रविवार, नवंबर 01, 2009

कौन सी भाषा?

कल यहाँ बोलोनिया के करीब ही एक शहर फैरारा में इतालवी पत्रिका इंतरनात्ज़ोनाले (Internazionale) ने साहित्यक समारोह का आयोजन किया था जिसमें एक गोष्ठी का विषय था, "हिंसा के समय में लेखन". इसमें भाग ले रहे थे पलिस्तीनी लेखिका सुआद अमेरी, श्री लंका के लेखक रोमेश गुनेसेकेरा, जिबूटी के लेखक अब्दुरहमान वाबेरी तथा उनसे बात कर रहीं थीं इतालवी लेखिका और पत्रकार मरिया नेदोत्तो.

सुआद, रोमेश तथा अब्दुरहमान, तीनो लेखकों ने अपने लेखन में अपने देशों में होने वाली हिँसा के बारे में लिखा है. मैंने तीनों में से किसी की भी कोई किताब नहीं पढ़ी और गोष्ठी में जाने से पहले उनके बारे में कुछ जानता भी नहीं था. पर उनकी बातों से तीनो का लिखने और सोचने का तरीका भिन्न लगा.

अब्दुरहमान अपनी पुस्तक "संयुक्त राष्ट्र अफ्रीका में" के लिए प्रसिद्ध हैं, जिसमें उल्टी दुनिया की कल्पना करते हैं जहाँ अफ्रीका अमीर और ताकतवर है और यूरोप गरीब तथा पिछड़ा, और इस तरह वह अफ्रीका के बारे में की जाने वाली हर बात को और अफ्रीकी गरीब प्रवासियों के साथ किये जाने वाले व्यवहार को उल्ट कर देखते हैं कि यही बात अगर यूरोप वासियों के लिए की जाये तो कैसी लगेगी? उनकी सोच का तरीका मुझे दिमागी लगा.


रोमेश अपनी पुस्तक "द रीफ़" के लिए बुक्कर पुररस्कार के लिए नामाँकित किये गये थे. उनकी बातों और बोलने के तरीके से लगा कि उनकी किताबों में सुंदर विवरण, पात्रों की भावनाएँ और उनके भीतर होने वाले मानसिक द्वंद मिलेंगे, और इस तरह उनकी सोच का तरीका मुझे अधिक भावनात्मक लगा.


अब्दुरहमान और रोमेश दोनो लेखकों जैसी भाषा में भी बात कर रहे थे, जिसमें अपने लेखन के बारे में जटिल विचारों की विवेचना थी.

इनके मुकाबले में सुआद का बातचीत का तरीका बिल्कुल सीधा साधा था, अपने रोज़ के अनुभवों से भरा. सुआद पेशे से आरकिटेक्ट भी हैं, उनकी कई किताबें जैसे "शेरोन और मेरी सास" अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बेस्ट सैलर रही हैं. उनके लेखन में विचार, विवेचना कम, सिर्फ हर दिन का जीता जागता अनुभव ही अधिक महत्वपूर्ण लगा.


मरिया ने तीनो से पूछा कि आप तीनो लोग हिंसा के बारे में लिखते हो लेकिन आप के लेखन में कोई हिंसा वाले शब्दों का प्रयोग नहीं होता, क्यों? तीनो का कहना था कि हिंसा के बारे में बात करने के लिए यह आवश्यक नहीं कि लेखक के लेखन में भी हिंसा हो, बल्कि लेखन में हिसंक शब्दों का प्रयोग करने से लेखन कम प्रभावशाली हो जाता है.

इस बात को ले कर देर तक सोच रहा हूँ. यह बात केवल लेखन पर नहीं सभी सृजनात्मक विधियों पर लागू होती है, जिनमें फ़िल्म और कला भी शामिल हैं. आजकल का लेखन तो जीवन को जैसा है वैसा ही बताने को सही नहीं मानता है, कि किसी बात को छुपाया नहीं जाना चाहिये? सेक्स के बारे में स्पष्ट लिखना क्या आज के लेखन के लिए आवश्यक नहीं, इसके बारे में दलील है कि यह विषय इतने झूठे पर्दों के पीछे छुपे हैं जिनसे इनका बाहर निकलना ज़रूरी हो गया है. यही बात भाषा के बारे में की जा रही है, जैसे कि गालियों का प्रयोग. अँग्रेजी, इतालवी साहित्य में तो यह बहुत पहले से होने लगा था लेकिन हिंदी साहित्य, सिनेमा और कला में यह बदलाव हो रहा है.

तो फ़िर हिंसा के बारे में तीनो लेखकों ने यह क्यों कहा कि हिंसा को हिसा के शब्दों के बिना कहा जाये तो अधिक प्रभावशाली होगा?

प्रधानमंत्री का सेक्स जीवन

इटली के प्रधानमंत्री करोड़पति, उद्योगपति, टीवी चैनल, अखबारों, पत्रिकाओं के मालिक श्री बरलुस्कोनी शुरु से ही कुछ विवादों से जुड़े रहे हैं. कभी जर्मनी की अधिपति एँजेला मर्कर को कुछ कहा, कभी उँगलियों से साँकेतिक भाषा में घटिया सा मज़ाक किया, कभी बोले कि मैं जब तक चुनाव जीतूँगा नहीं तब तक सेक्स से दूर रहूँगा, कभी अमरीकी राष्ट्रपति को धूप से साँवले हुए रंग वाला कहा, यानि कि हर सप्ताह उनका कोई नया ही समाचार होता है.

