गुरुवार, अक्तूबर 18, 2007

अरुंधती राय

6 अक्टूबर को उत्तरी इटली के फैरारा शहर में भारतीय लेखिका सुश्री अरुंधती राय ने साहित्य और पत्रकारिता विषय पर हो रही बहस में "उपन्यासकार के साहित्यिक लेखन और असाहित्यक लेखन के बीच में कौन सी जगह होती है?" प्रश्न के उत्तर में कुछ बोला था जो यहाँ प्रस्तुत है. मैंने उनके भाषण को अपने आईपोड पर रिकार्ड किया था पर कुछ जगहों पर यह रिकर्डिंग साफ़ नहीं है और वैसे भी मैंने अनुवाद में उनकी कही बात का अर्थ पकड़ने की कोशिश की है बजाय कि हर शब्द का बिल्कुल वही अनुवाद करूँ.



"साहित्य और गैरसाहित्य के बीच में क्या जगह होती है, मुझे यह नहीं मालूम पर इतना अवश्य कहूँगी कि चाहे मेरा साहित्य हो या दूसरा लेखन, दोनों ही पहले से कोई सोच समझ कर प्लेन बना कर नहीं होते.

जिस समय मैंने 1997 में "गोड आफ स्माल थिंगस" लिखी और फ़िर उसे बुक्कर पुरस्कार मिला, वह समय भारत में विषेश था. पहली बार भारत में राष्ट्रवादी, हिंदू कट्टरपंथी सरकार थी, 1998 में अणुबम्ब विस्फोटन किया गया ... उस समय मैं भारतीय मध्यम वर्ग की चहेती थी, सब कहते थे कि मैंने भारत का गौरव बढ़ाया है. मुझे लगा मेरी प्रसिद्धी ही वह मौका है जो मुझे एक मंच दे सकती है जहाँ से मैं इस सब के विरोध में आवाज उठा सकती हूँ. इस तरह मैंने अपना "कल्पना का अंत" नाम का लेख लिखा. मुझे लगता था कि हमारा संसार भयानक घटनाओं से भरता जा रहा था. उच्च न्यायालय में नर्मदा बाँध के बारे में निर्णय दिया, मैंने उस संदर्भ में बहुत यात्राएँ की और स्थिति को देखा, जाना कि कितने बड़े स्तर पर लोगों के जीवन बिखरने वाले थे. मुझे लगा कि इस कहानी को एक लेखक का इंतजार है. बहुत लोग रिपोर्ट लिख रहे थे, तथ्य गिनाते थे, कहाँ क्या होगा बताते थे पर उनका बात कहने का तरीका कुछ यूँ था कि उसे आम व्यक्ति के लिए समझना कठिन था और मुझे लगा कि इस बात को उस भाषा में कहना जिसे लोग आसानी से समझ सकें, यह जरुरी है.

इस तरह एक बात से दूसरी बात जुड़ती गयी जिन पर मैं लिखती रही. भूमण्डलीकरण, बड़ी बहुदेशी कम्पनियों का बाज़ार में आगमन जैसी बातें दिखने लगीं जिनसे मुझे लगा कि भारत में हिंसा का स्तर उस जगह पहुँच सकता था जैसा पहले कभी नहीं हुआ था और मैं सोचती हूँ कि लेखक, कलाकार, फिल्म बनाने वाले, हम सब को इसमें कुछ काम करना है ताकि लोग समझ सकें कि क्या हो रहा है. जब भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई थी तब लोगों को कुछ समझाने की आवश्यकता नहीं थी, लोगों को मालूम था कि राज करने वाला अँग्रेज ही हमारा दुश्मन था और उसके खिलाफ लड़ना था. पर आज की लड़ाई में दुश्मन कहाँ छुपा है यह समझना आसान नहीं. छाया से कैसे लड़ सकते हैं हम?

इस तरह मेरा गैर‍साहित्यिक लेखन शुरु हुआ.

बड़ी कम्पनियों का बाजार में घुसना और हर काम को अपने कब्जे में लेना, इसके बारे में तो जानते ही हैं. मीडिया, अखबार, टेलीविजन, पत्रिकाएँ आदि इस तरह बड़े कोर्पोरेट जगत के हाथ में हैं यह सबको मालूम है पर लोग नहीं जानते कि उपन्यास और साहित्य का भी वही हाल हो रहा है. बड़ी किताब बेचने वाली स्टोर चेन हैं जो फैसला करती हैं कि किस तरह का लेखन बिकेगा और वह छापने वाली कम्पनियों को कहती हैं कि उन्हें कौन सी किताबें चाहियें, उनके कवर किस तरह के होने चाहिये, वगैरा.

यहाँ जैसी सभा में आती हूँ तो मुझे लगता है सब लोग मुझसे आशा करते हैं कि मैं यह बताऊँगी कि भारत कि कितनी दुर्दशा है. यह सच है कि भारत में बहुत लोगों की दुर्दशा है पर मैं एक बात कहना चाहूँगी कि भारत में मीडिया के बारे में हमारा इतना बुरा हाल कभी नहीं हुआ जैसा कि यहाँ के (इटली के) प्रधानमंत्री के हाथ में सभी मीडिया, किताब के दुकाने आदि सब कुछ था.

