शनिवार, सितंबर 24, 2005

जाल में फँसे

मेरा क्मप्यूटर से परिचय इटली में आने के बाद हुआ. जब दफ्तर में पहला क्मप्यूटर आया तो करीब एक साल तक मैं उसके नजदीक नहीं गया. डर लगता था. १९९१ या १९९२ की बात थी, इंटरनेट का नाम सुना था पर मालूम नहीं था कि क्या होता है.

१९९४ में हम लोग गरमी की छुट्टियों में अमरीका गये तो बोस्टन में विज्ञान म्यूजियम में पहली बार इंटरनेट को देखने का मौका मिला. एक साहब ने उसके बारे में पहले समझाया, फिर एक क्मप्यूटर के सामने बिठा दिया.

छुट्टियों के बाद वापस इटली में घर लौटे तो तुरंत पहला क्मप्यूटर खरीदा. शहर में एक दो प्रोवाईडर खुले थे, उन्होंने ईमेल और इंटरनेट दोनो के प्रोग्राम दिये. पर क्नेक्शन बहुत मंद था और बार बार टूट जाता था, इसलिए जाल पर घूमना आसान नहीं था, बस ईमेल लेने या भेजने में कोई परेशानी नहीं थी. पर ईमेल किसे लिखते, किसी भी जान पहचान वाले के घर में क्मप्यूटर नहीं था ? तो खोज की कि कोई भारतीय ईमेल ग्रुप मिल जाये जो हमें रोज ईमेल भेजें.

जाल का और ईमेल का, उन दिनों सभी काम अमरीका में ही हो रहा था. खोज कर, तीन अमरीकी भारतीय ईमेल ग्रुप मिले. एक तो रोज भारत के समाचार भजता था. दूसरा, सप्ताह में एक दो बार, इंडिया डी नाम से भारत के बारे में साधारण बातों के कविता, किताबों, बहस, आदि के बारे में ईमेल आते थे. कोई मूर्ती जी थे जो इन्हें चलाते थे. जहाँ हम लोग रहते थे वहाँ सिर्फ एक ही अन्य भारतीय था. भारत से कोई समाचार मिलना आसान नहीं था. उन ईमेल से मिले समाचारों से मुझे कितनी खुशी होती थी, आज उसे समझ नहीं सकते.

तीसरे ईमेल ग्रुप का नाम था "खुश", वह अमरीका में रहने वाले भारतीय गै और लेसबियन लोगों का दल था. तब गै यानि समलैंगिक पुरुषों के बारे मे तो समझ थी पर लेसबियन यानि समलैंगिक स्त्रीयों के बारे में बिल्कुल जानकारी नहीं थी. शुरु शुरु में वे संदेश पड़ कर हैरत में पड़ जाता था. लड़कियाँ ऐसी बातें सोच और लिख सकती हैं इससे अचरज होता था.

धीरे धीरे जब जाल पर घूमना आसान होने लगा, तो उन सब से रिश्ते टूट गये. आज ईमेल ज्यादातर, काम का माध्यम है. जाल पर भारत के समाचार पढ़ना, संगीत सुनना, बाते करना, वीडियो देखना, सब कुछ आसान है. लगता है मानो हमेशा ऐसा ही था. पर सिर्फ दस साल पहले ही परिचय हुआ था इससे! अब जाल के बिना रहने का सोचा भी नहीं जाता.

आज की तस्वीरों का विषय है रंग बिरंगे विज्ञापनः


शुक्रवार, सितंबर 23, 2005

लागी नाहीं छूटे रामा

चिट्ठे लिखना पढ़ना तो जैसे एक नशा है, एक बार यह नशा चढ़ गया तो बस कुछ अन्य न दिखता है न करते बनता है. ऐसा कुछ कुछ मेरा विचार बन रहा है.

