स्वास्थ्य सम्बंधी तकनीकों के विकास का असर भारत पर भी पड़ा. जब भारत स्वतंत्र हुआ था उस समय भारत में औसत जीवन की आशा थी केवल 32 वर्ष, आज वह 65 वर्ष है. यानि भारत में भी स्थिति बदली है हालाँकि विकसित देशों के मुकाबले जहाँ औसत जीवन आशा 80 से 85 वर्ष तक है, हम अभी कुछ पीछे हैं. बहुत सी बीमारियों के लिए जैसे कि गर्भवति माँओं की मृत्यू, बचपन में बच्चों की मृत्यू, पौष्ठिक खाना न होने से बच्चों में कमज़ोरी, मधुमेह, कुष्ठ रोग और टीबी, भारत दुनिया में ऊँचे स्थान पर है.
विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में नयी खोजों व अनुसंधानों को वैज्ञानिक पत्रिकाओं या जर्नल (journals) में छापा जाता है. इस तरह की दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण पत्रिकाएँ अधिकतर अंग्रेज़ी भाषा में हैं. चीन, फ्राँस, इटली, स्पेन, ब्राज़ील आदि जहाँ अंग्रेज़ी बोलने वाले कम हैं, यह देश दुनिया में होने वाले महत्वपूर्ण शौधकार्यों को अपनी भाषाओं में अनुवाद करके छापते हैं, ताकि उनके देश में काम करने वाले लोग भी नयी तकनीकों व जानकारी को समझ सकें. लेकिन यह बात हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं पर लागू नहीं होती, क्योंकि यह सोचा जाता है कि हमारे यहाँ के वैज्ञानिक अंग़्रज़ी जानते हैं.
अगर किसी भाषा में हर दिन की सामान्य बातचीत नहीं होगी तो उसका प्राकृतिक विकास रुक जायेगा. अगर उसमें नया लेखन, कविता, साँस्कृतिक व कला अभिव्यक्ति नहीं होगी तो उसका कुछ हिस्सा बेजान हो जायेगा. अगर वह विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में होने वाली नयी खोजों और शौध से कटी रहेगी तो उस भाषा को जीवित रहने के लिए जिस ऑक्सीज़न की आवश्यकता है वह उसे नहीं मिलेगी. इसलिए हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं को बोलने वालों को किस तरह से यह जानकारी मिले यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है.
लेकिन भाषा के अतिरिक्त, वैज्ञानिक शौध, विषेशकर स्वास्थ्य सम्बंधी शौध के साथ अन्य भी कुछ प्रश्न जुड़े हैं जिनके बारे में जानना व समझना महत्वपूर्ण है. अपनी इस पोस्ट में मैं उन्हीं प्रश्नों की चर्चा करना चाहता हूँ.
हिन्दी में विज्ञान व स्वास्थ्य सम्बंधी जानकारी
अगर विज्ञान व तकनीकी के विभिन्न पहलुओं को आँकें तो उनमें हिन्दी न के बराबर है. कुछ विज्ञान पत्रिकाओं या इंटरनेट पर गिने चुने चिट्ठों को छोड़ दें तो अन्य कुछ नहीं दिखता. स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी नये अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय अनुसंधान क्या बता रहे हैं इसकी निष्पक्ष जानकारी हिन्दी में मिलना कठिन है.
देश के विभिन्न शहरों में पाँच सितारा मल्टी स्पैलिटी अस्पताल खुल रहे हैं जो आधुनिक तकनीकों से हर बीमारी का नया व बढ़िया इलाज करने का आश्वासन देते हैं. दवा कम्पनियों वाले अपनी हर दवा को बेचने के लिए मार्किटिन्ग तकनीकों व जानी मानी ब्राँड के सहारे से यह दिखाना चाहते हैं कि उनकी दवा बेहतर है इसलिए उसका मँहगा होना स्वभाविक है. पर उन सबकी विश्वासनीयता को किस कसौटी से मापा जाना चाहिये?
