शनिवार, फ़रवरी 09, 2013

अनैतिक राजनीति

आजकल रामचन्द्र गुहा की पुस्तक "देशभक्त और अन्धभक्त" (Patriots & Partisans, Allen Lane India, 2012) पढ़ रहा हूँ.

Cover Patriots & Partisans by Ramchandra Guha
मुझे गुहा के लिखने की शैली अच्छी लगती है. उनकी स्पष्ट और सीधी लेखन शैली में जटिल विचारों को सरलता से अभिव्यक्त करने की क्षमता है. यह बात नहीं कि मैं उनकी हर बात से सहमत होऊँ, लेकिन वह मुझे सोचने को विवश करते हैं.

उनकी किताब के शीर्षक में "पार्टीज़ान" (Partisan) शब्द है जिसके कई अर्थ हो सकते हैं. देश की स्वतंत्रता के लिए लड़ने वालों को भी पार्टीज़ान कहते हैं, और किसी बात पर एक तरफ़ा सोचने वाले, या अन्धभक्तों को भी पार्टीज़ान कहते हैं. उनकी इस किताब में बातें आज कल के भारत के बारे में हैं, जहाँ कुछ वह लोग भी हैं जो, टीवी स्टूडियो, आत्मप्रचार और प्रसिद्धी से दूर, जन सामान्य के बीच में रह कर काम करने वाले हैं. दूसरी ओर, वह बात करते हैं उनकी जो देश का शोषण करके या धर्म या जाति के नाम पर विभिन्न मुद्दों पर जनता को भड़का कर अपनी जेबें भरने में लगे हैं. पुस्तक में भारत में होने वाले भ्रष्टाचार के इतिहास की भी बात है कि कैसे समय के साथ हमारी राजनीति बेशर्मी से भ्रष्टाचार की दलदल में धँस चुकी है.

गुहा एक ओर से जवाहरलाल नेहरु के प्रशँसक हैं और नेहरू के जीवन के बारे में बहुत बार लिखते हैं. लेकिन साथ ही वह नेहरू के वशंज यानि इन्दिरा गाँधी, उनके बच्चों तथा आधुनिक काँग्रेस नेताओं के प्रति सीधी भाषा में स्पष्ट आलोचना करते हैं. इस तरह की स्पष्ट आलोचना उनके स्तर के अन्य विचारकों की कम ही पढ़ने को मिली है.

उदाहरण के लिए उनकी किताब में एक अध्याय है "काँग्रेस में चमचागिरी का छोटा सा इतिहास", जिसमें उन्होंने सँजय, राजीव, सोनिया और राहुल गाँधी के बारे में दो टूक लिखा है -
"अगर शास्त्री रहते तो पता नहीं इन्दिरा गाँधी लन्दन रहने जाती या नहीं. पर अगर भारत में रहती भी तो उन्हें प्रधान मन्त्री बनने का मौका मिलना बहुत कठिन था. अवश्य ही उनके बेटे को यह पद कभी न मिलता. शास्त्री अन्य पाँच साल प्रधानमन्त्री रह पाते तो गाँधी-नेहरू का राजघराना न बनता. सँजय और राजीव गाँधी अब जीवित होते और अपना निजि जीवन जीते. आज संजय असफल बिज़नेसमेन होते, राजीव एक फोटोग्राफ़ी का शौक रखने वाले सेवानिवृत्त पायलेट. अन्त में अगर शास्त्री कुछ लम्बा जीवन जी पाते तो सोनिया घर सम्भालने वाले पति को प्यार करने वाली ग्रहणी होती और राहुल गाँधी किसी प्राईवेट कम्पनी में मध्य स्तर के मैनेजेर होते."

