शनिवार, दिसंबर 29, 2007

कट्टरपँथी और जनतंत्र

इन दिनों मेरी छुट्टियाँ चल रहीं हैं. छुट्टियों के पहले कुछ दिन ससुराल में बीते. अब वापस घर आये तो इंटरनेट पर मटरगश्ती करने का समय मिला है जो सारा साल काम की वजह से कम ही मिलता है. इसलिए देश विदेश में कौन क्या कह रहा है, क्या लिख रहा है उसे पढ़ने का मौका मिल रहा है. आज जो पढ़ा उस के बारे में लिखना चाहता हूँ. शायद यह बातें अलग अलग हैं और उन्हें इस तरह साथ जोड़ना कितना ठीक है, कितना गलत यह निर्णय आप पर छोड़ता हूँ.

मिस्री मूल के लेखक और पत्रकार श्री मगदी अल्लाम (Magdi Allam) इटली के लोकप्रिय अखबार "कोरियेरे देला सेरा" (Correire Della Sera) के वरिष्ठ सम्पादक दल का हिस्सा हैं. पिछले कुछ समय से वह इस्लामी जिहाद और आतंकवाद के विरुद्ध लिख रहे हैं जिसकी वजह से उन्हें जान से मारने की धमकियाँ मिलीं हैं और उन्हें इतालवी सरकार ने राजकीय सुरक्षा दी है. पाकिस्तानी नेता बेनज़ीर भुट्टो के खून के बारे में 29 दिसंबर की अखबार में "इस्लाम और जनतंत्र" के नाम से बहुत कठोर सम्पादकीय लिखा है. उनका कहना है किः

"इस्लाम और जनतंत्र में आपसी विरोधाभास है और यह दोनो बातें एक साथ नहीं हो सकतीं कि इस्लाम बहुमत के देश में जनतंत्र स्थापित हो. जो भी देश अपने आप को "इस्लामी जनतंत्र" का नाम देते हैं जैसे पाकिस्तान, ईरान, अफगानिस्तान आदि, वहाँ जनतंत्र है ही नहीं. इस्लामी कान्फेरेंस संस्था के 56 देशों में से कोई भी देश जनतंत्र के नियमों का पूरी तरह से पालन नहीं करता, वहाँ जनतंत्र नाम के लिए है और वहाँ विभिन्न मानव अधिकारों की अवहेलना की जाती है... आधुनिक इतिहास यही दिखाता है कि इस्लामी बहुल्य के देश के जनतंत्र तभी सही होता जब शासन में धार्मिक वर्ग को अन्य जननीतियों से अलग रखा जाये. अगर यह भेद नहीं रखा जाता तो रूढ़िवादी और कट्टरपंथी लोग आम जीवन की हर बात में अपनी दखलदाँज़ी की जबरदस्ती करते हैं. चूँकि इस्लाम में कोई एक व्यक्ति या पद नहीं जिसे सबसे ऊपर माना जाये, हर धार्मिक नेता अपनेआप को धर्म का सच्चा रखवाला कहता है और चाहता है कि उसकी बात मानी जाये. इसी वजह से, इतिहास बताता है कि अन्य धर्मों से झगड़ा करने से पहले, इस्लाम अपने भीतर ही झगड़ों में उलझा रहा है..."
कल, 28 दिसंबर के एक अन्य इतालबी अखबार "लिबेरात्स्योने" (Liberazione) में, इतालवी पत्रकार फ्राँचेस्का मार्रेत्ता का लिया हुआ पाकिस्तानी मूल के ईण्लैंड में रहने वाले प्रसिद्ध लेखक हनीफ़ कुरैशी से एक साक्षात्कार भी छपा है. उसे भी आज ही पढ़ा. उन्होंने ने भी कुछ इसी तरह की बात कही हैः

