बुधवार, मई 04, 2011

गुलाब, अँगूर और रामबाण दवा

"एक बहुत सुन्दर बाग है यहाँ, देखने चलेंगे?", मित्र ने मुझसे पूछा तो समझ में नहीं आया कि कैसे उत्तर दिया जाये, जिससे कहीं जाना भी न पड़े और उसे बुरा भी नहीं लगे. सुबह सुबह निकले थे प्रोजेक्ट देखने, दिन भर भरी धूप में घूमे थे, अब वजाय कमरे में जा कर सुस्ताने के, उसका सुझाव था कि किसी बाग को देखने जाया जाये.

"क्या है बाग में?", जब और कुछ समझ में नहीं आया तो मैंने बेवकूफ़ी वाला प्रश्न पूछा.

लेकिन मेरा प्रश्न मेरे मित्र को बेवकूफ़ी वाला नहीं लगा, उत्साहित हो कर बोला, "बहुत सुन्दर गुलाब के फ़ूल हैं. कुछ जानवर भी हैं, ऊँठ और घोड़े आदि. बहुत बढ़िया जगह है, तुम्हें अवश्य अच्छी लगेगी."

इतने उत्साह से मुझे वह बाग दिखाना चाहता था कि आखिरकार हाँ कहनी ही पड़ी. मैं बैलरी जिले में हेगड़ी बोम्मन्नाहल्ली तालुक में कुष्ठ रोग और विकलाँग पुनर्स्थान सम्बन्धी प्रोजेक्ट के सिलसिले में आया था. वह बाग वहाँ से करीब तीस मिनट की कार यात्रा पर, होसपेट जाने वाले रास्ते पर था.

जब गाड़ी एक फैक्टरी जैसे गेट से घुसी और बड़े से इन्डस्ट्रियल शैड के सामने रुकी तो थोड़ा अचरज हुआ कि यह कैसा बाग है.

दरअसल वह गुलाब के फ़ूलों का निर्यात करने वाली फैक्टरी थी. अन्दर बीसयों लोग काम में लगे थे. कोई ट्राली में रँग बिरँगे गुलाबों को इधर से उधर ले रहा था, कहीं गुलाब की टहनियाँ काट कर उन्हें गुलदस्तों में सजा कर पैक किया जा रहा था. अन्दर दो वातानुकूलित कक्ष भी बने थे जिनमें ठँडक में हज़ारों गुलाब की कलियाँ कतारों में सजी थीं. पँद्रह बीस भिन्न रँगों के गुलाब थे वहाँ.

VSL agrotech project, Bellary district

VSL agrotech project, Bellary district

यह वीएसएल कृषि-तकनीकी प्रजेक्ट का हिस्सा था जिसके मालिक है राज्य सभा के सदस्य अनिल लाड, जिनकी लोहे की खानें और अन्य कई व्यवसाय भी हैं.

शैड से बाहर निकले तो पीछे बड़े बड़े ग्रीनहाउस थे, जिनमें नियंत्रित वातावरण में गुलाब उगाये जाते हैं. हर एक ग्रीन हाउस में करीब 35 हज़ार गुलाब के पौधे हैं और सारा काम आधुनिक तकनीकों के सहारे से किया जाता है. यानि, कहने का बाग था, पर असल में विषेश प्रकार की फैक्टरी है.

VSL agrotech project, Bellary district

VSL agrotech project, Bellary district

ग्रीन हाउस वाले हिस्से से बाहर निकले तो गाय और बैलों के हिस्से में पहुँचे. फैक्टरी के इस हिस्से में अलग अलग शैड के नीचे दसियों तरह की सुन्दर गाय और बैल बँधे थे. मुझे कर्णाटकी गायों और बैलों के सीधे नुकीले सींग बहुत अच्छे लगे. हाँलाकि मुझे विभिन्न गायों और बैलों की नस्लों का पता नहीं, पर फ़िर भी अलग अलग नस्लें देखना अच्छा लगा.

VSL agrotech project, Bellary district

VSL agrotech project, Bellary district

VSL agrotech project, Bellary district

गायों के शैड के पीछे ऊँठों और घोड़ों के शैड बने थे, और सबके पीछे एक कृत्रम झील में पानी चमक रहा था, यह झील भी फैक्टरी वालों ने बनवायी है जिससे पूरी फैक्टरी को पानी मिलता है.

VSL agrotech project, Bellary district

सब जगह घूम कर अंत में हम लोग "जननी गौशाला" पहुँचे, जो एक अलग तरह की फैक्टरी है. यहाँ एक रयासन विषेशज्ञ काम कर रहे थे. उन्होंने बताया कि इस गौशाला में गौ मूत्र से एक रामबाण दवा बनायी जाती है. एक सिलिन्डर में गौ मूत्र रखा जाता है, जिसे भाप बना कर उसके स्वच्छ पानी को अलग जगह बोतलों में भरा जाता है. गौ मूत्र से बने इस पानी की रसायनिक जाँच भी की गयी है और इसमें कई तरह के रसायन पाये जाते हैं. उन सज्जन के अनुसार इस पानी में शरीर की बहुत सी बीमारियाँ, जैसे कि ब्लड प्रैशर, डायबेटीज, अस्थमा, एक्ज़ीमा आदि ठीक करने की शक्ति है, और यह एक आयुर्वेदिक दवा मानी जाती है.


VSL agrotech project, Bellary district

उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं उस पानी का स्वाद चखना चाहूँगा, तो मैंने सिर हिला दिया कि नहीं. मूत्र से बनी कोई चीज़ पीने का विचार अच्छा नहीं लगा. हालाँकि मन ही मन सोच रहा था कि यह तो स्वच्छ किया हुआ पानी है, इसमें मूत्र का स्वाद नहीं होना चाहिये. अब इस बात को सोचूँ तो थोड़ा दुख होता है कि क्यों नहीं चखा, क्या जाने फ़िर कभी इसका मौका मिले भी कि न मिले. उस तरह का स्वच्छ किया हुआ मूत्र खोज पाना आसान नहीं होगा.

आखिर में जब हम उस "बाग" से निकले तो हमारे मित्र ने कहा कि रास्ते में रुक कर अँगूर खरीदे जायें. कर्णाटक का यह हिस्सा बहुत उपजाऊ है, और आज कल यहाँ जगह जगह अँगूर, अनार जैसे फ़लों की खेती की जा रही है. जब अंगूर के खेतों के बीच पहुँचे तो हरे भरे दूर दूर तक फ़ैले खेत और अंगूर से लदी लताएँ देख कर सुखद आश्चर्य हुआ. तब तक शाम घिर आयी थी और वहाँ काम करने वाले लोग, टेम्पू या आटो में हर तरफ़ से चढ़ कर अपने गाँवों की ओर वापस जा रहे थे.

VSL agrotech project, Bellary district

VSL agrotech project, Bellary district

घूमने के बाद अँगर खाते हुए वापस हेगड़ी बोम्मन्नाहल्ली की ओर जा रहे थे तो सोच रहा था कि मित्र ने ठीक ही कहा था, यह आम बाग में घूमने वाली बात नहीं बल्कि विषेश मौका था जिसका फ़ायदा उठा कर नयी जगह देखने का मौका मिल गया था. इस घूमने फ़िरने में सारे दिन के काम की थकान और तनाव भी गुम हो गये थे.

VSL agrotech project, Bellary district

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सोमवार, मई 02, 2011

हिन्दी फ़िल्मों के बाउल गीत

अग्रेज़ी पत्रिका कारवाँ पिछले कुछ समय से अक्सर अनछुए से विषयों पर सुन्दर और लम्बे आलेख निकाल रही है, उस तरह का लेखन मेरे विचार में आजकल की अन्य किसी हिन्दी या अंग्रेज़ी की पत्रिका में नहीं दिखते. कारवाँ के नये अंक में मैंने त्रिषा गुप्ता का एक दिलचस्प आलेख पढ़ा जिसमें बात है मुम्बई के फ़िल्म जगत के बहुत से नये फ़िल्म निर्माताओं की, जो सोचते और बात तो अंग्रेज़ी में करते हैं और फ़िल्में बनाते हैं हिन्दी में.

आलेख में ऐसे कई उदाहरण हैं जिनसे इस बेमेल व्यवस्था का प्रभाव स्पष्ट दिखता है, चूँकि अंग्रेज़ी में सोचने समझने और लिखने वाले निर्देशक अपनी फ़िल्मों के सम्वाद भी अंग्रेज़ी में ही लिखते हैं जिनका बाद में हिन्दी में अनुवाद किया जाता है. पर यह अंग्रेज़ी के वाक्यों का शाब्दिक अनुवाद होता है, जिसमें मूल हिन्दी में सोचबने बोलने वाली सहजता नहीं.

आलेख में यह बात भी उठायी गयी है कि शहरों से आने वाले इन फ़िल्म निर्माता निर्देशकों की अधिकतर गाँवों और छोटे शहरों से कोई जान पहचान नहीं, इनकी फ़िल्मों के विषय बड़े शहरों में ही केन्द्रित हैं, मध्य वर्गीय और उच्च मध्यवर्गीय लोगों की सोचने समझने की दुनिया. हालाँकि अनुराग कश्यप, मनीष शर्मा जैसे निर्देशक भी हैं जिनकी मुफस्सिल भारत से जान पहचान है, पर आलेख में यही चिन्ता झलकती है कि जिस तरह से मुम्बई के फ़िल्म जगत में यह बदलाव आ रहा है, उस तरह से छोटे शहरों और गाँवों की कहानियाँ हिन्दी सिनेमा से लुप्त हो जायेंगी.

मेरे विचार में यह सच है कि बड़े शहरों में कमर्शियल मालस् और मल्टीप्लेक्स की संस्कृति का असर पड़ा है कि किस तरह की फ़िल्में बनायी जायें और ऐसे सिनेमा हालों में दिखायी जायें, लेकिन मुझे भविष्य में दूसरा बदलाव दिखता है, जिसमें आने वाले भारत के छोटे शहरों और गाँवों में बड़े होने वाले नवजवान हैं जिनमें आज अपने रहने सहने, तौर तरीकों पर बहुत गर्व है और आत्मस्वाभिमान भी. इसी बदलते भारत की व्यवसायिक ताकत हिन्दी फ़िल्म जगत में होने वाली भाषा और परिवेश को बदलेगी. पिछले कुछ वर्षों की सफ़ल फ़िल्मों के बारे में सोचें तो विदेशी परिवेश में सतही भारतीयकरण से बनी किसी भी सफ़ल फ़िल्म का नाम याद नहीं आता, जबकि छोटे शहरों और मुफ़स्सिल संस्कृति में घुली मिली सफ़ल फ़िल्मों के नाम तुरंत याद आ जाते हैं, "फ़स गये से ओबामा" से ले कर "तेरे बिन लादन" तक.

कारवाँ पत्रिका में एक अन्य आलेख है पश्चिम बँगाल के एक बाउल गायक मँडली की अमरीका यात्रा के बारे में, जिससे मुझे याद आये हिन्दी फ़िल्मों में गाये बाउल गीत.

Baul dolls from Sally Grossman's Baul Music archive

एक ज़माना था था जब डमरु या इकतारा ले कर गाने वाले साधु, हिन्दी फ़िल्मों में अक्सर दिखते थे. शायद इस तरह के गीतों के पीछे बिमल राय, ऋषीकेष मुखर्जी जैसे बँगला फ़िल्म निर्देशकों का हाथ था जिन पर बाउल और रवीन्द्र संगीत का असर था. इस तरह के गीतों के बारे में सोचूँ तो दो गीत तुरंत याद आते हैं -

1) 1955 की बिमल राय की फ़िल्म देवदास में गीता दत्त और मन्नाडे का गाया "आन मिलो, आन मिलो, आन साँवरे".

2) 1957 की गुरुदत्त की फ़िल्म प्यासा में गीता दत्त का गाया "आज सजन मोहे अंग लगालो, जन्म सफ़ल हो जाये".

इनके अतिरिक्त, हिन्दी फ़िल्मों के बाउल संगीत से प्रभावित अन्य कौन से गीत हैं, क्या आप को याद है?

आज शायद प्रभु से आत्मा मिलन के गीत के द्वारा अपने प्रेमी या प्रेमिका की विरह को व्यक्त करने का समय नहीं रहा. दूर दूर से देख कर प्यार करने के दिन गज़र गये. शायद इसलिए आज की हिन्दी फ़िल्मों में गली गली गाँव गाँव घूमने वाले बाउल भिक्षुक के गाने की जगह नहीं, लेकिन जिन मानव भावनाओं को यह गीत व्यक्त करते हैं, वह तो कभी पुराने नहीं पड़ेंगे.

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सोमवार, अप्रैल 25, 2011

मन की खोज

कल सत्य साईं बाबा का देहांत हो गया.

"साईं" शब्द से मेरी एक बहुत साल पुरानी याद जुड़ी है. तब मैं इटली में नया नया आया था और इतालवी भाषा को अच्छी तरह से नहीं जानता था. तब कई बार लोगों से बात करते हुए वाक्य के अंत में "साई" शब्द सुन कर बहुत हैरानी होती और मन में यह बात उठी कि शायद इतालवी भाषा और सिंधी भाषा में कुछ समानताएँ हैं. फ़िर इतालवी भाषा का ज्ञान बढ़ा तो समझ आया कि इतालवी "साई", लेटिन भाषा की "सपेरे" संज्ञा से बना है जिसका अर्थ है "जानना". कई इतालवी लोग बोलते समय "साईं" शब्द का प्रयोग "तुम जानते हो?" के तकिया कलाम की तरह करते हैं जैसे कि अंग्रेज़ी बोलने वाले कुछ लोग बात बात पर "यू नो?" (You know) कहते हैं. आज जब साईं बाबा की मृत्यु का समाचार सुना तो यही बात याद आयी. सोचा कि शायद भारत में प्रयोग किया जाने वाले "साईं" शब्द का मूल भी वही है, जो इतालवी भाषा में है, यानि "जानने वाला" या "ज्ञानी", चूँकि संस्कृत और लेटिन दोनो को इन्दोयूरोपीय मूल के भाषाएँ माना जाता है.

