शनिवार, अक्टूबर 29, 2011

वेरा की लड़ाई


जीवन में कब किससे मिलना होगा और कौन सी बात होगी, यह कौन बता सकता है? संयोग से कभी कभी ऐसा होता है कि इतने दूर की किसी बात से मिली कड़ी का अगला हिस्सा भी संयोग से अपने आप ही मिल जाता है. कुछ मास पहले मैंने "हाहाकार का नाम" शीर्षक से एक अर्जेन्टीनी मित्र से मुलाकात की बात लिखी थी जिसने मुझे तानाशाही शासन द्वारा मारे गये बच्चों की खोज में किये जाने वाले काम के बारे बता कर द्रवित कर दिया था. तब नहीं सोचा था कि वेरा से मुलाकात भी होगी, जिसने उसी तानाशाह शासन से अपनी बच्ची को खोजने के लिए लड़ाई लड़ी थी और सत्य की खोज में आज भी लड़ रही है.

वेरा का जन्म 1928 में इटली में हुआ था. ज्यू यानि यहूदी परिवार में जन्मी वेरा जराख (Vera Jarach) दस साल की थी, मिलान के एक प्राथमिक विद्यालय में पढ़ती थी जब इटली में मुसोलीनी शासन के दौरान जातिवादी कानून बने. वेरा को विद्यालय में अध्यापिका ने कहा कि तुम इस विद्यालय में नहीं पढ़ सकती, क्योंकि तुम यहूदी हो और नये कानून के अनुसार यहूदी बच्चे सरकारी विद्यालयों में नहीं पढ़ सकते.

Vera Jarach, desparecidos in Argentina - S. Deepak, 2011


इस बात के कुछ मास बाद जनवरी 1939 में वेरा के पिता ने निर्णय किया कि जब तक यहूदियों के विरुद्ध होने वाली बातें समाप्त न हों, वह परिवार के साथ कुछ समय के लिए इटली से बाहर कहीं चले जायेंगे. उनके कुछ मित्र अर्जेन्टीना में रहते थे, इसलिए उन्होंने यही निर्णय लिया कि कुछ समय के लिए वे लोग अर्जेन्टीना चले जायेंगे. वेरा के दादा ने कहा कि वह अपना घर, देश छोड़ नहीं जायेंगे, वह मिलान में अपने घर में ही रहेंगे. वेरा के परिवार के अर्जेन्टीना जाने के एक वर्ष बाद उसके दादा को पुलिस ने पकड़ कर आउश्विट्ज़ के कन्सनट्रेशन कैम्प में भेजा, जहाँ कुछ समय बाद उन्हें मार दिया गया. वेरा और उसका बाकी परिवार यूरोप से होने की वजह से इस दुखद नियति से बच गये.

द्वितीय महायुद्ध के समाप्त होने पर, मुसोलीनी तथा हिटलर दोनो हार गये, और अर्जेन्टीना में गये इतालवी यहूदी प्रवासी वापस इटली लौट आये, लेकिन वेरा के परिवार ने फैसला किया कि वह वहीं रहेंगे, क्योंकि तब तक वेरा की बड़ी बहन ने वहीं पर विवाह कर लिया था, और वह सब लोग करीब रहना चाहते थे. कुछ सालों के बाद वेरा को भी एक इतालवी मूल के यहूदी युवक से प्यार हुआ और उन्होंने विवाह किया और उनकी एक बेटी हुई जिसका नाम रखा फ्राँका.

फ्राँका जब हाई स्कूल में पहुँची, तब दुनिया बदल रही थी. यूरोप तथा अमेरिका में वियतनाम युद्ध के विरोध में प्रदर्शन किये जा रहे थे. तब हिप्पी आंदोलन और युवाओं के आँदोलन भी चल रहे थे. वैसे ही प्रदर्शन दक्षिण अमरीका में भी हो रहे थे. फ्राँका भी अर्जेन्टीनी युवाओं के साथ प्रर्दशनों में हिस्सा ले रही थी. तब अर्जेन्टीनी राजनीतिक स्थिति बदली. जुलाई 1974 में राष्ट्रपति पेरों की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी एवा पेरों (Eva Perone) को राष्ट्रपति बनाया गया लेकिन उस समय वामपंथी तथा रूढ़िवादि राजनीतिक दलों के बीच में झगड़े शुरु हो गये. कुछ वामपंथी दल रूसी कम्यूनिस्ट शैली के शासन की माँग कर रहे थे और रूढ़िवादि दल, मिलेट्री के साथ मिल कर उनके विरुद्ध कार्यक्रम बना रहे थे. मार्च 1976 में मिलेट्री ने एवा पेरों को हटा कर सत्ता पर कब्ज़ा किया और वामपंथी दलों के समर्थकों पर हमले शुरु हो गये.

18 साल की फ्राँका को भी मिलेट्री सरकार की खुफ़िया पुलिस विद्यालय से जुलाई 1976 में पकड़ कर ले गयी. उन दिनों से शुरु हुआ मिलेट्री शासन का अत्याचार जिसमें करीब 30,000 लोग उठा लिए गये जिनका कुछ पता नहीं चला. उनको पहले यातनाएँ दी गयीं फ़िर उनमें से कुछ लोगो को मार कर समुद्र में फैंक दिया गया, कुछ को मार कर जँगल में दबा दिया गया. आज उन लोगों को स्पेनी भाषा के शब्द "दिसाआपारेसिदोस" (Desaparecidos) यानि "खोये हुए लोग" के नाम से जाना जाता है.

जिनके बच्चे खोये थे, वे परिवार पहले तो डरे रहे, फ़िर धीरे धीरे, अर्जेन्टीना की राजधानी बोनोस आएरेस के उन परिवारों की औरतों ने फैसला किया कि वह शहर के प्रमुख स्काव्यर प्लाजा दो मायो (Plaza do Mayo), जहाँ राष्ट्रपति का भवन था, में जा कर प्रर्दशन करेंगी. उन्होंने परिवारों के पुरुषों को कहा कि तुम सामने मत आओ वरना पुलिस तुमको विरोधी कह कर पकड़ लेगी, लेकिन प्रौढ़ माँओं को पकड़ने से हिचकेगी. एक दूसरे की बाँहों में बाँहें डाल कर गुम हुए बच्चों की माँओं ने प्लाज़ा दो मायो में घूमते हुए प्रर्दशन करना शुरु किया. इस विरोध को आज "प्लाज़ा दो मायो की माओं का विरोध" के नाम से जाना जाता है.

