इस नवनिर्माण में आज जहाँ राष्ट्रीय संग्रहालय है वहाँ कोई अन्य भवन बनेगा और कर्तव्यपथ के उत्तर में जहाँ अभी नॉर्थ तथा साउथ ब्लाक में मंत्रालय हैं वहाँ पर यह नया संग्रहालय बनाया जायेगा। चूँकि दिल्ली का राष्ट्रीय संग्रहालय मेरे मनपसंद संग्रहालयों में से है, मैंने सोचा कि भारत के अपने मनपसंद संग्रहालयों के बारे में एक आलेख लिखना चाहिये। नीचे की तस्वीर में राष्ट्रीय संग्रहालय से उन्नीसवीं शताब्दी की धनुराशि का एक शिल्प दक्षिण भारत से है।
संग्रहालयों की उपयोगिता
सतरहवीं से बीसवीं शताब्दियों में युरोप के कुछ देशों ने एशिया, अफ्रीका तथा दक्षिण अमरीका महाद्वीपों के विभिन्न देशों पर कब्ज़ा कर लिया। क्योंकि उन देशों की भाषाएँ, वेषभूषाएँ, परम्पराएँ यूरोप से भिन्न थीं, इसलिए उनकी संस्कृतियों को नीचा माना जाता था। उन "पिछड़ी" सभ्यताओं के बारे में ज्ञान एकत्रित करने के लिए "मानव सभ्यता विज्ञान" यानि एन्थ्रोपोलोजी के विषेशज्ञ तैयार किये गये जो उन उपनिवेशित देशों में जा कर वहाँ के "जँगली" लोगों के बीच में रह कर उनके रहने, खाने, रीति रिवाज़, आदि विषयों का अध्ययन करते थे। उन देशों से लायी कीमती वस्तुएँ, जिनमें सोना, चाँदी, हीरे, मोती आदि के गहने थे, वह सब भी यूरोप पहुँच गये। उनकी कला व साँस्कृतिक धरौहरों के लिए संग्रहालय बनाये गये, जिनमें विभिन्न देशों से लायी वस्तुओं को रखा गया।आज भी एशिया, अफ्रीका तथा दक्षिण अमरीका के विभिन्न देशों की बहुत सी साँस्कृतिक धरौहरें लँदन, पैरिस और एमस्टरडैम के संग्रहालयों में मिलती हैं। समय के साथ, नये स्वतंत्र हुए विकासशील देशों ने धीरे धीरे अपने संग्रहालय बनाने शुरु किये हैं। पहले जहाँ संग्रहालयों में वस्तुओं को अधिकतर कौतुहल का विषय मान कर रखा जाता था, उसमें बदलाव आया। धीरे-धीरे यह समझ बनी कि हर वस्तु को उसके साँस्कृतिक तथा सामाजिक अर्थ, इतिहास व परिवेश की पृष्ठभूमि के साथ ही समझा जा सकता है। डिजिटल तकनीकी के विकास ने संग्रहालयों को इंटरएक्टिव बना दिया जिससे दर्शकों को हर प्रदर्शित वस्तु के बारे में जानकारी पाने का एक नया माध्यम मिला।
स्वतंत्रता के बाद धीरे धीरे भारत के लोगों में अपनी प्राचीन सभ्यता के विषय में जानने की इच्छा बनी है, और पुरात्तव विभाग ने कई जगहों पर काम किये हैं। हमारे अधिकतर संग्रहालय पुरानी, धूल से भरी जगहें हैं, जो बिना समझ वाले बाबू लोगों द्वारा संचालित हैं, लेकिन साथ ही सुन्दर संग्रहालय बनाने के कुछ प्रयास हुए हैं। जैसे जैसे भारत विकसित देश बनेगा, देश की पुरातत्व संस्थाओं को और संग्रहालयों के बजट बढ़ेंगेतो इनमें और भी सुधार आयेगा।
दिल्ली का राष्ट्रीय संग्रहालय