कल मेरे चिट्ठे पर नारद जी यानि जीतेंद्र की स्नेहपूर्ण टिप्पड़ीं थी कि लगातार नियमित रुप से लिखने में, बीच में छुट्टी मार लेना अच्छी बात नहीं. यह छुट्टी मैंने अपनी मरजी से नहीं मारी थी, ब्लोगर सोफ्टवेयर की कुछ कठिनाई थी इसलिए लिखा संदेश शाम तक नहीं चढ़ा पाया. सोचा, बच्चू अभी भी संभ्हल जाओ. बस एक दिन अपना चिट्ठा औरों को न दिखा पाने से इतनी छटपटाहट हुई है, अगर यह साला सोफ्टवैयर ही ठप्प हो गया तो अपन कहाँ जायेंगे ?

चिट्ठा लिखना ही नहीं, पढ़ना भी एक नशा है. पर कैसे मालूम चले कि किसने ताजा कुछ लिखा है ? पिछले कुछ दिनों से चिट्ठा विश्व पर कुछ गड़बड़ है क्योंकि जो नये चिट्ठे लिखे गये हैं उनकी सूचना वाला खाना खाली दिखता है. जितेंद्र ने सलाह दी कि उन्हे अक्षरग्राम के नारद पर देखिये. नारद को देखा,बहुत बढ़िया लगा. सभी नये चिट्ठे वहाँ दिखते हैं.

पर बात समय की है. परिवारिक जिम्मेदारियाँ, कुत्ते को घुमाने और काम पर जाने के बाद मेरे पास थोड़ा सा ही समय बचता है जिसे मैं अपना कह सकता हूँ. पहले, सुबह जल्दी उठ कर इस समय में ध्यान करता था, कुछ पढ़ता लिखता था, अपने वेबपृष्ठ यानि कल्पना का कुछ काम करता था.

अब, सुबह उठते ही चाय बनाते समय सोचता हूँ आज क्या लिखूँगा ? फिर प्याला लिए, औरों के चिट्ठे पढ़ने बैठ जाता हूँ, एक दो टिप्पड़ियाँ लिख देता हूँ. तब तक अपने चिट्ठे में क्या लिखना है इसका कुछ विचार आ जाता है. जब तक लिखना समाप्त होता है, काम पर जाने का समय हो जाता है और रोज की भागमभाग शुरु हो जाती है जो फिर रात को ही सोते समय खत्म होगी. आप ही कहिये, यह भी कोई जिंदगी है क्या ?

आज की तस्वीरें देबाशीष, जितेंद्र, रमण, अनूप आदि उन सब लोगों के नाम जो मुझ जैसे अकृतज्ञ चिट्ठाकारों का जीवन आसान और दिलचस्प बनाने में अपना समय देते हैं.


गुरुवार, सितंबर 22, 2005

सच्ची प्रेम कहानी

आठ-दस साल पहले, लंदन में एक सभा में हमारी प्रमुख मेहमान थीं प्रिंसेज डयाना. जब भाषण आदि चल रहे थे, उस समय वह स्टेज पर बैठी थीं और उनसे नजर हटाना आसान नहीं था. सुंदरता के साथ साथ उनके व्यक्त्तिव में जादू सा था. सभा के बाद जब उनसे थोड़ी देर मिलने का मौका मिला तो उनका जादू और चढ़ गया.

तब सोचता था कि डयाना और चार्लस् की जोड़ी राजकुमारी और मेंढ़क की जोड़ी है. तब भी चार्लस् के कमिल्ला से प्रेम सम्बंध के चर्चे होते थे और सोचता था, घोड़े को एक घोड़ी मिली है. बहुत सालों तक, डयाना के बाद चार्लस् और कमिल्ला के चक्करों का सुन कर उन पर हँसी आती थी.

पर पिछले साल जब उनकी शादी हुई तो मेरे सोचने का ढ़ंग बदल गया. मेरे इस बदलाव में, मेरे बहुत से अंग्रेज जानने वालों का हाथ है. सभी इस विवाह के खिलाफ थे. कोई कहता वह भद्दी है, कोई कहता उसके कपड़े अच्छे नहीं हैं, कोई कुछ और आलोचना करता.