धीरे धीरे जानकारी आनी लगी कि किसके साथ क्या किया गया था, कैसे लोगों को यातनाएँ दे कर मारा गया था, कैसे गर्भवति औरतों के बच्चे पैदा कर मिलेट्री वाले निसन्तान लोगों ने ले लिए थे और उनकी माओं को मार दिया गया था.

बहुत सालों की लड़ाई और खोज के बाद वेरा को मालूम पड़ा कि उसकी बेटी फ्राँका की मृत्यु उसके पकड़े जाने के एक माह के बाद ही हो गयी थी.

"मन में आस छुपी थी कि शायद मेरी बेटी कहीं ज़िन्दा हो", वेरा बोली, "वह आस बुझ गयी, दुख भी हुआ पर यह भी लगा कि अब इस बात को ले कर सारा जीवन नहीं तड़पना पड़ेगा. जैसा उसके दादा के साथ हुआ था, फ्राँका की भी कोई कब्र नहीं, मेरे दिल में दफ़न है वह."

पिछले 35 सालों से वेरा और उसके साथ की अन्य माएँ न्याय के लिए लड़ रही हैं. कुछ मिलेट्री वालों को पकड़ लिया गया, उन पर मुकदमें चले और उन्हें सजा मिली. कुछ लोगों की कब्रों से हड्डियों की डीएनए जाँच द्वारा पहचान की गयी और उनके परिवार वालों को उन्हें ठीक से दफ़नाने का मौका मिला.

Vera Jarach, desparecidos in Argentina - S. Deepak, 2011


वेरा ने मुझसे कहा, "उन मिलेट्री वालों ने 400 नवजात बच्चों को उनकी माओं से छीन कर मिलेट्री परिवारों में गोद ले कर पाला, हम उन्हें भी खोजती है, और उन्हें भी बताती हैं कि उनके साथ क्या हुआ था और उनके असली माँ बाप कौन थे."

वे बच्चे आज करीब तीस पैंतीस साल के लोग हैं. मैंने सुना तो मुझे लगा कि अगर अचानक कोई आप को आ कर बताये कि जिन्हें सारा जीवन आप ने अपने माँ पिता समझा है वह असल में वे लोग हैं जिन्होंने आप के असली माता पिता को मारा होगा, तो कितना धक्का लगेगा?

मैंने वैरा से कहा, "पर क्या यह करना जरूरी है? जिन लोगों को कुछ नहीं मालूम, यह भी नहीं कि वे गोद लिये गये थे, उनके जीवन में यह समाचार दे कर उन्हें कितना दुख होता होगा?"

वेरा बोली, "सोचो कि तुम हो इस स्थिति में, क्या तुम अपने जीवन की इतनी भीषड़ सच्चाई को जानना नहीं चाहोगे? मैं नहीं मानती कि झूठ में रहा जा सकता है. करीब सौ बच्चों को पहचाना जा चुका है, उनकी नानियाँ दादियाँ और मनोवैज्ञानिक इस स्थिति में उन्हें सहारा देते हैं. सच्चाई को छुपाने से जीवन नहीं बन सकता, सच जानना बहुत आवश्यक है."

पर फ़िर भी मुझे वेरा की बात कुछ ठीक नहीं लगी. लगा कि इतना भीषड़ सत्य शायद मैं न जानना चाहूँ जिसे सारा जीवन उथल पथल हो जाये.

83 वर्ष की वेरा की हँसी मृदुल है. वह अब भी घूमती रहती है, विद्यालयों में बच्चों को उन सालों की कहानी सुनाती है, अपनी लड़ाई के बारे में बताती है.

वेरा बोली, "मुझे लोग कहते हैं कि जो हो गया सो हो गया, इतने साल बीत गये, अब उनको क्षमा कर दो, भूल जाओ. मैं पूछती हूँ कि क्या किसी ने क्षमा माँगी है हमसे कि हमने गलत किया, जो मैं क्षमा करूँ? वे लोग तो आज भी अपने कुकर्मों की डींगे मारते हैं कि उन्होंने अच्छा किया कम्युनिस्टों को मार कर. उन्हें सज़ा मिलनी ही चाहिये, हाँलाकि उनमें से अधिकाँश लोग अब बूढ़े हो रहे हैं, कई तो मर चुके हैं. मेरे मन में बदले की भावना नहीं, मैं न्याय की बात करती हूँ. अत्याचारी खूनी को कुछ सजा न मिले, क्या यह अन्याय नहीं?"

वेरा कभी भारत नहीं गयी लेकिन कहती है कि उसकी एक मित्र कार्ला (Carla) अपने पति माउरिज़यो (Maurizio) के साथ दिल्ली में रहती है जिसके साथ मिल कर उसने अपने जीवन के बारे में एक किताब लिखी थी. उसने मुझसे पूछा, "यह बात केवल अर्जेन्टीना की नहीं, हर देश की है. भारत में भी तो दंगे होते हैं, विभिन्न धर्मों के बीच, क्या उनमें अपराधियों को सज़ा मिलती है?"

मैंने उसे 1984 में हुए सिख परिवारों के साथ हुए तथा 2002 में गुजरात में मुसलमान परिवारों के साथ हुए काँडों के बारे में बताया कि भारत में भी अधिकतर दोषी खुले ही घूम रहे हैं, और वहाँ भी कुछ लोग न्याय के लिए लड़ रहे हैं.

मैं चलने लगा तो वेरा ने कहा, "मैं आशावान हूँ, मैं निराशावादी नहीं. मेरे दादा नाज़ी कंसन्ट्रेशन कैम्प में मरे, उनकी कोई कब्र नहीं. मेरी बेटी भी अनजान जगह मरी, उसकी भी कोई कब्र नहीं. मेरा कोई वारिस नहीं. फ़िर भी मैं आशावान हूँ, मैं मानती हूँ कि दुनिया में अच्छे लोग बुरे लोगों से अधिक हैं और अंत में अच्छाई की ही जीत होगी. मेरी एक ही बेटी थी, वह नहीं रही, पर मैं सोचती हूँ कि दुनिया के सारे बच्चे मेरे ही नाती हैं. पर मेरा कर्तव्य है कि उन बच्चों को याद दिलाऊँ कि हमारी स्वतंत्रता, हमारी खुशियाँ, हमारे जीवन, हमारे लोकतंत्र, इनकी हमें रक्षा करनी है. अगर तानाशाह इन पर काबू करके हमें डरायेंगे तो हमें डरना नहीं, उनसे लड़ना है. अन्याय हो और हम अपनी आवाज़ न उठायें, तो इसका मतलब हुआ कि हम भी अत्याचारियों के साथी हैं."