लेकिन पिछले कई महीनों से, जब से उनकी पत्नि वेरोनिका ने उन पर आरोप लगाया कि वह नाबालिग लड़कियों से सम्बंध रखते हैं और उनसे अलग होने की माँग की, तब से उनके सेक्स जीवन की खुलेआम बातों ने हचलच सी मचा दी है. दक्षिण इटली के एक बिज़नेसमेन ने बताया कि कैसे वह उनके द्वारा आयोजित पार्टियों में पढ़ी लिखी, माडल बनने की इच्छा रखने वाली युवतियाँ तथा छुटपुट अभिनेत्रियाँ भेजते थे, जिनसे स्पष्ट कहा जाता था कि अगर वह रात को रुक कर प्रधानमंत्री के साथ सोयेंगी तो उन्हें अतिरिक्त पैसा मिलेगा.

वह इनमें से कुछ युवतियों को कुछ वायदे भी करते जैसे कि तुम्हें सँसद का सदस्य बनवाऊँगा, या योरोपियन संसद का सदस्यता दिलाऊँगा, या टीवी में काम दिलाऊँगा. अपने वादों से मुकरने वाले भी नहीं थे वह. सचमुच उन्होंने कुछ युवतियों को युरोपीय संसद के चुनाव में अपनी पार्टी का टिकट दिया पर जब अखबारों में यह बात निकली तो बात बदल दी.

इस सेक्स स्कैंडल की बात से बरलुस्कोनी जी कुछ विषेश नहीं घबराये हैं, बल्कि इसका फायदा उठाया उन्होंने सबको यह बताने के लिए कि छहत्तर साल के हो कर भी, अभी भी उनमें हर रात को नयी युवती के साथ संभोग करने का दम है. जब किसी ने कहा कि वे वियागरा जैसी गोली का उपयोग करते हैं तो उन्होंने उस पर मान हानि का मुकदमा कर दिया और बयान दिया कि उन्हें वियागरा जैसी गोलियों की आवश्यकता नहीं. देश के प्राईवेट टीवी चैनल तो उनके हैं ही, राष्ट्रीय चैनलों पर भी उनका ज़ोर है इस लिए कुछ अपवाद छोड़ कर अधिकतर टीवी के पत्रकार उनके बारे में कुछ नहीं कहते. विपक्ष के दो अखबारों पर भी उन्होंने मानहानी का मुकदमा कर के उन्हें चुप कराने की कोशिश की है.

लेकिन अब छोटे छोटे अखबार भी उनके बारे में इस तरह की बातें छाप रहे हैं कि पढ़ कर आप दंग रह जायें कि क्या इस तरह की बातें देश के प्रधानमंत्री के बारे में की जा सकती है? जैसे आज के हमारे स्थानीय अखबार का मिकेले कावालिएरे का बनाया एक कार्टून देखिये. इस कार्टून में "स्कोपो" शब्द का प्रयोग किया गया है जिसका अर्थ "लक्ष्य" भी हो सकता है और "संभोग करना" भी.

कार्टून का शाब्दिक अनुवाद हैः
"हर सुबह सात बज कर बीस मिनट पर मैं शीशे में स्वयं को देखता हूँ और पूछता हूँ, प्रधानमंत्री आज आप के जीवन का क्या लक्ष्य है?"
"लक्ष्य?"
"क्या लक्ष्य?"
"संभोग करो".

कहते हैं कि बरलुस्कोनी जी की लोकप्रियता अभी भी कम नहीं हुई है, कि इटली के आम लोगों को इस तरह की बातों की कोई परवाह नहीं, यह तो केवल थोड़े से अधिक पढ़े लिखे लोग हैं जो इन बातों को उछाल रहे हैं. पर मुझे लगता है कि बात उनके हाथ से निकल रही है और लोगों में रोष बढ़ रहा है.

प्रकृति का चक्र

पिछले दो दशकों से बदलते पर्यावरण के बारे में बहुत कुछ पढ़ा सुना है. एक तरफ कहा जाता है कि मानव क्रियाओं, जिनमें मानव निर्मित फैक्टरियाँ आदि भी शामिल हैं, की वजह से पर्यावरण प्रदूषण का स्तर खतरे की सीमा से बाहर जाने वाला है, पर साथ ही विभिन्न देशों की सरकारें इसी चिंता में रहती हैं कि किस तरह उन का विकास न रुके और विकास रोकने के लिए नयी फैक्टरियाँ बनाना, अधिक से अधिक नयी वस्तुएँ बेचना, बड़ी बड़ी कारें बनाना और उन्हें भी अधिक से अधिक बेचना, जैसी नीतियाँ बनाती रहती हैं, जिनसे प्रदूषण का रोना बिल्कुल बनावटी लगता है.

कुछ थोड़े से लोग हैं जो यह कहते हैं कि मानव जीवन के विकास के दृष्टिकोण को बदलने की आवश्यकता है पर उन्हें बाकी के लोग उन्हें आदर्शवादी या पागल ही कह कर टाल देते हैं.

कुछ दिन पहले जब अमरीकी पत्रिका अटलाँटिक के जुलाई अंक के एक लेख को पढ़ने का मौका मिला तो पर्यावरण की बहस की गम्भीरता को समझने के लिए नयी बात जानी. इस लेख का विषय था कि किस तरह नयी तकनीकों के माध्यम से पर्यावरण के बदलाव के बुरे प्रभावों को रोका जाये. इस लेख में बहुत सारी तकनीकों का विवरण है जिनके बारे में वैज्ञानिक विचार कर रहे हैं.