"पाकिस्तान को मुसलमानों के लिए जनतंत्र की तरह सोच कर बनाया गया था, पर मुसलमान जनतंत्र में नहीं रह सकते, क्योंकि वे धर्म को बाकी सब बातों के सामने रखते हैं. मेरा अपना व्यक्तिगत विचार है कि पाकिस्तान को अलग देश नहीं बनाना चाहिये था, उसे भारत का हिस्सा ही रहना चाहिये था."
फ़िर पढ़ा भारतीय अँग्रेजी की अखबार इँडियन एक्सप्रेस (Indian Express) में श्री अरुण शोरी का नया लेख, "हिंदुत्व तथा उग्रवादी इस्लामः जहाँ यह दोनो मिलते हैं" (Hindutva and radical Islam: Where the twain do meet). इस लेख में शोरी जी का कहना है कि "हिंदुत्व उग्रपंथी इस्लाम से कम कट्टरपंथी नहीं है" वाली बात में अतिश्योक्ति है पर साथ ही कुछ सच्चाई भी है और हर धर्म के ग्रंथों में हिंसा को सही मानने वाली बात मिल सकती है. वह गाँधी जी के हिंदू विश्वास और बाल गंगाधर तिलक के हिंदू विश्वास की विभिन्नता की बात करते हैं और कहते हैं कि भगवद् गीता से हमें हिंसा का हिंसा से उत्तर देने की शिक्षा मिलती है.

उनके लेख पढ़ कर कुछ डर सा लगा, मानो वे चेतावनी दे रहे हों कि हिंदू हिँसा बढ़ने वाली है, बढ़ रही है. उससे भी अधिक डर लगा इस बात से कि शायद वह इस हिंसा को ही उचित मान रहे हैं.

शायद आज यह समझना आवश्यक है कि उग्रवाद, रूढ़िवाद, कट्टरपन, आदि जैसी बातें किसी एक धर्म की धरौहर नहीं, हर धर्म को अपनी चपेट में ले सकती हैं, हर धर्म को निर्भीक विचारक चाहियें जो किसी भी रुप में हिंसा को उचित न स्वीकारें, जो हमेशा उसका विरोध कर सकें. जो यह माने कि कोई भी धर्म मानव से हट कर या ऊँचा नहीं, और हर धर्म में मानव को उस पर खुल कर बहस करने, उसकी आलोचना करने का अधिकार हो.

सोमवार, दिसंबर 24, 2007

बच्चे को दूध पिलाता पुरुष

अँग्रेजी जूआ खेलने वाली कम्पनी पोवरबिंगो के नये इश्तेहार ने कुछ खलबली सी मचा दी है. लंदन की अँडरग्राउड मैट्रो ने और आयरलैंड में डबलिन की बसों ने इस विज्ञापन को लगाने पर रोक लगा दी है कि क्योंकि उनका कहना है कि इस तरह के इश्तेहारों से जन सामान्य की भावनाओं को ठेस पहुँचती है.

विज्ञापन में है गोद में छोटे बच्चे को लिया हुआ एक पुरुष जिसने अपनी कमीज़ ऊपर उठा रखी है जिससे लगता है कि बच्चा उसके स्तन से दूध पीने वाला है. विज्ञापन पर लिखा है "सारी औरतें कहाँ चली गयीं?"



जब से यह बैन हुआ तब से इस विज्ञापन पर बहस चल रही है. बहुत से लोग कहते हैं कि ऐसी कोई बुरी बात नहीं है इस विज्ञापन में पर उन्हें पुरुष मोडल कोई अधिक सुंदर लड़का चुनना चाहिये था. शायद बुरा लगने वाली बात है कि विज्ञापन के अनुसार आज की नारियाँ बच्चों का ध्यान कम रखती हैं और जूआ खेलने में लगी हैं? या कि पुरुष को बच्चों का धयान रखना पड़े यह बुरी बात है? या फ़िर पुरुष के स्तन का हिस्सा दिखाना बुरी बात है?

मेरे विचार में आज नारी और पुरुष के सामाजिक रोल बदल रहे हैं और विज्ञापन इस बदलाव का लाभ उठा कर अपना संदेश देने में सफल भी होते हैं और साथ ही, समाज को मजबूर करते हैं कि वह इन बदलते रूपों पर सोचे और नये जीवन मूल्यों को बनाये.

विज्ञापन चाहे जो भी कहे, अधिकतर घरों में सच्चाई यही है कि पुरुष घर और बच्चों की जिम्मेदारी में कम ही भाग लेते हैं. चाहे वह किसी खेल में हिस्सा लेने जाने की बात हो, चाहे मित्रों के साथ शाम बाहर बिताने की, अधिकतर पुरुष ही जाते हैं. अगर बच्चों को देखने वाला कोई हो तो पुरुष के साथ नारी भी जाती है पर पुरुष घर में रहे और अकेली नारी बाहर सहेलियों के साथ घूमने जाये, यह कम ही होता है. समाज में नारी पर अच्छी माँ बनने का बहुत दबाव होता है, नौकरी की वजह से भी घर से या बच्चों से दूर रहना पड़े तो भी, अच्छी माँ न होने का अपराध बोध उसे सताता है. अच्छी माँ वही होती है जो अपने सपने भूल कर, अपनी चाहों को दबा कर, बच्चों के लिए त्याग करे और घर में रहे, यही सबक सिखया जाता है आज भी लड़कियों को. अगर कोई विज्ञापन इस बात पर ध्यान आकर्षित करे तो मेरे विचार में यह अच्छी बात है.