***

सोमवार, अक्टूबर 24, 2011

विदेशी पनीर के देसी बनानेवाले


इतालवी पारमिज़ान पनीर दुनिया भर में प्रसिद्ध है. वैसे तो बहुत से देशों में लोगों ने इसे बनाने की कोशिश की है लेकिन कहते हैं कि जिस तरह का पनीर इटली के उत्तरी पूर्व भाग के शहर पारमा तथा रेज्जोइमीलिया में बनता है वैसा दुनिया में कहीं और नहीं बनता. इसकी वजह वहाँ के पानी तथा गायों को खिलायी जाने वाली घास में बतायी जाती है. पारमिज़ान पनीर को घिस कर पास्ता के साथ खाते हैं और अन्य कई पकवानों में भी इसका प्रयोग होता है. वैसे तो पिछले कुछ वर्षों से इटली के विभिन्न उद्योगों में गिरावट आयी है लेकिन लगता है कि पारमिज़ान पनीर के चाहने वालों ने इस पनीर के बनाने वालों के काम को सुरक्षित रखा है.

करीब पंद्रह बीस वर्ष पहले पारमिज़ान पनीर को बनाने वाले उद्योग को काम करने वाले मिलने में कठिनाई होने लगी. इतालवी युवक कृषि से जुड़े सब काम छोड़ रहे थे, गायों तथा भैंसों की देखभाल करने वाले नहीं मिलते थे. तब इस काम का मशीनीकरण होने लगा पर साथ ही पंजाब से आने वाले भारतीय युवकों को इस काम के लिए बुलाया जाने लगा. आज उत्तरी इटली में करीब 25 हज़ार पंजाबी युवक, जिनमें से अधिकतर सिख हैं, इस काम में लगे हैं. यहीं के छोटे से शहर नोवेलारा में यूरोप का सबसे बड़ा गुरुद्वारा भी बना है.

यानि दुनिया भर में निर्यात होने वाले इतालवी पारमिज़ान पनीर को बनाने वाले चालिस प्रतिशत कार्यकर्ता भारतीय हैं. वैसे तो इटली में भारतीय प्रवासी बहुत अधिक नहीं हैं लेकिन इस काम में केवल भारतीय पंजाबी प्रवसियों को ही जगह मिलती है.

आज सुबह इस विषय पर इटली के रिपुब्लिका टेलीविज़न पर छोटा सा समाचार देखा जिसमें भारत से सात वर्ष पहले आये मन्जीत सिंह का साक्षात्कार है. उन्हें यह काम सिखाया कम्पनी के मालिक ने जो कहते हें कि भारत से आये प्रवासी यहाँ के समाज में घुलमिल गये हैं और उनके बिना इस काम को चलाना असम्भव हो जाता.

आप चाहें तो इस समाचार को इस लिंक पर देख सकते हैं.


सोमवार, सितंबर 26, 2011

दिल लुभाने वाली मूर्तियाँ


बोलोनिया शहर संग्रहालयों का शहर है. गाइड पुस्तिका के हिसाब से शहर में सौ से भी अधिक संग्रहालय हैं. इन्हीं में से एक है दीवारदरियों (Tapestry) का संग्रहालय. दीवारदरियाँ यानि दीवार पर सजावट के लिए टाँगने वाले कपड़े जिनके चित्र जुलाहा करघे पर कपड़ा बुनते हुए, उस पर बुन देता है.

बहुत दिनों से मन में इस संग्रहालय को देखने की इच्छा थी. कल रविवार को सुबह देखा कि मौसम बढ़िया था, हल्की हल्की ठंडक थी हवा में. पत्नि को भी अपनी सहेली के यहाँ जाना था जहाँ जाने का मेरा बिल्कुल भी मन नहीं था, तो सोचा क्यों न आज सुबह साइकल पर सैर को निकलूँ और उस संग्रहालय को देख कर आऊँ.

यह संग्रहालय हमारे घर से करीब आठ या नौ किलोमीटर दूर, शहर के दक्षिण में जहाँ पहाड़ शुरु होते हैं, उनके आरम्भिक भाग में अठाहरवीं शताब्दी के एक प्राचीन भवन में बना है. इस प्राचीन भवन का नाम है "विल्ला स्पादा" (Villa Spada) जो कि रोम के स्पादा परिवार का घर था. सोचा कि पहाड़ी के ऊपर से शहर का विहंगम दृश्य भी अच्छा दिखेगा. यह सब सोच कर सुबह नौ बजे घर से निकला और करीब आधे घँटे में वहाँ पहुँच गया.

संग्रहालय के आसपास प्राचीन घर का जो बाग था उसे अब जनसाधारण के लिए खोल दिया गया है. बाग में अंदर घुसते ही सामने एक मध्ययुगीन बुर्ज बना है, जबकि बायीं ओर एक पहाड़ी के निचले हिस्से पर विल्ला स्पादा का भवन है. संग्रहालय में देश विदेश से करघे पर बुने कपड़ों के नमूने हैं.  इन कपड़ों के नमूनों में से कुछ बहुत पुराने हैं, यहाँ तक कि दो हज़ार साल से भी अधिक पुराने, यानि उस समय के कपड़े जब भारत में सम्राट अशोक तथा गौतम बुद्ध थे. कपड़ों के अतिरिक्त संग्रहालय में प्राचीन चरखे और कपड़ा बुनने वाले करघे भी हैं जैसे कि एक सात सौ साल पुराना करघा.

संग्रहालय में घूमते हुए लगा कि शायद यूरोप में कपड़ा बुनने वालों को नीचा नहीं समझा जाता था बल्कि उनको कलाकार का मान दिया जाता था. तभी उनके बनाये कढ़ाई के काम को, डिज़ाईन के काम को इतने मान के साथ सहेज कर रखा गया है. उनमें से कुछ लोगों के नाम तक लिखे हुए हैं. सोचा कि अपने भारत में हाथ से काम करने वाले को हीन माना जाता है, उनकी कला को कौन इतना मान देता है कि उनके नाम याद रखे जायें या उनके डिज़ाईनों को संभाल कर रखा जाये? पहले ज़माने की बात तो छोड़ भी दें, आज तक पाराम्परिक जुलाहे जो चंदेरी या चिकन का काम करते हैं, क्या उनमें से किसी को कलाकार माना जाता है? धीरे धीरे सब काम औद्योगिक स्तर पर मिलें और मशीने करने लगी हैं, जबकि हाथ से काम करने वाले कारीगर गरीबी और अपमान से तंग कर यह काम अपने बच्चों को नहीं सिखाना चाहते. कहते थे कि ढ़ाका की इतनी महीन मलमल होती थी कि अँगूठी से निकल जाये, पर क्या किसी मलमल बनाने बनाने का नाम हमारे इतिहास ने याद रखा?

