मंगलवार, मार्च 01, 2016

डा. राममनोहर लोहियाः आखिरी साल

सुश्री रमा मित्र का यह आलेख समाजवादी पत्रिका "जन" के मार्च-अप्रैल १९६८ के अंक से लिया गया है।‌ इस अंक के सम्पादक मेरे पिता श्री ओमप्रकाश दीपक थे। डा. राम मनोहर लोहिया की अक्टबर १९६७ में मृत्यु के बाद यह उनका पहला "स्मृति अंक" था जिसमें उन्हें जानने वालों के उनके बारे में आलेख थे.

रमा जी का यह आलेख उसमें ४२ से ५० तक पृष्ठों में छपा था. रमा जी और डा. लोहिया ने विवाह नहीं किया था, वे जीवनसाथी थे, करीब बीस वर्ष तक साथ रहे. जब १९६७ में डा. लोहिया की मृत्यु हुई उस समय रमा जी समाजवादी दल की अंग्रेज़ी पत्रिका "मैनकाइन्ड" की सम्पादक थीं और दिल्ली विश्वविद्यालय के मिराण्डा कॉलेज में इतिहास की प्रोफेसर भी थीं.

१९७५ में मेरे पिता की मृत्यु के बाद, कई वर्षों तक रमा जी का हमारे घर आना मुझे याद है. उनके इस आलेख में डा. लोहिया के व्यक्तित्व का व्यक्तिगत रूप दिखता है.

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रमा मित्र

चौथे आम चुनाव से पहले कुछ दिन वह पूरे निखार पर थे। उन्होंने गैर कांग्रेसवाद के सिद्धांत का निरूपण कर दिया था। उनका नारा था - कांग्रेस हटाओ, देश बचाओ। पर इसकी कल्पना चुनाव के मौके पर ही उन्होने नहीं की थी. काफ़ी पहले तीसरे आम चुनाव के वक्त जनवरी १९६२ में उन्होंने बताया था कि समाजवादी, राष्ट्रीयतावाद और भाषा जैसे प्रश्नों पर जनसंघ के और सम्पत्ति तथा समता जैसे प्रश्नों पर साम्यवादियों के किस तरह निकट हैं? राष्ट्रीयतावाद और भाषा के मामलों में वे जनसंघ के ज़्यादा निकट थे और सम्पत्ति और भाषा के मामलों के बारे में साम्यवादियों के, ज़्यादा। पर ऐसा कोई भी सवाल नहीं था और न ही हो सकता था कि जिस पर समाजवादी कांग्रेस के निकट हो सकते।

"कांग्रेस हटाओ" का नारा बुलंद करते हुए वह देश का अनवरत दौरा करते रहे। उनका ख्याल था कांग्रेस के हटने से हालांकि विभिन्न राज्यों में तरह तरह के मेल की खट्मिट्ठी गंगाजमुनी सरकारें बनेंगी पर बदलाव की प्रक्रिया चल पड़ेगी। वह बदलाव चाहते थे। बदलाव के लिए वह इतना व्यग्र थे कि उन्हें धीरज न था - ऐसा बदलाव जो स्थिरता के नाम पर देश में चलने वाली जड़ता को खत्म करे। आंकड़ों तथा तथ्यों से वह लैस थे। देहाती जलसों में आंकड़ों तथा अर्थशास्त्र की पेचीदगियों को एक दम आसान, सहज और बोधगम्य ढंग से रखने की उनकी प्रतिभा पर हैरत होती थी। देहाती लोग अत्याधुनिक शहरी बुद्धजीवियों के अपेक्षा उनकी बातें ज़्यादा आसानी और स्पष्टता से समझ पाते थे। कार्यक्रम को तफसील से बताते - कृषि, उद्योग, खरच, भाषा, जाति, विदेशी नीति जैसे मामलों पर। हर प्रश्न पर कांग्रेस ने देश और जनता का कैसे बंटाधार किया है, साबित करते।

Dr Ram Manohar Lohia - Jan March-April 1968 cover

पर गैरकांग्रेसवाद का उनका मार्ग आसान नहीं था। कभी कभी वह हताश और दुखी हो जाया करते थे। चुनाव समझौतों व तालमेल का उनका कार्यक्रम इस तरह अमल नहीं आ रहा था जिससे कि गैरकांग्रेसवाद को पूरा फायदा मिलता। कांग्रेस के खिलाफ एकजुट लड़ाई में कुछ पार्टियों का घमण्ड और दम्भ कि वे अकेले कांग्रेस को हरा सकती हैं और साम्प्रदायिक व जातीय विद्वेष और पूर्वाग्रह अटकाव थे। उनके अपने निर्वाचन क्षेत्र से जो खबरें आ रहीं थीं वे भी उत्साहजनक नहीं थीं - यही नहीं कि जनसंघ ने एक खास जाति के वोट जीतने की उम्मीद में उनके खिलाफ़ उम्मीदवार खड़ा किया था, जिससे कांग्रेस को मदद मिलने वाली थी और मिली भी - इसलिए भी कि उनके निर्वाचन क्षेत्र में विधान सभा के लिए जो संगी उम्मीदवार चुने गये थे उनका चयन भी काफी दुखद था। मुझे अभी भी याद है कि वह अक्सर हँसी में , जिसमें उनकी आँखें चमक उठती थीं मुझे कहा करते, "तुम जानती हो रमा, हिन्दुस्तान की राजनीति में मैं बेठीक आदमी हूँ, कोई भी चीज़ तो मेरी ठीक नहीं - मेरा कोई राज्य (प्रांत) नहीं और मेरी जाति गलत है। मैं क्या करूँ। सारे देश को आधार बना कर खुद अपने क्षेत्र का चुनाव लड़ना कितना मुश्किल है।" मैंने कहा यह सही है, आपके साथ जो हैं वे भी गलत आदमी हैं। मुझे ही लो, मध्यवर्ग की बंगालन हूँ और यही नहीं कायस्थ भी हूँ और यहाँ पर हम सब जो बाकी लोग हैं वे भी बड़ी जातियों के हैं।" "इसीलिए तो मैं तुम्हें कहता रहता हूँ कि कुछ हरिजन होने चाहिए जो हर महीने हमारे साथ कुछ दिन रहें।" उनके निर्वाचन क्षेत्र की खबरें खराब आ रही थीं और वह अपने निर्वाचन क्षेत्र को समय नहीं दे पा रहे थे। जब उन दौरों के बीच एक दिन दिल्ली में रुके तो मैंने बड़े अनुनय से कहा कि बाकी के दस दिन वह अपने निर्वाचन क्षेत्र में लगायें। इस पर वह तैश खा कर बोले, "तुम इस उम्र में मुझे राजनीति सिखा रही हो। क्या तुम इस बात को समझती हो कि मैं अपना नहीं अपनी पार्टी और विरोधपक्ष का चुनाव भी लड़ रहा हूँ।" मेरा मुँह बन्द हो गया।

चुनावों से उन पर जबरदस्त बोझ पड़ रहा था - शारीरिक और मानसिक दोनों। बिना किसी केन्द्रीय कोष के चुनाव लड़ना अतिमानवीय कार्य था. पार्टी ने एक साल पहले केन्द्रीय कोष के लिए पैसा जमा करना का शानदार कार्यक्रम बनाया था - ऐसा कोष जिसमें विभिन्न राज्यों तथा दलित उम्मीदवारों - महिलाओं, पिछड़ा वर्ग, मुसलमान तथा अन्य अल्पसंख्यक, आदिवासियों, हरिजनों, आदि - को चुनाव लड़ने का पैसा दिया जा सके। पर हुआ कुछ नहीं। फैसला करने और उस पर अमल न करने से उन्हें सबसे ज़्यादा दुख होता था। वही एकमात्र व्यक्ति थे जिन्होंने केन्द्रीय कोष के लिए पैसा इक्ट्ठा किया। वह मुझे संदेशे भेजते रहे कि उनके कोष से फलां फलां उम्मीदवार को पैसे भेजूँ। उन उम्मीदवारों में से अधिकतर पिछड़े वर्गों को होते। कुछ ऊँची जातियों के भी होते पर ऐसे जो बिना किसी कोष, गाड़ी व जीप और इश्तहार व साहित्य के चुनाव लड़ रहे थे। अपने निर्वाचन क्षेत्र के बारे में उनका कड़ा निर्देश था कि जब तक वह स्पष्ट आदेश न दें तब तक कोई पैसा न भेजा जाये। एक बार उन्होंने मुझे तार दिया कि कहीं से एक टेपरिकार्डर खरीदो और मेरे निर्वाचन क्षेत्र को भेजो ताकि मेरे भाषण उन इलाकों में सुनाये जा सकें, जहाँ मैं नहीं पहुँच पाया। चुनाव दौरों में वह थक जाते थे पर हमेशा उत्सुकता और आशा बनी रहती थी। उनकी गाड़ी बिगड़ जाती, माइक्रोफोन खराब हो जाता, वह साइकल या बैलगाड़ियों पर चल पड़ते। पर रिक्शा पर कभी नहीं, उसका सवाल ही नहीं उठता था, क्योंकि नीम जवानी के दिनों में उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि वह कभी रिक्शा पर नहीं चढ़ेंगे, किसी दूसरे आदमी पर सवार नहीं होंगे। रिक्शे का खयाल ही उनमें जुगुप्सा भर देता था। उन्होंने रिक्शा चलाने वाले को आधा इन्सान आधा जानवर कहा था, भारत के पतन का प्रतीक।

अपने निर्वाचन क्षेत्र में मतदान से चार दिन पहले वह दिल्ली आये। अपने निर्वाचन क्षेत्र से निकलने की वजह थी कि वह किसी न किसी तरह सुदूर उड़ीसा जाना चाहते थे कि अन्तिम घड़ी के प्रयत्नों से कुछ हजार मतों को किशन पटनायक के पक्ष में मोड़ सकें। दीवार पर टँगे नक्शे, हवाई यात्रा और रेलवे की पंजिकाओं को उन्होंने देखा, किराए पर विषेश विमान लेने के सिवाय समय पर उड़ीसा पहुँचने का कोई और रास्ता नहीं था। किशन उनके बहुत नज़दीक थे। वह संसद में बहुत तेज़ी से उभर रहे थे और वे चाहते थे कि किशन जरूर जीतें।

जब चुनाव के नतीजे आने लगे तो उन्हें काफ़ी आशा थी। दिल्ली आने पर उन्होंने मतदाता सूची में अपना नाम दर्ज कराया और १९ फरवरी को रविवार था, ऐसा ही मुझे याद है, वह पहली मरतबा अपना मत देने गये. किसने उस समय सोचा था कि यह उनका अंतिम मतदान भी होगा। उनके कुछ दोस्त भी साथ थे। अपना मत देने के बाद मैं भी आ गयी। काफी हँसी मजाक और छींटाकसी चल रही थी। उनके कुछ दोस्त एक उम्मीदवार के पक्ष में मत देने को उनकी मनौवल कर रहे थे। वह उम्मीदवार कांग्रेसी नहीं था। मतदान के बाद हमने पूछा कि किसको मत दिया, पर वह बताने वाले नहीं थे। हंसी में उन्होंने हमें मत की गोपनीयता की याद दिलायी और हम भी हंसी में शामिल हो गये। चुनाव नतीजे तेजी से आने लगे तो आनन्दित और निराश होने का क्रम बंध गया - सारे वक्त रेडियो चलता रहता। फ़िर नतीजा सुन पड़ता, एक बड़ा कांग्रसी नेता धराशायी हो गया है या उनका कोई ऐसा साथी जिसके जीतने की पूरी उम्मीद थी, हार गया है। मुझे उनकी वह खिलखिलाहट अभी भी याद है, आधी रात बीत गयी थी कि उनके एक जवान दोस्त ने, जो अखबार में काम करता था, मुझे टेलीफोन किया। "इतनी रात बीते टेलीफोन कर आपको परेशान करने के लिए माफ़ी चाहता हूँ, पर एक मज़ेदार चीज़ हुई है - कामराज हार गये हैं।" मैं उनके कमरे में गयी - वह अभी भी पढ़ रहे थे, खबर सुनायी। उनका सारा चेहरा हंसी से भर गया, बोले "बढ़िया, बहुत बढ़िया।"

उनके खुद के चुनाव का नतीजा नहीं आ रहा था। अखबारों में कोई खबर नहीं थी, आगे हैं या पीछे। चुनाव क्षेत्र से एकदम चुप्पी थी। फ़िर उस शाम को जब हम लोग सब खाने के कमरे में बैठे चुनाव नतीजे की खबरें सुन रहे थे, उन दिनों हमारा चलन यही था, केन्द्रीय दफ्तर से फोन आया कि वह विधुना में कुछ हज़ार वोटों से आगे हैं. विधुना का विधान सभा निर्वाचन क्षेत्र उनके निर्वाचन क्षेत्र में हाल में ही जोड़ा गया था। यह भी खबर आयी कि दो और जगहों में उनके मतों की गणना हो रही है। इस टेलीफोन के आधे घँटे बाद एक और टेलीफोन आया कि वह पीछे हो गये हैं। अपनी स्वाभाविक परिपूर्णता के साथ उन्होंने कागज़ और पेंसिल ली और अपने निर्वाचन क्षेत्र के सभी संसदीय उम्मीदवारों के मतों का जोड़ करने लगे। नतीजा एकदम निराशाजनक था। एक एक करके सब लोग अपने अपने घर चले गये थे और मैं ही उनके साथ अलेके रह गयी थी। मैंने कहा कि वह थोड़ी देर आराम कर लें तब तक मैं उनके लिए खाना परस दूँ। खाते हुए उन्होंने मेरी ओर देखा, "मेरे हारने से तुम्हें बहुत दुख होगा। होगा न?" उस वक्त भी जब हार जीत के बीच लगभग फर्क नहीं रहा था वह अपने बारे में नहीं दूसरों की बाबत सोच रहे थे। यह उनका स्वभाव था, उनकी बात थी। बीस साल के सान्निध्य में मैंने कभी उन्हें अपने बारे में सोचते नहीं पाया। मैंने कहा, "कोई आसमान नहीं फट रहा है यह सोचो कि आप हार गये हो। अब जा कर सो जाओ।" मैंने उन्हें दवा की गोलियाँ दीं और खुद लगभग सारी रात टेलीफोन के पास बैठी रही। आखिरकार अगले दिन दोपहर को हमारे पास खबर आयी कि वह बहुत कम वोटों से जीत गये हैं। "तुम इसे जीतना कहती हो।" मैं क्या कहती।

उनकी भविष्यवाणी कि कांग्रस कुछ राज्यों में हार जायेगी सही साबित हुई, पर कुल नतीजे से वह प्रसन्न नही हुए. नतीजों का उन्होंने विश्लेषण शुरु किया - उत्तरप्रदेश में उनके खुद के इलाके में नतीजा अच्छा रहा नहीं कहा जा सकता। बिहार काफ़ी अच्छा रहा। जैसा कि उन्होंने कहा था द्रमुक को छोड़ कर कोई भी दल उन जगहों पर जहाँ कांग्रेस हार गयी अकेला खड़ा नहीं हुआ। इस बात से वह परेशान हुए कि कुछ राज्यों में जहां जनता ने कांग्रेस को विधान सभा में अल्पसंख्यक बना दिया था, वहां उसने केन्द्र में कांग्रेस को विजयी बनाया। यह रोग का मुख्य लक्षण था। चुनावों के बाद वह हिन्दुस्तानी राजनीति के रोग - राज्यीय गैरकांग्रेसवाद और केन्द्रीय कांग्रेसवाद - के बारे में मुखर हुए। रूपक उपस्थिक करने में वह माहिर थे। उन्होंने हिन्दुस्तान की राजनीति को उच्च रक्तचाप का मरीज बताया - डायस्टोल और सायसटोल का तुलनात्मक फरक जिससे अंततः रोगी के स्वास्थ्य पर असर पड़ता है और वह खत्म हो जाता है। केन्द्र को उन्होंने कलक्टर और गैरकांग्रेसी राज्य को पटवारी की भी उपमाएँ प्रदान कीं। इसलिए चुनावों के बाद इस रोग को दूर करने के लिए उनकी मुख्य चाल यह थी कि केन्द्र में गैरकांग्रेसी सरकार हो। इस चाल का पहला दाँव राष्ट्रपति का चुनाव था।

उस वक्त वह कुछ दिनों राज्यों में गैर कांग्रेसी मिली जुली सरकारों का कार्यक्रम बनाने में व्यस्त रहे। राष्ट्रीय समिति की भोपाल में बैठक हो रही थी। उन्होंने कार्यक्रम का मस्विदा बनाया जिसमें खास तौर पर यह बताया कि सत्तारूढ़ होने के पहले ६ महीनों के भीतर यह सरकारें क्या करें और ऐसा न कर पाने पर उनकी पार्टी बेहिचक सरकार से बाहर आ जाये। लोग कांग्रेसी और गैर कांग्रेसी सरकार के बीच फरक आँक सकें। इस तरह के कार्यक्रम में एक सर्वोपरि बात थी ६॥ एकड़ भूमि पर से लगाना हटाना।

भोपाल से हम उन्हें कुछ दिनों के वास्ते कन्याकुमारी ले गये। कन्याकुमारी उनका प्रिय रमणीक स्थान था। एक बार वहां से उन्होंने मुझे लिखा था कि उन्हें यह बात रह रह कर कोंचती है कि कन्याकुमारी पर जहाँ भूमि समाप्त होती है वहाँ चट्टान पर जब विवेकानन्द ने समाधी लगायी थी तो उनका मुख भारत की ओर था या समुद्र की ओर। इस बारे में उन्होंने विवेकानन्द सोसाइटी के लोगों से पूछताछ की लेकिन कोई उन्हें उत्तर नहीं दे सका। इस प्रस्न का उन्होंने खुद अपना उत्तर प्राप्त किया। विवेकानन्द जेसे थे उसे देखते हुए वह निश्चित ही भारत की ओर उन्मुख रहे होंगे। कन्याकुमारी में ही उन्हें खबर मिली कि हमारे एक सदस्य विंध्येश्वरी मण्डल जो लोकसभा के लिए चुन लिये गये थे, बिहार सरकार में मंत्री बन गये हैं। उनका गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया, अपनी पार्टी के लोगों से इतनी जल्दी पदलोलुपता की उन्होंने उम्मीद नहीं की थी। दिल्ली पहुँचने पर प्रेस बयान दे कर इस घोर सिद्धांतहीनता पर उन्होंने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की।

उन दिनों वह बहुत अनुत्साहित थे, स्वास्थ्य अच्छा नहीं था। रक्तचाप की अक्सर शिकायत रहती। आँखें काफ़ी दिनों से परेशान कर रही थीं. यह भी सुझाया गया कि ग्लोकोमा के वास्ते उनकी आँखों का आपरेशन किया जाये पर यह सुझाव टाल दिया गया और आँखों में रोज दवा डालते रहने से हालत और बिगड़ी नहीं। लगातार थकान और उनींदेपन की शिकायत करते रहे। अक्सर मुझे कहा करते कि उन्हें भी वही शिकायत है जो अश्वनी को थी। अश्वनी उनके बहुत अज़ीज़ दोस्त थे जिनकी डेढ़ साल पहले मृत्यू हो गयी थी। मैं उन्हें यकीन दिलाने की कोशिश करती कि यह केवल थकान की वजह से है, उन्हें गुर्दे की कोई शिकायत नहीं जैसी कि उनके दोस्त को थी। उनके सारे बदन में दर्द होता रहता। पर शारीरिक पीड़ा से अधिक मानसिक चिन्ता व परेशानी थी।

