भारत से मित्र आते हें तो उनकी अपेक्षा होती है कि उन्हें घुमाने ले जाया जाये और जब मैं उन्हें कोई गिरजाघर दिखाने जाता हूँ तो एक दो गिरजाघर देख कर थोड़ा बोर से हो जाते हैं, कहते हैं यार कुछ और दिखाओ. उनकी नज़र में गिरजाघर एक धार्मिक जगह होती है और उन्हें लगता है कि एक देखा तो मानो सभी देख लिये. फ़िर पूछते हैं यहाँ कोई महल, किले आदि नहीं हैं क्या?
कभी समझाने की कोशिश करुँ कि इटली ही नहीं, यूरोप के प्राचीन गिरजाघरों में पश्चिमी समाज की कला, इतिहास, संस्कृति और सभ्यता की वह झलकें मिल सकती हैं जो अन्य किसी महल, किले में नहीं मिलेंगी तो लोग विश्वास नहीं करते. यूरोप में कैथोकिल ईसाई धर्म में धर्म और शासन दोनों मिले हुए थे, कई सदियों तक पोप धर्मनेता होने के साथ साथ शासन भी करते थे, यह बात सबको नहीं मालूम होती. इसी कारण, गिरजाघर केवल धर्म का इतिहास नहीं बताते बल्कि राज्य कैसे बना, कैसे बदला, उसका क्या प्रभाव पड़ा, यह सब बातें भी बता सकते हैं. यूरोप की बहुत सी चित्रकला, शिल्पकला आदि का विकास धर्म के विकास से जुड़ा है, और इनके सर्वश्रेष्ठ नमूने गिरजाघरों में ही बने. लियोनार्दो द विंची, माईकलएंजेलो जैसे कलाकार गिरजाघरों के लिए काम करने वाले कलाकार थे.
तो गिरजाघर से सभ्यता, संस्कृति को कैसे जाने और परखें, इसको समझाने के लिए, आईये आज आप को मेरे शहर बोलोनिया का एक गिरजाघर दिखाने ले चलता हूँ. इस गिरजाघर को इतालवी भाषा में सन फ्राँसचेस्को गिरजाघर कहते हैं यानि सेंट फ्राँसिस गिरजाघर. यह गिरजाघर बहुत प्रसिद्ध नहीं है, शहर में आने वाले कोई भूले भटके पर्यटक ही यहाँ तक पहुँचते हैं. किसी से पूछिये तो लोग कहेंगे कि हाँ, है यह गिरजाघर पर ऐसी कोई भी विषेश बात नहीं है इसमें.
इसका निर्माण करीब 1225 के आसपास शुरु हुआ और 1266 AD में पूरा हुआ. पहली बार इस गिरजाघर को लूटा 1796 में नेपोलियन की सेना ने, जिसनें शासन करने वाले पोप की सेना को हरा कर, बोलोनिया शहर पर कब्जा किया और इस गिरजाघर को गोदाम बना दिया, यहाँ पर रखी कलाकृतियों को पेरिस भेज दिया गया जहाँ यह लूव्र के संग्रहालय में आज भी देखी जा सकती हैं.
दूसरी बार इसका विनाश हुआ द्वितीय महायद्ध में जब अँग्रेज़ी और अमरीकी बमबारी से गिरजाघर नष्ट हो गया. इस पहली तस्वीर में अगर आप ध्यान से देखें तो सामने की दीवार पर बीच में दो लम्बी खिड़कियाँ और गोल खिड़की के आसपास बने नये भाग को स्पष्ट देख सकते हैं.
यह गिरजाघर गौथिक वास्तुशिल्प शैली का इटली में पहला नमूना है. गौथिक शैली उत्तरी यूरोप में फ्राँस, जर्मनी, ईंग्लैंड आदि में विकसित हुई. इस शैली की विषेशता है इसकी नोकदार महराबें (arch). इससे पहले रोमेस्क या नोरमन शैली में अर्धगोलाकार महराबें बनायी जाती थीं. गौथिक शैली की अन्य विषेशताऐँ हैं ऊँची छतें, जिन्हें नोकदार महराबों जैसी लकड़ी से सहारा दिया जाता है, लम्बी खिड़कियाँ जिससे अंदर बहुत रोशनी आये, बड़ी नक्काशीदार गोल खिड़कियाँ, और उठे हुए खम्बे जो बाहर से दीवारों को सहारा देते हैं. इससे पहले के रोमानेस्क शैली के भवन पक्के, मजबूत दिखते थे, इस शैली से ऊँचाई, रोशनी और भवन के हल्केपन को अधिक महत्व दिया जाने लगा.
