उम्र के बीतने के साथ पुरानी भूली भटकी जगहों को देखने की चाह होने लगती है, विषेशकर उन जगहों की जहाँ पर बचपन की यादें जुड़ी हों. ऐसी ही एक जगह की याद मन में थी, दिल्ली में यमुना किनारे की.
बात थी 1960 के आसपास की. मेरी बड़ी बुआ डा. सावित्री सिन्हा तब दिल्ली के इन्द्रप्रस्थ कोलिज में हिन्दी पढ़ाती थीं. उनका घर था इन्द्रप्रस्थ कोलिज के साथ से जाती छोटी सी सड़क पर जिसे तब मेटकाफ मार्ग कहते थे, जो अँग्रेज़ो के ज़माने के मेटकाफ साहब के घर की ओर जाती थी जिन्होंने महरौली के पास के प्राचीन भग्नावशेषों को खोजा था और जहाँ आज भी उनके नाम की एक छतरी बनी है.
यमुना वहाँ से दूर नहीं थी, पाँच मिनट में पहुँच जाते थे. तब वहाँ घर नहीं थे, बस रेत ही रेत और कोई अकेला मन्दिर होता था. तभी वहाँ नया नया बौद्ध विहार बना था. वहीं रेत पर दिन में खेलने जाते थे या कभी शाम को परिवार वालों के साथ सैर होती थी.
बीस साल बाद, 1978 के आसपास जब सफ़दरजंग अस्पाल में हाउज़ सर्जन का काम करता था तो अपने मित्रों के साथ बौद्ध विहार के करीब बने तिब्बती ढाबों में खाना खाने जाया करते थे.
इस बार मन में आया कि उन जगहों को देखने जाऊँ. मैट्रो ली और आई.एस.बी.टी. के स्टाप पर उतरा. पीछे से बस अड्डे के साथ से हो कर, सड़क पार करके, यमुना तट पर पहुँचने में देर नहीं लगी. चारों ओर नयी उपर नीचे जाती साँपों सी घुमावदार सड़कें बन गयी थीं.
नदी के किनारे गाँवों और छोटे शहरों से आये गरीबों की भीड़ लगी थी, बहुत से लोग सड़क के किनारे सोये हुए थे, कुछ यूँ ही बैठे ताक रहे थे. उदासी और आशाहीनता से भरी जगह लगी, पर साथ ही यह भी लगा कि चलो बेचारे गरीबों को आराम करने के लिए खुली जगह तो मिली. वहाँ कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा चलाने वाले रैनबसेरे भी हैं जहाँ अधिक ठँड पड़ने पर रात को सोने के लिए कम्बल और जगह मिल जाती है, और दिन में खाने को भी मिल जाता है.
बैठे लोगों को पार करके नदी तक पहुँचा तो गन्दे बदबूदार पानी को देख कर मन विचट गया.
एक ओर निगम बोध पर जलते मृत शरीरों का धूँआ उठ रहा था. जगह जगह प्लास्टिक के लिफ़ाफे और खाली बोतलें पड़ी थीं.
दूसरी ओर छठ पूजा की तैयारी हो रही थी. नदी के किनारे देवी देवताओं की मूर्तियाँ रंग बिरंगे वस्त्र पहने खड़ी थीं. पानी में गहरे पानी में जाने से रोकने के लिए लाल ध्वजों वाले बाँस के खम्बे लगाये जा रहे थे. कुछ लोग नदी के गन्दे पानी में नहा रहे थे.
जिसे यमुना माँ कहते हैं, उसके साथ इस तरह का व्यवहार हो रहा है, उसमें लोग गन्दगी, कचरा, रसायन, आदि फैंक कर प्रदूषण कर रहे हैं. इसे धर्म को मानने वाले कैसे स्वीकार कर रहे हैं? यह बात बहुत सोच कर भी समझ नहीं पाया.