अगर मुझे जेल में डालते हैं तो मुझे मालूम होता है कि किसी ने मेरे शरीर को उठा कर जेल में बंद कर दिया, पर कुछ मानसिक जेलें भी होती हैं जिनका हमें मालूम नहीं चलता कि हम कैद है. जिसे आप स्वतंत्र जीवन कहते हें वह कितना स्वतंत्र है? कौन से कपड़े पहनेगें इस साल, कौन से रंग पहनेगे, यह सब भी कोई छह महीने पहले निर्णय कर लेता है और दुकानों में आप को केवल वही कपड़े, वही रंग मिलते हैं.

मैं दो बातें और कहना चाहती हूँ, पहली बात भाषा के बारे में, और दूसरी बात जानकारी के बारे में.

भाषा के बारे में मैं आप को एक आपबीती बात सुनाती हूँ. "गोड आफ स्माल थिंगस" के बाद लंदन में बीबीसी (BBC) पर मेरा साक्षात्कार होना था. उस कार्यक्रम में मेरे साथ दो अँग्रेज इतिहासकार भी थे. तब मुझे पश्चिमी देशों का विषेश अनुभव नहीं था, उनके अंग्रेजी बोलने के तरीके को ठीक से नहीं समझती थी, और चुपचाप उनकी बात सुन रही थी जो कि ब्रिटिश राज के गौरव के बारे में थी. मुझे लगा जैसे कि मैं मँगल ग्रह से आयी हूँ, और यह लोग कह रहें हैं कि अँग्रेजी सभ्यता ही दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण सभ्यता है क्योंकि उसने दुनिया को शेक्सपियर और जाने क्या क्या दिया. विश्वास नहीं हो रहा था कि वे लोग अंग्रेजी साम्राज्यवाद का गुणगान कर रहे थे. फ़िर उनमें से एक मुझसे बोला कि आप को अँग्रेजी में लिखी किताब पर बुक्कर पुरस्कार मिलना भी इस बात का सबूत है कि अँग्रेजी राज का कितना अच्छा प्रभाव पड़ा. मैंने कहा कि देखिये यह तो वैसी ही बात हुई कि बलात्कार से जन्मी संतानों को कहा जाये कि तुम अपने पिता की वहशियत का गौरव हो.

मैं जहाँ बड़ी हुई वहाँ मलयालम बोलते थे पर मुझे मेरी माँ ने जबरदस्ती अँग्रेजी में बोलने को मजबूर किया. अगर कभी पकड़ लेती कि मैं मलयालम में बोल रही हूँ तो हजार बार लिखना पड़ता "मैं अँग्रेजी में बोलूँगी, मैं अँग्रेजी में बोलूँगी..". वह कहती कि यही वह भाषा है जो कि तुम्हें जीवन में वहाँ ले जायेगी जहाँ तुम जाना चाहती हो.

तो मैंने उस अँग्रेजी इतिहासकार से कहा, "देखो, मेरी त्रासदी यह नहीं कि मैं अँग्रेजी से नफरत करती हूँ, मुझे प्यार है, पर मैं इस भाषा में तुम्हारे विरुद्ध बोलूँगी, जब भी मौका मिलेगा, तुम्हारे खिलाफ बात करूँगी." तो वह व्यक्ति रुँआसा सा हो गया, कहने लगा कि वह तो मेरी तारीफ कर रहा था. मैंने कहा यही तो दिक्कत है, तुमने सारी सभ्यता को रौंद दिया और उसकी चीख भी नहीं सुनी, उसके टूटने की आवाज नहीं सुनी.

भारत में हमारी 18 भाषाएँ और 3000 से अधिक बोलियाँ हैं. मेरे जैसे व्यक्ति के लिए जिसके पिता बँगाली हैं और माँ दक्षिण भारत की, पूर्वी मलयालम भाषा वाले हिस्से की. मैं असम में पैदा हुई और असमिया भी बोलती हूँ, मेरी शिक्षा तमिलनाडू में हुई और तमिल भी बोलती हूँ, पहले पति गोवा से थे तो कुछ कोंकणी भी सीखी, अब पंजाबी भी..तो कौन सी है मेरी भाषा? अगर बात साम्राज्यवादी भाषा की है तो क्या हिंदी भी सवर्णों की भाषा नहीं है? हिंदी भी तो आर्यों की भाषा बन कर आयी जिसने भारत की मूल निवासियों को दबा दिया. इसलिए मैं समझती हूँ कि बात यह नहीं कि कौन सी भाषा में कहते हैं, बात है कि क्या कहते हैं. अगर दमन और साम्राज्यों को देखने लगें तो इतिहास में बहुत पीछे जाना पड़ेगा पर इसका उत्तर नहीं मिलेगा.