जीवन के अन्य पहलुओं की तरह, आज स्वास्थ्य के क्षेत्र पर भी व्यवसायी दृष्टिकोण ही हावी हो रहा है, इसलिए कोई भी जानकारी हो, उसकी विश्वासनीयता परखना आवश्यक हो गया है. अगर लोग मार्कटिन्ग की तकनीकों से आप को विषेश ब्राँड के कपड़े, जूते, टीवी या वाशिन्ग मशीन बेचें तो शायद नुकसान नहीं. लेकिन जब उन तकनीकों का आप के मन में अपने स्वास्थ्य के बारे में डर जगाने व पैसा कमाने के लिए प्रयोग किया जाये तो क्या आप इसे उचित मानेंगे?
इस बात के विभिन्न पहलू हैं, जिनके बारे में मैं आज बात करना चाहता हूँ. बात शुरु करते हैं प्रोस्टेट के कैन्सर से. प्रोस्टेट एक ग्रँथि होती है जो पुरुषों में पिशाब के रास्ते के पास, लिंग की जड़ के करीब पायी जाती है. यह सामान्य रूप में छोटे अखरोट सी होती है. जब यह ग्रँथि बढ़ जाती है, कैन्सर से या बिना कैन्सर वाले ट्यूमर से, तो इससे पिशाब के रास्ते में रुकावट होने लगती है और पुरुष को पिशाब करने में दिक्कत होती है. यह तकलीफ़ अक्सर पचास पचपन वर्ष के पुरुषों को शुरु होती है और उम्र के साथ बढ़ती है.
प्रोस्टेट कैन्सर को जानने का टेस्ट
कुछ दिन पहले मैंने मेडस्केप पर अमरीका के डा. रिचर्ड ऐ एबलिन का साक्षात्कार पढ़ा. डा. एबलिन ने 1970 में एक प्रोस्टेट ट्यूमर के एँटिजन की खोज की थी. सन 1990 से उस एँटिजन पर आधारित एक टेस्ट बनाया गया था जिसका प्रयोग यह जानने के लिए किया जाता है कि किसी व्यक्ति को प्रस्टेट का ट्यूमर है या नहीं. अगर यह टेस्ट यह बताये कि शरीर में यह एँटिजन है यानि टेस्ट पोस्टिव निकले तो प्रोस्टेट के छोटे टुकड़े को निकाल कर, उसकी बायप्सी करके, उसकी माइक्रोस्कोप में जाँच करनी चाहिये. माइक्रोस्कोप में अगर कैन्सर के कोष दिखें तो तो उसका तुरंत इलाज करना चाहिये, अक्सर उनका प्रोस्टेट का ऑपरेशन करना पड़ता है. यह टेस्ट पचास वर्ष से अधिक उम्र वाले पुरुषों को हर दो तीन साल में कराने की सलाह देते हैं ताकि अगर उन्हें प्रोस्टेट कैन्सर हो तो उसका जल्दी इलाज किया जा सके.
अपने साक्षात्कार में डा. एबलिन ने बताया है कि उनका खोज किया हुआ "प्रोस्टेट एँटिजन", एक ट्यूमर का एँटिजन है, कैन्सर का नहीं. अगर ट्यूमर कैन्सर नहीं हो तो सभी को उसका ऑपरेशन कराने की आवश्यकता नहीं होती. अगर ट्यूमर कैंन्सर नहीं हो तो उसका ऑपरेशन तभी करते हैं जब उसकी वजह से पिशाब करने में दिक्कत होने लगे.