वह कहते "क्या तुम सोचती हो कि इस देश में कभी कुछ होगा। क्या मेरी सारी कोशिशे बेकार जायेंगी?" थोड़ी देर में उनकी आशा लौट आती, "क्या पता कुछ आश्चर्यजनक हो जाये।" इसके बाद थोड़ा रुक कर अपने तईं बोलने लगते, "जनता उठेगी, इसमें मुझे कोई शक नहीं पर वह क्या हिंसा का रास्ता अख्तियार करेगी?" यह द्वन्द, यह शँका और भय कि जनता हिंसा का रास्ता अख्तियार करेगी उन्हें लगातार चिंतित करता रहता। एक पल के लिए घोर निराशा में वह अहिंसा को मानने से इंकार करते पर अन्तिम दिन तक अहिंसा में उनकी आस्था बनी रही। राष्ट्रपति चुनाव पर उनका पूरा जोर था और इसमें वह पूरी तरह जुटे हुए थे। भारतीय राजनीति की अलगाव व विघटनकारी बुराई व रोग को दूर करना ही होगा। इस कार्य का पहला कदम था कांग्रेस के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार को हराना। यह ध्यान देने की बात है कि उनका प्रचार अभियान ही एकमात्र ऐसा प्रचार था जो परदे के पौछे नहीं वरन् खुल्लमखुल्ला जनता के बीच चला। सार्वजनिक प्रश्नों पर सार्वजनीन बहस-मुबाहिसा होना चाहिए - राजनीतिक अन्दोलन के लिए यही उनका नुस्खा था। चुनाव अभियान में उन्होंने सभाएँ की, अखबारों को भेंट दी और अंत में मतदाताओं से अपील की, कुछ भी उठा न रखा। यही नहीं वही एकमात्र नेता थे जिसने विरोधपक्ष के उपराष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार के लिए भी प्रचार किया। विरोधी पक्ष उम्मीदवार चुनने के बाद मौन साध गया। विरोध पक्ष हारा और बड़ी संख्या से हारा। इस हार से चौकन्ने हो कर कारणों का विश्लेषण करने बैठे। सूक्ष्म विश्लेषण की अपनी स्वाभाविक प्रतिभा से उन्होंने नतीजे के कारणों का रेशा रेशा उघाड़ लिया। गैर कांग्रेसवाद को केन्द्र में लाने का उनका पहला निशाना खाली गया - सभी विरोधी सदस्यों ने साथ जो नहीं दिया।

अप्रैल में हमने उन्हें विलिंगडन अस्पताल डाक्टरी जाँच के लिए भेजा। नवम्बर में भी जाँच के लिए वहाँ गये थे। अब डाक्टरों ने पौरुष ग्रंथि के आपरेशन की बात कही. आपरेशन की बात उन्हें नहीं भायी। वह खिन्न हो गये। मैंने उनसे कहा कि हम इसके बारे में दुबारा राय मालूम करेंगे और शल्य क्रिया के प्राध्यापक द्वारा जाँच कराने के लिए अखिल भारतीय चिकित्सा संस्थान ले गयी जिसकी राय थी कि आपरेशन की तात्कालिक ज़रूरत नहीं थी और इन्जेक्शनों वह दुरुस्त होने लगेंगे। वह काफी खुश हो गये और मैंने राहत महसूस की। जब वह विलिंगडन अस्पताल में थे तब भी राजनीति में एकदम बँधे हुए थे। इस बीच दिल्ली में पुलिस आन्दोलन भड़क उठा था। वह लगातार सलाह मशविरा और परामर्श देते रहते थे, अपने साथियों को भेजते और क्या कदम उठाये जायें सोचते। प्रेस वक्तव्य देते और अस्पताल के मैदान में उन्होंने एक सभा की जिसकी खबर एक दैनिक में भी छपी जिससे अस्पताल अधिकारी काफ़ी परेशान दीखे। अस्पताल से जा कर दिल्ली के मजदूर संघों की एक सभा में वह भाषण भी दे आये। दिल्ली के अधिकाँश मजदूरसंघों पर दक्षिणपंथी साम्यवादियों का नियंत्रण है। सभा में उन्होंने हड़ताली पुलिस सिपाहियों की सहानुभूति में आम हड़ताल की अपील की। उनको लगा कि यह एक ऐसा स्वर्णिम अवसर है जबकि जनता और पुलिस के बीच एका बैठाया जा सकता है। इस एक्य से दिल्ली में स्वयंमेव एक क्रांतिकारी स्थिति पैदा हो जायेगी जिसका असर देश भर पर पड़ेगा।

पर १८ नवम्बर १९६६ की छात्र कूच की तरह इस बार भी साम्यवादी यूनियन आगे नहीं बढ़े। उनके आगे बढ़ने से स्थिति बदल जाती। डा. साहब का तरीका यह नहीं था कि क्राति की बात को बहुत ज्यादा की जायेपर कोई आन्दोलन या उस पर अमल नहीं किया जाये। उनके लिए कार्य का असफल होना या उसका एकदम ही निष्प्रभाव होना कार्य न होने से बेहतर था। उन्होंने दिल्ली भर में कई सभाओं में भाषण दिये और जनता को आम पुलिस सिपाही के हाल के बारे में बताया - अफसरों और सिपाहियों के बीच की गहरी खाई और किस तरह सिपाहियों को मानवीय गुणों से च्युत कर पशु बनाया जा रहा है, बताया। साथ ही उन्होंने इन सभाओं में पुलिस जनता दोस्ती की कसम दिलवायी। वही एकमात्र नेता थे जिसने स्थिति की विस्भोटक संभावना को आंका था - केन्द्र पर प्रहार करने का एक बेहतरीन और अद्भुत मौका था. इस मौके के जाने से वह दुखी और निराश हुए थे।

मई की शुरुआत में मेरे एक आत्मीय की मृत्यू हो गयी। वह कितने कोमल और संवेदनशील थे। सार्वजनिक सभाओं में वह अक्सर भारतीय नारी की दुर्गति की चर्चा करते, भारतीय नारी जो हजारों साल से दबायी गयी। वह सभा में उपस्थित पुरुषों से कहते आप स्त्रियों की अधोगति जानने के लिए अर्धनारीश्वर बनो (उसी तरह जिस तरह वह आधा हिन्दू आधा मुसलमान होने की बात कहते), वह खुद इसी तरह थे। मैंने बार बार उनमें यह बात पायी है, ऐसी कोमलता पायी जो केवल माँ में ही मिलती है। जब भी मैं बीमार पड़ी हूँ या दुखी हुई हूँ, माँ की तरह उन्होंने मेरा जतन किया।

मई में पार्टी शिविर में वह त्रवेन्द्रम गये। वहाँ उन्होंने विभिन्न विषयों पर, जिनमें विदेश नीति भी थी, भाषण किये। व्यवहारिकता, प्रचार और दक्षिण भारतीय श्रोताओं के शोर मचा कर बैठा दिये जाने के भय जैसे कारणों ने उन्हें कभी अपनी मातृभाषा के बजाय दूसरी भाषा में बोलने को विचलित नहीं किया। दूसरी भाषा में बोलने के बजाय उन्हें मौन मंजूर था। जून के मध्य में मैं वाराणसी उनके साथ हो ली। रात वह गंगा में नाव पर बिताना चाहते थे। हम सभी नाव में थे। नौका ने मणिकर्णिका घाट के सामने सीध पर लंगर डाला. मणिकर्णिका घाट पर हमेशा कोई न कोई चिता जलती रहती है. मैंने पहली बार शमशान देखा। वह सोचमग्न हो गये, "मृत देह को ले कर इतना झमेला क्यों किया जाता है? प्राणों के बिना देह क्या है। मृत देह को नष्ट करने के वास्ते इतना ज्यादा खरच क्यों? मृतक के धनी होने पर कितना खरच होता होगा, यह सोचो। मृतदेह को जल्दी, आसान, स्वस्थ ढंग और कम खरच में नष्ट करना चाहिये।" मुझे याद आता है एक बार जब हम दिल्ली में रिंग रोड से गुजर रहे थे तो मैंने उनसे कहा था जब मैं मर जाऊँ आप मुझे बिजली के शमशान में ले जाइयेगा। इस पर वह हँसे, "देखो कौन किसको लाता है। मैं तुमसे बड़ा हूँ।"

वाराणसी से पार्टी विधायकों और कार्यकर्ताओं की सभा में भाषण देने लखनउ गये। अब वह गैर कांग्रेस सरकारों, कम से कम उत्तर प्रदेश की सरकार से उम्मीद हारने लगे थे। मार्च में जब उन्होंने चरणसिंह के संयुक्त विधायक दल में सामिल होने की बात सुनी तो उनके उत्साह और खुशी का कोई ठिकाना नहीं था और अपने स्वाभाविक अतिरेक में उन्होंने चरणसिंह की तारीफ के पुल बाँध दिये। उन्होंने उम्मीद की थी कि चरणसिंह जैसा पिछड़े वर्ग का आदमी जमीन पर लगाना हटाने, हिन्दी में कामकाज शुरु करने आदि जैसे कार्यक्रमों से राज्य में तुरंत बदलाव की ताकतों को बढ़ावा देगा। पर उन्हें अपनी पार्टी के विधायकों से कम निराशा नहीं थी। मेरे ख्याल में उनसे वह ज्यादा ही निराश थे। उस सभा में उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि वह अपनी पार्टी के विधायकों से क्या उम्मीद करते हैं, क्या कदम पार्टी के विधायक उठायें। उन्होंने कहा था कि आगे देखूँ कानून के मामले में वे कांग्रेस के साथ भी मत देने तक जा सकते हैं। अगर उदाहरण के लिए कांग्रेस लगान का खात्मा करने के लिए संशोधन रखे तो उसका सर्मथन करने में कोई हिचक या क्लेश नहीं होना चाहिये।

एक बार उन्होंने कहा था कि वह अच्छे काम के लिए शैतान के साथ भी मत देंगे। हालाँकि शैतान का इरादा उसके स्वाभाव के कारण शैतानियत का ही होगा। वह काम और नतीजे को महत्व देते थे। वह कभी इरादे ढूँढ़ निकालने की कोशिश न करते। काम और काम ही उनकी राजनीति की आधारशिला था।

हम दिल्ली लौट आये, अब काफी गरमी पड़ने लगी थी। वह बहुत मेहनत कर रहे थे और उनकी तबियत भी अच्छी नहीं रहती थी, पर भाषण देना, लिखना और असंख्य मुलाकातियों से मिलना और बातचीत करना जारी था। मेरे जानते वही अकेले नेता थे जो एक साथ ही जीवन का आन्नद भी लेते रहते थे - हँसते हुए, चिढ़ाते हुए, तरह तरह के काम करते हुए, ऐसे काम जो राजनीति के दायरे में नहीं आते।

गरमियों के उन दिनों में मैंने बहुत हिचकिचाते हुए कहा कि मैं एक रूम कूलर लेना चाहती हूँ। "माफ करो, मेरे कमरे के लिए नहीं। यह सुख सुविधाएँ मेरे लिए नहीं हैं हालाँकि इससे मुझे काम करने में ज्यादा मदद मिलेगी। नहीं, कतई नहीं।"

इससे काफी पहले जब वह पहली बार संसद के सदस्य चुने गये तो उनके कुछ दोस्तों ने उन्हें मोटर खरीद देने की बात रही। मोटर का आर्डर भी दे दिया गया। मैं मोटर देख कर आई और उन्हें बताया। उस बार वह नाराज नहीं हुए थे। उन्होंने मुझे बिठाया और मोटर के खर्च का अन्दाज लगाने लगे औेर फ़िर विजयोल्लास में कहा "टेक्सी सस्ती रहेगी"। उन्होंने इस संभावना की भी गवेषणा की कि ऐसे ६-७ दोस्त हो सकते हैं जो उन्हें एक महीने में चार बार मोटर देंगे, इस तरह २८ दिन मोटर वाले हो जायेंगे। पर वह एक दोस्त ही जुटा पाये और उसकी मोटर भी नियमित नहीं आ पायी। पैसों की बरबादी के बारे में वह बहुत ज्यादा आगाह रहते थे। जनता के बीच जो कहते उसी को हमेशा सबसे पहले अपने उपर लागू करते।

जुलाई के आरम्भ में इंजेक्शनों का कोर्स खत्म करने के बाद अखिल भारतीय चिकित्सा संस्थान में सर्जन ने उनकी फ़िर जाँच की। इस बार सर्जन की राय थी कि आपरेशन के सिवाय कोई चारा नहीं। यही नहीं, जितना जल्दी किया जाये उतना अच्छा। नहीं तो जिस तरह की ज़िन्दगी वह जीते हैं, जिसने देहातों में जाना होता है, उसमें नाना प्रकार की पेचदगियाँ पैदा हो सकती हैं, और काफ़ी पीड़ा और असुविधा हो सकती है। आपरेशन का ख्याल उन्हें खराब लगता था, वह सिद्धांततः इसके खिलाफ़ थे। आपरेशन के खयाल से ही उन्हें अरुचि थी। मैंने उनसे पूछा क्या वह छुरे से डरते हैं? यह सवाल मैंने ऐसे आदमी से किया था जिसे ज़िन्दगी में किसी तरह के डर का अहसास नहीं था. उन्होंने कहा कि "ऐसा नहीं है"।

वह चुप हो गये तो मैंने कहा क्या इसका हिंसा अहिँसा से तालुक है। उनका मुख स्नेह की अपूर्व मुस्कान में खिल गया। "तुमने बात ठीक पकड़ी। यह चीरने फाड़ने की बात मुझे पसन्द नहीं आती। मुझे समझ में नहीं आता तुम लोग किस तरह मुर्गी, मछली और जीवित जानवर खाते हो और फ़िर चटखारे भी भरते हो।" उन्हें पेड़ों की शाखाएँ काटना भी कभी नहीं भाया। बहुत दफ़े उन्होंने मुझसे शिकायत की कि माली डालें काट देता है। मैं उनसे कहा करती कि यह पेड़ों के भले के वास्ते है, काँट छाँट से वे बढ़ते हैं। "अगर तुम्हारे हाथ पाँव काट दिये जायें तो तुम्हें कैसा लगे।" आप की यह तुलना सही नहीं है, मैं कहती। जीवित प्राणी के प्रति किसी भी तरह की निर्ममता उनके स्वाभाव के प्रतिकूल थी। वही अकेले आदमी थे, जिन्होंने हिँसा को ले कर जान और माल के बीच फरक किया। माल इस देश में ज़्याद रक्षणीय रहा है, वह व्यंग में कहते, मनुष्य तो मक्खियों की तरह है सो उसके मरने की किसी को क्यों परवाह हो।

एक रात शायद अगस्त का महीना था, उन्होंने अपना हाथ मेरे आगे फैला दिया और कहा हाथ देखो। मैंने हाथ देखते हुए कहा, "आप प्रधान मंत्री नहीं बनोगे"। "तुम क्या सोचती हो मैं प्रधानमंत्रित्व की कामना करता हूँ, बस यह बताओ कि मैं क्या देश का भला, सही मायने में भला कर सकता हूँ। क्या लोग मेरी बात सुनेंगे और काम करेंगे?" इसके बाद फ़िर, "क्या जो होगा वह हिँसक होगा?", मैंने कहा, "कुछ न कुछ हो कर रहेगा। आप का आयुष्य दीर्घ है और सत्तर बरस तक जीयेंगे।" "केवल सत्तर, कुछ और बरस तो दो।"

विरोधी दलों और अपनी पार्टी पर से विश्वास उठने पर भी जनता में उनका विश्वास कभी नहीं डिगा। किस तरह जनता को, जो दो हज़ार साल से भी अधिक पशुओं जैसा जीवन जीती आ रही है, उठाया जाये, जगाया जाये। किस तरह जाति व्यवस्था का घृण्य प्रभाव दूर किया जाये. "तुम इतिहास की कैसी विद्यार्थी हो। क्या तुम्हें हमारे इतिहास की इस सचाई की पड़ताल करने की इच्छा नहीं होती। क्या हमारे प्रसिद्ध इतिहासकारों में एक भी आदमी ऐसा नहीं है जो हमारे इतिहास के बारे में वास्तविक अनुसंधान करे। एक नहीं तो इतिहासकारों की टीम ही सही। क्यों विदेशी शासन के आगे हमने बार बार आत्मसमर्पण किया। विश्व के इतिहास में इस तरह की कोई मिसाल नहीं।"

उन दिनों वह पूर्व जर्मनी के हाले स्थित मारटिन लूथर विश्वविद्यालय से मारटिन लूथर की ४५०वीं बरसी पर पूर्व जर्मनी आने का निमंत्रण पा कर उत्साहित थे। उनका उत्साह बढ़ रहा था। निमंत्रण पत्र अगस्त में उस दिन आया जिस दिन वह दिल्ली से कहीं दौरे पर जा रहे थे। "तुम क्या समझती हो, मुझे क्यों निमत्रित किया गया है। क्यों हमेशा निमंत्रण पूर्व जर्मनी से आता है, पश्चिमी जर्मनी से नहीं। तुम्हें पता है छात्रावस्था में मैंने एक बार हाले की एक सभा में भाषण दिया था. पौन घँटे के भाषण में २० बार तालियाँ बजी थीं। यूरोप के लोग तालियाँ बजाना जानते हैं। हम एशियाइयों की तरह मरी मरी ताली नहीं बजाते। अरे हमें तो ताली बजाना भी नहीं आता।" निमंत्रण से उनकी तबियत रंग पकड़ रही थी। "पूर्वी जर्मन साम्यवादियों से प्रोटेस्टैंट वाद पर बात करने में गजब का मजा आयेगा। आखिर मुझसे बड़ा प्रोटेस्टैंट है कौन। यहाँ पर मैं उस दिन कृष्ण पर बोला, वहाँ मैं लूथर पर बोलूँगा।"

दौरे से लौटने पर उन्होंने सबसे पहले पूछा कोई और उत्तर आया? "शायद वह नहीं चाहते कि मैं बोलूँ। मैं निमंत्रित अतिथि की हैसियत से वहाँ नहीं जाना चाहता। मैं बहस में भाग लेने ही जाउँगा।"