एक समय था जब सत्य साईं बाबा के इटली में भी बहुत भक्त थे. 1980 के दशक के इतालवी राजनीतज्ञ बेत्तीनो क्राक्सी (Bettino Craxi) के भाई अंतोनियो, साईं बाबा के बड़े भक्त थे और बँगलौर के पास किसी आश्रम में रहते थे. एक बार बेत्तीनो क्राक्सी भी अपने भाई से मिलने साईं बाबा के आश्रम गये थे, तब साईं बाबा ने उन्हें कहा था कि वह एक दिन इटली के प्रधानमंत्री बनेंगे. कुछ वर्षों के बाद ऐसा हुआ भी और क्राक्सी इटली के प्रधान मंत्री बने जिससे साईं बाबा की प्रसिद्धि पूरी इटली में फ़ैल गयी. 1990 के दशक में जब भी मुझे बँगलौर जाने का मौका मिलता तो हर बार मेरे इतलावी मित्र मुझसे पूछते कि क्या मैं साईं बाबा के दर्शन करने भी जाऊँगा? बाद में श्री क्राक्सी पर पैसे के घपले का आरोप लगा तो वह इटली छोड़ कर चले गये, साथ ही धीरे धीरे, साईं बाबा का नाम भी कुछ कम हो गया.

पर मेरे मन में साईं बाबा की लोकप्रिय छवि से, जो उन्हें चमत्कार करने वाला बाबा वाली छवि थी, बिल्कुल भी आकर्षण नहीं था. प्रारम्भ से ही मुझे सोचने विचारने वाली बातें करने वाले आध्यात्मिक गुरुओं में दिलचस्पी रही है, जबकि चमत्कार करने वाले और वरदान देने वाले गुरुओं के प्रति मुझे अविश्वास सा होता है, लगता है कि लोगों की सहज श्रद्धा का गलत फ़ायदा उठाया जा रहा हो.

भारत में जन्मी पनपी आध्यात्मिक परम्परा की जड़ें उपानिषिदों में हैं और उनमें मानव की अंतरात्मा की गहराईयों में छुपी जगत संज्ञा को खोजने की चेष्ठा है, यही चेष्ठा मुझे इस परम्परा की सबसे बड़ी उपलब्धी लगती है. पर योगी तपस्या से या आत्मसंयम से उड़ने लगें या चमत्कार करने लगें, इस तरह की बातों पर मेरा विश्वास नहीं है. मेरा मानना है कि भौतिक जीवन को भौतिक जगत के नियम मानने ही होंगें और उन नियमों से ऊपर उठने की बातें करने वाले लोग सच नहीं बोल रहे.

इसी तरह, आध्यात्म को धँधा बना कर पैसा कमाने लोग भी हैं, जो एक ओर माया संसार को त्यागने का मार्ग दिखाने का दावा करते हैं पर साथ ही मैनेजर भी बन जाते हैं ताकि उस पर कापीराईट बना कर सम्पति बनायी जाये. इस तरह के काम करने वाले लोग, चाहे वह दीपक चोपड़ा हों या श्री श्री रविशंकर, मुझे आकर्षित नहीं करते, आध्यात्म के व्यापारी लगते हैं.

मनोवैज्ञनिक दृष्टि से सोचूँ तो मुझे लगता है सर्वज्ञानी सर्वशक्तिमान गुरु या राजनीतिक नेता जैसी आकृतियों की खोज उन व्यक्तियों को होती है जिनके मन में असुरक्षा की भावना हो. इस तरह की आकृतियाँ हमें बचपन में पैदा होने के बाद के उन दिनों में ले जाती हैं जब हमारे लिए माता पिता सर्वज्ञानी सर्वशक्तिमान होते थे, वही हमारे सभी निर्णय लेते थे और हमें मानसिक सुरक्षा की अनुभूति देते थे. शायद इसका अर्थ है कि मानसिक दृष्टि से मैं अधिक आत्मनिर्भर हूँ और अपने ऊपर इस तरह की किसी आकृति को नहीं स्वीकारना चाहता.

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स्वाति चौपड़ा की नयी किताब "जागृत स्त्रियाँ - भारत में आधुनिक आध्यात्म की कहानियाँ" (Women awakened - stories of contemporary spirituality in India, Swati Chopra, Harper Collins publisher India, 2011) में आध्यात्म को स्त्री के दृष्टिकोण से देखने का प्रयास है. इसके पीछे उनकी भावना है कि पुरुषों के मुकाबले में नारियों के लिए सन्यास लेना, घर परिवार त्यागना, जँगल में अकेले निकल पड़ना जैसे काम कठिन हैं. इसका सबसे बड़ा खतरा है कि पुरुष दृष्टि उनके जगत्याग को मान न दे कर, उन्हें यौन वासना का पात्र ही मानती है. पारम्परिक हिन्दू धर्म में साधवियों के लिए मठ या आश्रम जिसमें केवल सन्यासी औरते रहें, इसका विधान नहीं रहा है. इस सब की वजह से नारियों के लिए सन्यास मार्ग पर चलना और जगसम्मानित आध्यात्मिक गुरु बनना कठिन रहा है.

इस किताब में स्वाति चौपड़ा ने आठ नारी गुरुएँ के जीवन के बारे में लिखा है. इन आठ आकृतियों में एक हैं माँ शारदा देवी, स्वामी रामकृष्ण परमहँस की पत्नी, जिनकी जीवन कथा और सन्यास पथ को पुराने दस्तावेज़ो के माध्यम से समझने की कोशिश की गयी है. बाकी की सात आकृतियाँ आधुनिक गुरुओं की हैं - श्री आनन्दमयी माँ, माता निर्मला देवी, नानी माँ, जेत्सुनमा तेंज़िंग पाल्मो, माता अमृतानन्दामयी, खाँद्रो रिनपोछे और साध्वी भगवती.

Women spiritual gurus from contemporary India

इन सब गुरुओं से स्वाति चौपड़ा ने साक्षात्कार किये हैं, उनके जीवन को जानने की और साध्वी बनने के मार्ग को समझने की चेष्ठा की है. इन साक्षात्कारों में श्रद्धा तो है लेकिन पत्रकार का कोतूहल भी है. अक्सर गुरुओं को देवाकृति मान कर उनके बारे में लिखने वाले भक्त लोग निष्पक्ष भाव से नहीं लिख पाते, और गुरु के सामान्य मानव जीवन संबन्धी बातों को समझने के लिए ठीक से प्रश्न नहीं पूछ पाते. स्वाति चौपड़ा के लेखन में यह अंधभक्ति नहीं दिखती, बल्कि पश्चिमी तार्किक विचारधारा से प्रभावित सोचने समझने वाले प्रश्न भी हैं जो सामान्य जगत और आध्यात्मिक जगत के बीच की धँधली सीमारेखा को दोनो ओर देखने की चेष्ठा करते हैं.

इस किताब की चुनी गयी आठों नारी आकृतियाँ हिन्दु और बौद्ध धर्म से जुड़ी हैं. उनमें जैन, सिख, ईसाई आदि धर्मों की साध्वियों की कोई आकृति नहीं, जो मेरे विचार में इस किताब की थोड़ी सी कमज़ोरी है. किताब की हर आकृति से स्वाति जी प्रश्न पूछती हैं कि क्या गुरु के स्थान पर पहुँचने वाली स्त्रियों का आध्यात्मिक दृष्टिकोण पुरुष गुरुओं से भिन्न होता है? इस प्रश्न का उन्हें समान उत्तर मिलता है कि, स्त्री हो या पुरुष, एक बार आत्मा के गहन में छुपे परमात्मा से मिलन हो जाये तो नारी पुरुष की भिन्नता समाप्त हो जाती है, यानि गुरु तो केवल गुरु है, लिंग से परे, पर लिंगविहीन नहीं, उसमें नारी भी है, पुरुष भी.

आध्यात्मिक मार्ग को अधिकतर जग त्याग और सन्यास के मार्ग के रूप में ही देखा समझा गया है, जोकि सामान्य रूप से पुरुष मार्ग है. पुस्तक में स्त्रियों की प्रतिदिन में काम में लगे रहते हुए भी आध्यात्मिक मार्ग की खोज करने का कुछ विवेचन है जो मुझे बहुत अच्छा लगा.

आठों आकृतियों की अलग अलग जीवन गाथाओं में, अंतरात्मा की खोज के प्रारम्भ के रास्ते कुछ अलग लग सकते हैं पर बाद में सभी रास्ते एक ही मार्ग पर आ जाते हैं. इस तरह से दो तीन नारी गुरुओं के जीवनचित्र पढ़ कर लगता है कि पुस्तक में कुछ दोहराव है. इसकी वजह से आखिरी जीवन चित्रों को मैंने उतने रोचक नहीं पाया जितने मुझे किताब के प्रारम्भ के जीवनचित्र लगे. फ़िर भी यह किताब मुझे पढ़ने योग्य लगी.

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शुक्रवार, अप्रैल 22, 2011

कबड्डी और बचपन के खेल

उत्तरी कर्णाटक की यात्रा के बाद ६ अप्रैल को शाम को बँगलौर लौटा था और हवाई अड्डे से टेक्सी ले कर होटल जा रहा था. गर्मी, धूप और गाँवों में घूमते हुए ऊबड़ खाबड़ सड़कों पर जीप के धक्के, बहुत थकान लग रही थी. होटल में पहुँच कर नहा कर तुरंत सो जाऊँगा यह सोच रहा था. टेक्सी जयानगर से गुजंर रही थी जब एक पार्क में कुछ चहलकदमी दिखी. आसपास बोर्ड पर कुछ कन्नड़ भाषा में लिखा था जो समझ नहीं आया, तो टेक्सी वाले से पूछा कि क्या हो रहा था वहाँ? उसने बताया कि भारतीय राष्ट्रीय कबड्डी प्रतियोगिता का उद्दघाटन होने वाला था जिसके लिए पूरे भारत से टीम आयी थीं.



National kabaddi championship, Bangalore, April 2011 - images by S. Deepak


क्रिकेट का चाहे विश्व कप हो या आई पी एल, उसमें मुझे उतनी रुचि नहीं होती जितना "कबड्डी" शब्द सुन कर हुई. मुझे तो याद भी नहीं था कि कबड्डी नाम का कोई खेल होता था. एक पल के लगा कि बचपन लौट आया हो, बचपन में खेले कबड्डी, खो खो और पिट्ठू की याद आ गयी. होटल में पहुँचा तो बस सामान रखा, नहाने और आराम करने को भूल, तुरंत उसी पार्क में लौट आया.

कोई बँगलौर के नगरपालक श्री नटराज प्रतियोगिता का उद्दघाटन करने आये थे, उनके आसपास बहुत भीड़ थी. पहले कुछ साँस्कृतिक कार्यक्रम हुआ जिसमें लोक नर्तकों ने अपनी नृत्य कला दिखायी, फ़िर विभिन्न शहरों से आयी 40 टीमों का जलूस निकला, जिनमें दिल्ली की भी एक टीम थी, जिसके लिए मैंने भी खूब तालियाँ बजायीं.

कबड्डी प्रतियोगिता 7 अप्रैल को शुरु होने वाली थीं, जब मेरे शौध प्रोजेक्ट की मीटिंग भी शुरु हो रही थी, इसलिए कोई भी मैच नहीं देख पाया, पर फ़िर भी प्रतियोगिता के उद्दघाटन समारोह में भाग लेना बहुत अच्छा लगा. इसी समारोह की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं.

National kabaddi championship, Bangalore, April 2011 - images by S. Deepak

National kabaddi championship, Bangalore, April 2011 - images by S. Deepak

National kabaddi championship, Bangalore, April 2011 - images by S. Deepak

National kabaddi championship, Bangalore, April 2011 - images by S. Deepak

National kabaddi championship, Bangalore, April 2011 - images by S. Deepak

National kabaddi championship, Bangalore, April 2011 - images by S. Deepak

National kabaddi championship, Bangalore, April 2011 - images by S. Deepak

National kabaddi championship, Bangalore, April 2011 - images by S. Deepak

क्रिकेट, फुटबाल आदि को छोड़ कर, आप के बचपन के कौन से खेल थे जो आज खेलना चाहेंगे?

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कबड्डी के बारे में सोचूँ तो लगता है कि अमरीकी बेस बाल रगबी का खेल बिल्कुल हमारी कबड्डी से मिलता है, बस फर्क इतना है कि हम "कबड्डी कबड्डी" कहते हैं जबकि उन्हें गेंद ले कर दूसरे कौने तक जाना होता है. क्या आप को यह नहीं लगता कि शायद बेस बाल बनाते समय अमरिकियों ने हमारी कबड्डी से प्रेरणा पायी हो? या हमारी कबड्डी अमरीकी बेस बाल की प्रेरणा से बनी? क्या जाने भारत में कबड्डी के इतिहास पर कोई शौध हुआ है या नहीं, जिससे यह समझ मिल सके?

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मंगलवार, अप्रैल 19, 2011

लम्बाड़ी गाँव

बैल्लरी जिले के हूवीना हड़ागली तालुक के गाँवों में घूम रहे थे. यह जगह हड़ागली यानि चमेली के फ़ूलों के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है. विकलाँग पुनर्निवास कार्यक्रम की जाँच के करने आया था और वहाँ वह मेरा अंतिम दिन था. अचानक सड़क के किनारे शीशे और मोतियों से जड़े हुए चमकते हुए रंगीन कपड़े पहने, औरतें देख कर उत्सुकता हुई कि कौन लोग हैं? पता चला कि यह राजस्थानी मूल के बनजारे हैं जिन्हें लम्बाड़ी या थाँडा के नाम से जाना जाता है और जो दक्षिण भारत के विभिन्न राज्यों में जगह जगह बसे हैं. गाँवों में विकलाँगों संबन्धी कार्यक्रम को देखने आया था इसलिए अपने साथियों से पूछा कि क्या इन लम्बाड़ी के गाँवों में भी कोई विकलाँग कार्यक्रम है और क्या हम लोग उसे देखने जा सकते हैं?

Lambadi gypsy village Thanda, Karnataka, India, image by Sunil Deepak

हालाँकि शाम होने को आयी थी और हमें लम्बी यात्रा करनी थी, फ़िर भी मेरे साथियों ने तुरंत मुझे एक लम्बाड़ी गाँव दिखाने के लिए हाँ कर दी. उन्होंने बताया कि इन गाँवों को थाँडा कहते है और यहाँ रहने वाले लम्बाड़ी अब धीरे धीरे कर्णाटकी संस्कृति में घुलने मिलने लगे हैं. बहुत से लम्बाड़ी लोग अब जगह जगह नहीं घूमते, बल्कि एक ही जगह पर रहने लगे हैं. यह लम्बाड़ी गाँव हूवीना हड़ागली शहर के दक्षिण में करीब पाँच किलोमीटर दूर है. लेकिन वहाँ जाने वाली सड़क की हालत बहुत खराब थी इसलिए खाली सड़क होते हुए भी पहुँचने में करीब बीस मिनट लगे.

