गुरुवार, जुलाई 19, 2007

रँग दे, मोहे रँग दे - स्वयं की तलाश

"आप ने तो मेरा दिल ही तोड़ दिया", वह बोली.

मैंने उससे कहा था कि उसे ठीक से जानने से पहले मुझे उससे कुछ डर सा लगता था.

उसका सिर गँजा है, केवल सिर के बीचों बीच बालों की लाल रँग की मुर्गे जैसी झालर है, कानों में, नाक में, होठों के नीचे, जीभ पर रँग बिरँगे पिन हैं, बाहों पर डिज़ाईन गुदे हैं. जब भी कोई भारतीय साँस्कृतिक कार्यक्रम हो, वह अवश्य आती है, साथ में अपना कुत्ता लिये, अपने जैसे साथियों के साथ. जहाँ वे लोग बैठते हैं, आसपास कोई नहीं बैठना चाहता, सब लोग दूसरी ओर हट जाते हैं.

उन्हें देख कर मन में ईण्लैंड और जर्मनी के गँजे सिर वाले स्किन हैडस (skin heads) की छवि बनती थी, जो अक्सर प्रवासियों पर हमले करते थे, उन्हें मार कर अपने देशों में वापस लौट जाने को कहते थे. यहाँ बोलोनिया में उन्हें पँका-आ-बेस्तिया (Punk-a-bestia) कहते हैं, यह शब्द अँग्रेजी के पँक और इतालवी का बेस्तिया यानि जानवर को मिला कर बना है.

उसे भारतीय संस्कृति से बहुत लगाव है. "देखो मेरी पीठ पर मैंने ॐ लिखवाया है", उसने मुझे दिखाया. उसे शिकायत थी कि मैं भी अन्य इतालवी लोगों की तरह उसके बाहरी रूप पर ही रुक गया था, "तुम्हारे यहाँ लोग हाथों पर, पैरों पर, मैंहदी नहीं लगाते क्या? बाहों पर नाम नहीं गुदवाते क्या? यह सब मैंने भारत में ही देखा था और वहाँ से ही मुझे यह प्रेरणा मिली है."

पँका-आ-बेस्तिया अपने आप को समाज के दायरे से बाहर कर लेते हैं, पुराने खाली घरों में या फुटपाथ पर रहते हैं, सँगीत और स्वतँत्रता से प्यार करते हैं, समाज का कोई नियम नहीं मानते.उनके लिए जीवन का ध्येय पैसा कमाना, विवाह करना, घर बसाना आदि नहीं, बल्कि वह करना है जिसको करने को उनका दिल चाहे.

बोडी आर्ट यानि शरीर कला में मानव शरीर ही कलाकार का चित्रपट बन जाता है. शरीर को गुदवाना या शरीर को बोडी आर्ट (body art) के रँगों से सजाना तरीके हैं ध्यान खींचने का, यह दर्शाने का कि हम सबसे भिन्न हैं. इनकी प्रेरणा शायद इन्हें भारत से मिलती हो पर भारत में यह हमारे जीवन के, सँस्कृति के हिस्से हैं, विभिन्नता का माध्यम नहीं.

सब लोग केवल समाज के नियम तोड़ने के लिए ही अजीब गरीब भेस बनाते हों, ऐसा नहीं. आजकल मीडिया और संचार की दुनिया है, आप जितना अजीबोगरीब होंगे, उतना ही लोग आप की तस्वीर खींचेगे, छापेंगे या टीवी पर दिखायेगें. जैसे अमरीकी बास्किटबाल लीग एनबीसी के खिलाड़ी डेनिस रोडमैन जिनके रँग बिरँगे सिर की वजह से उनके लिए टीवी और पत्रिकाओं में जगह की कमी नहीं रहती, चाहे वे जैसा भी खैंले!

इन्हीं विचारों से जुड़ी कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं जिनमें दायरों से बाहर निकल कर अपने स्वयं की तलाश का चित्रण है.



बोडी आर्ट (Body art) का एक भारतीय नमूना हुसैन की फ़िल्म मीनाक्षी से


रोडमैन का रँग बिरँगा सिर


बोलोनिया का एक पँका-आ-बेस्तिया




रँग बिरँगी बोडी आर्ट

आस्ट्रेलिया की कलाकार एम्मा हेक द्वारा भारतीय कला से प्रभावित सजाई गयी मोडल निकोल जेम्स

शनिवार, जुलाई 07, 2007

मैं पिता हूँ या माँ?

