गुरुवार, मई 31, 2007

बच्चन जी की कमसिन सखियाँ

आखिरकार मुझे करण जौहर की फ़िल्म "कभी अलविदा न कहना" देखने का मौका मिल ही गया. अक्सर ऐसा होता है कि जिस फ़िल्म की बहुत बुराईयाँ सुनी हों, वह उतनी बुरी नहीं लगती, कुछ वैसा ही लगा यह फ़िल्म देख कर.

फ़िल्म के बारे में पढ़ा था कि समझ में नहीं आता कि अच्छे भले प्यार करने वाले पति अभिशेख को छोड़ कर रानी मुखर्जी द्वारा अभिनेत्रित पात्र को इतने सड़ियल हीरो से किस तरह प्यार हो सकता है? मेरे विचार में इस फ़िल्म यह फ़िल्म भारत में प्रचलित परम्परागत विवाह होने वाली मानसिकता को छोड़ कर विवाह के बारे प्रचलित पश्चिमी मानसिकता से पात्रों को देखती है.

यह तो भारत में होता है कि अधिकतर युवक और युवतियाँ, अनजाने से जीवन साथी से विवाह करके उसी के प्रति प्रेम महसूस करते हैं. इसके पीछे बचपन से मन में पले हमारे संस्कार होते हैं जो हमें इस बात को स्वीकार करना सिखाते हैं. इन संस्कारों के बावजूद कभी कभी, नवविवाहित जोड़े के बीच में दरारें पड़ जाती है. मेरे एक मित्र ने विवाह में अपनी पत्नी को देखा तो उसे बहुत धक्का लगा, पर उस समय मना न कर पाया, लेकिन शादी के बाद कई महीनों तक उससे बात नहीं करता था. एक अन्य मित्र जो दिल्ली में रहता था, उसकी शादी बिहार में तय हुई, पर उसने जब अपनी नवविवाहित पत्नी को पहली बार देखा तो उसे अस्वीकार कर दिया. ऐसी कहानियाँ कभी कभी सुनने को मिल जाती हैं पर अधिकतर लोग परिवार दावारा चुने हुए जीवनसाथी के साथ ही निभाते हैं. अस्वीकृति या दिक्कत अधिकतर पुरुष की ओर से ही होती है, स्त्री की तरफ़ से जैसा भी हो, पति को स्वीकार किया जाता है.

पश्चिमी सोच विवाह से पहले अपने होने वाले जीवनसाथी के लिए प्रेम का होना आवश्यक समझती है. भारत में भी, कम से कम शहरों में, इस तरह की सोच का बढ़ाव हुआ है, कि विवाह हो तो प्रेमविवाह हो वरना कुवाँरा रहना ही भला है. पर इस तरह सोचने वाले नवजवान शायद अभी अल्पमत में हैं. फ़िल्म इसी दृष्टिकोण पर आधारित है. सवाल यह नहीं कि अभिशेख बच्चन जी कितने अच्छे हैं, बल्कि सवाल यह है कि रानी मुखर्जी को उनसे प्यार नहीं है.

फ़िल्म में शाहरुख खान द्वारा अभिनीत भाग बहुत अच्छा लगा. कम ही भारतीय सिनेमा में पुरुष को इतना हीन भावना से ग्रस्त और अपने आप में इतना असुरक्षित दिखाया है. इस तरह का पुरुष फ़िल्म का हीरो हो, यह तो मैंने कभी नहीं देखा. उसका हर किसी से गुस्सा करना, बात बात पर व्यँग करना, ताने मारना, छोटे बच्चे के साथ बुरी तरह से पेश आना, हीरो कम और खलनायक अधिक लगता है. यह तो फ़िल्म लेखक और निर्देशक की कुशलता है कि इसके बावजूद आप उससे नफरत नहीं करते पर उसके लिए मन में थोड़ी सी सुहानुभूति ही होती है. शाहरुख जैसे अभिनेता के लिए इस तरह का भाग स्वीकार करना साहस की बात है.



