संदेश

जनवरी, 2006 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

सेठ ने कहा

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बहुत बार मन में विचार आता, यह जीवन किस लिए मिलता है, क्या अर्थ है इस जीवन का ? शायद ऐसे विचार तभी अधिक आते हैं जब इन्सान को रोज़मर्रा के जीवन में आम चिन्ताओं से मुक्ति मिल गयी हो. यानि कि, जब रहने, खाने, पहनने के लिए भरपूर हो तो मन इस तरह के सवालों से परेशान रहता है ? इन प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए बहुत किताबें पढ़ीं. योग, मोक्ष, निर्वाण, भक्ति जैसे विषयों पर पढ़ा. विवेकानंद, डा. राधाकृष्णन, जे. कृष्णामूर्ती और श्री अरबिंदो जैसे विचारकों की किताबें भी पढ़ी. विभिन्न धर्मों के ग्रंथ क्या कहते हैं वह भी पढ़ा. इतना सब कुछ पढ़ने के बाद भी ऐसा कोई उत्तर नहीं मिला जो मन को पूरी तरह भाया हो. भग्वदगीता और कठोउपानिषद दोनो किताबें मुझे बहुत अच्छी लगीं पर हिंदू धर्म का मुख्य जीवन दर्शन का संदेश, "यह जग माया है, विरक्ति से जीवन जीना सीखो. लोगों से, वस्तुओं से मोह न बाँधो, अपने कर्तव्य का पालन करो", मुझे अधूरा सा लगता है. जीवन माया है और हमें अपने कर्म का सोचना चाहिये, बिना किसी फ़ल की आशा किये हुए, का संदेश यह नहीं बताता कि यह जीवन हमें क्यों मिला ? कर्म और पुनर्जन्म का विश्वास भी मुझे यह उत

बर्फ की ख़ामोशी

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कल २६ जनवरी थी. दो सप्ताह पहले जब दिल्ली में थे तो राजपथ और इंडियागेट के आसपास से गुज़रते समय, गणतंत्र दिवस की परेड में भाग लेने वाला कोई न कोई दल अपना अभ्यास करता दिख जाता था. कई बार दिल किया वहीं गाड़ी रुकवा कर उन्हें देखने का, पर इतने काम थे और समय इतना कम, कि हर बार यह बात मन में ही रह गयी. बचपन में कुछ बार परेड देखने राजपथ पर गये थे. एक बार दिल्ली नगर पालिका के स्कूलों के शिक्षकों की परेड थी तो उसमें माँ ने भी भाग लिया था. कुछ और सालों के बाद, छोटी बहन थी स्काऊट के दल में. रिज रोड पर रवींद्र रंगशाला में कैम्प लगता जहाँ विभिन्न प्रदेशों से आये लोक नर्तक दल ठहरते थे, उनके बीच में घूमना, उनकी विभिन्न भाषाओं की बाते सुनना, बहुत अच्छा लगता. फ़िर स्कूल की पढ़ाई पूरी होने पर, स्कूल के सभी साथी क्नाट प्लेस में जमा होते और वहाँ रहने वाले अपने एक साथी के घर से २६ जनवरी की परेड देखते. उन सब पुराने साथियों से बेटे के विवाह के दौरान परिचय हुआ, तो पुरानी २६ जनवरियों की बातें याद आ गयीं. ****** कल सुबह उठा तो बर्फ गिर रही थी. जब बर्फ गिरती है तो आसपास ख़ामोशी सी छा जाती है. हर ध्वनि दबी दबी सी लगत