भारत की स्वतंत्रता के उपलक्ष्य में लँदन में सन् 1947-48 में एक भारतीय कला प्रदर्शनी लगायी गयी थी, उस कला प्रदर्शनी के समाप्त होने के बाद उस प्रर्दशनी के लिए एकत्रित वस्तुओं से हमारे राष्ट्रीय संग्रहालय की शुरुआत की गयी थी। जब तक राष्ट्रीय संग्रहालय का भवन बन कर तैयार नहीं हुआ था, तब तक सब सामान राष्ट्रपति भवन में रखा गया था।मुझे हमारा राष्ट्रीय संग्रहालय बहुत अच्छा लगता है। मैंने यूरोप में कई संग्रहालय देखे हैं, मुझे यहाँ की प्रदर्शनी विदेशों के किसी भी संग्रहालय से कम नहीं लगती। दिल्ली में जब भी मौका मिलता है मैं राष्ट्रीय संग्रहालय में अवश्य एक चक्कर लगा लेता हूँ। संग्रहालय की गैलरियों में प्रदर्शित शिल्प, कला तथा आम जीवन की वस्तुओं में भारत के दो हज़ार वर्षों से अधिक इतिहास को देखा जा सकता है। नीचे की तस्वीर में राष्ट्रीय संग्रहालय से बाहरवीं शताब्दी की काकातीय शैली का त्रिदेव का शिल्प हैदराबाद के पास वारांगल से है।
उत्तरी, पूर्वी, पक्षिमी, और दक्षिण भारत के भिन्न हिस्सों के विभिन्न युगों के इतिहासों को एक जगह पर ठीक से दिखाना चाहें तो आज के राष्ट्रीय संग्रहालय से दस गुना जगह भी शायद कम पड़ेगी। उसकी प्रदर्शित वस्तुएँ इतनी सुन्दर हैं कि मैं हर बार वहाँ कई घँटों तक घूमता रहता हूँ। सुना है कि नये भवन में संग्रहालय को अपनी प्रर्दशनियों के लिए अधिक और बेहतर जगह मिलेगी।
मेरे विचार में हर सप्ताह-अंत में, राष्ट्रीय संग्रहालय में जन सामान्य के लिए इतिहास, संगीत, धर्म, संस्कृति आदि के विषेशज्ञयों द्वारा संचालित गाईडिड टूर होने चाहिये ताकि लोगों को हमारे इतिहास के बारे में रुचि बढ़े और उन्हें किताबी समझ के दायरे से बाहर का ज्ञान मिले। उन्हें जनता के लिए फ़िल्मों तथा वार्ताओं के कार्यक्रम भी नियमित रूप से आयोजित करने चाहिये, जिनमें संग्रहालय में प्रदर्शित वस्तुओं के बारे में गहराई से जाना जा सके।
सहपीडिया का डिजिटल संग्रहालय
इंटरनेट तथा डिजिटल तकनीकी ने साईबरलोक में नई तरह के संग्रहालय बनाने का मौका दिया है। भारत में इसका सबसे बढ़िया नमूना है सहपीडिया में जिनके आरकाईव में भारत के राज्यों, लोगों के जीवन, धर्म, रीति रिवाज़ों, और साँस्कृतिक धरौहरों के बारे में आप को घर बैठे या खाली समय में बहुत सी जानकारी मिल सकती है जिसे किसी एक संग्रहालय में एकत्रित करना असंभव है।मैंने उनके दिल्ली के दफ्तर में कई दिलचस्प वार्ताओं व सम्मेलनों में हिस्सा लिया है। इस सब के साथ वह वर्कशॉप, तथा देश के विभिन्न शहरों में साँस्कृतिक महत्व की जगहों पर "हेरीटेज वॉक" का आयोजन भी करते रहते हैं।
उनके कुछ पृष्ठ हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में हैं, लेकिन बहुत सी सामग्री केवल अंग्रेज़ी में है। यही सहपीडिया की सबसे बड़ी कमज़ोरी है।
गुरुग्राम का संस्कृति संग्रहालय