कई वैज्ञानिकों का सुझाव है कि आकाश में करीब बीस हज़ार मीटर की ऊँचाई पर सल्फर डाईओक्साइड गैस छोड़ी जायी जिससे विश्व के बड़े हिस्से पर इस गैस के बादल छा जायें और कई महीनों या सालों तक छाये रहें, जिससे सूरज की रोशनी तथा गर्मी धरती तक न पहुँचे या कम पँहुचे. उनका विचार है कि इस तरह से थोड़े समय में ही धरती ठँडी होने लग जायेगी और समुद्र का तापमान कम हो जायेगा. इस सुझाव में यह उपाय नहीं बताया गया कि जब बारिश से सल्फर की गैस सल्फूरिक एसिड बन कर धरती पर गिरेगी और पेड़, खेत, फसलें जला देगी और लोंगो को साँस की बीमारी से मारेगी, उसका क्या किया जाये?

इस सुझाव में एक अन्य कठिनाई है कि इससे मानसून के बादल बनने बंद हो जायेगे, जिससे भारत और अफ्रीका के कई देशों पर बुरा असर पड़ेगा, पर चूँकि यह मानवता को बचाने के लिए किया जायेगा तो इस "कोलेटरल डेमेज" को स्वीकार किया जा सकता है?

दूसरी ओर इस सुझाव की अच्छाई है कि हमें कार्बन डाईओक्साइड को कम करने की या अपनी जीवन पद्धिति को बलने की चिंता नहीं करनी पड़ेगी, हम जितना चाहें प्रदूषण बढ़ाते रहें, उसकी कोई चिंता नहीं.

जोह्न लाथाम तथा स्टेफन साल्टर का विचार है कि अगर समु्द्र से पानी की भाप को बादलों पर छोड़ा जाये तो बादल घने और गहरे हो जायेंगे और उनका रंग भी अधिक सफेद हो जायेगा, जिससे सूरज की रोशनी धरती पर नहीं आ सकेगी और धरती ठँडी हो जायेगी. इस तरह से धरती को ठँडा करने के लिए १५०० जहाज़ो की आवश्यकता होगी, जिसके लिए इन वैज्ञानिकों ने बहुत सी जहाज़ कम्पनियों से बात की है कि और छह सौ करोड़ डालर के खर्च पर इसकी कोशिश की जा सकती है. यानि चाहें तो बिल गेटस जैसे अमीर लोग अपनी सम्पत्ति का थोड़ा सा हिस्सा दे दें तो यह किया जा सकता है. पहले साल अधिक खर्च होगा फ़िर हर साल करीब सौ करोड़ डालर के खर्च से इसकी मैंन्टेनेन्स हो सकती है.

अरिज़ोना के रोजर एँजेल का विचार है कि आकाश में एक विशालकाय छतरी खोली जाये, जिससे सूर्य ग्रहण जैसा वातावरण बन जाये. एँजेल कहते हैं कि "यह बात आप को पागलपन की लग सकती है, पर जिस तरह पर्यावरण बदल रहा है, उससे जो जीवन बदलने वाला है उसके असर को हम लोग समझ नहीं पा रहे हैं, चूँकि मानव प्रकृति को बदला नहीं जा सकता, बस इसी तरह के पागलपन के विचार ही शायद मानवता को बचा सकते हैं."

इस तरह की बात करने वाले लोग कोई अनजाने वैज्ञानिक नहीं बल्कि उनमें थोमस शैलिंग जैसे नोबल पुरस्कार विजेता भी हैं, जिनका कहना है कि पर्यवरण के बदलाव में प्रकृति चक्र इतना आगे जा चुका है कि अब वापस लौटना सँभव नहीं, बस इसी तरह की किसी तरकीब से इस विपत्ति को टाला जा सकता है. मानवता को अगर सौ या दो सौ साल और मिल जायें तो ऊर्जा की नयी तकनीकें खोजी जा सकती हैं जिनसे प्रदूषण कम हो जायेगा और भविष्य में इस तरह की तरकीबों की आवश्यकता नहीं पड़ेगी.

कल जब कीनिया के सूखे में मर रही गायों की तस्वीर देखी तो जी मिचला गया. रोयटर के फोटोग्राफर थोमस मूकोया ने यह तस्वीर कीनिया की राजधानी नैरोबी से करीब पचास किलोमीटर दूर अथी नदी पर खींची है.

शायद यही भविष्य है हमारा, या हमारे बाद आने वाली पीढ़ी का, प्यासे तड़प तड़प कर मरना?

घादा जमशीर की लड़ाई

घादा जमशीर (Ghada Jamshir) बहरेन की रहने वाली हैं और उन्होंने स्त्री अधिकारों की माँग के लिए एक संस्था बनायी है जिसका ध्येय है कि शरीयत कानून के द्वारा होने वाले स्त्रियों के मानव अधिकारों के विरुद्ध होने वाले फैसलों के बारे में आवाज़ उठायें. उन्होंने इस संस्था को बनाने का निर्णय आठ वर्ष पहले लिया जब उनकी मुलाकात एक अदालत के बाहर एक स्त्री से हुई जिसे उसके पति ने तलाक दिया था और साथ ही अदालत ने फैसला किया था कि उसकी बेटी पिता के साथ रहेगी. जमशीर का भी तलाक हुआ है.