पर नेहरु गाँधी परिवार के राजघराने बनाये जाने और चापलूसी करने वाले काँग्रेस नेताओं की बात करते हुए भी वह व्यक्तिगत स्तर पर अन्धी आलोचना नहीं करते. जैसे कि सोनिया गाँन्धी के चुनावों में भाग लेने और कांग्रेस की नेता होने के बारे में लिखते हैं -
"अन्तोनिया मेइनो गाँधी" के नेतृत्व में 'रोम राज' के खतरों की बात करने वाले जाति और धर्म के नाम पर नफरत फ़ैलाने वाले लोग भारतीय जनता और विषशकर हिन्दुओं की सँकरी भावनाओं को बढ़ावा देना चाहते थे. लेकिन हिन्दुत्वप्रेमियों के अतरिक्त अन्य लोगों में इस बात को नहीं माना गया. वोटरों ने स्पष्ट कर दिया कि सोनिया गाँधी को जाँचने के मापदँड अन्य होंगे. वह इटली में पैदा हुईं या वह कैथोलिक धर्म की हैं इससे कुछ कुछ फ़र्क नहीं पड़ता. चालिस साल से भारत भूमि में रह कर वह भी भारतीय थीं."

दूसरी ओर उनकी किताब में भाजपा, काम्युनिस्ट, माओवादियों आदि की आलोचनाएँ कम भी नहीं हैं. उदाहरण के लिए माओवादियों के बारे में उन्होंने लिखा है -
"मुझे पहले से मालूम था कि नक्सली लोग गाँधीवादी नहीं है लकिन एक बार मुरिया की जनजाति के एक व्यक्ति ने जो मुझसे कहा, उसने मेरी नक्सलियों को सही समझने में मदद की. वह व्यक्ति अपने परिवार का पहला व्यक्ति था जिसे कालेज से डिग्री मिली थी और एक भूतपूर्व शिक्षक था जो कि माओवादी झगड़ों की वजह से बेघर हो गया था. उसने मुझसे कहा कि उन हिँसक क्राँतीकारियों की छवि के पीछे छुपे व्यक्तियों में नैतिक साहस नहीं था. उस व्यक्ति के शब्द आज भी मेरे कानों में गूँजते हैं, <नक्सलियों को हिम्मत नहीं कि हथियार गाँव के बाहर छोड़ कर हमारे बीच में आ कर बहस करें>. यह बहुत गहरी और विचारनीय दृष्टि थी गणतंत्र के सही अर्थ की समझ की. ऊपरी कठोरता और विचारनिष्ठा के दिखावे के बावजूद, नक्सलियों में अपने आप में डर था और वह जनतंत्रिक बहस में भाग नहीं ले सकते, गरीब और बिना हथियारों वाले ग्रामीण लोगों से नहीं."

एक ओर गुहा बात करते हैं विकास की, प्राइवेट सेक्टर को अधिक मौका देने की, तकनीकी विकास को बढ़ावा देने की. पर साथ ही बात करते हैं ज़िम्मेदारी की और पर्यावरण के संरक्षण की. इस तरह से वह गाँधीवाद या साम्यवाद की दृष्टि से "गाँवों में ही भारत का भविष्य है" और "बिना तकनीकी जीवन अच्छा है" या "प्राइवेट सेक्टर हव्वा है" जैसी बातों से स्वयं को दूर करते हैं. दूसरी ओर वह बात करते हैं कि आर्थिक और सामाजिक विकास ज़िम्मेदारी से हो. इस विषय में इस किताब में उन्होंने समाचारपत्र और टीवी जगत, विषेशकर अग्रेज़ी मीडिया की, कड़ी आलोचना की है. वह कहते हैं कि मीडिया लालची उद्योगपतियों के पास गिरवी है और अधिकतर अपनी स्वतंत्र राय न दे कर, उद्योगपति कैसे देश को नोच विनाश कर सकें, इसका साथ देता है और जो लोग पर्यावरण या गरीब लोगों के अधिकारों की बात करें तो उनका विरोध करता है.

यह सच है कि आज के समाज में वामपंथी या दक्षिणपंथी या परम्परावादी राजनीतिक दलों की बात करना कुछ कठिन हो गया है. जिन दलों को हम वामपंथी सोचते थे वे किसी विषय पर पराम्परावादी बातें भी करते हैं.