पेड़ों के नाम

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कल प्रदीप कृष्ण की दिल्ली के पेड़ों के बारे में लिखी नयी किताब के बारे में पढ़ कर बहुत खुशी हुई. समाचार में लिखा है कि इस किताब के लिए उन्होंने कई वर्ष तक शोध किया है और शाहजहान के ज़माने से ले कर अँग्रेजी जमाने तक की राजकीय पेड़ों को लगाने की नीतियाँ और उनके चाहे या अनचाहे असर का भी विषलेशण किया है. शायद यह दिल्ली की सीमेंट और कोलतार के बीच में बड़े होने का परिणाम था पेड़ों की तरफ कभी कोई विषेश ध्यान नहीं दिया. हमारे अपने घर में तो बस एक कनेर का पेड़ था, जो पेड़ कम, झाड़ अधिक था पर पड़ोसी घर में जामुन और अमरुद के पेड़ थे. फ़िर भी आज जामुन और अमरूद के पेड़ नहीं पहचान सकता. कुछ गिने चुने पेड़ों की ही पहचान है जैसे, आम, पीपल, नीम, कीकर. फ़ूलों वाले पेड़ों में दिल्ली गुलमोहर और अमलतास के लिए प्रसिद्ध है. लेकिन अगर फ़ूल न हों तो मेरा ख्याल है कि मैं केवल गुलमोहर को पहचान सकता हूँ. कई साल इटली में रहने बाद ही अचानक मेरी आँख खुली कि दुनिया में पेड़ भी होते हैं, व्यक्तियों जैसे, एक दूसरे से भिन्न, जीवित प्राणी. इसका सबसे बड़ा कारण हमारा कुत्ता ब्राँदो है जिसके साथ प्रतिदिन बाग में या शहर के बाहर खेतों के पा

नेपाल में

कल सुबह छः बजे पुलिस अचानक उनके घर में घुस आयी और उन्हें गिरफ्तार कर के ले गयी. मैं मथुरा प्रसाद जी की बात कर रहा हूँ जो एक समय में नेपाल के स्वास्थ्य मंत्री भी रह चुके हैं. इसीलिए कल दिन भर मथुरा प्रसाद जी के जानने वालों के संदेश आते रहे. कुछ महीने पहले ही उनसे एक्वाडोर में जन स्वास्थ्य अभियान की आम सभा के दौरान मुलाकात हुई थी, और उन्हें वादा किया था कि अगली बार काठमाँडू जाऊँगा तो उन्हें मिलने अवश्य जाऊँगा. इन महीनों में मथुरा प्रसाद जी नें किसी डर से चुप रहना स्वीकार नहीं किया और ईमेल के द्वारा देश की बिगड़ती हालत के बारे में अपने बयान जारी रखे थे, जो शासन को निश्वय ही पसंद नहीं आये. एक तरफ है एमरजैंसी जैसी हालत जिसमे जनतंत्र को दबा दिया गया है. दूसरी ओर है माओवादी क्राँतीकारी जो सामाजिक न्याय के नाम पर शुरु तो हुए थे पर जहाँ पहुँच गये हैं, वह न्याय कम, दूसरी तरह की तानीशाही अधिक लगता है. नेपाल के समाचार सुन कर बहुत चिंता होती है.

कम कीमत के लोग

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कल शाम को जब बिनिल का टेलीफोन आया तो मैं पहले तो समझ ही नहीं पाया कि कौन बोल रहा है. बिनिल बोलोनिया के "हिंदू धर्म सुरक्षा समिति" के अध्यक्ष हैं. इनकी समिति के करीब ४० सदस्य हैं और सभी लोग बंगाली हैं, कुछ कलकत्ता के और कुछ बंगलादेश के हिंदू. हर साल यह समिति बोलोनिया की दुर्गा पूजा का आयोजन करती है. बिनिल ने एक परेशानी का समाधान खोजने के लिए टेलीफोन किया था. उनकी समिति के एक सदस्य, ५० वर्षीय दलाल शाह, का कुछ दिन पहले अस्पताल में देहांत हो गया. वह बोलोनिया में अकेले ही रहते थे. उनके परिवार में उनकी पत्नी, बेटी और बेटा, कलकत्ता रहते हैं. दिक्कत यह है कि दलाल यहाँ गैर कानूनी तरीके से आये थे और बँगलादेश का पासपोर्ट बनवा कर शरणार्थी बन कर रह रहे थे. उनके पासपोर्ट पर लिखा है कि वह अविवाहित हैं. तो कैसे उनका शरीर वापस भारत उनके परिवार के पास क्रिया कर्म के लिए ले जाया जाये, यह समस्या है. सुना है कि कलकत्ता से लोगों को यहाँ लाने के लिए और बँगलादेशी पासपोर्ट दे कर उन्हें शरणार्थी बनवाना कोई नयी बात नहीं है और गैर कानूनी ढ़ंग से प्रवासियों को यूरोप लाने का जाना माना तरीका है. बिनिल ने बत