संग्रहालय में रखे कपड़ों, करघों के अतिरिक्त घर की दीवारों तथा छत पर बनी कलाकृतियाँ भी बहुत सुन्दर हैं.

संग्रहालय देख कर बाहर निकला तो भवन के प्रसिद्ध इतालवी बाग को देखने गया. इतालवी बाग बनाने की विषेश पद्धति हुआ करती थी जिसमें पेड़ पौधों को अपने प्राकृतिक रूप में नहीं बल्कि "मानव की इच्छा शक्ति के सामने सारी प्रकृति बदल सकती है" के सिद्धांत को दिखाने के लिए लगाया जाता था. इन इतालवी बागों में केवल वही पेड़ पौधे लगाये जाते थे जो हमेशा हरे रहें ताकि मौसम बदलने पर भी बाग अपना रूप न बदले. इन पौधों को इस तरह लगाया जाता था जिससे भिन्न भिन्न आकृतियाँ बन जायें, जो प्रकृति की नहीं बल्कि मानव इच्छा की सुन्दरता को दिखाये. इस तरह के बाग बनाने की शैली फ़िर इटली से फ्राँस पहुँची जहाँ इसे और भी विकसित किया गया.

विल्ला स्पादा के इतालवी बाग में पौधों की आकृतियों को ठीक से देखने के लिए एक "मन्दिर" बनाया गया था जिसकी छत पर खड़े हो कर पौधों को ऊपर से देख सकते हैं. बाग के बीचों बीच ग्रीस मिथकों पर आधारित कहानी से हरक्यूलिस की विशाल मूर्ति बनी है. पर बाग की सबसे सुन्दर चीज़ है मिट्टी की बनी नारी मूर्तियाँ.

एक कतार में खड़ीं इन मूर्तियों में हर नारी के भाव, वस्त्र, मुद्रा भिन्न है, कोई मचलती इठलाती नवयुवती है तो कोई काम में व्यस्त प्रौढ़ा, कोई धीर गम्भीर वृद्धा. मुझे यह मूर्तियाँ बहुत सुन्दर लगी. बहुत देर तक उन्हें एक एक करके निहारता रहा. लगा कि मानो उन मूर्तियों में मुझ पर जादू कर दिया हो. दो सदियों से अधिक समय से खुले बाग में धूप, बर्फ़, बारिश ने हर मूर्ति पर अपने निशान छोड़े हैं, कुछ पर छोटे छोटे पौधे उग आये हैं. इन निशानों की वजह से वे और भी जीवंत हो गयी हैं. उनके वस्त्र इस तरह बने हैं मानो सचमुच के हों.

इस दिन को इन मूर्तियों की वजह से कभी भुला नहीं पाऊँगा, और दोबारा उन्हें देखने अवश्य जाऊँगा. प्रस्तुत हैं विल्ला स्पादा के संग्रहालय तथा बाग की कुछ तस्वीरें.


पहली तस्वीरें हैं संग्रहालय की.

Villa Spada, Bologna, Italy

Villa Spada, Bologna, Italy

Villa Spada, Bologna, Italy


इन तस्वीरों में है इतालवी बाग और हरक्यूलिस की मूर्ती.

Villa Spada, Bologna, Italy

Villa Spada, Bologna, Italy


और अंत में यह नारी मूर्तियाँ जो मुझे बहुत अच्छी लगीं.

Villa Spada, Bologna, Italy

Villa Spada, Bologna, Italy

Villa Spada, Bologna, Italy

Villa Spada, Bologna, Italy

Villa Spada, Bologna, Italy

हैं न सुन्दर यह नारी मूर्तियाँ?

***

शुक्रवार, सितंबर 16, 2011

धँधा है, सब धँधा है


अखबार में पढ़ा कि इंफोसिस कम्पनी ने अपने व्यापार को विभिन्न दिशाओं में विकसित करने का फैसला किया है, इसलिए कम्पनी अब प्राईवेट बैंक के अतिरिक्त चिकित्सा क्षेत्र में भी काम खोलेगी. चिकित्सा क्षेत्र को नया "सूर्योदय उद्योग" यानि Sunrise industry कहते हैं क्योंकि इसमें बहुत कमाई है, जो धीरे धीरे उगते सूरज की तरह बढ़ेगी.

सोचा कि दुनिया कितनी बदल गयी है. पहले बड़े उद्योगपति बहुत पैसा कमाने के बाद खैराती अस्पताल और डिस्पैंसरियाँ खोल देते थे ताकि थोड़ा पुण्य कमा सकें, अब के उद्योगपति सोचते हैं कि लोगों की बीमारी और दुख को क्यों न निचोड़ा जाये ताकि और पैसा बने.

पिछले वर्ष फरवरी में चीन में काम से गया था जब छोटी बहन ने खबर दी थी कि माँ बेहोश हो गयी है और वह उसे अस्पताल में ले जा रही है. माँ का यह समय भी आना ही था यह तो कई महीनो से मालूम हो चुका था. पिछले दस सालों में एल्सहाईमर की यादाश्त खोने की बीमारी धीरे धीरे उनके दिमाग के कोषों को खा रही थी, जिसकी वजह से कई महीनों से उनका उठना, बैठना, चलना,सब कुछ बहुत कठिन हो गया था. मन में बस एक ही बात थी कि माँ के अंतिम दिन शान्ती से निकलें. मैं खबर मिलने के दूसरे ही दिन दिल्ली पहुँच गया. अस्पताल पहुँचा तो माँ के कागजों में उन पर हुए टेस्ट देख कर दिमाग भन्ना गया. जाने कितने खून के टेस्ट, केट स्कैन आदि किये जा चुके थे, पर मुझे दुख हुआ जब देखा कि माँ की रीढ़ की हड्डी से जाँच के लिए पानी निकाला गया था.

करीब सत्ततर वर्ष की होने वाली थी माँ. इतने सालों से लाइलाज बिमारी का कुछ कुछ इलाज उसी अस्पताल के डाक्टर कर रहे थे. यही इन्सान की कोशिश होती है कि मालूम भी हो कि कुछ विषेश लाभ नहीं हो रहा तब भी लगता है कि बिना कुछ किये कैसे छोड़ दें. मरीज़ कुछ गोली खाता रहे, तो मन को लगेगा कि हम बिल्कुल लाचार नहीं हैं, कुछ कोशिश कर रहे हैं.