यहाँ के स्थानीय समाचार पत्र में दो बातों ने ध्यान खींचा. एक तो था पूरे पृष्ठ का विज्ञापन, जिस पर बड़ा बड़ा लिखा था, "साहसी पिता - पुरुष जो बदलते हैं, दुनिया बदल सकते हैं". विज्ञापन का ध्येय है कि घर के कामों का बोझ केवल स्त्री पर नहीं होना चाहिये बल्कि पुरुष को घर के उन कामों में हाथ बँटाना चाहिये जो अधिकतर लोग "नारी कार्य" के रूप में देखते हैं जैसे कि सफाई करना, कपड़े धोना, बच्चों की देख भाल करना और उनके साथ खेलना.



दूसरी ओर एक समाचार अमरीका से भी था, "थरथराईये, सुपर पिता आ रहे हैं", यानि वे नव पिता जो अपने पिता होने को बहुत गम्भीरता से लेते हैं, इतनी गम्भीरता से कि वह माँ को कुछ नहीं करने देते और बच्चे के सभी काम स्वयं करते हैं. उन्होंने इन पिताओं को "Mom blocker" यानि कि माँ को रोकने वाले बुलाया है. बच्चे के बारे में छोटे बड़े सभी निर्णय वह स्वयं लेते हैं और माँ को बीच में दखलअंदाज़ी की अनुमति नहीं देते. इन पिताओं का ही एक उदाहरण हैं श्री ग्रेग एलन जिनका चिट्ठा है डेडीटाईपस (Daddytypes) और जो स्वयं को सुपरमामो (Supermammo)कहते हैं, यानि माँ से बढ़ कर माँ. समाचार का कहना है कि बहुत से माँए इन पतियों से बहुत परेशान हैं.

सोच रहा था कि क्या पुरुष और नारी का घर में अलग अलग रोल होना कहाँ तक ठीक है और कहाँ गलत? परम्परा कहती है कि पुरुष है नौकरी करने वाला, घर में काम नहीं करेगा, अनुशासन का प्रतीक, बच्चों के काम में घर में वह कुछ नहीं करेगा, आदि और नारियों के लिए इसका उलटा. पर आज के वातावरण में यह सँभव नहीं, शहरों में बहुत सी औरतों के लिए नौकरी करना आज आम बात है, चाहे वह आर्थिक जरुरत हो या व्यक्तिगत निर्णय, तो पुरुष को चाहते या न चाहते हुए भी कुछ तो बदलना ही पड़ता है. ऐसे पुरुष जो हर बात में बराबर काम बटाँयें तो कम ही होंगे, चाहे पत्नी का काम कितना ही कठिन क्यों न हो, घर की अधिकतर जिम्मेदारी उसी पर रहती है. प्रश्न है कि क्या इसको बदलना चाहिये या बदलने की कोशिश करनी चाहिये?

बदलाव तो धीरे धीरे आयेगा ही. यहाँ करीब 40 प्रतिशत विवाह तलाक में समाप्त होते हैं, और अकेला रहने वाला पुरुष, चाहे या न चाहे, उसे बदलना तो पड़ता ही है. तलाक लेने वालों में करीब 20 प्रतिशत पुरुष के बच्चे पिता के साथ रहते हैं, तो उसे माँ और पिता दोनो बनना ही पड़ता है, हाँ इसमें वह कितना सफल होता है या विफल, यह अलग बात है.

बिना विवाह के साथ रहने वाले युगल भी बहुत हैं और तेजी से बढ़ रहे हैं. इस तरह के परिवार जहाँ अविवाहित युगल रहते हैं, शौध ने दिखाया है कि उनमें पुरुष और स्त्री दोनो को बराबर काम बाँट कर करना पड़ता है और स्त्री पर घर के काम का बोझ कम होता है.