पटना, दंगाग्रस्त रांची और अन्य स्थानों का दौरा करने के बाद वह लौटे थे। वह जयप्रकाश से भी मिले थे। मैंने पूछा जे.पी. से क्या बातचीत हुई? "इस तरह की बातचीतों से कुछ होता है, हमारे देश में कुछ भी होता है क्या?" पर आखिर आप उनके साथ कई घँटे थे, आप दोनो ने एक दूसरे के चेहरे को ही तो नहीं देखा होगा और केवल मौसम के बारे में ही बातचीत नहीं की होगी। "हाँ हमने बातचीत की। जयप्रकाश ने एक लम्बा कार्यक्रम बनाया है जिसे बिहार सरकार को अमल में लाना चाहिये।" मैंने उनसे कहा बिखरे कार्यक्रम के बजाय सरकार को एक एक मामला, जैसे लगान का, लेना चाहिये और उस पर पूरी दृढ़ता से काम करना चाहिये। इसके बाद उन्होंने आन्दोलन की बात तिरस्कार व अवहेलनात्मक ढंग से कही, मुझे इस पर गुस्सा आया और मैंने उन्हें कहा, "देखो जयप्रकाश, मुझे भी आन्दोलन की खातिर आन्दोलन करना पसन्द नहीं और न ही जेल जाना पर ऐसी मजबूरियाँ होती हैं कि आन्दोलन जरूरी हो जाता है। उनके सिवाय कोई दूसरा चारा नहीं रहता। तुम कभी जेल नहीं गये हो", इस पर उन्होंने मेरी ओर आँखें चढ़ा कर देखा तो मैंने जोड़ा, "आजादी के बाद"! जयप्रकाश से यही मेरी बातचीत हुई। इस निकम्मे देश में कुछ भी नहीं होता।"

उन दिनों उनसे मिलने तरह तरह के बहुत से व्यक्ति, कांग्रेसी, साम्यवादी, स्वतंत्र, सब आया करते थे। एक बार वह लोकसभा के अध्यक्ष श्री संजीव रेड्डी के यहाँ रात दावत पर गये थे. दावत में वही अकेले मेहमान थे. मैंने दावत के बारे में और क्या बातचीत हुई, पूछा तो अनूत्साहित स्वर में उन्होंने कहा।

"एक गैर कांग्रेसी केन्द्र हो सकता था। दोनो किस्म के साम्यवादियों, जनसंघी और स्वतंत्र दल जैसे हैं, उन्हें देखते हुए मैं संजीव रेड्डी को क्या आश्वासन दे सकता था था कि मैं एक गैर कांग्रसी मिली जुली सरकार बना सकूँगा।"

अब उन्हें आपरेशन की जल्दी पड़ी थी क्योंकि डाक्टरों की यही सलाह थी। एक बार किसी बात को मान लेने पर उन्हें देर बरदाश्त नहीं होती थी। वह मुझे बार बार आपरेशन की तारीख तय करने को कहते। उनकी तबियत ठीक नहीं थी और वह जल्द चंगा होना चाहते थे, उन्हें बहुत कुछ करना था, विदेश जाना था और न जाने क्या क्या करना था। इस बात पर काफी बहस होती रही कि आपरेशन कहाँ हो और उसे कौन करे। जब वह कलकत्ता जा रहे थे तब मैंने कहा कि आप वहाँ किसी सरजन से जाँच कराना। "तुम जानती हो यह डाक्टर और सरजन कैसे एक दूसरे की बात को काटते हैं, और अपनी काटवाली बातों से आदमी को घपले में डाल देते हैं।" उनकी राय थी कि आपरेशन दिल्ली में हो या लखनऊ में। लखनऊ पर उनका मन ज्यादा था, क्योंकि उनका ख्याल था कि वहाँ आराम ज्यादा होगा। आखिर में उन्होंने विलिंगडन अस्पताल चुना। क्रूर नियति ही की बात है कि उन्हें विलिन्घडन अस्पताल के सुपरिन्टेडेंट ब्रिगेडियर लाल पर जबरदस्त भरोसा था। इससे पहले उन्होंने ब्रिगेडियर लाल को चाय पर बुलाया था और मुझे चेतावनी दी थी मैं उनसे उनके स्वास्थ्य की बात न करूँ। वह लाल को बहुत बड़ा डाक्टर मानते थे क्योंकि लाल ने एक बार हमारे एक कार्यकर्ता की जान बचायी थी। डा. साहब का स्वभाव अत्यंत उदार था और तारीफ़ व निन्दा दोनो में ही वह कंजूस न थे।

२८ सितम्बर को वह अस्पताल में दाखिल हुए, ३० को आपरेशन हुआ और ११ अक्टूबर को मध्य रात्री के थोड़ी देर बाद मृत्यू। वह हमेशा सफाई, सुथराई के कायल थे। अस्पताल आने पर उन्होंने बिस्तर की चादर देखी कि वह साफ़ है या नहीं। उन्होंने कहा कि मैं घर से तौलिये ले आऊँ पर हमें लगा कि घर के तौलिये स्वच्छता की दृष्टि से निर्दोष और निरापद नहीं रहेंगे, शायद उनसे छूत लगे। पर हुआ यह कि उनकी मृत्यू एक ऐसे घातक दोष से हुई जो ओज़ारों को निर्दोष करने की कमी के कारण छूत से पैदा हुआ। आपरेशन के मौके पर उन्होंने आपरेशन के बारे में फ़िर से पूछताछ की कि वह किस तरह होगा और कैसे होगा। जीवन में हर बात में उनका आग्रह तह तक जाने का था। इसके बाद उन्होंने कहा, "हंसी की बात है कि इस उमर में भी मुझे पता नहीं मेरा खून किस वर्ग का है।" जब मैंने कहा कि यह जानना कोई जरूरी नहीं, तो उन्होंने झिड़कते हुए कहा, "तुम्हारा पक्का एशियाई दिमाग है। हर यूरोप अमरीका वाला अपने रक्त का वर्ग जानता है।" मुझे इस पर एक घटना याद हो आयी। एक बार हमारे रसोईये ने माली को यह कह कर रसोई में नहीं घुसने दिया कि वह छोटी जात का है। जब उन्होंने यह बात सुनी तो रसोईये को बुलाया और इनसाइक्लोपीडिया की जिल्द निकाली और चित्रों के माध्यम से बड़े धीरज से रक्त रहस्य बताया - रक्त जाति से निर्धारित नहीं होता वरन उसके अंतर्निहित तत्वों से. इसके बाद रसोई बनाने वाले इस लड़के ने फिर कभी जाति की बात नहीं उठायी।

अपनी सक्षिप्त बीमारी के दौरान जब वह मौत से जूझ रहे थे मैंने देखा कि उनके दिमाग पर दो बोझ थे। इनमें अव्वल देश की हालत थी। बार बार भयानक पीड़ा और कराह में वह लगान के खात्मे, हिन्दु मुसलिम एकता, गरीब किसानों की दुर्दशा, भाषा तथा अन्य मामलों के बारे में बोलने लगते। मेरे खयाल में वह कभी भी पूरी तरह बड़बड़ाने या संज्ञाशून्य होने की स्थिति में नहीं थे। अपने आसपास के प्रति वह जागरूक दीखते थे। हममें से कुछ को उन्होंने हमेशा पहचाना - स्पर्श से या आवाज़ सुन कर या आँखें खोल कर। एक बार उन्होंने मेरा हाथ अपने हाथ में लिया और कहा, "बताओ, तुम मुझसे कभी झूठ नहीं बोलोगी - क्या हमारे देश में कोई बड़ी चीज़ हो रही है?" "यह पहला रिहर्सल है" - इसके बाद वह भारत पाक महासंघ की बात कहने लगे। हालांकि जब वे अस्पताल में दाखिल हुए तब उनको आसन्न मृत्यु का कोई आभास नहीं था पर शायद जब उनकी हालत खतरनाक हो गयी तो उन्हें लगा कि समय बीता जा रहा है। लिहाजा देश के भवितव्य को ले कर उनकी चिंता व क्लेश मुखर हो उठा। दूसरी बात यह दीख पड़ी कि उन्हें ऐसा लगा कि उनके शरीर में कहीं कोई भारी गड़बड़ हो गयी है। इतने ज्यादा डाक्टरों का जमा होना उन्हें जताता रहा कि वह कितने ज्यादा बीमार हैं। बार बार वह इतने ज्यादा डाक्टरों की मौजूदगी की चर्चा करते रहे, "इतने डाक्टरों का होना अच्छा नहीं"।

वह इतनी पीड़ा पा रहे थे और जबरदस्त बेचैनी थी, पर इसके बावजूद कभी पीड़ा में चिल्लाते हुए मैंने उन्हें नहीं देखा। बीमारी के दौरान मैं लगभग सारे समय उनके साथ थी। हमें इस बात का कभी पता नहीं लगेगा कि वह किस तरह और क्यों मरे? केवल मृत्यु के वक्त उनके चेहरे पर शांति विराज रही थी हालांकि भौंहें तनी थीं. उनके प्रिय चेहरे की यह परीचित भृकुटि थी।

क्या यह महज संयोग है कि जब वह बीमार पड़े थे और मृत्यु से संघर्ष कर रहे थे तभी गैरकांग्रेसवाद पर जबरदस्त प्रहार शुरु हुआ? कौन जानता है? गैरकांग्रेसवाद के जनक की मृत्यु के बाद एक एक कर गैरकांग्रेसी राज्य ढहने लगे। दिल्ली में मार्च अप्रैल के दौरान जब गैरकांग्रेसी सरकारें बन रहीं थीं एक चुटकला चालू था. इस चुटकले पर वह बाग बाग हो उठते - अमृतसर से हावड़ा तक गैरकांग्रेस राज्यों का बोलबाला है, बीच में कहीं कांग्रेसी इलाका नहीं आता। अब यह बात नहीं रही।

इस साल जाड़ा बड़ा सख्त था और बेहद लम्बा चला। दिल्ली की सरदी उन्हें बरदाश्त नहीं होती थी। अक्सर मुझे कहा करते "जाड़े में मुझे दिल्ली मत रहने दिया करो।" आग के आगे बैठने में उन्हें आनन्द आता। बिजली का हीटर भी रहता था, पर अपनी वैज्ञानिक भंगिमा में वह बतलाते कि किस प्रकार जलता हुआ काठ सारे घर को गरमा देता है। उन्हें उष्णता प्यारी थी, शायद भारतीय राजनीति में उन जितना कोई स्नेही नहीं था। अब डाक्टर साहब नहीं रह गये, अपने साथ वह सारा स्नेह और ममत्व ले गये हैं, और मेरी दुनिया निस्तेज, उदास और खोखली रह गयी है।

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टिप्पणी: मुझे रमा मित्र की कोई तस्वीर नहीं मिली. नीचे वाली तस्वीर १९४९-५० की है, इसमें नीचे मेरी माँ जो उस समय कमला दीवान होती थीं, वह बैठी हैं. उनके पीछे शायद रमा जी हैं, पर पक्का नहीं कह सकता. बीच में खड़े डा. लोहिया भी हैं.

Dr Ram Manohar Lohia, Rama Mitra and Kamala Deepak, 1949


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रविवार, दिसंबर 27, 2015

सिँधू घाटी से यूरोप तक भाषा की यात्रा

सँस्कृत तथा उससे जुड़ी विभिन्न भारतीय भाषाओं को इँडोयूरोपी (Indo-European) भाषाओं में गिना जाता है. यह सब भाषाएँ एक ही भाषा-परिवार का हिस्सा है जो पूर्व में भारत से ले कर पश्चिम में यूरोप तक जाता है. विश्व में चार सौ से अधिक इँडोयूरोपी भाषाओं को पहचाना गया है. इन इँडोयूरोपी भाषाओं की मूल स्रोत भाषा कहाँ से उपजी और शुरु हुई, विश्व में कैसे फ़ैली तथा भारत में कैसे आयी, इस विषय पर कैनेडा के एक लेखक श्री विम बोर्सबूम (Wim Borsboom) ने एक नया विचार रखा है. उनके अनुसार इँडोयूरोपी भाषाओं का स्रोत उत्तर पश्चिमी भारत में सिँधू घाटी में था और यह वहाँ से यूरोप तक फ़ैली. इस आलेख में उन्हीं के कुछ विचारों की चर्चा है.

विम बोर्सबूम से मेरा परिचय कुछ माह पहले मेरी एक इतालवी मित्र, क्रिस्टीना ने कराया. उसने मुझे कहा कि विम ने इँडोयुरोपी भाषाओं के बारे में एक किताब लिखी है और इस किताब के सिलसिले में वह भारत में दौरे का कार्यक्रम बना रहे हैं, और उन्हें कुछ सहायता की आवश्यकता है. विम चाहते थे कि विभिन्न भारतीय शहरों में विश्वविद्यालयों, संग्रहालयों तथा साँस्कृतिक संस्थानों आदि के साथ जुड़ कर उनकी किताब के विषय पर चर्चाएँ आयोजित की जायें. मैंने विम को बताया कि मैं गुवाहाटी में रहता हूँ, वह यहाँ आना चाहें तो मैं यहाँ के विश्वविद्यालय तथा साँस्कृतिक कार्यों से जुड़े व्यक्तियों से बात कर सकता हूँ. लेकिन विम ने कहा कि उनके कार्यक्रम में गुवाहाटी आना नहीं था.

आजकल विम भारत में हैं. कई शहरों में उनकी किताब से सम्बँधित कार्यक्रम भी आयोजित हुए हैं. फेसबुक के माध्यम से मिले समाचारों से लगता है कि उन्हें सफलता भी मिली है. तो मुझे लगा कि उनके विचारों के बारे में लिखना चाहिये.

इँडोयूरोपी भाषाओं पर भारत में बहसें

संस्कृत कहाँ से आयी तथा संस्कृत भाषी कहाँ से भारत आये, इस विषय पर भारत में बहुत से विवाद तथा बहसे हैं. यह बहसें आजकल के राजनीतिक वातावरण से जुड़ी बहसों का हिस्सा बन गयी हैं इसलिए उनमें किसी एक का पक्ष लेना खतरे से खाली नहीं. भाषा की बात से अन्य कई प्रश्न जुड़ गये हैं जैसे कि मूल भारतीय कौन हैं और कहाँ से आये. इसकी बहस में लोग सरलता से उत्तेजित हो जाते हैं.

संस्कृत तथा उससे जुड़ी अन्य भारतीय भाषाओं, ईरान की फारसी भाषा तथा युरोप की विभिन्न भाषाओं के शब्दों के बीच बहुत सी समानताएँ हैं. इन समानताओं के बारे में सोलहवीं शताब्दी से ही लिखा जा रहा था और कई लोगों ने इन भाषाओं के एक ही मूल स्रोत से प्रारम्भ होने की बात सोची थी. सन् 1813 में ब्रिटन के थोमस यँग ने पहली बार इन सभी भाषाओं के लिए "इँडोयूरोपी भाषाएँ" शब्द का प्रयोग किया. उनके कुछ दशक बाद जर्मनी के भाषाविद्वान फ्रैंज बोप्प ने अपनी पुस्तक "तुलनात्मक व्याकरण" में विभिन्न इँडोयूरोपी भाषाओं के शब्दों की गहराई से तुलना कर के इस विचार को वैज्ञानिक मान्यता दिलवायी. इस तरह से उन्नीसवीं शताब्दी में भाषाविज्ञान पढ़ने वालों में  "एक ही स्रोत से निकलने वाली इँडोयूरोपी भाषाओं" के सिद्धांत को स्वीकृति मिली.

एक बार इस बात को मान लिया गया कि पश्चिमी युरोप से ले कर, ईरान होते हुए भारत तक, वहाँ के रहने वालों की भाषाओं में समानताएँ थीं तो इससे "मूल स्थान" की बहसे शुरु हुईं. इन भाषाओं को बोलने वाले लोग पूर्वातिहासिक काल में कभी एक ही स्थान पर रहने वाले लोग थे जो वहाँ से विभिन्न दिशाओं में फ़ैले, तो प्रश्न था कि वह मूल स्थान कहाँ हो सकता था?

बीसवीं शताब्दी में इँडोयूरोपी भाषाओं की इस बहस में सिँधु घाटी की सभ्यता (Indus valley civilisation) की एक अन्य बहस जुड़ गयी. 1920-21 में भारतीय पुरात्तव सर्वे सोसाइटी ने हड़प्पा तथा मोहन‍जो‍दड़ो के ईसा से तीन-चार हजार वर्ष पूर्व के भग्नावषेशों की खोज की. इन्हें "सिँधु घाटी सभ्यता" का नाम दिया गया.  भग्नावशेषों की पुरातत्व जाँच से विषशेषज्ञों का विचार था कि ईसा से सत्रह-अठारह सौ वर्ष पहले थोड़े समय में यह सभ्यता कमज़ोर होने लगी और फ़िर लुप्त हो गयी.

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1953 में ब्रिटेन के पुरातत्व विशेषज्ञ मोर्टिमर व्हीलर ने मोहन‍जो‍दड़ो-हड़प्पा की अपने शौध के आधार पर यह विचार रखा कि सिँधु घाटी की सभ्यता के कमज़ोर व लुप्त होने का कारण उत्तर पश्चिम दिशा से आने वाले लोग थे जिन्होंने सिधु घाटी के निवासियों पर आक्रमण किया, तथा उनके शहरों को नष्ट किया. इस हमले का प्रमाण था वहाँ से मिले कुछ मानव कँकाल जिन पर व्हीलर के अनुसार चोट के निशान थे, यानि वह युद्ध में मरे थे. उनका यह भी विचार था कि उत्तर पश्चिम से आने वाले लोग "आर्य" थे, जो कि सिँधू घाटी की सभ्यता को नष्ट करके आर्य सभ्यता को उत्तरी भारत में लाये.

सिँधु घाटी की सभ्यता के नष्ट होने तथा आर्यों के भारत में आ कर बसने के विचारों से, इँडोयुरोपी भाषाएँ कैसे बनी व फ़ैलीं, के प्रश्नों के उत्तर भी स्वाभाविक लगे. यह माना जाने लगा कि इँडोयूरोपी मूल भाषा बोलने वाले लोग ईरान की तरफ़ से सिँधू घाटी में आये, फ़िर वहाँ से स्वयं को आर्य कहने वाले यह लोग उत्तर पश्चिमी भारत बस गये. इस तरह से संस्कृत तथा उससे निकली भाषाएँ पूरे भारत महाद्वीप में फ़ैलीं.

1956 में लिथुआनिया में जन्मी, अमरीकी पुरात्तववैज्ञानिक सुश्री मारिया गिमबूटाज़ ने मध्य यूरोप के अपने शौध में पुरात्तवविज्ञान तथा भाषाविज्ञान की विधियों को साथ जोड़ कर "क्रूगन विचारधारा" की धारणा रखी, जिसके अनुसार इँडोयूरोपी भाषा बोलने वालों का मूल स्थान पूर्वी तुर्की के अनातोलिया तथा काले सागर के युक्रेन, ज्रोजिया जैसे देशों के हिस्से वाले मध्य यूरोप में था. उनका कहना था कि मध्य यूरोप से, ईसा से 4000 से 1000 वर्ष पहले के समय में, यह लोग पहले ईरान और फ़िर बाद में पश्चिमी भारत की ओर फ़ैले.