कोमा में पड़ी माँ के अंतिम दिन थे, यह सब जानते थे. किसी टेस्ट से उन्हें कुछ होने वाला नहीं था. उस हाल में खून के टेस्ट, ईसीजी, ईईजी, केट स्कैन आदि सब बेकार थे, पर उन्हें स्वीकारा जा सकता था, यह सोच कर कि इतना बड़ा प्राईवेट अस्पताल चलाना है तो वह लोग कुछ न कुछ कमाने की सोचेंगे ही. पर रीढ़ की हड्डी से पानी निकालना? यानि उनकी इस हालत में जब हाथ, पैर घुटने अकड़े और जुड़े हुए थे, उन्हें खींच तान कर, इस तरह से तकलीफ़ देना, यह तो अपराध हुआ.

मुझे बहुत गुस्सा आया. छोटी बहन को बोला कि तुमने उन्हें यह रीढ़ की हड्दी से पानी निकालने का टेस्ट करने क्यों दिया? वह बोली मैं उन्हें क्या कहती, वह डाक्टर हैं वही ठीक समझते हैं कि क्या करना चाहिये, क्या नहीं करना चाहिये! डाक्टर आये तो मन में आया कि पूछूँ कि रीढ़ की हड्दी से पानी वाले टेस्ट में क्या देखना चाहते थे, लेकिन कुछ कहा नहीं. मैंने उन्हें यही कहा कि मैं माँ को घर ले जाना चाहूँगा. तो बोले कि हाँ ले जाईये, यही बेहतर है, इनकी हालत ऐसी है कि यहाँ हम तो कुछ कर नहीं सकते.

मैं माँ को घर ला सका था क्योंकि मेरे मन में था कि मैं स्वयं माँ का अंतिम दिनो में उपचार करूँगा. कुछ समय तक मैंने आई.सी.यू. में काम किया था, मालूम था कि उनकी देखभाल जिस तरह मैं कर सकता हूँ, उस तरह अन्य लोग नहीं कर सकते. क्योंकि मेरे उपचार में अपना लाभ नहीं छुपा था, केवल माँ के अंतिम दिनों में उनको शान्ति मिले इसका विचार था. लेकिन जिनके अपनों में कोई डाक्टर न हो जो उनका ध्यान कर सके, क्या उसके अच्छा इलाज का अर्थ यही है कि पैसे कमाने वाले "सूर्योदय उद्योग" से उसे निचोड़ सकें?


Graphic on doctor and money

भारत के डाक्टर, नर्स, फिज़योथेरापिस्ट आदि अपने काम के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं. मेरे विचार में अगर कोई चिकित्सा क्षेत्र में काम करने की सोचता है तो उसे धँधा समझ कर यह सोचे, ऐसे लोग कम ही होंगे. इस क्षेत्र में काम करने वाले अधिकतर लोग अपने मन में स्वयं को भले आदमी के रूप में ही देखते सोचते हैं कि वह लोगों की भलाई का काम कर रहे हैं. लेकिन जब अपने काम से अपनी रोटी चलनी हो और मासिक पागार नहीं बल्कि कौन मरीज़ कितना देगा की भावना हो तो धीरे धीरे लालच मन में आ ही जाता है. बिना जरूरत के आपरेशन से बच्चा करना, बिना बात के ओपरेशन करना या दवाईयाँ खिलाना, नयी बिमारियाँ बनाना, बेवजह के टेस्ट और एक्सरे कराना, जैसी बातें इसी लालच का नतीजा हैं.

हर क्षेत्र की तरह इस क्षेत्र में भी अच्छे और बुरे दोनो तरह के लोग होते हैं. भारत में चिकित्सा क्षेत्र में काम करने वाले ऐसे बहुत से लोगों को जानता हूँ जो आदर्शवादी हैं और इसे सेवा के रूप में देखते हैं. भारत के चिकित्सा से जुड़े कुछ उद्योगों ने भी दुनिया में अपनी धाक आदर्शों के बल पर ही बनायी है, जैसे कि जेनेरिक दवा बनाने वाले तथा सिपला जैसी दवा बनाने की कम्पनियाँ जिन्होंने एडस, मलेरिया, टीबी जैसी बीमारियों की सस्ती दवाईयाँ बना कर विकासशील देशों में रहने वाले गरीब लोगों को इलाज कराने का मौका दिया है.

पर बड़े शहरों में पैसे वालों के लिए सरकारी अस्पतालों की तुलना में पाँच सितारा अस्पतालों में या नर्सिंग होम में लोगों को सही इलाज मिल सकेगा, इसके बारे में मेरे मन में कुछ दुविधा उठती है. वहाँ सरकारी अस्पताल सी भीड़ और गन्दगी शायद न हो, लेकिन क्या चिकित्सा की दृष्टि से वह इलाज मिलेगा जिसकी आप को सच में आवश्यकता है?

अहमदाबाद की संस्था "सेवा" के एक शौध में निकला था कि भारत में गरीब परिवारों में ऋण लेने का सबसे पहला कारण बीमारी का इलाज है. प्राईवेट चिकित्सा संस्थाओं को बीमारी कैसी कम की जाये, इसमें दिलचस्पी नहीं, बल्कि पैसा कैसे बनाया जाये, इसकी चिन्ता उससे अधिक होती है. वहाँ काम करने वाले लोग कितने भी आदर्शवादी क्यों न हों, क्या वह निष्पक्ष रूप से अपने निर्णय ले पाते हैं और वह सलाह देते हैं जिसमें मरीज़ का भला पहला ध्येय हो, न कि पैसा कमाना?

इसीलिए जब सुनता हूँ कि भारत में अब अमरीका जैसे बड़े स्पेशालिटी अस्पताल खुले हैं जहाँ पाँच सितारा होटल के सब सुख है, जहाँ सब नयी तकनीकें उपलब्ध हैं, विदेशों से भी लोग इलाज करवाने आते हैं, तो मुझे लगता है कि अगर मुझे कुछ तकलीफ़ हो तो वहाँ नहीं जाना चाहूँगा, कोई सीधा साधा डाक्टर ही खोजूँगा.

***

शनिवार, अगस्त 13, 2011

राखी का वचन

कल शाम को काम से घर लौटा तो अपनी दोनो बहनों की ईमेल देखी जिसमें राखी बाँधने की बात थी. एक भारत में रहती है, दूसरी अमरीका में. पहले कई सालों तक दोनो बहनें लिफ़ाफ़े में राखी भेजती थीं जो अक्सर त्योहार के कुछ दिनों बाद मिलती थीं और मैं अपनी पत्नी या बेटे से कहता था कि बाँध दो.

अब कल्पना की राखी से ही काम चल जाता है. वह कहती हैं कि हम प्यार से भेज रहे हैं, और हम प्यार से कहते हैं कि मिल गयी तुम्हारी राखी. आज की दुनिया में वैसे ही इतना प्रदूषण हैं, इस तरह से राखी मनाना पर्यावरण के लिए भी अच्छा है.

