"साथ ही, मेरे जैसे 50 वर्ष की सीमा की ओर पहुँच रहे लोगों की आँखों में श्याम पृष्ठभूमि पर सफेद अक्षर तो दिखाई ही नहीं देता..."
कुछ ऐसा ही हाल मेरा अपना भी था. कंप्यूटर का मोनिटर अधिक करीब हो तो ऐनक उतार कर पढ़ने की कोशिश करता, कुछ दूर हो तो ऐनक लगाता, पर अपने ही चिट्ठे के अक्षर ठीक से नहीं दिखते थे. झँझट यह था कि इस चिट्ठे के टैम्पलेट के रंगों को कौन ठीक करे? जब छायाचित्रकार वाले फोटो चिट्ठे के रंग ठीक करने थे तो राम ने मदद की थी, दुबारा किसी से कहने में शर्म आ रही थी. फ़िर मन में सोचा कि इतना भी क्या कठिन होगा, कोशिश करके देखें. कुछ दिनों तक सारा खाली समय टेम्पलेट से छेड़खानी में बिताया और आखिरकार कल रात को लगा कि अब कुछ ठीक दिख रहा है.
इतनी मेहनत करनी पड़ी, पर कुछ संतोष भी है कि आखिरकार काम हो ही गया. यह तो आप लोग ही बता सकते हैं कि इस चिट्ठे के नये रुप में क्या कमियाँ रह गयीं हैं.
उम्र के साथ साथ इस तरह की परेशानियाँ बढ़तीं जातीं हैं. दिखता कम है, सुनता कम है, अधिक चलना पड़े तो भी मुश्किल, सीढ़ियाँ हों तो भी मुश्किल. और दुनिया है कि दिन ब दिन तेज़ गति से चलती जा रही है, या शायद यह अपना भ्रम है क्योंकि अपनी गति धीमी हो रही है!
पर यह सच है कि उम्र के साथ ही समझ में आता है जब विकलाँग लोग कहते हैं कि दुनिया हर तरफ़ से रुकावटों से भरी हुई है. विकलाँगता को हमेशा से व्यक्तिगत या पारिवारिक समस्या की तरह देखा जाता था. यानि अगर आप विकलाँग हैं तो इसका अर्थ है कि आप के शरीर में कोई कमी है और उस कमी को ठीक करने की कोशिश की जाये.
कुछ दशक पहले विकलाँग लोगों की संस्थाओं ने एक दूसरा दृष्टिकोण पेश किया. उनका कहना था कि विकलाँगता व्यक्ति के शरीर में नहीं समाज में होती है क्योंकि यह समाज केवल अविकलाँग, जवान लोगों के लिए सोचा और बना है. यह समाज अन्य सभी लोगों के लिए उनके आस पास कुछ रुकावटें खड़ी कर देता है जिनके कारण वह लोग जीवन में ठीक से भाग नहीं ले पाते. उनका कहना था कि इलाज व्यक्ति का नहीं, समाज में बिखरी इन रुकावटों का होना चाहिये.
इस सोच ने कुछ सामाजिक परिवर्तनों को प्रेरित किया है जैसे कि पटरी से चढ़ने उतरने के लिए ढलानें बनाना, सीढ़ियों के साथ रेम्प बनाना, लाल बत्ती पर अँधे लोगों के लिए ध्वनि वाला सिगनल बनाना, लिफ़्ट में विभिन्न मंज़िलों के नम्बर ब्रेल में भी लिखना, इत्यादि. इनका लाभ केवल विकलाँग लोगों को नहीं मिलता बल्कि सारे समाज को मिलता है. जैसे कि अगर पटरी पर चढ़ने उतरने के लिए ढलान है तो व्हीलचेयर को चलाने में आसानी तो होगी ही पर साथ ही, बच्चे के साथ जा रहे परिवारों को भी होगी, उन बूढ़ों को भी होगी जिनके घुटनों मे दर्द हो.
अंतर्जाल पर ही उतना ही आवश्यक है कि हम जाल स्थलों को इस तरह बनाये कि विभिन्न विकलाँग लोग भी उनका प्रयोग कर सकें.
पर बहुत सी बातें कहना आसान है पर करना कठिन. एक उदाहरण हमारे शहर बोलोनिया से. यहाँ की सरकार विकलाँग लोगों के बारे में बहुत सचेत है., पर कुछ समय पहले यहाँ निर्णय लिया गया कि बहुत सी चौराहों पर लाल बत्ती के बदले में गोल चक्कर बना दिया जायेंगे क्योंकि उससे यातायात अधिक तेज़ चलता है. अगर कारों, ट्रकों को चलने में फ़ायदा होगा और लाल बत्ती पर नहीं रुकना पड़ेगा तो प्रदूषण कम होगा और पेट्रोल का खर्चा भी. पर यह देखा गया है कि गोल चक्कर बनने से यातायात की गति तीव्र हो जाती है और पैदल चलने वालों और साईकल पर जाने वालों को अधिक कठिनाई होती है. विकलाँग, वृद्ध, गर्भवति स्त्रियाँ आदि लोगों को सड़क पार करने में और भी कठिनाई होती है.
तो किसका सोचे सरकार, यातायात का या पैदल चलने वालों का? मेरा बस चले तो पहले पैदल चलने वालों का सोचा जाये पर अगर आप सरकार में हों तो आप क्या फैसला करेंगे?