पहली बार जब इटली आया था तो विचेंज़ा जाने के लिए वेनिस हवाई अड्डे पर उतरा था. पहली बार मुझे वेनिस घुमाने ले गये मेरे प्रोफेसर रित्सी. तब से अब तक जाने कितनी बार जा चुका हूँ वेनिस घूमने. कभी बारिश में, कभी तेज सर्दी और बर्फ में, और कई बार जुलाई की गर्मी में. बिबयोने से गर्मी की छुट्टियों के बाद घर वापस आते समय अक्सर रास्ते में एक चक्कर वेनिस का लग ही जाता है. और जब कोई मित्र या परिवार का सदस्य बाहर से आये तो उसे वेनिस घुमाना भी आवश्यक है.
निराला, अनोखा शहर है वेनिस. जितनी भी बार देखो, हर बार वैसा ही, अविश्वास्नीय सा. सबसे अधिक अच्छा लगता है मुझे वेनिस की छुपी हुई गलियों में जाना जहाँ आम लोग रहते हैं.
विषेश यादों में वह रात है जब मेरी रेलगाड़ी छूट गयी थी और रात भर रेलवे स्टेश्न के सामने सीड़ियों पर बितायी थी या जब ज्यूदेक्का द्वीप पर माधवी मुदग्ल का ओड़िसी नृत्य देखा था या जब रात को १२ बजे, मेरी क्रिस्टीन के साथ पियात्सा सन मारको में बेले नृत्य देखा था.
कल रिजु के साथ वेनिस फिर लौटा. प्रस्तुत हैं इस बार की वेनिस यात्रा की दो तस्वीरें
शुक्रवार, जुलाई 29, 2005
गुरुवार, जुलाई 28, 2005
कल के सपने
कितने साल बीत गये. रेने और इवोन फ्राँस से आये थे. नाना जी के खेत पर उन्होंने आपना तम्बू गाड़ा था. उन्होंने ही मेरी जान पहचान करवायी मेरी क्रिस्टीन से. ३९ साल हो गये इस बात को. चिट्ठी से ही बातचीत होती थी हमारी, पहली बार मिले १९८० में जब मैं लियोन गया था. कल मेरी क्रिस्टीन का पत्र आया है. उसे आज भी चिट्ठी लिखना अच्छा लगता है जबकि मुझे किसी को चिट्ठी लिखे हुए ज़माने हो गये. पर इसे कहते हैं दोस्ती.
मेरी क्रिस्टीन ने भेजा था मेरा पहला कैमरा मुझे. दूसरा कैमरा मिला था शादी पर, इतालवी मित्रों से. अपने आप खरीदा हुआ पहला कैमरा मैंने अभी कुछ साल पहले ही खरीदा था. खरीदने से पहले, कई दुकाने घूम कर आया, दोस्तों से सलाह माँगी, कई दिन सोचा. एक्वाडोर से वापस आने पर अपने खोये हुए कैमरे के बदले में नया खरीदना था, पर इस बार कहीं नहीं गया, बस अंतरजाल पर ढूँढा और एक शाम कम्प्यूटर के सामने बिता कर निर्णय लिया, वहीं से आडर दिया और आब इंतज़ार कर रहा हूँ कि आये.
कोलोन से रिजु आया है कुछ दिनों की छुट्टियों में. कल रोम गया था. आज उसके साथ वेनिस जाने का सोचा है. एक्वाडोर से आने के बाद ७ घंटे के जेट लैग को अभी काबू नहीं कर पाया हूँ, थोड़ा ही सो पाता हूँ और दिन भर नींद आती रहती है. गरमी भी बहुत है और उमस भी.
रिजू को देख कर बड़े दादा की याद आ जाती है और रिजु के बचपन की. दादा की शादी थी. शादी के बाद तुरंत पति पत्नि अमरीका में पढ़ाई के लिये जा रहे थे. हम सब बच्चे लोग गप्पबाजी और खेल कूद में मस्त थे. लगता था जीवन जैसे कोई लम्बी सड़क हो जो कभी स्माप्त नहीं होगी, बस सिर्फ खेल कूद और हँसी मज़ाक, बस यही होगा जीवन.
अमरीका से भाभी की चिट्ठी आयी, साथ में दो फोटो भी. एक फोटो में अमरीका का अपार्टमैंट, दूसरी में भाभी यूनीवर्सिटी के बाग में, साथ में एक चीनी या कोरियन चेहरे वाली एक लड़की. सब मुग्ध हो कर देखते. कितना सुंदर था सब कुछ. और भी सपने और गहरी साँसें. अमरीका के सपने, चमकते अपार्टमैंट के सपने, विभिन्न चेहरे वाले लोगों के सपने जो भिन्न भिन्न भाषायें बोलते हैं.
दादा भाभी छुट्टियों में वापस आये. छोटा सा बेटा. उसके पाँव के अंगूठे पर चोट लग गयी. "ओ, माय थम्ब", बोला वह और बुक्का फ़ाड़ कर रोया. सब कोई मंत्र मुग्ध. सब अचरज से उसे देखते. अंग्रेज़ों की तरह कैसे अजीब से तरीके से बोलता था वह.
वर्ष बीत गये. बहुत सारे रिश्ते बदल गये. कई नये रिश्ते बन गये. घर बदल गये. शहर बदल गये. नाम बदल गये. सपने भी बदल गये. कुछ सच हो गये, कुछ रास्ते में खो गये, कुछ नये बन गये. इतने सालों के बाद वही बेटा आया है. जब बोलता है तो लगता है जैसे दादा बोल रहे हों. अचानक बीते हुए दिन फ़िर से लौट आये हैं.
जीवन एक चक्कर जैसा है, गोल घूमता है. जहाँ से निकलता है, फ़िर वहीं से गुज़रता है. बूढ़ी या प्रोढ़ आँखे बचपन का उत्साह और सपने देख कर मुस्कुराती हैं. मालूम है उन्हें कैसे जीवन लम्बी सड़क जैसा लग सकता है और कैसे यह यात्रा अचानक छोटी सी बन जाती है. पीछे मुड़ कर देखो तो कल कितना पास लगता है और कितना दूर, कभी न वापस आने वाला.