आज सुबह फेसबुक के द्वारा कुछ इतालवी "मित्रों" के संदेश भी मिले, पुरुषों के भी और स्त्रियों के भी, "हैप्पी रक्षाबँधन". यहाँ बहुत से मित्र भारत प्रेमी हैं, जो देखते रहते हैं कि भारत में क्या हो रहा है और होली, दीवाली तथा अन्य त्योहारों पर याद दिला देते हैं कि वे भी हैं, जो हमारे बारे में सोचते हैं. क्या इस तरह के संदेश मिलने को भी राखी बाँधना समझा जाये? तो अन्य पुरुषों से राखी मिलने को क्या समझा जाये?

बचपन में सोचते थे कि राखी तो भाई बहन के पवित्र बँधन का त्योहार है. कुछ बड़े हुए तो मालूम चला कि लड़के लड़कियाँ दोस्ती को छिपाने के लिए भी राखी बाँध कर भाई बहन बन सकते हैं. अब यह फेसबुकिया नये राखी वाले भाई बहन की एक नयी श्रेणी बन जायेगी. जिस इतालवी "फेसबुक मित्र" ने भी मुझे रक्षाबँधन के संदेश भेजे, सबको मैंने यही उत्तर दिया कि मेरा भाई या बहन बनने के लिए बहुत धन्यवाद. बस यह नहीं लिखा उन्हें कि रक्षाबँधन पर वचन क्या दे रहा हूँ.

फ़िर इसी बात से सोचना शुरु किया कि आज की दुनिया में राखी जैसे त्योहार का क्या अर्थ है? युद्ध में जाते हुए भाई को राखी बाँधने वाली बहन उसकी मँगल कामना करती थी और भाई यह वचन देता था कि ज़रूरत पड़ने पर वह बहन की सहायता के लिए आयेगा. राखी भाई की रक्षा करेगी, और भाई बहन की रक्षा करेगा.

Graphics on Rakhi designed by Sunil Deepak, 2011

पर आज भाई युद्ध पर नहीं नौकरी पर जाते हैं, और बहने भी घर में नहीं बैठती, वे भी पढ़ने स्कूल व कोलिज जाती हैं, नौकरी करती हैं.

भारतीय समाज में बहन की रक्षा करने का अर्थ पितृपंथी समाज ने कई तरह से लगाया है जिसमें जाति और धर्म की रक्षा तथा नारी की शारीरिक पवित्रता की रक्षा की बाते जुड़ी हैं. बहन की रक्षा यानि परधर्मी उसकी इज़्ज़त न लूटें, वह परधर्मियों या जाति से बाहर लोगों से प्रेम या विवाह न करे, अगर वह ऐसा करती है तो उसे और उसके प्रेमी/पति को मार दिया जाये, शारीरिक इज़्ज़त खोने से तो मरना अच्छा है, पति न रहे तो सति होना अच्छा है, जैसी बहुत सी बातें "बहन की रक्षा" करने की बात से भी जुड़ी हैं.

नारी या परिवार की इज़्ज़त बचाने लिए औरतों को मारने को "अस्मिता बचाने के खून" (Honour Killing) जैसे नाम दिये गये हैं. इसी वजह से बलात्कार की शिकार औरतों और लड़कियों को कहा जाता है कि अब तुमने अपनी इज़्ज़त खो दी, अब तुममें खोट हो गया, अब तुम बेकार हो गयी, अब तुम से कौन विवाह करेगा? यहाँ तक कि उस लड़की से कहा जाता है कि वह अपने बलात्कारी से ही विवाह कर ले.

शायद बड़े शहरों में रहने वाले सोचें कि यह सब तो पुरानी बाते हैं लेकिन मेरे विचार में गाँवों और पिछड़ी जगहों में ही नहीं, आज भी हमारे शहरों में इस तरह के विचार ज़िन्दा हैं, और इनमें अगर बदलाव आ रहा है तो बहुत धीरे धीरे.

पाकिस्तानी फ़िल्म "खामोश पानी" में ऐसी ही एक सिख नारी की कहानी थी जिसका पात्र भारतीय अभिनेत्री किरण खेर ने निभाया था, जिसे उसका परिवार पाकिस्तान में ही पीछे छोड़ आया थे. अमृता प्रीतम की कहानी पर बनी चन्द्र प्रकाश द्विवेदी की फ़िल्म "पिंजर" में भी कुछ इसी तरह की बात थी, जिसमें हिन्दु परिवार द्वारा त्यागी पूरो का पात्र अभिनेत्री उर्मिला मटोँडकर ने निभाया था. दोनो फ़िल्में भारत के विभाजन के समय की कहानी सुना रही थीं, लेकिन क्या इन साठ सालों में हमारे समाज की मानसिकता बदली है?

फ़िल्मों ही नहीं, अखबारों में भी इस तरह के समाचार आते ही रहते हैं.

मेरे विचार में आज रक्षाबँधन पर भाईयों को विचार करना चाहिये कि अपनी बहनों का क्या वचन दें जिससे यह समाज, और समाज में नारियों की यह परिस्थिति बदल सके?

जैसे किः "मेरी बहन, मैं वचन देता हूँ कि तुम्हे पढ़ने का, नौकरी करने का, मन पसंद साथी से प्यार और विवाह करने का मौका मिलेगा. वचन देता हूँ कि अगर तुम किसी वजह से पति के घर में सतायी जाओ तो तुम्हारा साथ दूँगा, संरक्षण दूँगा. कोई तुम पर ज़ोर लगाये कि बेटी पैदा करने के बजाया गर्भपात करो तो उसका विरोध करूँगा."

अगर आप से पूछा जाये कि आज के वातावरण में भाईयों को रक्षाबँधन पर बहनो को क्या वचन देना चाहिये, तो आप क्या वचन देना चाहेंगे?

***

शुक्रवार, अगस्त 12, 2011

अधिकारों का आरक्षण


जब एक मानव अधिकार, किसी दूसरे के मानव अधिकार को प्रभावित करे, तो किस मानव अधिकार को महत्व और सरंक्षण मिलना चाहिये? श्री प्रकाश झा की नयी फ़िल्म "आरक्षण" पर हो रही बहसों के बारे में पढ़ कर मैं यही बात सोच रहा था.

इस बहस में है एक ओर फ़िल्म बनाने वालों की कलात्मक अभिव्यक्ति का अधिकार, अपनी बात कहने का अधिकार, और दूसरी ओर है, दलित शोषित मानव वर्ग की चिन्ता कि सवर्णों की कलात्मक अभिव्यक्ति के नाम पर उन्हें फ़िर से नीचा दिखाने और संघर्षों से अर्ज़ित अधिकारों के विरुद्ध बात की जायेगी.