इस तरह से इस प्रश्न का उत्तर मिला कि संस्कृत तथा इन्डोयूरोपी भाषाएँ कहाँ से उपजी और कैसे फ़ैलीं तथा इन धारणाओं को विश्व भर में मान्याएँ मिलीं. लेकिन भारत में राष्ट्रवादियों ने इस धारणा पर कई प्रश्न उठाये. यह कहना कि आर्य मध्य यूरोप या ईरान से भारत आये थे, वेद पुराणों की संस्कृति को "विदेशी संस्कृति" बना देता था.

जब पुरात्तवविज्ञान की तकनीकी में तरक्की हुई तो व्हीलर के आर्य आक्रमण के विचारों को गलत माना गया क्योंकि जाँच से मालूम चला कि उन कँकालों पर चोट के निशान नहीं थे बल्कि वह केवल समय बीतने के कारण ऐसा लग रहा था. सिंधु घाटी की सभ्यता के समाप्त होने का कारण अब वहाँ सूखा पड़ना तथा पानी की कमी होना माना जाता है. आज अधिकतर पुरातत्वविद "आर्यों के आक्रमण" के बदले "सूखे तथा पानी की कमी" को सिँधू घाटी की सभ्यता के लुप्त होने का कारण स्वीकारते हैं.

क्रूगर विचारधारा तथा उससे मिलती जुलती विचारधाराओं की सोच को बहुत से लोगों ने स्वीकारा है, लेकिन कई लोग इस बात से सहमत नहीं. इन विचारों से सहमत या असहमत होने वाली बहस को "वामपँथी इतिहासकार" और "रूढ़िवादी विचारों वाले" लोगों की बहस  का रूप मिला है. इस बहस का केन्द्र है यह साबित करना कि आर्य बाहर से आये थे या पहले से भारत में रहते थे, क्योंकि इससे साबित किया जायेगा कि आर्य असली भारतीय हैं या नहीं.

भारत की स्वतंत्रता के बाद, पिछले पचास साठ सालों में सिँधु घाटी सभ्यता के बहुत से अन्य भग्नावषेश मिले हैं, जो कि पूर्व में हरियाणा से ले कर पश्चिम में अफगानिस्तान तक फ़ैले हैं. इन में कुछ भग्नावषेश ईसा से सात-आठ हज़ार वर्ष पहले के हैं. इसके साथ साथ पुरात्तव तथा जीवविज्ञान सम्बँधी नयी वैज्ञानिक तकनीकें खोजी गयीं हैं जिनसे सिँधू घाटी से जुड़े प्रश्नों के नये उत्तर मिलने की सम्भावना बढ़ी है.

उदाहरण के लिए, 2013 में भारतीय जीनोम शौध के बारे में समाचार आया जिसमें हैदराबाद के सैंटर फॉर सेलूलर एँड मोलिक्यूलर बायोलोजी (Centre for Cellular and Molecular Biology - CCMB) में भारत के विभिन्न हिस्सों से 25,000 लोगों के खून में माइटोकोन्ड्रियल डीएनए (Mitochondrial DNA) की जाँच की गयी. इसके अनुसार ईसा से करीब चार हज़ार वर्ष पहले भारत में यूरोपीय मूल तथा पहले से भारत में रहने वालों लोगों के बीच सम्मश्रिण हुआ, जबकि भारतीय समाज का विभिन्न जातियों तथा वर्णों में विभाजन बहुत बाद में हुआ. इस शौध का यह अर्थ नहीं कि यूरोपी मूल के लोग चाह हज़ार वर्ष पहले भारत आये, क्योंकि उनके डीएनए की जाँच से मालूम चलता है कि वह अन्य यूरोपी लोगों से करीब बारह हज़ार वर्ष पहले अलग हुए थे. लेकिन यह तो इस तरह के शौधों का केवल एक उदाहरण है. पिछले वर्षों में जिनोम (Genome) से जुड़े बहुत से शौधों के नतीजे आये हैं जिनसे स्पष्ट एक दिशा में उत्तर नहीं मिलते, इसलिए किसी एक शौध पर विचार आधारित करना सही नहीं.

विम बोर्सबूम के आलेख तथा विचारधारा

विम का विचार है कि ईसा से नौ हज़ार साल पहले से ले कर तीन हज़ार साल पहले के समय में सिँधु घाटी में कई प्राकृतिक दुर्घटनाएँ घटीं जिनसे वहाँ के लोगों में कुष्ठ रोग तथा यक्ष्मा जैसी बीमारियाँ फ़ैलीं. इस सब की वजह से वहाँ के लोग धीरे धीरे सिँधू घाटी को छोड़ कर विभिन्न दिशाओं में निकल पड़े. सिँधु घाटी के लोगों के इस तरह अलग अलग जगहों पर जाने से तथा वहाँ के लोगों के मिलने से, उनकी भाषा भी विभिन्न दिशाओं में समुद्री नावों तथा जहाज़ों के माध्यम से फैली, इस तरह से दुनिया में इँडोयूरोपी भाषाओं की नीव पड़ी.

इस विचार को उन्होंने अपने 2013 के आलेख, "नवपाषाण तथा मध्यपाषाण युग में सिँधु घाटी से उत्तर व दक्षिण भारत तथा अन्य दिशाओं में प्रस्थान" में व्याखित किया था.

जैसा कि उपर भारतीय जीनोम शौध के बारे में लिखा है, पिछले दशक में मानव डीएनए तथा जिनोम से जुड़ी तकनीकी के प्रयोग से आदिमानव कहाँ से निकल कर कहाँ गया, वैज्ञानिकों की यह समझने की शक्ति बढ़ी है. इस शौध में माइटोकोन्ड्रियल डीएनए की जाँच की जाती है जोकि केवल बेटी को माँ से मिलता है, और उसमें प्राचीन डीएनए का इतिहास खोजना अधिक आसान होता है. इस तरह से हम यह जान सकते हैं कि वह डीएनए लोगों में किस तरह से फ़ैला तथा उसमें कितनी भिन्नता आयीं, और किस एतिहासिक समय में आयीं. इन जीव वैज्ञानिक शौध तकनीकों को पुरातत्व की नयी तकनीकों से जोड़ कर, हम इतिहास को एक नये दृष्टिकोण से देखने व समझने की कोशिश कर सकते हैं.

अपनी नयी किताब "अल्फाबेट टू आबराकाडबरा" (Alphabet to Abracadabra)  में, विम अपने 2013 के आलेख में व्याखित बातों में, भाषाविज्ञान शौध की नयी समझ को जोड़ कर देखते हैं. इस पुस्तक में उनका विचार हैं कि अंग्रजी के अल्फाबेट (A, B, C, D ...) यानि वर्णमाला की संरचना, पाणिनी की संस्कृत की वर्णमाला से बहुत मिलती है, यानि जब सिँधू घाटी से लोग पश्चिमी यूरोप में विभिन्न जगहों पर पहुँचे तो अपने साथ आदि-संस्कृत वर्णमाला को भी साथ ले कर गये.

विम की बात में कितनी विश्वासनीयता है?

विम ने अपना कार्यजीवन फाउँडरी में मेकेनिक के रूप में शुरु किया. फ़िर उन्होंने अपनी पढ़ाई शिक्षण के क्षेत्र में की और विद्यालय स्तर पर पढ़ाया. पच्चीस साल पहले, वहाँ से वह कम्प्यूटर तथा तकनीकी के क्षेत्र में गये और कम्प्यूटर शिक्षा में काम किया. साथ ही भारत की आध्यात्मिक सोच, योग आदि से भी वह प्रभावित रहे हैं. पिछले कुछ वर्षों में सेवानिवृत होने के बाद, वह भारतीय पुरात्तव तथा सिँधु घाटी सभ्यता से जुड़े विषयों की शौध में रुचि ले रहे हैं. इस तरह से उन्हें बहुमुखी प्रतिभा भी कह सकते हैं.

साथ ही मन में कुछ दुविधा उठना स्वाभाविक है कि वह न तो पुरातत्व विशेषज्ञ हैं न ही भाषाविद्, तो यह शौध उन्होंने किस तरह किया और उनकी समझ में वैज्ञानिक दृष्टि किस हद तक है?

2013 का उनका आलेख माइटोकोन्ड्रियल डीएनए में एक हेप्लोग्रुप का संदर्भ देता है जोकि भारतीय मूल के लोगों में 13 से 16 प्रतिशत मिलता है, और जिसे वह उन सभी लोगों में खोजते हैं जहाँ नवपाषाण तथा मध्यपाषाण युग में 9000 से 3000 वर्ष पहले सिँधु घाटी से लोग गये होंगे. उनके आलेख में इन प्रमाणों का विवरण और उनका विशलेषण मुझे कुछ सतही सा लगा. छोटे से आलेख में शायद गहराई में जाना संभव नहीं था. यह नहीं समझ पाया कि क्या उनका यह आलेख किसी वैज्ञानिक जर्नल में छपा या नहीं? वह इसका संदर्भ नहीं देते. हालाँकि यह बात भी सच है कि वैज्ञानिक दायरों में कोई सही डिग्री न हो तो आप की बात को गम्भीरता से नहीं लिया जाता, चाहे आप सही कह रहे हों!

उनकी किताब पढ़ने का अभी मौका नहीं मिला है इसलिए कह नहीं सकता कि  उसमें उन्होंने अपने विचारों को कितना अधिक प्रभावशाली तरीके से व्याखित किया है और अपने विचारों के बारे में किस तरह के सबूत दिये हैं.

एक अन्य बात है उनके इन विचारों से जो मुझे स्पष्ट नहीं है. सिँधु घाटी की भाषा को भिन्न भाषा माना गया है, वहाँ मिली मौहरों की भाषा को अभी भी ठीक से नहीं समझा गया है. जहाँ तक मुझे मालूम है, सिँधु घाटी में संस्कृत से जुड़ा कोई प्रमाण भी नहीं मिला. तो यह कैसे मानें कि सिँधु घाटी में नवपाषाण युग में रहने वाले लोग ही संस्कृत की मूल भाषा को दुनिया के अन्य हिस्सों में ले कर गये? यह सच है कि मौहरों पर बने निशानों को भाषा मानना शायद सही नहीं और अगर प्राचीन ज्ञान बोलने वाली संस्कृति में स्मृति के रूप में सहेजा गया, तो इसके प्रमाण मिलना आसान नहीं.

मुझे व्यक्तिगत स्तर पर आर्य थे या नहीं थे, कहाँ से आये या नहीं आये, जैसी बातों में कोई भावनात्मक दिलचस्पी नहीं है. हाँ कोई तर्क से, सबूत दे कर ठीक से कुछ समझाये, यह अच्छा लगता है. इसलिए विम की बातें दिलचस्प तो लगती हैं, लेकिन उनसे मुझे अपने सारे प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलते! मेरे विचार में केवल यह सोचना कि बस इसकी या उसकी बात सही है, बाकी सब झूठ, गलत होगा. हमें हर नये शौध और विचार को खुले मन से जानना चाहिये तथा उसका विशलेषण करना चाहिये. कल नयी तकनीकें व नयी शौध विधियों से कछ अलग सोच मिलेगी तो शायद इन पुराने प्रश्नों को भी उत्तर मिलेगा.

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गुरुवार, अगस्त 06, 2015

एक अकेला बूढ़ा

भारत की जनसंख्या में बदलाव आ रहा है, बूढ़ों की संख्या बढ़ रही है. अधिक व्यक्ति, अधिक उम्र तक जी रहे हैं. दूसरी ओर परिवारों का ध्रुविकरण हो रहा है. आधुनिक परिवार छोटे हैं और वह परिवार गाँवों तथा छोटे शहरों से अपने घरों को छोड़ कर दूसरे शहरों की ओर जा रहे हैं. जहाँ पहले विवाह के बाद माता पिता के साथ रहना सामान्य होता था, अब बहुत से नये दम्पत्ती अलग अपने घर में रहना चाहते हैं.

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कैसा जीवन होता है भारतीय वृद्धों का?

पिछले वर्ष मैं साठ का पूरा हुआ और सरकारी योजनाओं के लिए "वरिष्ठ नागरिक" हो गया. अपनी साठवीं वर्षगाँठ पर मैंने इटली में अपने परिवार से दूर, कुछ सालों के लिए भारत वापस आ कर अकेला रहने का निर्णय लिया.

मेरे अकेले रहने के निर्णय और भारत के आम वृद्ध व्यक्ति की स्थिति में बहुत दूरी है. यह आलेख बूढ़े होने, अकेलेपन, निस्सहाय महसूस करना, इन्हीं बातों पर मेरे व्यक्तिगत अनुभव को समाजिक परिवर्तन के साथ जोड़ कर देखने की कोशिश है.

इस आलेख की तस्वीरें गुवाहाटी के इस वर्ष के अम्बाबाशी मेले से बूढ़े साधू, साध्वियों और तीर्थ यात्रियों की हैं.

विवाह की वर्षगाँठ

पिछले रविवार को मेरे विवाह की तेंतिसवीं सालगिरह थी. उस दिन नींद सुबह के साढ़े तीन बजे ही खुल गयी. वैसे तो जल्दी उठने की आदत है मुझे, पर इतनी जल्दी नहीं. अधिकतर चार-साढ़े चार बजे के आसपास उठता हूँ. एक दिन पहले सोचा था कि इस बार की विवाह एनीवर्सरी को रोटी बना कर मनाऊँगा. काम से बाद घर वापस आते समय बाज़ार से आटा और बेलन दोनो खरीद कर ले आया था. शायद रोटी बनाने की चिन्ता या उत्सुकता ने ही जल्दी जगा दिया था?

मेरी पत्नी का फोन आया. "तुम विवाह की वर्षगाँठ मनाने के लिए क्या करोगो?", उसने पूछा. "रोटी बनाऊँगा", मैंने कहा तो वह हँसने लगी.

गुवाहाटी में रहते हुए करीब आठ महीने हो चुके हैं. सुबह क्या करना है, इसकी भी नियमित दिनचर्या सी बन गयी है. उठते ही, सबसे पहले शरीर के खुले हिस्सों पर मच्छरों से बचने वाली क्रीम लगाओ. फ़िर बल्ड प्रेशर की गोली खाओ. उसके बाद कॉफ़ी तथा नाश्ते का सीरियल बनाओ. जब तक कॉफ़ी पीने लायक ठँडी हो और कम्यूटर ओन हो तब तक थोड़ी वर्जिश करो.

सुबह उठ कर ध्यान करूँगा, यह कई महीनों से सोच रहा हूँ. लेकिन आँखें बन्द करके पाँच मिनट भी नहीं बैठ पाता हूँ. कहने को अकेला हूँ, समय की कमी नहीं होनी चाहिये, लेकिन ठीक से ध्यान करने के लिए समय निकालना अभी तक नहीं हो पाया. और भी बहुत सी बातें हैं जिनको करने के सपने देखे थे, पर जिन्हें करने का अभी तक समय नहीं खोज पाया - असमी बोलना सीखना, संगीत की शिक्षा लेना, चित्रकारी करना, नियमित रूप से लिखना, आदि.

सारा दिन तो काम में निकल जाता है. मैं यहाँ गुवाहाटी में एक गैर सरकारी संस्था "मोबिलिटी इँडिया" के लिए काम कर रहा हूँ.ऊपर से घर के काम अलग. कितनी भी कोशिश कर लूँ, उन्हें पूरा करना कठिन है. झाड़ू, पोचा, कपड़े धोना, बाज़ार जाना, खाना बनाना, बर्तन साफ़ करना, कपड़े प्रेस करना, मकड़ी के जाले हटाना, खिड़कियों के शीशे साफ़ करना, बिखरे कागज़ सम्भालना, कूड़ा फैंकना, और जाने क्या क्या! यह सब काम एक दिन में पूरे नहीं हो सकते. इसीलिए अभी तक टीवी भी नहीं खरीदा. सोचा कि वैसे ही समय नहीं मिलता, अगर टीवी देखने में लग गया तो बाकी के सब कामों को कौन करेगा?

भारत आने के बाद अकेला रहते रहते, धीरे धीरे सब खाना बनाना सीख चुका हूँ. बस अब तक कभी रोटी नहीं बनायी थी. मार्किट में बनी बनायी रोटियाँ मिलती हैं जिन्हें फ्रिज़र में रख सकते हैं और आवश्यकतानुसार गर्म कर सकते हैं. पर इधर दो-तीन बार मार्किट गया था लेकिन बनी बनायी रोटी नहीं मिली. दुकान में केवल पराँठे थे जो मुझसे ठीक से हज़म नहीं होते. फ़िर सोचा कि जिस तरह से बाकी सब खाना बनाना आ गया है तो रोटी बनाने में क्या मुश्किल होगी? बस इस शुरुआत के लिए किसी शुभ दिन की प्रतीक्षा थी. और विवाह की वर्षगाँठ से अच्छा शुभदिन कौन सा मिलता!

रविवार की सारी सुबह रसोई में गुज़री. रेडियो से गाने सुनता रहा और साथ साथ खाना बनाता रहा. जब थोड़ी गर्मी लगी, तो फ्रिज में ठँडी बियर इसीलिए रखी थी. शायद बियर का ही असर था कि जब कोई पुराना मनपसंद गाना आता तो खाना बनाते बनाते थोड़े नाच के ठुमके भी लगा लिए. जब कोई देख कर हँसने वाला न हो, तो जो मन में आये उसे करने से कौन रोकेगा?

तीन घँटों की मेहनत के बाद, उस दिन के खाने में केवल दाल ही सही बनी. रोटियाँ भी कुछ सूखी सूखी सी बनी थीं और आकार में ठीक से गोल भी नहीं थीं. पर अपनी मेहनत का बनाया खाना था, उसे बहुत आनन्द से खाया. मन को दिलासा दिया कि अगली बार रोटी भी अच्छी बनेगी!

यही सपना देखा था मैंने, भारत आ कर ऐसे ही रहने का. जहाँ तक हो सके, अपना हर छोटा बड़ा काम अपने आप करने का. जितना हो सके पैदल चलने का या सामान्य लोगों की तरह बस में यात्रा करने का.

वैसे सच में मेरा एक सपना यह भी था कि एक साल तक भगवा पहन कर, दाढ़ी बढ़ा कर, बिना पैसे के, भारत में इधर उधर भटकूँ. अगर कोई खाने को दे या सोने की जगह दे दे, तो ठीक, नहीं मिले तो भूखा ही रहूँ, सड़क के किनारे सो जाऊँ. पर जोगी बन कर जीने के उस सपने को जी पाने का साहस अभी तक नहीं जुटा पाया हूँ.

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यूरोप में रह कर आराम से जीना, काम के लिए विभिन्न देशों में घूमना, बड़े होटलों में तरह तरह के खाने खाना, सारा जीवन वैसे ही जिया था. इसीलिए मेरा सपना था कि भारत आ कर उस सब से भिन्न जीवन जियूँ. सपने देखना तो आसान है, सच में उन्हें जीना कठिन. सपनों में न मच्छर होते हैं, न गर्मी और उमस. पर मैंने जो सोचा था उसे मैं कर पाया. अब भी कभी कभी विश्वास नहीं होता कि मैं अपना सपना जी रहा हूँ.