आज एक कविता और दो तस्वीरें. कविता है अर्चना वर्मा की जिसके शब्दों के अंदर छुपी लय और धुन मुझे बहुत अच्छी लगते हैं. पूरी कविता पढना चाहें तो कल्पना पर पढ़ सकते हैं. और तस्वीरे हैं: एक्वाडोर कीटो में एक आईसक्रीम बेचने वाले की और घर में मारको, रिजु और ब्रांदो:
मेरी क्रिस्टीन ने भेजा था मेरा पहला कैमरा मुझे. दूसरा कैमरा मिला था शादी पर, इतालवी मित्रों से. अपने आप खरीदा हुआ पहला कैमरा मैंने अभी कुछ साल पहले ही खरीदा था. खरीदने से पहले, कई दुकाने घूम कर आया, दोस्तों से सलाह माँगी, कई दिन सोचा. एक्वाडोर से वापस आने पर अपने खोये हुए कैमरे के बदले में नया खरीदना था, पर इस बार कहीं नहीं गया, बस अंतरजाल पर ढूँढा और एक शाम कम्प्यूटर के सामने बिता कर निर्णय लिया, वहीं से आडर दिया और आब इंतज़ार कर रहा हूँ कि आये.
कोलोन से रिजु आया है कुछ दिनों की छुट्टियों में. कल रोम गया था. आज उसके साथ वेनिस जाने का सोचा है. एक्वाडोर से आने के बाद ७ घंटे के जेट लैग को अभी काबू नहीं कर पाया हूँ, थोड़ा ही सो पाता हूँ और दिन भर नींद आती रहती है. गरमी भी बहुत है और उमस भी.
रिजू को देख कर बड़े दादा की याद आ जाती है और रिजु के बचपन की. दादा की शादी थी. शादी के बाद तुरंत पति पत्नि अमरीका में पढ़ाई के लिये जा रहे थे. हम सब बच्चे लोग गप्पबाजी और खेल कूद में मस्त थे. लगता था जीवन जैसे कोई लम्बी सड़क हो जो कभी स्माप्त नहीं होगी, बस सिर्फ खेल कूद और हँसी मज़ाक, बस यही होगा जीवन.
अमरीका से भाभी की चिट्ठी आयी, साथ में दो फोटो भी. एक फोटो में अमरीका का अपार्टमैंट, दूसरी में भाभी यूनीवर्सिटी के बाग में, साथ में एक चीनी या कोरियन चेहरे वाली एक लड़की. सब मुग्ध हो कर देखते. कितना सुंदर था सब कुछ. और भी सपने और गहरी साँसें. अमरीका के सपने, चमकते अपार्टमैंट के सपने, विभिन्न चेहरे वाले लोगों के सपने जो भिन्न भिन्न भाषायें बोलते हैं.
दादा भाभी छुट्टियों में वापस आये. छोटा सा बेटा. उसके पाँव के अंगूठे पर चोट लग गयी. "ओ, माय थम्ब", बोला वह और बुक्का फ़ाड़ कर रोया. सब कोई मंत्र मुग्ध. सब अचरज से उसे देखते. अंग्रेज़ों की तरह कैसे अजीब से तरीके से बोलता था वह.
वर्ष बीत गये. बहुत सारे रिश्ते बदल गये. कई नये रिश्ते बन गये. घर बदल गये. शहर बदल गये. नाम बदल गये. सपने भी बदल गये. कुछ सच हो गये, कुछ रास्ते में खो गये, कुछ नये बन गये. इतने सालों के बाद वही बेटा आया है. जब बोलता है तो लगता है जैसे दादा बोल रहे हों. अचानक बीते हुए दिन फ़िर से लौट आये हैं.
जीवन एक चक्कर जैसा है, गोल घूमता है. जहाँ से निकलता है, फ़िर वहीं से गुज़रता है. बूढ़ी या प्रोढ़ आँखे बचपन का उत्साह और सपने देख कर मुस्कुराती हैं. मालूम है उन्हें कैसे जीवन लम्बी सड़क जैसा लग सकता है और कैसे यह यात्रा अचानक छोटी सी बन जाती है. पीछे मुड़ कर देखो तो कल कितना पास लगता है और कितना दूर, कभी न वापस आने वाला.
आज एक कविता और दो तस्वीरें. कविता है अर्चना वर्मा की जिसके शब्दों के अंदर छुपी लय और धुन मुझे बहुत अच्छी लगते हैं. पूरी कविता पढना चाहें तो कल्पना पर पढ़ सकते हैं. और तस्वीरे हैं: एक्वाडोर कीटो में एक आईसक्रीम बेचने वाले की और घर में मारको, रिजु और ब्रांदो:
मंगलवार, जुलाई 26, 2005
एक्वाडोर की यात्रा
दो सप्ताह की यात्रा के बाद वापस आया हूँ. पहले राजधानी कीटो, फिर रियोबाम्बा, फिर कुएंका, फिर ग्वायाकिल और अंत में वापस घर.
नये कीटो को टेक्सी से हवाई अड्डे से आते समय देख कर थोड़ा दुख सा हुआ. चारो तरफ ऊँचे सुदंर पहाड़ और बीच में कैंसर के नासूर की तरह हर तरफ सिमेंट के चकोर घर, एक के ऊपर एक, मधुमक्खियों के छत्तों की तरह, कहीं कोई हरियाली नहीं, कोई खाली जगह नहीं. मैं पुराने कीटो में ठहरा था जहाँ इस शहर का अपना पुराना रुप अभी भी कुछ बचा हुआ हैं. यह हिस्सा सुन्दर है. सड़कें तो ऐसी हैं जो पहाड़ों के ऊपर नीचे जाती हैं और उन पर चलने के लिये अच्छी सेहत का होना जरुरी है. कई बार सड़क ऐसे सीधे ऊपर की ओर जाती है कि यहाँ के रहने वाले भी, रुक रुक कर साँस लेने के लिये मजबूर हो जाते हैं.
शहर के बीचों बीच जहाँ पुराना और नया कीटो मिलते हैं, भारत के नाम का छोटा सा स्क्वायर है जहाँ फुव्वहारों के बीच में लगी गाँधी जी की मूर्ती है. सब जगह यहाँ की जन जाती की गरीब इंडियोस् महिलायें सड़क पर कुछ बेच रही होती हैं और हर तरफ, बहुत सारे बच्चे जो हर जगह स्कूल जाने के बजाय काम में लगे हैं, दिखते हैं. जैसी गरीबी भारत में दिखती है वैसी तो नहीं दिखी पर इन इंडियोस परिवारों की हालत बहुत अच्छी नहीं लगी.