अंत में एक बात ज्ञान और जानकारी के बारे में भी कहना चाहती हूँ. आज जानकारी ही सम्पति है, जानकारी बढ़ाना ही सम्पत्ती बढ़ाना है और वर्ल्ड बैंक जानकारी का ही सौदा सबसे अधिक करता है और इसी जानकारी से लोगों का दमन करता है. कुछ वर्ष पहले मैंने विरोध के भूमण्डलीकरण की बात की थी, मुझे लगता था कि जानकारी देना, सारी बात को अधिक जानकारी से भर कर कहना आवश्यक है, इसलिए अपने लेखन को तथ्यों, अंको और विचारों से भर देती थी ताकि हर प्रश्न का उत्तर दे सकूँ.. पर इस बीच मैंने बहुत से लोगों को जाना है और समझा है कि यह अधिक जानकारी बोझ भी बन जाती है, लोगों को कुछ भी करने से रोकती है, हम जानकारी ही जोड़ते रह जाते हैं. पर लोगों के विरोध का दूसरा तरीका भी है. वह कहते हैं "हमें कुछ नहीं सुनना, कुछ नहीं जानना, बस एक बात है कि यह मेरी जगह है और मैं तुम्हें यहाँ घुसने नहीं दूँगी चाहे मेरी जान ही क्यों न चली जाये". उन्हें बड़ी अंतर्राष्ट्रीय सभाओं में नहीं जाना, उन्हें बड़े भाषण, तथ्य, विचार नहीं चाहिये. इस तरह के लोगों ने भी अपने संघर्ष जीते हैं.

मैं यह नहीं कहती कि सब जानकारी बुरी है या कि हम पहले कि तरह अपने कटे कटे, अलग थलग संघर्षों में लौट जायें, पर यह कहना चाहती हूँ कि अधिक जानकारी को जोड़ना, केवल यही तरीका नहीं है संघर्ष का, और भी तरीके हैं. यह जानकारी जोड़ने वाले बड़े एनजीओ (NGO), सोशल फोरम (social forum) आदि उसी जानकारी के सिस्टम का हिस्सा बन जाते हैं जिससे दमन हो रहा है तो हमें अपने संघर्ष का दूसरा तरीका खोजना है.

मैं उपन्यासकार लेखक थी और दूसरे गैरसाहित्यक वाले लेखन में आ गयी, हालाँकि मेरे कई आलोचक कहते हैं कि मेरे लेख भी कहानियाँ ही हैं, पर वह दूसरी बात है, पर मैं सोचती हूँ किसी बात के बारे में लिखने का यह अर्थ नहीं कि हम उस बारे में सब जानकारी भर कर ही लिखें, वह भी एक तरह की कैद ही होगी, और विरोध के दूसरे तरीके भी हैं. धन्यवाद."

मैं अरुँधती की इस बात को मानता हूँ भारत में हम विभिन्न भाषाओं में बटे हैं, किस भाषा को अपनी कहें, कभी कभी यह दिक्कत आती है और क्या बात करते हैं यह भी महत्वपूर्ण हैं, पर अँग्रेजी और अन्य भारतीय बातों की बहस में एक ओर बात भी जिसके बारे में अरुंधती ने नहीं कहा और वह है अँग्रेजी बालने वाले वर्ग की बाकी सब भाषाओं के मुकाबले में ताकत और ऊँचाई.

बुधवार, अक्तूबर 17, 2007

सप्ताह के दिनों के नाम

एक तरफ़ केलैंण्डर, वर्ष और महीने सब नक्षत्रों यानि सूर्य, पृथ्वी और मौसमों से जुड़े हैं. दूसरी ओर सप्ताह का नक्षत्रों, इत्यादि से कोई वास्ता नहीं लगता. कहते हैं कि विभिन्न सभ्यताओं में सप्ताह सात से कम या अधिक दिनों के भी हो सकते थे हालाँकि अपनी दुनिया के विभिन्न देशों में यात्राओं में मैंने इस बारे में कभी नहीं सुना.

सप्ताह के सात दिन होना, सात नम्बर के विषेश महत्व को दर्शाता है क्योकि सप्त ऋषी के सात तारे थे, और प्राचीन नक्षत्रशास्त्र में सात नक्षत्र थे. इस बात में कितना सच है यह कहना कठिन है.

रोमन केलैंण्डर में सम्राट कोंस्टेंटाईन ने ईसा के करीब तीन सौ वर्ष के बाद सात दिनों वाले सप्ताह को निश्चत किया और उन्हें नक्षत्रों के नाम दिये, यानि सप्ताह के पहले दिन को सूर्य का नाम, दूसरे दिन को चाँद का नाम, तीसरे दिन को मँगल, चौथे दिन को बुध, पाँचवें दिन को बृहस्पति, छठे दिन को शुक्र और सातवें दिन को शनि का नाम. आज भी रोमन संस्कृती से प्रभावित देशों में इन्हीं नामों का प्रयोग होता है.

जैसे कि सोमवार को लूना यानि चाँद का नाम दिया गया इसलिए इतालवी भाषा में उसे लुनेदी और फ्राँस में उसे लंदी कहते है. भारत में भी सप्ताह के दिन इसी परम्परा से जुड़े हैं. लेकिन पुर्तगाल जो कि लेटिन भाषा और रोमन संस्कृति का देश है, वहाँ कुछ भिन्न हुआ. वे लोग रविवार को तो सूर्य के साथ जोड़ते हैं पर सप्ताह के बाकी के दिनों को सुगुंदा फेरा, तेरसेइरा फेरा, यानि दूसरा दिन, तीसरा दिन आदि कहते हैं.