मैं यह नहीं कहता कि औरतों को पुरुषों की तरह होना चाहिये, पर मेरा विचार है कि आज के बदलते जीवन में पुरुष और नारी के बीच में घर की जिम्मेदारियाँ जिस तरह बँटीं हैं वे बदल रही हैं, उन्हें बदलना चाहिये.

दूसरी बात इस विज्ञापन में प्रयोग की गयी तस्वीर के बारे में है. मेरे विचार में तस्वीर में बुराई नहीं बल्कि इससे समाज के अन्य पहलुँओं पर भी विमर्श किया जा सकता है. मान लीजिये कि विज्ञापन पर लिखा होता, "अगर पुरुष भी बच्चों को दूध पिला पाते तो क्या आज इस दुनिया में युद्ध कम होते?", तो आप को कैसा लगता?


पेरिस के झाड़ूमार

फ्राँसिसी पत्रकार फ्रेड्रिक पोटे (Frédéric Potet) ने ले मोंड 2 (Le Monde 2) में पेरिस के सफाई कर्मचारियों के जीवन के बारे में एक लेख लिखा है. इसे लिखने के लिए वे दो सप्ताह तक सफाई कर्मचारियों की पौशाक पहन कर उनके साथ साथ रहे, उनके साथ काम किया ताकि उनके जीवन को ठीक से समझ सकें.

अपने अनुभव के बारे में वह बताते हैं कि जब पहले दिन वह सफाई कर्मचारियों के दफ्तर में पहुँचे तो लोगों ने उनसे पूछा, "क्या तुम्हें अखबार से निकाल दिया है? या फ़िर कोई सजा मिली है?" जब फ्रेड्रिक ने बताया कि वह लेख लिखने के लिए उनके हर रोज के जीवन का अनुभव करना चाहते हैं तो एक सफाई कर्मचारी बोला, "शायद तुमने कुछ पाप किये होंगे तभी तुम्हें यहाँ आना पड़ा".

फ्राँस में भारत की तरह से जाति के झँझट नहीं, पर लेख को पढ़ कर लगता है कि समय, जगह आदि बहुत कुछ बदल कर भी जीवन की बहुत सी बातें नहीं बदलतीं, चाहे वह भारत हो या योरोप.

फ्राँस में कूड़ा सड़के के किनारे रखे बड़े बड़े ढक्कन वाले बंद कूड़ेदानों में फैंका जाता है. कूड़ा उठाने सप्ताह में दो या तीन बार, नगरपालिका की गाड़ी आती है. कूड़ेदान उठाना, उसे ट्रक में पीछे डालना, कूड़े को दबा कर छोटा करना, सब काम मशीन से होते हैं. सफाई कर्मचारियों होने से क्या काम करना होता है? एक आदमी गाड़ी के भीतर बैठ कर मशीन को चलाता है, एक या दो व्यक्ति बाहर उतर कर मशीन को डिब्बे से जोड़ते हैं या देखते हैं कि सब ठीक से हो रहा हो, अगर सड़क पर कुछ गिरा हो उसे उठा लो. कभी कभी लोग घर के सामान, जैसे सोफा, फ्रिज, टेलिविजन आदि को कूड़ेदान के पास बाहर रख देते हैं, तो इस तरह के सामान को उठाना भी उनका काम है. बड़ी सड़कों पर गिरे पत्तों, गंदगी आदि की सफाई का काम भी मशीन से होता है पर कई जगहों पर मशीन वाली गाड़ी नहीं जा सकती और लोगों को झाड़ू ले कर पुराने तरीके से ही सफाई करनी पड़ती है.