रियोबाम्बा के पास है एक्वाडोर की सबसे ऊँची पर्वत चोटी शिमबोराज़ो. कीटो से रियोबाम्बा की यात्रा के दौरान ही मेरा कैमरा चोरी हो गया इसलिये मन कुछ उदास था. कैमरे के साथ घूमने की इतनी आदत हो गयी है कि कोई भी विषेश चीज़ दिखे तो पहला ख्याल आता है उसकी फोटो लेने का और कैमरे के न होने से मुझे लग रहा था जैसे उस विषेश चीज़ का महत्व कम हो गया हो. जैसे शिमबोराज़ो पहाड़ के सूर्यास्त के समय बदलते हुए रंग. शाम को बादल छंट गये थे और पहाड़ पर गिरी बर्फ की चमक साफ दिख रही थी. पर उसकी सुन्दरता का रस लेने के बजाय मन बार बार यही सोच रहा था कि काश कैमरा होता तो इसकी फोटो लेता. शायद इसीलिये भग्वद् गीता संसार की वस्तुओं से मोह न रखने की शिक्षा देती है और उस चोर ने मुझे यही याद दिलाने के लिये मुझ पर यह चोरी करके उपकार किया है.
रियोबाम्बा से कुएंका की यात्रा सचमुच बहुत ही रोचक और सुंदर है. ऊँचे पहाड़, कभी हलके और गहरे हरे के बीच में अनगिनत रंगो वाले, कभी भूरे, कभी जामुनी, कभी काले से. सुनहरी और भूरी घास से ढ़की वादियाँ, जिनमें रेत रेगिस्तान होने का धोखा दे. लम्बे ऊँचे केक्टस के पेड़ों का जंगल. जामुनी रंग के फ़ूलों से भरी हरी भरी घाटियाँ. पुराने ज्वालामुखियों के बुझे हुये मुख जो आज पानी से भरे हुए हैं और गोलाकार झीलों जैसे लगते हैं. इस यात्रा की कुछ तस्वीरें यहाँ प्रस्तुत हैं.
इन्हीं दिनों मैंने अपनी एक नयी कहानी लिखी है, अनलिखे पत्र, जिसे आप कल्पना में पढ़ सकते हैं. चाहें तो आप इस यात्रा की पूरी डायरी भी वहाँ पढ़ सकते हैं.
नये कीटो को टेक्सी से हवाई अड्डे से आते समय देख कर थोड़ा दुख सा हुआ. चारो तरफ ऊँचे सुदंर पहाड़ और बीच में कैंसर के नासूर की तरह हर तरफ सिमेंट के चकोर घर, एक के ऊपर एक, मधुमक्खियों के छत्तों की तरह, कहीं कोई हरियाली नहीं, कोई खाली जगह नहीं. मैं पुराने कीटो में ठहरा था जहाँ इस शहर का अपना पुराना रुप अभी भी कुछ बचा हुआ हैं. यह हिस्सा सुन्दर है. सड़कें तो ऐसी हैं जो पहाड़ों के ऊपर नीचे जाती हैं और उन पर चलने के लिये अच्छी सेहत का होना जरुरी है. कई बार सड़क ऐसे सीधे ऊपर की ओर जाती है कि यहाँ के रहने वाले भी, रुक रुक कर साँस लेने के लिये मजबूर हो जाते हैं.
शहर के बीचों बीच जहाँ पुराना और नया कीटो मिलते हैं, भारत के नाम का छोटा सा स्क्वायर है जहाँ फुव्वहारों के बीच में लगी गाँधी जी की मूर्ती है. सब जगह यहाँ की जन जाती की गरीब इंडियोस् महिलायें सड़क पर कुछ बेच रही होती हैं और हर तरफ, बहुत सारे बच्चे जो हर जगह स्कूल जाने के बजाय काम में लगे हैं, दिखते हैं. जैसी गरीबी भारत में दिखती है वैसी तो नहीं दिखी पर इन इंडियोस परिवारों की हालत बहुत अच्छी नहीं लगी.
रियोबाम्बा के पास है एक्वाडोर की सबसे ऊँची पर्वत चोटी शिमबोराज़ो. कीटो से रियोबाम्बा की यात्रा के दौरान ही मेरा कैमरा चोरी हो गया इसलिये मन कुछ उदास था. कैमरे के साथ घूमने की इतनी आदत हो गयी है कि कोई भी विषेश चीज़ दिखे तो पहला ख्याल आता है उसकी फोटो लेने का और कैमरे के न होने से मुझे लग रहा था जैसे उस विषेश चीज़ का महत्व कम हो गया हो. जैसे शिमबोराज़ो पहाड़ के सूर्यास्त के समय बदलते हुए रंग. शाम को बादल छंट गये थे और पहाड़ पर गिरी बर्फ की चमक साफ दिख रही थी. पर उसकी सुन्दरता का रस लेने के बजाय मन बार बार यही सोच रहा था कि काश कैमरा होता तो इसकी फोटो लेता. शायद इसीलिये भग्वद् गीता संसार की वस्तुओं से मोह न रखने की शिक्षा देती है और उस चोर ने मुझे यही याद दिलाने के लिये मुझ पर यह चोरी करके उपकार किया है.
रियोबाम्बा से कुएंका की यात्रा सचमुच बहुत ही रोचक और सुंदर है. ऊँचे पहाड़, कभी हलके और गहरे हरे के बीच में अनगिनत रंगो वाले, कभी भूरे, कभी जामुनी, कभी काले से. सुनहरी और भूरी घास से ढ़की वादियाँ, जिनमें रेत रेगिस्तान होने का धोखा दे. लम्बे ऊँचे केक्टस के पेड़ों का जंगल. जामुनी रंग के फ़ूलों से भरी हरी भरी घाटियाँ. पुराने ज्वालामुखियों के बुझे हुये मुख जो आज पानी से भरे हुए हैं और गोलाकार झीलों जैसे लगते हैं. इस यात्रा की कुछ तस्वीरें यहाँ प्रस्तुत हैं.
इन्हीं दिनों मैंने अपनी एक नयी कहानी लिखी है, अनलिखे पत्र, जिसे आप कल्पना में पढ़ सकते हैं. चाहें तो आप इस यात्रा की पूरी डायरी भी वहाँ पढ़ सकते हैं.