लेकिन अगर टेस्ट पोस्टिव आये तो लोगों के मन में कैन्सर का डर बैठ जाता हैं हालाँकि यह टेस्ट बहुत भरोसेमन्द नहीं और 70 प्रतिशत लोगों बिना किसी ट्यूमर के झूठा पोस्टिव नतीजा देता है. कई डाक्टर उन सभी लोगों को ऑपरेशन कराने की सलाह देते हैं, यह नहीं बताते कि 70 प्रतिशत पोस्टिव टेस्ट में न कोई कैन्सर होता है न कोई ट्यूमर. बहुत से सामान्य डाक्टर भी इस बात को नहीं समझते. इस टेस्ट के साथ दुनिया के विभिन्न देशों में टेस्ट कराने का और ऑपरेशनों का करोड़ों रुपयों का व्यापार जुड़ा है.
लेकिन अगर टेस्ट पोस्टिव आये तो लोगों के मन में कैन्सर का डर बैठ जाता हैं हालाँकि यह टेस्ट बहुत भरोसेमन्द नहीं और 70 प्रतिशत लोगों बिना किसी ट्यूमर के झूठा पोस्टिव नतीजा देता है. कई डाक्टर उन सभी लोगों को ऑपरेशन कराने की सलाह देते हैं, यह नहीं बताते कि 70 प्रतिशत पोस्टिव टेस्ट में न कोई कैन्सर होता है न कोई ट्यूमर. बहुत से सामान्य डाक्टर भी इस बात को नहीं समझते. इस टेस्ट के साथ दुनिया के विभिन्न देशों में टेस्ट कराने का और ऑपरेशनों का करोड़ों रुपयों का व्यापार जुड़ा है.
कुछ इसी तरह की बातें, बड़ी आँतों में कैन्सर को जल्दी पकड़ने के लिए पाखाने में खून के होने की जाँच कराने वाले स्क्रीनिंग टेस्ट तथा स्त्री वक्ष में कैन्सर को जल्दी पकड़ने के लिए मैमोग्राफ़ी के स्क्रीनिंग टेस्ट कराने की भी है. उनके बारे में भी कहा गया है कि यह स्क्रीनिंग टेस्ट केवल अस्पतालों के पैसा बनाने के लिए किये जाते हैं और इनका प्रभाव इन बीमारियों को जल्दी पकड़ने या नागरिकों के जीवन बचाने पर नगण्य है.
विदेशों में जहाँ सभी नागरिकों को राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा की सुविधा है, इन टेस्टों को स्क्रीनिन्ग के लिए उपयोग करते हैं, यानि आप के घर में चिट्ठी आती है कि फलाँ दिन को निकट के स्वास्थ्य केन्द्र में यह टेस्ट मुफ्त कराईये. भारत में राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा नहीं के बराबर है और सरकार की ओर से नागरिकों के स्वास्थ्य के लिए बजट दुनिया में बहुत कम स्तर पर है, जिसके बहुत से नुक्सान हैं, लेकिन कुछ फायदा भी है क्योंकि इस तरह के स्क्रीनिंग टेस्टों में सरकारी पैसा बरबाद नहीं किया जाता. दूसरी ओर स्वास्थ्य सेवाओं के निजिकरण में भारत दुनिया के अग्रणी देशों में से है, जिससे शहरों में रहने वाले लोग पैसा कमाने के चक्कर में लगे लोगों के शिकार बन जाते हैं, विषेशकर नये पाँच सितारा मल्टी स्पैशेलिटी अस्पतालों में.
बात केवल पैसे की नहीं. अधिक असर पड़ता है लोगों के मन में बैठाये डर का कि आप को कैन्सर है या हो सकता है. अगर टेस्ट के 70 प्रतिशत परिणाम गलत होते हैं, और जिन 30 प्रतिशत लोगों में परिणाम ठीक होते हैं, उनमें से कुछ को ही कैन्सर होता है, बाकियों को केवल कैन्सर विहीन ट्यूमर होता है तो क्या यह उचित है कि लोगों के मन में यह डर बिठाया जाये कि उन्हें कैन्सर हो सकता है?