कुछ इसी तरह का हिसाब चीन में भी है जहाँ छिंगचीयी, छिंगचीएर, छिंगचीसान आदि का अर्थ पहला दिन, दूसरा दिन, तीसरा दिन आदि ही होता है. पर जापानी भाषा इससे भिन्न है. जापानी में रविवार को निचीयोबि यानि सूर्य का दिन, सोमवार को गेतसुयोबी यानि चाँद का दिन, मँगलवार को कायोबी यानि आग का दिन, बुधवार को सुईयोबी यानि पानी का दिन, बृहस्पतिवार को मोकुयोबी यानि लकड़ी का दिन, शुक्रवार को किनयोबी यानि स्वर्णदिन और शनिवार को दोयोबी यानि धरती का दिन कहते हैं.

अब देखें अग्रेजी में इन्हीं दिनो को. सण्डे, मण्डे और सेटरडे तीन दिनों के नाम रोमन नामों से मिलते हैं यानि सूर्य, चंद्र और शनि के नाम से जुड़े पर बाकि दिनों के नाम भिन्न हैं, यह कैसे हुआ? इसका कारण ईंग्लैंड का इतिहास है. रोमन साम्राज्य के बाद वहाँ पर बाहर से हमले होते रहे, कभी जर्मनी से, कभी स्केडेनेविया के देशों से, जहाँ के एन्गलोसेक्सन लोग अपने साथ अपने देवी देवता ले कर आये. नोर्वे के थोर देवता जो बादलों और तूफ़ान की गड़गड़ाहट के देवता हैं उन्होंने अपना नाम दिया बृहस्पतिवार को यानि कि थर्सडे. नोर्वे के सबसे बड़े देवता वोडन ने नाम दिया बुधवार यानि वेडनेसडे को. वोडेन देवता के पुत्र तीव ने नाम दिया मँगलवार यानि ट्यूसडे को और वोडेन के पत्नि फ्रिया ने नाम दिया शुक्रवार यानि फ्राईडे को.

इन सब बातों से यह उत्तर देना कि भारत में सप्ताह के दिन कब से शुरु हुए और कहाँ से आये, यह मुझे नहीं मालूम. नामों को देख कर लगता है कि यह नाम अँग्रेजों के आने से पहले ही आ चुके थे क्योंकि यह अंग्रेजी नामों से नहीं बल्कि लेटिन नामों से प्रभावित थे. सुना है कि नोबल पुरस्कार पाने वाले भारतीय अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने विभिन्न केलैंण्डर आदि के विषय पर शौध किया था और कोई किताब भी लिखी थी, शायद उसमें इसका कोई वर्णन हो?

अपने खेतों में काम करने वाले या रोजाना की पगार पाने वाले लोग जिन्हें छुट्टी न मिलती हो, उनके लिए सप्ताह का कब कौन सा दिन है शायद इसका विषेश महत्व नहीं, बस त्योहारों उत्सवों के दिन पता चलने चाहिये. नौकरी करने वाले लोग जिन्हें सप्ताह में एक दिन छुट्टी मिलती हो या फ़िर पगार मिलती हो, तो सप्ताह के दिन मालूम करने की बात बनती है. शुक्रवार को जापानी में स्वर्णदिन कहते हें उसका शायद यही अर्थ था कि उस दिन सप्ताह की तनखाह मिलती थी. प्राचीन काल में भारत के नक्षत्र ज्ञान को अच्छा जाना जाता था, शायद लेटिन भाषा को यह नाम भारत ने ही दिये?

मंगलवार, अक्तूबर 16, 2007

महीनों के नाम कहाँ से आये?

प्राचीन काल में रोमन केलैंडर मार्च के महीने से प्रारम्भ होता था और वर्ष में केवल दस महीने होते थे, जिनमें सर्दियों के दो महीनो को नहीं गिना जाता था क्योंकि उन दो महीनो में कोई खेती बाड़ी का काम नहीं होता था. पहले महीने मार्च का नाम युद्ध के देवता मार्स यानि मँगलदेवता के नाम पर था. इसी महीने में अक्सर युद्ध छेड़े जाते थे.

अप्रैल के महीने का नाम बना था लेटिन भाषा के शब्द आपेरीरे से जिसका अर्थ है "खुलना", क्योंकि इस माह में धरती अपना वक्ष खोल कर प्रकृति को नया जन्म देती थी.

मई के महीने का नाम देवी माया से बना था जो फ़लने फ़ूलने की तथा नवजन्म की देवी मानी जाती थी. इसी खुशी में पहली मई को लोग बाहर बागों में, खेतों में जाते थे सारा दिन प्रकृति के साथ बिताते थे. जून का नाम बना जूनोन से जो समृद्धी और धरती की उपजाऊता की देवी थी.

इसके बाद के छह महीने के नाम नहीं बल्कि उन्हें लेटिन भाषा में पाँचवा, छठा, साँतवा आदि कहा जाता था. जैसे कि जून के बाद आता था क्विनतीलिउस यानी पाँचवा महीना जिसका नाम बाद में सम्राट जूलियस सीज़र के नाम पर जुलाई रखा गया. इसी तरह सेक्तीलियस यानि छठे महीने का नाम बाद में सम्राट अगुस्तस के नाम पर अगस्त रखा गया.