सड़क छोड़ कर गाँव की तरफ कच्चे रास्ते पर मुड़े तो तुरंत गाय के साथ एक वृद्ध औरत पारम्परिक लम्बाड़ी पौशाक में दिखी. देखने में गाँव के घरों में कोई विषेश भिन्नता नहीं दिखी. गाँव के प्रारम्भ में ही एक गूँगी युवती का घर था जिसे विकलाँग कार्यक्रम वाले जानते थे. उससे बात करने लगे तो थोड़ी देर में आसपास बच्चे जमा हो गये. उस गाँव में बाहर के लोग कम ही आते हैं, शायद इसीलिए हर कोई मेरे कैमरे को देख कर अपनी फोटो खिंचवाना चाहता था. युवती से बात करके हम लोग एक अन्य घर में गये, जहाँ एक विकलाँग युवक रहता था. इस तरह मुझे गाँव को देखने का मौका मिला.

केवल प्रौढ़ या वृद्ध महिलाएँ ही पारम्परिक लम्बाड़ी पौशाक पहने थीं जबकि युवक, युवतियाँ और बच्चे सामान्य वस्त्र ही पहने थे. लम्बाड़ी पारम्परिक पौशाक का ही हिस्सा है, सिर के दोनो ओर बालों की एक चौड़ी लट पर बँधे चाँदी के बड़े बड़े झुमके, जिनसे कान ढके से रहते हैं. हाँलाकि कुछ लोग आपस में राजस्थानी से मिलती जुलती लम्बाड़ी भाषा भी बोल रहे थे, पर अधिकतर लोग कन्नण भाषा को भी बोल समझ सकते थे. मेरे साथियों ने बताया कि बच्चे चूँकि स्कूल में कन्नण ही सीखते हैं, इसलिए लम्बाड़ी भाषा का बोलना भी कम हो रहा है. गाँव में टेलीविज़न देखने के डिश ऐंटेना और कई लोगों के पास मोबाईल फ़ोन भी दिखे.

जल्दी जल्दी करके गाँव से वापस चलने लगे तो डूबते सूरज की रोशनी में गाँवों की पीछे एक पहाड़ी पर, ऊर्जा उत्पादन के लिए लगी हवाई पनचक्कियों पर नज़र पड़ी. सदियों से अपनी भाषा, पौशाक और संस्कृति को अलग बचा कर, संभाल कर रखने वाली जनजातियाँ आज तकनीकी और आर्थिक विकास के सामने धीरे धीरे अपनी भिन्नता खो कर सामान्य जीवन में समन्वित हो रही हैं. अन्य कुछ दशकों में शायद इन लम्बाड़ी गाँवों का यह बचा खुचा पारम्परिक रूप भी खो जायेगा.

उत्तरी कर्णाटक के इस लम्बाड़ी गाँव की इस छोटी सी यात्रा की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं.

Lambadi gypsy village Thanda, Karnataka, India, image by Sunil Deepak

Lambadi gypsy village Thanda, Karnataka, India, image by Sunil Deepak

Lambadi gypsy village Thanda, Karnataka, India, image by Sunil Deepak


Lambadi gypsy village Thanda, Karnataka, India, image by Sunil Deepak

Lambadi gypsy village Thanda, Karnataka, India, image by Sunil Deepak

Lambadi gypsy village Thanda, Karnataka, India, image by Sunil Deepak

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शनिवार, मार्च 26, 2011

ताकत और विरोध

कुछ दिन पहले मैंने निवेदिता मेनन और आदित्य निगम की किताब, "ताकत और विरोध" (Nivedita Menon and Aditya Nigam, "Power and Contestation: India Since 1989", Halifax and Winnipeg: Fernwood Publishing; London and New York: Zed Books 2007) पढ़ी जो मुझे बहुत दिलचस्प लगी. निवेदिता जी दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र विभाग में रीडर हैं और फेमिनिस्ट विमर्ष में भी सक्रिय रही हैं, जबकि आदित्य जी दिल्ली के विकासशील समाजों के अध्ययन केन्द्र (Centre for studies of developing societies - CSDS) के संयुक्त निर्देशक हैं. यह किताब "आधुनिक विश्व इतिहास" शृँखला के अन्तर्गत छापी गयी है जिसका उद्देश्य है 1989 के शीत युग के अन्त के पश्चात बदलती हुई दुनिया के इतिहास को समझने की कोशिश करना.

Power and contestation by Nivedita Menon and Aditya Nigam
मेनन और निगम भारत के आधुनिक इतिहास के विमर्ष में उत्तर राष्ट्रीयवाद, नव वामपंथ और फेमिनिस्ट दृष्टिकोणों का उपयोग करते हैं.

निवेदता मेनन ने पहले भी अन्य जगह "फेमिनिस्म के संस्थाकरण" के बारे में अपने विचार रखे हैं. उनका कहना है कि पित्रकेन्द्रित समाज में चाहे स्त्रियों से जुड़ी कोई भी बात हो, बलात्कार या हिँसा या दहेज की, लैंगिक समता के लिए लड़ने वाले गुट अब केवल कानून बदलने की बात करने तक ही सीमित रह जाते हैं कुछ यह सोच कर कि कानून बदलने से अपने आप ही समाज बदल जायेगा. वह कहती हैं कि फैमिनिस्म और लैंगिक समता की बात सोचने वालों लोगों को फैमिनिस्ट विचार विमर्श के व्यक्तिगत सशक्तिकरण के पक्ष पर ज़ोर देना चाहिये.

"ताकत और विरोध" में मेनन और निगम बात करते हैं भारत के आर्थिक दृष्टि से विकसित, विकासशील और विकास की आकाँक्षा रखने वाले समाज की जिसने पिछले दो दशकों में उदारीकरण नीतियों से फायदा उठाया है, और जिसके बल पर राष्ट्र तथा आर्थिक ताकत में गुटबंदी बनी है. इस गुटबंदी का दो तरह के लोग विरोध कर रहे हैं. एक विरोधी वे हैं जो इस गटबंधन से बाहर हैं और इस गटबंधन का हिस्सा बनना चाहते हैं, उससे कमाना और लाभ पाना चाहते हैं, वह अपने बाहर होने से नाराज़ हैं. दूसरी ओर के विरोधी वे हैं जो इन नीतियों से सहमत नहीं और नीतियों में बदलाव चाहते हैं. यह आर्थिक विकास समाज के आधुनिकता निर्ञाण से जुड़ा है.

उनके विषलेशण में 1989 के पहले के भारत, विषेशकर साठ और सत्तर के दशक के भारत की बुनियाद थी "नेहरु सामंजस्य", जिसके वह तीन मुख्य स्तम्भ समझते हैं - (1) आत्मनिर्भर आर्थिक व्यवस्था जो देश के उद्योगीकरण से जुड़ी थी, (2) धर्म से पृथक राजनीतिक व्यवस्था और (3) किसी भी बड़ी ताकत से अलग स्वतंत्र विदेश नीतियाँ जो विषेशकर अमरीकी साम्राज्यवाद के विरुद्ध थीं. इस नेहरु सामंजस्य को इंदिरा गाधी के शासन काल में कमज़ोर किया गया. जबकि नब्बे के दशक में यह नेहरू सामंजस्य पूरी तरह से लुप्त हो गया तथा आधुनिकता और गणतंत्र में लड़ाई शुरु हुई.

वे आधुनिकता को कुछ विषेश मूल्यों के रूप में देखते हैं जैसे कि मानव अधिकार, धर्म निरपेक्षता, इत्यादि, जबकि गणतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण मूल्य मानते हैं राजनीतिक ताकत के द्वारा अपनी आकाँक्षाओं की परिपूर्ती करना. उनका मानना है कि गणतंत्र और आधुनिकता की यह लड़ाई मँडल रिपोर्ट से खुल कर सामने आयी. इसकी वजह से अन्य पिछड़े गुटों को 27 प्रतिशत का रिर्जवेशन कोटा मिला, जिसकी वजह से उनकी ताकत बढ़ी और मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव जैसे नेता उभरे. इसकी वजह से साथ ही दलितों का भी शोषण बढ़ा और दलितों ने बीजेपी जैसे गुटों के साथ मिल कर उनके विरोध में संयुक्त पक्ष बनाया.

मंडल कमिशन की रिपोर्ट लागू होने से पहले, अन्य पिछड़े गुट भारत का 60 प्रतिशत जनसंख्या बनाते थे लेकिन उन्हें सरकारी और शिक्षण कार्यक्षेत्रों में केवल 4 प्रतिशत काम मिलता था, वह भी अधिकतर निचले दर्ज़े के काम मिलते थे. उँची जात वाले लोग भारत की जनसंख्या का 20 प्रतिशत हैं और दलित भी 20 प्रतिशत हैं, इसीलिए गणतंत्र में अपना हिस्सा पाने के लिए सवर्ण और दलित मिल कर भी लड़ रहे हैं. विभिन्न पक्षों की यह लड़ाई भारत को आधुनिकता से दूर खींचने वाली लड़ाई है.

दूसरी ओर, उनका कहना है कि पंचायती राज की संस्थाओं में औरतों के लिए सीटें रिर्ज़व करने से उँची जात वालों को अधिक फायदा हुआ है जिसकी वजह से अन्य पिछड़े दल और दलित इसके विरुद्ध हैं.

मेरे विचार में सामाजिक जीवन की सच्चाईयाँ शाश्वत नहीं, देखने वाले के दृष्टिकोण पर भी निर्भर करती हैं. समाज स्थिर भी नहीं रहता, समय के साथ बदलता रहता है. इसलिए यह तो नहीं कहूँगा कि निगम और मेनन की यह किताब कुछ बिल्कुल सच और नयी बात कहती है, लेकिन फ़िर भी इस किताब को बहुत दिलचस्पी से पढ़ा, और लेखकों के विशलेषण ने बहुत कुछ सोचने को दिया.

वैसे पिछले वर्ष के बिहार चुनावों के बारे में सोचा जाये तो मेरी दृष्टि में नितिश कुमार ने शायद "अन्य पिछड़े गुटों" के भीतर बसने वाले अन्य गुटों जैसे कि औरतों की आकाँक्षाओं पर ज़ोर दे कर, इस विमर्श में नयी जटिलता जोड़ दी है. आधुनिकता अगर आर्थिक विकास और वैश्वीकरण से प्रभावित हो रही है और दूसरी ओर, गणतंत्र में ताकत पाना आधुनिकता के मूल्यों को चुनौती दे रहा है, तो अंत में इसका गणतंत्र पर क्या प्रभाव पड़ेगा?

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शुक्रवार, मार्च 18, 2011

बीते दशक के सबसे प्रिय गीत

सुबह अचानक मन में आया कि जैसे जैसे उम्र बीतती हैं, दिन अधिक तेज़ी से गज़रने लगते हैं. लगता है कि अभी कल ही तो नव वर्ष के कार्ड भेजे थे, आज हवा में वँसत के ताज़े फ़ूलों की महक कल आने वाली गर्मी की असहनीय उमस का संदेशा दे रही है. फ़िर सोचा कि नये सहस्रयुग की पहली सदी का पहला दशक पूरा हो गया, पता ही नहीं चला. धर्मवीर भारती की कविता याद आती हैः

"दिन यूँ ही बीत गया
अँजुरी में भरा हुआ जल
जैसे रीत गया"

फ़िर सोचा कि समय के साथ तकनीकी कितनी जल्दी बदल रही है. कल की ही बात लगती है कि टेलेक्स, डोस (Dos) प्रयोग करने वाले कम्पयूटर, फाक्स, न्यूज़ग्रुप जैसी तकनीकें आयीं और चली भी गयीं. मेरे कुछ मित्र अब आईपेड का प्रयोग करते हैं पर मैं कोई चीज़, विषेशकर तकनीकी उपकरण, जल्दी नहीं बदलता.

लोग कहते हैं कि इन तकनीकों की वजह से लोग किताबें नहीं पढ़ते. मुझे नहीं लगता कि एक दिन कोई किताबें नहीं पढ़ेगा, मेरे विचार में लोग हमेशा किताबें पढ़ेंगे, फ़िल्मे देखेगे क्योंकि इनमें कहानियाँ हैं और मानव की कहानियाँ सुनने सुनाने की आदत तो आदिकाल से है. हाँ शायद कागज़ की किताब की जगह और सिनेमाहाल की जगह आईपेड या कुछ नया उपकरण ले लेगा.

फ़िल्मों की बात मन में आयी तो मन पंसद गीतों के बारे में सोचने लगा. इसी लिए लिस्ट बनाने की सोची कि पिछले दशक, यानि 2001 से 2010 के सबसे अच्छे संगीत वाली फ़िल्में कौन सी थीं? यानि वह फ़िल्में जिनमें केवल एक-दो याद रखने वाले गीत नहीं हों, बल्कि फ़िल्म का सारा संगीत मुझे पंसद होना चाहिये.

एक ज़माने में इस तरह की लिस्ट बनाते हुए यह याद करना असम्भव था कि दस साल पहले कौन सी फ़िल्में आयी थीं, पर आज गूगलदेव और विकिपीडिया देवी की मदद से हर साल की फ़िल्मों की लिस्ट खोजना आसान है. मेरी शर्त यह भी थी कि मेरी लिस्ट में शामिल होने के लिए फ़िल्म का संगीत इतना अच्छा होना चाहिये कि उस फ़िल्म का नाम सुनते ही उसके गीत अपने आप याद आ जायें, उन्हें खोजना न पड़े. तो प्रस्तुत है मेरी मन पसंद फ़िल्मों की लिस्ट जिनका संगीत मुझे सबसे अच्छा लगा.

Grafic by S Deepak on best Bollywood music 2001-2010

2001 में आयी फ़िल्मों में से कई फ़िल्मों का संगीत मुझे अच्छा लगा था जैसे कि - 'अशोका' (अनु मल्लिक), 'रहना है तेरे दिल में' (हेरिस जयराज) और 'ज़ुबैदा' (ए आर रहमान), लेकिन इतने साल बाद भी जिस फ़िल्म का संगीत दोबारा सुनने का मन करता है, वह है 'लगान' जिसमें संगीत था ए आर रहमान का. 'मितवा', 'राधा कैसे न जले', 'ओ पालनहारे' जैसे गीतों को याद करने के लिए कोई कठिनाई नहीं होती.

2002 में आयी फ़िल्मों में से मुझे संगीत अच्छा लगा था 'साथिया' (रहमान), 'देवदास' (इस्माईल दरबार), 'फ़िलहाल' (अनु मल्लिक), और 'लेजेंड आफ़ भगत सिंह' (रहमान) का. लेकिन जिस फ़िल्म का संगीत आज भी याद है वह थी 'सुर' जिसमें संगीत था एम एम करीम का. इस फ़िल्म से 'आ भी जा', 'खोया है तूने क्या ए दिल', 'क्या ढूँढ़ता है' और 'आवे मारिया', मुझे बहुत अच्छे लगे थे.