पर इन सबसे अलग भी एक बात है. मेरे विचार में हर मानव में पुरुष और नारी के गुण होते हैं पर बचपन से ही हमें "पुरुष ऐसे करते हैं", "नारियाँ वैसे करती हैं" के सामाजिक नियम सिखाये जाते हैं और इन सीखे हुए रोल से बदलना भीतर ही भीतर हमें अच्छा नहीं लगता क्योंकि मन में डर होता कि लोग क्या सोचेगें, क्या वे सोचेंगे कि मैं पूरा पुरुष नहीं या अच्छी स्त्री नहीं. काम करने वाली औरतें अपने अपराध बोध की बात करती हैं कि बच्चों का ध्यान ठीक से नहीं दे पातीं. लेकिन जब चाहे न चाहे, परिस्थितियाँ हमें मजबूर करती हैं कि हम अपने पाराम्परिक रोल की सीमा से बाहर जायें तो हम सचमुच अपने व्यक्तित्व को उसका स्वतंत्र रूप दे सकते हैं, अपने भीतर के नारी और पुरुष भाग को स्वीकार कर सकते हैं. एक बार इस स्वतंत्रता का अहसास हो जाये तो फ़िर हमें लोग क्या कहेंगे इसकी चिंता भी कम होती है.

शुक्रवार, जुलाई 06, 2007

अगर आप अविवाहित हैं

अगर आप की शादी नहीं हुई और शादी करने की सोच रहें हैं तो फटाफट कल सात जुलाई को अपनी शादी करिये. यह सलाह दे रहें हैं दुनिया भर के न्यूमोरोलोजिस्ट यानि अँकों के हिसाब से भविष्य बताने वाले. क्यों? क्यों कि कल 07/07/07 तारीख है और सात बहुत शुभ अंक है. सात दुनिया के आश्चर्य हैं, सात तारे हैं सप्तऋषी में, यह कहना है उनका.

शादी का सबसे बढ़िया महूर्त है सुबह सात बजे और शाम को सात बजे. लोगों ने इस दिन विवाह करने के लिए शादी के हाल, गिरजाघर आदि की बुकिंग कई साल पहले से कर रखी थी. लास वेगास में बुकिंग का जोर अन्य जगहों से अधिक है. लिटिल व्हाईट वेडिंग चेपल में सामूहिक विवाह होंगी, जिसमें हर बार में सात युगल एक साथ विवाह बँधन में बधेंगे, शादी की फीस होगी 77 डालर और गिरजाघर इसी फीस में शादी के साथ साथ उन्हें सात फ़ूलों का गुलदस्ता देगा और सात मुफ्त फोटो भी.

खैर अगर आप सो रहे थे और आप इस दिन अपनी शादी पक्की करना भूल गये तो घबराईये नहीं, अगले साल दो विषेश दिन हैं विवाह के लिए 06/07/08 और 08/08/08.

यह उन्होंने नहीं कहा कि 6,7,8 अंक साथ आने का क्या विषेश पवित्र अर्थ है? शायद भगवान को पत्तों का शौक है और इस नम्बर को पाने वाला किस्मत की बाजी जीत जायेगा? यह भी नहीं कहा कि आठ नम्बर का तीन बार आने से क्या विषेश महत्व है? शायद इस लिए कि अष्टमी को देवी का दिन होता है, या फ़िर सप्त ऋषी के साथ ध्रुव तारा मिलने से आठ तारे बन जाते हैं या फ़िर कोई और वजह होगी जिसे आप जैसे मंदबुद्धि वाले लोग नहीं समझ सकते.

अगर आप तारीख को 07/07/2007 लिखते हैं तो आप के लिए यह दिन उतना शुभ नहीं रहेगा क्योंकि आप ने 2 को बीच में डाल कर सात की शुभता पर पत्थर मारा है.

यहाँ हम यूँ ही कोसते रहते हैं कि ज्योतिषियों, अन्धविश्वासियों ने भारत का बुरा हाल किया है, उधर सारी दुनिया में होने वाली धक्का मुक्की देख कर लगता है कि उनके नयूमरोलोजिस्ट किसी ज्योतिषी से कम नहीं. अब किसी भारतीय ज्योतिषी के प्रवचन का इंतजार है जो हमें समझा सके कि भारतीय ज्योतिष किस तरह से इन दो दो चार गिनने वालों से अधिक ऊँचा है और भविष्यवाणी करे कि किस तरह 07/07/07 को शादी करने वालों के सबके तलाक 08/08/08 तक हो जायेंगे.