***
पुराणों में यमुना नदी के जन्म की कहानी बहुत सुन्दर है. यमुना के पिता हैं सूर्य और माता हैं संज्ञा, भाई हैं यम. इस कहानी के अनुसार सूर्य देव के तेज प्रकाश तथा उष्मा से घबरा कर संज्ञा अपने पिता के घर भाग गयीं. उन्हें वापस लाने के लिए सूर्य के अपने प्रकाश के कुछ हिस्से निकाल कर बाँट दिये. सूर्य से ग्रहों के उत्पन्न होने की यह कथा, और संज्ञा तथा सूर्य की उर्जा से जल यानि जीवन तथा मृत्यू का जन्म होना, यह बातें आज की वैज्ञानिक समझ से भी सही लगती हैं.
पुराणों की अनुसार, गँगा की तरह यमुना भी देवलोक में बहने वाली नदी थी जिसे सप्तऋषि अपनी तपस्या से धरती पर लाये. देवलोक से यमुना कालिन्द पर्वत पर गिरी जिससे उसे कालिन्दी के नाम से भी पुकारते हैं और पर्वतों में नदी के पहले कुँड को सप्तऋषि कुँड कहते हैं. इस कुँड का जल यमुनोत्री जाता है जहाँ वह सूर्य कुँड के गर्म जल से मिलता है.
भारत की धार्मिक पुस्तकों में और सामान्य जन की मनोभावनाओं में पर्वत, नदियों और वृक्षों को पवित्र माना गया है. नदी में स्नान करने को स्वच्छ होने, पवित्र होने और पापों से मुक्ति पाने की राहें बताया गया हैं. इसलिए नदियों के प्रदूषण के विरोध में साधू संतो ने भी आवाज उठायी है. लेकिन राजनीतिक दलों से और आम जनता में इन लड़ाईयों को उतना सहयोग नहीं मिला है.
***
यमुना के किनारे जहाँ बौद्ध विहार होता था वह सारा हिस्सा पक्के भवनों से भर गया है. जहाँ ढाबे होते थे वहाँ भी पक्के रेस्त्राँ बन गये हैं. जहाँ कुछ तिब्बती लोग बैठ कर ऊनी वस्त्र बेचते थे, उस जगह पर भीड़ भाड़ वाली मार्किट बन गयी है.
मन में लगा कि बेकार ही इस तरफ़ घूमने आया. जितनी मन में सुन्दर यादें थीं, उनकी जगह अब यह सिसकती तड़पती हुई नदी और सूनी आँखों वाले गरीबों के चेहरे याद आयेंगे.
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बात थी 1960 के आसपास की. मेरी बड़ी बुआ डा. सावित्री सिन्हा तब दिल्ली के इन्द्रप्रस्थ कोलिज में हिन्दी पढ़ाती थीं. उनका घर था इन्द्रप्रस्थ कोलिज के साथ से जाती छोटी सी सड़क पर जिसे तब मेटकाफ मार्ग कहते थे, जो अँग्रेज़ो के ज़माने के मेटकाफ साहब के घर की ओर जाती थी जिन्होंने महरौली के पास के प्राचीन भग्नावशेषों को खोजा था और जहाँ आज भी उनके नाम की एक छतरी बनी है.
यमुना वहाँ से दूर नहीं थी, पाँच मिनट में पहुँच जाते थे. तब वहाँ घर नहीं थे, बस रेत ही रेत और कोई अकेला मन्दिर होता था. तभी वहाँ नया नया बौद्ध विहार बना था. वहीं रेत पर दिन में खेलने जाते थे या कभी शाम को परिवार वालों के साथ सैर होती थी.
बीस साल बाद, 1978 के आसपास जब सफ़दरजंग अस्पाल में हाउज़ सर्जन का काम करता था तो अपने मित्रों के साथ बौद्ध विहार के करीब बने तिब्बती ढाबों में खाना खाने जाया करते थे.
इस बार मन में आया कि उन जगहों को देखने जाऊँ. मैट्रो ली और आई.एस.बी.टी. के स्टाप पर उतरा. पीछे से बस अड्डे के साथ से हो कर, सड़क पार करके, यमुना तट पर पहुँचने में देर नहीं लगी. चारों ओर नयी उपर नीचे जाती साँपों सी घुमावदार सड़कें बन गयी थीं.