फ्रेड्रिक सफाई कर्मचारियों के साथ बिताये इन दिनों के अनुभवों से बहुत सी बातों को समझाते हैं जिनके बारे में हम अक्सर नहीं सोचते. जैसे कि इन सफाई की मशीनों वाली गाड़ियों के शोर के बीच में रहने का असर. कई बार घर के बाहर जब सफाई की गाड़ी कुछ समय के लिए कूड़ा उठाने के लिए रुकती है तो शोर से झुँझुलाहट सी होती है, मन में आता है कि इतनी सुबह सुबह इस तरह का शोर करके हमारी नींद खराब कर देते हैं, पर यह कभी नहीं सोचा था कि इस तरह के शोर में घिर कर काम करना कितना कष्टदायक होगा और हर रोज़ कई घँटों तक शोर के बीच में रह कर उन्हें किस तरह लगता है?

सफाई कर्मचारी अपनी बातों में बार बार कूड़े, पाखाने और गन्दगी के बीच में रहने और काम करने के असर के बारे में बताते हैं, उनके घर वालों को और बच्चों को इस काम कर बारे में बताने से शर्म आती है, उनके शरीर से कपड़ों से बू आती है, जब वे सफाई कर्मचारियों की वर्दी पहने होते हैं तो लोग उनकी तरफ देखते नहीं, मन में हीन भावना आ जाती है, इत्यादि. फ्रेड्रिक से बात करते हुए एक व्यक्ति कहता है कि इस काम की सबसे बुरी बात है कि चाहे जितनी भी मेहनत करलो, गन्दगी कम नहीं होती, आप ने सारी सफाई की हो तो भी, दो मिनट बाद ही कोई और उसे गन्दा कर देगा.

अगर मशीनों के साथ काम करके यह हाल है तो भारत में जहाँ सब कुछ अपने हाथों से, बिना दस्ताने पहन कर करना पड़ता है, वहाँ लोगों के मन पर क्या असर होता होगा इसको सोचा जा सकता है.

फ्रेड्रिक के अनुसार 2007 में जब पेरिस की नगरपालिका ने 300 नये सफाई कर्मचारियों की भर्ती के लिए विज्ञापन दिया तो 4000 लोगों ने अर्जी भेजी. सरकारी नौकरी, अच्छी मासिक पगार, सुबह काम करना प्रारम्भ करो और दोपहर तक खाली हो जाओ, आदि से यह काम करना चाहनेवालों की कमी नहीं.

पेरिस के सफाई कर्मचारियों में कुछ भारतीय भी हैं. फ्रेड्रिक उनके बारे में अधिक नहीं बताते पर अगर भारत में जाति भेद का सोचें या फ़िर भारतीय समाज में छोटे बड़े काम करने वालों के बीच के भेदभाव के बारे में सोचें तो लगता है जाने क्या बताया होगा उन्होंने अपने घर वालों को कि क्या काम करते हैं वे? पेरिस में सफाई करने की सरकारी नौकरी मिले, 1200 यूरो की मासिक पगार मिले तो क्या आप क्या यह काम करना पसंद करेंगे?

सोमवार, दिसंबर 17, 2007

आज की भारतीय नारी

भारत के बड़े शहरों में घूमिये तो हर क्षेत्र में नारी आगे बढ़ते दिखती है, चाहे वह विश्वविद्यालय की छात्राएँ हों या डाक्टर वकील जैसे पैशे में जुटी नारियाँ या फ़िर हर तरह के काम में लगी नौकरी करने वाली. जब विश्व लिंग भेद रिपोर्ट (World Gender Gap Report) देखी तो सोचा कि भारत का स्थान नारी विकास के क्षेत्र में अच्छा ही होना चाहिये.

रिपोर्ट ने कुल 128 देशों में नारी और पुरुष की स्थिति को जाँचा है और इसके हिसाब से स्वीडन विश्व में पहले नम्बर पर है और भारत 114वें स्थान पर. दक्षिण एशिया के अन्य देशों की स्थिति है नेपाल 125वें स्थान पर, पाकिस्तान 126वें स्थान पर, बँगलादेश 100वें स्थान पर और श्री लंका 15वें स्थान पर.

पहले तो यह हैरानी हुई की भारत इतना पीछे कैसे हुआ, पाकिस्तान और नेपाल के पास? दूसरी हैरानी हुई बँगलादेश का स्थान हमारे देश से आगे है. पर सबसे अधिक हैरानी की बात लगी कि श्री लंका इतना आगे है जबकि अमरीका 31वें स्थान पर है और इटली 84वें स्थान पर.