बुधवार, जुलाई 04, 2007

गुँडागर्दी का इलाज

अँग्रेजी अखबार द फाईनेंशियल टाईमस में एक चिट्ठी छपी जिसमें फिल्मों में बढ़ती हुई मार काट और हिँसा के बारे में चिंता व्यक्त थी. अखबार के एक लेखक श्री टिम हारफोर्ड ने इस पत्र के उत्तर में लिखाः

"यह आवश्यक नहीं कि हिँसक फिल्मों से समाज में हिँसा पैदा होगी. जब गुँडे या मारधाड़ करने वाले लोग हिँसक फिल्म देखने जाते हैं तो न बियर पीते हैं न आपस में मार पिटाई करते हैं. दो अर्थशास्त्री, गोर्डन डाह्ल और स्टेफानो देला वीन्या ने एक शोध में पाया है कि जब मल्टीपलैक्स में हिँसक फिल्में दिखाई जाती हैं, तो आसपास के इलाके में शाम से ले कर सुबह तक के समय में अपराध कम हो जाते हैं. पर अगर कोई रोमानी फिल्म दिखाई जाती है, तो गुँडा टाईप के लोग पब में जा कर अधिक बियर पीते हैं और उनके मार पिटाई करने का अनुपात बढ़ जाता है. डाह्ल और वीन्या के शौध के अनुसार, हिँसक फिल्में अमरीका में प्रति दिन, कम से कम 175 अपराध कम करने में मदद करती हैं."

यानि कि आप के शहर में गुँडागर्दी अधिक हो तो, सिनेमा हाल वाले से कहिये कि जितनी हिँसा से भरी फिल्म दिखा सकता है दिखाये. पर इस शौध से यह पता नहीं चलता कि यह बात केवल अमरीका के गुँडों के लिए सही है या फ़िर भारतीय गुँडों पर भी लागू हो सकती है? आप का क्या विचार है?

दूसरी बात तुरंत प्रभाव और लम्बे प्रभाव की है. यह हो सकता है कि तुरंत प्रभाव में हिँसक फिल्म देख कर गुँडों की हिँसा भावना तृप्त हो जाये पर यह तो नहीं कि बढ़ी हिँसा देखने के बाद जब भी हिँसा का मौका आयेगा, वह अधिक हिँसक हो जायेंगे?
जिस तरह अमरीका सारी दुनिया में यहाँ वहाँ हमले करते रहता है वह भी हिँसक फिल्मों का लम्बा प्रभाव तो नहीं? यानी शौध की जानी चाहिये कि बुश जी और डोनाल्ड रम्सफेल्ड जैसे उनके युद्धप्रेमी साथियों को किस तरह की फिल्में देखना पसंद है, रोमानी या मारधाड़ वाली?

***

चालाक भिखारी

दो सप्ताह पहले की बात है. लिसबन हवाई अड्डे से बाहर निकला और टैक्सी की लाईन की ओर बढ़ रहा था कि एक युवती आयी. हाथ से खींचती सामान की ट्राली, बोलने में हल्की सी हिचकिचाहट, बोली कि उसका पर्स खो गया है और उसे मैट्रो लेने के लिए केवल एक यूरो चाहिये. सोचा कि बेचारी यात्री है जिसका यात्रा में पर्स खो गया होगा, तुरंत उसे पाँच यूरो का नोट दिया. फ़िर जब तक टैक्सी की लाईन में खड़ा रहा, उसे देखता रहा, कि वह वही कहानी हर आने वाले को सुनाती थी, और बहुत से लोगों ने उसे पैसे दिये. उस दस पंद्रह मिनट में ही उसने बहुत पैसे बना लिए थे.

एक बार फ़िर भीख माँगनें वालों ने नये तरीके से मुझे हरा दिया था.

कुछ भी हो भीख नहीं दूँगा, यह सोचता हूँ और किसी नवयुवक तो कभी भी नहीं. जाने क्यों मन में लगता है कि नवयुवक पैसे ले कर नशे का सामान खरीदते हैं. नशे की आदत से मरना अगर उनकी किस्मत है तो उसमें मैं क्या कर सकता हूँ पर कम से कम इतना तो कर सकता हूँ कि मैं उसमें योगदान न दूँ!