दिल्ली के पास गुरुग्राम में, दिल्ली मैट्रो के अंजनगढ़ स्टेशन के पास आनन्दग्राम में एक अन्य सुन्दर संग्रहालय है, संस्कृति संग्रहालय। यह छोटा सा है लेकिन यहाँ भारत के विभिन्न राज्यों से आयी हुई जनजातियों द्वारा बनाई गयी मिट्टी की कला वस्तुओं का संग्रह मुझे बहुत अच्छा लगा। यह एक निजि संग्रहालय है जिसे श्री ओमप्रकाश जैन द्वारा बनवाया गया था।संग्रहालय के तीन भाग हैं - आम जीवन में प्रयोग आने वाली वस्तुएँ, मिट्टी की कला यानि टेराकोटा (Terracotta) कला तथा बुनकर कला जिसमें भिन्न तरह के करघे पर बुने कपड़े (टेक्टाईल)हैं। नीचे की तस्वीर में गुरुग्राम के संस्कृति संग्रहालय से तामिलनाडू से कुप्पास्वामी का टेराकोटा शिल्प है जोकि भगवान आइनार की सेना के अधिपति हैं।
संग्रहालय पहुँचने के लिए मैट्रोस्टेशन से कुछ किलोमीटर चलना पड़ता है। यह कठिनाई केवल इस संग्रहालय की नहीं बल्कि बहुत से संग्रहालयों की है - मेरी दृष्टि में कुछ जगहों पर जनपरिवहन का न होना इनके प्रबँधकों की लापरवाही भी दर्शाता है, जो शायद सोचते हैं कि अगर आप के पास अपनी कार या स्कूटर नहीं तो आप को संग्रहालय में दिलचस्पी नहीं होगी। कुछ कमी स्थानीय प्रशासन की भी है जिसे मैट्रो स्टेशनों पर वहाँ के आसपास के संग्रहालय व साँस्कृतिक संस्थानों के बारे में सूचना देनी चाहिये तथा वहाँ पहुँचने के लिए जनसाधनों का प्रबंध करना चाहिये।
केरल में कोची का जनजाति संग्रहालय
केरल में कोची का जनजाति संग्रहालय भी एक निजि संग्रहालय है जोकि वहाँ के वास्तुशिल्प, कला, सभ्यता व संस्कृति से आप का परिचय कराता है। यह संग्रहालय लकड़ी के एक पारम्पिक तरीके के बने भवन में बनाया गया है। इस संग्रहालय में धार्मिक कला शिल्प के बहुत सुन्दर नमूने देखने को मिलते हैं। नीचे की तस्वीर में कोची के जनजाति संग्रहालय में तमिलनाडू से सतरहवीं शताब्दी की लकड़ी की गरुण की मूर्ति का शिल्प है।इसी संग्रहालय में मैंने पहली बार उत्तरी केरल के कन्नूर जिले के आसपास की प्रचलित थैयम परम्परा के नमूने देखे जिनमें कुछ जनजातियों के लोग पाराम्परिक श्रृंगार और वस्त्र पहन कर देवी देवताओं को अपने शरीर में उतारते हैं। इनको देखने के बाद ही मुझमें कन्नूर जा कर वहाँ के गाँवों में थैयम पूजा को देखने की जिज्ञासा जागी, जोकि मेरे जीवन का बहुत रोमांचक अनुभव था।
नागालैंड में किसामा का हेरीटेज गाँव
नागालैंड के गाँवों में अधिकाँश जगहों पर ईसाई धर्म और आधुनिकता के साथ पाराम्परिक सँस्कृति, पुराने तरीके का रहन सहन, रीति रिवाज़ आदि लुप्त से हो रहे हैं। प्राचीन समय में विभिन्न नागा जातियों की अपनी विशिष्ठ परम्पराएँ, वास्तुशिल्प, पौशाकें होती थीं। नागालैंड की राजधानी कोहिमा से थोड़ी दूर किसामा साँस्कृतिक धरौहर गाँव है जहाँ नागा जनजातियों के घरों, पौशाकों तथा कलाओं को दिखाया गया है (नीचे की तस्वीर में)।एक स्तर पर लगता है कि किसामा गाँव विभिन्न नागा जनजातियों के पाराम्परिक जीवन को दिखाने वाला खोखला ढाँचा सा है जिसमें सचमुच का जीवन नहीं है, लेकिन मेरे विचार में आने वाली नागा पीढ़ियों के यह महत्वपूर्ण है कि उनकी पश्चिमी सभ्यता की नयी पहचान के बीच में उनके सदियों के पुराने जीवन की कुछ यादें भी बची रहें।