मंगलवार, जुलाई 12, 2005
विरह का दुख
जुलाई-अगस्त के महीने इटली में बहुत सारे पुरुषों के लिये विरह के महीने होते हैं. यहाँ सभी विद्यालय गरमियों में तीन महीनों के लिये बन्द हो जाते हैं. बहुत सी दुकानें तथा कारखाने भी इसी समय वार्षिक छुट्टियाँ देते हैं पर वे १०-१५ दिनों की ही होती हैं. बहुत सी स्त्रियाँ बच्चों के साथ समुद्र तट पर छुट्टियाँ बिताने चली जाती हैं और उनके पति शहर में सप्ताह के दौरान काम करते हैं और सप्ताह अंत पर हाईवेस् पर कारो में घंटो लाइन में बिताते हैं अपनी पत्नियों और बच्चों से मिलने के लिये.
इन दिनों में सुपर मार्किट में जाईये तो इतने अकेले पुरुष दिखते हैं चारों तरफ जितने अन्य कभी नहीं दिखते. हर कोई बनी बनायी चीज़ों के डब्बे ढूँढ रहा होता है जिसे बनाने में अधिक कष्ट न करना पड़े.
आजकल हमारे भी विरह के दिन हैं. पत्नी अपनी बहन के साथ समुद्र तट पर छुट्टियाँ मना रही हैं. पुत्र जिनकी छुट्टियाँ तो हैं पर वह घर पर हमारे साथ हैं कहते हैं काम करना है पर मेरा ख्याल है कि काम से ज्यादा अंतरजाल और मित्रों का मोह है जो उन्हें यहाँ रोके हुए है. काम पर जाओ, खरीददारी करो, कभी कुछ सफाई करो, रोज खाना बनाओ और बर्तन साफ करो. सुपुत्र महाशय से अधिक काम की आशा रखना बेकार है, जितना कर दें वही बहुत है. अब समझ में आता है कि घर में रहने वाली स्त्रियों का जीवन कितना कठिन होता है !
आषीश ने मेरे ब्रिटिश शासन के चिट्ठे के बारे में लिखा हैः
मुझे पुराने हमलावरों से, खासतौर से मुगलों से उतनी चिढ़ नहीं है क्योंकि वे आखिरकार भारत की मिट्टी में मिल गये लेकिन अंग्रेज़ तो हमेशा अपने आप को श्रेष्ठ समझते रहे और उन्होंने हमारी हर भारतीय चीज़ या पहचान को पूरी तरह मिटाने की कोशिश की, और हर तरह की गन्दी से गन्दी चाल का सहारा लेकर और देश को आर्थिक रूप से नंगा किया वो अलग।
मुझे याद है कि जब पहली बार मुझे इंगलैंड जाना था तो कुछ ऐसे ही विचार थे मेरे मन में भी. शुरु शुरु में लंदन जा कर वहाँ रहने वाले श्वेत लोगों को देख कर चिढ सी आती थी. शायद हमारी पीढी जो स्वतंत्रा के आसपास या उसके बाद के दस सालों में पैदा हुई उसमें ऐसा सोचने वाले बहुत लोग थे पर मुझे लगता है कि आजकल की पीढी के लिए भारत की पराधीनता केवल किताबों मे पढने की चीज़ है, उसका आम जीवन से कुछ सबंध नहीं है. इन पिछले १८ सालों में मुझे हर वर्ष कम से कम चार या पाँच बार लंदन जाना पड़ता है, वहाँ बहुत मित्र हैं मेरे, जिनमें कई लोग हैं जिनके मामा या चाचा या दादा भारत में ब्रिटिश शासन का हिस्सा बन कर रहे थे. पर उनमें से कई मित्र मुझे बहुत प्रिय हैं, आज मैं उन्हें विदेशी उपनिवेशवादी या भारत का शोषण करने वालों की संतान के रुप में नहीं सोच पाता, बस केवल मित्र हैं क्योंकि हम आपस में गप्प लगा सकते हैं, एक दूसरे को गाली दे सकते हैं, कभी कभी झगड़ा भी कर सकते हैं.
कल सुबह मुझे एक्वाडोर यानि दक्षिण अमेरिका जाना है और जुलाई के अंत में ही वापस आऊँगा. इस लिये इस ब्लोग की १५ दिन की छुट्टी.
चूँकी आज बात चली है विरह की तो आज की तस्वीरें भी उसी रंग में हैं, दो पारिवारिक तस्वीरें दिल्ली के दिनों की याद में.
इन दिनों में सुपर मार्किट में जाईये तो इतने अकेले पुरुष दिखते हैं चारों तरफ जितने अन्य कभी नहीं दिखते. हर कोई बनी बनायी चीज़ों के डब्बे ढूँढ रहा होता है जिसे बनाने में अधिक कष्ट न करना पड़े.
आजकल हमारे भी विरह के दिन हैं. पत्नी अपनी बहन के साथ समुद्र तट पर छुट्टियाँ मना रही हैं. पुत्र जिनकी छुट्टियाँ तो हैं पर वह घर पर हमारे साथ हैं कहते हैं काम करना है पर मेरा ख्याल है कि काम से ज्यादा अंतरजाल और मित्रों का मोह है जो उन्हें यहाँ रोके हुए है. काम पर जाओ, खरीददारी करो, कभी कुछ सफाई करो, रोज खाना बनाओ और बर्तन साफ करो. सुपुत्र महाशय से अधिक काम की आशा रखना बेकार है, जितना कर दें वही बहुत है. अब समझ में आता है कि घर में रहने वाली स्त्रियों का जीवन कितना कठिन होता है !