सितंबर, अक्टूबर, नवंबर और दिसंबर महीनों के नाम वही पुराने लेटिन शब्दों से बने हैं जिनका अर्थ है सातवाँ, आठवाँ, नवाँ और दशक. चूँकि लेटिन और संस्कृत दोनो इण्डोयूरोपीय भाषाएँ हैं यह शब्द संस्कृत के शब्दों से भी मिलते हैं इस तरह आप को इन महीनों के नाम में सात, आठ, नव और दस शब्दों की झलक भी दिखती है.

अंतिम दो महीनो को कलैंडर में जोड़ा राजा नूमा पोमपिलियो ने ईसा से सात शताब्दियाँ पहले और इन्हें नाम दिये जनवारियुस जोकि ज्यानो देवता के नाम पर था फैबरुआरियुस जो फाब्रुस शब्द से बना है जिसका अर्थ है पवित्र, निष्कलंक.

ईसा से दो शताब्दियाँ पहले यह निर्णय लिया गया कि वर्ष जनवरी से प्रारम्भ होगा न कि मार्च से, पर दुनिया के अन्य केलैंडर अब भी मार्च के आसपास बसंत के साथ ही नववर्ष को मनाते हैं.

महीनों और मौसमों की बात हुई है तो मध्य इटली के केसर्ता शहर के राजभवन से यह कुछ मौसम के प्राचीन देवी देवताओं की तस्वीरें.







रविवार, अक्तूबर 14, 2007

सिले होठों की कड़वी हँसी

मरजान सत्रापी की फिल्म "पेरसेपोलिस" को इस वर्ष के कान फिल्म समारोह में पुरस्कार मिला है. शायद इसीलिए फैरारा शहर में जहाँ लेखक, पत्रकार, फिल्म निर्देशक और फोटोरिपोर्टरों की सभा में इस फिल्म देखने के लिए इतनी भीड़ इक्ट्ठी हो गयी थी कि हाल में नहीं समा रही थी. "पेरसेपोलिस", एक कार्टून फिल्म है जिसमें मरजान ने अपनी आत्मकथा बतायी है और एक छोटी बच्ची की आँखों से ईरान में होने वाले परिवर्तनों को दिखाया है.



मरजान चित्रकथा कलाकार हैं यानि कि कोमिक्स लिखती हैं और बनाती हैं. अपनी कला के बारे में वह कहती हैं, "मैं द्विलैंगिक हूँ, यानि कि निर्णय नहीं ले पाती थी कि मुझे लिखना अधिक अच्छा लगता है या कि चित्र बनाना, अंत में यह सोचा कि मैं दोनो काम साथ साथ करूँ और इस तरह मैं चित्रकथा बनाने वाली बन गयी." बहुत से देशों में चित्रकथाओं को बच्चों के पढ़ने की चीज़ माना जाता हो, पर यूरोपीय कला और लेखन क्षेत्र में उनके काम को बहुत गम्भीरता से लिया जाता है और साहित्य से किसी भी दृष्टी से कम नहीं माना जाता.

मरजान की खूबी है जीवन की कड़वी बातों को हँस के कहना, उनका चुटकुला बना देना. ईरान के उत्तर में केस्पियन सागर के पास रश्त्त के पास पैदा हुई मरजान तेहरान में पली बड़ी हुईं. चौदह साल की मरजान कुछ सालों के लिए ओस्ट्रिया में पढ़ने आयीं जब ईरान में खोमीनी की इस्लामी रिवोल्यूशन हो चुकी थी और मुल्ला राज का प्रारम्भ हुआ था. अपने उस ओस्ट्रिया निवास की भी उनके मन में कड़वी यादें ही हैं, कहती हैं, "तब ईरान देश का नाम ही सब बुरा माना जाता था, जब भी कोई मुझसे पूछता था कि कहाँ से आयी हूँ, तो घँटों मैं यह समझाने की कोशिश करती थी कि कैसा देश है मेरा, कि वैसा नहीं है जैसा दिखाया जाता है." वापस ईरान जा कर उन्होंने तेहरान के कला विद्यालय में पढ़ाई की और फ़िर मुल्ला राज की घुटन से बचने के लिए १९९४ में ईरान छोड़ कर पेरिस में रहने का फैसला किया. उनके पति स्वीडन के हैं.

उनका कोमिक बनाने का तरीका है सीधी सादे श्वेत श्याम चित्र जिनमें ईरान में औरत होने के अनुभवों के कड़वेपन को इस तरह से कहें कि लोग हँस पड़ें. "पेरसेपोलिस" कोमिक को बहुत से देशों में विश्वविद्यलय स्तर पर अध्य्यन का विषय माना गया है और उसी कोमिक पर फ़िल्म बनी है.

मरजान को ईरान में घुसना मना है, वहाँ की सरकार कहती है कि अपने काम से उसने अपने देश से विश्वासघात किया है, अपनी सभ्यता की हँसी उड़ायी है. यह सोचना कि इस तरह का पिछड़ापन केवल ईरान जैसे देश में है गलत होगा. बहुत से देशों में अपनी आलोचना करना गलत माना जाता है, अगर अपने देश में, अपने धर्म में, अपने समाज में कोई गलत बात हो भी तो उसे भीतर ही छुपा कर रखना ही ठीक माना जाता है, इस बारे में बाहर बात करना देशद्रोह बन जाता है. जैसी बातें मरजान ने आज के ईरानी समाज के बारे में की हैं वैसी बातें भारत में करना भी खतरे से खाली नहीं. मुसलमानों या हिंदुओं के बारे में कुछ भी बोलो तो कट्टरपंथी दल आप की जान के पीछे संस्कृति, सभ्यता और धर्म के नाम पर जान से मारने की धमकी दे सकते हैं, तहस नहस कर सकते हैं.