2003 में आयी फ़िल्मों से अच्छा संगीत वाली फ़िल्मों की सोचूँ तो 'कोई मिल गया', 'कल हो न हो', 'चलते चलते', 'झँकार बीटस' आदि के नाम याद आते हैं, लेकिन ऐसा कुछ नहीं जिसे आज सुनना चाहूँगा. इस साल की फ़िल्मों से 'जिस्म' में श्रेया घोषाल का गाया "जादू है नशा है" की याद है लेकिन इस फ़िल्म से भी कोई और गीत याद नहीं आता.

2004 में निकली फ़िल्मों से मुझे सबसे पहले 'मीनाक्षी', 'स्वदेश' और 'युवा' में रहमान का संगीत याद आता है. इन तीनो फ़िल्मों में कई गीत है जो मुझे अब भी सुनना अच्छा लगता है. उसके अतिरिक्त 'धूम' और 'लक्ष्य' का संगीत भी अच्छा लगा था, लेकिन अगर इस साल की एक फ़िल्म चुननी हो तो वह होगी 'चमेली' जिसमें संगीत था संदेश शाँदलिया का. इसका 'भागे रे मन' जितनी बार सुन लूँ, मन नहीं भरता.

2005 में प्रदर्शित होने वाली फ़िल्मों में इतनी फ़िल्में थीं जिनका संगीत मुझे अच्छा लगा था कि एक फ़िल्म को चुनना कठिन है. 'किसना' और 'वाटर' में रहमान का संगीत, 'पहेली' और 'रोग' में एम एम करीम का संगीत, 'परिणीता' में शाँतनु मोयत्रा का संगीत मुझे अच्छा लगा था. इसी साल हिमेश रेश्मैया ने 'आशिक बनाया आप ने' में धूम मचायी थी. 'बँटी और बबली' और 'दस' के गाने भी बढ़िया थे. बहुत सोच कर भी मैं इस साल की दो फ़िल्मों के बीच तय नहीं कर पा रहा कि मुझे सबसे अच्छी कौन सी फ़िल्म का संगीत लगा था, यह फ़िल्में थीं 'ब्लफ़ मास्टर' और 'मोर्निंग रागा'. 'ब्लफ़ मास्टर' में अभिशेख का गाया 'राईट हेयर राईट नाओ', 'से ना से ना शी डिट इट टू मी' जैसे गाने मुझे बहुत अच्छे लगे थे, जबकि 'मोर्निंग रागा' में मेरा परिचय हुआ था कर्नाटक संगीत से मिले जुले फ्यूजन संगीत से. इस फ़िल्म से 'थाये यशोधा', 'माटी' और शबाना आज़मी की गायी तान मुझे बहुत प्रिय है.

2006 में आयी फ़िल्मों में 'ओंकारा', 'कभी अलविदा न कहना', 'जानेमन' और 'रंग दे बँसती' का संगीत मुझे अच्छा लगा था. 'जानेमन' से अनु मल्लिक का 'अजनबी शहर है' सुन कर मुझे 1960 के दशक की शंकर जयकिशन की याद आती है. 'कभी अल्विदा न कहना' से शंकर एहसान लोय का 'मितवा' बहुत सुन्दर था. लेकिन इन में ऐसी कोई फ़िल्म नही़ जिसे मैं चुनना चाहूँगा.

2007 की फ़िल्मों में से मेरी प्रिय हैं प्रीतम की 'लाईफ़ इन ए मेट्रो' और 'जब वी मेट', और रहमान की 'गुरु'. 'नमस्ते लँडन' से हिमेश का 'मैं जहाँ रहूँ' बहुत अच्छा लगा था. 'तारे ज़मीन पर' का संगीत भी अच्छा लगा था. लेकिन इस साल सबसे पंसदीदा संगीत 'झूम बराबर झूम' फ़िल्म से था जिसमें संगीत था शंकर एहसान लोय का. तीन साल बाद भी इसके गाने मेरे आईपोड पर हैं.

2008 में एक बार फ़िर बहुत सी ए आर रहमान की फ़िल्मों का संगीत बहुत अच्छा था - 'गज़नी', 'जाने तू या जाने न' और 'जोधा अकबर'. इनके अतिरिक्त मुझे 'सिंग्ह इज़ किंग' और 'रेस' के गाने भी अच्छे लगे थे. पर साथ ही 'राक ओन' में शंकर एहसान लोय का संगीत बहुत अच्छा लगा था. इस साल की फ़िल्मों से सबसे पंसदीदा फ़िल्म एक फ़िल्म नहीं चुन पा रहा, 'जोधा अकबर' और 'राक आन' के बीच में फैसला नहीं कर पा रहा.

2009 में मुझे अच्छा संगीत लगा था 'लव आज कल', 'कुर्बान' और 'लंडन ड्रीमस' का, लेकिन इस साल दो फ़िल्मों का संगीत इतना अच्छा लगा कि दो साल के बाद भी, इन्हें अक्सर सुनता रहा हूँ - विशाल भारद्वाज की 'कमीने' और रहमान की 'दिल्ली 6', और इन दोनो के बीच से एक फ़िल्म को नहीं चुन पाता.

अंत में पिछले दशक के आखिरी साल 2010 में भी बहुत सी फ़िल्मों का संगीत मुझे अच्छा लगा जैसे 'खेलें हम जी जान से', 'स्ट्राईकर', 'राजनीति', 'वनस अपोन ए टाईम एइन मुम्बई', 'इश्किया', 'गुज़ारिश', 'बैंड बाजा बारात', आदि. इस साल से मेरा चुनाव है 'लम्हा' जिसमें मिथून का संगीत था. इस फ़िल्म से 'मदनों', 'साजना', 'रहमत खुदा' जैसे गाने मुझे लगता है कि कई साल बाद भी मुझे अच्छा लगते रहेंगे.

तो अगर मेरे पसंद की फ़िल्मों की लिस्ट बनायी जाये जिनका संगीत मुझे सबसे अच्छा लगा तो उसमें होंगी यह 11 फ़िल्में - लगान, सुर, चमेली, ब्लफ़ मास्टर, मार्निंग रागा, झूम बराबर झूम, जोधा अकबर, राक ओन, कमीने, दिल्ली 6 और लम्हा.

हम सब की पसंद भिन्न होती है, अगर आप से पूछा जाये कि आप को कौन सी फ़िल्म का संगीत सबसे अच्छा लगा तो आप क्या कहेंगे?

मुझे इन 11 में एक फ़िल्म चुननी हो तो मैं चुनूँगा, दिल्ली 6 को. अगर आप से पिछले दशक की एक फ़िल्म को चुनने का कहा जाये जिसका संगीत आप सबसे अच्छा लगा तो आप किस फ़िल्म को चुनेंगे?

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बुधवार, मार्च 16, 2011

देशभक्ती और भाषा

हिन्दी के भविष्य के बारे में चिन्ता भरी चर्चा हो रही हो, तो हम यह सवाल भी पूछ सकते हैं कि दुनिया की अन्य भाषाओं में भी क्या आज ऐसी ही चर्चाएँ हो रही हैं? और अगर हाँ तो वे क्या सोच रहे हैं, कर रहे हैं और उनसे क्या हम कुछ सीख सकते हैं. चूँकी मैं इटली में रहता हूँ, यूरोप में फ्राँसिसी, जर्मन आदि भाषाओं की इस तरह की चर्चा सुनने को मिलती हैं, लेकिन इस समय मैं केवल इतालवी भाषा में होने वाली चर्चा की करना चाहता हूँ.

इस वर्ष इटली के एक हो कर राष्ट्र बनने की 150वीं वर्षगाँठ मनायी जा रही है. इस बात पर इतने झगड़े हो रहे हैं कि सुन कर अचरज होता है. अचरज इसलिए कि बहस में लोग इटली की एकता के विरुद्ध टीवी और अखबारों में खुले आम बोलते हैं, लेकिन इस पर कोई "देशद्रोही" कह कर या "देश का अपमान किया" कह कर, कोई यह बात नहीं कर रहा कि इन्हें जेल होनी चाहिये या इन पर मुकदमा होना चाहिये. जैसे कि उत्तर पूर्वी इटली के राज्य आल्तो अदिजे (Alto Adige) के मेयर ने टीवी पर साफ़ कह दिया कि वह इटली की एकता के किसी समारोह में भाग नहीं लेंगे और न ही उन्हें इटली की एकता की कोई खुशी है. इसका कारण है कि इटली का यह हिस्सा प्रथम विश्वयुद्ध के पहले आस्ट्रिया का हिस्सा था और युद्ध में आस्ट्रिया की हार के बाद इटली से जोड़ दिया गया था. आज भी वहाँ के बहुत से लोग आपस में और घर में जर्मन भाषा बोलते हैं. हालाँकि यूरोपीय संघ बनने के बाद से इटली और आस्ट्रिया के बीच की सीमा का आज सामान्य जीवन में कुछ असर नहीं, पर पुराने घाव हैं जिन्हें वह खुले आम कहते हैं.

इटली की सरकार में "लेगा नोर्द" (Lega Nord) नाम की पार्टी भी है जिसके लोग सोचते हैं कि उत्तरी इटली के लोग, दक्षिणी इटली से भिन्न और ऊँचे स्तर के हैं. इनका पुराना नारा था कि "रोम के लोग सब चोर हैं और हम चोरों की सरकार को नहीं मानेगें". इस नारे को उन्होंने सरकार में शामिल होने के बाद, कुछ सालों के लिए स्थगित कर दिया है. यह पार्टी उत्तरी इटली को अलग देश बनाने की बात करती थी, पर सरकार में आने के बाद इनका राग थोड़ा सा बदल गया है. अब यह लोग अलग देश बनाने की बजाय बात करते हैं राज्यों के फेडरेलाइज़ेशन की, यानि देश के विभिन्न राज्यों को अपने निर्णय लेने की और अपनी नीतियाँ निर्धारित करने की स्वतंत्रता हो. देश की एकता की 150वीं वर्षगाँठ को इनमें से कुछ लोग शोक दिवस के रूप में देखते हैं, इसलिए इनमें से बहुत से लोग इस बात से भी सहमत नहीं कि इस वर्ष राष्ट्र एकता दिवस की 17 मार्च को विषेश राष्ट्रीय छुट्टी दी जाये.

"सारे देश में एक दिन की छुट्टी नहीं की जा सकती. उससे तो हमारी फैक्टरियों का, हमारे काम का बहुत नुक्सान होगा. वैसे ही मन्दी चल रही है, उस पर से एक दिन की एक्स्ट्रा छुट्टी, यह हम नहीं मान सकते", इस तरह की बातें करने वाले स्वयं सरकारी मंत्री भी थे. पहले सरकार ने घोषणा की कि 17 मार्च को पूरे देश में सरकारी छुट्टी होगी, पर जब सरकारी मंत्री ही इस छुट्टी के खिलाफ़ बोलने लगे तो सरकार ने कहा कि इस विषय पर मंत्री मीटिंग में बात की जायेगी. एक महीने तक बहस होती रही कि यह छुट्टी दी जाये या नहीं. आखिरकार छुट्टी को मान लिया गया, लेकिन साथ ही यह भी कहा गया कि अगर कोई इस दिन अपनी फैक्ट्री, दुकान या सुपरमार्किट खोले रखना चाहता है तो उन्हें इसकी छूट होगी.

इस पर कुछ अन्य पार्टियों ने और कामगार यूनियनों ने अभियान चलाया कि देश की एकता के विरुद्ध बोलने वालों को करारा जवाब दिया जाये और कई दिनों से कह रहे हैं कि 17 मार्च को हर घर की एक खिड़की पर इटली का राष्ट्रीय झँडा लगा होना चाहिये. मेरी एक मित्र बोली, "यह दुनिया इतनी बदल गयी है कि समझ में नहीं आता कि हमारी पहचान क्या है? मैं पुरानी कम्यूनिस्ट हूँ, हम लोग राष्ट्रवाद के विरुद्ध लड़ते थे, हम कहते थे केवल अपने देश की बात नहीं, बल्कि दुनिया में शाँति होनी चाहिये. तब राष्ट्रीय झँडा वह दकियानूसी लोग लगाते थे जो कहते थे कि हमारा देश सब अन्य देशों से ऊँचा है, हमारी संस्कृति सबसे अच्छी है, विदेशियों को देश से निकालो. आज वे दकियानूसी लोग देश का झँडा नहीं लगाना चाहते, और हम कम्यूनिस्ट हो कर देश का झँडा लगाने की बात रहे हैं."

इन चर्चाओं को सुन कर मुझे भारत में होने वाली कश्मीर या नागालैंड में स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस मनाया जाये या नहीं वाली चर्चाएँ याद आती हैं, हालाँकि भारत में इस तरह की बातों पर लोग बहुत गुस्सा हो जाते हैं, मरने मारने की बातें करने लगते हैं.

इस तरह की बहसों के साथ साथ, देश की भाषा के बारे में कुछ इस तरह की चर्चाएँ भी हो रही हैं जिसमे मुझे लगा कि शायद भारत में हिन्दी के बारे में होने वाली चर्चा से कुछ समानताएँ हैं.

इटली में हर क्षेत्र की अपनी स्थानीय बोली थी, लेकिन स्कूलों में केवल इतालवी भाषा में ही पढ़ायी होती है. पिछले कुछ सालों में वह लोग बढ़े हैं जो "हमें अपनी स्थानीय बोलियों पर गर्व है" की बात करते हैं. यह लोग इन स्थानीय भाषाओं में रेडियो प्रोग्राम करते हैं, नाटक, गीत समारोह आदि का आयोजन करते हैं, ब्लाग लिखते हैं. लेकिन युवा वर्ग को पुरानी स्थानीय बोलियों का उतना ज्ञान नहीं. धीरे धीरे स्थानीय बोलियाँ लुप्त हो रही हैं, युवा लोग घर में, और आपस में केवल इतालवी भाषा ही बोलते हैं.