Poster of film - Aarakshan

कौन सा अधिकार सर्वोच्च माना जाया उसकी यह बहस नयी नहीं है और अन्य मानव गुट बहुत समय से इसका समाधान खोज रहे हैं.

जैसे कि विकलाँग व्यक्तियों के अधिकारों तथा नारी अधिकारों की बात करने वाले गुटों की बहस.

नारी अधिकारों में गर्भपात का अधिकार भी है, जिसे कुछ देशों में बहुत कठिनायी से जीता गया है. इस अधिकार का अर्थ है कि गर्भ के पहले 18 से 20 सप्ताह में, अगर नारी किसी वजह से उस गर्भ को नहीं चाहती तो वह गर्भपात करवा सकती है. बहुत से देशों में यह अधिकार नहीं है. कैथोलिक धर्म नेताओं ने इस अधिकार का हमेशा विरोध किया है क्योंकि वह मानते हैं कि जीवन उसी क्षण से प्रारम्भ हो जाता है जब नर और नारी के अंश मिल कर गर्भ की शुरुआत करते हैं, इसलिए उनका मानना है कि नारी का गर्भपात का अधिकार, होने वाले बच्चे के जीवन के अधिकार के विरुद्ध है, और जीवन का अधिकार सर्वोच्च है. चाहे होने वाला बच्चा बलात्कार का परिणाम हो या यह मालूम हो कि बच्चा विकलाँग होगा, कैथोलिक धर्म नेता यही कहते हैं कि उसका जीवन अधिकार नहीं छीना जा सकता.

विकलाँग व्यक्तियों के अधिकारों के लिए लड़ने वालों का कहना है कि यह मानना कि विकलाँग होने से किसी व्यक्ति को जीने का अधिकार नहीं, और उसे गर्भपात से मारने की अनुमति देना गलत है, विकलाँग बच्चों को भी पैदा होने का अधिकार है. वह नारियों के गर्भपात के अधिकार के विरुद्ध नहीं लेकिन कहते हैं कि यह गलत है कि केवल इस लिए गर्भपात किया जाये क्योंकि होने वाला बच्चा विकलाँग होगा.

विकलाँग व्यक्तियों के अधिकारों के लिए लड़ने वाले गुट भी टीवी, फ़िल्म आदि में विकलाँग व्यक्तियों के चित्रण के विरुद्ध लड़ते आये हैं. उनका कहना है कि अक्सर सिनेमा में विकलाँग व्यक्तियों को हास्यप्रद व्यक्ति बनाया जाता है जिसमें लोग उनकी विकलाँगता का मज़ाक उड़ाते हैं, उनके बारे में अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करते हैं, उनके पुरुष होने या स्त्री होने के मानव अधिकारों को नकारते हैं.

तो प्रकाश झा की "आरक्षण" के बारे में हो रही बहस का क्या समाधान है? मेरे विचार में इसका समाधान बहस ही है, यानि फ़िल्म क्या कहती है, कैसे कहती है, हम उससे सहमत हैं या असहमत, इस पर सभ्यता से बहस करना.

यह कहना कि उसकी कहानी बदल दी जाये या उसके डायलाग बदल दिये जायें, यह नकारना है कि दुनिया में ऐसे व्यक्ति होते हें जो उस तरह का सोचते या बोलते हैं, और फ़िल्मकार की स्वतंत्रता पर रोक लगायी जाये कि कौन से पात्र चुने, कौन सी कहानी कहे.

यह कहना कि फ़िल्में, कहानियाँ, उपन्यास, दलितों के विरुद्ध कुछ भी कहने से पहले इस व्यक्ति या उस कमिशन या इस दल की अनुमति लें का अर्थ हर नागरिक के अधिकारों का हनन है.

चाहे सवर्ण हो या दलित, मराठी हों या गुजराती या बँगाली, नर हो या नारी, अमीर हो या गरीब, हर समाज में कुछ लोग होते हैं जो बात चीत में नहीं बल्कि हिँसा में और तानाशाही में विश्वास रखते हैं. मुम्बई में जब शिवसैना के लोग किसी फ़िल्म को या किताब को या चित्रकला को बैन करने या नष्ट करने के लिए धमकी देते हैं वह लोग उन दलित नेताओं से किस तरह भिन्न हैं जो किसी फ़िल्म को या किताब को बैन करने की माँग करते हैं? किसी भी बात पर, लोगों को अपनी सहमती असहमती को न जताने देना, यह कहना कि बस मेरी बात मानिये, गणतंत्र का हिस्सा नहीं, तानाशाही का हिस्सा है.

जिन राज्यों ने फ़िल्म को प्रदर्शित होने से रोका है, मालूम है कि रोकने से केवल सिनेमा हाल में फ़िल्म रोकी जायेगी. इस रोक से बहुत से लोगों में फ़िल्म देखने की उत्सुकता बढ़ेगी और दूसरे तीसरे दिन ही पायरेटिक डीवीडी बाज़ार में मिल जायेंगी. जो लोग देखना चाहते हैं वह फ़िल्म तो देखेंगे, हाँ निर्माता निर्देशक को अवश्य आर्थिक नुकसान होगा, और डँडाराज की मानसिकता इसी से प्रसन्न होगी, कि कैसा पाठ पढ़ाया, अगली बार कोई हमारे सामने सिर नहीं उठायेगा. सवर्णों ने सदियों से यही किया है, डँडाराज के सहारे दलितों को दबाया है, जब मौका मिलता है तो दलित क्यों न वही हथियार उठायें?

***

बुधवार, अगस्त 10, 2011

दुनिया का स्वाद

एक ही वस्तु से विभिन्न लोगों के अनुभव भिन्न भिन्न होते हैं. जिस वस्तु से हमें आनन्द मिलता है, किसी अन्य को उसी से भय लग सकता है. किस वस्तु का कैसा अनुभव होगा, यह हमारी मनस्थति पर निर्भर करता है.

