सोमवार, दिसंबर 24, 2007

बच्चे को दूध पिलाता पुरुष

अँग्रेजी जूआ खेलने वाली कम्पनी पोवरबिंगो के नये इश्तेहार ने कुछ खलबली सी मचा दी है. लंदन की अँडरग्राउड मैट्रो ने और आयरलैंड में डबलिन की बसों ने इस विज्ञापन को लगाने पर रोक लगा दी है कि क्योंकि उनका कहना है कि इस तरह के इश्तेहारों से जन सामान्य की भावनाओं को ठेस पहुँचती है.

विज्ञापन में है गोद में छोटे बच्चे को लिया हुआ एक पुरुष जिसने अपनी कमीज़ ऊपर उठा रखी है जिससे लगता है कि बच्चा उसके स्तन से दूध पीने वाला है. विज्ञापन पर लिखा है "सारी औरतें कहाँ चली गयीं?"



जब से यह बैन हुआ तब से इस विज्ञापन पर बहस चल रही है. बहुत से लोग कहते हैं कि ऐसी कोई बुरी बात नहीं है इस विज्ञापन में पर उन्हें पुरुष मोडल कोई अधिक सुंदर लड़का चुनना चाहिये था. शायद बुरा लगने वाली बात है कि विज्ञापन के अनुसार आज की नारियाँ बच्चों का ध्यान कम रखती हैं और जूआ खेलने में लगी हैं? या कि पुरुष को बच्चों का धयान रखना पड़े यह बुरी बात है? या फ़िर पुरुष के स्तन का हिस्सा दिखाना बुरी बात है?

मेरे विचार में आज नारी और पुरुष के सामाजिक रोल बदल रहे हैं और विज्ञापन इस बदलाव का लाभ उठा कर अपना संदेश देने में सफल भी होते हैं और साथ ही, समाज को मजबूर करते हैं कि वह इन बदलते रूपों पर सोचे और नये जीवन मूल्यों को बनाये.

विज्ञापन चाहे जो भी कहे, अधिकतर घरों में सच्चाई यही है कि पुरुष घर और बच्चों की जिम्मेदारी में कम ही भाग लेते हैं. चाहे वह किसी खेल में हिस्सा लेने जाने की बात हो, चाहे मित्रों के साथ शाम बाहर बिताने की, अधिकतर पुरुष ही जाते हैं. अगर बच्चों को देखने वाला कोई हो तो पुरुष के साथ नारी भी जाती है पर पुरुष घर में रहे और अकेली नारी बाहर सहेलियों के साथ घूमने जाये, यह कम ही होता है. समाज में नारी पर अच्छी माँ बनने का बहुत दबाव होता है, नौकरी की वजह से भी घर से या बच्चों से दूर रहना पड़े तो भी, अच्छी माँ न होने का अपराध बोध उसे सताता है. अच्छी माँ वही होती है जो अपने सपने भूल कर, अपनी चाहों को दबा कर, बच्चों के लिए त्याग करे और घर में रहे, यही सबक सिखया जाता है आज भी लड़कियों को. अगर कोई विज्ञापन इस बात पर ध्यान आकर्षित करे तो मेरे विचार में यह अच्छी बात है.

मैं यह नहीं कहता कि औरतों को पुरुषों की तरह होना चाहिये, पर मेरा विचार है कि आज के बदलते जीवन में पुरुष और नारी के बीच में घर की जिम्मेदारियाँ जिस तरह बँटीं हैं वे बदल रही हैं, उन्हें बदलना चाहिये.

दूसरी बात इस विज्ञापन में प्रयोग की गयी तस्वीर के बारे में है. मेरे विचार में तस्वीर में बुराई नहीं बल्कि इससे समाज के अन्य पहलुँओं पर भी विमर्श किया जा सकता है. मान लीजिये कि विज्ञापन पर लिखा होता, "अगर पुरुष भी बच्चों को दूध पिला पाते तो क्या आज इस दुनिया में युद्ध कम होते?", तो आप को कैसा लगता?


