पेटर की बात कि वह कल्पना में सोची बात और जीवन में होने वाली बातों के बीच की सीमारेखा में अंतर नहीं समझ पाते, मुझ पर भी कुछ कुछ लागू होती है. शाम को बाग में घूमते समय, या रात को सोने से पहले किसी बात को सोचते हुए या सपने में हुई बात, कई बार मुझे लगता है कि वह सचमुच हुई थी. अक्सर पुरानी बातों के बारे में मैं यह नहीं बता पाता कि वह सचमुच हुआ था या फ़िर केवल मैंने सोचा था.
कई बार मन ही मन में किसी मित्र को पत्र लिखता हूँ, सोचता हूँ कि उसे यह बताऊँगा, वह समझाऊँगा, आदि. बाद में लगता है कि मैंने सचमुच वह बात मित्र को लिखी थी और कभी कभी गुस्सा हो जाता हूँ कि मित्र ने उसका जवाब क्यों नहीं दिया!
काम पर भी ऐसा कभी कभी होता है. फेलिचिता, मेरी सचिव अब मेरी इस प्रवृति को समझने लगी है. कभी कभी कुछ काम के बारे में पूछूँ तो कहती है, ठीक से सोचो कि तुमने मुझे सचमुच वह काम दिया था या फ़िर सिर्फ शाम को सोचा था कि मुझे वह काम करना चाहिए?
शायद इसका अर्थ यह हुआ कि मैं भी पेटर की तरह उच्च दर्जे का लेखक बन सकता हूँ?
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जेनेवा से वापस आते समय हवाई जहाज में इंटनेशनल हेराल्ड ट्रीब्यून (International Herald Tribune) अखबार में हर तरफ भारत को पाया. एक समाचार था किसी सरीन के बारे में जो कि यूरोप के सबसे बड़ी टेलोफ़ोन कम्पनी वोदाफ़ोन के डायरेक्टर हैं. दूसरा समाचार था रतन टाटा के बारे में जिन्होंने फियट कार वालों के साथ कोई समझोता किया है.
तीसरा समाचार एक लेख था श्रीमति अनुपमा चोपड़ा का मुम्बई के सिनेमा संसार में आते बदलाव के बारे में. अनुपमा जी बात प्रारम्भ करती हैं करण जौहर की नयी फ़िल्म "कभी अल्विदा न कहना से" जिसमें पति परमेश्वर मानने वाली स्त्री पात्र के बदले में एक विवाहित पुरुष के एक विवाहित स्त्री से प्रेम की कहानी है.
कल्पना जी लिखती हैं, "जौहर जैसे फ़िल्म निर्माता इसलिए उन प्रश्नों से जूझ रहे हैं जैसे आत्मीयता (intimacy) के बारे में (क्या दर्शक स्वीकार करेंगे कि इनके प्रिय सितारे साथ सोते हैं), नैतिकता के बारे में (जौहर जी बोले मैं अपनी फ़िल्म में विवाह के रिश्ते से विश्वासघात करने को स्वीकृति नहीं दे सकता), भाषा के बारे में (सेक्स के विषय में हिंदी में बात करना कठिन है क्योंकि इससे जुड़े शब्द यह तो पुराने और कठिन हैं या फ़िर भद्दे). इस आखिरी परेशानी का हल जौहर जी ने यह खोजा कि इस सब बातों के बारे में बातें अँग्रेज़ी में हों."
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जेनेवा में ग्रेगोर वोलब्रिंग से मुलाकात हुई. ग्रगोर केनेडावासी हैं और जन्म से विकलाँग. ग्रगोर ने सभा में कृत्रिम प्राणीविज्ञान (synthetic biology), और अतिसूक्षम तकनीकी (nanotechnology) इत्यादि विधाओं के मिलन से हो रहे नये प्रयासों के बारे में बोला जिससे अगले 20 या 30 वर्षों में विकलाँगता के बारे में हमारे सोचने का तरीका बदल सकता है. ग्रेगोर का कहना है कि इन तकनीकों से मानव शरीर और मस्तिष्क का ऐसा विकास हो सकता है जो मानव को नयी दिशाओं में ले जा सकता है, ऐसे समाज में विकलाँग वह लोग होंगे जिनके पास इन तकनीकों को खरीदने के लिए साधन नहीं होंगे. ग्रेगोर के बारे में पढ़ना चाहें तो उनके वेबपृष्ठ पर पढ़ सकते हैं.
आज की सभी तस्वीरें जेनेवा से हैं और पहली तस्वीर में मेरे साथ हैं ग्रेगोर वोलब्रिंग.