(From nomulla.net)

धीरे धीरे जमशीर की संस्था वुमेनज़ पेटिशन कमेटी (Women's petition committee) को स्थानीय स्त्रियों का सहारा मिला है और घादा जमशीर का नाम जाने जाना लगा है. जमशीर ने देश में घूञ घूम कर शरीयत अदालयतों में होने वाले फैसलों से प्रभावित स्त्रियों की कहानियाँ एकत्रित की, उन्हों लोगों तक पहुँचाया और सरकार से माँग की न्याय पद्धती में बदलाव आवश्यक है.

जिन मुद्दों को जमशीर की संस्था ने उठाया है उनमें बड़ी संख्या में तलाकशुदा स्त्रियाँ हैं जिनके अधिकारों को पुरुषों के अधिकारों से कम माना गया, पर साथ ही अन्य मुद्दे भी हैं जैसे कि नवयुवतियों से कच्ची शादी करके उनसे शारीरिक सम्बंध करना और फ़िर उन्हें छोड़ देना, जबरदस्ती की शादियाँ और नाबालिग लड़कियों से बलात्कार, जिनमें अदालतें केवल पुरुषों की बात सुनती हैं और स्त्रियों को न्याय नहीं मिलता.

घादा जमशीर पर अदालत की मान हानि करने का आरोप लगाया गया है, उनके पीछे खुफ़िया पुलिस कई सालों से लगी है, उन्हें जान से मारे जाने की धमकियाँ मिल चुकी हैं और कई लोगों ने घूस देने की कोशिश भी की. सन 2006 में अमरीकी पत्रिका फोरबस (Forbes) ने घादा का नाम अरब जगत की दस सबसे महत्वपूर्ण स्त्रियों मे गिना था, लेकिन उनके अपने देश में अखबारों आदि में उनकी लड़ाईयों के बारे में समाचार नहीं छपते और उन पर विदेशी एजेंट होने का आरोप लगाया जाता है.

जमशीर की सबसे प्रमुख माँग है कि पारिवारिक झगड़ों में शरीयत का कानून नहीं केवल सामान्य सिविल कानून का प्रयोग होना चाहिये.

जमशीर ने एक साक्षात्कार में कहा कि, "बहरेन में शिया मुसलमान मुता'ह करते हैं, यानि कुछ तो इस तरह के विवाह जिनमें पत्नी को सभी हक हों और कुछ "आनंद" लेने के लिए विवाह जैसे रिश्ते, जिसमें स्त्री को कोई हक नहीं. किसका आनंद है, केवल पुरुष का? और स्त्री का क्या? इस तरह के रिश्तों से होने वाले बच्चों को क्या मिलता है, कुछ नहीं. मुझे यह बताईये कि क्या यह कुरान शरीफ़ के नाम पर किया जा रहा है? मुता'ह के नाम पर नाबालिग लड़कियों से जबरदस्ती शारीरिक सम्बंध बनाना क्यों जायज़ है? क्या कोई धर्म इस तरह की बात की अनुमति दे सकता है? क्यों स्त्रियों से परिवार नियोजन की बात नहीं की सकती?"

तो कहा गया कि वह शिया मुसलमानों के विरुद्ध बोलती हैं क्योंकि स्वयं सुन्नी हैं. पर जमशीर इस आरोप ने नहीं डरती, "हमारे देश में शिया बहुसंख्यक हैं पर उन्हें हमेशा दबाया गया है, यह तो शब्दों और पोलिटि्कस का खेल है. जो धर्म सुधार होने चाहिये वह अल खलीफ़ा राज घराने ने कुछ नहीं किया, बस पारिवारिक कानून बनाया है जिससे लोगों का ध्यान हटाया जाये और कट्टरपंथियों से समझौता किया जाये."

जमशीर सुन्नी मुसलमानों के रिवाज़ो के बारे में बोली हैं, "हमारे सुन्नियों में जवाज़ यानि कानूनी विवाह है, और साथ में पुरुष मिसयार भी कर सकते हैं यानि कानूनी रिश्ता जिसमें औरत को कोई हक नहीं, वह अपने परिवार में रहती है और उसका "पति" जब उसका दिल करे उससे मिलने जाता है. यह कैसी पत्नी है, यह तो कोई और रिश्ता है, क्या इससे औरत को इज़्जत मिलती है, क्या उसे अधिकार मिलते हैं?

जमशीर के विरुद्ध कहते हैं कि वह पर्दा नहीं करती, धर्म के खिलाफ़ हैं, तो वह उत्तर देती हैं, "मेरे बारे में मसजिदों में क्या कहा जाता है, इससे मुझे कोई चिंता नहीं, अल्ला तालाह फैसला करेंगे कि मुझे स्वर्ग मिले या नर्क. किसने इनको यह हक दिया कि मेरे फैसले करें? इन्हें मालूम है कि मैं रोज़े रखती हूँ या नहीं? इन्हें मालूम है कि मैं कितनी बार नमाज पढ़ती हूँ?"

जमशीर से पूछा गया कि अगर तुम्हें जेल में डाल देंगे तो डर नहीं लगता? वह बोलीं, "बाहर भी बड़ा जेलखाना है जिसमें औरतों का जीवन बंद है. मेरी लड़ाई है कि अरब समाज में औरतों को पुरुषों के समान अधिकार मिलें और मैं इसके लिए हमेशा बोलने को तैयार हूँ."