शनिवार, अक्तूबर 13, 2007

लेखन के दायरे

सभाओं और गोष्ठियों में अपने काम की वजह से भाग लेना, मेरी मजबूरी है, विषेशकर जब यह सभाएँ स्वास्थ्य, विकलाँगता या विकास सम्बंधी विषयों पर होती हैं. हर पंद्रह बीस दिनों में किसी न किसी सभा या गोष्ठी में बोलना पड़ता है, इसलिए पिछले कुछ सालों से मैं कोशिश करता हूँ कि जहाँ तक हो सके उनसे बचूँ.

अपनी मर्जी से, बिना विषेश निमंत्रण के किसी सभा आदि में किसी को सुनने जाऊँ यह बहुत कम होता है. पर जब सुना कि हमारे शहर से करीब सौ किलोमीटर दूर, फैरारा शहर में देश विदेश के पत्रकार और लेखक जमा हो रहे हैं तो वहाँ जाने की मन में उत्सुक्ता हुई और काम से छुट्टी ले कर तीन दिन वहाँ बिताये.

शहर में कई जगहों पर फोटोपत्रकारों के चित्रों की प्रदर्शनियाँ लगीं थीं जिनमें से मुझे इतालवी फोटोग्राफर फ्राँचेस्को जुजोला के युद्ध और मृत्यू के क्षणों की तस्वीरें बहुत प्रभावशाली लगीं. शब्दों से युद्ध के कारण या हाल के बारे में लिखने वाले पत्रकार स्थूल तथ्यों की जानकारी दे सकते हैं पर युद्ध का मानव जीवन पर क्या असर हो सकता है, इसके लिए जो बात एक अच्छी तस्वीर कह सकती है वह हजार शब्द भी नहीं कह पाते, यह मेरा विचार है.



ब्राजील के सुप्रसिद्ध पत्रकार मीनो कार्ता, वेनेजुएला की पत्रकार क्रिस्तीना मरकानो और मेक्सिको के पत्रकार उगो पिपीतोने की दक्षिण अमरीका में आज के बड़े वामपंथी नेताओं के बारे में बहस बहुत दिलचस्प लगी. बहस के मुख्य विषय थे ब्राजील के राष्ट्रपति लूला और वेनेजुएला के उगो शावेज. लूला जनप्रिय हैं, कुछ अच्छा काम भी कर रहे हैं, पर वह वामपंथी नेता नहीं हालाँकि राजनीति में आने से पहले कामगारी यूनियन के नेता थे, बल्कि वह बड़े बिसनेस के फायदे के लिए ही अधिक काम कर रहे हैं, यह निष्कर्श था मीनो कार्ता का. शावेज जी तानाशाह हैं, मिलेट्री से आये हैं, वह प्रेस की स्वतंत्रता का मुख बाँध रहे हैं पर साथ ही उनकी शिक्षा और स्वास्थ्य सम्बंधी नीतियों से गरीब लोगों को सहायता मिली है, यह निष्कर्श था क्रिस्तीना का.

ब्लोग और अंतर्जाल के पत्रकारिता में बढ़ते महत्व पर बहस में मुझे फ्राँस के पियर्र हस्की और चीन के विद्यार्थी नेता काई छोंगवो, जो अब चीन छोड़ कर विदेश में रहने को बाध्य हैं, की बातें अच्छी लगी. बात हो रही थी कि अगर तियानामेन स्कावयर की बात आज होती तो क्या चीन की सरकार उसे इतनी आसानी से दबा पाती? उनका कहना था कि बाजार तथा उपभोक्तावादी संस्कृति से प्रभावित उदारवादी नीति अपनाने से चीन में इंटरनेट का तेजी से विकास हुआ है पर साथ ही चीन की सरकार ने इस माध्यम को किस तरह से काबू में रखा जाये, कैसे लोगों को इंटरनेट के भीतर एक सीमा में बाँध कर रखा जाये इस दिशा में बहुत तकनीकी विकास किया है जितना अन्य किसी देश में नहीं हुआ. इसके बावजूद चीनी ब्लागर और अतंर्जाल प्रयोग करने वाले नये नये तरीके निकलते रहते हें ताकि वह बँधनों से बाहर निकल सके.



बर्मा में मिल्ट्री तानाशाहों द्वारा देश में होने वाली बातों को बाहर जाने से रोकने की कोशिश करने के बारे में उनका विचार था कि दमन की प्रशासन कुछ दिनों में ही दमन की तीव्रता कम करने को बध्य होगा और धीरे धीरे समाचार फ़िर से आने लगेगें.

डाकूमेंट्री फ़िल्मों में मुझे अमरीकी फिल्म निर्देशक जेसन दा सिल्वा की फ़िल्म "हम भूल न जायें" (Lest we forget, 2003) अच्छी लगी. द्वितीय महायुद्ध के दौरान अमरीका में रहने वाले जापानियों का दमन और सितंबर 2001 में न्यू योर्क में हुए बम विस्फोटों के बाद अरब देशों और पाकिस्तान से आये नागरिकों के विरुद्ध हुए व्यवहार के बारे में थी यह फिल्म.