यह रिपोर्ट चार क्षेत्रों में समाज में नारी का स्थान परखती है - आर्थिक उन्नति और आय, शिक्षा, स्वास्थ्य तथा राजनीतिक सशक्तिकरण. अब देखें भारत के कुछ आँकणे:

जहाँ तक आर्थिक उन्नति और आय का सवाल है कमजोरी के कारण हैं समान कार्य के लिए भारत में नारियों को पगार कम मिलती है, उन्हें काम करने के मौके कम मिलते हैं, ऊँचे पद पर उनकी तरक्की कम होती है (ऊँचे पद पर स्त्रियाँ 3 प्रतिशत, पुरुष 97 प्रतिशत) और तकनीकी क्षेत्रों में वे अपेक्षाकृत स्थान नहीं पातीं. इस दृष्टि से भारत का स्थान विश्व के 128 देशों में 114वाँ हैं.

शिक्षा क्षेत्र में लड़कों के मुकाबले कम लड़कियाँ लिखना पढ़ना जानती हैं (लड़कियाँ 48 प्रतिशत, लड़के 73 प्रतिशत), प्राईमरी स्कूल में उनका अनुपात कम है, ऊच्च शिक्षा में भी उनका अनुपात युवकों के मुकाबले में कम है (ऊच्च शिक्षा में लड़कियाँ 9 प्रतिशत, लड़के 14 प्रतिशत). इस दृष्टि से भारत का स्थान 128 देशों में से 122वें स्थान पर है.

स्वास्थ्य के क्षेत्र में जन्म के समय लड़कियों और लड़कों के अनुपात में अंतर होने की विषमता भारत में बहुत अधिक है, और स्वास्थ जीवन आकाँक्षा में उनका जीवन कुछ छोटा होता है, इसलिए इस दृष्टि से देखने पर भारत का स्थान 128 देशों में से 117वें स्थान पर है.

राजनीतिक संशक्तिकरण के क्षेत्र में भारतीय संसद में स्त्री साँसद पुरुषों के सामने बहुत कम हैं (स्त्रियाँ 8 प्रतिशत, पुरुष 92 प्रतिशत) और स्त्री मिनिस्टर भी कम हैं ( स्त्री मिनिस्टर 3 प्रतिशत, पुरुष 97 प्रतिशत).

कुछ दिन पहले अखबार में पढ़ा था कि एक सर्वे हुआ जिसमें पूछा गया कि आप अपने भविष्य के बारे में क्या सोचते हैं तो निकला की भारतीय सबसे अधिक आशावान हैं कि भविष्य आज से अच्छा होगा और 2020 तक भारत एक विकसित देश होगा. पर अगर देश की स्थिति आँकणों से देखी जाये तो विकासित होने का रास्ता अधिक लम्बा लगता है. शायद इसका सबसे बड़ा कारण शहरों और गाँवों के बीच की विषमता है. शहरों में जीवन तेजी से सुधर रहा है, उन्नति के मौके बढ़ रहे हैं पर गाँवों में अभी भी बैलगाड़ी ही चलती है, पानी और बिजली जैसी आवश्यकताएँ अधूरी रह जातीं हैं. भारतीय दर्शन नारी को देवी मानता है, देवी के रुप में मंदिर में जगह देता है पर जब तक आम जीवन में नारी के साथ विषमताएँ रहेंगी, मंदिर की देवी केवल कहने की बात हो कर ही रह जाती है.

गुरुवार, दिसंबर 13, 2007

किस नाम से तुम्हें मारूँ?

जब भी दिल्ली के एशिया मानव अधिकार केंद्र का बुलेटिन (ACHR Review) मिलता है तो अक्सर मन में इस केंद्र के ज़िम्मेदार श्री सुहास चकमा की सराहना करने की इच्छा होती है. मानव अधिकारों की बात हो तो भारत के आसपास के सभी देशों के बारे में निर्भीक हो कर लिखते हैं. अपने बुलेटिन के नये अंक में उन्होंने भारत में मानव अधिकारों पर होने वाले प्रहारों की बात की है.

जब किसी देश के कानून से बाहर निकल कर लोग अपने हाथों में कानून ले लेते हैं और अगर उस देश में कानून की रक्षा करने की समर्थता या इच्छा नहीं होती तो धीरे धीरे यह बात सारे समाज को डसती है. यह बात वह ग्वाटेमाला और कोलोम्बिया के उदाहरण के साथ बताते हैं जहाँ की सरकारों ने अपने शत्रुओं के लड़ने के लिए कानून छोड़ कर कानून के बाहर निजी सैंनाओं का सहारा लिया और यही सैनाएँ काबू से बाहर निकल कर अत्याचार, खून, बदमाशी का खुला खेल खेलने लगीं.