हर वर्ष दिसम्बर में इस गाँव में एक संगीत तथा साँस्कृतिक समारोह होता है, जो होर्नबिल फेस्टीवल (Hornbill festival) के नाम से जाना जाता है और जिसमें नागा युवक व युवतियाँ अपने प्राचीन वस्त्र, रीति रिवाज़ों तथा परम्पराओं को याद करते हैं। इस समारोह के लिए दूर दूर से पर्यटक नागालैंड आते हैं।
गुवाहाटी का श्रीमंत शंकरदेव कलाक्षेत्र संग्रहालय
गुवाहाटी के "छह मील" नाम के क्षेत्र के पास पँजाबाड़ी में असमिया संगीतकार व कलाप्रेमी भूपेन हज़ारिका द्वारा स्थापित "कलाक्षेत्र संग्रहालय" में असम की साहित्य, नृत्य, कला, नाटक तथा जनजातियों से जुड़ी परम्पराओं को प्रदर्शित किया गया है। इस तरह कलाक्षेत्र केवल संग्रहालय नहीं है, यह कला, नृत्य और नाटकों से असम की जीवंत सँस्कृति से जुड़ा है। यहाँ केवल प्रदर्शनी देखने की जगह नहीं है, बल्कि वहाँ आप असम की सभ्यता को जी सकते हैं।मेरा सौभाग्य था कि कुछ वर्ष पहले मुझे कलाक्षेत्र से थोड़ी दूर ही रहने का मौका मिला, जिससे कलाक्षेत्र जाने के बहुत मौके मिले। कलाक्षेत्र का जनजाति सभ्यता संग्रहालय छोटा सा है लेकिन बहुत सुन्दर है।
भक्तीकाल में असम में श्रीमंत शंकरदेव तथा अन्य संतो के द्वारा एक जातिविहीन, कृष्ण भक्ति पर आधारित एक नये तरह के हिन्दु धर्म की परिकल्पना की गयी थी, जिसकी नींव सादे जीवन पर टिकी थी। हिंदू धर्म के इस रूप का केन्द्र नामघर तथा सत्रिया होते हैं। कलाक्षेत्र में आप को इस नामघर संस्कृति को जानने और समझने का मौका भी मिलता है (नीचे की तस्वीर में)।
कलाक्षेत्र के साथ ही शिल्पग्राम भी है जहाँ विभिन्न असमियाँ जनजातियों के घरों और गाँवों को दिखाया गया है जोकि किसामा के नागा गाँवों से मिलता है। यहाँ अक्सर प्रदर्शनियाँ लगती रहती हैं जहाँ आप गृहउद्योग तथा पराम्परिक हस्तकला को देख व खरीद सकते हैं।
भोपाल के राष्ट्रीय मानस संग्रहालय व जनजाति संग्रहालय
भोपाल का मानस संग्रहालय व जनजाति संग्रहालय मुझे बहुत प्रिय हैं। दो बार वहाँ जा चुका हूँ लेकिन अगर मौका मिले तो वहाँ अन्य दस बार लौटना चाहूँगा। मैंने बहुत दुनिया घूमी है और मेरे विचार में जनजातियों की सभ्यता व संस्कृतियों के बारे में यह दुनिया का सबसे सुंदर संग्रहालय है। नीचे की तस्वीर में छत्तीसगढ़ से राजवर जनजाति के जीवन को दिखाती एक कृति भोपाल के मानस संग्रहालय से।मध्यप्रदेश की विभिन्न जनजातियों के आम जीवन की वस्तुएँ, उनके घर, वस्त्र, रीति रिवाज़, विभिन्न कलाओं, आदि से जुड़ी इन संग्रहालयों में इतनी वस्तुएँ हैं कि उनको देखने और समझने के लिए कई महीने चाहिये। सब कुछ इतने सुन्दर तरीके से प्रदर्शित किया गया है कि यहाँ घूम कर महीनों तक यहाँ के सपने आते रहते हैं।