पर जिस पात्र से मुझे परेशानी हुई वह है अमिताभ बच्चन द्वारा निभाया अभिशेख के पिता का भाग. पैसे से खरीदी हुई, बेटी जैसी उम्र की युवतियों के साथ रात बिताने वाला यह पुरुष साथ ही बेटे और बहु के दर्द को समझने वाला समझदार पिता भी है, अच्छा दोस्त भी, मृत पत्नी को याद करने वाला भावुक पति भी. मैं यह नहीं कहता कि उम्र के साथ साथ बूढ़े होते व्यक्ति को सेक्स की चाह होना गलत है और कोई अन्य रास्ता न होने पर, उसका वेश्याओं के पास जाना भी समझ में आता है, पर समझ नहीं आता उसका पैसा दे कर पाई जवान लड़कियों को सबके सामने खुले आम जताना कि मैं अभी भी जवाँमर्द हूँ! क्या अगर यही बात स्त्री के रुप में दिखाई जाती तो क्या हम स्वीकार कर पाते? यानि अगर यह पात्र अभिशेख के विधुर पिता का नहीं विधवा माँ का होता, जो पैसे से हर रात नवयुवक खरीदती है, पर साथ ही अच्छी माँ, मृत पति को याद करने वाली स्त्री भी है, तो क्या स्वीकार कर पाते?



शायद फ़िल्म निर्देशक का सोचना है कि पुरुष तो हमेशा यूँ ही करते आयें हैं और फ़िल्म का काम सही गलत की बात करना नहीं, जैसा समाज है, वैसा दिखाना है?

शुक्रवार, मई 04, 2007

भूली बरसियाँ

इटली का स्वतंत्रता दिवस का दिन था, 25 अप्रैल. हर साल इस दिन छुट्टी होती है पर मुझे अक्सर याद नहीं रहता कि किस बात की छुट्टी है. सुबह कुत्ते को सैर कराने निकला तो घर के सामने वृद्धों के समुदायिक केंद्र का बाग है, वहाँ देखा कि एक बूढ़े से व्यक्ति पेड़ों पर पोस्टर लगा रहे थे. हर पोस्टर पर इटली का ध्वज बना था और लिखा था, "वीवा ला राज़िस्तेंज़ा" यानि संघर्ष जिंदाबाद.

मैंने उससे पूछा कि क्या बात है और पोस्टर क्यों लग रहे हैं तो उसने कुछ नाराज हो कर कहा, "यह हमारा स्वतंत्रता दिवस है". शायद उसे कुछ गुस्सा इस लिए आया था कि उसके विचार में इतना महत्वपूर्ण दिन है इसका अर्थ तो यहाँ रहने वाले हर किसी को मालूम होना चाहिये.

मैंने फ़िर पूछा, "हाँ, वह तो मालूम है पर स्वतंत्रता किससे?"

"मुस्सोलीनी और फासीवाद से. यहाँ बोलोनिया में उसके विरुद्ध संघर्ष करने वाले बहुत लोग थे. जँगल में छुप कर रहते थे और मुस्सोलीनी की फौज और जर्मन सिपाहियों पर हमला करते थे. बहुत से लोग मारे गये. 25 अप्रैल 1945 को अमरीकी और अँग्रेज फौजों ने इटली पर कब्जा किया था और फासीवाद तथा नाजियों की हार हुई थी", उन्होंने समझाया. वह स्वयं भी उस संघर्ष में शामिल थे.

उनका गर्व तो समझ आता है पर मन में आया कि "संघर्ष जिंदाबाद" जैसे नारों का आजकल क्या औचित्य है? और आज जब अधिकतर नवजवानों को मालूम ही नहीं कि 25 अप्रैल का क्या हुआ था तो क्या इस तरह के दिन मनाने क्या केवल खोखली रस्म बन कर नहीं रह जाता?



"फासीवाद आज भी जिंदा है, अगर हम अपने बीते हुए कल को भूल जायेंगे तो वह फ़िर से लौट कर आ सकता है", वह बोला. पर केवल कहने से या चाहने से क्या कुछ जिंदा रह सकता है जब आज के नवजवानों के लिए यह बात किसी भूले हुए इतिहास की है?

और कितने सालों तक यह छुट्टी मनायी जायेगी? पचास सालों तक? यही बात भारत के स्वतंत्रता दिवस जैसे समारोहों पर भी लागू हो सकती है. बचपन में लाल किले से जवाहरलाल नेहरु या लाल बहादुर शास्त्री ने क्या कहा यह सुनने और जानने के लिए मन में बहुत उत्सुक्ता होती थी. बचपन में भारत की अँग्रेजों से लड़ाई और स्वतंत्रता की यादें जिंदा थीं, जिन नेताओं के नाम लिये जाते थे, उनमें से अधिकाँश जिंदा थे. वही याद आज भी मन में बैठी है और हर वर्ष यह जाने का मन करता है कि इस वर्ष क्या कहा होगा. पर अखबार देखिये या लोगों से पूछिये तो आज किसी को कुछ परवाह नहीं कि क्या कहा होगा, केवल एक भाषण है वह. और आज की पीढ़ी के लिए अँग्रेज, स्वतंत्रता संग्राम सब साठ साल पहले की गुजरी हुई बाते हैं जिसमें उन्हें विषेश दिलचस्पी नहीं लगती.