उनका कहना है कि कलकत्ता में नंदीग्राम में सीपीआई मार्कसवादी दल द्वारा अपने गुँडों के सहारे लोगों को कुचलना जो जबरदस्ती जमीन छौने जाने का विरोध कर रहे थे, उड़ीसा सरकार द्वारा पोस्को स्टील प्लाँट का विरोध करने वालों का दमन, केरल में सीपीआई मार्कसवादी दल के लोगों द्वारा मुन्नार के आदिवासियों पर हमला, भारत में इस दिशा में बढ़ती प्रवृति का संकेत देती है और कहते हैं कि अगर सरकार इसपर रोक नहीं लगायेगी तो इसके परिणाम घातक होंगे.

सच बात है कि आज भारत में जिसमें थोड़ा सा भी दम हो, चाहे वह शिवसैनिक हों जो किसी फ़िल्म या पुस्तक या चित्र का विरोध कर रहे हों, चाहे वह रूढ़िवादी मुस्लमान हों जो किसी लेखिका का विरोध कर रहे हों, या सिख हों जो अपने धर्म का मजाक उड़ाने वाले की बात कर रहे हों, कानून क्या होता है यह नहीं जानना चाहते, सीधा दंगाफसाद तोड़फोड़ शुरु कर देते हैं, मरने मारने की धमकी देते हैं, जिसका मन करता है वह अपनी धार्मिक भावना को ठेस लगने का झँडा पकड़ कर खड़ा हो जाता है, और सरकार उन गुण्डागर्दी करने वालों के विरुद्ध कुछ नहीं कर पाती, बल्कि उनका साथी बन कर लेखों, चित्रकारों, विचारकों पर मुकदमा कर ठोक देती है कि तुमने हमारे देश की शाँती को बिगाड़ा है, आग भड़कायी है. यह सभी जानते हैं कि किसी जिले के कमिशनर में अगर दम है तो अपने इलाके में दँगा फसाद होने नहीं देता, उसे सख्ती से रोक देता है पर अधिकाँश भारत में यह हिम्मत चुक गयी है.

तुरंत लाभ के लिए, चुनावों का सोच कर या गठबँधन का सोच कर या अन्य फायदे के लिए, सभी अपने मुँह आँखों पर पट्टी बाँध लेते हैं, चाहे वह काँग्रेस हो या बीजेपी या फ़िर कम्युनिस्ट पार्टी वाले. विकास, विदेशी अंदाज के बने माल, जगप्रसिद्ध ब्राँड की चाह, से अधिकतर लोगों की आँखें शायद चुँधिया गयीं हैं जो किसी को भी इस विकास में रुकावट बनता देखती हैं उसे मसल कर कुचल देती हैं या फ़िर उसे कुचलता देख कर भी अनदेखा कर देती हैं.
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आज एक फ़िल्मी समाचार देखा जो राम गोपाल वर्मा की नयी फिल्म "सरकार राज" की बात कर रहा था जिसमें अमिताभ बच्चन, अभिशेख और एश्वर्य राय तीनों काम रहे हैं. उसमें लिखा है कि शायद यह फ़िल्म नंदीग्राम में हुए हादसे पर बनी है और नंदीग्राम में क्या हादसा हुआ उस पर लिखा है कि नंदीग्राम में एक बड़ा बाँध बन रहा है जिसका वहाँ के लोग विरोध कर रहे हैं.

सोमवार, दिसंबर 03, 2007

दुनिया मुर्गीखाना

कामेरून के कामगार यूनियन के बरनार्ड न्जोंगा (Berbnard Njonga) ने मुर्गी युद्ध का पहला दौर जीता है और दुनिया में भूमँडलिकरण के विरुद्ध आवाज़ उठाने वालों के लिए उदाहरण बन गये हैं कि छोटे से गरीब देश का छोटा सा आदमी भी अगर चाहे तो बड़ी बहुदेशीय कम्पनियों को पछाड़ सकता है. यह कहानी पढ़ी जर्मन पत्रिका डेर श्पीगल (Der Spiegel) में.