दूसरी ओर पिछले दो दशकों में इटली में अंग्रेज़ी जानने बोलने की क्षमता पर भी बहुत सी बहसें हो रही हैं. नौकरी खोज रहे हों तो अंग्रेज़ी जानने से नौकरी मिलना अधिक आसान है. लेकिन भारत में हिन्दी की स्थिति से एक महत्वपूर्ण अंतर है. भारत में अच्छी नौकरी के लिए हिन्दी न भी आती हो तो कोई फर्क नहीं पड़ता जबकि यहाँ पर बिना अच्छी इतालवी भाषा जाने काम नहीं चल सकता. अब यहाँ अंग्रेज़ी पहली कक्षा से ही पढ़ायी जा रही है. कम्पयूटरों और तकनीकी विकास के साथ, इतालवी भाषा में अंगरेज़ी के शब्दों के आने से भी चिन्ता व्यक्त की जाती है कि हमारी भाषा बिगड़ रही है, इसका क्या होगा!

वामपंथी पार्टी के अखबार ल'उनिता (L'Unità) यानि "एकता" ने कुछ दिन पहले एक इतालवी चिट्ठाकारों की गोष्ठी आयोजित की जिसमें देश की एकता की बात की गयी कि देश का चिट्ठाजगत इस विषय में क्या सोचता है? एक जाने माने चिट्ठाकार लियोनार्दो (Leonardo) ने इस बारे में अपने चिट्ठे में लिखाः
"आज जितने लोग इतालवी भाषा में लिखते हैं, छापते हैं, इतिहास में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ. भाषा विषेशज्ञ रोना रोते हैं कि भाषा का स्तर खराब हो रहा है, और उनकी बात अपनी जगह पर ठीक भी है. लेकिन मात्रा की दृष्टि से देखा जाये तो इतालवी भाषा में पिछले एक वर्ष में इतना लिखा गया जितना इंटरनेट के आविष्कार के बाद के पहले पंद्रह सालों में नहीं लिखा गया था. आज इंटरनेट पर इतालवी भाषा के चिट्ठे, वेबपन्ने, चेट, नेटवर्क फ़ल फ़ूल रहे हैं, हर कोई लिखना चाहता है.

बहुतों ने इटली की एकता की 150वीं वर्षगाँठ पर भी लिखा है, चाहे यही लिखा हो कि वह देश की एकता नहीं मनाना चाहते, कि जीवन में और बहुत सी कठिनाइयाँ हैं नागरिकों की, वे लोग उनकी बात करना चाहते हैं, पर यह सब बातें इतालवी भाषा में लिख रहे हैं ...

अगर आज देश की एकता के लिए जान देने वाले लोग यहाँ आकर हमें देख सकते तो वे क्या सोचेंगे? वे हैरान होगें और खुश होंगे यह देख कर कि देश के उत्तर से ले कर दक्षिण तक कितने लोग इतालवी भाषा में लिख रहे हैं. उनके समय में यह देश विभिन्न बोलियों में बँटा था और उन्होंने निर्णय किया था कि देश को एक बनाने के लिए उसे एक भाषा देनी होगी. आज हम इस भाषा में कितना लिख रहे हैं, हर कोई किताब, कविता, चिट्ठा लिख रहा है, हम लिखते हुए थकते नहीं. इतालवी भाषा के विकिपीडिया में 7 लाख अस्सी हज़ार विषयों पर लेख हैं, इतने तो स्पेनी भाषा में भी नहीं जो कि बीस देशों में बोली जाती है. यह सच है इतालवी भाषा इन सालों में बहुत बिगड़ी है, पर जितनी जीवित आज है इतनी पहले कभी नहीं थी. आज हम सब इसी भाषा के गाने गाते हैं, इसी भाषा में फ़िल्म देखते हैं, इसी भाषा में चेट करते हैं, चिट्ठे लिखते हैं."
क्या इसका मतलब है कि भारत में इंटरनेट के फ़ैलने से हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं को बढ़ने का मौका मिलेगा? भारत में धीरे धीरे इंटरनेट का विस्तार हो रहा है, साथ ही हिन्दी, तमिल, तेलगू, मराठी, बँगाली आदि भाषाओं में लिखने का विस्तार भी हो रहा है. नयीं तकनीकें जो भारत में बन रही है, टेलीफ़ोन, कम्पयूटर, ईपेड आदि, इन सबको केवल पैसे वालों के लिए ही नहीं बल्कि जनता के बाज़ार में बिकना है तो हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं को जगह देनी ही होगी. हर कोई अपनी बात कहना चाहता है, पर अपने तरीके से. जब उस 90 प्रतिशत भारत को मौका मिलेगा अपनी बात कहने का तो वह हिन्दी में या अपनी भाषा में ही करेगा.

तकनीकी में, विज्ञान में, इतिहास और कला में, आज कहीं भी विश्वविद्यालय स्तर की शोध का काम अगर हिन्दी में किया जाये तो उसे वह सम्मान नहीं मिलता जो अंग्रेज़ी में किये जाने वाले काम को मिलता है. शायद इसलिए कि आज उस 90 प्रतिशत की आर्थिक ताकत कम है. लेकिन कल तकनीकी के विकास के साथ जब वह 90 प्रतिशत इन विषयों को समझना जानना चाहेगा, तो हिन्दी में यह काम बढ़ेगा, इसलिए नहीं कि कुछ लोग हिन्दी प्रेमी हैं, बल्कि इसलिए कि बाज़ार उसकी माँग कर रहा है.

Flags and languages - design by Sunil Deepak

जिन्हें हम भारत में "अंग्रेज़ी भाषी" कहते हैं, उनमें से बहुत सा हिस्सा बोलने लायक अंग्रेज़ी तो जानता है पर वह भारतीय अंग्रेज़ी है जिसे समझने के लिए विदेशियों को अनुवाद की आवश्यकता होती है. इस अध कच्ची अंग्रेज़ी का विकास किस ओर होगा? शुद्ध अंग्रेज़ी की ओर या अपनी भाषाओं की ओर? जब भारतीय भाषाओं का बाज़ार बढ़ेगा तो क्या यह भारतीय अंग्रेज़ी एक दिन उन्हीं में घुल मिल जायेगी?

शुक्रवार, मार्च 04, 2011

हाहाकार का नाम

"ख़ामोशी" फ़िल्म में गुलज़ार साहब का एक बहुत सुन्दर गीत था, "हमने देखी हैं उन आँखों की महकती खुशबु ... प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो". लेकिन अगर आँखों में प्यार नहीं हाहाकार हो तो क्या उसे नाम देने की कोशिश करना ठीक है?

कुछ दिन पहले घुघूती बासूती जी के चिट्ठे पर "बच्चा खोने के दर्द" में जमनीबाई की कहानी पढ़ते पढ़ते, अचानक मन में कुछ साल पहले की एक पार्टी की याद उभर आयी थी. मेरे साथ काम करने वाले मित्र के यहाँ थी वह पार्टी. वहीं मेरी मुलाकात एक अर्जेनटीनी युवक से हुई जो तब जेनेवा में रहता था. मैं तब कई महीने तक जेनेवा में रह कर वापस इटली लौटा था और हम लोग आपस में जेनेवा में रहने के अपने अनुभवों की बात कर रहे थे. क्या नाम था उसका यह याद नहीं, लेकिन क्या बात कही थी उसने, वह याद है.

खाना लगा तो हम दोनो साथ साथ ही बैठे और बातें करते रहे. खाना समाप्त हुआ तो हम दोनो वाईन का गिलास ले कर, बाहर बालकनी में आ खड़े हुए. मेरे मित्र का घर पहाड़ी पर है और बालकनी के नीचे बड़ा बाग है, जहाँ महमानों के बच्चे शोर मचाते हुए खेल रहे थे. पहाड़ी पर उतरती शाम के साये, हल्की सी ठँड, बहुत सुन्दर लग रहा था. यात्राओं की बात चल रही थी, तो उसने अपने पंद्रह बीस साल पहले के एक अनुभव के बारे में बताना शुरु किया जब वह बुओनुस आयरस के विश्वविद्यालय से एन्थ्रोपोलोजी में नयी स्नातक डिग्री ले कर निकला था और अपने विश्वविद्यालय के कुछ मित्रों के साथ मिल कर वहीं के एक छोटे से फोरेन्सिक एन्थ्रोपोलोजी में काम करने वाले एक छोटे से गुट में काम करने लगा था.

एन्रथ्रोपोलोजी यानि मानवविज्ञान में मानव जीवन, रहन सहन, रीति रिवाज़, सभ्यता जैसे विषयों को पढ़ा जाता है, जैसे कि लोग आदिवासी जातियों के बारे में यह सब बातें जानने की कोशिश करते हैं. "फोरेन्सिक एन्थ्रोपोलोजी" (Forensic anthropology) यानि "कानूनी मानवविज्ञान", हड्डियों और अन्य मानव अवषेशों की सहायता से उनके बारे में जानने की कोशिश करता है. यही काम था उस गुट का, सत्तर के दशक में अर्जेन्टीना में हुए तानाशाही शासन में गुम कर दिये गये लोगों की सामूहिक कब्रों से हड्डियाँ निकाल कर, यह समझने की कोशिश करना कि वह किसकी हड्डियाँ थीं और उन्हें उस व्यक्ति के परिवार को देना ताकि वह उसका ठीक से संस्कार कर सकें. कुछ ही सालों में यह गुट इस तरह के काम करने में इतना दक्ष हो गया था कि आसपास के देशों से भी उन्हें बुलावे आने लगे थे कि वहाँ जा कर सामुहिक कब्रों में रखे अवषेशों की पहचान में उनकी मदद करें.

इसी काम में उस युवक को ग्वाटेमाला जाने का मौका मिला था, जिस यात्रा की वह बात बता रहा था, "बड़ी सामुहिक कब्र थी, जिसमें उन्होंने सौ से भी अधिक बच्चे मार कर डाले थे. उनकी हड्डियों को जोड़ कर शवों को अलग अलग करके पहचानने की कोशिश करने का काम था. सभी बच्चे बारह साल से छोटी उम्र के थे. बच्चों की हड्डियाँ देखने लगे तो समझ में आया कि उन्हें किस तरह मारा गया था. शायद उनके पास गोलियाँ कम थीं या गोलियाँ मँहगी होती हैं और वह इतना खर्चा नहीं करना चाहते थे. तो वह लोग बच्चे का सिर चट्टान पर मार कर फोड़ते थे और फ़िर उसके शव को नीचे खड्डे में फैंक देते थे."

शायद वाईन का असर था या उस सुन्दर शाम का, मैं पहले तो स्तब्ध सुनता रहा, फ़िर मुझे रोना आ गया. मुझे रोता देख वह चुप हो गया.

बासूती जी की पोस्ट पढ़ी तो यह बात याद आ गयी. दुनिया में कितने बच्चों का दर्द जिनके माता पिताओं को गायब कर दिया गया, कितने माता पिताओं का दर्द, जिनके बच्चों को गायब कर दिया गया.

मैंने इंटरनेट पर फोरेन्सिक एन्थ्रोपोलोजी के उस अर्जेन्टीनी गुट के बारे में खोजा तो मालूम चला कि उसका नाम है एआफ यानि "एकीपो अर्जेन्टिनो दे एन्थ्रोपोलोजिया फोरेन्से" (Equipo Argentino de Antropología Forense, EAAF). उनके बारे में अधिक जानना चाहते हैं तो उनके वेबपृष्ठ पर पढ़ सकते हैं. इंटरनेट पर एआफ की सन 2007 की वार्षिक रिपोर्ट भी है जिसमें उनके काम के बारे में बहुत सी जानकारी मिलती है.

मुझे इस रिपोर्ट में उन देशों की लम्बी लिस्ट देख कर हैरत हुई, जहाँ एआफ को इस तरह सामूहिक कब्रों में हड्डियों की पहचान के लिए बुलाया गया है. यानि दुनिया के इतने सारे देशों में तानाशाहों ने, या तथाकथित जनतंत्रों में भी पुलिस या मिलेट्री ने कितने हज़ारों लोगों को मारा होगा! हड्डियों से पहचानना कि यह कौन सा व्यक्ति था, इस काम में अर्जेन्टीना का यह गुट "एआफ" दुनिया के सबसे अनुभवी गुटों में गिना जाता है और यह लोग एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमरीका के विभिन्न देशों में काम कर चुके हैं. कुछ वर्ष पहले उन्होंने दक्षिण अमरीकी क्राँतिकारी चे ग्वेवारा के अवषेशों से उनकी कब्र को पहचान कर बहुत प्रसिद्ध पायी थी. जब एआफ ने काम करना शुरु किया था तो डीएनए की जाँच करना संभव नहीं था लेकिन पिछले दशक में यह तकनीक बहुत आसान हो गयी है और पहचान में आसानी हो गयी है. अपने बच्चों या प्रियजनों को खोजने वालों से थोड़ा सा खून देने को कहा जाता है और उस खून के डीएनए को हड्डियों के डीएनए से मिलाया जाता है.

सब लोगों के शव नहीं मिलते. एक एक करके मारना खर्चीला होता है, कहते हैं कि अर्जेन्टीना में लोगों को मिलट्री वाले जहाज़ में बिठा कर ले जाते थे, और समुद्र के ऊपर सबको बाहर धक्का दे देते थे.

Monument to the dead, certosa cemetry, Bologna

सत्तर के दशक में अर्जेंन्टीना में करीब 9000 लोग "गुम" किये गये. पहले तो सालों तक उन लोगों की माएँ, नानियाँ, दादियाँ लड़ती रहीं यह जानने के लिए कि उनके बच्चों का क्या हुआ. जिन नवयुवकों और नवयुवतियों को "गुम" किया गया, कई बार उनके बच्चों को नहीं मारा गया, बल्कि, उनके माँ बाप को मारने वाले मिलेट्री वालों के कुछ परिवारों ने उन्हें अपने बच्चों की तरह पाला. आज भी, तीस चालिस सालों के बाद, उन्हीं परिवारों की नयी पीढ़ियाँ इसी लड़ाई में लगे हैं, या जानने के लिए कि उनके परिवार के लोगों का क्या हुआ. बहुतों के मन में आशा है कि शायद उनके खोये हुए बच्चों का पता मिल जाये. वह न भी मिले, परिवार वालों को अपने प्रियजन के मृत शरीर के अवषेश मिलना भी एक तरह की मानसिक शाँती है जिससे कि सालों की खोज और उससे जुड़ी आशा समाप्त हो जाती है.

हमारे रिश्ते, हमारे परिवार, हमारे बच्चे ही हमारे जीवन का सार हैं. उनके बिना जीवन भी अर्थहीन लगे. अगर अपना किसी दुर्घटना में मरे या मार दिया जाये, तो भी वेदना कम नहीं होती, लेकिन मन को समझ तो आ जाता है कि जाने वाला चला गया. जिन्होंने अपने खोये हैं, जो एक दिन घर से निकले फ़िर वापस नहीं आये, या जिन्हें पुलिस ले गयी पर उनका कुछ पता नहीं चले कि क्या हुआ, तो मन भटकता ही रहेगा, इसी आशा में शायद कहीं किसी तरह से बच गयें हों और एक दिन मिल जायें.