मंगलवार, सितंबर 29, 2009

क्षमता की सोच

बचपन से ही जाने किन बातों की वजह से मेरे मन में जो अपनी छवि बनी थी उसमें हाथों से कुछ भी काम न कर पाने की भावना थी. यानि सोचने विचारने वाले काम कर सकता था, लिख पढ़ सकता था पर बत्ती का फ्यूज़ उड़ा हो या साईकल का पंक्चर ठीक करना हो, तो मेरे बस की बात नहीं. समय के साथ, यही सोच तकनीकी विषयों के बारे में भी होने लगी. यानि गणित हो, या केलकुलस या ईंजीनियरिंग से जुड़ी कोई बात, यह सब अपनी समझ से बाहर थीं.

पहली बार कम्प्यूटर शायद 1988 या 1989 में देखा तो सोचा कि भैया यह तो अपने बस की बात नहीं लगती. तब ईलैक्ट्रोनिक टाईपराईटर से भी मुझे दिक्कत होती थी, टेलेक्स का उपयोग बहुत दूभर सा लगता था. दो तीन साल तक मैं कम्प्यूटर के करीब नहीं गया. मुझे मेरे साथ काम करने वाले बहुत लोगों ने कहा कि कम्प्यूटर से कुछ लिखना टाईपराईटर से अधिक आसान है पर मैं कहता कि मुझे टाईपराईटर की टिप टिप ही पसंद है. फ़िर हमारे दफ्तरवालों नें कम्प्यूटर से लिखने के प्रोग्राम वर्डस्टार का कोर्स का आयोजन किया और कहा कि मुझे उसमें भाग लेना ही पड़ेगा. तब पहली बार कम्प्यूटर को छुआ. तब लगा कि भाई इतना कठिन तो नहीं था, बल्कि आसान ही था.

1992-93 की बात है कि जब ईमेल का प्रयोग होने लगा था. मुझे भी कहा गया कि ईमेल के कोर्स में भाग लूँ, तो मैंने मना कर दिया. कहा कि सैकरेट्री सीख लेगी, मुझसे यह नयी नयी तकनीकें नहीं सीखी जातीं. तब आज के कम्प्यूटरों वाली बात नहीं थी, डास पर कैसे डायरेक्टरी देखी जाये, फारमेट की जाये, कोपी की जाये, सब याद करना पड़ता था.

बदलाव आया 1994 में जब अमरीका में इंटरनेट देखा, जाना कि लोग ईमेल से हर दिन भारत के समाचार पढ़ सकते थे. वापस इटली आये तो ईमेल इंटरनेट के बारे में सीखा भी, घर के लिए भी कम्प्यूटर लिया और इंडिया मेलिंग लिस्ट से भारत के समाचार पाने लगे.

उसके बाद का बड़ा बदलाव आया 2001 के पास जब अपनी बेवसाईट बनाने की सोची. हाँ, न करते करते कई महीने निकल गये, धीरे धीरे एच टी एम एल भाषा को सीखा और सृजन नाम से बेवसाईट बनी जो बाद में कल्पना में बदल गयी. 2005 में इँटरनेट के माध्यम से बने मित्रों ने, विषेशकर देबू ने ब्लाग बनाने में सहायता की, तो वे भी बन गये. धीरे धीरे कल्पना के पृष्ठ फैलते बढ़ते गये.

अब पिछले एक साल से परेशान हूँ. एच टी एम एल से कल्पना के नये पृष्ठ बनाना, कुछ भी बदलाव करना हो तो इतना समय लग जाता है कि कुछ अन्य करने का समय ही नहीं मिलता. जानकार लोग बोले, "यार तुम सी एस एस का प्रयोग क्यों नहीं करते? या फ़िर जुमला या वर्डप्रेस से कल्पना को चलाओ." देबू और पंकज ने कुछ सलाह दीं. पर मन में वही बात आ जाती कि जाने मुझसे होगा या नहीं, यह नयी तकनीकें कैसे सीखूँगा? अपनी अक्षमता की बात के साथ मन में उम्र की बात भी जुड़ गयी है कि भैया अब अपनी उम्र देखो, अब नयी बातें सीखना उतना आसान नहीं.

खैर न न करते करते भी, सी एस एस पढ़ने लगा हूँ. शुरु शुरु में लगा कि यह तो अपनी समझ से बाहर की बात है, पर अब लगता है कि धीरे धीरे आ ही जायेगी. इसी चक्कर में इधर उधर जुमला, वर्डप्रेस आदि के बारे में कुछ जानकारी ली, तो सोचा कि सबसे आसान काम है इस चिट्ठे को बदलना. कल्पना पर जिस टेम्पलेट पर यह चल रहा है, वह 2006 में बना था, तबसे ब्लाग चलाने की तकनीकों में बदलाव आ गया है और चार सालों में लिखीं 396 पोस्ट के भार से बेचारा दबा हुआ है कि नयी पोस्ट जोड़ना कठिन हो गया है.

इसलिए यह इस चिट्ठे की आखिरी पोस्ट है. इसके बाद सभी पोस्ट "जो न कह सके" के नये चिट्ठे पर ही होंगी.



31 अक्टूबर 2009: सोचा तो यही था, वर्डप्रेस पर नया चिट्ठा भी बनाया था, लेकिन फ़िर एक मित्र ने पुराने चिट्ठे को नये ब्लागर टेम्पलेट पर लगाने का तरीका सिखाया. एक बार फ़िर लगा, अरे इतना कठिन तो नहीं था, अगर थोड़ी मेहनत करता तो शायद अपने आप ही समझ में आ जाता. खैर, देर आये पर दुरस्त आये,  और लौट कर बुद्धू वापस पुराने चिट्ठे पर आ गये. यानि "जो न कह सके" कहीं नहीं गये, जहाँ थे, वहीं रहेंगे.