अन्तर्राष्ट्रीय शौध पत्रिकाएँ
विज्ञान के हर क्षेत्र में कुछ भी नया महत्वपूर्ण शौध हो तो उसके बारे में जानने के लिए प्रसिद्ध अन्तर्राष्ट्रीय जर्नल या पत्रिकाएँ होती हैं, जिनमें छपना आसान नहीं और जिनमें छपने वाली हर रिपोर्ट व आलेख को पहले अन्य वैज्ञानिकों द्वारा जाँचा परखा जाता है. स्वास्थ्य की बात करें तो भारत में भी कुछ इस तरह की पत्रिकाएँ अंग्रेज़ी में छपती हैं लेकिन इन्हें अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में अधिक मान्यता नहीं मिली है. स्वास्थ्य के सर्वप्रसिद्ध जर्नल अधिकतर अमरीकी या यूरोपीय हैं और अंग्रेज़ी में हैं. अन्य यूरोपीय भाषाओं में छपने वाली पत्रिकाओं को अंग्रेज़ी जर्नल जितनी मान्यता नहीं मिलती. विकासशील देशों से प्रसिद्ध अंग्रेज़ी के जर्नल में छपने पाली शौध-आलेख बहुत कम होते हैं, हालाँकि विकासशील देशों में से भारतीय शौध-आलेखों का स्थान ऊँचा है.
अधिकतर अंग्रेज़ी की प्रसिद्ध वैज्ञानिक पत्रिकाएँ मँहगी भी होती हैं इसलिए उन्हें खरीदना विकासशील देशों में आसान नहीं. पिछले कुछ सालों में इंटरनेट के माध्यम से, कुछ प्रयास हुए हैं कि शौध को पढ़ने वालों को मुफ्त उपलब्ध कराया जाये, इनमें प्लोस पत्रिकाओं (PLOS - Public Library of Science) को सबसे अधिक महत्व मिला है.
स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाले बहुत से लोग नये शौध अनुसंधान के महत्व को नहीं समझते. बहुत से डाक्टर अंग़ेज़ी जानते हुए भी, इंटरनेट के होते हुए भी, वह इस विषय में नहीं पढ़ते. बहुत से डाक्टरों के लिए दवा कम्पनियों के लोग जो उनके क्लिनिक में दवा के सेम्पल के कर आते हैं, वही नयी जानकारी का सोत्र होते हैं. पर क्या कोई दवा बेचने वाला निष्पक्ष जानकारी देता है या अपनी दवा की पक्षधर जानकारी देता है?
दूसरी ओर वह लोग हैं जिन्हें जर्नल में छपने वाली अंग्रेज़ी समझ नहीं आती, क्योंकि इस तरह की वैज्ञानिक पत्रिकाओं में कठिन भाषा का प्रयोग किया जाता है. भारत में सामान्य अंग्रेज़ी बोलने समझने वाले बहुत से लोग, चाहे वह डाक्टर हो या नर्स या फिज़ियोथैरापिस्ट, वह भी इस तरह से नये शौधों के बारे में चाह कर भी नहीं जान पाते.
कौन लिखता है अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में शौध-आलेख?
शौध पत्रिकाओं का क्षेत्र भी समाज के व्यवसायीकरण से अछूता नहीं रह पाया है. और अगर कोई पत्रिका व्यवसाय को सबसे ऊँचा मानेगी तो उसका शौधो-विषयों व शौध-आलेखों के छपने पर क्या असर पड़ेगा, यह समझना आवश्यक है.
अंतर्राष्ट्रीय उपभोक्ता संगठन "क्ज़ूमर इंटरनेशनल" की 2007 की रिपोर्ट "ड्रगस, डाक्टर एँड डिन्नरस" (Drugs, doctors and dinners - दवाएँ, चिकित्सक व दावतें) में इस बात की चर्चा थी कि बहुदेशीय दवा कम्पनियाँ किस तरह डाक्टरों पर प्रभाव डालती हैं कि वे उनकी मँहगी दवाएँ अधिक से अधिक लिखें. साथ ही, जेनेरिक दवाईयों जो सस्ती होती है, के विरुद्ध प्रचार किया जाता है कि अगर दवा का अच्छा ब्राँड नाम नहीं हो तो वह नकली हो सकती हैं या उनका प्रभाव कम पड़ता है.