आप रोमानेस्क वास्तुशिल्प शैली को मोटे भारी शरीर वाले व्यक्ति की तरह सोच सकते हैं तो गौथिक शैली उसके सामने कँकाल जैसा हवादार ढाँचे की तरह लगेगी.
चूँकि यह नयी शैली थी जो तब उभर रही थी, इसलिए इस गिरजाघर में यह सब विषेशताएँ उतनी स्पष्ट नहीं दिखती जैसी कि पेरिस के नोत्रदाम गिरजाघर या मिलान के कैथेड्रल या लंदन के केंटरबरी गिरजाघर में दिख सकती हैं, जो इस वास्तुशिल्प शैली को अधिक सफ़ाई से दिखाते हैं. जबकि यहाँ गौथिक नहीं, बल्कि रोमानेस्क और गौथिक शैलियों का मिश्रण दिखता है.
उन्हीं दिनो में बोलोनिया में नया विश्वविद्यालय बना था जिसमें दो तरह के विषय पढ़ाये जाते थे, कानून और कला. कानून और अधिकार का सम्बंध विकसित होते व्यापार से था तो कला का सम्बंध था भूगोल, विज्ञान, चिकित्सा, आदि विषयों से. तब कानून और अधिकार को अधिक महत्व दिया जाता था और इसके बड़े शिक्षकों और विषेशज्ञों को गिरजाघर में दफ़नाने का मौका मिलता. साथ ही इस गिरजाघर में कला पढ़ने वाले विद्यार्थियों को मिलने, बैठने की जगह मिलती.
गिरजाघर की दीवारों पर पुराने अधिकार और कानून पढ़ाने वाले कई शिक्षकों की अलग अलग तरह की कब्रें हैं. कोई कब्र पर अपने चेहरे की मूर्ती लगवाता था तो कोई अपने आप को किताब हाथ में लिये लेटा दिखाता था.
इस गिरजाघर में एक पोप भी दफ़्न हैं, 1410 AD में मरने वाले पोप अलेक्ज़ाडर पंचम. उस समय पोप में आपस में लड़ाई चल रही थी, फाँस में आविनोय्न में एक अन्य पोप बने थे, इसलिए सभी लोग अलेक्ज़ाडर पंचम को पोप नहीं मनाते थे.
गिरजाघर के बाहर भी कुछ अनौखी कब्रें हैं जिनमें कानून के विषेशज्ञ दफ़्न हैं, इसकी खासियत है पिरामिड जैसी हरी रंग की टाईल वाली गुम्बज. इन्हें इस तरह क्यों बनाया गया, या यह शैली कहाँ से आयी, यह मुझे समझ नहीं आया.
इन सब कब्रों में से मेरी सबसे प्रिय कब्र है जिसपर एक कक्षा का दृष्य बना है. बायीं ओर विद्यार्थियों की आपस में बात करना, दाहिने ओर एक विद्यार्थी अपने साथी को स्याही की शीशी दे रहा है, बीच में शिक्षक विद्यार्थियों को चुप कराने की कोशिश में उँगली से इशारा कर रहे हैं. पाँच सौ साल पहले की यह कक्षा जीवित सी लगती है और यह भी समझ आता है कि समय बीत जाये पर विद्यार्थी नहीं बदलते!
सेंट फ्राँसिस का नाम गाँधी जी तरह, शांती और सभी जीवों से प्यार के संदेश से जुड़ा है. सन 1899 में जब हालैंड में हैग शहर में पहली विश्व शाँती सभा का आयोजन हुआ था तो इस गिरजाघर में एक छोटा सा शाँती पूजा स्थल बनाया गया था जो आज भी देख सकते हैं.
आप बताईये, इतिहास की, समाज की, सभ्यता की, कितनी बातें छुपी हैं इस भूले भटके गिरजाघर में? अगर आप केवल गिरजाघर सोच कर देखेंगे तो यह सब कुछ नहीं दिखेगा, रुक कर ध्यान से देखेंगे तभी कुछ समझ में आयेगा.