वैसे गुवाहाटी में जिस तरह रहने का निर्णय लिया है, वह उतना कठिन नहीं है. यहाँ अम्बुबाशी के मेले में बहुत से बूढ़े साधू दिखे. सोचा कि खुले में रहने वाले यह वृद्ध लोग जब तबियत खराब हो तो क्या करते होंगे? शायद अन्य साधू ही उनका ख्याल करते होंगे? और बुखार हो या जोड़ों में दर्द हो तो खुले में गर्मी, सर्दी में बाहर रहना कितना कठिन होता होगा!

अकेला निस्सहाय बूढ़ा

रविवार को ही सुबह इंटरनेट पर एक नयी तमिल फ़िल्म की समीक्षा पढ़ी थी, जिसका अकेला वृद्ध नायक अपने अकेलेपन से बचने के लिए दिल का दौरा पड़ने का बहाना करता है ताकि एम्बूलैंस के चिकित्साकर्मियों से ही कुछ बात कर सके. उसे पढ़ कर सोच रहा था कि मैं भी तो एक अकेला बूढ़ा हूँ, तो मुझमें और उन अन्य बूढ़ों में क्या अन्तर है जो जीवन के आखिरी पड़ाव में खुद को अकेला तथा निस्सहाय पाते हैं? मैं स्वयं को क्यों अकेला तथा निस्सहाय नहीं महसूस करता?

शायद सबसे बड़ा अन्तर है कि मैंने यह जीवन स्वयं चुना है. अगर मेरा गुवाहाटी में ट्राँसफर हो गया होता, मुझे यहाँ अकेले रहने आना पड़ता, तो मुझे भी यहाँ रहना भारी लगता. जब परिवार से दूर रहना पड़े, करीब में न कोई बात करने वाला हो, न कोई मित्र, तो वह अकेलापन सहन करना कठिन हो सकता है. पर जब इस तरह जीने का सपना देखा हो और सोच समझ कर यह निर्णय लिया हो कि मैं कुछ वर्षों तक ऐसे ही रहूँगा, तो जीवन की हर बात देखने की दृष्टि बदल जाती है. खाना बनाना, सफाई करना, बस की भीड़ में धक्के खाना, सब कुछ एक सपने का हिस्सा हैं, अपने आप से स्पर्धा हैं कि मैं यह कर सकता हूँ या नहीं. इसमें किसी की जबरदस्ती नहीं है.

यह भी सच है कि मैं यह जीवन जीने के लिए मजबूर नहीं हूँ. जिस दिन चाहूँ, इसे छोड़ कर अपने पुराने जीवन में वापस जा सकता हूँ. बीच बीच कुछ दिनों के लिए यूरोप गया भी हूँ. अगर सामने कोई विकल्प न हो, केवल ऐसा ही जीने की मजबूरी हो तो शायद मुझे भी इससे डिप्रेशन हो जाये?

रिटायर होने में "अब समय का क्या करें" का भाव भी होता है. अचानक दिन लम्बे, निर्रथक और खाली हो जाते हैं. मेरे साथ यह बात भी नहीं. काम, किताबें पढ़ना, लिखना, इन्टरनेट, फोटोग्राफ़ी, जो सब कुछ मैं करना चाहता हूँ उसके लिए दिन थोड़े छोटे पड़ते हैं. लेकिन अगर आप ने अपना सारा जीवन अपने काम के आसपास लपेटा हो, और एक दिन अचानक वह काम न रहे, तो जीवन की धुरी ही नहीं रहती. लगता है कि हम किसी काम के नहीं रहे. औरतों पर तो फ़िर भी घर की ज़िम्मेदारी होती है, रिटायर हो कर भी वह उन्हीं की ज़िम्मेदारी रहती है. लेकिन मेरे विचार में सेवानिवृत पुरुषों को नया जीवन बनाना अधिक कठिन लगता है.

शायद बूढ़े होने में, निस्सहायता के भाव के पीछे सबसे बड़ी मजबूरी गरीबी या पैसा कम होने की है. और एक अन्य बड़ी बात शरीर के कमज़ोर होने तथा बीमारी की है. अगर अचानक कुछ बीमारी हो जाये, या शरीर के किसी हिस्से में दर्द होने लगे, या केवल बुखार ही आ जाये, तो शायद मैं भी वैसा ही निस्सहाय महसूस करूँगा!

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हमारे जीवन का अंत कैसे होना है, यह किसी को नहीं मालूम. कुछ दिन पहले जब भूतपूर्व राष्ट्रपति डा. अब्दुल कलाम साहब का देहाँत हुआ तो मन में आया कि मृत्यू हो तो ऐसी, जीवन के अंतिम क्षण तक काम करते करते आने वाली. वह भी तो अकेले ही थे, क्या उन्होंने अपने आप को कभी निस्सहाय बूढ़ा महसूस किया होगा?

हम लोग बढ़ापे को जीवन से भर कर जीयें या निस्सहाय बूढ़ा बन कर अकेलेपन और उदासी में रहें, क्या यह सब केवल नियती पर निर्भर करता है? अधिकतर लोगों के पास मेरी तरह से अपना जीवन चुनने का रास्ता नहीं होता. पैसा न हो, पैंशन न हो, स्वतंत्र जीने के माध्यम न हों तो चुनने के लिए कुछ विकल्प नहीं होते. और अगर बीमारी या दर्द ने शरीर को मजबूर कर दिया हो तो अकेले रहना कठिन है.

दुनिया के विभिन्न देशों में पिछले कुछ दशकों में जीवन आशा की आयू बढ़ी है. भारत में भी यही हो रहा है. इसलिए आज समय रहते स्वयं से यह प्रश्न पूछना कि बूढ़ा होने पर कैसे रहना चाहूँगा तथा इसकी तैयारी करना, बहुत आवश्यक हो गये हैं.

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1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ था, आम औसत भारतीय केवल 31 वर्ष तक जीने की आशा करता था, आज औसत जीवन की आयू करीब 68 वर्ष है. हर वर्ष हमारे देश में 75 वर्ष से अधिक आयू वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है. पर हमारा सामाजिक ढाँचा नहीं बदला. जब थोड़े से लोग वृद्ध होते थे और परिवार बड़े होते थे, उनको आदर देना और ऐसी सामाजिक सोच बनाना जिसमें परिवार अपने वृद्ध लोगों की देखभाल खुद करे, आसान थे. आज परिवार छोटे हो रहे हैं और वृद्ध लोग अधिक, तो बूढ़े माता पिता की उपेक्षा, उनके प्रति हिँसा या उदासीनता, सब बातें बढ़ रही हैं.

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अगले दशकों में बूढ़ों की संख्या और बढ़ेगी. दसियों गुना बढ़ेगी. हमारे परिवेश में लोग अपने बुढ़ापे की किस तरह से देख भाल करें, इसके लिए सरकार और गैर सरकारी संस्थाओं को सोचना पड़ेगा. लेकिन सबसे अधिक आवश्यक होगा कि हम लोग स्वयं सोचे कि उस उम्र में आ कर किस तरह हम अधिक आत्मनिर्भर बनें, किस तरह से अपने जीवन के निर्णय लें जिससे अपना बुढ़ापा हम अपनी इच्छा से बिता सकें, और जीवन के इस अंतिम पड़ाव में वह सब कुछ कर सकें जो हमारे मन चाहे.

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सबके पास ऐसे साधन नहीं होते कि वह जीवन के अंतिम चरण में जैसा रहना चाहते हैं इसका चुनाव कर सकें. पर हमारे समाज को इस बारे में सोचना पड़ेगा.

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बूढ़ा होने पर दिखना सुनना कम होना, जोड़ों में दर्द होना, ब्लड प्रेशर या मधुमेह जैसी बीमारियाँ होना, सब कुछ अधिक होता है. इनका सामना करने के लिए कई दशक पहल पहले तैयारी करनी पड़ेगी. कहते हैं कि भारत जवान देश है, हमारे यहाँ जितने युवा हैं उतने किसी अन्य देश के पास नहीं. लेकिन साथ साथ, हमारे यहाँ जितने वृद्ध होंगे, वह भी किसी अन्य देश के पास कठिनाई से होंगे.

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आप ने क्या कभी बूढ़े होने के बारे में सोचा है? कैसे रहने का सोचा आपने और कितनी सफलता मिली आप को? स्वयं को आप खुशनसीब बूढ़ा मानते हैं या निस्साह बेचारा बूढ़ा? या शायद आप सोचते हें कि अभी तो बुढ़ापा बहुत दूर है और फ़िर कभी सोचेंगे इसके बारे में?

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शुक्रवार, जुलाई 17, 2015

चमकीले फीतों का जहर

बहुत साल पहले एक पत्रिका होती थी "सारिका", उसमें किशन चन्दर की एक कहानी छपी थी "नीले फीते का जहर". क्या था उस कहानी में यह याद नहीं, बस यही याद है कि कुछ ब्लू फ़िल्म की बात थी. पर दुकानों पर लटकती चमकीली थैलियों के फीते देख कर मुझे हमेशा उसके शीर्षक की याद आ जाती है.

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

हवा में लटकते फीते किसी बुद्ध मन्दिर में फहराते प्रार्थना के झँडों की तरह सुन्दर लगते हैं. इन थैलियों में शैम्पू, काफी, मक्खन, आदि विभिन्न चीज़ें बिकती हैं, जिनमें कोई जहर नहीं होता. इन झँडों में आम भारतीय उपभोगता की स्वाभाविक चालाकी की कहानी भी है जोकि बड़े बहुदेशीय कम्पनियों के बिक्री मैनेजरों को ठैंगा दिखाती है. तो फ़िर क्यों यह थैलियाँ हमारे जीवन में जहर घोल रही हैं?

थैलियों से जान पहचान

छोटी छोटी यह चमकीली थैलियाँ देखीं तो पहले भी थीं, लेकिन पहली बार उनके बारे में सोचा जब पिछले साल स्मिता के पास केसला (मध्य प्रदेश) में ठहरा था.

थैलियों को कूड़े में देख कर मैंने स्मिता की साथी शाँतीबाई से पूछा था, इस कूड़े का क्या करती हो? यह भी क्या सवाल हुआ, उसने अवश्य अपने मन में सोचा होगा, यहाँ क्या गाँव में कोई कूड़ा उठाने आता है? नींबू या फल सब्जी का छिलका हो तो रसोई के दरवाज़े से पीछे खेत में फैंक दो. और प्लास्टिक या एलूमिनियम की थैली हो तो जमा करके जला दो, और क्या करेंगे इस कूड़े का?

इसीलिए यह थैलियाँ दूर दूर के गाँवों की हवा में रंग बिरंगी तितलियों की तरह उड़ती हैं. लाखों, करोड़ों, अरबों थैलियाँ. भारत इन चमकीली थैलियों की दुनिया भर की राजधानी है.

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

एक ओर यह थैलियाँ भारत में अरबों रुपयों की बिक्री करने वाली कम्पनियों के लिए सिरदर्द बनी हैं. वह कम्पनियाँ भी कोशिश करके हार गयीं लेकिन इसका हल नहीं खोज पायीं कि कैसे थैलियों में बेचना कम किया जाये, ताकि मुनाफ़ा बढ़े. उनको हवा में तितलियों की तरह उड़ने वाली थैलियों की चिन्ता नहीं, उनको चिन्ता है कि इन थैलियों से छुटकारा पा कर कैसे अपनी कम्पनी के लाभ को अधिक बढ़ायें.

आज जब "स्वच्छ भारत" की बात हो रही है, तो इन थैलियों की कथा को समझना भी आवश्यक है.

थैंलियाँ कैसे आयीं भारत में?

छोटी थैलियों में चीज़ बेचना यह एक भारतीय दिमाग का आविष्कार था - श्री सी के रंगानाथन का.

तमिलनाडू के कुडालूर शहर के वासी श्री रंगानाथन ने 1983 में चिक इन्डिया (Chik India) नाम की कम्पनी बनायी, जो चिक शैम्पू बनाती थी. उन्होंने चिक शैम्पू को छोटी एलूमिनियम की थैलियों में बेचने का सोचा. उनका सोचना था कि गाँव तथा छोटे शहरों के लोग एक बार में शैम्पू की बड़ी बोतल नहीं खरीद सकते, लेकिन वह भी शैम्पू जैसी उपभोगत्ता वस्तुओं का प्रयोग करना चाहते हैं, तो कम दाम वाली एक रुपये की थैली खरीदना उनके लिए अधिक आसान होगा. उनकी सोच सही निकली और चिक इन्डिया को बड़ी व्यवसायिक सफलता मिली.

1990 में चिक इन्डिया का नाम बदल कर ब्यूटी कोस्मेटिक प्र. लि. रखा गया और 1998 इसके नाम का अन्तर्राष्ट्रीयकरण हुआ तथा यह "केविन केयर प्र. लि." (CavinKare Pvt. Ltd.) कर दिया गया. श्री रंगनाथन को कई पुरस्कार मिल चुके हैं तथा उन्होंने विकलाँग मानवों के साथ काम करने वाली स्वयंसेवी संस्था "एबिलिटी फाउँनडेशन" भी स्थापित की है.

1991 में जब नरसिम्हाराव सरकार ने भारत के द्वार उदारीकरण की राह पर खोले तो दुनियाभर की बड़ी बड़ी बहुदेशीय कम्पनियों ने सोचा कि करोड़ों लोगों की आबादी वाले भारत के बाज़ार में उनकी कमाई के लिए जनता उनकी प्रतीक्षा में बैठी थी. इन कम्पनियों के कुछ उत्पादनों को FMCG (Fast Moving Consumer Goods) यानि "अधिक बिक्री होने वाली उपभोगत्ता वस्तुएँ" के नाम से जाना जाता है, छोटी थैलियाँ उन्हीं उत्पादनों से जुड़ी हैं.

इन कम्पनियों ने जोर शोर से भारत में अपने उद्योग लगाये और वितरण प्लेन बनाये, लेकिन जिस तरह की बिक्री की आशा ले कर यह कम्पनियाँ भारत आयी थीं, वह उन्हें नहीं मिली. कुछ ही वर्षों में लगातार घाटों के बाद सबमें हड़बड़ी सी मच गयी.

जब बहुदेशीय कम्पनियों को भारत के बाज़ार में सफलता नहीं मिली, तो उन्होंने भी छोटी थैलियों की राह पकड़ी. उनका सोचना था कि सस्ती थैलियों के माध्यम से एक बार लोगों को उनकी ब्रैंड की चीज़ खरीदने की आदत पड़ जायेगी तो वह बार बार दुकान में जा कर सामान खरीदने के बजाय उनकी बड़ी बोतल खरीदेंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. उनकी छोटी थैलियाँ खूब बिकने लगीं, लेकिन उनकी बड़ी बोतलों की बिक्री जितनी बढ़ने की उन्हें आशा थी, वैसा नहीं हुआ.

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

भारत में लोग हर चीज़ को माप तौल कर यह देखते हैं कि कहाँ अधिक फायदा है, और लोगों ने छोटी थैलियों के साथ भी यही किया. अगर आप बड़ी बोतल के बदले उतनी ही चीज़ छोटी पचास या सौ थैलियों में खरीदें तो आप को उसकी कीमत बोतल के मुकाबले कम पड़ती है. इसलिए अधिकतर लोग सालों साल तक छोटी थैलियाँ ही खरीदते रहते हैं, कभी बड़ी बोतल की ओर नहीं जाते. जैसा विदेशों में होता कि हफ्ते में एक दिन जा कर इकट्ठा सामान खरीद लो, वैसा भारत के छोटे शहरों व गावों में नहीं होता. अधिक सामान को खरीद कर कहाँ रखा जाये, यह परेशानी बन जाती है. लोग करीब की दुकान से हर दिन जितनी ज़रूरत हो उतना खरीदना बेहतर समझते हैं, और जिस दिन पैसे कम हों, उस दिन नहीं खरीदते. बड़ी बड़ी कम्पनियों को आखिरकार हार माननी पड़ी. अब उनसे न छोटी थैलियाँ का उत्पादन बन्द करते बनता है और जिस तरह की बिक्री की वह सोचती थीं वह भी उनके हाथ नहीं आयी.

आज छोटे गाँव हों या छोटे बड़े शहर, हर जगह आप को नुक्कड़ की दुकानों में भारतीय तथा बहुदेशीय कम्पनियों की यह छोटी थैलियाँ रंग बिरंगी चमकीली झालरों की तरह लटकी दिखेंगी. इन थैलियों को तकनीकी भाषा में सेशे (sachet) कहते हैं.

कैसे बनती हैं सेशे की छोटी थैलियाँ?

छोटी थैलियों को बनाने में एलुमिनियम, प्लास्टिक तथा सेलूलोज़ लगता है. इनमें एलूमिनियम की एक महीन परत को सेलूलोज़ की या प्लास्टिक की दो महीन परतों के बीच में रख कर उन्हें जोड़ा जाता है. यह बहुत हल्की होती है और इनके भीतर के खाद्य पदार्थ, चिप्स, नमकीन या शैम्पू आदि न खराब होते हैं, न आसानी से फटते हैं. इस तकनीक से थैलियों के अतिरक्त ट्यूब, डिब्बा आदि भी बनाये जाते हैं.

उपयोग के बाद, खाली थैलियों से, माइक्रोवेव की सहायता से एलूमिनियम तथा हाइड्रोकारबन गैस बनाये जा सकते हैं. एलुमिनियम विभिन्न उद्योगों में लग जाता है जबकि हाईड्रोकार्बन गैस उर्जा बनाने में काम आती है. लेकिन अगर इन्हें जलाया जाये तो उससे हानिकारक पदार्थ हवा में चले जाते हैं तथा पर्यावरण प्रदूषित होता है.

एलूमिनयम की जानकारी सोलहवीं शताब्दी में आयी थी लेकिन इस धातू की वस्तुएँ बनाने में सफलता मिली सन् 1855 में. उस समय इसे "मिट्टी की चाँदी" कहते थे, क्योंकि तब यह बहुत मँहगी धातू थी और इससे केवल राजा महाराजाओं के प्याले-प्लेटें या गहने बनाये जाते थे.

एलुमिनियम को सस्ते या टिकाऊ तरीके से बनाने की विधि 1911 में खोजी गयी और धीरे धीरे इसका उत्पादन बढ़ा और साथ ही इसकी कीमत गिरी. आज एलूमिनियम के बरतन अन्य धातुओं के बरतनों से अधिक सस्ते मिलते हैं और अक्सर गरीब घरों में प्रयोग किये जाते हैं. हर वर्ष दुनिया में लाखों टन एलूमिनयम का उत्पादन होता है जिन्हें बोक्साइट की खानों से निकाल कर बनाया जाता है. खानों की खुदाई से पर्यावरण तथा जनजातियों के जीवन की कुछ समस्याएँ जुड़ी हैं जैसा कि ओडिशा में वेदाँत कम्पनी की बोक्साइट की खानों के विरुद्ध जनजातियों के अभियान में देखा जा रहा है.

इस स्थिति में बजाय छोटी थैलियों को कूड़े की तरह फैंक कर पर्यावरण की समस्याएँ बढ़ाने से बेहतर होगा कि उन थैलियों के भीतर के एलूमिनियम को दोबारा प्रयोग के लिए निकाला जाये. इससे कूड़ा भी कम होगा. विकसित देशों में एलुमिनियम के पुनर्पयोग के कार्यक्रम आम है.