इस बात से एक और दुख था कि अगली बार हवाई अड्डे पर कोई मदद माँगेगा तो मन में शक ही होगा कि ड्रामा तो नहीं कर रहा. हर जगह पहले से ही शक होता जब बस या ट्रेन स्टेशन पर कोई इस तरह से टिकट खरीदने के लिए पैसे माँगता है.

फ़िर कल शाम को काम से वापस आ रहा था कि एक नया दृश्य देखा. एक युवक सड़क के किनारे बैठा था. साथ में कुत्ता. सामने उसकी टोपी पैसों के लिए रखी हुई थी और एक कागजं पर साथ में लिखा था, "मेरी मदद कीजिये". और वह युवक एक किताब पढ़ने में मग्न था. आने जाने वालों को नजर उठा कर भी नहीं देख रहा था. मुझे उसकी यह बात पसंद आयी, मन में सोचा कि किताब पढ़ने के प्रेमी भिखारी की मदद की जा सकती है! शायद बेचारे के पास किताबें खरीदने के लिए पैसे नहीं थे!

रविवार, जुलाई 01, 2007

टिप्पणियों की धूँआधार बारिश

आज हिंदी अभिनेता आमिर खान का चिट्ठा देखा, द लगान ब्लोग (The Lagaan Blog). 29 जून को उन्होंने चिट्ठा लिखा "घजनी" के शीर्षक से, और इन दो दिनों में इस चिट्ठे को मिली हैं 766 टिप्पणियाँ, वह भी छोटी मोटी टिप्पणियाँ नहीं कि किसी ने एक दो वाक्य लिखे हों, बल्कि कई लोगों की टिप्पणियाँ चिट्ठे से अधिक लम्बी हैं.

यह सच भी है कि जाने पहचाने प्रसिद्ध लोग क्या कहते हैं, क्या सोचते हैं, कैसे वे फ़िल्मे बनती हैं जिनके हम सब दीवाने होते हैं, यह सब बातें बहुत दिलचस्प लगती हैं और सुप्रसिद्ध अभिनेता द्वारा लिखी बात पढ़ना, फ़िल्मी पत्रिकाओं में छपे साक्षात्कारों से अधिक दिलचस्प लगता है.

पर अगर आमिर खान की तरह अन्य जनप्रिय अभिनेता और अभिनेत्रियाँ अगर चिट्ठे लिखने लगेंगे तो फ़िल्मी पत्रिकाँए कौन पढ़ेगा? पर शायद इसका खतरा अधिक नहीं क्योंकि मेरे विचार में ढँग से चिट्ठा लिखने के लिए कुछ दिमाग चाहिये और मुझे जाने क्यों लगता है कि बहुत से प्रसिद्ध अभिनेता फ़िल्में में ही अच्छे लगते हैं, उनकी बातें सुन कर मन में बनी उनकी छवि टूट सकती है. अधिकतर अभिनेताओं का आत्मकेंद्रित जीवन बोर करने वाला लगता है.

और अगर वह लोग परदे के पीछे हो रहे काम के बारे में या अपनी भावनाओं के बारे में सच सच लिखने लगे तो शायद उन्हें काम मिलना ही बंद हो जाये. जैसे कि सोचिये कि कोई अभिनेत्री लिखे कि सुल्लु मियाँ यानि सलमान खान के साथ गाने का सीन बड़ा कष्टदायक था क्योंकि शायद वह सुबह दाँत ब्रश करना भूल गये थे तो क्या आगे से सलमान जी उस अभिनेत्री के साथ काम करेंगे?

पर अगर आमिर जैसे प्रसिद्ध लोग हिंदी में चिट्ठा लिखें तो इससे हिंदी चिट्ठा जगत को बहुत लाभ होगा, सामान्य जनता में हिंदी का मान भी बढ़ेगा और हिंदी चिट्ठा जगत नाम की किस चिड़िया का नाम है, यह मालूम भी चलेगा.

