मंदिर में फोटो खींचना मना है पर विदेशी, अहिंदू पर्यटकों के लिए अलग से छज्जा बनाया गया है जहाँ से तस्वीर खींच सकते हैं, क्योंकि उन्हें मंदिर में घुसना वर्जित है. उस छज्जे पर खड़ा हो कर धर्म और आस्था की बात को सोच रहा था कि क्यों हर धर्म में रूढ़िवाद का ही राज होता है? भगवान की पवित्रता बड़ी है या विदेशी अहिंदू पर्यटकों की अपवित्रता, तो क्यों नहीं अहिंदू पर्यटक मंदिर में घुस कर पवित्र हो जाते? कोई भगवान अपने ही बनाये मानवों से अपवित्र हो सकता है क्या?
वैसे व्यक्तिगत रूप में मेरे लिए धार्मिकता और मंदिर में जा कर पूजा करने में कोई विषेश सम्बंध नहीं क्योंकि मेरे लिए धार्मिकता अधिक आध्यात्मिक एवं अंतर्मुखी है. धर्म और आस्था पर बात करना मुझे कठिन भी लगता है क्योंकि महसूस करता हूँ कि इस बारे में मेरे विचार स्पष्ट नहीं, और कई बार अंतर्विरोधी भी है. यह भी लगता है कि कितना भी लिख लो, कुछ न कुछ बात अधूरी ही रह जायेगी.
ब्रिटिश पत्रकार और लेखक क्रिस्टोफर हिचिन्स ने धर्म और आस्था के बारे में बहुत कुछ लिखा है. इस विषय में उनकी दृष्टि अधिकतर आलोचक ही है और कई बार मुझे सोचने को मजबूर करती है. कुछ समय पहले की उनकी एक पुस्तक, "भगवान बड़ा नहीं" में उन्होंने आस्था के विषय पर लिखा है,
"धार्मिक आस्था को मिटाया नहीं जा सकता क्योंकि मानव जाति अभी अपने विकास मार्ग पर है, पूरी विकसित नहीं हुई. यह आस्था कभी नहीं मिटेगी, या यह कहें कि तब तक नहीं मिटेगी जब तक हम मृत्यु, अँधेरे, अज्ञान और अन्य भयों पर विजय नहीं पा लेंगे. (...) पर मुझमें और मेरे धार्मिक मित्रों में एक अंतर है. जो मित्र गम्भीरता, सच्चाई और ईमानदारी में विश्वास रखते हैं वह इस अंतर को मान लेंगे. मैं उनके बार मित्ज़वाह समारोहों में जाने को तैयार हूँ, मैं उनके विशालकाय गोथिक गिरजाघरों की प्रशंसा करने को तैयार हूँ, मैं यह मानने को तैयार हूँ कि कुरान को भगवान ने लिखवाया और कहा कि यह सिर्फ अरबी भाषा में हो और इसका मसीहा एक अनपढ़ व्यक्ति हो. मैं यह सब मानने को तैयार हूँ पर बदले में मैं कहता हूँ कि वे लोग मुझे छोड़ दें, मैं जैसा रहना चाहूँ जैसा करना चाहूँ, पर धार्मिक लोग यह नहीं कर सकते."हर धर्म के धार्मिक इन्सानों को यह सोचना कि उनके पास सत्य का असली उत्तर है और केवल उनका सत्य ही असली सत्य है और उन्हें यह सत्य दुनिया में सब लोगों को समझाना है, कितनी लड़ाईयों का कारण बन चुका है. कुछ सप्ताह पहले फ्राँस के समाचार पत्र "ले मोंड २" की पत्रकार सिल्वी लासेर्र ने ताजिकिस्तान में पेंटेकोस्टल ईसाई धर्म के मिशनरियों के द्वारा धर्म परिवर्तन कराने के बारे में विस्तृत रिपोर्ट छापी है. उनके अनुसार, पिछले पंद्रह सालों में ताजिकिस्तान में इस धर्म के अनुयायिओं की संख्या करीब पच्चीस हजार से बढ़ कर दो सौ पैंतीस हजार हो गयी है. धर्म परिवर्तन को व्यक्तिगत मामला मान सकते हैं पर दिक्कत यह है कि ताजिकिस्तान मुसलमान देश हैं और यहाँ धर्म परिवर्तन को नहीं माना जाता बल्कि धर्म बदलने वाले को मौत की सजा भी हो सकती है. यानि तनाव बढ़ने तथा बड़े स्तर पर झगड़े हो सकने की संभावना बढ़ गयीं हैं.