भारत में भी कुछ जगह एलुमिनयम के पुनर्पयोग के उदाहरण मिलते हैं लेकिन यह बहुत कम हैं. हमारे देश में अधिकतर जगह इन थैलियों में छुपी सम्पदा को नहीं पहचाना जाता, बल्कि उन्हें कूड़ा बना कर जलाया जाता है या जमीन में गाड़ा जाता है, जिससे नयी समस्याएँ बन जाती हैं.

गुवाहाटी का उदाहरण

यहाँ एक ओर तो जोर शोर से स्वच्छता अभियान की बात होती है, बड़े बड़े पोस्टर लगते हैं कि शहर में सफ़ाई रखिये. दूसरी ओर, हमारे शहरों में कूड़ा इक्ट्ठा करने का आयोजन ठीक से नहीं होता. गुवाहाटी (असम) में भी यही हाल है. शहर में कूड़े के डिब्बे खोजने लगेंगे तो खोजते ही रह जायेंगे. प्रसिद्ध पर्यटन स्थलों या मन्दिरों के आस पास भी कूड़े के डिब्बे नहीं मिलते. खुली जगह पर पिकनिक हो, कोई विवाह समारोह या पार्टी हो, या मन्दिरों में त्योहार की भीड़, लोग आसपास कूड़े के ढ़ेर लगा कर छोड़ जाते हैं.

कूड़े के डिब्बों की जगह पर, शहर में कई कई किलोमीटर की दूरी पर बड़े कूड़ा एकत्रित करने वाले कन्टेनर मिलते हैं. यानि आप पिकनिक पर जायें या मन्दिर जायें, तो उसके बाद कूड़े के थैले ले कर इन कन्टेनरों को खोजिये. अक्सर लोग दूर रखे कम्टेनर तक जाने की बजाय कूड़े को वहीं फैंक देते हैं. पिकनिक स्थलों पर प्लास्टिक की थैलियाँ, चमकीली कागज़ की प्लेटें, मुर्गियों के पँख, इधर उधर उड़ते रहते हैं. (तस्वीर में गुवाहाटी के उमानन्द मन्दिर के पीछे फैंका हुआ कूड़ा)

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

गुवाहाटी में छोटी थैलियों का क्या किया जाता है, मैं यह समझना चाहता था. इसी की खोज में मैं एक दिन, शहर के करीब ही, हाईवे से जुड़े "बोड़ो गाँवो" गया, जहाँ ट्रकों से गुवाहाटी शहर का सारा कूड़ा जमा होता है. उस जगह पर, बहुत दूर से ही कूड़े की मीठी गँध गाँव के हवा में बादलों की तरह सुँघाई देती है. इस कूड़े से कई सौ परिवारों की रोज़ी रोटी चलती है. वह लोग झोपड़ियों में कूड़े के आसपास ही रहते हैं. झोपड़ियों के आसपास भी कूड़े के ढ़ेर लगे होते हैं जहाँ उसकी छटाई होती है और जो वस्तुएँ बेची जा सकती हैं, वह निकाल ली जाती हैं. वहाँ कोई विरला ही लिखना पढ़ना जानता है, तथा बच्चे भी स्कूल नहीं जाते.

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

आज की दुनिया में हमारे शहरों में व्यवसाय तथा लोग कूड़ा बनाने में माहिर हैं. हर दिन हमारे यहां लाखों टन कूड़ा बनता है. लेकिन सभी कूड़ा बनाने वाले, अपने कूड़े से और उसकी गन्ध से नफरत करते हैं. ऐसी स्थिति में शिव की तरह विष पीने वाले, कूड़े में रह कर काम करने वाले लोग जो उस कूड़े से पुनर्पयोग की वस्तुएँ निकालते हैं, उन्हें तो संतों का स्थान मिलना चाहिये. पर हमारा समाज उनके इस काम की सराहना नहीं करता बल्कि उन्हें समाज से क्या मिलता है, इसकी आप स्वयं कल्पना कर सकते हैं.

उन कूड़े के ढेरों पर बहुत से पशु पक्षी भी घूमते दिखते हैं, जिनमें असम के प्रसिद्ध ग्रेटर एडजूटैंट पक्षी भी हैं.

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

कूड़े में अधिकतर स्त्रियाँ तथा बच्चे काम करते हैं. कई बच्चे तीन चार साल के भी दिखे, जो कूड़े की थैलियाँ सिर पर उठा कर ले जा रहे थे. जब भी नगरपालिका का कोई ट्रक आता, वह लोग उसके पीछे भागते ताकि कूड़े को चुनने का उन्हें पहले अवसर मिले.

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

कूड़े में काम करने वालों का क्या जीवन है, उनकी समस्याएँ क्या है, यह जानने नहीं गया था. उसके बारे में फ़िर कभी लिखूँगा. बल्कि मेरा ध्येय था यह जानना कि खाली थैलियों का क्या होता है?

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संयोग से, वहाँ पहुँचते ही एक टेम्पो दिखा जिस पर कई हज़ार खाली थैलियाँ प्लास्टिक में बँधी थीं. मैंने उस टेम्पो को देख कर सोचा कि इसका अर्थ था कि खाली थैलियों को अलग कर के रखा जाता है, यानि इन्हे बेचने का तथा इनके पुनर्पयोग का कुछ कार्यक्रम चल रहा है.

पर ऐसा नहीं था. थोड़ी देर बाद वह टेम्पो भी कूड़े के ढेर की ओर बढ़ा जहाँ अन्य ट्रक अपना कूड़ा फैंक रहे थे. टेम्पो वाले युवकों ने प्लास्टिक को खोल कर उन खाली थैलियों को अन्य कूड़े के बीच में फैंक दिया.

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

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स्वच्छ भारत

जब तक शहरों में कूड़ा फैंकने की उपयुक्त जगहें नहीं होंगी, लोगों को यह कहने का क्या फायदा है कि सफाई रखिये? शहरों में जगह जगह पर डिब्बे होना जिसमें लोग कूड़ा डाल सके, आवश्यक हैं. मन्दिर तथा पिकनिक स्थलों पर भी कूड़ा जमा करने के डिब्बे रखना ज़रूरी है.

हम से शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जो यह कहे कि वह स्वच्छ भारत नहीं चाहता. लेकिन क्या सड़कों पर झाड़ू लगाने या डिब्बों में कूड़ा फैंकने से भारत स्वच्छ हो जायेगा? झाड़ू लगा कर कूड़ा हटाना तथा डिब्बों में कूड़ा डालना तो केवल पहला कदम है. इससे शहरों में रहने वाले लोगों के सामने की गन्दगी हटती है. लेकिन वही गन्दगी हमारे शहरों के बाहर अगर जमा होती रहती है, तो क्या सच में हमारा वातावरण स्वच्छ हो गया?

देश में हर दिन लाखों करोड़ों टन नया कूड़ा बनता है, उसका क्या करेंगे हम? उसे जला कर वातावरण का प्रदूषण करेंगे या जितना हो सकेगा उसका पुनर्पयोग होना चाहिये?

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चमकीली थैलियों में छुपे लाखों टन एलूमिनियम को निकाल कर उसका दोबारा उपयोग करना बेहतर है या नयी खानें बनाना?

फल सब्जी आदि खाद्य पदार्थों के कूड़े को जमा करके उनसे खाद बनाने से बेरोजगार लोगों को जीवनयापन के माध्यम मिल सकते हैं. वैसे ही थैलियों में छुपे एलुमिनियम के पुनर्पयोग से भी उद्योगों तथा बेरोजगार युवकों को फायदा हो सकता है. बोड़ा गाँव जैसी जगहों में कूड़ा जमा करने वाले लोगों को भी इससे जीवनयापन का एक अन्य सहारा मिलेगा. साथ ही कूड़ा जलाने से जो प्रदुषण होता है वह कम होगा.

जब तक ऐसे प्रश्नों के बारे में नहीं सोचेगें, भारत स्वच्छ हो, यह सपना सपना ही रहेगा और चमकीली थैलियाँ समृद्धी का रास्ता बनने के बजाय, जहर बन कर किसी शिव की प्रतीक्षा करती रहेंगी.

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शुक्रवार, अप्रैल 17, 2015

एक चायवाले का विद्रोह

आजकल मोदी जी ने चायवालों को प्रसिद्ध कर दिया है, लेकिन यह आलेख उनके बारे में नहीं है. वैसे चाय की बातें मोदी जी के पहले भी महत्वपूर्ण होती थीं जैसा कि अमरीकी इतिहास बताता है, जहाँ अमरीका की ब्रिटेन से स्वतंत्रता की लड़ाई भी सन् 1733 के चाय लाने वाले पानी के जहाज़ से जुड़ी थी जिसे बोस्टन की "चाय पार्टी के विद्रोह" के नाम से जानते हैं. पर आज की मेरी बात भारत में सन् 1857 के अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध विद्रोह से जुड़े असम के एक चाय बागान वाले व्यक्ति के बारे में है जिनका नाम था मणिराम दत्ता बरुआ जिन्हें लोग मणिराम दीवान के नाम से भी जानते हैं. उन्हें उत्तर पूर्व के भारत के स्तंत्रता संग्राम के प्रथम शहीद सैनानी के नाम से जाना जाता है.

क्या आप ने पहले कभी उनका नाम सुना है? असम से बाहर रहने वाले लोग अक्सर उनके नाम से अपरिचित होते हैं. मैं भी उन्हें नहीं जानता था. उनसे "पहली मुलाकात" गुवाहाटी में नदी किनारे हुई थी. 

उत्तर पूर्व के स्वंत्रता सैनानी

असम की राजधानी गुवाहाटी में आये कुछ दिन ही हुए थे जब मछखोवा में ब्रह्मपु्त्र नदी के किनारे एक बाग में एक स्मारक देखा जिसमें आठ लोगों की मूर्तियाँ बनी हैं. स्मारक के नीचे लिखा था कि देश की स्वाधीनता के लिए इन वीर व वीरांगनाओं ने त्याग व बलिदान दिया. मुझे वह स्मारक देख कर कुछ आश्चर्य हुआ क्यों कि उन आठों में से एक का भी नाम मैंने पहले नहीं सुना था. वह आठ व्यक्ति थे कनकलता बरुआ, कुशल कोंवर, मणिराम दीवान, पियाली बरुआ, कमला मीरी, भोगेश्वरी फूकननी, पियाली फूकन तथा गँधर कोंवर.

Maniram Dewan & Cinnamara tea gardens, Jorhat, Assam, India - Images by Sunil Deepak

कुछ दिन बाद नेहरु पार्क में घूम रहा था तो वहाँ फ़िर से शहीद कुशल कोंवर की मूर्ति दिखी, तो मछखोवा के स्मारक की बात याद आ गयी. 

सोचा कि भारत में रहने वालों में अपने उत्तर पूर्वी भाग के इतिहास के बारे में तथा यहाँ रहने वाले लोगों के बारे में कितनी काम जानकारी है. जिन लोगों ने भारत की स्वतंत्रता के लिए जान दी, उनके नाम भी बाकी भारत में अनजाने हैं. तो सोचा कि इसके बारे में अधिक जानने की कोशिश करूँगा और इसके बारे में लिखूँगा. पर सोचने तथा करने में कुछ अंतर होता है. बात सोची थी, वहीं रह गयी, और मैं इसके बारे में भूल गया.

Kushal Konwar, Guwahati, Assam, India - Images by Sunil Deepak

Kushal Konwar, Guwahati, Assam, India - Images by Sunil Deepak

फ़िर पिछले माह काम के सिलसिले में उत्तरी असम में जोरहाट गया तो उनमें से एक स्वतंत्रता सैनानी के जीवन से अचानक परिचय हुआ.

मैं जोरहाट शहर से थोड़ा बाहर, मरियानी रेल्वे स्टेशन की ओर जाने वाली सड़क पर सिन्नामारा में विकलाँगों के लिए काम करने वाली एक संस्था "प्रेरणा" की अध्यक्ष सुश्री सायरा रहमान से मिलने गया था. उनकी संस्था गाँव में रहने वाले विकलाँग लोगों के साथ कैसे काम करती है, यह देखने के लिए सायरा जी ने अपने एक कार्यकर्ता मोनोजित के साथ, मुझे वहीं करीब ही एक चाय बागान से जुड़े गाँव में भेजा.

वहीं बातों बातों में मालूम चला कि यह सिन्नामारा के चाय बागान, स्वतंत्रता सैनानी मणिराम दीवान ने प्रारम्भ किये थे. इस बार संयोग से उनकी कर्मभूमि से परिचय हुआ था तो मुझे लगा कि उनके बारे में अवश्य अधिक जानना चाहिये.

उस दिन शाम को वापस जोरहाट में अपने होटल में पँहुचा तो मालूम चला कि वह चौराहा जिसके करीब मैं ठहरा था, उसे मणिराम दत्ता बरुआ चौक  (बरुआ चारिआली) ही कहते हैं. वहाँ सन् 2000 में असम सरकार की ओर से "मिल्लेनियम स्मारक" बनाया गया है जिसमें उनकी कहानी भी चित्रित है.

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तो कौन थे मणिराम दीवान और क्या किया था उन्होंने, जिसके लिए अंग्रेज़ी सरकार ने उन्हें विद्रोही मान लिया था?

मणिराम दत्ता बरुआ या मणिराम दीवान

मणिराम का जन्म 17 अप्रेल 1806 को चारिन्ग में हुआ जब उनके पिता श्री राम दत्ता को, उस समय के असम के अहोम राजा कमलेश्वर सिंह से, "डोलाकशारिया बरुआ" का खिताब मिला था. मणिराम को पढ़ाई के लिए बँगाल में नबद्वीप भेजा गया जहाँ उन्होंने अंग्रेज़ी तथा फारसी भाषाएँ भी पढ़ी. 1817 से 1823 के बीच अँग्रेज़ों ने असम पर काबू करने की कोशिश शुरु की, उसी के संदर्भ में मणिराम ने अंग्रेज़ी अफसर डेविड स्कोट तथा उनकी फौज को उत्तरी असम जाने में मार्गदर्शन दिया. वफ़ादार काम करने पर, बीस वर्ष की आयू में मणिराम को डेविड स्काट ने अंग्रेज़ी शासन की ओर से तहसीलदार व शेरिस्तदार का पद दिया.

1833 से 1838 तक, मणिराम अंग्रज़ो द्वारा स्वीकृत असम राजा पुरेन्द्र सिह के "बोरबन्दर बरुआ" यानि प्रधान मंत्री नियुक्त हुए. 1839 में असम में चाय उत्पादन के लिए लँदन में असम कम्पनी बनायी गयी. तभी असम की अंग्रेज़ी सरकार में डेविड स्काट की जगह कर्नल जेनकिन्स ने ली, जिन्होंने मणिराम को दीवान का खिताब दिया तथा वह असम कम्पनी के अफसर बन गये.

1843 में मणिराम ने असम कम्पनी की नौकरी छोड़ दी क्योंकि वह अपना चायबागान लगाना चाहते थे. असम कम्पनी के अंग्रेज़ इस बात से खुश नहीं थे.

1845 में मणिराम ने जोरहाट के पास अपना पहला चायबागान लगाया जहां कलकत्ता में रहने वाले चीनी चाय विषेशज्ञ लाये गये, जोकि उनके सलाहकार बने. उनकी वजह से उस चायबागान को लोग चिन्नामारा (चीनी बाग) कहने लगे. इस जगह को अब सिन्नामारा के नाम से लोग जानते हैं.

मणिराम उद्योगपति बन गये, केवल चाय उत्पादन में नहीं, बल्कि अन्य क्षेत्रों में भी - जैसे कि नमक बनाने व इस्पात बनाने का कारकाना भी लगाया, ईँटें तथा सिरेमिक बनाने की भट्टियाँ लगायीं.

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उनकी उन्नति से असम कम्पनी के अंग्रेज़ अफसर चितिंत हुए क्योंकि उनकी दृष्टि में भारतीयों का चाय कारोबार में पड़ने का अर्थ, अंग्रेज़ी कम्पनी का नुकसान था. 1851 में अंग्रेज़ सरकार ने उनके चायबागान तथा सम्पत्ति पर कब्ज़ा कर लिया. असम पर काबू रखने के लिए अंग्रेज़ों ने बंगाल तथा मारवाड़ से लोगों को बुला कर उन्हें अफसर बनाया. मणिराम ने कलकत्ता की अदालत में न्याय के लिए अर्ज़ी दी तथा अंग्रेज़ टेक्सों की आालोचना की कि उनसे स्थानीय अर्थव्यवस्था को कमज़ोर किया जा रहा है. लेकिन अदालत ने उनकी यह अर्ज़ी नामँजूर कर दी, तथा उनके चाय बागान अंग्रेजों को दे दिये गये.

1857 की अंगरेज़ों के विरुद्ध सिपाही क्राँती से मणिराम ने प्रेरणा पायी और उत्तरपूर्व में अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध काम प्रारम्भ किया. अंग्रेज़ी शासन के विद्रोह के आरोप में मणिराम को गिरफ्तार किया गया और 26 फरवरी 1858 को उन्हें फाँसी दी गयी.

आज का सिन्नामारा

सिन्नामारा में आज भी चायबागान हैं, जहाँ बहुत से लोग संथाल जनजाति के हैं. चायबागानों में काम करने के लिए अंग्रेज़ केन्द्रीय भारत से संथाल जाति के लोगों को ले कर आये थे. स्थानीय भाषा न जानने वाले लोगों को रखने का फायदा था कि उन्हें आसानी से दबाया जा सकता था और उनमें विद्रोह कठिन था. इस तरह से आज असम में लाखों संथाली रहते हैं जिनके पूर्वज यहाँ एक सौ पचास वर्ष पहले मजदूर की तरह लाये गये थे.

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असम में होने वाले जाति-प्रजाति सम्बँधित झगड़ों-विवादों में एक यह विवाद भी है जिसमें "विदेशी" और "भूमिपुत्रों" की बात की जाती है. आर्थिक तथा सामाजिक पिछड़ापन, संचार तथा यातायात की कठिनाईयाँ आदि की वजह से इतने सालों में असम के समुदायों में जो एकापन आना या समन्वय आना चाहिये था, वह नहीं आया. बल्कि आज उस पर धर्म सम्बँधी भेद भी जुड़ गये हैं.

चायबागान चलाने वालों का कहना है कि चाय के दाम अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार पर निर्भर करते हैं, इस लिए चायबागानों में काम करने के लिए न्यूनतम पगार जैसी बातों को नहीं लागू किया जा सकता. इस तरह से प्रतिदिन आठ घँटे काम करने वाले यहाँ के चायबागान के काम करने वालों को, सप्ताह के 400 रुपये के आसपास की तनख्वाह तथा कुछ खाने का सामान दिया जाता है.

सिन्नामारा में अंग्रेज़ों के समय का पुराना अस्पताल भी है, जिसे असम चाय उद्योग चालाता था लेकिन जो कई वर्षों से बन्द पड़ा है.