आषीश ने मेरे ब्रिटिश शासन के चिट्ठे के बारे में लिखा हैः
मुझे पुराने हमलावरों से, खासतौर से मुगलों से उतनी चिढ़ नहीं है क्योंकि वे आखिरकार भारत की मिट्टी में मिल गये लेकिन अंग्रेज़ तो हमेशा अपने आप को श्रेष्ठ समझते रहे और उन्होंने हमारी हर भारतीय चीज़ या पहचान को पूरी तरह मिटाने की कोशिश की, और हर तरह की गन्दी से गन्दी चाल का सहारा लेकर और देश को आर्थिक रूप से नंगा किया वो अलग।
मुझे याद है कि जब पहली बार मुझे इंगलैंड जाना था तो कुछ ऐसे ही विचार थे मेरे मन में भी. शुरु शुरु में लंदन जा कर वहाँ रहने वाले श्वेत लोगों को देख कर चिढ सी आती थी. शायद हमारी पीढी जो स्वतंत्रा के आसपास या उसके बाद के दस सालों में पैदा हुई उसमें ऐसा सोचने वाले बहुत लोग थे पर मुझे लगता है कि आजकल की पीढी के लिए भारत की पराधीनता केवल किताबों मे पढने की चीज़ है, उसका आम जीवन से कुछ सबंध नहीं है. इन पिछले १८ सालों में मुझे हर वर्ष कम से कम चार या पाँच बार लंदन जाना पड़ता है, वहाँ बहुत मित्र हैं मेरे, जिनमें कई लोग हैं जिनके मामा या चाचा या दादा भारत में ब्रिटिश शासन का हिस्सा बन कर रहे थे. पर उनमें से कई मित्र मुझे बहुत प्रिय हैं, आज मैं उन्हें विदेशी उपनिवेशवादी या भारत का शोषण करने वालों की संतान के रुप में नहीं सोच पाता, बस केवल मित्र हैं क्योंकि हम आपस में गप्प लगा सकते हैं, एक दूसरे को गाली दे सकते हैं, कभी कभी झगड़ा भी कर सकते हैं.
कल सुबह मुझे एक्वाडोर यानि दक्षिण अमेरिका जाना है और जुलाई के अंत में ही वापस आऊँगा. इस लिये इस ब्लोग की १५ दिन की छुट्टी.
चूँकी आज बात चली है विरह की तो आज की तस्वीरें भी उसी रंग में हैं, दो पारिवारिक तस्वीरें दिल्ली के दिनों की याद में.
सोमवार, जुलाई 11, 2005
थोड़ी सी ... गंगा
बोलोनिया से करीब पचास किलोमीटर दूर एक शहर है रेजियो एमिलिया. यहाँ के आस पास पिछले दस सालों में बहुत से सिख परिवार बस गये हैं, जो कि गाय पालने तथा दूध के काम से जुड़े हुए हैं. क्योंकि इटली के रहने वाले लोग इस काम को नहीं करना चाहते, और इन बड़े फार्म को काम करने चाहिये थे, इसलिये इस सारे क्षेत्र में पंजाब से आये इन परिवारों की वजह से एक छोटा पंजाब बन गया है यहाँ और उनका अपना एक गुरुद्वारा भी है.
इसी क्षेत्र में एक अन्य भारतीय युवक मुकेश चन्द्र के प्रयत्न से पिछले दस वर्षों से हर साल एक नया उत्सव मनाया जाता है जिसका नाम है "थोड़ी सी ... गंगा". इस उत्सव में इटली की सबसे बड़ी नदी पो के किनारे ग्वास्ताला नाम की जगह पर एक छोटा सा मेला लगता है, कुछ गीत संगीत होता है और भारत से लाया गया गंगा का पानी पो नदी में मिलाया जाता है जो दो देशों तथा सभ्यताओं के मिलन का प्रतीक है. इस वर्ष यह उत्सव कल १० जुलाई को मनाया गया और उसमे शामिल होने के लिये बोलोनिया की भारतीय एसोसियेशन का ८ व्यक्तियों का दल भी गया जिसमे मैं भी था.
नीचे तस्वीरों में दो नदियों के जल के संगम समारोह के दौरान पो नदी के किनारे पर खड़े लोग तथा मिलान में भारत के काऊंसल जनरल रवि थापर के साथ यहाँ के भारतीय समुदाय के कुछ लोग
इसी क्षेत्र में एक अन्य भारतीय युवक मुकेश चन्द्र के प्रयत्न से पिछले दस वर्षों से हर साल एक नया उत्सव मनाया जाता है जिसका नाम है "थोड़ी सी ... गंगा". इस उत्सव में इटली की सबसे बड़ी नदी पो के किनारे ग्वास्ताला नाम की जगह पर एक छोटा सा मेला लगता है, कुछ गीत संगीत होता है और भारत से लाया गया गंगा का पानी पो नदी में मिलाया जाता है जो दो देशों तथा सभ्यताओं के मिलन का प्रतीक है. इस वर्ष यह उत्सव कल १० जुलाई को मनाया गया और उसमे शामिल होने के लिये बोलोनिया की भारतीय एसोसियेशन का ८ व्यक्तियों का दल भी गया जिसमे मैं भी था.
नीचे तस्वीरों में दो नदियों के जल के संगम समारोह के दौरान पो नदी के किनारे पर खड़े लोग तथा मिलान में भारत के काऊंसल जनरल रवि थापर के साथ यहाँ के भारतीय समुदाय के कुछ लोग
रविवार, जुलाई 10, 2005
मनमोहन सिंह की ब्रिटिश प्रशंसा
आशीष ने अपने लेख में भारत के प्रधानमंत्री द्वारा इंगलैंड में ब्रिटिश शासन की प्रशंसा के बारे मे क्षोभ व्यक्त किया है. शायद मनमोहन सिंह सोचते हैं कि किसी के घर जा कर उनकी बुराई नहीं करनी चाहिये ? मैं आशीष की बात से सहमत हूँ. पर यहाँ मैं भारत के ब्रिटिश शासन के बारे में कुछ अन्य पहलुओं की बात करना चाहता हूँ.
पिछली सदियों में एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमरीका के बहुत से देशों पर यूरोपीय उपनिवेशवाद की वजह से विदेशी शासन हुए. मुझे इनमें से कई देशों की यात्रा का मौका मिला. मेरे ख्याल से इन सभी उपनिवेशवादी देशों में से शायद अंग्रेज़ ही बेहतर थे क्योंकि उन्होंने उन देशो में शिक्षा, स्वास्थ्य, रेलवे, यातायात इत्यादी शासन की कुछ संस्थाएँ छोड़ीं. इनकी आलोचना की जा सकती है, पर कम से कम आलोचना करने के लिए कुछ है तो सही. बैल्जियन या पोर्तगीज शासनों ने कहीं कुछ नहीं छोड़ा, सिर्फ लूटा. स्पेन ने तो दक्षिण अमरीका में पूरी की पूरी जन जातियों का खातमा कर दिया.