गुहा सत्तर के दशक में इन्दिरा गाँधी और बाद के दशकों में उनके परिवार को ही भारत में राजनीतिक नैतिकता के पतन का दोष देते हैं. इस विचार से मैं उनसे पूरी तरह सहमत नहीं हूँ. मेरे विचार में इन्दिरा गाँधी ने अगर भारत की संवैधानिक संस्थाओं का अपनी व्यक्तिगत सम्पत्ति की तरह उपयोग किया, अपने बेटों को राजपाठ के वशंज बनाया और तानाशाही का प्रारम्भ किया तो इसमें उनके आसपास के सारे समाज का भी पूरा योगदान था. उस समाज ने इस सब का कितना विरोध किया? ताकतवर के सामने झुकना, उसके तलुए चाटना, चापलूसी करना और उसकी शह में भ्रष्टाचार करना, यह सब हमारे समाज ने किया, केवल इन्दिरा घाँधी या संजय गाँधी ने अकेले नहीं शुरु किया.

आज भारत के किस राज्य में कौन से राजनीतिक दल अपने बच्चों, परिवार वालों को सत्ता में नहीं ला रहे? कौन से राजनीतिक दल सत्ता पाने के लिए अनैतिक तरीके नहीं अपना रहे और जातिवाद या धर्मवाद, इससे ऊपर उठ रहे हैं? कितने हैं तो व्यक्तिगत नहीं, भारत के हित की सोचते हैं? सत्ता के शिखर से समाज के सबसे गरीब तबके तक, कितने लोग हैं जो मौका मिलने पर भ्रष्टाचारी नहीं हैं?

भारत की स्वंत्रता मिलने के बाद के दशकों के सीधे साधे नेता, जो सामान्य जीवन जीते थे, जिनमें देशभक्ती का दिखावा कम था और व्यक्तिगत नैतिकता अधिक थी, वैसे राजनीतिक नेता आज कितने हैं? आज हर ओर अनैतिक और भ्रष्ट नेताओं का बोलबाला है जो देशभक्त होना का दिखावा भी ठीक से नहीं करते.

चाहे अन्ना हज़ारे का आँदोलन हो या "आम आदमी पार्टी" का संघर्ष, हर ओर फ़ैले भ्रष्टाचार और अनैतिकता से बाहर ला कर अपने समाज को कैसे बदल सकते हैं? गुहा की किताब इस सब बातों पर सोचने को विवश करती है.

***

7 टिप्‍पणियां:

  1. उनकी एक किताब लोकतंत्र के इतिहास पर हाल ही में पढ़ी और उकताहट होने लगी. इतिहास के नाम पर नेहरूनामा है :(

    नेहरू के प्रति प्रेम व दुसरी विचारधारा के प्रति घृणा दोनो ही अति तक जाते हैं.

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  2. संजय मैंने शायद वह वाली किताब नहीं पढ़ी. :)

    मैं जिस वातावरण में बड़ा हुआ वहाँ बचपन से ही नेहरू की केवल आलोचना ही सुनी थी, तब वही ठीक लगता था. पर आज नेहरू या अन्य व्यक्तियों के बारे में किसी पार्टी की दृष्टि से या पूर्वाग्रहों से देखना मुझे ठीक नहीं लगता, हर एक को अपनी दृष्टि से देखना सोचना चाहता हूँ.

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  3. किन्तु परन्तु कहाँ फिर आवे,
    जो पावे, बस वही निभावे।

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  4. व्यक्तिगत विचारों को पढ़कर ज्यादा दुखी क्यों हुआ जाये उनके लेखन की सार्थकता की सराहना करें।पढ़ने योग्य लगी ...

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  5. ब्लाग बुलेटिन के शिवम वं सभी रिपोर्टरों को धन्यवाद :)

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"जो न कह सके" पर आने के लिए एवं आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

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