मान लीजिये कि आप एक सड़क पर जा रहे हैं, सड़क के दोनो ओर बहुत से वृक्ष लगे हैं. शीतल हवा चल रही है, पक्षी चहचहा रहे हैं. उस सड़क से गुज़रते हुए आप को क्या अनुभव होगा यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप की मनस्थिति कैसी होगी. अगर आप सैर को निकले हैं तो प्रसन्न हो कर शायद आप गीत गुनगुनाने लगें. अगर लम्बी यात्रा से चल कर आ रहे हैं, थके हुए हैं तो आप किसी बात पर ध्यान न दें, बस अपने टाँगों के दर्द और थकान के बारे में सोचें. अगर आप ने नया जूता पहना जो पाँव को काट रहा है तो आप का सारा ध्यान अपने पैरों की ओर हो सकता है. अगर आप को नया नया प्यार हुआ है और आप के आगे आप की प्रेयसी अपनी सहेलियों के साथ जा रही है, तो शायद आप यही सोच रहे हों कि कैसे उससे अकेले में बात कर सकें, उस सड़क का अन्य कुछ आप को नहीं दिखता. अगर किसी प्रियजन के शव के पीछे पीछे शमशान घाट जा रहे हों, तो हृदय दुख से भरा होगा. अगर किसी को मिलने का समय दिया हो और देर हो गयी हो, तो जल्दी जल्दी में होंगे. यानि इन सब मनोस्थितियों में उसी सड़क का अनुभव आप को अलग अलग तरह से होगा.

मनस्थिति के हिसाब से हमारे देखने, सुनने, छूने, सूँघने या स्वाद में फ़र्क आये, इस बात को समझना आसान है. लेकिन क्या हमारी इन्द्रियों पर हमारी सभ्यता, पढ़ायी, सामाजिक स्थिति आदि का भी प्रभाव पड़ता है?

फ्राँस के सामाजिक शास्त्री, मानव व्यवहार शास्त्र के विषशज्ञ तथा लेखक श्री दाविद ल ब्रेतों (David Le Breton) ने अपनी किताब "दुनिया का स्वाद" (La saveur du Monde - une anthropologie des sens, 2006) में इसी प्रश्न पर लिखा है.

उनका कहना है कि पहले श्रवण यानि सुनने को ऊँचा स्थान दिया जाता था लेकिन आज की पश्चिमी दुनिया में दृष्टि का स्थान सर्वोच्च हो गया है, जिसके सामने बाकी सब इन्द्रियों का महत्व कम हो गया है. यानि कि हम जो भी अनुभव करते हें उसमें हमारा दिमाग दृष्टि से मिलने वाली सूचनाओं को अधिक ध्यान देता है, बाकी सब सूचनाओं को उतना ध्यान नहीं देता.

अपनी किताब में उन्होंने इसका एक उदाहरण धरती के उत्तरी ध्रुव के पास बर्फ़ में रहने वाली जातियों के जीवन से दिया है. वह कहते हैं कि जहाँ सब कुछ बर्फ़ से ढका हो, यूरोप से आने वाले आगुंतक के लिए यह समझना बहुत कठिन है कि कौन सी दिशा से जाना चाहिये, क्योंकि वह दृष्टि पर अधिक निर्भर है, जबकि वहाँ के रहने वाले, दृष्टि पर बहुत कम निर्भर करते हैं बल्कि बाकी इन्द्रियों पर अधिक ध्यान देते हैं. इस तरह से जब वहाँ के रहने वाले, बर्फ़ में, या अँधेरे में भी, जानते हैं कि किस दिशा में जाना चाहिये तो यूरोप से आये लोग हैरान रह जाते हैं.


श्री ल ब्रेतों का यह भी कहना है कि टेलीविजन, इंटरनेट आदि की वजह से आधुनिक मानव के जीवन में दृष्टि का महत्व और भी बढ़ता जा रहा है. दृष्टि के बाद स्थान आता है सुनने का, पर शहरों में रहने वाले अधिकाँश लोग आसपास में वातावरण में होने वाली ध्वनियों को नहीं सुन पाते, यानि सुनते हैं लेकिन बता नहीं पाते कि क्या सुना. दृष्टि के बाद स्थान आता है स्वाद का, पर यह भी कम हो रहा है. आधुनिक मानव में छूना यानि स्पर्श और सूँघने की शक्ति में सबसे अधिक कमज़ोरी आयी है.

वह मानते हैं कि इन्द्रियाँ दिमाग के काबू में हैं और जिस तरह से दिमाग का विकास होता है, वही तय करता है कि उस मानस में कौन सी इन्द्री का महत्व अधिक होगा.

श्री ल ब्रेतों भारत या पूर्वी देशों की बात नहीं करते लेकिन भारतीय दर्शन में "विश्व माया है" का विचार महत्वपूर्ण जिसमें इन्द्रियों की तुलना घोड़ों से की गयी है जिन्हें मस्तिष्क के सारथी द्वारा काबू में रखने की बात होती है.

कैनोपानिषद में इन्द्रियों की बात करते हुए एक एक इन्द्री के काम का वर्णन है और हर एक के बारे में यही प्रश्न उठता है कि ध्वनि, दृष्टि, स्वाद, स्पर्श आदि जो अनुभव कराते हैं उसे अनुभव करने वाला मानव शरीर के अन्दर कौन है? इसका हर बार एक ही उत्तर है कि वही आत्मा ही ब्राह्मण यानि जगत संज्ञा है, वही परमेश्वर है न कि वे देवी देवता जिनकी पूजा की जाती है. कैनोपानिषद के इस हिस्से की पहली ऋचा ध्वनि पर हैः
यदाचानुभ्युदितं येन वागभ्युद्यते !
तदेव ब्रह्मा त्वं नेदं यदिदमुपासते ॥
तो क्या इसका यह अर्थ लगाया जाये कि प्राचीन भारत में स्वर को यानि श्रवण इन्द्री को सबसे अधिक महत्व दिया जाता था? कैनोपानिषद में दिमाग को भी इन्द्रियों का हिस्सा माना गया है, यानि जिस दिमाग से हम सोचते हैं, कि हमारी इन्द्रियों ने हमें क्या अनुभव दिया, वह भी एक इन्द्री है, तथा हमारे प्राण यानि श्वास भी एक इन्द्री हैं.

इस तरह से प्राचीन भारतीय दर्शन श्री ल ब्रेतों की सोच से भिन्न है. लेकिन अगर भारतीय दर्शन की बात को छोड़ कर श्री ल ब्रेतों की दृष्टि से देखने की कोशिश करें तो क्या भारतीय मानस के इन्द्रियों द्वारा जगत अनुभव करने में कौन सी इन्द्री का अधिक महत्व है?

क्या भारत के लोग, सभी इन्द्रियों को एक सा महत्व देते हैं और उनका समन्वय करके जगत को समझते हैं?

क्या टेलीविज़न, फ़िल्मों, इंटरनेट के साथ साथ, भारतीय जगत अनुभव भी दृष्टि को ही सबसे अधिक महत्व दे रहा है? आप का क्या विचार है?

***

इस वर्ष के लोकप्रिय आलेख