उपन्यास लिखने वाले लेखकों से उपन्यास और पत्रकारिता के दायरों के बारे में बातचीत भी बहुत दिलचस्प लगी. इसमें भाग लेने वालों में से मुझे मोरोक्को की लैला लालामी, तुर्की की एलिफ शफाक और भारत की अरुँधति राय की बातें मुझे अच्छी लगीं. लैला का कहना था कि क्योंकि वह मुसलमान हैं और मध्यपूर्व के देश से हैं, इसलिए बड़ी किताब छापने वाले पब्लिशिंग कम्पनियाँ उनसे केवल मुसलमान स्त्रियों का कितना बुरा हाल है इस विषय पर लिखना माँगती हैं और उनकी किताबों पर केवल बुर्का पहनने वाली औरतों या रेगिस्तानों और ऊँटों की तस्वीरें ही लगती हैं. एलिफ ने बात की अपने विभिन्न देशों में यहाँ से वहाँ बिताये अपने बचपन की जिसकी वजह से उन्हें लगता है कि उनकी जड़ें धरती में नहीं गड़ी बल्कि वह उल्टा पेड़ हैं जिसकी जड़े हवा में हैं. उन्होंने कहा कि लेखन तो लेखक की कल्पना पर निर्भर करता है, कि अगर वह तुर्की की नारी हो कर भी नोर्वे में रहने वाले समलैंगिक व्यापरी को ले कर कहानी लिखना चाहें या अमरीकी अश्वेत पुरुष के जीवन के बारे में लिखना चाहें, उन्हें इसका पूरा अधिकार है और वह कोई भी बँधन मानने को तैयार नहीं कि उन्हें किस विषय पर लिखना चाहिये और किस तरह!

अरुँधति राय जी का बोलने का तरीका बहुत प्रभावशाली है और उनके बोलने के दौरान खचाखच भरा हाल बार बार तालियों से गूँज उठा. अपने अँग्रेजी में लिखने के बारे में उन्होने लंदन में बीबीसी टेलिविजन के बारे में हुए एक साक्षात्कार के बारे में बताया. बुक्कर पुरस्कार मिलने के बाद हो रहे इस साक्षात्कार में उनके साथ एक अंग्रेजी प्रोफेसर भी थे जिनकी सारी बात ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा बने देशों को क्या फायदा हुआ और किस तरह अंग्रेजी सभ्यता ने इन पिछड़े देशों की सभ्यताओं को सही दिशा दी, फ़िर अरुँधती की ओर बोले कि उन्हें बुक्कर पुरस्कार मिलना ब्रिटिश साम्राज्य की छोड़ी धरोहर का ही नतीजा है. अरुँधती बोली कि इस तरह की बात करना कुछ वही बात हई कि बलात्कार की बाद पैदा हुई संतान को दिखा कर बलात्कार हुई औरत से कहा जाये कि देखो उस पुरुष ने कुछ ठीक ही किया था. उनकी कही बहुत सी बातों से मन में बहुत से प्रश्न उठे, पर उनके बारे में तो अलग से फ़िर कभी लिखना पड़ेगा.


बुधवार, सितंबर 26, 2007

अत्याचार की नींव

इन दिनों टेलीविज़न पर मयनमार (बर्मा) में हो रहे आंदोलन के दृष्यों को देख कर खुशी भी होती है और मन में दहशत भी. तानाशाहों के दमन से दब कर रहने वालों में जब अपनी आवाज़ उठाने का साहस आता है तो उन्हें स्वयं भी विश्वास नहीं होता. सड़क पर निकलने वाली भीड़ में खुद को पा कर कैसा लगता होगा, इसकी कल्पना मैं कर सकता हूँ.

और तानाशाह क्या करेगा? गोली चला कर आंदोलन को दबायेगा या समझ जायेगा कि हर अत्याचार की तरह, उसके अत्याचार की नींव बहुत कच्ची है, हल्के से धक्के से गिर जायेगी?

1968 के चेकोस्लोवाकिया के वसंत की याद आती है, जब अगस्त में रूसी टैंक प्राग में घुस आये थे और उस वसंत को बँदूक की ताकत से दबा दिया था.

चेकोस्लोवाकिया के वसंत के बारे में केवल पढ़ा था, जबकि 1989 में चीन में हो रहे विद्यार्थी आंदोलन को करीब से देखने का मौका मिला था. पहले सियान में पुराने जनरल सेक्रेटेरी हू याओबेंग के मृत्यु के बाद हो रहे धरनो और जलूसों को देखा फ़िर, बेजिंग में तियानामेन स्क्वायर में विद्यार्थियों का आंदोलन देखा था. कुछ आंदोलनकारी छात्रों से बात की थी. बेजिंग छोड़ने के दो दिन बाद जब टेलीविज़न पर टैंकों को उसी तियानामेन स्क्वायर पर देखा था तो बहुत दहशत हुई थी.