हड्डियों को नाम मिल जाने से, जिसे खोया था वह तो नहीं मिल सकता लेकिन उसे खोने का जो हाहाकार आँखों में बसा होता है, उसे एक नाम मिल जाता है.

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बुधवार, मार्च 02, 2011

दुनिया का पाकिस्तानीकरण

कुछ समय पहले सूडान में एक जनमत हुआ जिसमें देश के दक्षिणी भाग में रहने वाले लोगों को चुनना था कि वह सूडान में रहना चाहेंगे या फ़िर अपना अलग देश चाहेंगे. इस जनमत का नतीजा निकला है कि 98 प्रतिशत से अधिक दक्षिणी सूडान के लोग अपने लिए अपना अलग देश चाहते हैं. अधिकतर लोगों ने इस जीत का स्वागत किया है, वह कहते हैं कि इससे लाखों लोगों की मृत्यु और वर्षों से चलते दंगों का अंत होगा. धर्म के नाम पर अलग देश चाहने वालों की जीत से मेरे मन में बहुत से प्रश्न उठे, जिनके उत्तर शायद आसान नहीं.

अफ्रीकी जीवन के विषेशज्ञ प्रोफेसर अली मज़रुयी का एक लेख पढ़ा जिसमें मुझे अपने प्रश्नों की प्रतिध्वनि दिखी. प्रोफेसर मरज़ुई ने इसे "दुनिया का बढ़ता हुआ पाकिस्तानीकरण" कहा है. उन्होंने लिखा हैः
यूरोपीय साम्राज्यवाद के बाद के अफ्रीका महाद्वीप में दो तरह की लड़ाईयाँ हुई हैं - आत्म पहचान की लड़ाईयाँ जैसे कि रुवान्डा में हुटू और टुटसी की लड़ाई, और प्राकृतिक सम्पदा की लड़ाई जैसे कि नीजर डेल्टा में पैट्रोल के लिए होने वाली लड़ाई... पर अफ्रीकी महाद्वीप में 2000 से अधिक जाति गुट बसते हैं, अगर उनमें से दस प्रतिशत को भी अपने लिए स्वतंत्र राज्य मिले तो अफ्रीका छोटे छोटे देशों में बँट जायेगा जिनमें आपस में युद्ध होंगे. ..अफ्रीका में होने वाले विभिन्न, अपना अलग राज्य पाने के प्रयासों के पीछे, अधिकतर जाति या नस्ल के प्रश्न रहे हैं, न कि धार्मिक प्रश्न. 1950 के दशक में क्वामे न्करुमाह जैसे अफ्रीका नेताओं ने "पाकिस्तानीकरण" के विरुद्ध, यानि धार्मिक बुनियादों पर अलग होने के विचार पर चिंता व्यक्त की थी. जब भारत का विभाजन हुआ था, कई अफ्रीकी राष्ट्रवादी नेता, ब्रिटिश भारत में हिंदू मस्लिम तनाव का कारण बता कर में भारत के विभाजन करने के विरुद्ध थे, क्योंकि जानते थे कि अफ्रीका में भी ऐसे कुछ देश थे, जहाँ इस तरह के निर्णय लिये जा सकते थे. जैसे कि नाईजीरिया जहाँ उत्तर में मुसलमानों का बहुमत है और दक्षिण में ईसाईयों का.

आखिर यह नीति सुडान तक पहुँच गयी है, ईसाई बहुमत वाला दक्षिणी भाग, उत्तरी मुस्लिम भाग से अलग हो जायेगा. दक्षिणी सूडानी कहते हैं कि उत्तरी सूडानी उनसे भेदभाव करते हैं... लेकिन दक्षिण सूडान भी अलग जाति गुटों से बना है. कल को वहाँ रहने वाली अल्पमत गुट कहने लगेगें कि डिंका लोग हमें समान अधिकार नहीं देते. पैट्रोल की सम्पदा को कैसे बाँटा जाये, भी जटिल प्रश्न होगा.
धर्म के नाम पर, या अन्य किसी जाति विभिन्नता के नाम पर अलग देश माँगना, एक ऐसा चक्कर है जो कहीं नहीं रुकता. पाकिस्तान अलग देश बना तो क्या उसके अपने बलूचियों, सिंधियों, पँजाबियों, पठानों के बीच के अंतर्विरोध मिट गये? भारत के उत्तर में कश्मीर की घाटी में इसी नाम से हिँसा आज भी जारी है. किसी भी देश के सब निवासियों को जाति, धर्म आदि के भेदों से ऊपर उठ कर विकास के समान अधिकार मिलें यह अवश्यक है, और उन्हें ऐसी सरकारें चाहियें जो यह नीति लागू कर सकें. पर जब ऐसा नहीं होता, या किसी गुट को लगे कि उसके साथ न्याय नहीं हो रहा, तो अलग अपना देश या राज्य माँगने लगते हैं. लेकिन मुझे लगता है कि अक्सर, बँटवारा चाहने वाले, समान विकास और अधिकारों के प्रश्न को महत्वपूर्ण नहीं मानते, अपनी जाति, मान, रीति और धर्म के प्रश्न उठा कर राष्ट्रवादी भावनाओं को भड़काते हैं और पीछे ध्येय होता है कि कैसा बाकी सब गुटों से ताकतवर बने और देश की सम्पदा को अपने काबू में रखें.

कुछ देशों में मुस्लिम बहुमत वाले इलाकों ने शरीयत पर आधारित काननों को सब पर लागू कराना चाहा है, वह ज़ोर डालते हैं कि सब लोग उनके कहे के अनुसार पहने, खायें, व्यवहार करें. इससे अलग होने की भावना तेज होती है. नाईजीरिया में इसी वजह से तनाव बढ़े हैं. भारत के कुछ हिस्सों में हिंदू संस्कृति या मुसलमान आत्मनिष्ठा के नाम पर लोगों पर इसी तरह के दबाव डालते हैं. यही वजह है कि जब सूडान के दक्षिण वाले लोगों के जनमत में अलग होने के निर्णय के बारे में सुना तो मुझे कुछ भय सा लगा कि इससे अलग होने वाले गुटों को बल मिलेगा.

आज की दुनिया की बहुत सी समस्याओं की जड़ें पिछली सदी के यूरोपीय साम्राज्यवाद में छुपी हैं. साम्राज्यवाद के समाप्त होने के बाद भी, यूरोप ने विभिन्न तरीकों से अफ्रीका, अमरीका और एशिया के देशों में अपने स्वार्थ के लिए तानाशाहों को सहारा दिया है, जिसमें देशों में रहने वाले विभिन्न गुटों को समान अधिकार नहीं मिले. आज जहाँ एक ओर विभिन्न अरब देशों में इजिप्ट, टुनिज़ि, लिबिया जैसे देशों में हो रहे जनतंत्र के आन्दोलन इस्लाम की नहीं, मानव अधिकारों के मूल्यों की आवाज़ उठा रहे हैं, वहीं जनतंत्र की दुहायी देने वाले यूरोपी नेता अपने तानाशाह मित्रों पर आये खतरे से घबरा कर "इस्लामी रूढ़िवाद" के डर की बात कर रहे हैं.

दूसरी ओर, यूरोप में रहने वाले अन्य देशों से आये प्रवासियों में रूढ़िवादी धार्मिक नेताओं की आवाज़, अपने मानव अधिकारों के नाम पर पारम्परिक रीति रिवाज़ों और मूल्यों को बनाये रहने की लिए ही उठती है. यही लोग अक्सर विदेशों से अपने देशों में रुढ़िवादी और देशों को बाँटने वाली ताकतों को पैसा भेजते हैं. वह यूरोप या अमरीका जैसे देशों में रह कर भी संस्कृति बचाने के नाम पर अपने परिवारों और गुटों पर पूरा काबू बना कर रखते हैं और आवश्यकता पड़ने पर मारने मरवाने से नहीं घबराते. उनमें नारी के समान अधिकारों या विकास की बात कम ही होती है. इस विषय यूरोप में रहने वाले मुसलमान नेताओं के बारे में फरवरी के "हँस" में शीबा जी ने लिखा हैः
कठमुल्ला वर्ग बड़ी बेशर्मी से फ्रांस के बुरक़ा बैन पर टीवी, अखबार आदि में अवतरित हो कर फ्रांस की सरकार को लोकताँत्रिक मूल्य याद दिलाने लगता है. तब इन्हें शर्म नहीं आती कि जिस मुँह से यह ज़बरदस्ती बुरक़ा उतारने को बुरा कह रहे हैं "चुनाव की आज़ादी" के आधार पर, उसी मुँह से इन्हें अरब ईरान आदि देशों में ज़बरदस्ती औरतों को बुरक़ा पहनाने की भर्त्सना भी तो करनी चाहिये जो उतना ही चुनाव के अधिकार का हनन है. लेकिन नहीं, इन्हें अरब ईरान पर उंगली उठाने की ज़रूरत महसूस नहीं होती क्योंकि वहाँ की ज़बरदस्ती इन्हें जायज़ लगती है.
पर यह बात केवल मुसलमान गुटों की नहीं है. अमरीका में रहने वाले कट्टरपंथी यहूदी गुट एक अन्य उदाहरण है जिनका ईज़राईल पर गहरा प्रभाव है.

धार्मिक रूढ़िवाद और परम्परा बनाये रखने वालों की लड़ाई है कि अपने आप को कैसे अन्य गुटों से अलग किया जाये, दुनिया को कैसे बाँटा जाये, कैसे अपने धर्म का झँडा सबसे ऊँचा किया जाये और कैसे अन्य सब धर्मों को नीचा किया जाये. उदारवाद और मानव अधिकारों की दृष्टि से देखें तो धर्म व्यक्तिगत मामला है, कानून के लिए सभी समान होने चाहिये, सबको समान अधिकार और मौके मिलने चाहिये. समय के साथ इन दोनों में से किसका पलड़ा भारी होगा, कौन से रास्ते पर जायेगी मानवता?

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रविवार, फ़रवरी 27, 2011

रँगबिरँगे मुखोटों का त्योहार

बहुत सालों से वेनिस के रँगबिरँगे मुखोटों के कार्नेवाल को देखने की इच्छा थी, लेकिन हर बार बीच में कोई न कोई अड़चन आ जाती थी. हमारे शहर बोलोनिया से वेनिस कुछ विषेश दूर नहीं, रेलगाड़ी से केवल दो घँटे का रास्ता है. करीब तीस वर्ष पहले जब इटली में नया था तब अस्पताल में साथ काम करने वाले मित्र मुझे शाम को साथ वेनिस ले गये थे, लेकिन तब वाइन पी कर हुल्लड़ करने में हमारी अधिक दिलचस्पी थी, तो क्या देखा था उसकी मन में बस कुछ धुँधली सी यादें थीं. इसलिए कल जब मौका मिला छोटा कार्नेवाल देखने का, तो उसे खोना नहीं चाहा. आज उसी वेनिस के मुखोटों वाले कार्नेवाल की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं.

Venice carneval, 2011

कार्नेवाल शब्द लेटिन से बना है, जिसका अर्थ है "कारने लेवारे" (Carne=meat, levare=remove), यानि "माँस को हटा दीजिये". जैसे मुसलमानों में रोज़े होते हैं, कुछ उसी तरह कैथोलिक ईसाई अपने त्योहार ईस्टर के पहले 40 या 44 दिनों का खाने का परहेज़ करते हैं, जिसमें माँस खाना वर्जित होता है. ईस्टर की तारीख रोमन कैलेंडर से नहीं बल्कि वसंत की पूर्णमासी से निर्धारित की जाती है, इसलिए हर साल अलग दिन पड़ती है. कार्नेवाल का दिन मँगलवार का होता है जिसे "मोटा मँगलवार" (Mardì Gras) कहते हैं, क्योंकि इस दिन खाने में माँस हटाने से पहले, लोग जी भर के माँस खाते हैं, पीते पिलाते हैं, मजे करते हैं. इस वर्ष मोटा मँगलवार, यानि कार्नेवाल होगा 8 मार्च को. पर अब यह केवल मस्ती का त्योहार ही रह गया है क्योंकि अब अधिकतर लोग खाने में कम खाने, सादा खाने या माँस न खाने में विश्वास नहीं करते.

कार्नेवाल के त्योहार को विभिन्न शहर अपने अपने ढंग से मनाते हैं, हाँलाकि हर कार्नेवाल में एक जलूस का होना आवश्यक होता है. ब्राज़ील में रियो दे जानेइरो शहर का कार्नेवाल अपनी रंगीन झाँकियों और थोड़े से वस्त्र पहने हुए साम्बा नाचने वालों के लिए प्रसिद्ध है. इस समय में वहाँ सेक्स की स्वच्छँदता भी बहुत होती है. भारत में गोवा का कार्नेवाल भी अपनी झाँकियों और मस्ती के लिए प्रसिद्ध है. इटली में बहुत से शहर अपने जलूसों और झाँकियों के कार्नेवाल के लिए जाने जाते हैं, लेकिन वेनिस का कार्नेवाल सबसे अनोखा माना जाता है क्योंकि इसमें सतारहवीं और अठाहरवीं शताब्दी की पोशाकों के साथ रँगबिरँगे मुखोटे जुड़े हैं.

आजकल कार्नेवाल में लोग बहुत मेहनत करते हैं, लाखों रुपये खर्च करते हैं वस्त्र और झाँकिया बनवाने में. साथ ही इसमें व्यवसायिक लाभ की बात भी जुड़ गयी है क्योंकि लाखों पर्यटक कार्नेवाल को देखने देश विदेश से आते हैं. तो कार्नेवाल की अवधि बढ़ा दी गयी है, "मोटे मँगलवार" के बड़े जलूस और असली कार्नेवाल के दो तीन सप्ताह पहले ही, शनिवार और रविवार को छोटे कार्नेवाल आयोजित किये जाते हैं ताकि अधिक से अधिक पर्यटक उन्हें देखने आयें.

कल 26 फरवरी को वेनिस में कार्नेवाल का पहला जलूस था. इसकी खासियत थी "सात मारिया की यात्रा", जिसमें शहर की सात सुबसे सुन्दर युवतियों को चुना जाता है, और शहर के युवक उन्हें पालकी में कँधे पर उठा कर ले जाते हैं, उनके पीछे पीछे शहर के जाने माने व्यक्ति प्राचीन पौशाकें पहन कर चलते हैं. वेनिस कार्नेवाल के अखिरी दिन, इन्हीं सात मारियों का नावों का जलूस निकलेगा, और सबसे सुन्दर युवती को "वेनिस की मारिया" का खिताब मिलेगा. कार्नेवाल के आखिरी दिन सबसे सुन्दर मुखोटे और पौशाक वाले व्यक्ति को भी चुना जायेगा.