मुस्लिम धर्म और आस्था पर तो कोई भी बहस नहीं हो सकती क्योंकि कहते हैं कि कुरान शरीफ़ तो सीधा भगवान ने पैगम्बर मुहम्मद को लिखवायी थी. यानि आप इस्लाम की किसी बात की न आलोचना कर सकते हैं न ही कुछ बदलाव की माँग कर सकते हैं चाहे बातें कितनी ही पिछड़ी क्यों न हों, चाहे उसमें धर्म के नाम पर मानव अधिकारों का कितना भी हनन क्यों न हो.
जिन दिनों मैं उड़ीसा में था, उन दिनों भी राज्य के कुछ हिस्सों से धर्म के नाम पर होने वाली हिंसा के समाचार आ रहे थे. इस बारे में बात छिड़ी तो एक सज्जन बोले, "अन्य सब धर्मों वाले आ कर हिंदुओं का धर्म बदल रहे हैं तो हिंसा होगी ही. अब तो हिंदूओं को भी बाहर जा कर अपना धर्म फ़ैलाना चाहिये". मैं उस समय तो चुप रहा पर मन में सोच रहा था कि स्वयं को निक्ष्पक्ष रूप से देखना आसान नहीं, वरना वे कैसे भूल गये कि हिंदू धर्म भी भारत से सारे पूर्वी एशिया में फैला था और दुनिया का सबसे बड़ा हिंदु मंदिर, कम्बोदिया में अंगकोरवाट इसी की निशानी है.
दुनिया में होने वाले कितने झगड़ों और युद्धों के पीछे धर्म और आस्था की बातें जुड़ीं हैं इसकी सूची बहुत लम्बी होगी. झगड़े केवल विभिन्न धर्मों के बीच हों यह बात नहीं. एक ही धर्म के अनुयायी, अलग अलग टुकड़ों में बँटें हैं और आपस में अधिक से अधिक अनुयायी बनाने में एक दूसरे से लड़ रहे हैं. संगठित धर्मों में कहाँ धर्मग्रँथों के दिये गये संदेश समाप्त होते हैं और कहाँ ताकत और पैसे का लालच शुरु होता है, यह कहना कठिन हो जाता है.
मेरे एक इतालवी मित्र जो कैथोलिक थे पर अब बुद्ध धर्म के अनुयायी बन गये हैं, कहते हैं कि धर्म का सम्बंध मन से है, जो धर्म मेरे मन को आकर्शित करता है उसे अपनाने की स्वतंत्रता होनी चाहिये. पर मुझे लगता है कि गरीबी में यह बात इतनी सरल नहीं. लेकिन जब भगवान एक ही है तो फ़िर क्या फर्क पड़ता है कि कौन किस धर्म का अनुयायी है या फ़िर कौन धर्म बदलता है?
वैचारिक दृष्टि से मैं इस बात से सहमत हूँ कि धर्म व्यक्तिगत बात है लेकिन मुझे लगता है कि धर्म के साथ रीति रिवाज़, लोक कथाँए, पहनना ओढ़ना, खाना पीना, त्योहार, भाषा, बहुत सी अन्य बातें भी जुड़ी हैं. मुझे लगता है कि धर्म बदलने के साथ साथ बाकी सब रीति रिवाज, लोककथाँए, पहनना ओढ़ना, भाषा, सबमें भी बदलाव आ जाता है और मानव जाति की विविधता कम हो जाती है. दक्षिण अमरीका में रहने वाली जनजातियों ने यूरोपीय देशों के साम्राज्यवाद के तले अपने धर्म और संस्कृति को खोया और मानव जाति की विविधता को कमजो़र किया कुछ वैसे ही जैसे मेकडोन्ल्ड जैसे रेस्टोरेंट का प्रभाव देशों के खाने के तरीके पर पड़ रहा है या फ़िर हालीवुड की फ़िल्मों के प्रभाव यूरोपीय भाषा संस्कृति पर पड़ रहा है या मुम्बई की फ़िल्मों का प्रभाव भारत की विभिन्न बोलियों, उनके लोकसंगीत पर पड़ रहा है. मैं मानता हूँ कि मानव जाति की विविधता में उसकी सुंदरता है.