इस बार लंदन गया तो दोपहर को खाना खाते समय केमिल्ला की बात निकली. दफ्तर के सभी लोगों ने, विषेशकर, औरतों ने, अभी भी केमिल्ला आलोचना बंद नहीं की थी. पर मुझे लग रहा था कि चार्लस् और केमिल्ला की तो सच्ची प्रेम कहानी है. कुछ कुछ "हम तुम" जैसी, कितनी बार मिले और बिछुड़े, अन्य लोगों से विवाह हो गये, बच्चे हो गये, पर फिर भी उनका प्रेम बना रहा. या फिर कहें शाहजहान और मुमताज महल जैसा. अगर चार्लस् जी ताजमहल बनवा सकते, तो जरुर बनवाते.

तो आज की तस्वीर है डायना से उस मुलाकात की, जिसके कुछ महीनों बाद कार दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गयी थीः

बुधवार, सितंबर 21, 2005

झूठे रिश्ते

"यह लोग झूठमूठ के रिश्ते बना कर लोगों को ले आते हैं. अपनी बिरादरी या अपने गाँव या अपनी भाषा बोलने वाले को, अपना भाई, अपना चाचा या मामा कह कर मिलवाते हैं. दूसरी तरफ मालिक लोग भी जान पहचान के लोगों को काम पर रखना अधिक पसंद करते हैं. अगर आप किसी को अपना भाई या रिश्तेदार बना कर प्रस्तुत करें और उसे काम मिल जाये, तो आप उस नये काम करने वाले के लिए मालिक के सामने जिम्मेदार बन जाते हैं..." यह इटली में रह रहे सिखों के बारे में किये हुए एक शोधग्रंथ में लिखा है.

उत्तरी पूर्वी इटली में सिख परिवार केवल चार पाँच जगहों पर ही बसे हैं और उन्हें आदर्श इमिगरेंटस् कहा जाता है. उत्तरी इटली में "लेगा नोर्द" नाम की राजनीतिक पार्टी है जो कि विदेश से आये काम करने वालों, विषेशकर मुस्लिम प्रवासियों के खिलाफ बहुत सक्रिय है, पर वह भी कहते हैं कि उन्हें सिख प्रवासियों से कोई शिकायत नहीं.

मैं सोच रहा था उन "झूठे" रिश्तों के बारे में. भारत में भी तो शहरों में गाँवों से काम ढ़ूँढ़ने आते हैं लोग. दिल्ली में बहुत से सम्पन्न घरों में गड़वाल या नेपाल से आये लड़के काम करते थे. वहाँ भी तो ऐसे ही भाईचारे में ही लोग अपनी बिरादरी या गाँव आदि के लोगों को काम पर लगवाने ले आते हैं. क्या हम उन्हें झूठे रिश्ते कहते हैं ?

मेरा विचार है कि भारतीय या शायद एशियाई समाज रिश्तों को भिन्न दृष्टी से देखता है. हमारे यहाँ तो सभी को भाई साहब, बहन जी, अम्मा या अंकल कह कर बुलाते हैं. पर क्या यह केवल बुलाने की बात है या रिश्तों को दूसरी नजर से देखने की बात है ?

आज की तस्वीरों में मेरे दो दोस्ती के रिश्ते - ‍न मानो तो कुछ भी नहीं, मानो तो सब कुछ

मंगलवार, सितंबर 20, 2005

अगर वह न आये

कल बात हो रही थी नींद की. पिछले १५ सालों में शायद एक बार जागा हूँ रात के १२ बजे तक, नये साल के आने के इंतज़ार में. अधिकतर तो पत्नी ही जगाती है नये साल की बधायी देने के लिए. कभी रात की यात्रा करनी पड़े या फिर बहुत साल पहले जब अस्पताल में रात की ड्यूटी करनी पड़ती थी, तब न सो पाने पर बहुत गुस्सा आता था.