न्जोंगा की लड़ाई को समझने के लिए विश्व मुर्गा व्यापार के पीछे छिपी आर्थिक और सामाजिक जड़ों को समझना पड़ेगा. यह जड़ें शुरु होती हैं उत्री अमरीका और यूरोप के विकसित देशों में जहाँ मुर्गी का माँस खाने का शौक तो है पर मुर्गी के शरीर के हर भाग की माँग बराबर नहीं है. यूरोप और अमरीका में सुपरमार्किट में मुर्गी की छाती का माँस सबसे अधिक बिकता है, तो बाकी बिना बिके हिस्सों का क्या किया जाये? मुर्गी का माँस बेचने वालों को केवल छाती के माँस बेचने से ही बहुत फायदा हो जाता है इसलिए वे मुर्गी के बचे हुए हिस्सों को कम कीमत पर बेचने के लिए तैयार हैं. इसलिए मुर्गी की विभिन्न हिस्सों को बाजार में उनकी माँग के हिसाब से विभिन्न देशों में निर्यात किया जाता है, यानि पँजे वियतनाम, थाईलैंड जैसे देशों का रास्ता पकड़ते हैं और टाँगे अफ्रीका जाती हैं.

यही हुआ कामेरुन में, जब दो तीन साल पहले उनकी सुपरमार्किट में यूरोप से सस्ती मु्रगी की टाँगे बिकने लगीं, रातों रात कामेरुन के मुर्गी उत्पादको की बिक्री कम हो गयी. लोगों ने बैंक से पैसा उधार ले कर मुर्गी पालने के फार्म लगाये थे, पर उनकी मुर्गियों की कीमत विदेश से आयात किये माँस से अधिक थी तो लोग उनका मँहगा माँस क्यों खरीदते?

कामेरून की राजधानी याउँडे के एक मु्र्गी फार्म वाले के कहने पर न्जोंगा ने इस बात की जाँच शुरु की यह समझने के लिए यह माँस कहाँ से आता है, किसका फायदा हो रहा है. पहले कस्टम वालों को घूस दे कर उन्होंने कागज निकलवाये और देखा कि 70 प्रतिशत आयात होलैंड की एक कम्पनी से हो रहा था. फ़िर उन्हें शक हुआ कि इतनी दूर से यह माँस कैसे लाया जाता है, क्या इसे हमेशा ठँडी जगह रखने की सहूलियतें हैं और क्या माँस में कुछ खराबी तो नहीं. इसके लिए उन्होंने माँस की एक स्थानीय लेबोरेटरी से जाँच करायी, हालाँकि लेबोरेटरी वालों ने पूरी रिपोर्ट देने से इन्कार कर दिया क्योंकि इस आयात के पीछे कुछ नेता थे, फ़िर भी न्याँगा यह जानने में सफल रहे कि उस माँस में बेक्टीरिया की मात्रा अधिक थी.

इस सब जानकारी के आधार पर न्यांगा ने साथियों के साथ मिल कर पर्चे छपवाये और जनता में बाँटने लगे, सभाएँ की और लोगों को बताया कि किस तरह से कुछ लोग अपने लाभ के लिए इस माँस का आयात करवा रहे थे जिसमें बीमारियाँ फैलने की भी आशंकाएँ थीं. कोई न्जोंगा की बातों को गलत नहीं कह सकता था क्योंकि उसके पास सारे सबूत थे. जब इस बारे में जन असंतोष बढ़ा तो राष्ट्रपति को कहना ही पड़ा कि यह आयात बंद कर दिया जायेगा और आयातित माँस पर कर लगया गया जिससे उसकी कीमत स्थानीय माँस से अधिक हो गयी और न्जोंगा यह मुर्गी युद्ध जीत गये. बड़े कामरुन के बड़े नेताओं के साथ हारने वाला यूरोप भी है जो सब कुछ जान कर भी अपने उत्पादकों और कृषकों को बढ़ावा देता है कि अपने उत्पादन कम कीमत पर गरीब देशों में भेज कर वहाँ की आर्थिक स्थिति में तूफान मचा दें.

हमारी भाषा कैसे बनी

कुछ दिन पहले मैंने जाने-माने डॉक्यूमैंट्री फ़िल्म निर्देशक अरुण चढ़्ढ़ा की १८५७ के लोक-गीतों पर बनी फ़िल्म के बारे में लिखा था। आज उन्हीं की ए...

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