ में दबी होती हैं, यानि साहित्य कई तरह का होगा, शहरों में रहने वालों का साहित्य, गाँवों में रहने वालों का साहित्य, सवर्णों का साहित्य, दलितों का साहित्य, मर्दों का साहित्य, औरतों का साहित्य, हिंदी बोलने वालों का साहित्य, कन्नड़ बोलने वालों का साहित्य, अँग्रेजी बोलने वालों का साहित्य. जब यह सभी समाज भारतीय हैं तो यह सभी साहित्य भी भारतीय हैं. सवाल यह नहीं कि कौन सा असली, सवाल यह है कि कौन सा साहित्य दबा हुआ है, अविकसित है.
मुझे लगता है कि साहित्य का एक सागर है, यह अलग अलग नामों वाले साहित्य विभिन्न धाराएँ हैं जो उसी सागर का हिस्सा हैं. इस तरह हिस्सों में बाँट कर देखना शायद गलत है क्योंकि इससे मेरा, तेरा सोचने का खतरा है पर जब कोई धारा दबी हुई हो या अविकसित हो, तो हिस्सों में बाँट कर देखना भी उपयुक्त हो सकता है.
सवाल बड़े फैले हुए पेड़ को काट कर उसे छोटा करने का नहीं, सवाल यह है कि बाकी के छोटे पौधों को किस तरह पनपने की जगह मिले?
अगर बात भारतीय साहित्य की हो तो यही सवाल बन जाता है कि "कौन सा साहित्य असली भारतीय साहित्य है?"
टूरिन में बोलते समय यह प्रश्न अँग्रेजी में लिखने वाले ख्यातिप्राप्त कई भारतीय लेखकों ने उठाया. शशि थरुर ने इस बारे में बहुत कुछ कहा. यानि अँग्रेजी में लिखने वाले भारतीय लेखकों को भी इस प्रश्न से परेशानी होती है कि कुछ लोग उनके लिखे को "असली " भारतीय साहित्य न होने की आलोचना करते हैं जो उन्हें चुभती है.
कई बार भारत में इस बारे में बात हुई तो मुझे लगा कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में लिखने वालों में पिछले दो दशकों में अँग्रेजी में लिखने वाले भारतीय लेखकों के प्रति गुस्सा, ईर्ष्या, कड़वाहट सी बन गयी है. आज लेखक होना शायद पहले से कुछ आसान हो गया हो पर केवल लेखन के बस पर जीना आसान नहीं. बड़े, मान्यवर लेखक हो कर भी लोगों को जीने के लिए कुछ न कुछ अन्य काम खोजना पड़ता है. आज भारतीय भाषाओं में टीवी तथा मीडिया की वजह से यह हो सकता है कि लेखक को इनके द्वारा लेखन से जुड़ा हुआ काम ही मिल जाये पर बिना कुछ अन्य काम के केवल उपन्यासों के बल पर घर गृहस्थी चलाना आसान नहीं.
लेकिन अँग्रेजी में लिखने वालों पर यह नियम लागू नहीं होता. टूरिन में एक दिन सुबह अल्ताफ टायरवाला से बात कर रहा था तो यही बात मन में आयी थी. २२ साल के अल्ताफ़ ने नौकरी छोड़ कर बैंक से कर्ज लिया और अपना पहला उपन्यास लिखा, आज वह उपन्यास पच्चीसों भाषाओं में अनुवादित और प्रकाशित हो चुका है और वह अपना दूसरा उपन्यास लिखने की सोच रहे हैं. टूरिन में आने से पहले, वह एक बार पेरिस में भी एक साहित्यिक गोष्ठी में भाग ले चुके हैं. इस तरह की सफलता का हिंदी में लिखने वाले साहित्य कला अकादेमी का पुरस्कार पा कर भी नहीं पाते.
मेरे विचार में इस बहस में हम दो विभिन्न बातों को मिला रहे हैं.
एक बात है किस तरह हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में लिखे जाने वाले साहित्य को उनका सही स्थान मिले? कैसे हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में लिखने जाने वाले साहित्यकारों और अँग्रेजी में लिखने वाले साहित्यकारों के बीच की विषमता को कम किया जाये? इस विषय में बचपन में पढ़ी एक कहानी की बात पर विश्वास करता हूँ जो स्वामी विवेकानंद के बचपन के बारे में थी. जब शिक्षक ने ब्लैकबोर्ड पर बनी एक रेखा को छोटा करने के लिए कहा तो विवेकानंद नें उसके ऊपर एक बड़ी रेखा बना दी जिसकी तुलना में नीचे की रेखा अपने आप छोटी हो गयी. यानि मेरे विचार में भारतीय भाषाओं में लिखे जाने वाले साहित्य को ऊपर उठाने के काम का यह अर्थ नहीं कि अँग्रेजी में लिखे जाने वाले साहित्य को नीचे गिराया जाये, बल्कि इसके दूसरे रास्ते खोजने चाहिये.
दूसरी बात है कि क्या अग्रेजी में लिखा जाने वाला साहित्य भी भारतीय साहित्य है? मैं यह मानता हूँ कि हर लेखक की जड़ें कुछ हद तक अपने आसपास के यथार्थ में दबी होती हैं, यानि साहित्य कई तरह का होगा, शहरों में रहने वालों का साहित्य, गाँवों में रहने वालों का साहित्य, सवर्णों का साहित्य, दलितों का साहित्य, मर्दों का साहित्य, औरतों का साहित्य, हिंदी बोलने वालों का साहित्य, कन्नड़ बोलने वालों का साहित्य, अँग्रेजी बोलने वालों का साहित्य. जब यह सभी समाज भारतीय हैं तो यह सभी साहित्य भी भारतीय हैं. सवाल यह नहीं कि कौन सा असली, सवाल यह है कि कौन सा साहित्य दबा हुआ है, अविकसित है.
मुझे लगता है कि साहित्य का एक सागर है, यह अलग अलग नामों वाले साहित्य विभिन्न धाराएँ हैं जो उसी सागर का हिस्सा हैं. इस तरह हिस्सों में बाँट कर देखना शायद गलत है क्योंकि इससे मेरा, तेरा सोचने का खतरा है पर जब कोई धारा दबी हुई हो या अविकसित हो, तो हिस्सों में बाँट कर देखना भी उपयुक्त हो सकता है.
सवाल बड़े फैले हुए पेड़ को काट कर उसे छोटा करने का नहीं, सवाल यह है कि बाकी के छोटे पौधों को किस तरह पनपने की जगह मिले?
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