एक अन्य समस्या है कि स्वास्थ्य के विषय पर छपने वाले प्रतीष्ठित अंतर्राष्ट्रीय जर्नल-पत्रिकाओं पर दवा कम्पनियों का प्रभाव. 2011 में अंग्रेज़ी समाचार पत्र "द गार्डियन" में एलियट रोस्स ने अपने आलेख में बताया कि किस पत्रिका में क्या छपेगा और क्या नहीं यह दवा कम्पनियों के हाथ में है. यह कम्पनियाँ चूँकि इन पत्रिकाओं में अपने विज्ञापन छपवाती हैं, पत्रिकाओं के मालिक उन्हें नाराज़ नहीं करना चाहते और किसी प्रसिद्ध दवा कम्पनी की किसी दवा के बारे में नकारात्मक रिपोर्ट हो तो उसे नहीं छापते. यही कम्पनियाँ नये शौधकार्य में पैसा लगाती हैं और अगर शौध के नतीजे उन्हें अच्छे न लगें तो उसकी रिपोर्ट को नहीं छपवाती. वह अपनी दवाओं के बारे में उनके असर को बढ़ा चढ़ा कर दिखलाने वाले आलेख लिखवा कर प्रतिष्ठित डाक्टरों के नामों से छपवाती हैं, जिससे डाक्टरों को अपना नाम देने का पैसा या अन्य फायदा मिलता है - इसे भूतलेखन (Ghost-writing) कहते हैं. किस वैज्ञानिक पत्रिका में क्या छपवाया जाये इस पर काम करने वाली दवा कम्पनियों से सम्बंधित 250 से अधिक एजेन्सियाँ हैं जो इस काम को पैशेवर तरीके से करती हैं.
अमरीकी समाचार पत्र वाशिन्गटन पोस्ट में छपी 2012 की एक रिपोर्ट के अनुसार, सन् 2000 में प्रसिद्ध वैज्ञानिक पत्रिका "न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसन" में नयी दवाओं के शौध के बारे में 73 आलेख छपे जिनमें से 60 आलेख दवा कम्पनियों द्वारा प्रयोजित थे. इस विषय पर छान बीन करने वाले विशेषज्ञों का कहना है कि पिछले दशक में स्थिति और भी अधिक बिगड़ी है.
इस स्थिति के जन स्वास्थ्य पर पड़ने वाले बुरे असर के कई उदाहरण मिल सकते हैं, जैसे कि मेरक्क कम्पनी के दो शौधकर्ताओं ने जोड़ों के दर्द की दवा वियोक्स के अच्छे असर के बारे में बढ़ा चढ़ा कर आलेख लिखा. वयोक्स की बिक्री बहुत हुई. पाँच साल बाद मालूम चला कि इन दोनो शौधकर्ताओं ने अपने आलेख में दवा के साइड इफेक्ट यानि बुरे प्रभावों को छुपा लिया था क्योंकि इस दवा से लोगों को दिल की बीमारियाँ हो रहीं थीं. जब अमरीका में हल्ला मचा तो इस दवा को बाज़ार से हटा दिया गया.
विकसित देशों में जब किसी दवा के बुरे असर की समाचार आते हैं तो सरकार उसकी जाँच करवाती है और उस दवा को बाज़ार से हटाना पड़ता है. लेकिन यह कम्पनियाँ अक्सर सब कुछ जान कर भी विकासशील देशों में उन दवाओं को बेचना बन्द नहीं करती, जब तक वहाँ की सरकारें इसके बारे में ठोस कदम नहीं उठातीं. कई अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बैन की हुई दवाईयाँ हैं जो विकासशील देशों में खुले आम बिकती हैं.