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अंगरेज़ों के समय और आज का समय देखें तो, बहुत सी बातों में आज दुनिया बहुत बदल गयी है. आज हम स्वतंत्र हैं, जो काम करना चाहें, जिस राह पर बढ़ना चाहें, उसे स्वयं चुन सकते हैं. लेकिन गरीबी, अशिक्षा तथा भ्रष्टाचार, आज भी जँज़ीरें है जो हमें बाँधे रखती हैं.

मेरी चायबागान में काम करने वाले पढ़े लिखे कुछ नवयुवकों से बात हुई, बोले कि पढ़ायी करके भी वही मजदूरी करनी पड़ती है क्योंकि "बिना घूस दिये कुछ काम नहीं मिलता, और घूस देने लायक पैसा हमारे पास नहीं".

आज के भारत की दुनिया बदली है लेकिन चायबागानों में काम करने वाले मजदूरों की दृष्टि से देखे तो जितनी बदलनी चाहिये थी उतनी नहीं बदली.

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मणिराम दीवान ने अपना जीवन अंग्रेजों के साथी की तरह प्रारम्भ किया, पर उनमें चाकरी की भावना कम थी, वह स्वयं को उनसे कम नहीं मानते थे, स्वयं उद्योगपति बनने का सपना देखते थे! इन सब बातों की वजह से उन्हें विद्रोह की राह चुननी पड़ी. स्वतंत्रता की राह में उन जैसे कुर्बानी करने वाले अन्य बहुत लोग होंगे लेकिन उनकी अपेक्षा मणिराम दीवान की याद को अधिक प्रमुखता मिली, जोकि स्वाभाविक है क्योंकि इतिहास ऐसे ही बनना है,

कुछ लोग अपने व्यक्तित्व या सामाजिक स्थिति की वजह से लोगों में प्रतीक बन कर रास्ता दिखाते हैं, प्रेरणा देते हैं. पर उस स्वतंत्रता का जितना लाभ यहाँ के गरीब लोगों को मिलना चाहिये था, उसमें हमारे देश में कुछ कमी आ गयी!

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सोमवार, मार्च 30, 2015

भारत की बेटियाँ

पिछले कई दिनों से बीबीसी की डाकूमैंटरी फ़िल्म "इंडियाज़ डाटर" (India's daughter) के बैन करने के बारे में बहस हो रही थी. आजकल कुछ भी बहस हो उसके बारे में उसके विभिन्न पहलुओं का विषलेशण करना, अन्य शोर में सुनाई नहीं देता. शोर होता है कि या तो आप इधर के हैं या उधर के हैं. अगर आप प्रतिबन्ध लगाने के समर्थक हैं तो रूढ़िवादी, प्रतिबन्ध के विरोधी है तो उदारवादी, या फ़िर इसका उल्टा.

किसी बात के क्या विभिन्न पहलू हो सकते हैं, किस बात का समर्थन हो सकता है, किसका नहीं, जैसी जटिलताओं के लिए इन बहसों में जगह नहीं होती.

कुछ लोग कह रहे थे कि यह डाकूमैंटरी पश्चिमी देशों की चाल है, भारत को नीचा दिखाने की. एक बेलजियन प्रोफेसर जेकब दे रूवर ने एक आलेख में लिखा कि भिन्न यूरोपीय देशों में अधिक बलात्कार होते हैं, उनके मुकाबले में भारत में कम होते हैं. इसलिए वह भी सोचती है कि इस तरह की डाकूमैंटरी बनाना उस यूरोपीय सोच का प्रमाण है जो भारत जैसे विकसित देशों को असभ्य और पिछड़ा हुआ मानती है तथा इस तरह के समाचारों को बढ़ा चढ़ा कर दिखाती है.

Rapes in India graphic by Sunil Deepak

तो क्या सचमुच भारत एक बलात्कारी देश है‌ ?

मेरे विचार में दंगों जैसी स्थितियों को छोड़ दिया जाये तो बलात्कारों के विषय में भारत की स्थिति अन्य देशों की तरह है, उनसे न बहुत कम न बहुत अधिक. इसलिए अगर आँकणों के हिसाब से भारत में बलात्कार कम होते हैं तो इसकी वजह यह नहीं कि हमारे पुरुष कम बलात्कारी हैं, इसकी वजह है कि गरीबों, शोषितों और औरतों के साथ होने वाले अपराधों के बारे में हमारे आँकणे अधूरे रहते हैं. हमारे यहाँ पुलिस के पास जाना अक्सर अपराध का समाधान नहीं करता, बल्कि उस पर अन्य तकलीफ़ें बढ़ा देता है. सामान्य जन के लिए, कुछ अपवाद छोड़ कर, पुलिस का नाम न्याय या सहायता से नहीं जुड़ा, बल्कि अत्याचार, उसका ताकतवरों का साथ देना व दुख से पीड़ित लगों से घूसखोरी की माँगें करना, जैसी बातों से जुड़ा है.

बलात्कार जैसी बात हो तो उसकी शिकार औरतों के प्रति समाजिक क्रूरता को सभी जानते हैं.  जैसी हमारी सामाजिक सोच है, हमारी पुलिस की भी वही सोच है. यानि बलात्कार हुआ हो तो इसका कारण उस युवती के चरित्र, काम, पौशाक में खोजो. तो अचरज क्यों कि हमारे बलात्कारों के आँकणे विकसित देशों के सामने कम है ?

विदेशों में भारत की बलात्कारी छवि

यह सच है कि यूरोप में वहाँ प्रतिदिन होने वाले बलात्कारों के समाचारों को इतनी जगह नहीं मिलती जितनी भारत से आने वाले इस तरह के समाचारों को मिलती है. इससे पिछले दो वर्षों में विदेशों में भारत की बलात्कार समस्या को बहुत प्रमुखता मिली है. पर इसके कई कारण हैं. हर देश, हर गुट के बारे में कुछ प्रचलित छवियाँ होती हैं. इन्हें स्टिरियोटाइप भी कहते हैं. इन स्टिरियोटाइप छवियों का फायदा है कि कुछ भी बात हो उसे लोग तुरंत समझ जाते हैं, कुछ समझाने की आवश्यकता नहीं पड़ती. विदेशों में भारत की स्टिरियोटाइप छवि है जिसमें गाँधी जी, शाकाहारी होना, अहिँसा, ताज महल, आध्यात्म, ध्यान, योग, जैसी बातें जुड़ी हैं, जिन्हें हम सामान्यतह सकारात्मक मानते हैं. इसी स्टिरियोटाइप छवि के कुछ नकारात्मक पहलू भी हैं जैसे कि भारत की छवि गरीबी, गन्दगी, बीमारियाँ, जातिप्रथा जैसी बातों से भी जुड़ी है.

यह स्टिरियोटाइप छवियाँ स्थिर नहीं होती, इसमें नयी बातें जुड़ती रहती है, पुरानी बातें धीरे धीरे लुप्त हो जाती है. पहले भारत की छवि थी सपेरों और जादूगरों की. आज दुनिया में भारत को सपेरों का देश देखने वाले लोग कम हैं, जबकि कम्पयूटर तकनीकी, गणित में अव्वल स्थान पाने वाले या अंग्रेज़ी में अच्छा लिखने वाले लेखकों की बातें इस छवि से जुड़ गयी हैं.

भारत की प्रचलित छवियाँ औरतों के बारे में कुछ सकारत्मक है, कुछ नकारात्मक. एक ओर गरिमामय, सुन्दर, साड़ी पहनी युवतियों की छवियाँ हैं, हर क्षेत्र में अपनी धाक जमाने वाली औरतों की छवियाँ हैं, तो दूसरी ओर दहेजप्रथा, सामाजिक शोषण, भ्रूणहत्या से जुड़ी बातें भी हैं. उन्हीं नकारात्मक बातों में पिछले कुछ वर्षों में बलात्कार भी बात जुड़ गयी है.

यह छवियाँ सकारात्मक हों या नकारात्मक, स्टिरियोटाइप से लड़ना तथा उन्हें बदलना आसान नहीं. बल्कि खतरा है कि उनके विरुद्ध जितना लड़ोगे, वह उतना ही अधिक मज़बूत जायेंगी. मुझे नहीं मालूम कि इस तरह की स्टिरियोटाइप छवियों के बनने को किस तरह से रोका या कम किया जा सकता है. इससे भारत को अवश्य नुकसान होता है. कितने ही मेरे यूरोपीय मित्र, विषेशकर, महिला मित्र, जो पहले यहाँ नहीं आये और जिन्हें भारत के व्यक्तिगत अनुभव नहीं हैं, भारत आने का सोच कर डरते हैं.

क्या भारत में दिल्ली में हुए निर्भया के बलात्कार से पहले ऐसी घटनाएँ नहीं होती थीं? होती थीं लेकिन राजधानी में जनसाधारण, विषेशकर युवाओं का इस तरह बड़ी संख्या में विरोध में निकल कर आना शायद पहली बार हुआ. टेलिविज़न पर समाचार चैनलों की बढ़ोती तथा उनमें आपस में दर्शक बढ़ाने की स्पर्धा ने उस विरोध को समाचार पत्रों में व चैनलों पर प्रमुख जगह दी. इस समाचार को और उस बलात्कार की बर्बता ने सारी दुनिया में समाचारों में जगह पायी.

यूरोप में भारत के बारे में समाचार अक्सर तभी दिखते हैं जब किसी दुर्घटना में बहुत लोग मर जाते हैं. यह हर देश में होता है, आप सोचिये कि क्या भारत में टीवी समाचारों में यूरोप के बारे में किस तरह के समाचार दिखाये जाते हैं? लेकिन जब निर्भया काँड के बाद भारत के युवा सड़कों पर निकल आये थे, इसके समाचारों को यूरोप के टीवी समाचारों में बहुत दिनों तक प्रमुखता मिली थी.

उस घटना के बाद से, दिल्ली या मुम्बई जैसे शहरों में जब भी मध्यम या उच्च वर्ग की युवती के साथ बलात्कार होता है तो हमारे टीवी समाचार चैनल हल्ला कर देते हैं. ब्रेकिन्ग न्यूज़ बन कर सारा दिन उसकी बात होती है, शाम को हर चैनल उसी पर बहस करती है. अगर बलात्कार विषेश बर्बर हो या भारत की पहले से प्रचलित नकारात्मक छवि से जुड़ा हो, जैसे कि जातिभेद या महिलाओं को शोषण से, तो उसे विदेशों में भी समाचारों में जगह मिलती है. जब हमारे राजनेता बलात्कार के बारे में कुछ वाहियात सी बात करते हैं तो उसे भी विदेशी समाचारों में भरपूर जगह मिलती है. मसलन, जब मुलायम सिंह यादव ने कहा कि "लड़कों से गलती हो जाती है" तो बहुत से यूरोपीय समाचार पत्रों ने उसका समाचार पहले पृष्ठ पर दिया था.

भारतीय समाचार पत्रों तथा चैनलों का भाग

कुछ सप्ताह पहले जब एक सुबह कोलकता से निकलने वाले अंगरेज़ी अखबार टेलीग्राफ़ में मुख्य पृष्ठ पर दिल्ली बलात्कार काँड के बस ड्राइवर मुकेश सिंह का साक्षात्कार छपा देखा था तो बहुत हैरानी हुई थी. सोचा था कि क्यों अखबार वालों ने इस तरह की व्यक्ति की इन वाहियात बातों को इस तरह से बढ़ा चढ़ा कर कहने का मुख्य पृष्ठ पर मौका देने का निर्णय लिया ? मुझे लगा कि इस तरह की सोच वाले लोग भारत में कम नहीं और उस साक्षात्कार को इस तरह प्रमुखता पाते देख कर, उन्हें यह लगेगा कि उनकी यह सोच शर्म की नहीं, गर्व की बात है. मैंने उस समय सोचा था कि बिक्री बढ़ाने के लिए समाचार वाले कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं.

मेरा विचार था कि यह आलेख समाचार पत्र में नहीं छपना चाहिये था. मेरे एक मित्र बोले कि न छापना तो मानव अभिव्यक्ति अधिकार के विरुद्ध होगा. मेरा कहना था कि जब कोई अगर अन्य लोगों के प्रति हिंसा करने, बलात्कार करने, जान से मारने की बात की बात करे तो वह मानव अभिव्यक्ति अधिकार नहीं हो सकता क्योंकि उससे अन्य लोगों के जीवन व सुरक्षा के अधिकारों पर हमला होता है.

यह कुछ दिन बाद समझ में आया कि वह "समाचार" नहीं था, एक डाकूमैंटरी से लिया गया हिस्सा था जिसे डाकूमैंटरी का परिपेक्ष्य समझाये बिना ही समाचार पत्र में छापा गया था. डाकूमैंटरी के बारे में जहाँ तक पढ़ा है, मुकेश सिंह का साक्षात्कार उसका छोटा सा हिस्सा है, उसमें अन्य भी बहुत सी बाते हैं. उसे देखने वालों ने कहा है कि यह फ़िल्म बलात्कारी सोच के विरुद्ध उठायी आवाज़ है. अगर डाकूमैंटरी में यह सब कुछ है तो क्यों समाचार पत्रों ने मुकेश सिंह के साक्षात्कार को इस तरह से बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत किया जिससे यह लगे कि यह आम भारतीय पुरुषों की सोच है? यानि जनसाधारण में इस फ़िल्म के प्रति प्रारम्भिक उत्तेजना बढ़ाने में समाचार पत्रों तथा टेलिविज़न चैनलों ने क्या हिस्सा निभाया ?

क्या समाचार पत्रों ने मुकेश सिंह के कथन को इतनी प्रमुखता दी थी या फ़िर डाकूमैंटरी बनाने वालों ने अपनी प्रेस रिलीज़ में मुकेश सिंह वाले हिस्से को बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत किया था ?

निर्भया के बलात्कार के बाद, भारत में बलात्कार होने कम नहीं हुए हैं. लेकिन शायद बढ़े भी नहीं हैं, केवल इन समाचारों का छुपना कम हो गया है ? प्रतिदिन हर शहर में बलात्कार होते हैं, जैसे पहले भी होते थे. पर अब समाचार चैनलों में बलात्कारों को जगह मिलने लगी है. पर शायद यह भी सोचना चाहिये कि किस तरह की जगह मिल रही है, इस तरह के समाचारों को?

पिछले वर्ष जुलाई में कुछ सप्ताह के लिए लखनऊ में था, एक स्थानीय चैनल पर आधे घँटे के समाचारों में बीस-पच्चीस मिनट तक  यहाँ बलात्कार, वहाँ बलात्कार की बात होती रही. मुझे थोड़ा अचरज हुआ कि उस समाचार बुलेटिन में इतनी जगह इस तरह के समाचारों को मिली, जैसे कि 20 करोड़ की जनसंख्या वाले उत्तरप्रदेश में अन्य अपराध या अन्य समाचार नहीं हों ? क्या यही तरीका है इस बात के बारे में जनचेतना जगाने का या जनता को जानकारी देने का ?

असली बात

लेकिन क्या यही बात सबसे महत्वपूर्ण है कि विदेशों में हमारे बारे में क्या सोचते हैं? कोई अन्य क्या सोचता है, यह तो बाद की बात है, पहली बात है कि हम इस बारे में स्वयं क्या सोचते है? उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है यह सोचना कि जिन अपराधों के बारे में हम बात कर रहे हैं क्या उनसे पीड़ित लोगों को न्याय मिल रहा है या नहीं, समाज की विचारधारा बदल रही है या नहीं.

सच तो यह है कि हमारे देश में आज भी हर दिन हज़ारों भ्रूणहत्याएँ होती हैं, लड़कियों से, "छोटी" जाति के लोगों से, गरीबों के साथ जब अपराध होते हैं तो कितने समाचार पत्र उन्हें छापते हैं? उनमें से कितनों की रपट पुलिस में लिखी जाती है? उनके बारे में टीवी पर कौन बात करता है? क्या इस सब के बारे में हमारे देश में सन्नाटा नहीं रहता? भारत के छोटे बड़े शहरों में लड़कियों व औरतों जब बाहर जाती है तो सड़कों पर, बसों में, काम की जगहों पर, "छेड़खानी" आम बात हैं और लोग चुपचाप देखते हैं.

हमारी पुलिस तथा न्याय व्यवस्था दोनों में कितनी सड़न है. इस स्थिति में मुकेश सिंह व उनके वकीलों की बलात्कारी सोच अपवाद नहीं, सामान्यता है. क्या हमारे राजनेता, धर्मगुरु, क्या यही नहीं कहते कि लड़कियों को रात को काम नहीं करना चाहिये, जीन्स नहीं पहननी चाहिये, आदि ? यानि उनकी सोच है कि इस सब की वजह से उनका बलात्कार हुआ. यानि गलती उन्हीं की है, समाधान भी उन्हें ही करना है. हमारे युवाओं तथा पुरुषों की सोच बदलने की बात नहीं होती. उनकी सोच मुकेश सिंह की सोच से अधिक भिन्न नहीं. शायद इसीलिए उस डाकूमैंटरी की बात हमें इतनी बुरी लगी क्योंकि उसमें हमारी सोच का सच है ?

कल टाईमस ऑफ़ इन्डिया के विनीत जैन के बारे में पढ़ा कि उन्होंने कहा हम समाचार पत्रों के धँधे में नहीं, विज्ञापन बेचने के धँधे में हैं. यानि समाचार पत्रों को बिक्री का सोचना है, नीति, या समाज का नहीं.

क्या हमारी टीवी चैनल भी टीआरपी के चक्कर में चिल्लाने वाली बहसों, हर बात को ब्राकिन्ग न्यूज़ बनाना, स्केन्डल बनाना जैसी बातों में नहीं व्यस्त रहतीं ? और समाचार पत्रों या चैनलों को दोष देना आसान है पर लाखों करोड़ों लोग उन्हीं चैनलों को देख कर चटकारे लेते हैं. जहाँ गम्भीरता से बात हो रही हो, तथा जटिल समस्याओं के समाधान सोचे खोजे जायें, तो उन्हें कितने लोग देखते हैं ?

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बुधवार, मार्च 04, 2015

जीवन का अंत

चिकित्सा विज्ञान तथा तकनीकी के विकास ने "जीवन का अंत" क्या होता है, इसकी परिभाषा ही बदल डाली है. जिन परिस्थितियों में दस बीस वर्ष पहले तक मृत्यू को मान लिया जाता था, आज तकनीकी विकास से यह सम्भव है कि उनके शरीरों को मशीनों की सहायता से "जीवित" रखा जाये. लेकिन जीवन का अंतिम समय कैसा हो यह केवल चिकित्सा के क्षेत्र में हुए तकनीकी विकास और मानव शरीर की बढ़ी समझ से ही नहीं बदला है, इस पर चिकित्सा के बढ़ते व्यापारीकरण का भी प्रभाव पड़ा है. तकनीकी विकास व व्यापारीकरण के सामने कई बार हम स्वयं क्या चाहते हैं, यह बात अनसुनी सी हो जाती है.