पर अगर जल्दी सोने वाले की शादी, देर से सोने वाले से हो जाये तो क्या होता है ? अपना यही हुआ. मैं रात को दस बजे सोने वाला और श्रीमति जी रात को दो बजे सोने वाली. नयी शादी के बाद इस बात पर बहस होती थी कि सोने जायें या बाहर घूमने. पहले यह सोचा कि कभी हमारी चलेगी और कभी उनकी. पर बात बनी नहीं, जब हमें रात को बाहर जाना पड़ता, तो हर ५ मिनट में मेरा जुम्हाई लेना या घड़ी की ओर देखना, न श्रीमति को भाता न अन्य मित्रों को. खैर, शादी के २५ सालों में हमने इसका हल ढ़ूँढ़ ही लिया. मैं सोने जाता हूँ और वह सहेलियों के साथ घूमने.

पर, इसी बात का दूसरा पहलू भी तो है. रोज आती थी, जाने एक दिन अचानक क्यों नहीं आती ? अनूप जी जैसा होने के लिए, यानि काम पड़े तो सारी रात जगते रहो और सोना हो तो घंटो सोते रहो, दिमाग में बिजली का बटन चाहिये, जिसे दबाने से काम की बात दिमाग से एकदम से बंद हो जाये.

कालीचरण जी को शायद ऐसे ही बटन की आवश्यकता है. और जब वह नींद नहीं आती तो क्या करें ? अगर दोपहर को या शाम को, काफी पी लूँ या सफेद वाइन पी लूँ तो ऐसा अक्सर होता है. जब बिस्तर में करवटें बदलते बदलते थक जायें तो नींद लाने के लिऐ क्या करें ?

मैं कोई भारी सी, न समझ में आने वाली किताब ढ़ूँढ़ता हूँ. होफश्टाडेर की किताब "गोडल, एशर, बाख", मुझे इसीलिए बहुत पसंद है. कितनी भी बार पढ़ लूँ कुछ समझ में नहीं आता पर आधा घंटा पढ़ने की कोशिश के बाद नींद अवश्य आ जाती है. इसी तरह की एक अन्य प्रिय पुस्तक है, कथोउपानिषद. धार्मिक किताबों में से यह मेरी सबसे प्रिय किताब है. पर अगर संस्कृत के श्लोक, बिना उनके हिंदी अर्थ के पढ़ूँ, तो भी नींद आ जाती है. और आप का कोई रामबाण नुस्खा है नींद लाने के लिए ?


इतालवी एसप्रेसो काफी का छोटा सा प्याला, मेरी नींद गुम कर देता है
इन्हें सोने की कोई चिंता नहीं - रोबेन द्वीप (दक्षिण अफ्रीका) का कब्रीस्तान

सोमवार, सितंबर 19, 2005

मुझे नींद क्यों आये ?

दुनिया में बहुत से ऐसे लोग हैं जो सच्चे दिल से गा सकते हैं कि "मुझे नींद न आये, मैं क्या करुँ". ऐसे लोग रात को १२ बजे तक फिल्म देखते हैं, क्लब जाते हैं, गुलछर्रे उड़ाते हैं. यह वे भाग्यशाली लोग हैं जिनके दिमाग अँधेरे होते ही खुल जाते हैं और जिनके शरीर में रात में नयी स्फुर्ती आ जाती है.

कुछ मेरे जैसे दुर्भाग्यशाली होते हैं जो केवल गाने में ही गा सकते हैं, "मुझे नींद न आये" पर सच में अँधेरा होते ही उबासिया लेने लगते हैं. मेरे जैसे लोगों के दिमाग केवल सुबह ही खुलते हैं, शाम होते ही ये अपने शटर बंद कर, "दुकान बंद है" का बोर्ड लटका देते हैं. शाम को कहीं जाना पड़े तो हमेशा कोई बहाना ढ़ूँढ़ता हूँ, कि न जाना पड़े. जब कोई बहाना न चले तो थोड़ी देर में ही, उबासियों का दौरा पड़ जाता है.