लोग कहते थे कि वर्डप्रेस बहुत बढ़िया है, अवश्य होगा, पर मुझे शुरु से ब्लागर की आदत बनी थी, अब लगता है कि अपने लिये यही ठीक है!


रविवार, अगस्त 23, 2009

श्वास की मिठास

इस साल तो कोई भी अच्छी हिंदी फ़िल्म देखने को तरस गये. "न्यू योर्क" या "लव आज कल" जैसे नामी फ़िल्मों से भी उतना संतोष नहीं मिला. "संकट सिटी" और "कमीने" के बारे में अच्छा पढ़ा है पर देखने का मौका नहीं मिला. पर कुछ दिन पहले 2003 की बनी एक मराठी फ़िल्म देखी "श्वास" तब जा कर लगा कि हाँ कोई बढ़िया फ़िल्म देखी.

फ़िल्म को बनाया था संदीप सावंत ने और सीधी साधी सी कहानी है, कोई बड़े नामी अभिनेता या अभिनेत्री नहीं हैं, लेकिन फ़िल्म मन को छू गयी. कहानी है परशुराम (अश्विन छिताले) की, छोटा सा बच्चा जो अपनी उम्र के सभी बच्चों की तरह खेल कूद और शरारतों में मस्त रहता है, बस एक ही कठिनाई है कि बच्चे को कुछ दिनों से देखने में कुछ परेशानी हो रही है, जिससे न पढ़ लिख पाता है, न ठीक से खेल पाता है. परशु के पिता बस में कँडक्टर थे पर एक सड़क दुर्घटना से विकलाँग हो कर घर में रहते हैं, इसलिए परशु की चिंता उसके दादा जी केशवराम (अरुण नालावड़े) करते हैं. दादा जी ही परशु को ले कर पहले गाँव के डाक्टर के पास ले कर जाते हें जो उन्हें परशु को शहर के बड़े आँखों के डाक्टर के पास जाने की सलाह देता है.

दादा जी और परशु के मामा दिवाकर (गणेश मंजरेकर) बच्चे को ले कर पूना डा. साने (संदीप कुलकर्णी) के क्लीनिक में जाते हैं. साने जी अच्छे डाक्टर हैं पर बहुत व्यस्त हैं, उनके पास अपनी पत्नी, अपनी बेटी के लिए भी अधिक समय नहीं और गाँव से आये दादा जी, शहर के तेज भागते जीवन जिसमें लोगों के पास रुक कर प्यार से बोलने समझाने का समय नहीं, बेचारे परेशान से हो जाते हैं. डा साने उन्हें कहते हैं कि कुछ टेस्ट आदि करवाने होंगे और शहर में रुकना पड़ेगा. टेस्ट करवाने में भी खतरा हो सकता है यह जान कर दादा जी घबरा जाते हें तब उनकी मुलाकात सोशल वर्कर आशावरी (अम्रुता सुभाष) से होती है जो उन्हें धर्य से समझाती है और टेस्ट पूरे होते हैं. (तस्वीर में डा. साने दादा जी को बच्चे की बीमारी के बारे में बताते हैं)


टेस्ट से मालूम चलता है कि परशु की आँख में कैसर है. बीमारी अभी शुरु में ही है इसलिए अगर ओपरेशन किया जाये तो परशु बच सकता है पर उस ओपरेशन में वह अपनी दोनो आँखें खो देगा और अँधा हो जायेगा. दादा जी पहले रोते हैं, किसी अन्य डाक्टर की सलाह लेने की सोचते हैं, पर आशावरी की सलाह से मान जाते हैं कि ओपरेशन के अतिरिक्त कोई चारा नहीं. डा. साने का कहना है कि परशु को ओपरेशन से पहले बताना पड़ेगा कि वह ओपरेशन के बाद देख नहीं पायेगा, पर न दादा जी में हिम्मत है न आशावरी में कि इतनी बड़ी बात परशु को बता सकें. डा. साने भी हिचकिचाते हें कि कैसे यह बात बच्चे को कहे, पर परशु समझ गया है कि उसके दादा उसे देख कर क्यों रोते हैं, क्यो डाक्टर साहब उसे आँख बंद कर खेलने को कहते हैं. (तस्वीर में दिवाकर, परशु, नर्स और दादा जी)


परशु अस्पताल में भरती होता है पर अंतिम समय में किसी वजह से ओपरेशन नहीं हो पाता और उसके अगले दिन होने की बात होती है. वापस वार्ड में दादा जी परशु को ले कर अचानक गुम हो जाते हैं. वार्ड में सब परेशान हैं कि भरती हुआ मरीज कहाँ चला गया, किसकी लापरवाही से यह हुआ? आशावरी को चिंता है कि निराश दादा जी ने आत्महत्या न कर ली हो. अस्पताल में घूमने वाले पत्रकार टीवी चैनल इस बात को उछाल देते हैं कि अस्पताल लापरवाही से काम करता है और इसी लापरवाही से बच्चा और उसके दादा जी खो गये हैं. परेशान डा. साने पहले अस्पताल के अधिकारियों पर बिगड़ते हैं, फ़िर अपने सहयोगियों पर, पर पत्रकारों के प्रश्नों का उनके पास कोई उत्तर नहीं. (तस्वीर में, परशु के खोने से परेशान, डा. साने और आशावरी)