यही सब सोच रहा था उस सुबह को कि शायद यही मानव प्रवृति है कि अपनी यादों को बना कर रखे और जब नयी पीढ़ी उन यादों का महत्व न समझे तो गुस्सा करे. फ़िर जब वह लोग जिन्होंने उस समय को देखा था नहीं रहेंगे, तो धीरे धीरे वह बात भुला दी जाती है, तो रस्में और बरसी के समारोह भी भुला दिये जाते हैं. यह समय का अनरत चक्र है जो नयी बरसियाँ, समारोह बनाता रहता है और कोई कोई विरला ही आता है, महात्मा गाँधी जैसा, जिसका नाम अपने स्थान और समय के दायरे से बाहर निकल कर लम्बे समय तक जाना पहचाना जाता है.

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उसी सुबह, कुछ घँटे बाद साइकल पर घूमने निकला तो थोड़ी सी ही दूर पर एक चौराहे पर कुछ लोगों को हाथ में झँडा ले कर खड़े देखा तो वहाँ रुक गया.

माईक्रोफोन लगे थे, सूट टाई पहन कर नगरपालिका के एक विधायक खड़े थे, कुछ अन्य लोग "संघर्ष समिति" के थे. वे सब लोग भाषण दे रहे थे. पहले बात हुई उस चौराहे की. 19 नवंबर 1944 को वहाँ बड़ी लड़ाई हुई थी जिसमें 26 संघर्षवादियों ने जान खोयी थी. उनके बलिदान की बातें की गयीं कि हम तुम्हें कभी नहीं भूलेंगे और तुम्हारा बलिदान अमर रहेगा. उस लड़ाई में मरे 19 वर्षीय एक युवक की बहन ने दो शब्द कहे और बोलते हुए उसकी आँखें भर आयीं. थोड़े से लोग आसपास खड़े थे उन्होंने तालियाँ बजायीं.

फ़िर बारी आयी प्रशस्तिपत्र देने की. जिनको यह प्रशस्तिपत्र मिलने थे उनमें से कई तो मर चुके थे और उनके परिवार के किसी अन्य सदस्य ने आ कर वे प्रशस्तिपत्र स्वीकार किये. कुछ जो जिंदा थे, वह बूढ़े थे. हर बार पूरी कहानी सनाई जाती. "वह जेल से भाग निकले .. उनकी नाव डूब गयी...अपनी जान की परवाह न करते हुए ...लड़ाई में उनकी पत्नी को गोली लगी ... तीन गोलियाँ लगी और उन्हें मुर्दा समझ कर छोड़ दिया गया..".



बूढ़े डगमगाते कदम थोड़ी देर के लिए अपने बीते दिनों के गौरव का सुन कर कुछ सीधे तन कर खड़े होते. किसी की आँखों में बिछुड़े साथियों और परिवार वालों के लिए आँसू थे. उनकी यादों के साथ मैं भी भावुक हो रहा था. आसपास खड़े पँद्रह बीस लोग कुछ तालियाँ बजाते.

पर शहर के पास इन सब बातों के लिए समय नहीं था. चौराहे पर यातायात तीव्र था, गुजरते हुए कुछ लोग कार से देखते और अपनी राह बढ़ जाते. पीछे बास्केट बाल के मैदान में लड़के चिल्ला रहे थे, अपने खेल में मस्त.

बुधवार, मई 02, 2007

सौभाग्य

"यह तुम्हारा नाम कैसे बोलते हैं?" मैंने उनसे पूछा. लम्बा हरे रँग का कुर्ता. थोड़ी सी काली, अधिकतर सफ़ेद दाढ़ी. सिर के बाल लम्बे, पीछे छोटी सी चोटी में बँधे थे. और निर्मल सौम्य मुस्कान जो दिल को छू ले.

जब उनका ईमेल देखा तो स्पेम समझ कर उसे कूड़ेदान में डालने चला था क्योंकि अनुभव से मालूम है कि इतने अजीब नाम वाले तो स्पेम ही भेजते हैं. फ़िर नज़र पड़ी थी ईमेल के विषय पर जिसमें लिखा था "कल्पना के बारे में", तो रुक गया था. सँदेश में लिखा था कि वह अधिकतर भारत में रहते हैं, पर उनकी पत्नि और परिवार इटली में बोलोनिया के पास रहते हैं, वह आजकल छुट्टी में इटली आयें हैं, उन्होंने अंतर्जाल पर कल्पना के कुछ पृष्ठ देखे और वह मुझसे मिलना चाहते हैं.