यँगून में जब बुद्ध भिक्षुक जलूस के आगे चलते देखा तो मन में थोड़ी सी आशा जागी, शायद बुद्ध भिक्षुकों पर गोली चलाने का साहस तो उन बहादुर जनरलों में भी नहीं होगा जिन्होंने उँग सान सू क्यी जैसे नेता को पिछले सत्रह साल से कैद में रखा है. अभी सुबह के समाचार में बता रहे हैं कि रात भर रँगून में कर्फ्यू था और सुबह बहुत जगह पुलिस तैनात है. बुद्ध विहारों के बाहर भी पुलिस खड़ी है ताकि भिक्षुकों को बाहर निकलने से रोका जाये.

क्पयूटर, इंटरनेट और टेलीफोन की नयी तकनीकों ने जनरलों द्वारा लगाये बड़े प्रतिबँधों को पार कर के बाहर दुनिया में तस्वीरें, वीडियो और विचार भेजे हैं, ताकि सबको मालूम चल सके कि बर्मा में क्या हो रहा है.

धकधक करते दिल में आशा भी है कि इस बार जन आंदोलन सफल होगा. सवाल यह है कितने लोगों का खून सींचेगा इस सफलता को?

सोमवार, सितंबर 24, 2007

भारतीय पत्नि के सपने

मेरे बेटे ने पिछले वर्ष भारत में विवाह किया. इटली में पला और बड़ा हुआ बेटा मारको तुषार, मारको अधिक और तुषार कम है, और वह किसी भारतीय लड़की से विवाह करना चाहेगा, इसका हम लोगों ने कोई सपना तक नहीं देखा था. यह बात सोचना भी अविश्वासनीय सा लगता था. यहाँ इटली में तो आज के नवयुवक विवाह बहुत देर से करते हैं, कभी कभी दस दस साल तक बिना विवाह के साथ रहने के बाद विवाह होता है और अधिकतर वह भी नहीं होता. पर हमारी होनी में यह सुख लिखा था और उसका दिल भारत यात्रा में छुट्टियों में खोया. बहू इटली आयी और हमारा परिवार पूरा हो गया. बेटे बहू का प्यार देख कर मन को बहुत सुख मिलता है.

कुछ दिन पहले बेटे का एक मित्र पियेरो हमारे यहाँ खाने पर आया था. अचानक मुझसे बोला, "मैं भी भारतीय लड़की से विवाह करना चाहता हूँ, आप का इस बारे में क्या विचार है?"

पहले मुझे लगा कि वह मज़ाक कर रहा है बोला, हाँ क्यों नहीं, कहो तो तुम्हारे लिए लड़की देखें.

पर फ़िर जब उसका गम्भीर चेहरा देखा तो अपनी हँसी को दबा कर बोला, "इस तरह के सोचने से केवल बात नहीं बनेगी, सचमुच की लड़की से शादी करनी है तो सचमुच का प्यार चाहिये. अगर तुम मारको और आत्मप्रभा, इन दोनों को देख कर अगर मन में एक छवि सी बना लोगे तो सच्चाई से नहीं, कल्पना से विवाह करोगे और जब सचमुच की लड़की का सोचना, रहना, इच्छाएँ, विचार समझ में आँयेंगे तो उनसे मेल कैसे बैठेगा?"

भारत में माता पिता द्वारा पक्के किये गये विवाह या फ़िर स्वयं अखबार या किसी एजेंसी के माध्यम से खोजे जीवन साथी से विवाह करना और साथ निभाना आसान है क्योंकि यह बात हमारी सभ्यता, हमारी सोच में बसी है. यहाँ के केवल "मैं" और "मेरा" को सबसे ऊँचा सोचने वाले व्यक्तिगत भावना वाले पश्चिमी संसार में इस तरह की सोच नहीं. यहाँ प्रेम और विचारों के मिलने के बिना विवाह करने की कोई नहीं सोचता. डर सा लगा कि अगर भावुकता में पियेरो कुछ इस तरह का कदम उठायेगा तो खुद तो दुख पायेगा ही, किसी मासूम लड़की को भी दुख उठाना पड़ेगा. यह सब समझाया उसे, पर वह अपनी बात पर ही अड़ा है कि भारतीय लड़की से ही विवाह करना है.

"अच्छा, अगले साल जब मारको और आत्मप्रभा दोनो भारत में छुट्टियों में जायेंगे, तो तुम भी साथ चले जाना. क्या मालूम तुम्हें सचमुच कोई लड़की सच में भा जाये", मैंने सुझाव दिया, "और तब तक तुम कुछ मिर्च मसाले वाला खाना खाने का अभ्यास करो, इस तरह से सूखा सादा खाना खाओगे तो कौन भारतीय लड़की तुमसे विवाह करना चाहेगी?"

तब से अगले साल की छुट्टियों की तैयारी शुरु और कहाँ जायेंगे, क्या करेंगे इसके प्लेन बनने लगे हैं. पियेरो अँग्रेजी का अभ्यास कर रहा है. वह आज कल हिंदी फ़िल्मों और हिंदी फ़िल्म संगीत से जान पहचान बढ़ा रहा है. कहता है कि रानी मुखर्जी और एश्वर्या राय सुंदर हैं. नीचे वाली तस्वीरों में जिसमें पियेरो अपने आप को मारको और आत्मप्रभा के साथ साथ अलग अलग हिरोईनों के साथ देखता है, उसने ही बनायी है.









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