थके हारे डा. साने अस्पताल से बाहर निकलते हैं तो बाहर रंगबिरगी टोपी पहने दादा जी दिखते हैं, साथ में भोंपू बजाता खुश परशु. डाक्टर साहब बहुत बिगड़ते हैं, गुस्से से चिल्लाते हैं कि तुम जैसे जाहिल लोग कुछ अच्छा बुरा नहीं समझते, मैं तुम्हारे पोते का मुफ्त ओपरेशन कर रहा था और तुमने उसका यह जबाव दिया मुझे, जाओ ले जाओ अपने पोते को, मैं उसका ओपरेशन नहीं करुँगा.

दादा जी, डाँट खा कर पहले तो रुआँसे हो जाते हें फ़िर गुस्से से चिल्लाते हैं, आखिरी 24 घँटे थे मेरे परशु के पास इस रोशनी की दुनिया के, उन्हें क्या वार्ड के दुख भरे वातावरण में गुजारने देता? कौन सा संसार याद रहता परशु को, हमेशा के लिए अँधेरे में जाने के बाद?

फ़िल्म के सभी पात्रों का अभिनय बहुत बढ़िया है, विषेशकर दादा जी के भाग में केशव नालावड़े, परशु के भाग में अश्विन छिताले का और डाक्टर साने के भाग में संदीप कुलकर्णी का. हालाँकि फ़िल्म कम बजट में बनी है, पर गाँव वाले भाग का चित्रण बहुत सुंदर है. अस्पताल के दृश्य बिल्कुल असली लगते हैं.

आशावरी के भाग में अम्रुता सुभाष कुछ बनावटी लगती हैं पर मुझे अपने कार्य के सिलसिले में कई सोशल वर्कर को जानने का मौका मिला है, और मुझे लगता है पैशे से संवदेनापूर्ण होने की वजह से शायद उनके सुहानुभूती जताने के तरीके में, जाने अनजाने कुछ बनावटीपन सा आ जाता है, इसलिए वह भी बहुत असली लगीं.

हालाँकि फ़िल्म का विषय गम्भीर है पर उसमें न कोई अतिरंजना है, न बेकार की डायलागबाजी या रोना धोना. फ़िल्म के अंत में यही समझ आता है कि यह जीवन अँधा होने से रुक नहीं जाता, अँधा हो कर भी जीवन में कुछ बनने के, कुछ करने के, आत्मनिर्भर होने के रास्ते हैं. इस दृष्टी से फ़िल्म का वह छोटा सा हिस्सा जब दादा जी परशु को ले कर अँधे बच्चों के स्कूल जाते हैं, बहुत प्रभावशाली लगा.

अगर आप ने श्वास नहीं देखी और मौका मिले तो इसे अवश्य देखियेगा. फ़िल्म मराठी में है, पर चाहें तो इसकी डीवीडी में अंग्रेजी, हिंदी के अलावा भी कई भारतीय भाषाओं में सबटाईटल चुन सकते हैं. मुझे मराठी भाषा बहुत अच्छी लगती है पर पूरा नहीं समझ पाता, मैंने इसे हिंदी के सबटाईटल के साथ देखा. श्वास को 2003 की सबसे सर्वश्रैष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था और 2004 में यह भारत की ओर से ओस्कर पुरस्कार के लिए नामांकित की गयी थी.

शनिवार, अगस्त 22, 2009

चाँद और आहें

कुछ दिन पहले आयी एक फ़िल्म "शार्टकट" का एक गीत सुना तो बहुत अच्छा लगा.

"कल नौ बजे तुम चाँद देखना, मैं भी देखूँगा, और फ़िर दोनो की निगाहें चाँद पर मिल जायेंगी"

मन में तीस या चालिस साल पहले देखी फ़िल्म "शारदा" की याद आ गयी जिसमें कुछ इसी तरह का गीत था, "ऐ चाँद जहाँ वो जायें, तुम साथ चले जाना". जब हीरो राजकपूर कहीं पर चला जाता है और पीछे से उसकी पत्नी या प्रेयसी यह गीत गाती है. इस फ़िल्म की कहानी बहुत अज़ीब थी. राजकपूर जी प्यार करते हैं शारदा यानि मीना कुमारी से, वह कहीं जाते हैं तो पीछे से शारदा का विवाह उनके पिता से हो जाता है, और जब वह घर वापस आते हें तो पिता की नयी पत्नी को देख कर दंग रह जाते हैं. इस तरह भी हो सकता है, इस बात को माना जा सकता है, बिमल मित्र के उपन्यास "दायरे के बाहर" में भी यही होता है, लेकिन शारदा का यह कहना कि उनके पुराने प्रेमी अब उन्हें माँ कह कर पुकारें और माँ के रूप में सोचें, मुझे बहुत अजीब लगा था और बेचारे राज कपूर पर बहुत दया आयी थी. बिमल मित्र ने अपने नायक शेखर से इस तरह की बात नहीं की थी.

खैर शारदा की बात छोड़ें और "शार्टकट" के गीत की बात पर वापस लौट चलें. गीत सुन कर लगा कि वाह कितना रोमाँटिक गाना है, दूर से चाँद को देख कर एक दूसरे के लिए विरह में जलना. पुराने दिन याद आ गये. यही झँझट है हम प्रौढ़ों का, कुछ भी हो, बस पुरानी बातों को सोच कर भावुक हो जाते हैं.