नदी के किनारे गाँवों और छोटे शहरों से आये गरीबों की भीड़ लगी थी, बहुत से लोग सड़क के किनारे सोये हुए थे, कुछ यूँ ही बैठे ताक रहे थे. उदासी और आशाहीनता से भरी जगह लगी, पर साथ ही यह भी लगा कि चलो बेचारे गरीबों को आराम करने के लिए खुली जगह तो मिली. वहाँ कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा चलाने वाले रैनबसेरे भी हैं जहाँ अधिक ठँड पड़ने पर रात को सोने के लिए कम्बल और जगह मिल जाती है, और दिन में खाने को भी मिल जाता है.
बैठे लोगों को पार करके नदी तक पहुँचा तो गन्दे बदबूदार पानी को देख कर मन विचट गया.
एक ओर निगम बोध पर जलते मृत शरीरों का धूँआ उठ रहा था. जगह जगह प्लास्टिक के लिफ़ाफे और खाली बोतलें पड़ी थीं.
दूसरी ओर छठ पूजा की तैयारी हो रही थी. नदी के किनारे देवी देवताओं की मूर्तियाँ रंग बिरंगे वस्त्र पहने खड़ी थीं. पानी में गहरे पानी में जाने से रोकने के लिए लाल ध्वजों वाले बाँस के खम्बे लगाये जा रहे थे. कुछ लोग नदी के गन्दे पानी में नहा रहे थे.
जिसे यमुना माँ कहते हैं, उसके साथ इस तरह का व्यवहार हो रहा है, उसमें लोग गन्दगी, कचरा, रसायन, आदि फैंक कर प्रदूषण कर रहे हैं. इसे धर्म को मानने वाले कैसे स्वीकार कर रहे हैं? यह बात बहुत सोच कर भी समझ नहीं पाया.
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पुराणों में यमुना नदी के जन्म की कहानी बहुत सुन्दर है. यमुना के पिता हैं सूर्य और माता हैं संज्ञा, भाई हैं यम. इस कहानी के अनुसार सूर्य देव के तेज प्रकाश तथा उष्मा से घबरा कर संज्ञा अपने पिता के घर भाग गयीं. उन्हें वापस लाने के लिए सूर्य के अपने प्रकाश के कुछ हिस्से निकाल कर बाँट दिये. सूर्य से ग्रहों के उत्पन्न होने की यह कथा, और संज्ञा तथा सूर्य की उर्जा से जल यानि जीवन तथा मृत्यू का जन्म होना, यह बातें आज की वैज्ञानिक समझ से भी सही लगती हैं.
पुराणों की अनुसार, गँगा की तरह यमुना भी देवलोक में बहने वाली नदी थी जिसे सप्तऋषि अपनी तपस्या से धरती पर लाये. देवलोक से यमुना कालिन्द पर्वत पर गिरी जिससे उसे कालिन्दी के नाम से भी पुकारते हैं और पर्वतों में नदी के पहले कुँड को सप्तऋषि कुँड कहते हैं. इस कुँड का जल यमुनोत्री जाता है जहाँ वह सूर्य कुँड के गर्म जल से मिलता है.
भारत की धार्मिक पुस्तकों में और सामान्य जन की मनोभावनाओं में पर्वत, नदियों और वृक्षों को पवित्र माना गया है. नदी में स्नान करने को स्वच्छ होने, पवित्र होने और पापों से मुक्ति पाने की राहें बताया गया हैं. इसलिए नदियों के प्रदूषण के विरोध में साधू संतो ने भी आवाज उठायी है. लेकिन राजनीतिक दलों से और आम जनता में इन लड़ाईयों को उतना सहयोग नहीं मिला है.
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यमुना के किनारे जहाँ बौद्ध विहार होता था वह सारा हिस्सा पक्के भवनों से भर गया है. जहाँ ढाबे होते थे वहाँ भी पक्के रेस्त्राँ बन गये हैं. जहाँ कुछ तिब्बती लोग बैठ कर ऊनी वस्त्र बेचते थे, उस जगह पर भीड़ भाड़ वाली मार्किट बन गयी है.
मन में लगा कि बेकार ही इस तरफ़ घूमने आया. जितनी मन में सुन्दर यादें थीं, उनकी जगह अब यह सिसकती तड़पती हुई नदी और सूनी आँखों वाले गरीबों के चेहरे याद आयेंगे.
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