इटली में सबसे प्रसिद्ध चिट्ठा लेखक श्री बेपे ग्रिल्लो (Beppe Grillo) जी भी अभिनेता हैं. अभिनेता के रूप में वह अपनी कामेडी और व्यंग के लिए अधिक प्रसिद्ध थे. पर चिट्ठाकार के रूप में उन्होंने इतालवी जन सामान्य का ध्यान बहुत सी समस्याओं की ओर खींचा है और समाजसुधारक चिट्ठाकार के रूप में जाने जा रहे हैं. उनके चिट्ठों पर भी कई सौ टिप्पणियाँ मिल जाती हैं. उनका नया अभियान है इतालवी संसद में सजा पाये अपराधी संसद सदस्यों की ओर ध्यान खींचना ताकि संसद इन लोगों को कानून से न बचाये.

शनिवार, जून 30, 2007

विभिन्नता का गर्व

हर वर्ष की तरह फ़िर से बहस हो रही है कि वार्षिक समलैंगिक गर्व परेड को शहर में प्रदर्शन की अनुमति दी जाये या नहीं. करीब तीस साल पहले, 1978 में बोलोनिया में पहली समलैंगिक केंद्र खुला था, जो इटली में अपनी तरह का पहला केंद्र था. तब से बोलोनिया ने खुले, सहिष्णु शहर की ख्याती पायी है पर इस सब के बावजूद हर वर्ष वही बहस, यानि कि बहुत से लोगों के मन में बसे विचार जो समलैंगिगता को गलत मानते हैं और उसे स्वीकार नहीं करना चाहते, वह बहुत गहरे हैं और इतनी आसानी से नहीं बदलते.

कुछ लोग कहते हैं कि मान लिया कि समलैंगिक लोग भी हैं, उनके अधिकार भी हैं पर वह चुपचाप अपने आप में क्यों नहीं रहते, उनका इस तरह सड़क पर "गर्व परेड" करने का क्या अर्थ है? यानि अगर रहना ही है तो चुपचाप रहिये, शोर नहीं मचाईये, न ही सबके सामने उछालिये कि आप विभिन्न हैं, कोई आप को कुछ नहीं कहेगा. पर यह सच नहीं है. समाज में बहुत भेदभाव है, जब तक दब कर, चुप रह कर, छुप कर रहो, वह भेदभाव सामान्य माना जाता है, उससे लड़ना संभव नहीं होता. अगर मिलिटरी वाले परेड कर सकते हैं, पुलिस, स्काऊट, सर्कस वाले, कलाकार, विभिन्न श्रेणियों के लोग सबके सामने प्रदर्शन करते हैं, अपनी बात रखते हैं तो समलैंगिक लोगों को यह अधिकार क्यों न हो. बल्कि मैं मानता हूँ कि समलैंगिक गुटों की तरह अन्य अम्पसंख्यक और समाज से दबे सभी गुटों को यह अधिकार होना चाहिये जैसे प्रवासी, विकलाँग, अन्य धर्मों को लोग, इत्यादि.

यह बहस सिर्फ इटली में ही नहीं हो रही. पूर्वी यूरोप के बहुत से देश जो कई दशकों के बाद सोवियत प्रभाव और कम्युनिस्म से बाहर निकले हैं, वहाँ भी यही बहस चल रही हैं और कई देशों में इस तरह के प्रदर्शनों को सख्ती से दबाया जा रहा है. वहाँ यह भी कहा जा रहा है कि "यह समलैंगिकता हमारी सभ्यता में ही नहीं है, यह तो केवल यूरोप की गिरी हुई सभ्यता के सम्पर्क में आने से हो रहा है कि हमारे यहाँ भी इस तरह की बीमारियाँ फ़ैलने लगी हैं.". उनका मानना है कि इस छूत की बीमारी है जो उसके बारे में बात करने से फ़ैलती है. इन वर्षों में रूस, पोलैंड, लेटोनिया, लिथुआनिया जैसे देशों में समलैंगिक गर्व परेड में भाग लेने वालों पर हमले किये गये, कभी पुलिस ने मारा, तो कभी राष्ट्रवादी कट्टरपंथियों ने और पुलिस चुपचाप देखती रही.