फ़िर इंटरनेट पर यह गीत देखा तो सब रोमाँस छू मंतर की तरह गायब हो गया, वही स्कर्ट या बिकनी पहने, समुद्र किनारे नाचते इतराते अक्षय खन्ना और अमृता राव. यह बात नहीं कि समुद्र या अमृता सुंदर नहीं, पर इस गाने के बोलों के साथ ठीक नहीं बैठ रहे थे. लगा कि इस फ़िल्म के निर्देशक को इतने सुंदर गाने को इस तरह से बिगाड़ने की सजा दी जानी चाहिये. आप स्वयं इस वीडियो को देखिये और बताईये कि क्या मेरा दुखी होना सही है या नहीं?





शायद यह आशा करना कि आज के ज़माने में चाँद तारों की बातें की जायें, यह बात ही गलत है? दूर से चाँद को देख कर आहे भरने का गीत गाना, साठ सत्तर के दशक तक के वातावरण में तो फिट हो सकता है, आज के ज़माने में चाँद तारों के लिए किसके पास समय है? अगर प्रेमी युगल में से एक व्यक्ति विदेश गया है तो "नौ बजे चाँद देखना" गाने का क्या औचित्य होगा, क्योंकि जब लंदन में नौ बजे होंगे तब भटिंडा या मुंबई में रात को दो बजे होंगे, तो अलग अलग समय में चाँद देखने से निगाहें कैसे मिलेंगी? और आज के ज़माने में जब मोबाईल, फेसबुक, टिव्टर, ईमेल, चेटिंग आदि के होने से किसी से बिछड़ कर सचमुच का विरह महसूस करना नामुमकिन सा हो गया है, चाँद देखने की बात करना बेमतलब सा है. साथ ही, हमारी पुरानी यादों की भी घँटी बज जाती है. इन आधुनिक फ़िल्मवालों को कुछ ध्यान रखना चाहिये कि हम जैसे पके बालों वालों की भावनाओं को ठेस लग सकती है कि हमारी प्रिय रोमाँटिक सिचुएशन को इस तरह से बिगाड़ा जाया.

कुछ इसी तरह लगा था जब "लव आज कल" देखी जिसकी बहुत चर्चा हो रही है कि बहुत रोमाँटिक फ़िल्म है. वीर सिंह और हरलीन वाले भाग में तो मुझे रोमाँस दिखा था पर आधुनिक रिश्ते जिस तरह इस फ़िल्म में दिखाये गये हैं, जय और मीरा के बीच, उनमे रोमाँस कहाँ था, कुछ स्पष्ट समझ नहीं आया. लगा कि जय और मीरा का बस एक आधुनिक रिश्ता था, जिसमें साथ रहने का आनंद, साथ सोने का सुख तो था पर प्रेम नहीं दिखा.

प्रियतमा हमेशा के लिए जा रही है, पर हमें समझ न आये कि हमें उससे प्रेम है या नहीं, उसके बाद दो साल बीत जायें, हम कुछ प्रेम अन्य जगह बाँट कर, अचानक अपने सुविधापूर्ण जीवन और सहेलियों से, जिसमें कोई चुनौती नहीं दिखती, बोर या उदास हो जायें, और फ़िर कहें कि वैसे सचमुच में हम मीरा से ही प्यार करते थे, पर हमें पता नहीं था, कुछ बेतुका सा नहीं लगता? और मीरा, जो साल भर अपने साथ काम करने वाले के साथ रह चुकी हैं, दोनो साथ रहते थे तो सोते भी होंगे, उन्हें अचानक सुहागरात को याद आता है कि भाई हमारा सच्चा प्यार तो जय था? कुछ कन्फूसड लोगों वाली बात नहीं लगती, जिन्हें प्रेम क्या होता है यह सचमुच देखने का मौका ही नहीं मिला?

क्या यह केवल प्रेम की बदलती परिभाषा है, जीवन के व्यस्तता में मन की भावनाओं को न पहचान पाने की दुविधा है या कुछ और? या शायद, प्रेम के लिए, दूरी और विरह की आवश्यकता है, कोई रुकावट या दुख भी चाहिये बीच में जिसके बिना हम अपने प्रेम को पहचान नहीं पाते?

जुलाई की अमरीकी मासिक पत्रिका "द एटलाँटिक" (The Atlantic) में साँद्रा त्सिंग लोह (Sandra Tsing Loh) का लेख छपा था जिसमें उन्होंने अपने तलाक के बारे में लिखा था. उनका कहना है कि आज जब स्त्री पुरुष के सामाजिक रोल और अपेक्षाएँ बदल चुकी हैं, आज लोगों की औसत उम्र लम्बी हो गयी है, सौ वर्ष पहले की सोचें तो दुगनी हो गयी है, तो इस बदले हुए परिपेश में सोचना कि स्त्री और पुरुष वही पुराने तरीकों से साथ रहेंगे, प्रेम करेंगे, विवाह करेंगे, आदि यह ठीक नहीं.

तो क्यों बात करें वही पुराने प्रेम और विवाह की? क्यों बात करें चाँद तारों की? क्या इस नयी दुनिया को "प्रेम" शब्द के बदले में कोई नया शब्द नहीं खोजना चाहिये, जो आधुनिक जीवन की इस नयी भावना की सही परिभाषा दे सके?

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