कल की इसी वेनिस यात्रा से कार्नेवाल की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं. इन्हे देख कर आप स्वयं निर्णय ले सकते हैं कि वेनिस का कार्नेवाल अनूठा है या नहीं. घँटों चल चल कर और भीड़ में धक्के खा कर थकान से चूर हो कर घर लौटा पर मुझे लगा कि वाह, बहुत सुन्दर और रँगबिरँगा कार्नेवाल है.

Venice carneval, 2011

Venice carneval, 2011

Venice carneval, 2011

Venice carneval, 2011

Venice carneval, 2011

Venice carneval, 2011

Venice carneval, 2011

Venice carneval, 2011

Venice carneval, 2011

Venice carneval, 2011

Venice carneval, 2011

Venice carneval, 2011


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गुरुवार, फ़रवरी 24, 2011

मलदान मिलेगा?

कोई अगर अपनी जान बचाने के लिए आप से आप का थोड़ा सा ताज़ा किया हुआ पाखाना माँगे तो क्या आप देंगे? आप सोच रहे होंगे कि शायद यह कोई मज़ाक है. लेकिन यह कोई मज़ाक नहीं है, बल्कि वैज्ञानिक खोज का विषय है, जिसकी कहानी न्यु साईन्टिस्ट पत्रिका में श्री अनिल अनन्तस्वामी ने लिखी है.

Scene from Pushpak, Kamalahassan
"पाखाना" शब्द ही कुछ ऐसा है जिसका सामाजिक प्रभाव छोटी उम्र से ही बहुत तेज़ होता है जिसकी वजह से शब्द से भी कुछ घिन सी आने लगती है. कमालहसन की एक पुरानी फ़िल्म थी "पुष्पक" जिसमें कोई डायलाग नहीं थे, उसमें मलदान के कुछ दृश्य थे. अगर आप ने यह फ़िल्म देखी है तो मेरे विचार में इन दृश्यों को भूलना कठिन है. फ़िल्म में हीरो ने एक पुरुष को घर में बन्द किया है, और उसके पाखने को छुपाने के लिए हर रोज़ एक डिब्बे में बँद करके, उस पर रंगीन कागज़ चढ़ा कर, बसस्टाप के पास रख आता है, जहाँ उसे ले कर जो भी खोलता है वह पाखाना देख कर उल्टी कर देता है. तब रंगीन डिब्बों में बम आदि छोड़ने का काम नहीं शुरु हुआ था, इसलिए यह दृश्य विश्वस्नीय था, आज तो डिब्बा खोलने से पहले ही पुलिस बम विस्फोट टीम के साथ हाज़िर हो जायेगी.

खैर बात मज़ाक या फ़िल्म की नहीं, सचमुच की बीमारी की है.

हमारी आँतों में रहने वाले सूक्ष्म किटाणु विटामिन बनाते हैं, खाना हज़म करने में सहायता करते हैं और शरीर को स्वस्थ रखते हैं. अगर आप को कुछ दिन एँटीबायटिक खाने पड़े तो कई बार दस्त लग जाते हैं, क्योंकि एँटीबायटिक से अक्सर हमारे शरीर के यह किटाणु मर जाते हैं. अधिकतर तो यह दस्त की तकलीफ़ थोड़े से दिन ही रहती है, और धीरे धीरे, आँतों के किटाणुओं का विकास होने के साथ, अपने आप ठीक हो जाती है. लेकिन कभी कभी, अगर एँटीबायटिक से इलाज लम्बा करना पड़े या फ़िर व्यक्ति के शरीर में पहले से अन्य बीमारियों की कमज़ोरी हो, तो एँटीबायटिक की वजह से हुए दस्त जानलेवा भी हो सकते हैं. ऐसे में अक्सर आँतों में नये किटाणु बढ़ने लगते हैं जिनपर ऐटीबायटिक का असर कम पड़ता है और जिन्हें शरीर से हटाना बहुत कठिन होता है. ऐसे एक किटाणु का नाम है क्लोस्ट्रिडियम दिफ़िसिल (Claostridium difficile), जो अगर आँतों में बस जाये तो बहुत से लोगों की जान को खतरा हो जाता है.

अभी तक क्लास्ट्रिडियम दिफ़िसल जैसे किटाणुओं का इलाज़ नये और बहुत शक्तिशाली एँटीबायटिक से है किया जाता है जो मँहगे तो होते हैं पर फ़िर भी अक्सर मरीज़ को बचा नहीं पाते.

इस बीमारी का नया इलाज निकाला केनेडा के कालगरी शहर के अस्पताल में काम करने वाले कुछ चिकित्सकों ने. वह मरीज़ के परिवार वाले किसी व्यक्ति से, जिसे दस्त वगैरा न लगे हों, थोड़ा सा सामान्य पाखाना देने के लिए कहते हैं, जिसे नलकी द्वारा मरीज़ की आँतों के उस हिस्से में छोड़ा जाता है जहाँ यह नये कीटाणु अधिक होते हैं. उन्होंने पाया कि पाखाने में पाये जाने वाले सामान्य किटाणु इन नये किटाणुओं से लड़ने में एँटीबायटिक दवाईयों के मुकाबले में अधिक सफ़ल होते हैं, और कुछ दिनों में ही उनका सफ़ाया कर देते हैं. एक शौध ने दिखाया कि इस तरह परिवार के पाखाने से मिले सामान्य किटाणु मरीज़ के शरीर में 24 सप्ताह तक रह सकते हैं.

वैज्ञानिकों के अनुसार हमारा पाखाना किटाणुओं के चिड़ियाघर की तरह है, जिसमें 25 हज़ार तरह के विभिन्न किटाणु करोड़ों की संख्या में मिल सकते हैं. इनमें से बहुत से किटाणु सिमबायटिक होते हैं, यानी परस्पर फायदा करने वाले, अगर मानव शरीर से कुछ लेते हैं तो साथ ही मानव शरीर का फायदा भी करते हैं, विटामिन बना के, खाने को पचा के या हानिकारक किटाणुओं से लड़ कर. अपनी आँतों में रहने वाली इस किटाणु सम्पदा की रक्षा करने के लिए आवश्यक है हम लोगों को बिना ज़रूरत एँटीबायटिक दवाईयाँ नहीं खानी चाहिये, क्योंकि उनसे शरीर का फ़ायदा करने वाले किटाणु नष्ट हो जाते हैं.

एँटीबायटिक यानि वह दवाईयाँ जो बीमारी फ़ैलाने वाले सूक्ष्म किटाणुओं को मारती हैं, बहुत काम की चीज़ हैं. इनकी वजह से ही आज हम टीबी, कुष्ठ रोग, न्यूमोनिया, एन्सेफलाइटिस, जैसी बीमारियों को काबू में ला सकते हैं और इनकी वजह से लाखों जानें बचती हैं. आम उपयोग में आने वाली एँटीबायटिक हैं पैनिसिलिन, एम्पीसिलिन, जैंटामाइसिन, बेक्ट्रिम, रिफैम्पिसिन, आदि.

लेकिन एँटीबायटिक का असर वायरस यानि सूक्ष्म किटाणुओं से भी अतिसूक्ष्म जीवन कण जो कि आम फ्लू से ले कर एडस जैसी बीमारियाँ करते हैं, पर नहीं पड़ता. वायरस पर काबू पाने के लिए अलग दवाईयों की आवश्यकता होती है. एँटीबायटिक के अधिक गलत उपयोग इसी लिए होते हैं कि लोग फ्लू जैसी बीमारियों के लिए भी एँटिबायटिक ले लेते हैं. फ्लू जैसी बीमारी फ़ैलाने वाले वायरस, बिना एँटीबायटिक के शरीर कुछ दिनों में अपने आप साफ़ कर देता है.

दूसरी आम गलती है कि एक बार एँटीबायटिक का प्रयोग शुरु किया जाये तो कम से कम तीन या पाँच दिन दिन अवश्य लेना चाहिये लेकिन लोग "तबियत अब ठीक हो गयी है" सोच पर, इन्हें पूरा समय नहीं लेते, जिससे बीमारी वाले किटाणु पूरी तरह नहीं मरते और कभी कभी ऐसे किटाणुओं को जन्म देते हैं जिनपर किसी दवाई का असर नहीं होता.

पाखाने से इलाज का सुन कर दवा कम्पनियों ने तुरंत आपत्ति उठायी है कि यह इलाज गैरवैज्ञानिक सबूतों की बिनाह पर किया जा रहा है. इस तरह के इलाज होंगे तो दवा की बिक्री भी कम होगी, इसलिए भी कुछ दवा कम्पिनयाँ चिंता करती हैं. इसलिए इस चिकित्सा विधि पर कई जगह वैज्ञानिक शौध भी किये जा रहे हैं, जैसे कि होलैंड में और प्रारम्भिक परिणाम भी अच्छे लग रहे हैं.

design about excretion donation

यानि वह दिन भी आ सकता है जब अस्पताल में आप का प्रियजन दाखिल हो, तो जैसे रक्तदान के लिए कहते हैं, कभी कभी, डाक्टर आप से थोड़ा सा मलदान कीजिये के लिए भी कह सकते हैं. अक्सर रक्तदान का सुन कर रिश्तेदार भाग उठते हैं, लेकिन मलदान में यह दिक्कत नहीं आनी चाहिये.

आप का क्या विचार है, इस इलाज के बारे में?

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मंगलवार, फ़रवरी 22, 2011

बात निकलेगी तो ..

तीस पैंतीस साल पहले जगजीत सिंह का एक गीत था जो मुझे बहुत प्रिय था, "बात निकलेगी तो बहुत दूर तलक जायेगी ..". आज अचानक इटली के "फासीवाद" के बारे में छोटी सी बात से एक खोज शुरु की, वह मुझे ऐसे ही जाने कहाँ कहाँ घुमाते हुए बहुत दूर तक ले आयी. दरअसल बात शुरु हुई थी शहीद भगत सिंह से.

मैं पढ़ रहा था शहीद भगत सिंह के दस्तावेज़. लखनऊ की राहुल फाऊँडेशन ने 2006 में, श्री सत्यम द्वारा सम्पादित यह नया संस्करण छापा था जिसमें भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़ संकलित हैं. दिल्ली के क्नाट प्लेस की एक दुकान में इस किताब के मुख्यपृष्ठ ने मेरा ध्यान आकर्षित किया था जिस पर नवयुवक भगतसिंह हैं और तस्वीर देख कर सोचा था कि भारत में भगतसिंह का नाम जानने वाले तो थोड़े बहुत अब भी मिल जायेंगे, लेकिन उनकी तस्वीर देख कर पहचानने वाले मुश्किल से मिलेंगे. उनका नाम सोचो तो मन में मनोज कुमार या अजय देवगन या बोबी देवल द्वारा अभिनीत भगत सिंह की छवियाँ ही मन में आती हैं.

Book Cover - documents of Bhagat Singh

जेल में लिखी डायरियों में भगत सिंह ने कई बार इटली के स्वतंत्रता युद्ध और देश को जोड़ने वाले व्यक्तियों जैसे कि माजीनी (Mazzini), कावूर (Cavour) और गरीबाल्दी (Garibaldi) का भी नाम लिया था और उनसे प्रेरणा ले कर भारत का स्वतंत्र स्वरूप कैसे हो इस पर सोचा था. इनके अतिरिक्त, वे विभिन्न इतालवी कम्यूनिस्ट विचारक, जैसे कि अंतोनियो ग्रामशी और रोज़ा लक्समबर्ग, के विचारों से भी प्रभावित थे. इस प्रभाव का एक कारण यह भी था कि 1861 में जब इटली एक देश बना था उस समय उसकी हालत कुछ कुछ पराधीन भारत जैसी थी, छोटे छोटे राजों महाराजों में बँटा देश जो आपस में लड़ते मरते और जिन पर अन्य पड़ोसी देश शासन करते थे.

भगत सिंह की बात सोचते हुए मन में इटली के दूसरे प्रभाव का ध्यान आया, फासीवाद के प्रभाव का, जिससे नाता था भारत के एक अन्य स्वतंत्रता सैनामी का, यानि सुभाष चन्द्र बोस. बोस भी भगत सिंह की तरह इतालवी देश एकाकरण के प्रमुख व्यक्ति जैसे माजीनी और गरीबाल्दी से प्रभावित थे, लेकिन साथ ही वह मुसोलीनी के फासीवाद से भी प्रभावित थे. द्वितीय महायुद्ध के दौरान जब वह कलकत्ता में ब्रिटिश सिपाहियों से बच कर भाग निकले थे, काबुल में इतालवी दूतावास ने उन्हें काऊँट ओरलान्दो मात्जो़त्ता के नाम का झूठा इतालवी पासपोर्ट बनवा कर यूरोप में यात्रा करवायी थी. उनकी सहायता के पीछे, मुसोलीनी का भारत प्रेम नहीं था, बल्कि "दुश्मनों का दुश्मन हमारा दोस्त" का विचार था कि बोस की सहायता करके वह अपने और हिटलर के दुश्मन अंग्रेजों के लिए झँझट बढ़वा रहे थे, लेकिन उन दिनों कुछ समय के लिए सुभाष इटली में रहे थे.

मुसोलीनी के फासीवाद से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निर्माता भी प्रभावित थे और उसी प्रेरणा से उन्होंने अपनी संस्था का निर्माण किया था. क्या अर्थ था फासीवाद का और कहाँ से आया था यह शब्द? फासीवाद को तीसरा मार्ग घोषित किया गया. पहले दो मार्ग थे पूँजीवाद और कम्युनिस्म. फासीवाद राष्ट्रवादी तानीशाही का रास्ता था, जिसमें आज्ञाकारी और अनुशासित प्रजा होना आवश्यक था.