बहुत देशों में समलैंगिक सम्पर्क को कानूनन अपराध माना जाता है जैसे कि भारत में, जहाँ कुछ समय से यह कानून बदलने के लिए अभियान चल रहा है. इटली में यह कानून 1887 में हटा दिया गया था और 2003 में नया कानून बना जिससे उनके साथ काम के स्थान पर भेदभाव नहीं किया जा सकता, पर आज भी इटली में मिलेटरी तथा पुलिस में समलैंगिक लोगों को जगह नहीं मिलती. कुछ दिन पहले ब्रिटेन ने नया कानून बना कर मिलेटरी तथा पुलिस में समलैंगिक लोगों के साथ होने वाले भेदभाव को समाप्त किया है. पोलैंड में यह कानून 1932 में बदला गया, रूस में 1993 में, पर दोनो जगह कानून सही होते हुए भी भेदभाव बहुत है.

अमरीकी रंगभेद से लड़ने वाले अश्वेत लोगों ने संघर्ष का यह तरीका बनाया था कि जिस कारण से भेदभाव होता है उसी को गर्व का विषय बना दो. इस तरह काले-गर्व यानि Black Pride की बात उठी थी. विकलाँग लोगों ने भी, क्रिपल (cripple) जैसे शब्दों को ले कर उन्हें गर्व के शब्द बनाने की कोशिश की है. समलैंगिक गर्व परेड की कहानी 28 जून 1968 में न्यू योर्क के स्टोनवाल बार इन्न (Stonewall Bar Inn) पर पुलिस से हुई लड़ाई से प्रारम्भ हुई थी.

मैं सोचता हूँ हर तरह का भेदभाव चाहे वह हमारे रंग से हो, हमारी यौन प्रवृति से, हमारे शरीर के विकलाँग होने से, या हमारे धर्म से, या सोचने की वजह से, सब भेदभाव मानवता को कमजोर करते हैं और हम सबको मिल कर उनका विरोध करना चाहिये.

आज की तस्वीरों में बोलोनिया की पिछले वर्ष की समलैंगिक गर्व परेड.







शुक्रवार, जून 29, 2007

मैं हिना हूँ

हिना २२ साल की पाकिस्तानी मूल की थी. पिछले वर्ष उसके पिता और चाचा ने मिल कर उसे मार दिया. उस पर आरोप था कि वह अपनी सभ्यता को भूल कर पश्चिमी सभ्यता के जाल में खो गयी थी, क्योंकि वह अपने इतालवी प्रेमी और साथी ज्यूसेप्पे के साथ रहती थी. (तस्वीर में हिना)



कल हिना का मुकदमे की ब्रेशिया शहर की अदालत में पहली पेशी थी. सुबह अदालत के बाहर करीब सौ मुसलमान युवतियाँ एकत्रित हो गयीं, उनके हाथ में बैनर था जिस पर लिखा था, "मैं हिना हूँ". कुछ राजनीतिक पार्टियों के लोग भी थे वहाँ और टुरिन शहर के ईमाम भी थे. उन सब का यही कहना था कि इस्लाम का अर्थ केवल बुर्का या पिछड़ापन नहीं है, हम लोग भी मुसलमान हैं और हमें अपनी तरह से जीने का हक मिलना चाहिये.

उदारवादी प्रशासनों के लिए प्रश्न है कि किस तरह से वह विभिन्न धार्मिक मान्यताओं का मान रखते हुए मानव अधिकारों का भी उतना ही मान रखें? इससे पहले बहुत बार विभिन्न धार्मिक प्रतिबँधियों ने विभिन्न शहरों के प्रशासनों से माँग की हैं कि उन्हें अपने धर्म का पालन करने की और अपनी सभ्यता के अनुसार रहने की पूरी स्वतंत्रता चाहिये, जैसे कि मुसलमान औरतों को बुर्का पहनने की स्वतंत्रता हो, सिख पुरुषों को पगड़ी पहनने की, इत्यादि.

पर कल हिना के मुकदमें के साथ हो रहे प्रदर्शन में स्त्रियों का कहना था कि प्रशासन इस तरह की माँगों को मान कर मुसलमान स्त्रियों को रूढ़ीवादी पुरुष समाज के सामने निर्बल छोड़ देता है, और स्त्रियों को घर में बंद करके रखा जाता है, यह करो यह न करो के, यह पहनो यह न पहनो, जैसे आदेश दिये जाते हैं जो कि उनके मानव अधिकारों का हनन हैं.

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