शौध को समझने की दिक्कतें
जहाँ एक ओर शौध के बारे में निष्पक्ष जानकारी मिलना कठिन है, वहाँ दूसरी समस्या है शौधों के नतीजो़ को समझना. वैज्ञानिक पत्रिकाओं में नयी दवाओं के असर को अधिकतर इस तरह से प्रस्तुत किया जाता है जिससे लोगों को स्पष्ट समझ न आये. इस समस्या को समझने के लिए मैं आप को सरल किया हुआ एक उदाहरण देता हूँ.
मान लीजिये कि एक दवा "क" किसी बीमारी से पीड़ित केवल 5 प्रतिशत लोगों को ठीक करती है, पर बाकी 95 प्रतिशत बीमार लोगों पर उसका कुछ असर नहीं होता. आपने एक नयी दवा "ख" बनाई है, जिसको लेने से उस बीमारी से पीड़ित 10 प्रतिशत लोग ठीक होते हैं और 90 प्रतिशत पर उसका असर नहीं हो. अब आप अपने शौध के बारे में इस तरह से आलेख लिखवाईये और इसके विज्ञापन प्रसारित कीजिये कि "नयी ख दवाई पुरानी दवा के मुकाबले में 100 प्रतिशत अधिक शक्तिशाली है". इस तरह के प्रचार से बहुत से लोग, यहाँ तक कि बहुत से डाक्टर भी, सोचने लगते हैं कि "ख" दवा सचमुच बहुत असरकारक है हालाँकि उसका 90 प्रतिशत बीमार लोगों पर कुछ असर नहीं है.
यही वजह है कि दवा कम्पनियों के प्रतिनिधियों द्वारा दिये जाने वाली विज्ञापन सामग्री पर विश्वास करने वाले डाक्टर भी अक्सर धोखा खा जाते हैं.
आज की दुनियाँ में जहाँ लोग सोचते हें कि इंटरनेट पर सब जानकारी मिल सकती है, सामान्य लोग कैसे समझ सकते हैं कि जिस नयी जादू की दवा के बारे में वह इंटरनेट पर पढ़ रहे हैं, वह सब दवा कम्पनियों द्वारा बिक्री बढ़ाने के तरीके हैं. चाहे दवा हो या चमत्कारी तावीज़ या कोई मन्त्र, लोगों के विश्वास का गलत फ़ायदा उया कर, सबको उल्लू बना कर पैसा कमाने के तरीके हैं. लेकिन इंटरनेट का फायदा यह है कि अगर आप खोजेंगे तो आप को उन उल्लू बनाये गये लोगों की कहानियाँ भी पढ़ने को मिल सकती हैं जिसमें में वह उस चमात्कारी दवा की सच्चाई बताते हैं.
निष्कर्ष
एक ओर भारत में समस्या है कि दुनियाँ में होने वाले मौलिक शौध की जानकारी हिन्दी या अन्य भाषाओं में मिलना कठिन है.
दूसरी ओर, अंग्रेज़ी की अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक पत्रिकाएँ किस तरह के शौध के विषय में जानकारी देती हैं और उन पत्रिकाओं पर व्यवसायिक मूल्यों का कितना असर पड़ता है, इसके विषय वैज्ञानिक समाज में आज बहुत से प्रश्न उठ रहे हैं. मैंने इस विषय के कुछ हिस्सों को ही चुना है और उनका सरलीकरण किया है, पर इससे जुड़ी बहुत सी बातें जटिल हैं और जनसाधारण की समझ से बाहर भी.
इनसे आम जनता को तो दिक्कत है ही, स्वास्थ्य क्षेत्र में काम करने वालों के लिए भी आज यह चुनौती है. प्लोस जैसी वैज्ञानिक पत्रिकाओं के माध्यम से शायद भविष्य में कौन सी शौध छपती है इस पर अच्छा प्रभाव पड़े लेकिन आलेखों को पढ़ने व समझने की चुनौतियों के हल निकालना आसान नहीं. इस सब जानकारी को सरल भाषा में हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं में कैसे उपलब्ध कराया जाया यह चुनौती भी आसान नहीं.
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