इसका यह अर्थ नहीं कि अंग्रेजी शासन भारत के लिये अच्छा था, केवल यह कि अगर विदेशी शासन होना ही था तो अच्छा हुआ कि वह अंग्रेज़ो का हुआ, स्पेनिश, बैलजियन या पोर्तगीज का नहीं.
एक अन्य पहलू है जिस पर, मेरे विचार से, हमने भारत में पूरा चिंतन नहीं किया है, जो है भारत के विदेशी शासन में भारतीयों का अपना हाथ. थोड़े से अंग्रेज़ बिना भारतीयों के सहयोग के क्या टिक पाते ? जर्मनी के सिपाहियों ने यहूदियों को मारने में नैतिक रुप से गलत नाज़ी सरकार के आदेशों का पालन कर के गलत किया, ऐसा कहा जाता है. पर जर्नल डायर के गलत आदेश को मान कर ज़ालियाँवाला बाग में निहत्ते लोगों पर गोली चलाने वाले भारतीय सिपाहियों का कितना दोष था ? भगत सिहं तथा अन्य क्राँतीकारियों को यातना देने वाले, फाँसी चढाने वाले भारतीय अफसरों का कितना दोष था ? क्यूँ अंग्रेज़ों के बनाये गये राय बहादुर स्वतंत्र भारत में भर्त्सना के पात्र नहीं, अपनी अमीरी की वजह से आदर के पात्र बने जबकि आदर्शवादी स्वतंत्रता के लिये लड़ने वाले गरीब ही रह गये ? क्या हमारी संस्कृति यह नहीं कहती कि शासन करने वाले लोग, उम्र मे बड़े लोग, जाती से बड़े लोग, अमीर लोग, इन सब का आदर करना चाहिये, उनके सब आदेश मानने चाहियें, चाहे नैतिक रुप से वे आदेश सहीं हों या गलत ? इनके खिलाफ लड़ने वाले कितने हैं ? चाहे किताबों में और भाषणों में हम कुछ भी कहें पर व्यवहार में तो हम ऐसा नहीं करते ?
एक और पहलू है उपनिवेशवाद को परखने का, इसे ऐतिहासिक दृष्टि से देखने का. किसी बात का क्या प्रभाव पड़ा, किसने क्या पाया और क्या खोया, यह इतिहास दिखाता है. कुष्ठ रोग के बारे मे कहते हैं कि युद्ध में विजियी सिकंदर की सैनाएँ इस बीमारी को भारत से लौटते समय यूरोप में ले आयीं और अगले एक हज़ार वर्षों में यह रोग यूरोप के हर कोने में फ़ैल गया. मैकेले की बनायी शिक्षा प्रणाली ने एक तरफ भारत में अमीर और गरीब, शहरों में रहने वाले और गाँवों में रहने वालों के बीच अंग्रेज़ी और अंग्रेजियत की दीवारें खड़ी कर दीं पर शायद इसकी वजह से आज भारतीय काल सैंटर यूरोप तथा अमरीका में नीचे नीचे से खाईयाँ खोद रहें हैं. अगली दो-तीन सदियों में ही ठीक से समझ आयेगा इस उपनिवेशवाद का लम्बा असर क्या होगा.
आज की तस्वीर मे लंदन का वाटरलू प्लेस जहाँ भारत पर शासन करने वाले कई अंग्रेज़ अफसरों की मूर्तियाँ हैं
पिछली सदियों में एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमरीका के बहुत से देशों पर यूरोपीय उपनिवेशवाद की वजह से विदेशी शासन हुए. मुझे इनमें से कई देशों की यात्रा का मौका मिला. मेरे ख्याल से इन सभी उपनिवेशवादी देशों में से शायद अंग्रेज़ ही बेहतर थे क्योंकि उन्होंने उन देशो में शिक्षा, स्वास्थ्य, रेलवे, यातायात इत्यादी शासन की कुछ संस्थाएँ छोड़ीं. इनकी आलोचना की जा सकती है, पर कम से कम आलोचना करने के लिए कुछ है तो सही. बैल्जियन या पोर्तगीज शासनों ने कहीं कुछ नहीं छोड़ा, सिर्फ लूटा. स्पेन ने तो दक्षिण अमरीका में पूरी की पूरी जन जातियों का खातमा कर दिया.
इसका यह अर्थ नहीं कि अंग्रेजी शासन भारत के लिये अच्छा था, केवल यह कि अगर विदेशी शासन होना ही था तो अच्छा हुआ कि वह अंग्रेज़ो का हुआ, स्पेनिश, बैलजियन या पोर्तगीज का नहीं.
एक अन्य पहलू है जिस पर, मेरे विचार से, हमने भारत में पूरा चिंतन नहीं किया है, जो है भारत के विदेशी शासन में भारतीयों का अपना हाथ. थोड़े से अंग्रेज़ बिना भारतीयों के सहयोग के क्या टिक पाते ? जर्मनी के सिपाहियों ने यहूदियों को मारने में नैतिक रुप से गलत नाज़ी सरकार के आदेशों का पालन कर के गलत किया, ऐसा कहा जाता है. पर जर्नल डायर के गलत आदेश को मान कर ज़ालियाँवाला बाग में निहत्ते लोगों पर गोली चलाने वाले भारतीय सिपाहियों का कितना दोष था ? भगत सिहं तथा अन्य क्राँतीकारियों को यातना देने वाले, फाँसी चढाने वाले भारतीय अफसरों का कितना दोष था ? क्यूँ अंग्रेज़ों के बनाये गये राय बहादुर स्वतंत्र भारत में भर्त्सना के पात्र नहीं, अपनी अमीरी की वजह से आदर के पात्र बने जबकि आदर्शवादी स्वतंत्रता के लिये लड़ने वाले गरीब ही रह गये ? क्या हमारी संस्कृति यह नहीं कहती कि शासन करने वाले लोग, उम्र मे बड़े लोग, जाती से बड़े लोग, अमीर लोग, इन सब का आदर करना चाहिये, उनके सब आदेश मानने चाहियें, चाहे नैतिक रुप से वे आदेश सहीं हों या गलत ? इनके खिलाफ लड़ने वाले कितने हैं ? चाहे किताबों में और भाषणों में हम कुछ भी कहें पर व्यवहार में तो हम ऐसा नहीं करते ?