नये साल के विचार

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हर साल ही नये साल आता है तो नये साल में क्या नया करना है या क्या पुराना छोड़ना है, इसका सोवना शुरु हो जाता है. हालाँकि अपने सारे वायदे थोड़े दिनों में ही भूल जाता हूँ फ़िर भी, आदत बदलना आसान नहीं है. इस साल इस सोच में एक अन्य बात का असर भी आ गया था कि बेटे के विवाह से हमारे जीवन का भी नया अध्याय शुरु हो रहा है, यानि उम्र की घड़ी बिना रुके लगातार चलती जा रही है और अपने हिस्से का बचा समय कम होता जा रहा है. क्या ऐसा करना चाहता था जो नहीं किया या कर पाया ? यह प्रश्न था मेरा स्वयं से. यूँ तो मन में हज़ारों इच्छाएँ होती हैं, पर मेरा ध्येय था उस बात को खोजना जिसकी इच्छा सबसे प्रबल हो, जिसका न कर पाना मुझे सबसे अधिक खलता हो. वह इच्छा है एक उपन्यास लिखना! कहते हैं कि हम सब के भीतर एक उपन्यास छिपा है. मैंने अपने भीतर छुपे उपन्यास को शुरु करने की चेष्टा पहले भी की थी, पर तब हिंदी में लिख पाने का आत्म विश्वास नहीं था, इसलिए वह पहला ड्राफ्ट अँग्रेज़ी में लिखा गया था. डेढ़ साल पहले लिखा था और अलमारी में बंद कर दिया था, सोचा था कि कुछ समय बीतने के बाद दूसरा ड्राफ्ट लिखूँगा. इस बीच इस चिट्ठे के माध्यम से

नौटंकी की तलाश (३)

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उग्रसेन की बावली से बाहर निकले तो दिल में इतनी सुंदर जगह देखने की खुशी भी थी और उसकी बुरी हालत पर थोड़ी निराशा भी. अगर पुरातत्व विभाग और दिल्ली प्रशासन इस जगह की अच्छी तरह से देखभाल कर कर के यहाँ पहुँचने के लिए कुछ मुख्य सड़क पर कोई संकेत लगा दें तो यहाँ बहुत पर्यटक आयेंगे. बावली पर पहुँचने का रास्ता हैः बारहखम्बा मार्ग से हेली रोड पर मुड़िये, करीब २५ मीटर के बाद दाहिनी ओर हेली लेन में मुड़ जाईये और फिर लेन में छोटी सी गली बाँयी ओर जाती है, उसमे मुड़ जाईये. हेली रोड से पैदल जाने का पाँच मिनट का रास्ता है. खैर बावली से निकले तो बाहर धोबियों के धोये हुए, धूप में सूखते, फ़ैले कपड़ों को देख कर उनकी तस्वीर लेनी चाही. हमें देख कर एक युवक ने हमें उसी गली में बने धोबी घाट को देखने का आमंत्रण दिया. इससे पहले कभी कोई धोबी घाट नहीं देखा था और मन में यह ज्ञियासा भी थी कि शहर के बीचों बीच में कैसे धोबी घाट बन सकता है, क्योंकि मेरा विचार था कि धोबी घाट केवल नदी के किनारे ही होते हैं. इसलिए आमंत्रण हमने तुरंत स्वीकार कर लिया. हेली लेन का धोबी घाट विषेश बड़ा नहीं है. कुछ नहाने के टब और कुछ बने हुए घाट मिला क

नौटंकी की तलाश में (२)