भारत से कोई भी आये और उससे मिलने का मौका मिले तो उसे नहीं छोड़ना चाहता. तुरंत उन्हे उत्तर लिखा और घर पर आने का न्यौता दिया. कल एक मई का दिन मिलने के लिए ठीक था क्योंकि मेरी छुट्टी थी और उन्हें शायद बोलोनिया आना ही था.
Mark Dyczkowski, कितना अजीब नाम है, कौन से देश से होगा, मैं सोच रहा था. फ़िर कल सुबह अचानक मन में आया कि उनके बारे में गूगलदेव से पूछ कर देखा जाये. पाया कि वह बनारस में रहते हैं, हिंदू धर्म में ताँत्रिक मार्ग पर बहुत से किताबें लिख चुके हैं, सितार भी बजाते हैं.



वह अपनी पत्नी ज्योवाना और एक मित्र फ्लोरियानो के साथ आये. उन्हे देखते ही पहली नज़र में उनसे एक अपनापन सा लगा. कभी कभी ऐसा होता है कि कोई अनजाना भी मिले तो लगता है मानो बरसों से उसे जानते हों, वैसा ही लगा मार्क को मिल कर. इससे पहले कि कुछ बात हो मैंने तुरंत पूछ लिया, "यह तुम्हारा नाम कैसे बोलते हैं?" और मार्क ने बताया, कि उनके पारिवारिक नाम का सही उच्चारण है "दिचकोफस्की".

पोलैंड के पिता और इतालवी माँ की संतान, मार्क का जन्म लंदन में हुआ. सतरह अठारह वर्ष की उम्र में गुरु और ज्ञान की खोज उन्हें भारत ले आयी, जहाँ उन्होने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में दाखिला लिया. भारत में ही उनकी मुलाकात अपनी पत्नी ज्योवाना से हुई और पहला पुत्र भी भारत में पैदा हुआ. पिछले पैंतीस वर्षों से वह भारत में ही रहते हैं और ताँत्रिक मार्ग के अलावा संगीत, योग, भारतीय दर्शन आदि बहुत से विषयों में दिलचस्पी रखते हैं. पोलिश, इतालवी, हिंदी, अँग्रेजी और संस्कृत भाषाएँ जानते हैं.

दो घँटे के करीब वह रुके और इस समय में बहुत सी बातें हुई. वह भी बहुत बोले, पर मैं भी उन्हें बार बार टोक कर कुछ न कुछ प्रश्न पूछता. कभी कृष्ण की बात करते तो कभी राम की. कभी वेदों उपानिषदों से उदाहरण देते कभी बढ़ती उपभोक्तावादी सँस्कृति से भारतीय मूल्यों को आये खतरे के बारे में चिंता व्यक्त करते. "मानव के भीतर की असीमित विशालता की ओर हिदू दर्शन ने जो ध्यान बँटाया है और सदियों से इस दिशा में ज्ञान जोड़ा है वह विश्व को भारत की देन है", बोले. मैं उन्हे मंत्रमुग्ध हो कर सुनता रहा.

जब चलने लगे तो मुझे दुख हुआ कि बातचीत में इतना खोया कि उनकी बातों को रिकार्ड नहीं किया, वरना सब बातों को लिख कर अच्छा साक्षात्कार बनता और नये लोगों को उनके विचार जानने का मौका भी मिलता. अभी तो मैं यहीं हूँ, यहाँ एक सप्ताह पहले ही आया हूँ, अगले दिनों में फ़िर अवश्य मिलेंगे, तब रिकार्ड कर लेना, उन्होने मुझे मुस्करा कर कहा. इतने ज्ञानी विद्वान से घर बैठे अपने आप मिलने का मौका मिला, यह तो मेरा सौभाग्य ही था.

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कल रात को समाचार मिला कि भारत से यहाँ आये शौध विद्यार्थी विवेक कुमार शुक्ल के माता पिता जो कानपुर में रहते थे, उनका किसी ने खून कर दिया. विवेक आज ही घर वापस जाने की कोशिश कर रहे हैं. हम सब इस समाचार से स्तब्ध हैं. विवेक को बोलोनिया के भारतीय समुदाय की संवेदना.

हमारी भाषा कैसे बनी

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