एक और पहलू है उपनिवेशवाद को परखने का, इसे ऐतिहासिक दृष्टि से देखने का. किसी बात का क्या प्रभाव पड़ा, किसने क्या पाया और क्या खोया, यह इतिहास दिखाता है. कुष्ठ रोग के बारे मे कहते हैं कि युद्ध में विजियी सिकंदर की सैनाएँ इस बीमारी को भारत से लौटते समय यूरोप में ले आयीं और अगले एक हज़ार वर्षों में यह रोग यूरोप के हर कोने में फ़ैल गया. मैकेले की बनायी शिक्षा प्रणाली ने एक तरफ भारत में अमीर और गरीब, शहरों में रहने वाले और गाँवों में रहने वालों के बीच अंग्रेज़ी और अंग्रेजियत की दीवारें खड़ी कर दीं पर शायद इसकी वजह से आज भारतीय काल सैंटर यूरोप तथा अमरीका में नीचे नीचे से खाईयाँ खोद रहें हैं. अगली दो-तीन सदियों में ही ठीक से समझ आयेगा इस उपनिवेशवाद का लम्बा असर क्या होगा.
आज की तस्वीर मे लंदन का वाटरलू प्लेस जहाँ भारत पर शासन करने वाले कई अंग्रेज़ अफसरों की मूर्तियाँ हैं
शनिवार, जुलाई 09, 2005
एक बार जब ...
लंदन के बम विस्फौट की घटना के बारे में सोचने से, अपनी अन्य कई यात्राओं के बारे में याद आ गया, जब कोई विशेष बात हुई थी. पिछले १७-१८ वर्षों में इतनी बार यात्रा की है कि सबके बारे में याद रखना तो कठिन है पर फ़िर भी कई बार ऐसा हुआ कि उसे भूल पाना संभव नहीं है.
लंदन में रात
शायद १९९४ या १९९५ की बात है. जून का महीना था और मैं लंदन मे हमेशा की तरह हैमरस्मिथ के इलाके में एक होटल में ठहरा था जहाँ पहले भी बहुत बार ठहर चुका था. रात को गरमी बहुत थी, होटल में एयरकंडीशनिंग नहीं थी और न ही कोई पंखा था. कमरे की खिड़की ऐसी थी जो बस ऊपर से थोड़ी सी खुलती थी. इसलिये बस जाँघिया पहन कर सो रहा था. अचानक रात में कुछ शोर से नींद खुल गयी. खिड़की के बाहर से कुछ अजीब सी आवाज़ आयी थी. मैंने बिस्तर के पास की बत्ती जलायी और उठ कर खिड़की के पास आया. बाहर जो देखा तो एक क्षण के लिये दिल रुक सा गया और फिर बहुत तेज़ी से धड़कने लगा. होटल के चारों ओर हाथों में बंदूके लिये पुलिस वाले थे. उनमें से कुछ मेरी खिड़की की रोशनी जलने से सिर उठा कर मेरी तरफ ही देख रहे थे.
जल्दी से बत्ती बंद कर, मैंने खिड़की पर परदा कर दिया. एक बार तो सोचा कि बिस्तर के नीचे घुस जाऊँ, पर अंत में वापस बिस्तर में ही घुस गया. बदन काँपने सा लगा, पर कान बाहर की आवाज़ों पर ही लगे थे. कुछ देर के बाद बाहर से बंदूक की गोली चलने की आवाज़ें आयीं पर मैं बिस्तर से बाहर नहीं निकला. चद्दर सिर पर तान लेटा रहा. करीब दो घंटे यूँ ही गुज़रे फिर मेरी घड़ी का आलार्म बजा तो बिस्तर से निकला. तब तक कँपकँपाहट और घबराहट बंद हो गये थे. मैंने अपना सामान लिया और नीचे चैक-आऊट के लिये आया. चारों तरफ पुलिस वाले थे, कोई अखबार पढ रहा, कोई चाय पी रहा था. होटल वाले ने बताया कि होटल मे पुलिस ने आईरिश रिप्बलिकन आर्मी के एक आतंकवादी को पकड़ा था.
चीन में यात्रा
मई १९८९ का अंत था और मैं दक्षिण चीन में युनान प्रदेश की राजधानी कुनमिंग से बेजिंग की यात्रा कर रहा था. मेरे साथ मेरा एक इतालवी साथी था, फेरनान्दो. वह खिड़की की सीट पर बैठा था और मैं बीच की तरफ, कुछ पढ रहा था. अचानक फेरनान्दो ने कहा, देखो जहाज़ नीवे जा रहा है. सचमुच ज़हाज नीचे एक पहाड़ की तरफ जाता लग रहा था. शायद ज़हाज के पायलट ने चीनी भाषा में यात्रियों को बताया कि क्या हो रहा था पर हमें किसी ने कुछ नहीं बताया. कुछ ही देर में ज़हाज एक हवाई अड्डे पर उतरा. हमने पूछने की कोशिश की कि क्या हो रहा है पर तब समझ में आया कि एयर होस्टेस इत्यादी को अंग्रेज़ी के गिने चुने वाक्य ही आते थे. किस्मत से यात्रियों में ताइवान के कुछ पर्यटक थे जिन्होंने हमे बताया कि हम सियान शहर में उतरे हैं क्योंकि ज़हाज मे कुछ खराबी है और हमें कुछ दिन वहीं रुकना पड़ेगा.
बस मे जब हमें होटल की ओर ले जा रहे थे तो रास्ते में सड़कों पर हजारों लोगों, अधिकतर जवान लड़कों को सड़क पर नारे लगाते देखा. पता चला कि किसी नेता की मृत्यु हुई है और विद्यार्थियों में इस बारे में बहुत रोष है. दो दिन रुके हम सियान में. वहाँ के जग प्रसिद्ध मकबरे, जहाँ एक सम्राट के साथ हज़ारों टैराकोटा योद्धाओं की मूर्तियों को दफ़नाया गया था, को देखने भी गये.