फासीवाद या फाशिस्म शब्द इटली के स्वतंत्रता संग्राम और फ्राँस की क्राँती से ही आया था. इस कथा का प्रारम्भ हुआ 1789 में फ्राँस की गणतंत्र क्राँती से, जिसका नारा था सब लोगों को बराबर अधिकार और स्वतंत्रता. इस क्राँती के 7 वर्ष बाद नेपोलियन की फौज उत्तरी इटली में घुस आयी. उस समय बोलोनिया शहर कैथोलिक धर्म के पोप के साम्राज्य का हिस्सा था और उनका साथ आस्ट्रिया की फौज देती थी. बोलोनिया में आस्ट्रिया की फौज हार गयी, और पोप के निर्युक्त गवर्नर को शहर छोड़ कर भागना पड़ा. उत्तरी इटली में नये गणतंत्र की स्थापना हुई, जिसका नाम रखा गया चिसपादाना और जिसकी राजधानी थी बोलोनिया. फ्राँस की क्राँती के चिन्ह "फाशियो लितोरियो" (Fascio Littorio), यानि रस्सी से बँधी लकड़ियाँ जिनका अर्थ था कि "एकता में शक्ति है", को पोप के नियुक्त गवर्नर के भवन में, पुराने धार्मिक निशान हटा कर, हर तरफ़ बनाया गया. तभी इतालवी झँडे को बनाया गया और उसके तीन रंगों को, लाल सफ़ेद और हरे रंगों को भी भवन में हर तरफ़ बनाया गया. यह गणतंत्र केवल तीन वर्ष चला. फ़िर पोप की सैनायें जीत कर वापस आ गयीं और उन्होंने झँडे के तीन रंगो को ढक दिया. कुछ वर्ष के बाद, नेपोलियन की फौजें फ़िर लौट आयीं, और इस बार पहले से भी बड़ा गणतंत्र बना जिसका नाम रखा गया चिसअल्पाईन और जिसकी राजधानी मिलान बना. फ़िर कभी आस्ट्रिया की मदद से पोप की सैना दोबारा शासन में आती, कभी गणतंत्र वालों का पलड़ा भारी होता. (तस्वीर में बोलोनिया के पुराने गवर्नर के भवन में फाशियो लितोरियो के चिन्ह)

Fascio littorio in Palazzo d'accursio of Bologna

यही दिन थे जब माजीनी, कावूर, गरीबाल्दी जैसे लोगों ने इटली के एकीकरण और स्वतंत्रता का सपना देखना शुरु किया जो 1861 में जा कर पूरा हुआ. इस वर्ष इस एकीकरण की 150वीं वर्षगाँठ मनायी जा रही है. जब मुसोलीनी का समय आया और 1925 में उन्होंने फासीवाद की स्थापना की, तो उनकी प्रेरणा स्वतंत्रता और एकीकरण संग्राम के वही पुराने चिन्ह थे, फाशियो लितोरियो, यानि रस्सी से बँधी लकड़ियाँ, यानि देश की एकता का चिन्ह, उसी फाशियो से फ़ाशिस्तवाद का नाम रखा गया.

यानि बात जहाँ से शुरु हुई थी, घूम कर वहीं वापस आ गयी, और हम सब माजीनी, गरिबाल्दी के साथ जुड़े इतिहास के इन पन्नों को भूल गये, जिन्होंने भगत सिंह और सुभाष चन्द्र बोस को प्रेरणा दी थी.

कभी यूरोप में आने वाले भारतीयों के लिए इटली से हो कर जाना आवश्यक था, क्योंकि सुएज़ कनाल से हो कर आने वाले पानी के जहाज़ दक्षिण इटली के बारी शहर में रुकते थे, फ़िर बारी से बर्लिन, पेरिस और लंदन तक की यात्रा रेलगाड़ी से की जाती थी. महात्मा गाँधी, रविन्द्रनाथ टैगोर, सुभाषचन्द्र बोस, जवाहरलाल नेहरू, राम मनोहर लोहिया, मदन मोहन मालवीय, सरदार पटेल, सब लोग कभी न कभी इटली से गुज़रे थे. (तस्वीर में बारी की बंदरगाह)

Port of Bari, 2008

तब बोलोनिया शहर का रेलवे स्टेश्न उत्तर तथा मध्य इटली को जोड़ता था, अक्सर यहीं पर गाड़ी बदलनी पड़ती थी. शहर में घूमते समय कभी सोचो कि शायद एक बार यहाँ सुभाष बाबू आये थे, कहाँ रुके होंगे? किसके साथ थे, क्या सोचते होगे? तब तो उन्हें यहाँ के लोग नहीं जानते थे, किसने सहारा दिया होगा ऊन्हें? मन करता है कि बीते हुए कल में जाने वाली चिड़िया बन जाऊँ, इस सारे इतिहास को देखने और समझने.

बातों से बातों का सिलसिला जुड़ता जाता है, और मन कभी एक ओर जाता है, कभी दूसरी. बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी ...

शुक्रवार, फ़रवरी 18, 2011

नारी मुक्ति की संत

शरीर की नग्नता में क्या नारी मुक्ति का मार्ग छुपा हो सकता है? कर्णाटक की संत महादेवी ने वस्त्रों का त्याग करके अपने समय के सामाजिक नियमों को तोड़ा था. क्यों?

Akka Mahadevi - Scribbles on Akka
मधुश्री दत्ता की सन् 2000 की डाक्यूमेंटरी फ़िल्म "स्क्रिब्बल्स आन अक्का" (अक्का पर लिखे कुछ शब्द - Scribbles on Akka) देखने का मौका मिला जो बाहरवीं शताब्दी की दक्षिण भारतीय संत अक्का महादेवी की कविताओं के माध्यम से उनके क्राँतिकारी व्यक्तित्व को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखने का प्रयास है. फ़िल्म उन असुविधाजनक व्यक्तित्वों के बारे में सोचने पर बाध्य करती है जो समाज के हो कर भी धर्म के नाम पर, समाज के नियमों को तोड़ने का काम करते हैं पर जिनका समाज पर इतना गहरा प्रभाव होता है कि चाह कर भी उनको छुपाया या भुलाया नहीं जा सकता.

महादेवी या अक्का (दीदी) बाहरवीं शताब्दी की वीरशैव धार्मिक आंदोलन का हिस्सा मानी जाती हैं. वीरशैव आंदोलन में वैदिक कर्मकांड, मूर्तिपूजा, जाति भेदभाव, अवतारवाद, अंधश्रद्धा आदि को बाधक ठहराया और अल्लमप्रभु, अक्कमहादेवी, चेन्न-बंसव तथा सिद्धराम जैसे संतों ने जातिरहित, वर्णरहित, वर्गरहित समाज के निर्माण की कोशिश की. इन संतों के लेखन वचन साहित्य के नाम से प्रसिद्ध हुए जो कि गद्य शैली में लिखी कविताएँ हैं.

कणार्टक में शिमोगा के पास के उड़ुथाड़ी गाँव में जन्मी अक्कमहादेवी ने जब सन्यास लिया तो केवल घर परिवार ही नहीं छोड़ा, वस्त्रों का भी त्याग किया और उनके लेखन ने नारी शरीर और नारी यौनता के विषयों को जिस तरह खुल कर छुआ, वह सामान्य नहीं है. जैसे सुश्री लवलीन द्वारा अनुवादित अक्कमहादेवी की इस कविता को देखियेः
वस्त्र उतर जाएँ
गुप्त अंगों पर से तो
लज्जा व्याकुल हो जाते है जन
तू स्वामि जगत का, सर्वव्यापि
एक कण भी नहीं , जहाँ तू नहीं
फिर लज्जा किस से?
चेनामल्लिक अर्जुना देखे जग को
बन स्वयं नेत्र
फिर कैसे कोई ढके,
छिपाए अपने को?
(डा. रति सक्सेना द्वारा सम्पादित वेबपत्रिका "कृत्या" से )

मधुश्री दत्ता की डाक्युमेंटरी में आज की आधुनिक व्यवस्था में अक्का महादेवी किस रूप में जीवित हैं, इसको विभिन्न दृष्टिकोणों से देखने की चेष्ठा है. गाँव में गणदेवी की तरह, औरतों के कोपोरेटिव में, जहाँ उनके नाम से पापड़ और अचार बनते हैं, काम करने वाली औरतों की दृष्टि में, म़ंदिर के पुजारी और धर्म ज्ञान की विवेचना करने वाले शास्त्री की दृष्टि में, फेमिनिस्ट लेखन और चित्रकला में, महादेवी विभिन्न रूपों में दिखती हैं. इन विभिन्न रूपों में सामान्य जन में उनका रूप उनके व्यक्तित्व को धर्म मिथिकों में छुपा कर, मन्दिर में पूजने वाली देवी बना देता है, जिसमें उनके वचनों की क्राँति को ढक दिया जाता है. लेकिन फ़िल्म में उनकी एक भक्त का साक्षात्कार भी है जिसने गाँव में अक्का महादेवी के मंदिर के आसपास भक्तों के लिए सुविधाएँ बनवायी हैं और जो महादेवी के असुविधाजनक संदेश को छुपाने के प्रयास पर हँसती है.

Akka Mahadevi - Scribbles on Akka

फ़िल्म में महादेवी के कुछ वचनों को गीतों के रूप में प्रस्तुत किया गया है जिन्हें सुश्री सीमा बिस्वास पर विभिन्न परिवेशों में फ़िल्माया गया है, जिनमें एक परिवेश है एक ईसाई गिरजाघर में एक स्त्री द्वारा नन बनने की रीति, यानि महादेवी की बात को एक धर्म की सीमित दायरे से निकाल कर इन्सान के मन में ईश्वर से मिलने की ईच्छा के रूप में देखने की चेष्ठा.

Akka Mahadevi - Scribbles on Akka

फ़िल्म को देख कर मानुषी में पढ़े मधु किश्वर के एक पुराने आलेख की याद आ गयी जिसमें बात थी किस तरह गाँव में रहने वाली औरतें सीता मैया के पाराम्परिक गीतों के माध्यम से नारी मुक्ति की बात उठाती हैं. परम्परागत समाज में जहाँ नारी चारों ओर से नियमों में बँधी हो जिनमें उसकी अपनी इच्छाओं आकाँक्षाओं के लिए जगह न हो, वहाँ महादेवी जैसी नारी के विचारों को धर्म स्वीकृति मिलना थोड़ी सी जगह बना सकता है जहाँ सामाजिक नियमों की परिधि से बाहर जाने की अभिलाषा की अभिव्यक्ति हो सकती है.

महादेवी का व्यक्तित्व शारीरिक नग्नता को केवल लज्जा का कारण सोचने पर भी प्रश्न उठाता है. फ़िल्म में कुछ चित्रकार अक्का महादेवी के नग्न शरीर को ईश्वर का प्रतिरूप देखते हैं, तो कुछ इसमें नारी मुक्ति की चिंगारी. परम्परागत समाज को चुनौती देती महादेवी की छवि की जटिलता को ब्राह्मण विद्वान भी स्वीकारते हैं और आम व्यक्ति भी.

Akka Mahadevi - Scribbles on Akka

मेरी दृष्टि में फ़िल्म का अंतिम संदेश यही है कि भारत के विभिन्न हिस्सों में धर्म के संदेश को अलग अलग दृष्टिकोणों से देखा और समझा गया है. यही अनेकरूप विभिन्नता ही हिंदू धर्म की शक्ति रही है. इस जटिलता को सहेजना आज के भूमण्डलिकरण से जकड़े संसार में परम आवश्यक है, जहाँ सामाजिक जटिलताओं का सरलीकरण एवं ऐकाकीकरण करने की लालसाएँ बढ़ती जा रही हैं.

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रविवार, फ़रवरी 06, 2011

प्रेम निवेदन

हिन्दी फ़िल्मों के गानों में हमारे जीवन के सभी सुखों दुखों का हाल छिपा है. चाहे कोई भी मौका हो, मुंडन से ले कर मैंहदी तक, करवाचौथ से ले कर क्रियाकर्म तक, खाना बनाते समय सब्ज़ी जल गयी हो या काम पर जाते समय बस छूट गयी हो, प्रेयसी मिलने आये या दगा दे जाये, पापा गुस्सा हों या माँ ने मन पसंद खीर बनायी हो, कुछ भी मौका हो, बस उसका गीत मन में अपने आप आ जाता है. और चाहे उसे गायें या न गायें, मन में अपने आप ही गूँज जाता है. क्या आप को भी लगता है कि बिना इन गानों के जीवन का रस कुछ कम हो जायेगा?

और क्या आप के साथ कभी ऐसा हुआ है कि अचानक कोई गीत सुनते सुनते, अपने जीवन की वह बात समझ में आ जाती है जिस पर कभी ठीक से नहीं सोचा था? मेरे साथ यह अक्सर होता है.

अगले वर्ष मेरे विवाह को तीस साल हो जायेंगे. काम के लिए अक्सर देश विदेश घूमता भटकता रहता हूँ. इन्हीं यात्राओं से जुड़ी एक बात थी, जो अचानक "तनु वेड्स मनु" का एक गाना सुनते समय समझ आ गयी.

गाना के बोल लिखे हैं राजशेखर ने और गाया है मोहित चौहान ने . गाने के बोल हैं -
कितने दफ़े मुझको लगा
तेरे साथ उड़ते हुए
आसमानी दुकानो से ढूँढ़ के
पिघला दूँ यह चाँद मैं
तुम्हारे इन कानों में पहना ही दूँ
बूँदे बना
फ़िर यह मैं सोच लूँ समझेगी तू
जो मैं न कह सका
पर डरता हूँ कहीं
न यह तू पूछे कहीं
क्यों लाये हो ये यूँ ही
गाना सुना तो लगा कि वाह गीतकार ने सचमुच मेरे मन की बात को कैसे पकड़ लिया.

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देश विदेश में घूमते समय कई बार कुछ दिख जाता है जो लगता है कि बहुत सुन्दर लगेगा मेरी पत्नि पर. पर साथ में मन में यह भी भाव होता है कि शायद वह बिना कहे ही समझ जायेगी वह बात जो कह नहीं पाता हूँ. पर अक्सर होता है कि वह मेरी भेंट देख कर नाक सिकोड़ लेती है, "यह क्या ले आये? बिल्कुल ऐसा ही तो पहले भी था." या फ़िर, "क्यों बेकार में पैसे खर्च करते हो, तुम्हे मालूम है कि मैं इस तरह की चीज़ें नहीं पहनती."

और मन छोटा सा हो जाता है. सोचता हूँ, यूँ ही बेकार खरीद लिया. आगे से नहीं खरीदूँगा. पर अगली यात्रा में फ़िर भूल जाता हूँ. प्रेम निवेदन कैसे हो? यह नहीं होता, शायद उम्र का दोष है. आजकल के जोड़े तो आपस में "लव" या "माई लव" करके बोलते हैं, पर मुझसे इस तरह नहीं बोला जाता.

हर बार आशा रहती है कि वह मेरे मन की बात को बिना कहे ही समझ जाये. कभी लगता है कि वह मेरे मन की बात को समझती ही है, उसमें भेंट लाने या न लाने से कुछ नहीं होता?

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