अगर आप को भोपाल जाने का मौका मिले तो आप को इन दोनों संग्रहालय को अवश्य देखने जाना चाहिये।
अंत में
रश्मि दासगुप्ता नें अपने आलेख में लिखा है कि भारत में संग्रहालयों में जाने की परम्परा नहीं है। शायद यह बात सच है लेकिन मेरी राय में अगर लोगों को संग्रहालय में आकर्षित करने के लिए वस्तुओं को शीशे के डिब्बे से बाहर निकाल कर रखा जाये और लोगों को वहाँ सैल्फ़ी खींचने आदि से नहीं रोका जाये, तो धीरे धीरे अपनी संस्कृति को जानने समझने के बारे में जिज्ञासा बनायी जा सकती है। अगर संग्रहालय केवल वस्तुओं को दिखाने तक सीमित न रहें, उनमें पारम्परिक कला सीखने, फिल्म, नाटक व नृत्य देखने की सुविधाएँ हों, वहाँ के बारे में दिलचस्प तरीके से समझाने बताने वाले गाईड हों, वहाँ बैठने की जगहें हों जहाँ लोग चाय-कॉफ़ी पी सकें, जहाँ लोग छोटे बच्चों को ले कर आ सकें और जो जनपरिवहन सेवाओं से जुड़े हों, तो नयी पीढ़ी में संग्रहालय जाने की तथा देश की संस्कृति का महत्व समझने की परम्परा भी बन सकती है।अधिकतर संग्रहालय सरकारी बाबू लोगों की निजी रियासतें जैसी होती हैं, जहाँ फोटो खींचना मना होता है और न ही उन्हें सोशल मीडिया के माध्यम से कैसे दर्शकों को संग्रहालय से जोड़ा जाये की कोई जानकारी होती है। आज का युग मोबाईल फ़ोन का व सैल्फ़ी का युग है, अगर आप दर्शकों को संग्रहालयों में टिवटर, टिकटॉक, फेसबुक आदि पर सैल्फ़ी नहीं दिखाने देंगे तो बहुत से लोग वहाँ नहीं आयेंगे, विषेशकर नवजवान लोग। यह समझ निज़ी संग्रहालयों में अधिक है, इसलिए वह वस्तुओं को ऐसे रखते हैं ताकि लोग वहाँ फोटो खींचे और संग्रहालय के बारे में अपने मित्रों व जानकारों को दिखा सकें कि संग्रहालय में उन्होंने क्या क्या दिलचस्प चीज़ें देखीं, जिससे अन्य लोग भी वहाँ आना चाहें।
दूसरी बात है कि भारत में पुराने मन्दिर, मस्जिद, किले, राजमहल, भग्नावषेश, बहुत हैं जो कि खुले संग्रहालय जैसे हैं, उनके सामने कमरों में बन्द सँग्रहालय कम दिलचस्प लगते हैं। जैसे कि एक बार हम्पी या महाबलिपुरम के भग्नावषेशों के बीच घूम लें तो उनके संग्रहालयों में वह आनन्द नहीं मिलता। इसलिए यह कहना की लोगों में संग्रहालय जाने की परम्परा नहीं है, शायद संग्रहालयों की कमियों को न देख पाना है।
आशा है कि आप को मेरे प्रिय भारतीय संग्रहालयों का यह टूर अच्छा लगा होगा। क्या आप की दृष्टि में भारत के किसी अन्य राज्य में कोई अन्य संग्रहालय है जो आप को बहुत अच्छा लगता है और जिसे इस सूची का हिस्सा होना चाहिये था? मुझे इसके बारे बताईयेगा, ताकि मैं अगर उस तरफ़ जाऊँ तो उसे अवश्य देखने जाऊँ।
*****