7 टिप्‍पणियां:

Raviratlami ने कहा…

एक अत्यंत सृजनशील विज्ञापन पर अनावश्यक सी बहस हो रही है. पर, हम सभी बहस करने वाले लोग ही तो हैं :)

चि्ट्ठे का फॉन्ट बहुत ज्यादा बड़ा हो गया है जिससे पेज को बहुत ज्यादा स्क्रॉल करना पड़ रहा है. साथ ही सफेद (या फ़ीका) पृष्ठभूमि पर काले (गाढ़े)अक्षर पढ़ने में आसान रहते हैं.

कमल शर्मा ने कहा…

सुनील जी आपने बात पत्‍ते की लिखी है और महिलाओं को समय बदलने के साथ अपनी वे जिम्‍मेदारियां जरुर ठीक ढंग से निभानी चाहिए जो परंपरागत हैं। इस विज्ञापन पर रोक लगाना दुर्भाग्‍यपूर्ण है। मैं रवि रतलामी जी की इस बात से सहमत हूं कि अक्षर पढ़ने में चुभ रहे हैं। आंखें मेरी खींच रही हैं प्‍लीज इस रंग को ठीक कर लें तो मजा आ जाएगा।

Sunil Deepak ने कहा…

प्रिय रवि, चिट्ठे के रंग के बारे में टिप्पणी करने के लिए धन्यवाद. कुछ भी बदलाव करना हो घँटों काम करना पड़ता है क्योंकि यह चिट्ठा ब्लागस्पाट पर नहीं, कल्पना पर है. हर रोज़ तो काम की वजह से इतना समय ही नहीं मिलता कि बार बार बदलाव करूँ पर आज छुट्टी होने से तुरंत बदलने की कोशिश की है.

कविता वाचक्नवी ने कहा…

विज्ञापन के प्रभाव व आपकी बात में एकदम विरोधाभास है। आप जहाँ घरेलू व पारिवारिक दायित्वों में पुरुष की भागीदारी की बात कर रहे हैं, वहीं विज्ञापन से सम्प्रेषित होने वाला सन्देश उस से भिन्न है। इस पूरे प्रकरण से यह सन्देश कहीं नहीं जाता कि पुरुषों को भी उन दायित्वों में अपनी भागीदारी पुष्ट करनी चाहिए(वस्तुस्थिति यह है कि पश्चिमी जगत् में ८०% से अधिक पुरुष घरेलू कामाकाज को बराबरी से करते हैं)। और इस विज्ञापन से हो यह रहा है कि महिलाओं की अनुपस्थिति को प्रश्नांकित किया जा रहा है। अत: इस का हटना इन अर्थों में वाँछनीय ही है। आप इस पोस्ट परा आई प्रतिक्रियाओं से ही देखें कि क्या अर्थ लोग इस विज्ञापन का लगा रहे हैं; और कैसे इसे महिलाओं की चूक के प्रति जनजागृति का सन्देश देने वाला, के रूप में ग्रहण किया जा रहा है। यह विज्ञापन सरेआम स्त्रिओं को प्रश्नांकित कर रहा है व उनके द्वारा अपने पारिवारिक दायित्वों से मुह फ़ेरने को प्रचारित कर रहा है।

Uday Prakash ने कहा…

यह एक भौतिक असम्भाव्यता (फिसिकल इम्प्रोबाबेलेटी) पर निर्भर रहने वाला उत्तेजक विग्यापन है इसलिये इसका कोई गहरा अर्थ नही है। स्त्रिया मा के रूप मे स्रिष्टि के अन्त तक रहेगी। उत्तर-आधुनिक सभ्यता मे भी कोई बच्चा बिना मा के जीवन नही पायेगा।
ये सब सेन्सेशन्स है और इन्हे उन्ही रूप मे लिया जाना चाहिये।

Uday Prakash ने कहा…

इम्प्रोबेलिटी!

VSood ने कहा…

कमाल की बात है, अगर यही इश्तहार कुछ इस तरह होता - "Where have all the women gone?" "Save women, speak up against female infanticide"...तो यह एक award-winning poster होता.

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