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मुझे सलाह दी गयी कि श्रीराम सेंटर पर कोशिश कीजिये, वहाँ नौटंकी की किताब जरुर मिल जायेगी. यही सलाह कल शैल ने भी दी तो इसका अर्थ है कि सलाह गलत नहीं थी. खैर हम पत्नी को साथ ले कर निकल पड़े. मंडी हाऊज़ के पास बने आजकल श्रीराम सेंटर में एक अंतर्राष्ट्रीय नाटक समारोह चल रहा है जिसका पोस्टर बहुत सुंदर है. श्रीराम सेंटर में हिंदी की किताबों की बहुत अच्छी दुकान है और वहाँ काम करने वाली महिला हमारी सहायता के लिए बहुत तत्पर थीं. नाटक की बहुत सारी किताबें थीं वहाँ पर लेकिन उनमें नौटंकी के नाटक की कोई किताब नहीं थी. इतनी दूर आ कर भी बात नहीं बनी तो जी थोड़ा उदास हो गया. मैट्रो स्टेशन को ढ़ूँढ़ते हुए पैदल ही क्नाट प्लेस की तरफ चल पड़े. अचानक नज़र दाहिनी ओर की सड़क के नाम पर पड़ी, "हेली रोड". कुछ दिन पहले ही बात हो रही थी "उग्रसेन की बावली" की जब हमने घर में "हजारों ख्वाहिशें ऐसी" फिल्म देखी थी. इस फिल्म में एक दृष्य है जो इस बावली की नीचे जाती हुई सुंदर सीढ़ियों पर फिल्माया गया है. तो मेरी भतीजी बोली थी कि यह बावली मंडी हाऊज़ के पास हेली रोड पर है और वह अपने स्कूल के साथ वहाँ

नौटंकी की तलाश में (१)

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रोम की एक इतालवी छात्रा जो हिंदी पढ़ती हैं और नौटंकी के विषय पर शोध कर रहीं हैं, को कहा था कि दिल्ली जाऊँगा तो तुम्हारे लिए नौटंकी के नाटक की किताब ढ़ूँढ़ूगा. पहले तो बेटे के विवाह की खरीददारी के दौरान ही कुछ दुकानों पर पूछा पर नहीं मिली. विवाह के कामों से छुट्टी मिली तो सोचा कि दरियागंज के पुस्तक बाज़ार में ढ़ूँढ़ा जाये. दक्षिण दिल्ली से पहले क्नाट प्लेस आया फिर मेट्ररो ले कर चावड़ी बाज़ार. मेट्ररो जहाँ आधुनिक तकनीक से बनी, स्वच्छ वातावरण से सजी, बीसवीं सदी का यातायात है, चावड़ी बाज़ार अभी अठाहरवीं शताब्दी में खोया लगता है और मेट्ररो स्टेशन से बाहर निकल कर झटका सा लगा मानो "बैक टू फ्यूचर" फिल्म में पहुँच गया हूँ. छोटी छोटी गलियाँ, दुकानें, भीड़ भड़क्का, गाँयें, बकरियाँ, भेड़ें, सामान ढ़ोते गधे, बुरका पहने स्त्रियाँ, गंदे पानी की खुली नालियाँ आदि वह दुनियाँ बनाते हैं जो धीरे धीरे दिल्ली जैसे बड़े शहरों से लुप्त हो रही है. सीताराम बाज़ार से हो कर तुर्कमान गेट की तरफ आया. यह वही जगह है जहाँ एमरजैंसी के दौरान संजय गाँधी ने झुग्गी झौंपड़ी सफाई और जबरदस्ती नसबंदी के अभियान चलाये थे. वहाँ से दर

शुभ प्रारम्भ

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नये वर्ष का प्रारम्भ इस वर्ष हमारे पुत्र मारको तुषार के विवाह से हुआ. विवाह की तैयारी करने के लिए हम लोग २५ दिसंबर को दिल्ली पहुँचे. उनका विवाह पहले सिख रीति से होना था, फिर हिंदू रीति से और दूसरे दिन हमने प्रीतिभोज का आयोजन किया था. बस इस सब की तैयारी में दिन कैसे बीत गये, पता ही नहीं चला. पिछले दिनों में जब मैंने इस विवाह के बारे में लिखा था तो आप में से बहुत लोगों ने शुभकामनाँए भैजी थीं. आप सब को बहुत बहुत धन्यवाद. आज प्रस्तुत हैं मारको तुषार एवं आत्मप्रभा के विभिन्न विवाह समारोहों की कुछ तस्वीरें, नये वर्ष के मंगलमय होने की मेरी शुभकामनाओं के साथ.