तो जब हमारा अंतिम समय आये उस समय हम किस तरह का जीवन और किस तरह की मृत्यू चुनते हैं? किस तरह का "जीवन" मिलता है जब हम अंतिम दिन अस्पताल के बिस्तर में गुज़ारते हैं? इस बात का सम्बन्ध जीवन की मानवीय गरिमा से है. यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसकी कीमत केवल पैसों में नहीं मापी जा सकती है, बल्कि इसकी एक भावनात्मक कीमत भी है जो हमारे परिवारों व प्रियजनों को उठानी पड़ती है. आज मैं इसी विषय पर अपने कुछ विचार आप के सामने रखना चाहता हूँ.

ICU in an Indian hospital - Image by Sunil Deepak

चिकित्सा क्षेत्र में तकनीकी विकास

पिछले कुछ दशकों में चिकित्सा विज्ञान ने बहुत तरक्की की है. आज कई तरह के कैंसर रोगों का इलाज हो सकता है. कुछ जोड़ों की तकलीफ़ हो तो शरीर में कृत्रिम जोड़ लग सकते हैं. हृदय रोग की तकलीफ हो तो आपरेशन से हृदय की रक्त धमनियाँ खोली जा सकती हैं. कई मानसिक रोगों का आज इलाज हो सकता है. नये नये टेस्ट बने हैं. घर में अपना रक्तचाप मापना या खून में चीनी की मात्रा को जाँचना जैसे टेस्ट मरीज स्वयं करना सीख जाते हैं. नयी तरह के अल्ट्रासाउँड, केटस्केन, डीएनए की जाँच जैसे टेस्ट छोटे शहरों में भी उपलब्ध होने लगी हैं.

इन सब नयी तकनीकों से हमारी सोच में अन्तर आया है. आज हमें कोई भी रोग हो, हम यह अपेक्षा करते हैं कि चिकित्सा विज्ञान इसका कोई न कोई इलाज अवश्य खोजेगा. कोई रोग बेइलाज हों, यह मानने के लिए हम तैयार नहीं होते.

कुछ दशक पहले तक, अधिकतर लोग घरों में ही अपने अंतिम क्षण गुज़ारते थे. उन अंतिम क्षणों के साथ मुख में गंगाजल देना, या बिस्तर के पास रामायण का पाठ करना जैसी रीतियाँ जुड़ी हुईं थीं. लेकिन शहरों में धीरे धीरे, घर में अंतिम क्षण बिताना कम हो रहा है. अगर अचानक मृत्यू न हो तो आज शहरों में अधिकतर लोग अपने अंतिम क्षण अस्पताल के बिस्तर पर बिताते हैं, अक्सर आईसीयू के शीशों के पीछे. जब डाक्टर कहते हैं कि अब कुछ नहीं हो सकता तब भी अंतिम क्षणों तक नसों में ग्लूकोज़ या सैलाइन की बोतल लगी रहती है, नाक में नलकी डाल कर खाना देते रहते हैं. अगर साँस लेने में कठिनाई हो तो साँस के रास्ते पर नली लगा कर तब तक वैंन्टिलेटर से साँस देते हैं जब तक एक एक कर के दिल, गुर्दे व जिगर काम करना बन्द नहीं कर देते. जब तक हृदय की धड़कन मापने वाली ईसीजी मशीन में दिल का चलना आये और ईईजी की मशीन से मस्तिष्क की लहरें दिखती रहीं, आप को मृत नहीं मानते और आप को ज़िन्दा रखने का तामझाम चलता रहता है.

वैन्टिलेटर बन्द किया जाये या नहीं, ग्लूकोज़ की बोतल हटायी जाये या नहीं, दिल को डिफ्रिब्रिलेटर से बिजली के झटके दे कर दोबारा से धड़कने की कोशिश की जाये या नहीं, यह सब निर्णय डाक्टर नहीं लेते. अगर केवल डाक्टर लें तो उन पर "मरीज़ को मारने" का आरोप लग सकता है. यह निर्णय तो डाक्टर के साथ मरीज़ के करीबी परिवारजन ही ले सकते हैं. पर परिवार वाले कैसे इतना कठोर निर्णय लें कि उनके प्रियजन को मरने दिया जाये? चाहे कितना भी बूढ़ा व्यक्ति हो या स्थिति कितनी भी निराशजनक क्यों न हो, जब तक कुछ चल रहा है, चलने दिया जाता है. बहुत कम लोगों में हिम्मत होती है कि यह कह सकें कि हमारे प्रियजन को शाँति से मरने दिया जाये.

अपने प्रियजन के बदले में स्वयं को रख कर सोचिये कि अगर आप उस परिस्थिति में हों तो आप क्या चाहेंगे? क्या आप चाहेंगे कि उन अंतिम क्षणों में आप की पीड़ा को लम्बा खींचा जाये, जबरदस्ती वैन्टिलेटर से, नाक में डली नलकी से, ग्लूकोज़ की बोतल और इन्जेक्शनों से आप के अंतिम दिनों को जितना हो सके लम्बा खीचा जाये?

चिकित्सा का व्यापारीकरण

लोगों की इन बदलती अपेक्षाओं से "चिकित्सा व्यापार" को फायदा हुआ है. कुछ भी बीमारी हो, वह लोग उसके लिए दबा कर तरह तरह के टेस्ट करवाते हैं. महीनों इधर उधर भटक कर, पैसा गँवा कर, लोग थक कर हार मान लेते हैं. भारत में प्राइवेट अस्पतालों में क्या हो रहा है,  किसी से छुपा नहीं है. उनके कमरे किसी पाँच सितारा होटल से कम मँहगे नहीं होते. लेकिन सब कुछ जान कर भी आज की सोच ऐसी बन गयी है कि कुछ भी हो बड़े अस्पताल में स्पेशालिस्ट को दिखाओ, दसियों टेस्ट कराओ, क्योंकि इससे हमारा अच्छा इलाज होगा.

गत वर्ष में आस्ट्रेलिया के एक नवयुवक डाक्टर डेविड बर्गर ने चिकित्सा विज्ञान की विख्यात वैज्ञानिक पत्रिका "द ब्रिटिश मेडिकल जर्नल" में भारत के चिकित्सा संस्थानों के बारे में अपने अनुभवों पर आधारित एक आलेख लिखा था जिसकी बहुत चर्चा हुई थी. वह भारत में छह महीनों के लिए एक गैरसरकारी संस्था के साथ वोलैंटियर का काम करने आये थे.

डा. बर्गर ने लिखा था कि "भारत में हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार कैसर की तरह फ़ैला है. इस भ्रष्टाचार की जड़े चिकित्सा की दुनिया में हर ओर गहरी फ़ैली हैं जिसका प्रभाव डाक्टर तथा मरीज़ के सम्न्धों पर भी पड़ता है. स्वास्थ्य सेवाएँ भी विषमताओं से भरी हैं, भारत में स्वास्थ्य सेवाओं का निजिकरण दुनिया में सबसे अधिक है. भारत में बीमारी पर होने वाला सत्तर प्रतिशत से भी अधिक खर्चा, लोग स्वयं उठाते हैं. यानि स्वास्थ्य सेवाओं का निजिकरण अमरीका से भी अधिक है. जिनके पास पैसा है उन्हें आधुनिक तकनीकों की स्वास्थ्य सेवा मिल सकती है, हालाँकि इसकी कीमत उन्हें उँची देनी पड़ती है. पर भारत के अस्सी करोड़ लोगों को यह सुविधा नहीं, उनके लिए केवल घटिया स्तर के सरकारी अस्पताल या नीम हकीम हैं जिनको किसी का डर नहीं. लेकिन अमीर हों या गरीब, भ्रष्टाचार सबके लिए बराबर है."

हाल ही में एक गैर सरकारी संस्था "साथी" (Support for Advocacy and Training to Health Initiatives) ने भारतीय चिकित्सा सेवा में लगी सड़न की रिपोर्ट निकाली है, जिसमें बहुत से डाक्टरों ने साक्षात्कार दिये हैं और किस तरह से भ्रष्टाचार से चिकित्सा क्षेत्र प्रभावित है इसका खुलासा किया है. इस रिपोर्ट में 78 डाक्टरों के साक्षात्कार हैं कि किस तरह भारतीय चिकित्सा सेवाएँ लालच तथा भ्रष्टाचार से जकड़ी हुई हैं. प्राइवेट अस्पतालों में व्यापारिता इतनी बढ़ी है कि किस तरह से अधिक फायदा हो इस बात का उनके हर कार्य पर प्रभाव है.

एक सर्जन ने बताया कि अस्पताल के डायरेक्टर ने उनसे शिकायत की कि उनके देखे हुए केवल दस प्रतिशत लोग ही क्यों आपरेशन करवाते हैं, यह बहुत कम है और इसे चालिस प्रतिशत तक बढ़ाना पड़ेगा, नहीं तो आप कहीं अन्य जगह काम खोजिये.

अगर डाक्टर किसी को हृद्य सर्जरी एँजियोप्लास्टी के लिए रेफ़र करते हें तो उन्हें इसकी कमीशन मिलती है. एमआरआई, ईसीजी जैसे टेस्ट भी कमीशन पाने के लिए करवाये जाते हैं.

कुछ दिन पहले मुम्बई की मेडिएँजलस नामक संस्था ने भी अपने एक शोध के बारे में बताया था जिसमें बारह हज़ार मरीजों के, जिनके आपरेशन हुए थे, उनके कागज़ों की जाँच की गयी. इस शोध से निकला कि हृदय में स्टेन्ट लगाना, घुटने में कृत्रिम जोड़ लगाना, कैसर का इलाज या बच्चा न होने का इलाज जैसे आपरेशनों में 44 प्रतिशत लोगों के बिना ज़रूरत के आपरेशन किये गये थे.

डाक्टरों ने किस तरह से कई सौ औरतों को गर्भालय के बिना ज़रूरत आपरेशन किये, इसकी खबर भी कुछ वर्ष पहले अखबारों में छपी थी.

इन समाचारों व रिपोर्टों के बावजूद, क्या स्थिति कुछ सुधरी है? आप अपने व्यक्तिगत अनुभवों के बारे में सोचिये और बताईये कि क्या चिकित्सा क्षेत्र में भ्रष्टाचार कम हुआ है या बढ़ा है?

विभिन्न जटिल स्थितियाँ

पर इस वातावरण में ईमानदार डाक्टर होना भी आसान नहीं. आप को कुछ भी रोग हो या तकलीफ़, चिकित्सक यह कहने से हिचकिचाते हैं कि उस तकलीफ़ का इलाज नहीं हो सकता. अगर वह ऐसा कहें भी तो मरीज़ इसे नहीं मानना चाहते हैं तथा सोचते हैं कि किसी अन्य जगह में किसी अन्य चिकित्सक की सलाह लेनी चाहिये. यानि अगर कोई चिकित्सक ईमानदारी से समझाना चाहे कि उस बीमारी का कुछ इलाज नहीं हो सकता तो लोग कहते हें कि वह चिकित्सक अच्छा नहीं, उसे सही जानकारी नहीं.

अगर बिना ज़रूरत के एन्टीबायटिक, इन्जेक्शन आदि के दुर्पयोग की बात हो तो देखा गया है कि लोग यह मानते हैं कि मँहगी दवाएँ, इन्जेक्शन देने वाला डाक्टर बेहतर है. लोग माँग करते हैं कि उन्हें ग्लूकोज़ की बोतल चढ़ायी जाये या इन्जेक्शन दिया जाये क्योंकि उनके मन में यह बात है कि केवल इनसे ही इलाज ठीक होता है.

ऐसी एक घटना के बारे में कुछ दिन पहले असम के जोरहाट शहर के पास एक चाय बागान में सुना. बागान में काम करने वाले मजदूर के चौदह वर्षीय बेटे को दीमागी बुखार हुआ और बुखार के बाद वह दोनों कानों से बहरा हो गया. मेडिकल कालेज में उन्हें कहा गया कि दिमाग के अन्दर के कोषों को हानि पहुँच चुकी है जिसकी वजह से बहरा होने का कुछ इलाज नहीं हो सकता. उन्होंने सलाह दी कि लड़के को बहरों की इशारों की भाषा सिखायी जानी चाहिये. पर वह नहीं माने, बेटे को ले कर कई अन्य अस्पतालों में भटके. अंत में डिब्रूगढ़ के एक अस्पताल में बच्चे को भरती भी किया गया. कई जगह उसके एक्सरे, अल्ट्रसाउँड, केट स्केन जैसे टेस्ट हुए. इसी इलाज के चक्कर में उन्होंने अपनी ज़मीन बेच दी, कर्जा भी लिया, जिसे चुकाने में उन्हें कई साल लगेंगे, पर बेटे की श्रवण शक्ति वापस नहीं आयी. घर में सन्नाटे में बन्द बेटा अब मानसिक रोग से भी पीड़ित हो गया है. यह कथा सुनाते हुए उसके पिता रोने लगे कि बेटे की बीमारी में सारे परिवार के भविष्य का नाश हो गया.

इसमें किसको दोष दिया जाये? शायद भारत की सरकार को जो स्वतंत्रता के साठ वर्ष बाद भी नागरिकों को सरकारी चिकित्सा संस्थानों में स्तर की चिकित्सा नहीं दे सकती? उन चिकित्सा संस्थानों को जो जानते थे कि बहुत से टेस्ट ऐसे थे जिनसे उस लड़के को कोई फायदा नहीं हो सकता था लेकिन फ़िर भी उन्होंने करवाये? या उन माता पिता का, जो हार नहीं मानना चाहते थे और जिन्होंने बेटे को ठीक करवाने के चक्कर में सब कुछ दाँव पर लगा दिया?

जीवन के अंत की दुविधाएँ

शहरों में रहने वाले हों तो परिवार में किसी की स्थिति गम्भीर होते ही सभी अस्पताल ले जाने की सोचते हैं. लेकिन जब बात वृद्ध व्यक्ति की हो या फ़िर गम्भीर बीमारी के अंतिम चरण की, तो ऐसे में अस्पताल से हमारी क्या अपेक्षाएँ होती हैं कि वह क्या करेंगे? जो खुशकिस्मत होते हैं वह अस्पताल जाने से पहले ही मर जाते हैं. पर अगर उस स्थिति में अस्पताल पहुँच जायें,  तो उस अंतिम समय में क्या करना चाहये, यह निर्णय लेना आसान नहीं. कैंसर का अंतिम चरण हो या अन्य गम्भीर बीमारी जिससे ठीक हो कर घर वापस लौटना सम्भव नहीं तो मशीनों के सहारे जीवन लम्बा करना क्या सचमुच का जीवन है या फ़िर शरीर को बेवजह यातना देना है?

कोमा में हो बेहोश हो कर, मशीनों के सहारे कई बार लोग हफ्तों तक या महीनों तक अस्पतालों में आईसीयू पड़े रहते हैं. परिवार वालों के लिए यह कहना कि मशीन बन्द कर दीजिये आसान नहीं. उन्हें लगता है कि उन्होंने पैसा बचाने के लिए अपने प्रियजन को जबरदस्ती मारा है. व्यापारी मानसिकता के डाक्टर हों तो उनका इसी में फायदा है, वह उस अंतिम समय का लम्बा बिल बनायेंगे.

ईमानदार डाक्टर भी यह निर्णय नहीं लेना चाहते. वह कैसे कहें कि कोई उम्मीद नहीं और शरीर को यातना देने को लम्बा नहीं खींचना चाहिये? वह सोचते हैं कि यह निर्णय तो परिवार वाले ही ले सकते हैं. इस विषय में बात करना बहुत कठिन है क्योंकि मन में डर होता है कि उस परिस्थिति में कुछ भी कहा जायेगा तो उसका कोई उल्टा अर्थ न निकाल ले या फ़िर भी मरीज़ की हत्या करने का आरोप न लगा दिया जाये.

अपना बच्चा हो या अपने माता पिता, कहाँ तक लड़ाई लड़ना ठीक है और कब हार मान लेनी चाहिये, इस प्रश्न के उत्तर आसान नहीं. हर स्थिति के लिए एक जैसा उत्तर हो भी नहीं सकता. जब तक ठीक होने की आशा हो, तो अंतिम क्षण तक लड़ने की कोशिश करना स्वाभाविक है. लेकिन जब वृद्ध हों या ऐसी बीमारी हो जिससे बिल्कुल ठीक होना सम्भव नहीं हो या फ़िर जीवन तो कुछ माह लम्बा हो जाये पर वह वेदना से भरा हो तो क्या करना चाहिये? कौन ले यह निर्णय कि ओर कोशिश की जाये या नहीं?

अपने अंतिम समय का निर्णय

भारतीय मूल के अमरीकी चिकित्सक अतुल गवँडे ने अपनी पुस्तक "बिइन्ग मोर्टल" (Being Mortal) में इस विषय पर, अपने पिता के बारे में तथा अपने कुछ मरीजों के अनुभवों के बारे में बहुत अच्छा लिखा है. मालूम नहीं कि यह पुस्तक हिन्दी में उपलब्ध है या नहीं, पर हो सके तो इसे अवश्य पढ़िये. उनका कहना है कि हमें अपने होश हवास रहते हुए अपने परिवार वालों से इस विषय में अपने विचार स्पष्ट रखने चाहिये कि जब हम ऐसी अवस्था में पहुँचें, जब हमारी अंत स्थिति आयी हो, तो हमें मशीनों के सहारे ज़िन्दा रखा जाये या नहीं. किस तरह की मृत्यू चाहते हैं हम, इसका निर्णय केवल हम ही ले सकते हैं. ताकि जब हमारा अंत समय आये तो हमारी इच्छा के अनुसार ही हमारा इलाज हो.

जब हमें होश न रहे, जब हम अपने आप खाना खाने लायक नहीं रहें या जब हमारी साँस चलनी बन्द हो जाये, तो कितने समय तक हमें मशीनों के सहारे "ज़िन्दा" रखा जाये? इसका निर्णय हमारी परिस्थितियों पर निर्भर करेगा और हमारे विचारों पर. अगर मैं सोचता हूँ कि महीनों या सालों, इस तरह स्वयं के लिए "जीवित" रहना नहीं चाहता तो आवश्यक नहीं कि बाकी लोग भी यही चाहते हैं. यह निर्णय हर एक को अपने विचारों के अनुसार लेने का अधिकार है. और आवश्यक है कि हम अपने प्रियजनों से इस विषय में खुल कर बात करें तथा अपनी इच्छाओं के बारे में स्पष्ट रूप से कहें.

अपने बारे में मेरी अंतिम इच्छा मेरे दिमाग में स्पष्ट है. मुझे लगता है कि मैंने अपना सारा जीवन पूरी तरह जिया है, अपने हर सपने को जीने का मौका मिला है मुझे. जहाँ तक हो सके, मैं अपने घर में मरना चाहूँगा. अगर मेरी स्थिति गम्भीर हो तो मैं चाहूँगा कि मुझे अपने पारिवार का सामिप्य मिले, लेकिन मुझे मशीनों के सहारे ज़िन्दा रखने की कोई कोशिश न की जाये!

मैंने इस विषय में कई बार अपनी पत्नी, अपने बेटे से बात भी की है और अपने विचार स्पष्ट किये हैं. आप ने क्या सोचा है अपने अंतिम समय के बारे में?

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