अंत में जब बेजिंग पहुँचे तो उस दिन बारिश आ रही थी. स्वास्थ्य मंत्रालय में हमें लोगों से मिलना था वहाँ जाते समय तियानामेन स्कवायर से गुज़रते हुए देखा कि वहाँ भी विद्यार्थियों के झुंड जमा थे. बारिश में भीगते हुए कई लोग अपने आप को पीले रंग के प्लास्टिक से ढक कर बारिश से बचने की कोशिश कर रहे थे. मंत्रालय की मीटिंग के बाद हम लोग तियानामेन आये. विद्यार्थियों से बात करना तो भाषा की वजह से असंभव था. अगले दिन हम लोग बेजिंग से चल पड़े. फेरनान्दो वापस गया ईटली में और मुझे जाना था ओरलान्दो, अमरीका में. रात को ओरलान्दो में होटल में तियानामेन स्कवायर में चलते टैंक देखे तो बहुत धक्का लगा. इतनी बड़ी बात हो जायेगी यह तो सोचा भी नहीं था. उन विद्यार्थियों का सोच कर बहुत दुख हुआ.
आज दो तस्वीरें - एक बंगलोर के पास माँडया से और दूसरी रोम की नगर पालिका, काम्पी दोलियो सेः
लंदन में रात
शायद १९९४ या १९९५ की बात है. जून का महीना था और मैं लंदन मे हमेशा की तरह हैमरस्मिथ के इलाके में एक होटल में ठहरा था जहाँ पहले भी बहुत बार ठहर चुका था. रात को गरमी बहुत थी, होटल में एयरकंडीशनिंग नहीं थी और न ही कोई पंखा था. कमरे की खिड़की ऐसी थी जो बस ऊपर से थोड़ी सी खुलती थी. इसलिये बस जाँघिया पहन कर सो रहा था. अचानक रात में कुछ शोर से नींद खुल गयी. खिड़की के बाहर से कुछ अजीब सी आवाज़ आयी थी. मैंने बिस्तर के पास की बत्ती जलायी और उठ कर खिड़की के पास आया. बाहर जो देखा तो एक क्षण के लिये दिल रुक सा गया और फिर बहुत तेज़ी से धड़कने लगा. होटल के चारों ओर हाथों में बंदूके लिये पुलिस वाले थे. उनमें से कुछ मेरी खिड़की की रोशनी जलने से सिर उठा कर मेरी तरफ ही देख रहे थे.
जल्दी से बत्ती बंद कर, मैंने खिड़की पर परदा कर दिया. एक बार तो सोचा कि बिस्तर के नीचे घुस जाऊँ, पर अंत में वापस बिस्तर में ही घुस गया. बदन काँपने सा लगा, पर कान बाहर की आवाज़ों पर ही लगे थे. कुछ देर के बाद बाहर से बंदूक की गोली चलने की आवाज़ें आयीं पर मैं बिस्तर से बाहर नहीं निकला. चद्दर सिर पर तान लेटा रहा. करीब दो घंटे यूँ ही गुज़रे फिर मेरी घड़ी का आलार्म बजा तो बिस्तर से निकला. तब तक कँपकँपाहट और घबराहट बंद हो गये थे. मैंने अपना सामान लिया और नीचे चैक-आऊट के लिये आया. चारों तरफ पुलिस वाले थे, कोई अखबार पढ रहा, कोई चाय पी रहा था. होटल वाले ने बताया कि होटल मे पुलिस ने आईरिश रिप्बलिकन आर्मी के एक आतंकवादी को पकड़ा था.
चीन में यात्रा
मई १९८९ का अंत था और मैं दक्षिण चीन में युनान प्रदेश की राजधानी कुनमिंग से बेजिंग की यात्रा कर रहा था. मेरे साथ मेरा एक इतालवी साथी था, फेरनान्दो. वह खिड़की की सीट पर बैठा था और मैं बीच की तरफ, कुछ पढ रहा था. अचानक फेरनान्दो ने कहा, देखो जहाज़ नीवे जा रहा है. सचमुच ज़हाज नीचे एक पहाड़ की तरफ जाता लग रहा था. शायद ज़हाज के पायलट ने चीनी भाषा में यात्रियों को बताया कि क्या हो रहा था पर हमें किसी ने कुछ नहीं बताया. कुछ ही देर में ज़हाज एक हवाई अड्डे पर उतरा. हमने पूछने की कोशिश की कि क्या हो रहा है पर तब समझ में आया कि एयर होस्टेस इत्यादी को अंग्रेज़ी के गिने चुने वाक्य ही आते थे. किस्मत से यात्रियों में ताइवान के कुछ पर्यटक थे जिन्होंने हमे बताया कि हम सियान शहर में उतरे हैं क्योंकि ज़हाज मे कुछ खराबी है और हमें कुछ दिन वहीं रुकना पड़ेगा.
बस मे जब हमें होटल की ओर ले जा रहे थे तो रास्ते में सड़कों पर हजारों लोगों, अधिकतर जवान लड़कों को सड़क पर नारे लगाते देखा. पता चला कि किसी नेता की मृत्यु हुई है और विद्यार्थियों में इस बारे में बहुत रोष है. दो दिन रुके हम सियान में. वहाँ के जग प्रसिद्ध मकबरे, जहाँ एक सम्राट के साथ हज़ारों टैराकोटा योद्धाओं की मूर्तियों को दफ़नाया गया था, को देखने भी गये.
अंत में जब बेजिंग पहुँचे तो उस दिन बारिश आ रही थी. स्वास्थ्य मंत्रालय में हमें लोगों से मिलना था वहाँ जाते समय तियानामेन स्कवायर से गुज़रते हुए देखा कि वहाँ भी विद्यार्थियों के झुंड जमा थे. बारिश में भीगते हुए कई लोग अपने आप को पीले रंग के प्लास्टिक से ढक कर बारिश से बचने की कोशिश कर रहे थे. मंत्रालय की मीटिंग के बाद हम लोग तियानामेन आये. विद्यार्थियों से बात करना तो भाषा की वजह से असंभव था. अगले दिन हम लोग बेजिंग से चल पड़े. फेरनान्दो वापस गया ईटली में और मुझे जाना था ओरलान्दो, अमरीका में. रात को ओरलान्दो में होटल में तियानामेन स्कवायर में चलते टैंक देखे तो बहुत धक्का लगा. इतनी बड़ी बात हो जायेगी यह तो सोचा भी नहीं था. उन विद्यार्थियों का सोच कर बहुत दुख हुआ.
आज दो तस्वीरें - एक बंगलोर के पास माँडया से और दूसरी रोम की नगर पालिका, काम्पी दोलियो सेः
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