इन रात को जागने वालों में और सुबह जल्दी उठने वालों में कोयल और कौवे का अंतर होता है. सुबह जल्दी उठने वाले भक्त्ती, योग, ध्यान आदि बातें सोचने वाले गंभीर लोग होते हैं. सुबह के अँधेरे में बाग में लम्बे लम्बे साँस लेते हूए भाग भाग कर सैर करते हैं. न ये कभी क्लास छोड़ कर फिल्म देखने जाते हैं, न गप्पबाजी में समय बरबाद करते हैं. मोटी किताबें पड़ने वाले, इन्हें अक्सर उतने ही मोटे चश्मे से पहचाना जा सकता है.

रात देर जागने वाले यह सोचते हैं कि यह जीवन ही सब कुछ है, यह इंद्रियाँ प्रभु ने कुछ सोच कर ही मानव शरीर को दी हैं, इनका पूरा उपयोग होना चाहिये. सुबह देर से जब उठते हैं जो कभी कभी इनका सर अवश्य दुखता है और रात को अंत में क्या हुआ, इन्हें ठीक से याद नहीं रहता. लम्बी साँस ले कर कहते हैं, "बस, अब बहुत हो गया, अब मैं सुधर जाऊँगा, अब गम्भीरता से पढ़ायी करने का समय आ गया है" पर शाम तक वह सब भूल जाते हैं.

क्या आपको भी मेरी तरह दुख होता है कि सारा जीवन यूँ ही बीत गया, "अजुँरी में भरा हुआ जल जैसे रीत गया" ? यानि आप कोयल हैं या मेरी तरह का कौवा ?

आज की तस्वीरें, इटली के फैरारा शहर के पुराने मध्ययुगीन भाग सेः

रविवार, सितंबर 18, 2005

लंदन बदला क्या ?

कल शाम को लंदन से वापस आया. पिछली बार लंदन बम फटने से पहले गया था. सोच रहा था कि क्या बमों के फटने से लंदन बदल गया होगा ?

लंदन में रहने वालों से बात की तो यही सवाल पूछा. विभिन्न उत्तर मिले, पर सभी मान रहे थे कि कुछ बातों में उनका शहर बदल गया है. शहर के केंद्रीय हिस्से में रहने वाली सूसन बोली, "हमारे यहाँ रात का जीवन बिल्कुल बदल गया है. पहले रात को भीड़ होती थी, पब बीयर पीने वालों से भरे रहते थे, अब शाम को ७ बजे ही सड़कें खाली हो जाती हैं. पब वालों का बिजनेस बिल्कुल ठप्प हो गया है."

किसी ने कहा कि अब ट्यूब में कम भीड़ होती है, शहर में साईकल और स्कूटर चलाने वाले बढ़ गये हैं, विषेशकर बृहस्पतिवार को क्योंकि दोनो बार बम बृहस्पतिवार को ही फटे थे. एक और सज्जन बोले कि शुरु शुरु में अगर कोई ट्यूब में रकसेक या कंधे वाला बैग ले कर चढ़ता तो सब लोग उसे ध्यान से देखते थे.

पर मुझे तो कोई बदलाव नहीं लगा शहर में. यह सच है कि मैं रात को लंदन के केंद्रीय हिस्से में नहीं गया, पर ट्यूब में मुझे कुछ कम भीड़ नहीं लगी. वही धक्का मुक्की, वैसा ही विभिन्न देशों के पर्यटकों से भरा लंदन जहाँ एक तरफ नये आलीशान भवन बन रहे हैं, ट्यूब स्टेशन पर ही नये शोपिंग माल बने हैं और दूसरी तरफ गंदी, जंग लगी तारें जो ट्यूब की रेल लाइन के साथ साथ चलती हैं, स्टेशन कब बंद हो जायें पता नहीं, और मेट्रो वाले क्षमा माँगते हैं कि काम करने वालों की कमी की वजह से मेट्रों में कुछ देर हो सकती है.

आज की तस्वीरों लंदन के मिलेनियम पुल के पास से हैं

नया मिलेनियम पुल जिसका उद्घाटन सन २००० में हुआ - सौ वर्षों के बाद लंदन में कोई नया पुल बना है
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